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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Wednesday, June 26, 2013

श्री भर्तृनाथ उज्जयिन्यागमन वर्णन

आपको विदित किया जाता है कि उज्जयिनी के महाराज श्री भर्तृजी के योगी हो जाने पर यथार्थ राजा विक्रम ने फिर अपने राज्यभार को स्वकीय बाहुबल पर धारण किया। वह महानुभाव बड़ा ही चतुर एवं तेजस्वी पुरुष था। उसने अपने दिनों दिन के अत्यन्त नैतिक एवं पाराक्रमिक कार्यों द्वारा प्रजा को बहुत रंजित कर डाला था। उसकी आन्तरिक अभिमति थी कि संसार में या तो विरक्त हो केवल भगवदाराधन से ही समय व्यतीत करना चाहिये। अन्यथा, इसके भोगों की ओर ही यदि मनुष्य झुकना चाहें तो वह ऐसा प्रयत्न करें जिससे ऐसे भोग अवशिष्ट न रह जायें जो उसकी उपलब्धि से बहिर हों। और उनमें लालायित उस मनुष्य की, द्विविधा में दोनों गये माया मिली न राम, वाली कहावत चरितार्थ हो। ठीक इसी अभिमत के अनुकूल उसने भारत सम्राट् बनने की अभिलाषा से हस्त में खड्ग धारण कर अनेक राजा महाराजाओं को अपने चरणों की ओर झुला लिया। जिन्होंने समय का परिवर्तन देख अगत्या यह बात स्वीकार एवं उद्घोषित करनी पड़ी कि अवश्य महाराजा विक्रम हमारे शिर के मुकुट एवं भारत के सम्राट् हैं। अब तो विक्रम अपने आपको कृतकृत्य समझता हुआ फूला न समाया। तथा विजय लक्ष्मी के साथ क्रीड़ा करता हुआ अपने अदृष्ट के सानुकूल होने का निश्चय करने लगा। और उज्जयिनी से सुदूरवर्ती पराजित पराजित प्रदेशों का बड़ी शीघ्रता एवं योग्यता के साथ अनुकूल प्रबन्ध करने के कारण अपनी अपूर्व राजनैतिक पताका परिचय दे वापिस लौट आया। परं इतना होने पर भी उसकी आशा लता पूर्णतया हरित न हुई। वह और भी यशरूपी जलीय दान के द्वारा अपना अधिक उत्कर्ष देखना चाहता था। अतएव विवश हो विक्रम ने अपनी आशा की पूत्त्र्यर्थ एक सभा की स्थापना कर उसमें महायज्ञ रचने की घोषणा की। जिसमें उपस्थित समस्त सभ्य पुरुषों की स्वीकृति प्रकट हुई और तदनुकूल समग्र सामग्री भी संचित होने लगी। कुछ ही दिन में सब प्रबन्ध ठीक हो गया। यह प्रबन्ध जैसा और जिस रीति से हुआ था वह सर्वथा वर्णन करने योग्य है। परं मैं उसका विस्तार कर पाठकों का अधिक समय खर्च कराना समुचित नहीं समझता हूँ। कारण कि इस बात को आप स्वयं विचार सकते हैं जब कि महाराजा विक्रम मण्डलेश्वर के स्थान को प्राप्त हो चुके थे तब ऐसी कौन वस्तु थी जो यज्ञ की साधक होती हुई उसको उपलब्ध न होती। अतएव वह जितने महत्पद पर पहुँच चुका था उतना ही बड़ा और प्रशंसनीय उसका प्रबन्ध थी। जिसके ऊपर सम्यक् दृष्टि डालते हुए हम साभिमान यह कह सकते हैं कि आर्यवर्त में वह अपनी अन्तिम अवधि स्थापित कर गया है। तदनन्तर यज्ञार्थ होने वाले वैसे प्रबन्ध का आज पर्यन्त भी भारत को मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। और न यही कह सकते हैं कि भविष्य में कभी होगा। (अस्तु) यज्ञ प्रबन्ध के साथ-साथ विक्रम ने अपनी उचित सहायता के लिये भर्तृनाथजी का बुलाना निश्चित कर उनके निवासार्थ एक पाषाण गुहा का निर्माण कराया। इत्यादि आवश्यकीय समस्त कार्य सम्पूर्ण होने पर उसने इधर स्वाधीनस्थ समग्र राजाओं को निमन्त्रित किया तो उधर भर्तृनाथजी के समीप इस वृत्तान्त सन्देश के सहित अपना एक वाहक भेजा। यह सूचना पहुँचते ही जब अनेक राजा लोग अपने-अपने विचित्र साज से सज्जित हो उज्जयिनी में आ आकर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे तब ऐसे ही अवसर पर इधर से भर्तृनाथजी भी आ पहुँचे। परं आपका आगमन अप्रसिद्ध था। और वह आपकी इच्छा से ही हुआ था। सन्देश वाहक मनुष्य के समीप पहुँचने पर उसके साथ आना आपने अस्वीकृत किया। एवं उसके पीछे आना भी उचित न समझा। प्रत्युत उसको, तुम चले हम अवश्य वहाँ उपस्थित होंगे, यह आज्ञा प्रदान कर किसी उपाय से उससे बहुत पहले आ गये। इधर किसी सभा के परामर्श से विक्रम ने आपको नहीं बुलाया था। इसी हेतु से विक्रम और सन्देश वाहक के अतिरिक्त लोगों को आपके आगमन का परिचय नहीं था। यही कारण हुआ नगर में प्रविष्ट होने पर आपके वेष की अनुकूलता के अतिरिक्त किसी ने अनंूठे ढंग से आपके साथ स्वागतिक व्यवहार नहीं किया। यह देख आप बड़े प्रसन्न हुए। और विरक्ति ठाठ के अनुकूल हस्त मंे पात्र लिये अप्रतिहत गति से राज प्रासाद में पहुँचे। तथा प्रथम विक्रम की माता और अपनी उपमाता के द्वार पर प्राप्त हो आपने अलक्ष्य पुरुष के नाम की ध्वनि की। यह सुन वह अपने गार्हस्थ्य धर्मानुसार अतिथि सत्कार के लिये स्वोचित भिक्षा ले स्वयं सम्मुख हुई। और भर्तृनाथजी के समस्त दृश्य देखकर शंकित हुई अपने हृदय में अनेक संकल्प-विकल्प उठाने लगी। और वह चाहती थी कि मैं इस बात का निर्णय कर, यदि सचमुच यह भर्तृ निकला तो आज फिर बहुत दिन के बाद इसे अपने औरसिक स्पर्श से स्पर्शित कर कुछ प्रेम की मात्राओं को, जो मेरे हृदयागार में उदय हो चुकी है, चरितार्थ करूँगी। परन्तु यह उसकी अभिलाषा मन की मन में ही रह गई। क्यों कि आपने बड़ी शीघ्रता के साथ भिक्षा में से कुछ प्रयोजनीय वस्तु उठाकर वहाँ से प्रस्थान किया। एवं यज्ञोपलक्ष्य में आई हुई भगिनी मैनावती के द्वार पर प्राप्त हो फिर उसी शब्द की घोषणा की। वह भी उसी प्रकार भिक्षा के सहित स्वयं उपस्थित हुई। और जब कि वह कुछ कदम की दूरी पर थी उसने वहीं से भर्तृनाथजी का मुखावलोकन कर अनुमान किया कि मालूम होता है यह मेरा भाई भर्तृ है। इसी उपलक्ष्य में भाई विक्रम के निमन्त्रण से अथवा अपनी इच्छा से इधर आ निकला है। अतएव उसने इस अनुमान के निश्चयार्थ भिक्षा समर्पण करते-करते पूछा कि महाराज ! आपका नाम क्या है। क्यों कि इस अवसर पर मेरे हृदय में एक बड़ा भारी सन्देह उत्पन्न हुआ है। वह आपके शुभाक्षरान्वित नाम के श्रवण मात्र से हल हो सकेगा। इसलिये कृपा करें और अवश्य बतलावें। यह सुन उसे चक्र में डालने के लिये आपने कहा कि तुम जिस अभिप्राय से मेरा नाम पूछती हो उसको मैं समझ गया हूँ। भर्तृनामक यहाँ का राजा जो योगी हो गया है वह हमारा ही गुरुभाई बना है। जो शारीरिक दृश्य में कुछ-कुछ मेरी समता रखता है। मालूम होता है हमको देखकर आपके उसकी स्मृति होने के कारण कुछ मोह जागरित हुआ है। और इस अनुमान से, कि सम्भव है यह वही हो, आपने मेरा नाम पूछकर उसका निर्णय करना चाहा है परं सन्तोष कीजिये न तो कोई हमारा कभी नाम पूछता है। और न गृहस्थ के लिये साधु का नाम पूछना उचित है। यही कारण है हमको अपने नाम बतलाने का अभ्यास नहीं है। हम अपने आपको जिस प्रकार योगी समझते आ रहे हैं उसी प्रकार सांसारिक लोग भी हमको योगी शब्द से व्यवहृत करते चले आते हैं हाँ इतना अवश्य है उसके उद्देश्य से जो आपके हृदय में मोह की धारा प्रवाहित हो गई हैं ये व्यर्थ न होगी आज ही सायंकाल तक अथवा कल अवश्य वह भी यहाँ आने वाला है इस बात का मुझे निश्चयात्मक परिचय है, यह कहते ही आप यहाँ से अग्रसर हुए। और अपनी परित्यक्त राणियों के द्वार पर स्थित हो आपने अपने अलक्ष्य शब्द को उनके श्रोतों तक पहुँचाया। वे श्रीमती अपने प्रसाद के समीप से आते जाते योगियों के विषय में सदा यह अभिलाषा रखती थी कि यह महानुभाव भिक्षार्थ हमारे महल में आयें तो हम इसको उचित भोजन से सत्कृत कर पति के विषय की कुछ बातें पूछेंगी कि आपको मालूम हो आजकल वे कहाँ किस दशा मंे और क्या किया करते हैं। परं क्षुधा पूत्त्र्यर्थ दो रोटी के लिये कौन योगी ऐसा था जो राजमहल में जाता। यही कारण था आज पर्यन्त उनकी उक्त अभिलाषा कभी पूरी न हुई थी। आज अकस्मात् महल में आये योगी की आवाज श्रोत्रगत हुई। अतएव अत्यन्त उत्सुकता के साथ समस्त राणी योग्य पदार्थों से अपना-अपना पात्र सम्पूरित कर आपकी ओर दौड़ पड़ी। दौड़ ही नहीं पड़ी बल्कि जिसका समाचार पूछने के लिये उत्कण्ठित थी उसी का लक्षण देख रौमांचिक दशा में प्रविष्ट हुई। तथा अनवरत दृष्टि से आपकी तरफ अवलोकन करती हुई मुख से शब्दोच्चारण न कर सकी। और इस अभिप्राय से, कि यह शीघ्र न चला जाय, आपके चैं तरफ खड़ी हो गई। यह देखने के साथ-साथ आपके हृदयात्मक सरोवर में इस प्रकार की कल्पनात्मक तरंगायें उठने लगी कि अति सामीप्य व्यवहार कारण से मनुष्य का परिचय जितना उसकी स्त्री को हो जाता है उतना उसके अन्य सम्बन्धियों को होना दुष्कर है। अतएव जिस कारण से ये ऐसा व्यवहार कर रही हैं इससे मालूम होता है इन्होंने मेरा परिचय पा लिया है। इतने ही में राणी यह स्थिर कर, कि निश्चय कर लेना उचित है, ऐसा न हो कभी अन्त में धोखा निकलने के कारण हमें लज्जित होना पड़े, आप से प्रार्थना करने लगी कि महात्माजी ! जो यहाँ के महाराजा योगी हो गये हैं आप उनके परिचित हैं। यदि है तो क्या आप उनके विषय की कोई खुश-खबरी सुनाने की कृपा करेंगे। यह श्रवण करने के साथ-साथ ही नाथजी का चित्त ठिकाने आया। और उन्होंने निश्चय कर लिया कि खैर जो समझ लिया था वैसी बात तो नहीं है। परं सम्भव है अधिक वार्तालाप से यह रहस्य खुल जाय। इसीलिये आपने उनको शीघ्रता के साथ, हाँ मैं उनको बुला भेजा है, इस कारण से वे आज कल में यहीं आने वाले हैं, यह उत्तर प्रदान कर वहाँ से प्रस्थान किया। इधर आपके दर्शन पिपासु राणियों के नेत्र तथा चित्त पूर्ण रीति से सन्तुष्टतान्वित न हुए। राणियों की अन्तरिच्छा तो यहाँ तक थी कि महात्माजी यहीं बैठ कर भोजन करें तो सौभाग्य की बात है। ऐसा करने से हमको कुछ देर इनके दर्शन और पति के सुख समाचार पूछने का अवसर मिल सकेगा। परन्तु भिक्षा में से कुछ अंश ग्रहण कर आपके शीघ्र गमन करने से उनकी यह अभिलाषात्मक तरंग उनके हृदयात्मक सरोवर में ही विलीन हो गई। और कुछ क्षण के लिये उनके अत्यन्त निराशा उत्पन्न हुई। एवं वे एकत्रित हुई परस्पर में अनेक भावों का उद्धार कर एक दूसरी को कहने लगी भगिनि ! मुझे तो ऐसा विश्वास होता है हमारे स्वामी आप ही थे। यदि ईश्वरीय सानुकूल इच्छा से मेरा यह विश्वास सत्य निकला तो यह कहने का प्रयोजन नहीं कि हम हतभागिनी हैं। क्यों कि इनके मुख कमल की असह्य कान्ति से यह सहज में ही जाना जा सकता है कि योग के विषय में इन्होंने असाधारण कुशलता प्राप्त की है। जिससे ये चाहेंगे और सांसारिक चक्र में न पड़कर अपने मार्ग में अग्रसर होने का कुछ भी प्रयत्न करेंगे तो संसार में अपनी अक्षुण्ण कीर्ति स्थापित कर सकंेगे। अतएव जिनका पति इस पद पर पहुँच चुका हो उन स्त्रियों के लिये यह कम सौभाग्य की बात नहीं हैं। यह सुन दूसरी उत्तर देती थी कि हाँ बहिन यदि ऐसा हो तो हम ईश्वर के महान् अनुग्रह पर कृतज्ञता प्रकट कर अपने आप को धन्य समझ सकती हैं। परं सन्देह यह है कि जिनके मर्मस्थान में पिंगला ने इतना बड़ा आघात पहुँचा दिया था कि उसे सहन न कर उन्होंने अपने प्राणों तक के त्यागने का संकल्प कर छोड़ा था, वे उस आघात का विस्मरण कर योग क्रियाओं में दत्तचित्त हो जायें ऐसा सम्भव कहाँ। बल्कि सम्भव है वे अब तक कहीं न कहीं उसी वियोग से इस लोक की यात्रा समाप्त कर बैठे होंगे। इसके प्रत्युत्तर में फिर प्राथमिक कहती थी कि हाँ यह अवश्य है पिंगला का वियोग उनके लिये साधारण नहीं था। और सम्भव था कि कुछ दिन में हमारे देखते-देखते वे अपने नश्वर शरीर की अन्तिम दशा उपस्थित कर बैठते। परं उनको महात्मा गोरक्षनाथ जैसी योग मूर्ति का संसर्ग प्राप्त हुआ यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है। साथ ही हमको यह विश्वास भी है कि उन्होंने उस दशा का परित्याग कर अवश्य कुछ न कुछ औत्कर्षिक वृत्तान्त का आश्रय लिया होगा। कारण कि गोरक्षनाथजी कोई साधारण योगी नहीं हैं। सुना जाता है विश्व संहर्ता भगवान् महादेवजी की कलाओं का ही पंूच स्वरूप हैं। अतएव उनका प्रयोगित किया हुआ उपदेश कभी निष्फल नहीं हो सकता है। मान लो कि उस वियोग से उन्होंने अपने प्राण विसर्जित कर भी दिये हो तो भी उनका मरना निश्चित नहीं करना चाहिये। जबकि पति महाराज को जीवित रहते हुओं को उन्होंने अपना आश्रय दिया है तब यह सम्भव नहीं कि वे उन्हें इस कलंककारी मृत्यु से मरने देकर अपने संसर्ग एवं उपदेश की किम्प्रयोजनता देखते रहें। तथा संसार में विस्तृत होने वाली स्वकीय अपकीर्ति का किंचित् भी विचार न करें। अतः उन्होंने अपनी संजीवनी विद्या के प्रताप से उनको फिर तादृश अवस्था में स्थापित किया होगा। ऐसा करना न तो उनके लिये कोई असाध्य बात है और न इसमें हमकों कुछ सन्देह ही होता है। जिन्होंने एक की आवश्यकता में अनेक पिंगलाओं को रचकर सम्मुख खड़ा कर दिया था उनके लिये उस एक व्यक्ति का सजीव करना बड़ी बात नहीं है। इतना होने पर भी जो यथार्थ बात है वह इस यज्ञोपलक्ष्य में प्रकट हो जायेगी। यदि वे सचमुच सजीव हैं और इन महात्माजी के कथनानुसार महाराजा साहिब ने उनके आव्हानार्थ सूचना भेजी है तो प्रथम तो वे अवश्य यहाँ आ ही जायेंगे। दूसरे न भी आये और सजीव होंगे अथवा स्वर्गवासी ही हो गये होंगे तो सुदूरवर्ती प्रत्येक प्रान्तों से आने वाले इस वृत्तान्त के परिचित किसी न किसी मनुष्य के द्वारा यह पता अवश्य मिल जायेगा कि उन्होंने कहाँ और कब शरीर छोड़ा। ठीक इसी समय जब कि राणी परस्पर में अपनी-अपनी इत्यादि कल्पानायें कर रही थी तब शिप्रा पर पहुँचने के अनन्तर भर्तृनाथजी की अपने आगमन की भेजी हुई सूचना राजप्रासाद में व्याप्त होने के कारण इनके श्रोतों तक भी पहुँची। यह श्रवण करते ही इनके आनन्द ने अपनी सीमा का भंंग किया। और ये उनकी पूजा के लिये उचित सामग्री मंगा-मंगा कर संचित करने लगी। इधर महाराजा विक्रम ने उनके स्वागत और नगर कीर्तन कराने के लिये पूरा प्रबन्ध कर दिया। नगर में बड़ी धूमधाम मच गई। समस्त नागरिक लोग यथाशक्ति अपने-अपने स्थानों को सजाने लगे। लोगों के चित्त में आपके आगमन से आज उतना ही उत्साह दिखाई देता था जितना कि आपका सिंह के द्वारा मारे जाना सुनने के अनन्तर आपके प्रत्यक्ष देखने से हुआ था। अस्तु महाराजा विक्रम बड़े समारोह से अपने प्रधान पुरुषों के सहित आपको लेने के लिये स्वयं शिप्रा पर पहुँचे। और स्वोचित रीत्यनुसार आभिवादनिक कृत्य के द्वारा आपको सत्कृत कर कुछ क्षण के लिये बैठ गये। आज बहुत वर्षों के अनन्तर एक-दूसरे को निरन्तर दृष्टि से देखते हुए अपने-अपने उद्भूत प्रेम की मात्राओं को सार्थक करने लगे। सब लोग सन्नाटा मारे बैठे तथा खड़े हुए थे। राजकीय मर्यादा से कोई चूं तक न करता था। समस्त लोग हस्तसम्पुटी कर छाती पर धारण किये हुए आज बहुत दिन के बाद योगी के चिन्ह से विभूषित अपने भूत पूर्व राजा साहिब की वन्दना कर रहे थे। जिन्हों में कई एक मनुष्य ऐसे भी थे आपका प्रेम उनके हृदय में न समाकर बहिर निकल आया था। जिसके विवश हो उन्हों का अश्रुपात हो गया। परन्तु महाराजा विक्रम का शासन सर्वथा उचित होने से उनका इसमें भी प्रेम कर न था। अतएव वे यह सोचकर, कि कभी महाराज हमारी ओर अवलोकन कर अश्रुपात से यह विपरीत अनुमान कर बैठें कि भर्तृजी का शासन हमारे से अधिक अच्छा होगा जिसके सुख का स्मरण कर इनका हृदय उझल आया है, अश्रुओं को प्रथम तो नयनान्तर ही स्तब्ध कर लेते थे। दूसरे भीतर न ठहर कर बहिर भी आ गई तो उनको अविलम्ब से ही पोंच्छ लेते थे। उधर विक्रम से आलाप करते हुए सम्मुखीन भर्तृनाथजी कभी-कभी उनकी ओर दृष्टि प्रक्षिप्त कर मानों उनके प्रेम को स्वीकृत करते हुए उन्हें धैर्यावलम्बन करने का परामर्श दे रहे थे। ऐसी ही दशा में कुछ देर की गोष्ठी से अपने प्राथमिक मिलाप को सार्थक कर महाराजा विक्रम ने आपको स्वागत पूत्त्र्यर्थ नगर में चलने के लिये सूचित किया। आपने कहा कि मैं नगर मंे प्रविष्ट हो उचित कृत्य का अनुष्ठान कर थोड़ी ही देर हुई अभी यहाँ आया हूँ। अतः मेरे पुनर नागरिक भ्रमण की आवश्यकता नहीं है। विक्रम ने प्रत्युत्तर दिया कि महाराज आपने अपनी इच्छानुसार जो कुछ किया सो ठीक हुआ। और वह आपके आनेक पश्चात् किसी ढंग से हमको भी विदित हो गया था। परन्तु आपको ऐसा उचित नहीं कि आप अपनी ही इच्छा पूर्ति पर अधिक ध्यान दें। आपके उस आन्तर्धानिक ढंग से होने वाले नागरिक भ्रमण से आपकी ही इच्छा पूर्ति न हुई न कि नागरिक लोगों की। जो आपको अपना हृदयनाथ समझकर आज बहुत दिनों के बाद फिर उसी मार्ग से गमन करते हुए देख पुष्प वर्षा के द्वारा अपने प्रेम को सार्थक करना चाहते हैं। यह सुन आपने, अच्छा यदि मेरे गमन द्वारा लोगों का समारोह चरितार्थ होता है तो चलिये, यह कहते हुए अपना प्रस्थान किया। और विविध वाद्य-ध्वनि के साथ महाराजा साहिब आपको नगर में ले गये। वहाँ जो कुछ उचित एवं सम्भव था सोई व्यवहार आपके साथ किया गया। आपके अनुरोधानुसार राजप्रासाद में प्रवेश न कर आप उसके नीचे से जाने वाले मार्ग से ही निकाले गये। इस समय महलों के झरोखों से राणियों के द्वारा होने वाली पुष्प एवं मांगलिक विविध वस्तुओं की वर्षा से यह अनुमान होता था मानों समस्त राणी पैंगलेय वियोग काल में राजा के ऊपर होने वाली अपनी घृणा के विषय में अनल्प पश्चात्ताप प्रकट कर उसे फिर अपने हृदय से स्वीकार कर रही हैं। अथवा यदि ऐसा करना कलंककारी और कल्याण मार्ग से भ्रंशित करने वाला समझें तो योग कलाओं में असाधारण स्थान प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित कर रही हैं। (अस्तु) इस नगर कीर्तन के अनन्तर आप स्वोद्देशनिर्मित गुहा पर गये। यहाँ कुछ देर के बाद आपकी उपमाता और राणी आपके दर्शन करने के लिये आई। यद्यपि आप इस माता के और से पुत्र नहीं थे और विक्रम ने अपने धार्मिक भ्राता स्वीकार किये थे तथापि श्रीमती ने विक्रम के कथनानुसार आपको विक्रम के तुल्य किम्बा उससे भी अधिक प्रिय समझ कर पुत्र की आज्ञा अनिष्फल की थी। यही कारण था इस श्रीमती ने विक्रम के ईश्वराधन में अधिक समय व्यतीत करने की इच्छा से नर्मदा निवासी हो जाने पर आपको निरंकुश राज्य करते देख कर भी कोई आपत्ति न की। और पैंगलेय वियोग से दुर्दशा ग्रसित हो जब आप नगर से चले आये थे तब विक्रम जैसे सर्वथोचित प्रभावशाली पुत्र के समीप होने पर भी आपके हसत से निकल जाने का जितना शोक इस श्रीमती को हुआ था उतना शायद ही अन्य किसी को हुआ होगा। इसी प्रकार आपके आगमन पर भी समझना चाहिये। अर्थात् आपका नगरागमन श्रवण कर जितनी यह रौमांचिक दशा में प्राप्त हुई थी उतना शायद ही कोई हुआ हो। यही कारण था यह ज्यों ही आपके समीप पहुँची और इसकी दृष्टि ज्यों ही आपके मुख कमल पर पड़ी त्यों ही इसने आत्यन्तिक मोहान्धकार मेंे प्रवेश कर अन्य किसी को उपस्थित न देखने के कारण लज्जा से रहित हो सहसा हस्त प्रसृत कर आपकी जिघृज्ञा की। तथा उसको पूरा भी किया। और अधिक देर पर्यन्त मिलनी भंग न कर ऐसा हृदय विदारक दृश्य उपस्थित किया जिसका वर्णन करना सर्वथा असम्भव है। इससे विमुक्त होने के लिये आपके अनेक बार इच्छा प्रकट कर चुकने पर भी यह आपको छोड़ती नहीं थी। बल्कि प्रवाहित अश्रुधारा से आपके शरीर को प्लावित करती हुई आपको और भी दृढ़ता से ग्रहण कर इस भाव को सूचित करती थी कि माता के अत्यन्त हार्दिक प्रेम का पात्र औरस जात ही पुत्र हो सकता है सर्वथा ऐसा नियम नहीं है सुयोग्य चाहे कल्पित भी हो उसके विषय में माता का अधिकार है वह उसके ऊपर अपने आप तक को न्यौछावर कर सकती है। तदनु बहुत देर में आपने अपने स्पार्शिक मिलाप से माताजी के प्रवृद्ध प्रेमाग्नि की लटाओं में जल वर्षाया। जिससे उसको स्वास्थ्य की उपलब्धि हुई। और वह आपकी ग्रहणता का भंग कर आज पर्यन्त किन-किन कठिनताओं से समय व्यतीत किया इत्यादि समस्त समाचार पूछने लगी। आपने कहा कि मताः ! मैंने जिन-जिन विषम मार्गों को आज तक उल्लंघित किया है उनमें अधिक ऐसे हैं जिनकी कठिनतायें सर्वथा अकथनीय हैं। तथापि योगेन्द्र गोरक्षनाथजी जैसे सुयोग्य गुरु के चरण प्रसाद से प्रसादित हुए मुझ को वे कठिनातायें कुछ भी बाधित न कर सकी। इसलिये मैं अपने गौरव के साथ कह सकता हूँ कि मेरा समस्त अद्यावधिक समय सानुकूलता के सहित व्यतीत हुआ है। अतः मेरी कठिनताओं को लक्ष्य ठहरा कर आपको अधिक शोकान्वित नहीं होना चाहिये। एवं न भविष्य का उद्देश्य लेकर ही ऐसा करने की कोई आवश्यकता है। कारण कि मेरे लिये जितनी आपत्तियों का सम्भवथा वे सब किम्प्रयोजन हो चुकी हैं। और मैं उस अवस्था में पहुँच गया हूँ जिसमें उन आपत्तियों का मुख तक न देखकर आनन्द के साथ अपने गम्य स्थान को प्राप्त कर सकूँगा। यह सुन माता के मोह सन्तप्त हृदय में पूर्ण शीतलता पहुँची। जिसने कुछ पीछे को हटकर राणियों के लिये अवसर उपस्थित किया। वे अग्रसर हुई और उचित प्रणति आदि व्यवहार से आपको सत्कृत कर अपनी श्वश्रु की ओर इशारा करती हुई आपसे कहने लगी कि आप भिक्षार्थ महलों में गये परं एक साधारण भिक्षु की तरह वापिस लौट आये। इससे हमको अत्यन्त पश्चाताप हो रहा है। अच्छा होता आप हम सबकी आँखों में धूलि न डालते और हम आपका अपनी इच्छानुसार उचित सत्कार करती। इससे हम पश्चाताप से विमुक्त तो रहती ही परं अपनी कर्तव्यता का पालन भी कर सकती। मान लिया कि हमारी स्त्री जाति का हृदय बहुत कोमल होता है जो अत्यन्त प्रयत्न करने पर भी सीमा भंग किये बिना नहीं रहता है। तथापि हम इस दर्जे तक तो नहीं पहुँचती कि आपके वेष की दूषणता का कुछ भी ध्यान न रख आपको महल में ही रखने का कोई विशेष उपाय करती। जिससे आपको अपने मार्ग की भ्रष्टता देखने के कारण अधिक खेदित होना पड़ता। हम तो महाराज ! अपने अदृष्ट के ऐसे ही होने का अनुमान कर हृदय को सन्तोष देती हुई अपने कर्तव्य पथ पर चल रही हैं। और निश्चय रखती हैं कि अब तो यही पथ हमारे लिये कल्याणदाता होगा। इस पर भी भगवान् की सानुकूल कृपा से इधर हम अपने पातिव्रत्य की रक्षा कर सकें तो उधर आप भी अपने औद्देशिक स्थान की यदि उपलब्धि कर सकें तो आत्यन्तिक गौरव की बात है। बल्कि सच पूछें तो हमको दिन-रात इसी बात का स्मरण रहता है कि भगवन् ! जो हुआ सो हो गया परं इन स्वार्गोपम भोगों को भोगते हुए हमारे स्वामी को आपने जो अपने हस्त से ग्रहण किया है तो उनको अपने यथार्थ अक्षय स्थान में ही पहुँचा देना। ऐसा न हो कभी अधुरे मार्ग में ही छोड़ दें जिससे वे इधर के रहैं न उधर के। यह सुन आपने कहा कि तुम्हारा यह मन्तव्य और इसकी पूर्ति के लिये ईश्वर से प्रार्थना करना निःसन्देह प्रशंसनीय कार्य है। इस पर तथा विशेष करके तुम्हारे पातिव्रत्य धर्म की पालना पर अत्यन्त हर्ष प्रकट करता हुआ मैं तुम्हें हार्दिक धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता हूँ। परन्तु ध्यान रखना मार्ग तुम्हारा भी अत्यन्त कठिन है। पिंगला इस मार्ग से उत्तीर्ण हो संसार में अपनी अक्षय कीर्ति का विस्तार कर गई है। तुम्हारा इस मार्ग से पार होना अभी अवशिष्ट है। मैं अपने अदृष्ट की अनुकूलता से और अद्वितीय गुरु गोरक्षनाथजी के अमोघ उपदेश से शीघ्र ही योगवित् हो जाने के कारण अपने विषय में कुछ भी सन्देह न रखता हुआ तुम्हारे विषय मंे इसी बात का ध्यान रखा करता हूँ तथा ईश्वर से अभ्यर्थना किया करता हूँ कि भगवन् ! मेरे ऊपर कृपा करने के साथ-साथ कभी-कभी उनकी ओर भी अपनी कृपा दृष्टि का प्रक्षेपण किये जाना। जिससे वे अपने दुःसाध्य मार्ग को सुसाध्य बनाती हुई निर्वाधता के साथ अपने गन्तव्य स्थान में पहुँच सकें। अतएव तुमको उचित है कि अपने कर्तव्य पथ से एक पद भी पीछै न हटो। ऐसा हुआ तो समझ लो किसी अदृष्ट के प्रतिकूल होने से तो तुम्हें यह दण्ड मिला कि राजगृह में जन्म लेने पर एवं राज्योचित अन्य समस्त भोग प्राप्त होने पर भी तुम इस सांसारिक प्रधान सुख से वंचित रही। और इस जन्म में यदि कर्तव्य पथ से विचलित हो बैठी तो ये राजकीय उपभोग भी हस्त से जाते रहेंगे। आपके इस कथन पर अत्यन्त श्रद्धा प्रकट करती हुई राणियों ने शिर झुकाया। तथा प्रतिज्ञा करी कि महाराज ! ईश्वरीय इच्छा क्या है यह तो हम नहीं जान सकती हैं। परं स्वकीय हृदयागार में पूर्ण दृढ़ता के साथ यह निश्चय अवश्य रखती है और रखेंगी कि प्राणान्त तक अपने धर्म की रक्षा करेंगी। तदनन्तर मैनावती का नम्बर आया। वह यद्यपि आपका मुखावलोकन करते ही समझ गई थी कि यह वही महलों मंे जाने वाला मेरा भाई भर्तृ है। जिससे अपने आपको गुप्त रखते हुए भर्तृ से अन्य सूचित किया था। तथापि उसने यह सोचकर, कि खैर कोई बात होगी योगियों की आभ्यन्तरिक लीलाओं का रहस्य समझना बड़ा ही दुष्कर है, इस विषय में कुछ नहीं कहा सुना। केवल श्रद्धेय सामग्री आपके समर्पण करने के अनन्तर उसने आपके योगवित् हो जाने के विषय में महान् हर्ष सूचित किया। एवं कहा कि महाराज ! यह बात आप से और किसी से छिपी नहीं है कि स्त्री के लिये प्राय-पैत्रिक और श्वशुर्य इन दोनों ही घरों के मंगल की कामना उपस्थित रहती है। इनमें से एक भी अमंगलग्रस्त हुआ तो दूसरे का महामंगल भी किम्प्रयोजन रहता है। परं मैं धन्य हूँ संसार में मेरे जैसी सौभाग्यवती आज कोई ही स्त्री होगी मुझ को परम् पिता ईश्वर के कृपा कटाक्ष से ऐसी जगह जन्म मिला है आगे पीछे जिधर देखती हूँ उधर मंगल ही मंगल दिखाई देता है। इतना होने पर भी यह अपरिमित सौभाग्य की बात है कि यह मंगल भी वैवाहिक मंगल की तरह कुछ ही दिन में शान्त होने वाला नहीं प्रत्युत चिरस्थायी अर्थात् प्रलय पर्यन्त रहने वाला है। यद्यपि कुछ मनुष्य ऐसे हैं जो इस बात का वास्तविक रहस्य न समझकर मेरे ऊपर आप तक का दूषण आरोपित करते हुए कह डालते हैं कि गोपीचन्द को ही क्या भर्तृ को भी इसी ने उधर उत्साहित कर साम्राज्य भोगों से वंचित किया है। अतः इस को दोनों गृहों का नाशकारिणी समझना चाहिये। परन्तु मैं जब इस बात की ओर दृष्टि डालती हूँ कि खैर आपके उन भोगों से वंचित रहने में मेरी अनुमति कारण हो वा तुम्हारी इच्छा अथवा तुम्हारा अदृष्ट ही इस कार्य योग्य हो जो भी कुछ हो, आप योगेन्द्र पद पर तो पहुँचे ही गये, तब तो उन लोगों का कथन मुझे किंचित् भी व्यथित नहीं कर सकता है। प्रत्युत जो लोग इस बात को बार-बार कहते हुए अधिक अग्रसर होते हैं मुझे उनकी अदूरदर्शिता एवं मन्द बुद्धि का अच्छा परिचय मिल जाता है। यह सुन आपने कहा कि हाँ यह अवश्य है संसार में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो तुम्हारे मन्तव्य के और योग के महत्त्व विषयक परिज्ञान से शून्य हैं। यही कारण है अपनी नितान्त इन्द्रिय परायणता का परिचय देते हुए लोग वर्षाभू जीवों की तरह थोड़े ही वर्षों में अनेक बार पृथिवी में लीन हो जाते और प्रकट होते हुए दीख पड़ते हैं। ऐसे मनुष्यों के द्वारा होने वाली निन्दा वा स्तुति व्यर्थ और कुछ काल में नष्ट हो जाने वाली है। उससे मनुष्य की कोई वास्तविक हानि वा उन्नति नहीं हो सकती है। अतएव यह ठीक है तुमको ऐसे लोगों के कुछ कहने सुनने से कुछ भी खिन्न न होना चाहिये। तुमने जो कार्य किया वह यह कहने का प्रयोजन नहीं कि अपने स्वार्थानुष्ठान के लिये किया तो प्रत्युत परोपकार के लिये ही किया है। और मनुष्य समाज के लिये यह आदर्श सम्मुख रख छोड़ा है कि पुत्र में वा किसी भी कौटुम्बी आदि मनुष्य में माता आदि का अधिक मोह हो तो वह मेरे जैसा हो जिससे मोह पात्र को बार-बार धूलि में न मिलना पड़े। तुम्हारे इस हृदय से प्रशंसा करने योग्य कृत्य से मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ। इसका मुझे भी बड़ा भारी गौरव है और रहेगा। मैं साभिमान यह कहने को तैयार हूँ कि इस कार्य में प्रवृत्त होकर पुत्र को ईश्वराधन में नियुक्त करती हुई तुमने ही मन्दालसा के बाद उसके स्थान को ग्रहण किया है। इस पर मैनावती ने कृतज्ञता प्रकट कर अन्य लोगों को मिलने पर अवसर दिया। यह मिलाप हुआ। दो दिन आनन्द के साथ व्यतीत हुए। आपने एक अनुष्ठान किया। जिसमें आन्नपौर्णेय मन्त्र से संशोधित जल थोड़ा-थोड़ा उन प्रत्येक प्रान्तों में होने वाले भण्डारों की जगह वर्षाने के लिये आपने आज्ञा दी जिन्हों से उज्जयिनी से दूर होने के कारण अधिक लोग यहाँ नहीं आ सकते थे। इधर यज्ञस्थान में तो आप स्वयं ही बिराजमान थे। फिर क्या त्रुटि रह सकती थी। अतएव अब महायज्ञ आरम्भ हुआ इसकी समाप्ति भी हो चली। अन्तिम दिन तक सर्वत्र नाना भोजन के भण्डार प्रचलित रहे। आवश्यकता से अधिक वितरण करने पर भी भोजन में कहीं न्यूनता न आई। साम्राज्य भर में असाधारण एवं प्रशंसनीय दान पुण्य हुए। और प्रजा तथा अधीनस्थ राजाओं की ओर से महाराजा विक्रम आज से आदित्य उपाधि से विभूषित हुए। एवं इस महा गौरव सूचक पवित्र दिवस का स्मारक आपके नाम से सम्बत्सर भी प्रचलित किया गया। इस प्रकार युधिष्ठिर सम्वत् 3044 में यह कार्य पूर्ण कराकर विक्रमादित्य के असाधारण सत्कार से सत्कृत हुए भर्तृनाथजी यहाँ से देशान्तर के लिये प्रस्थान कर गये।
इति श्री भर्तृनाथ उज्जयिन्यागमन वर्णन 

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