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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Sunday, June 30, 2013

श्री गोपीचन्दनाथ चम्पावती मिलापवर्णन

आप इस बात से परिचित हो चुके हैं कि श्रीज्वालेन्द्रनाथजी गोपीचन्द को बदरिकाश्रम में ले गये थे। साथ ही वे इसको क्यों और किस उद्देश्य से ले गये थे आप लोग इस बात से भी अविदित नहीं है। तथा इस बात से भी अविदित नहीं हैं कि गोपीचन्द प्रथमतः ही अयोगी नहीं था जिसके लिये दीक्षा प्रदान करने में ज्वालेन्द्रनाथजी का अधिक समय नष्ट होता। प्रत्युत वहतो प्रथमतः ही योगेन्द्र पद ’ पर पहुँच चुका था। उसका गुरु धारण कर शिक्षा लेना निमित्त मात्र था। अतएव वह थोड़े ही दिनों में ज्वालेन्द्रनाथजी के उपदेश को सार्थक कर उनकी अनल्प कृपा का पात्र बन गया। और गुरुजी के परामर्शानुसार स्वतन्त्र रूप से देशाटन करने लगा। उधर चम्पावती नाम की बहिन जो चीनाबंगाल में विवाही हुई थी गोपीचन्द का योगी हो जाना श्रवण कर इतनी अधिक क्लेशित हुई थी जिसने भोजन कम कर मरणा तक ठान लिया था और हा भ्रातः ! हा गोपीचन्द ! हा गोपीचन्द ! दिन-रात यही रटती रहती थी। उसके इस दुःख से दुःखी हुए उसके पति राजा साहिब का सब राज्य कार्य शिथिल होता जा रहा था। इसी हेतु से उसने अपने परम दुःख से सम्पूरित कई एक सूचनायें गोपीचन्द के पास भेज रखी थी। तथा उनके द्वारा उसने प्रार्थना की थी कि आप कृपाकर एक बार इधर आयें और मेरा कष्ट निवारण करें। यदि आप इस प्रार्थना की उपेक्षा करेंगे तो आप की बहिन, जो आपकी इस वेष स्वीकृति को सुन मारे क्लेश के अतीव कृश हो चुकी है, कुछ दिन में प्राण त्याग कर देगी। जिसके अनन्तर मेरा भी प्राण पक्षी के रूप को धारण कर बैठे तो कोई असम्भव बात नहीं है। इसीलिये आपको चाहिये कि शीघ्र इधर आ अपने दर्शन से हमको कृतार्थ करें। और अपने ऊपर पड़ने वाले इन दो मृत्युओं के भार से अपने आपको मुक्त करें। इस प्रकार की हृदय बिदारक सूचनाओं के मिलते रहने पर भी गोपीचन्दनाथजी ने ज्वालेन्द्रनाथजी की दीक्षा में अधुरा रहने के कारण उधर ध्यान नहीं दिया था। अब जबकि गुरुजी की शिक्षा से पारंगत हो स्वैर गति से भ्रमण करने लगे तब आपके उस बात का स्मरण हो आया। और अधिक देर तक के सोच विचार से आपने एक बार उधर जाना ही समुचित समझा। ठीक इसी मन्तव्य के अनुसार गोपीचन्दनाथजी ने चीना बंगाला की ओर प्रस्थान किया। जो कुछ दिन के अनवरत गमन से आप उस देश की राजधानी में पहुँचे। नगरी की कुछ दूरी पर एक तालाब के ऊपर आपने अपना आसन स्थिर किया, कुछ देर में भोजन का समय भी आ उपस्थित हुआ। यह देख हस्त में पात्र धारण कर अलक्ष्य पुरुष के नाम की घोषणा करते हुए आप नगर में प्रविष्ट हुए। और अन्यत्र क्षुधा पूर्ति करने के अनन्तर स्वकीया भगिनी चम्पावती के राजप्रासाद में पहुँचे। यहाँ बहिर भीतर जाने आने वाले कितने ही ऐसे पुरुष थे जिन्होंने राजकीय ठाठ से आपको एक बार देखा हुआ था। और उनको यह बात भी मालूम थी कि गोपीचन्द योगी हो चुका है। तथापि वे इस दूसरे रूप से आपका परिचय न पा सके। उन्हों का मन्तव्य था कि गोपीचन्द राजा है यदि वह योगी भी हो गया तो किसी अनूँठे ढंग से ही रहता होगा। न कि भिक्षुओं की तरह। अतएव इससे आपको अपनी इच्छा के अनुसार प्रासाद का प्रथम द्वार उल्लंघित करने का सुभीता तो मिला परन्तु अन्तःपुर की खास डोढी तक नहीं जाने पाये। द्वारी पुरुषों ने आपको उसी जगह खड़े रह कर याचनेय घोषणा करने की आज्ञा दी। जो अन्तःपुर में प्रविष्ट हो राणियों के श्रोतगत हुई। यह सुन कर रीत्यनुसार दासी भोजन के कर महल से नीचे आई। परं गोपीचन्दनाथजी ने उसकी भिक्षा को अस्वीकृत करते हुए कहा कि मैं तेरे हस्त की नहीं महाराणी के हस्त की भिक्षा ग्रहण कर सकता हूँ। उसने उत्तर दिया कि जब हम इस काम के करने वाली उपस्थित हैं जो इसी उद्देश्य से रखी हुई हैं और उसका वेतन खाती हैं तब उसको कौन जरूरत पड़ी जो वह स्वयं हमारे इस काम को करने के लिये तैयार होगी। इस वास्ते लो भिक्षा लो और अपने रास्ते लगो। आपने कहा कि उसको नीचे आने और भिक्षा देने की जरूरत नहीं है तो हमको तुम्हारे हस्त की लेने से भी कोई जरूरत नहीं है। यह सुन वह देखती रह गई। आप भिक्षा लिये बिना ही अपने आसन स्थान में आ विराजे। इसके अनन्तर अन्तिम दिन आया। और वही अवसर उपस्थित हुआ। आप फिर भिक्षार्थ नगर में गये। और अन्य जगह पर भोजन करने के बाद प्रासाद में पहुँचे। तथा उसी जगह पर स्थित हो आपने अलक्ष्य शब्दोच्चारण किया। जिसको श्रवण कर वही दासी भिक्षा ले नीचे उतरी। एवं आपके समर्पण करने को अग्रसर हुई। तत्काल ही फिर आपने कहा कि मैं महाराणी के अतिरिक्त किसी के हस्त की भिक्षा ग्रहण नहीं करूँगा। यदि वह आ कर भिक्षा प्रदान करे तो ठीक नहीं तो हम कल की तरह वापिस लौट जायेंगे। बांदी ने कहा कि महाराज ! खैर कल तो मैं इस बात को नहीं कहना चाहती थी परन्तु आज अवश्य कहूँगी कि आप मुझे यथार्थ नहीं कृत्रिम और योगी नाम को कहीं न कहीं कलंकित करने वाले योगी मालूम होते हैं। आपका मुख्योद्देश यदि क्षुधा पूर्ति के लिये भोजन लेने का है तो कोई भी दे उसमें आपको इतनी आपत्ति क्यों करनी चाहिये। प्रत्युत सादर ग्रहण कर अपने हार्दिक आशीर्वाद से दाता का उत्साह बढ़ाना चाहिये। इसके अतिरिक्त यदि भिक्षा के बहाने से राणी के विषय में ही किसी अनुचित व्यवहार के अनुष्ठान करने का उद्देश्य हो तो मेरे अनुमान में रत्ती भी झूठ नहीं है। तुम अवश्य जैसे मैंने बतलाये हो वैसे ही हो। भला कोई तुमसे पूछे कि राणी से तुम्हारा क्या प्रयोजन है और वहाँ यहाँ कैसे आ सकती है तो तुम क्या उत्तर दे सकते हो। यदि दे सकते हो और कोई खास कार्य है तो वह मुझसे ही कहो मैं उसके सम्मुख जा कहूँगी। जिससे तुमको यथार्थ उत्तर मिल जायेगा। यदि ऐसा कोई कार्य नहीं है और उसके न होने से कुछ उत्तर भी न दे सकोगे तो उसका फल यह होगा कि तुम्हें छùवेषी असभ्य मनुष्य समझ कर राजपुरुष कारागार में ठूँस देंगे। यह सुन गोपीचन्दनाथजी ने कहा कि खैर जो कुछ हो सो होता रहे हम भिक्षा तो उसी के हस्त की लेंगे। यदि वह आये तो बतलाओ नहीं तो हम जाते हैं। बांदी अच्छा जाओ यह कहती हुई महल पर चढ़ गई। इधर आप अपने आसन पर आ गये। परन्तु आपके इस दो दिन के खेलने दासी के चित्त में कुछ विचारणा उत्पन्न कर दी। इसीलिये उसने स्थिर किया कि इस विषय में कोई गूढ़ रहस्य छिपा हुआ जान पड़ता है। क्यों कि उस योगी के इस व्यवहार से तो मेरा अनुमान ठीक हो सकता है कि वह कोई वंचक होगा। परन्तु उसके शारीरिक समस्त दृश्यों से कोई असाधारण मनुष्य लक्षित होने से मेरा अनुमान अपने आप खण्डित हो जाता है। खैर जो भी कुछ हो मैं महारानीजी को इस वृत्तान्त से परिचित करूँगी। इस निश्चय के अनुसार सायंकाल के समय जब कि वह महाराणी चम्पावती की विशेष सेवा में उपस्थित हुई तब उसने दोनों दिनों का समाचार उससे कहा। दासी के ये अमृतायमान अक्षर सुनते ही चम्पावती ने सहसा चकित सी होकर कहा अये ! कभी भाई ही आ गया हो। देखना यह बात खूब याद रखना कि कल जब वह योगी आवे तब उसे प्रथम मुझ को दिखलाना। जब वह मेरे ही हस्त से भिक्षा लेना स्वीकार करता है तो अवश्य कुछ न कुछ विशेष बात है। इस पर दासी ने कहा कि उसकी शारीरिक कान्ति से तो मुझे ऐसा दीख पड़ता है कि शायद आपका ही अनुमान सच्चा निकलेगा। यदि वह अच्छे वस्त्र और आभूषणों से सज्जित हो जाय तो कहना ही क्या है, भस्मी रमायें ही इतना सुन्दर मालूम होता है जितने वस्त्रालंकार के सहित हमारे महाराजा भी नहीं हैं। यह सुन चम्पावती के अनुमान की और भी पुष्टि हो गई। वह अपने आभ्यन्तरिक भाव से ईश्वर को अनेक धन्यवाद देती हुई उससे, भगवन् ! ऐसी कृपा करना कि वह मेरा भाइ्र गोपीचन्द ही निकलें, ऐसी प्रार्थना करने लगी। तथा इतनी गौ दान करूँगी, इतना अमुक द्रव्य अमुक जगह पर लगाऊँगी, इतना अमुक जगह पुण्य करूँगी, इत्यादि संकल्प कर इच्छापूर्ति होने पर इस बात का स्मारक कोई चिन्ह स्थापित करने लगी। इस प्रकार कल्पित मोद-प्रमोद से उसने रात्री व्यतीत की। उधर धीरे-धीरे वह अवसर भी समीप आ गया, चम्पावती दासी के निर्देशानुसार गवाक्ष में बैठी हुई टकटकी लगाकर योगीजी के आने की प्रतीक्षा करने लगी। ठीक इसी समय अलक्ष्य शब्द का उच्चारण कर आप प्रासाद के आगण में आ कर खड़े हुए। उधर से चम्पावती की मृगनेत्री दृष्टि आपके ऊपर पड़ी। बस दृष्टि का पड़ना ही था उसने शीघ्र आज्ञा दी कि दासी जाओ प्रहरे वालों को इस वृत्तान्त से अवधानित कर उसे यहाँ बुला लाओ, वह मेरा प्रिय भ्राता गोपीचन्द ही है। बहुत अन्याय किया उस दिन से ही मुझे नहीं बतलाया। आज तीन रोज व्यतीत हो गये। वह क्षुधा से अत्यन्त बाधित हो गया होगा। अये भाई ! सहस्रों मनुष्य तेरी सेवा में उपस्थित रहते थे आज तेरी यह दशा तीन-तीन दिन भूखा ही रहता है। वह इत्यादि अनेक शब्दों का उद्घाटन करती हुई तड़फती रही। उधर दासी तत्काल नीचे उतर द्वारी पुरुषों को विज्ञापित कर गोपीचन्दनाथजी को अपनी साथ ले ऊपर पहुँची। आपको सम्मुख आते देखकर चम्पावती के लिये आज समस्त संसार, जो जलमय और शून्य दिखाई देता था, मंगलमय और सत्य प्रतीत होने लगा। जिसके दर्शनाभाव में वह अपने प्राणों को विसर्जित करने वाली थी आज उसे सम्मुख पाकर उसके मोहाग्नि विदग्ध हृदय को कुछ शान्ति प्राप्त करने का अवसर मिला। यह वह समय था जिसमें उसने अपने आपके विषय का, मैं क्या हूँ और कहाँ क्या कर रही हूँ, इत्यादि परिज्ञान विस्मृत कर दिया था। तथा वह आत्यन्तिक रोमांच दशानिष्ठ हुई दीन की तरह चेष्टा कर आपके गले से अवलम्बित हुई। चम्पावती का यह दृश्य बड़ा ही हृदय विदारक था। संसार के इतिहास में वास्तविक पुत्र प्रेम दिखलाकर जिस प्रकार मैनावती ने यशस्वी उच्चासन प्राप्त किया उसी प्रकार भ्रातृ प्रेम में चम्पावती का भी प्रथमासन समझना चाहिये। इस समय गोपीचन्दनाथजी के साथ मिलाप करते हुए उसने जो हृदय भेदी दृश्य उपस्थित किया है उसको सम्यक्तया प्रस्फुट कर मैं अपने प्रिय पाठकों का मर्म दुःखी करना नहीं चाहता हूँ। केवल इतना ही कहकर शान्त होता हूँ कि इसका भ्रातृप्रेम अत्यन्त श्लांघनीय और अद्वितीय था। इसमें यदि प्रमाण की आवश्यकता हो तो वह यही हो सकता है कि भ्रातृदर्शनाभाव मेें इसने अपने प्राण तक त्यागने का संकल्प कर लिया था। कर ही नहीं लिया था बल्कि उसको इस श्रीमती ने पूरा भी कर दिखलाया। जो कुछ ही देर में आप लोगों की दृष्टिगोचर होगा। ऐसा भ्रातृप्रेम आज पर्यन्त किसी अन्य ने भी किया हो यह भारतीय किसी इतिहास में नहीं पाया और सुना जाता है। रामायणादि से सूचित होता है कि रामचन्द्रजी के वियोग में भरत ने अपने आपको अत्यन्त क्लेश में डाल दिया था। और अपने शरीर को व्यर्थ तक बतलाया था। परं वह अपने प्राण खोने तक उद्यत हुआ हो वा खो बैठा हो ऐसा नहीं हुआ। (अस्तु) बहुत दिनों के अन्तरवरूद्ध प्रेमाश्रुओं के बहिर निकलने पर चम्पावती को कुछ कहने सुनने का साहस प्राप्त हुआ। उसने मोहाभिभूत विचार से कहा कि भ्रातः ! ये प्रवृद्ध शिरकेश, जो तुमको सुशोभित नहीं करते हैं कुछ कम कराकर स्नान करो। और अच्छे वस्त्र धारण करो। जिससे तुम्हारी आकृति राजकीय वास्तविक स्वरूप में परिणत हो। यह सुन आप कुछ मुस्करायें। एवं कहने लगे कि अब तो मेरा यही वास्तविक स्वरूप है। यदि मैं इसका परिवर्तन कर डालूँ तो संसार में वर्ण संकरता के दोष से लिप्त हो सकता हूँ। इसलिये यह स्वरूप तो मुझे सर्वथा रूचिकर होने के साथ-साथ यावज्जीवन धारण करने योग्य है। इसके हेतु से यदि बाह्य दृष्टि द्वारा मैं शोभित नहीं होता हूँ तो आन्तरिक दृष्टि द्वारा अवश्य शोभा पाऊँगा। चम्पावती ने सादर मुखावलोकन करती हुई ने कहा कि भाई यह विचार तुमको किसने सिखला दिया। भला हस्त में प्राप्त हुए मोदक को परे फैंककर अन्य के मिलने की आशा रखने वाले मनुष्य को संसार में कौन पुरुष सुबुद्धि बतलाने का साहस करेगा। प्रत्युत समस्त पुरुष उसे मन्दबुद्धि वा बुद्धिशून्य कहने को अग्रसर होंगे। ठीक यही दशा तुम्हारे मन्तव्य की है। तुम ईश्वरीय महती अनुकूल कृपा से उपलब्ध स्वर्गोपम खाद्यधार्य पदार्थों को अनंगीकार कर भस्मी आदि आभूषणों के द्वारा भी उच्च स्थान प्राप्त करने के भ्रम में पड़ गये हो। खैर मान लिया कि कोई मनुष्य सांसारिक अन्यथासिद्ध झगड़ों में विशेष समय व्यतीत न कर ईश्वरीयाराधन से अपने आपको अधिक पवित्र एवं गौरवशाली बनाना चाहता है तो क्या वह असभ्य खाने पहरने के द्वारा शीघ्र तथा अवश्य अपनी इस इच्छा की पूर्ति देख सकेगा, नहीं। प्रत्युत मेरी समझ में तो वह दयानिधान भगवान् के दिये हुए उत्तम पदार्थों में घृणाकर इस लोक में उपालभ्य हुआ पारलौकिक ईश्वरीय दरबार में अपने तिस्कृत होने का उपाय कर रहा है। और ईश्वर को प्रसादित करने के बदले असंतुष्ट कर रहा है। जबकि कोई भी मनुष्य अकिंचन हो बनोवासी हो गया तब उसके समीप ऐसी सामग्री ही क्या रह गई जिसके द्वारा वह प्रथम अपने चित्त को प्रसादित कर ईश्वर के प्रसन्न होने का सौभाग्य देख सकै। तुम ही सोचो और विचार करके देखो राजत्व प्राप्ति काल में तुम अपनी इच्छानुसार अनेक गौ तथा प्रभूत द्रव्य दान करते थे जिससे अनेक मनुष्यों की आत्मायें सन्तुष्ट होती थी। और सम्भव था कि इसी कृत्य से तुम जीवनभर में एक असाधारण गौरव गरीमा से युक्त हो जाते। क्यांे कि वही परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है। इनके प्रसन्न करने से उसकी प्रसन्नता अवशिष्ट नहीं रह जाती है। अतएव तुम्हारा भगवान् के चरणाविन्द से यदि अधिक प्रेम हो गया है। और अपनी राजधानी मंे नहीं रहना चाहते हो तो यहाँ रहो। ईश्वर की प्रसन्नतार्थ चाहो जितना दान पुण्य करो। अच्छे वस्त्राभूषण धारण कर शरीर को सुख दो। आपने कहा कि बहिन चम्पावति ! तू भूल रही है। अच्छा होता यदि तू माताजी के सकाश से कुछ वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लेती तो, जिससे तुझे सांसारिक व्यवहार विषय का अच्छा परिचय हो जाता। और साथ ही यह भी मालूम हो जाता कि ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये किन-किन सामग्रियों की आवश्यकता है। तुझे तो इतना ही मालूम और रूचिकर है कि दान, पुण्य से ईश्वर सन्तुष्ट होता है। परन्तु यथार्थ में यह बात नहीं है। कारण कि इससे मनुष्य का ऐहलौकिक उत्कर्ष बढ़ता है। यदि वह छोटा राजा हुआ तो विशेष दान-पुण्य से अग्रिम जन्म में कुछ बड़ा हो जायेगा। बड़ा होने पर भी अधिक दान किया तो मण्डलेश्वर बन जायेगा। इतना होने पर भी लम्बा चैड़ा हस्त फैंका तो स्वर्गवासी हो जायेगा बस अन्त आ गया। इससे आगे तो कहीं जाने की जगह ही नहीं है। बल्कि कुछ काल में वह पुण्य जब भोग द्वारा शान्त हो जायेगा तब क्रमशः वापिस ही लौटना पडेगा। जिससे अपने स्वर्गीय भोगों को हस्त से जाते देख उसको अकथीनय दुःख उठाना पडे+गा। बस दान पुण्य से होने वाली ईश्वरीय प्रसन्नता का यही मूल्य है। मैं नहीं चाहता कि मैं ईश्वर को ऐसे ढंग से प्रसन्न करूँ जिसकी प्रसन्नता का यही मूल्य है। मैं नहीं चाहता कि मैं ईश्वर को ऐसे ढंग से प्रसन्न करूँ जिसकी प्रसन्नता कुछ दिन आगे पीछे ऐसी ही दुःखदायिनी बनी रहै। किन्तु मैं इसी ढंग से, जिसका कि अवलम्बन कर चुका और कर रहा हूँ, उसको प्रसन्न करना समुचित समझता हूँ। इसके अतिरिक्त दान-पुण्य से होने वाली ईश्वरीय प्रसन्नता का लोगों को जो अभिमान होता है वह भ्रमात्मक है। यथार्थ में वह प्रसन्नता कहलाने योग्य नहीं है। कारण कि यह भी एक ईश्वरीय नियम है जो मनुष्य जिसे वस्तु का ’ दान करता है उसकी वह वस्तु अथवा उसके अनुकूल अन्य वस्तु द्विगुणी चतुर्गुणी हो उस मनुष्य को उसी वा अग्रिम जन्म में वापिस आकर प्राप्त होती है। जिससे वह मनुष्य सांसारिक दृष्टि से विशेष सत्कार पाता है। उसको प्रभूत धन, द्रव्य का स्वामी समझ कर भाग्यशाली बतलाते हुए लोग यह भी कह डालते हैं कि इसके ऊपर ईश्वर प्रसन्न है। परं ध्यान रखना ऐसा कहने वाले भूल करते हैं। ईश्वर की प्रसन्नता मनुष्यों की तरह कुछ काल में क्या से क्या हो जाने वाली अथवा किम्प्रयोजन नहीं है। जिसको लोग ईश्वरीय प्रसन्नता का पात्र बतालते हैं वह सदा लक्ष्मी का भाग नहीं करता है। क्यों कि इसका तो नाम ही चंचला है। सर्वदा एकत्र स्थित नहीं करती है। फिर क्यों ऐसा क्यों हुआ।  ईश्वर के प्रसन्न होने पर भी उस मनुष्य की यह दशा हुई तो इस प्रसन्नता को मनुष्यों जैसी और निष्फल मानना पड़ेगा। जो सर्वथा अनुचित है। अतएव उसे इस निष्फलत्व दोष से मुक्त करने के लिये यही स्वीकार करना चाहिये कि उक्त कृत्यों से ईश्वर मनुष्य के ऊपर प्रसन्न नहीं होता है। तो फिर किस ढंग से मनुष्य के ऊपर वह प्रसन्न होता है और उसकी वह प्रसन्नता कैसी होती है यदि यह पूछना चाहो तो मैं यह उत्तर दे सकता हूँ कि जिस ढंग को मैंने अवलम्बित किया है इससे होता है। अर्थात् जो मनुष्य मेरी तरह सर्व त्यागी होकर सांसारिक भोग्य विषयों की ओर से इन्द्रियों का निरोध करता हुआ गुरु द्वारा उपलब्ध की विधि के अनुसार समाधिनिष्ट हो उसमें और अपने में अभेद उपस्थित करना चाहता है उस मनुष्य पर ईश्वर प्रसन्न होता है। और प्रसन्न होता हुआ उसको अन्य कुछ न दे अपना स्वरूप ही प्रदान करता है। जिसको प्राप्त हो मनुष्य संज्ञक जीवात्मा उसमें इस प्रकार लीन हो जाता है जिस प्रकार जल में लवण हुआ करता है। बस यही ईश्वर की यथार्थ प्रसन्नता है। जिसके प्राप्त होने पर फिर कभी मनुष्य नामक जीवात्मा को सांसारिक दुर्दशा नहीं देखनी पड़ती है। रह गई तुम्हारी मेरे अकिंचन होकर वनोवासी होने की बात, यह तुम्हारा कहना झूठ नहीं मैं अवश्य बन पर्वनवासी हूँ। और मुझे रहना भी वैसी ही जगह रूचिकर है। क्यों कि मेरा कार्य ही ऐसा है जो ऐसे ऐकान्तिक स्थान की अपेक्षा रखता है। परं मुझे अकिंचन समझना सत्य नहीं है। हाँ इतना अवश्य है कि बाह्य दृष्टि से लोगों को मैं अकिंचन अर्थात् निर्धन मालूम हेाता हूँगा। तथापि वे आभ्यन्तरिक दृष्टि से देखें वा मुझे ही कोई पूछै तो मैं कभी अपने को निर्धन नहीं बतला सकता हूँ। क्यों कि उन द्रष्टा लोगों के पास तो शायद लौकिक ही धन की आवश्यकता हो और इस विषय में मुझे परीक्षित करना चाहता हो तो हमारा अनुयायी बने। और देखे कि मेरे कथन में सत्यता की कितनी मात्रायें हैं। इसके अतिरिक्त यदि लौकिक धन की आवश्यकता हो तो अभी मैं दे सकता हूँ तुम्हें चाहिये तो मांगो और निश्चय करो कि मैं तुम्हारे मन्तव्य के अनुकूल दरिद्री बन गया अथवा सब कुछ भरपूर बन गया हूँ। यह सुन चम्पावती आभयन्तरिक भाव से अत्यन्त प्रसन्न हुई। और मनन करने लगी कि भाई सचमुच यदि इस पद पर पहुँच चुका है तो यह कहने का प्रयोजन नहीं कि इसने राज्यपाठ का परित्याग करके योग मार्ग का अवलम्बन करने में प्रमत्ता की है। प्रत्युत वह कार्य किया है जिससे यह दोनों लोकों में सत्कार की दृष्टि से देखा जायेगा। तथापि मुझे चाहिये कि मैं इसकी सिद्धि का परिचय लूँ। जिससे दो वार्ताओं का लाभ होगा। प्रथम मेरे सन्दिग्ध चित्त को निश्चयता प्राप्त होगी। द्वितीय सिद्धि प्रत्यक्ष होने पर लोगों में विस्तृत होने वाली इसकी कीर्ति के साथ-साथ मैं भी गौरव गरीमा से वंचित न रहूँगी। इसी विचारपूर्वक उसने कहा कि अच्छा भाई यदि यही बात है तो खैर मैं तुम्हारा अलौकिक धन तो नहीं देख सकती हूँ परन्तु लौकिक दिखलाओ तुम्हारे पास कहाँ और कितना धन है। क्यों कि मैं तो इसी बात से अधिक दुःखी रहती हूँ कि जिस मेरे भाई के सहस्रों मनुष्य सेवा करने वाले हर एक समय सम्मुख खड़े रहते थे। जिसके अपरिमित धन, द्रव्य हस्तगत था, आज उसकी यह दशा, उतने सेवक तो दूर रहे पास में पैसा तक खाने के नहीं। अतएव तुम्हारा धन देखने से मेरी यह दुःखदायक झूठी कल्पना दूर हो जायेगी। जिससे मेरा चित्त धैर्यावलम्बन कर फिर कभी मुझे इस भ्रम मूलक दुःख में नियुक्त न करेगा। आपने चम्पावती के कथन की समाप्ति होते ही गुरुपलब्ध मन्त्र के जापपर्वूक कुछ भस्म संशोधित की। और चम्पावती से कहा कि जितने धन की जरूरत हो उतनी ही इष्ट का वा पाषाणखण्ड मंगाओ। उसने शीघ्र अभिलषित परिमाण का पत्थर मंगाकर आपके समर्पण किया। इधर आप भस्म संधान किये तैयार खड़े ही थे। उसको विलम्ब से उसके ऊपर प्रयोगित किया। बस क्या था पत्थर का असह्य दीप्तिमान सुवर्ण बन गया। यह दिखलाने के साथ ही आपने कहा कि बहिन चम्पावती, तुम समझ लो बस यही धन हमारे पास है। और थोड़ा नहीं बहुत है। जिसका हम चाहें तो प्रतिदिन अमित दान कर सकते हैं। परं हमको तो इसमें अपना कोई खास लाभ नहीं दीख पड़ता है। यदि यह धन प्रदान कर किसी को धनाढ्य बना दें तो वह अधिक इन्द्रियारामी हो अनर्थ करने पर उतर पड़ेगा। जिससे उसकी और दाता मेरी दोनों की ही हानि सम्मुख खड़ी दिखलाई देती है। इस वास्ते इस धन के होने पर भी हमारे पास इसके व्यय करने की कोई विधि नहीं है। रह गई अपने शरीर की बात। इसके लिये हमको पैसे तक की आवश्यकता नहीं केवल दो रोटी चाहती हैं, वे ही जहाँ जाता हूँ तैयार मिलती हैं। अतः लौकिक धन के किम्प्रयोजन होने से मुझे अलौकिक धन से ही अधिक प्रयोजन है, जिसमें कुछ निपुणता प्राप्त कर चुकने पर भी अभी और परिश्रम करना है। यह सुन तथा सुवर्ण देख चम्पावती की आभ्यन्तरिक प्रसन्नता और भी उन्नत हो गई। और गदगद हो उसने कहा अच्छा भाइ्र सब वार्तायें पीछे देखी जायेंगी भोजन तैयार हो गया प्रथम उसे ग्रहण कर लो। आपने भोजन किया और उससे निवृत्त हो बैठे ही थे। इतने ही में राजा साहिब ने आपके आगमन से परिचित हो बुलाने के लिये जो अपने खास मनुष्य को भेजा था उसने उपस्थित हो आपकी अभ्यर्थना करते हुए कहा कि भगवन्! महाराजा साहिब के प्रासाद में अपनी चरणरज मुक्त करने की कृपा कीजिये। यह सुन आप उसके साथ वहाँ गये। आगे आपके स्वागतार्थ उसने उचित कृत्य का अनुष्ठान किया हुआ था। अतः आपको हाथों हाथ उठाकर सादर सिंहासन पर विराजित करते हुए राजा ने कहा कि महाराज ! कई एक सूचनाओं के निष्फल होने से मेरा चित्त खिन्न हो गया था। परन्तु यह विश्वास नहीं हुआ था कि आप नहीं आयेंगे। क्यों कि मेरा यह निश्चय है कि महात्माओं का हृदय इतना कठोर नहीं होता है जो किसी उद्देश्य से अपने विषय में उत्पन्न होने वाली किसी की अत्युत्कण्ठता पर धूलि डाल दें। आपके इधर कृपा दृष्टि पतन से ठीक हुआ कि मेरा यह निश्चय यथार्थ निकला। आपने कहा कि यह सत्य है आराध्य को कुछ आगे पीछे आराधक की आवाज को अवश्य सुनना पड़ता है। तथापि आराधक को चाहिये कि वह योग्य कार्य के लिये आराध्य का आव्हान करे। आपके और चम्पावती के द्वारा मेरा बुलाया जाना किसी पारमार्थिक उद्देश्य से नहीं मोह निमित्तक है। ऐसे आज्ञानिक आव्हान से उभय पक्ष में हानि की सम्भावना है। स्त्री जाति का हृदय प्रायः अधीर होने के कारण मैं चम्पावती को दोष देना नहीं चाहता हूँ तथापि आपको उचित था स्वयं उसका अनुकरण न करते हुए उसको किसी न किसी विचार से धैर्यान्वित कर देते। जिससे मेरा यह समय और किसी शुभकार्य में व्यतीत होता। राजा ने कहा कि महाराज ! मैं आपके कथन को सत्य समझता हुआ उसमें श्रद्धा प्रकट करता हूँ। तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि मैंने उसके समझाने में कोई बात उठा रखी हो। मैंने तो यहाँ तक कह सुनाया था कि माता के लिये पुत्र से अन्य संसार में कोई भी वस्तु प्रिय नहीं होती है। अतः जब उसकी माताजी ने ही उसको उधर प्रेरित किया हैतो उसके लिये कोई खतरे की बात नहीं है। वह अवश्य किसी कीर्ति विस्तारक मार्ग की प्राप्ति करेगा। इसलिये तुमको विशेष चिन्ता नहीं करनी चाहिये। परं मेरे इस कथन का उसके ऊपर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। और वह अपनी रटना में निरन्तर लगी ही रही। जिसका फल स्वरूप आपको अपना कार्य छोड़ आज यहाँ स्वयं उपस्थित होना पड़ा है। यों तो आपके कथनानुसार मोहपाश मैं भी खुला नहीं हूँ। सांसारिक सम्बन्धाकूल आप में इतना मोह रखता हूँ जितना कि मुझे रखना चाहिये तथापि वह ऐसा नहीं कि आपके अभीष्ट प्रद मार्ग में कुछ विघ्न उपस्थित करें। क्यों कि मैं जहाँ इतना मोह रखता हूँ वहाँ साथ में यह निश्चय भी रखता हूँ कि कोई भी मनुष्य हो जिसका चित्त सांसारिक व्यवहार से घृणित होकर योग की ओर उत्कण्ठित हो गया हो वह मनुष्य उस पद पर पहुँचने वाला है जिसके आगे राज्यसाम्राज्य एक तुच्छ वस्तु प्रतीत होते हैं। फिर ऐसे स्थान में जाते हुए मनुष्य के मार्ग में विघ्न डालकर कौन ऐसा पुरुष है जो अनर्थकारी हुआ भी अपनी मन्दबुद्धि एवं अदूरदर्शिता का परिचय देगा। किन्तु कभी नहीं। बस यही विचारकर मोहपाशबद्ध हुआ भी मैं स्वयं तो आपके आव्हान का कारण नहीं बना परं उसके असाधारण दुःख से विवश हो मुझे सूचना भेजनी पड़ी। इत्यादि अनेक प्रकार की पारस्परिक वार्तायें करने के अनन्तर आप राजा के महल से प्रस्थानित हो फिर चम्पावती के पास गये। और उसको अपने आसन पर जाने के विषय में सूचित किया। अधिक क्या आपने अपने प्रासाद में ही निवास करने के लिये चम्पावती ने अत्यन्त बाध्य किया ! तथापि उसकी आशा पूर्ण न हुई। और आप अपने आसन पर जो कि नगर से कुछ दूरी पर था, चले गये। इसी प्रकार प्रतिदिन आते और भोजन करने के पश्चात् कुछ देर के वार्तालाप से चम्पावती के चित्त को धैर्यान्वित करके आसन पर चले जाते थे। कुछ दिन के अनन्तर आपने यहाँ से अन्यत्र चलना चाहा और इस वृत्त से चम्पावती को सूचित किया। अधिक क्या उसने आपके वहीं रखने के लिये महाप्रयत्न किया। तथा कहा कि भाई जब तुम्हारे में इतनी योग्यता प्राप्त हो गई तो अब देश प्रदेश वन पर्वतों में फिरने से क्या फायदा है। यहीं रहो और जिस प्रकार का कोई अनुष्ठान करना हो करो। ऐसा करने से तुम्हारे अभीष्ट कृत्य में कुछ भी बाधा न पड़ेगी। और मुझे तुम्हारे दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त रहेगा। परं आप उसकी इस उक्ति की उपेक्षा कर प्रस्थान करने का निश्चय कर ही बैठे। अब तो चम्पावती के पैरों के नीचे की भूमि निकलने लगी। अधिक क्या उससे गोपीचन्दनाथजी का वियोग सहा नहीं गया। और अनेक श्वास प्रश्वास लेने के अनन्तर एक दीर्घ श्वास ले अश्रुपात के साथ-साथ उसने अपने प्राणवायु को शरीर से बहिर किया। यह सूचना बड़ी शीघ्रता के साथ राजप्रासाद में पहुँची। जिस श्रवण कर राजा का वायु कण्ठका कण्ठ में ही रह गया। तथा अत्यन्त क्लेशित हुआ सोचने लगा कि बड़ा ही अनर्थ हुआ। सत्य कहा है भावी समीप से नहीं जाती है। हमको जिस बात का महा भय था आखिर वही होकर रहा। इत्यादि अनेक दैन्य वाक्यों को स्मृत कर वह महात्माजी के पास आया। तथा चम्पावती का समस्त समाचार उसने आपको सुनाया। यह सुनकर आपका भी चित्त खिन्न हो उठा। और कहा कि देखो ईश्वर की कैसी विचित्र गति है। मुझे वहाँ बुलाया किसलिये गया था और हो बैठा क्या। खैर जो भी कुछ हो विशेष चिन्ता का विषय नहीं है। इस प्रकार राजा को कुछ धैर्य देते हुए आप महल में गये। और संजीवनी विद्या के प्रभाव से चम्पावती को तादवस्थ्य बनाकर उसे अनेक विधि से समझाया। परं उसने आपके समस्त प्रयत्न की उपेक्षा कर स्त्री हठ का अच्छा परिचय दिया। और आपके चले जाने पर जीवित रहने से मरना ही पसन्द किया। अन्ततः विवश हो आपने उसको एक विधि शिखलाई। तथा कहा कि जब कभी तुम हमारे दर्शन की इच्छा करोगी और इस विधि का अनुष्ठान करोगी तभी हम उपस्थित हो जायेंगे। खैर वह भी इस रीति से किसी प्रकार सन्तुष्ट हो गई जिससे उपस्थित जनता के सत्कार पर आशीर्वाद प्रयुक्त कर आप वहाँ से प्रस्थानित हुए।

इति श्री गोपीचन्दनाथ चम्पावती मिलापवर्णन ।

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