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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Sunday, June 2, 2013

श्री मीननाथ भ्रमण वर्णन ।

पाठक महानुभाव! आइये पूवोक्त वृत्तान्त पर दृष्टिपात करते हुए कतिपय क्षण समालोचक बनेंगे। क्यांेकि मुझे निश्चय है ग्रन्थ के प्रारम्भ से लेकर यहाँ पर्यन्त पढ़ चुकने पर स्वभावतः आपके हृदयागार में यह प्रश्न उपस्थित हुआ होगा कि आज कितने काल को उल्लंघित कर हम उस दशा में आ पहुँचे हैं जिसमें हमारी आँखों के सम्मुख वह चित्र खींचा हुआ है कि भारतवर्षात्मक समुद्र के कोने-कोने में योगप्रचारात्मक लहरें लहराती हुई दीख पड़ती है। अर्थात् मत्स्येन्द्रनाथजी के उत्पत्ति काल से प्रारम्भ कर उनके अनवरत घोर प्रयत्न द्वारा यह चित्र उपस्थित होने तक उनका कितना समय व्यतीत हो चुका है। इस परामर्श के विषय मंे मैं आपको सूचित कर देना चाहता हूँ कि मैं अन्वेषणा करने के लिये जहाँ तक आगे बढ़ा हूँ वहाँ तक मुझे ’ पूर्व दिखलाये शुकदेव सम्बन्धी अनुमान से अतिरिक्त कोई ऐसा प्रणाम नहीं मिला जिससे यह ठीक मालूम हो जाय कि श्रीमहादेवजी अमुक सम्वत् में समुद्र के पट पर गये और उन्होंने पार्वतीजी को अमरकथा सुनाई, जहाँ श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी प्रकट हुए थे। हाँ केवल पूर्वोक्त अनुमान और इस बात से, कि जब नवनारायण विष्णुजी के समीप पहुँचे हैं तब उन्होंने नारायणों से कहा है कि हम भी स्वयं अवतरित होने वाले है, मैं यह कहने के लिये उत्सुक हो सकता हूँ कि द्वार पर के उसी अन्तिम समय में श्रीमहादेवजी की इच्छानुसार कवि नारायण भृगुवंशीय किसी ब्राह्मण के गृह में जन्मित हुए। जो अशुभ नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण समुद्र में प्रक्षिप्त किये गये और ’ कुछ काल के अनन्तर श्रीमहादेवजी ने उद्वृत किये। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथजी के जन्म लेते और उनके श्रीमहादेवजी के द्वारा उद्वृत होते तथा प्रथम पुत्र और पीछे शिष्य बनते जो समय व्यतीत हो गया था तब तक, जिनको आज लगभग 5000 सहस्र वर्ष हो चुके हैं भगवान् विष्णुजी भी अवतरित हो गये थे। अतः मत्स्येन्द्रनाथजी के उत्पत्तिकाल को भी आज कुछ वर्ष ऊपर 5000 सहस्र वर्ष हुए समझना चाहिये। इस लम्बे चैड़े काल में से कुछ वर्ष 3000 तीन सहस्र अन्तिम वर्ष निकाल दीजिये फिर अवशिष्ट समय जो रहा वह यह है  जिसमें कितने ही काल तक अनेक कठिन तपश्च्र्यावस्थाओं का परिचय देते हुए मत्स्येन्द्रनाथजी ने प्रसन्न हुए भी श्रीमहादेवजी को विवश हो अपने अधीनस्थ जो जो विद्याऐं थी समस्त उनको प्रदान करनी पड़ी। यहाँ तक कि श्रीमहादेवजी ने अपने योग प्रचार के बीज को अंकुरित करने के लिये प्रथम आप ही को योग्य पुरुष अंगीकृत किया। अतएव द्वापर समाप्ति पर्यन्त मत्स्येन्द्रनाथजी ने गुरुजी को अनेक रीति से प्रसादित करना और उनके सकारा से अखिल विद्याओं का ग्रहण करना। तथा गृहीत समस्त विद्याओं का प्रयोग कर उनके विषय में निश्चय प्राप्त करना, आदि कार्य समाप्त किया। तदनन्तर श्रीमहादेवजी के योग प्रचार बीज को अंकुरित करने के लिये गोरक्षनाथजी के प्रकटित होने का यत्न किया। बस क्या था श्रीमहादेवजी की आज्ञानुसार मत्स्येन्द्रनाथजी के द्वारा बपन हुआ बीज गोरक्षनाथजी के अलक्ष्य प्रभाव तथा अपरिमित प्रयत्न से अंकुरित हो यहाँ तक रक्षित हुआ कि उसके प्रवृद्ध शाखान्वित होकर फल प्रसूति सहित होने में कुछ भी सन्देह न रहा। अतएव गहनिनाथ तथा ज्वालेन्द्रनाथजी से शाखी एवं प्रफुल्लित हुआ योग प्रचारात्मक वृक्ष, अन्त तक बढ़कर फल सहित हुआ लोगों को आओ, जिसको सांसारिक कार्यों में निःसारता का निश्चय हो गया हो, मेरे फल को, जो कि सचमुच अमृत तुल्य है, ग्रहण कर सार वस्तु की प्राप्ति करो, यह चेतावनी देने लगा। ऐसा होने पर कौन ऐसा हतभाग्य पुरुष था जो संसार के विविध कष्टों को अनुभवित करता हुआ उनसे विमुक्त होने के लिये इधर दृष्टिपात न करता। प्रत्युत इस सूचना के श्रवण करते ही सहस्र-सहस्र पुरुष इस वृक्ष की ओर दौड़े और इसके फलास्वाद से अजरामर हो जीवन मरणात्मक परम्परा के दुष्त्याज्य दुःख के तिरस्कृत करने में समर्थ हो सके। श्री महादेवजी के उद्देश्य को इस दश में प्रवृत्त करने तक मत्स्येन्द्रनाथजी के लगभग दो (2000) सहस्र वर्ष लगे। ठीक इसी समय योग प्रचार को सीमान्त पर्यन्त पहुँचा, तथा उसका समस्त श्रेय अपने शिष्य गोरक्षनाथजी को प्रदानकर तात्कालिक प्रसिद्ध युधिष्ठिर सम्वत् 1939 में मत्स्येन्द्रनाथजी स्वयं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर अगणित शक्तिशाली योगियों के द्वारा प्रचार को प्रतिदिन प्रवृद्ध होता देख अपने आपकी अनावश्यकता समझकर, तथा हरिनारायण द्रुमिलनारायण के अवतार काल में विलम्ब निश्चय कर, गोरक्षनाथजी ज्वालेन्द्रनाथजी कारिणपानाथजी उस काल तक की अवधिरख समाधि निष्ठ हो गये। उधर मत्स्येन्द्रनाथजी की तरह अपने उत्तरदायित्व को पूरा हुआ समझकर गहनिनाथ नागनाथजी और रेवननाथजी चर्पटनाथजी उक्त मीननाथ आदि को सचेत करते हुए इस कार्य से अवकाशित होने के अभिप्राय से कैलासस्थ श्री महादेवजी की शरण में पहुँचे। अतएव योग प्रचार की समस्त रेखदेख का भार मीननाथ और धुरन्धरनाथजी पर ही पड़ा। यही कारण था अपने कुछ शिक्षा शिथिल शिष्यों को पूर्ण दीक्षित करने का भार अपने ऊपर से उतार समीपागत स्वकीय गुरु भाई विलशयनाथ पर आरोपित कर धुरन्धरनाथजी युधिष्ठिर सम्वत् 2150 में मीननाथ के स्थान पर आये और उनको इस विषयक विशेष सूचना से सूचित करने लगे कि आप जानते हैं यह वह समय नहीं है हम एक ही स्थान में विश्राम करते हुए केवल शिष्यों को दीक्षित कर अपने आपको कृतार्थ समझ लें और इस कार्य से अतिरिक्त किसी की भी चिन्ता न रखें। प्रत्युत आज वह दिन है जिसमें समस्त प्रचार समालोचना का भार ही हमारे ही शिर पर आरूढ़ है। ऐसी दशा में उचित नहीं कि हम मुख्याचार्यों की उपस्थिति की तरह एक जगह पर स्थित रहते हुए अपने उत्तरदायित्व में शिथिलता प्रदर्शित करें ! किन्तु हमको संसार भर में विचरण कर इस बात की समीक्षा करनी होगी कि कौन ऐसा देश है जिसमें योगक्रिया के मुमुक्षुलोग तो हैं परं वहाँ वे योगी नहीं पहुँच सके हैं जिनसे वे विचारे अपने अभीष्ट की प्राप्ति कर सकें। यह सुनकर मीननाथजी ने कहा कि मैंने इस विषय में प्रथम ही परामश्र किया गया था कि मैं धुरन्धरनाथजी के समीप जाकर इस बात का निश्चय करूँगा कि इस समय हम लोगों को किस उपाय का अवलम्बन करना चाहिये जिस द्वारा हम अपने उत्तरदायित्व को अच्छी तरह से पूरा कर सकें। परं आपका महान् अनुग्रह है जो आप स्वयं मेरे पहले ही यहाँ आ विराजमान हुए। अच्छा कहिये आपकी क्या सम्मति है किस रीति से कार्य निर्वाहित करें। धुरन्धरनाथजी ने कहा कि सबसे प्रथम आवश्यकता इस बात की है हमारे हृदयागार में यह दृढ़ निश्चय होना चाहिये कि योग प्रचारात्मक कार्य के संचालित करने में श्रीनाथजी तथा श्रीमहादेवजी तक हमारे सहायक हैं। फिर देखंेगे आप किसी भी ढंग से कार्य में दत्तचित्त हुइये उसी से कार्य सिद्धि होगी। मीननाथजी बोले कि अवश्य ऐसी धारणा करनी प्राथमिक कार्य है और मैं स्वयं भी ऐसा विश्वास रखता हूँ। तथापि में यह चाहता हूँ कि आप अपनी अनुमति प्रकट कर दें जिससे निर्विकल्प हो उपाय का आश्रयण किया जाय। धुरन्धरनाथजी ने उत्तर दिया कि यदि यही बात है तो समस्त उत्तरीय भारत का यह कार्य मैं अपने ऊपर लेता हँ आप दक्षिणाभारत के कार्य का भार अपने ऊपर आरोपित करें। यह सुन मीननाथजी ने तथास्तु प्रयोग करते हुए धुरन्धरनाथजी के कथन को अंगीकृत किया। तथा समीपस्थ गिरनार पर्वत में कुछ दिन से निवास करने वाले स्वकीय गुरुभाई चण्डीश्वरनाथ को बुलाकर अपने शिक्षाशिथिल शिष्यों को उसके अर्पण करते हुए यह समझा दिया कि अवशिष्ट शिक्षा इस से ग्रहण करना और अपने चित्त में किसी तरह का सन्देह न करना। क्यों कि शिक्षाप्रदान करने में यह मेरे जितनी ही कुशलता रखते हैं। गुरुजी की यह आज्ञा समस्त शिष्यों के शिर झुकाकर स्वीकृत की। तथा साथ ही, आप हमारी ओर से सययुत न होते हुए अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिये दत्तचित्त हो जायें, यह कहकर सभी ने गुरुजी को उत्साहित किया। अतएव मीननाथजी ने इधर से सन्देह रहित हो युधिष्ठिर सम्वत् 2160 में दाक्षिणात्य भारत में योग शिक्षा प्रचार के निरीक्षणात्मक कार्य भार को अपने शिर पर आरोपित कर वहाँ से प्रस्थान किया और समुद्र तटस्थ प्रान्तों में भ्रमण करते हुए श्री नर्मदा गंगा के पार हो कर कुछ दिन में इसी नदी के कूलोपरि विराजमान श्री ओंकारनाथ में पदार्पण किया। यहाँ सहस्रों नरनारी आपके दर्शन करने को आते तथा अनेक प्रकार की भेंट-पूजा चढ़ाते और आपके विषय में प्रगाढ़ भक्ति प्रदर्शित करते थे। इसीलिये आपको यहाँ कुछ दिन निवासकर प्रत्युपकारार्थ भक्त लोगों को उनकी भक्ति का यथोचित फल प्रदान करना पड़ा। तदनु इसी नदी के पाश्र्ववर्ती देशों में विचरते-विचरते कुछ दिन में आप उस स्थान पर पहुँचे जो नर्मदा की उत्पत्ति का कारण है। यहाँ गोमुखी और एक प्रसिद्ध एवं रमणीय शिवालय है इसी को आपने कुछ दिन के वास्ते अपना विश्रामाश्रम निश्चित किया। यह नर्मदा जनक बड़ा ही तरीका पर्वत है अतः इसमें अनेक योगी निवास कर पारस्परिक योग दीक्षा का लाभ उठा रहे थे। आपकी सूचना शीघ्र इन योगियों में पहुँची तत्काल ही कतिपय योगी आपकी सेवा में उपस्थित हो आपको स्वकीय निवासाश्रम में लिवा ले गये। यहाँ भी आप कुछ दिन ठहर कर दीक्षक योगियों के साथ विविध प्रकरणों द्वारा योग विषयक परामर्श करते रहे। तथा पिछले दिन योगसाधनीभूत क्रियाओं में परिश्रम करने वाले योगियों को उत्साहित करने के अभिप्राय से आपने सबको एकत्रित कर कहा कि महानुभावों ! याद रखो ! सर्वज्ञत्व सर्वनियन्तृत्वादि विशिष्ट एक ही चेतन पुरुष स्वा मित्वाभिमान से प्रकृति द्वारा चेष्टित हुआ चैरासी लक्षयोनियों में संचरित हैं। जो अपने आपको बद्ध एवं स्थूल प्रकृतिनिष्ठ अपरिमित दुःखों से दुःखी समझता है। परं इस अवास्तविक दुःखत्रय से, मनुष्य भिन्न योनि निष्ठ कोई चेतन पुरुष कभी मुक्ति पा गया हो ऐसा श्रवण नहीं होता है। इसलिये केवल यह मनुष्य योनि ही ऐसी है जिसमें पुरुष को उक्त दुःखों से मोक्ष प्राप्त हो सकता है। बल्कि सच्च पूछिये तो इस योनि का मिलना ही पुरुष को अन्य बात के लिये नहीं केवल उक्त दुःखों से मुक्त होने के लिये है। परन्तु ध्यान दीजिये कि कोई जंगली मनुष्य हो जिसने जन्म से ही वस्त्र आभूषणादिका उपभोग न किया हो वह अकस्मात् कभी दीप्ति पंुज सुवर्ण को प्राप्त हो जाय तो उस समय क्या उस स्वर्णलोष्ठ में अनेक प्रयोजनीय कंकण मुकुटादि वस्तुजनकता नहीं है। अर्थात् उससे क्या कंकण मुकुटादि अनेक वस्तु नहीं बन सकती है। किन्तु बन सकती है। परं कभी कंकणादि के न देखने से जब उसके यह दृढ़ निश्चय ही नहीं कि यह वस्तु केवल कंकणादि आभूषणांे के ही लिये है तब वह कंकणादि के बनाने वा बनवाने के अभिप्राय से तदनुकूल प्रयत्न कैसे करे। अर्थात् नहीं कर सकता है। इसी प्रकार जिस मनुष्य ने अपने आन्तरिक मन से कभी भी एकान्त में बैठ यह निश्चय नहीं किया कि मुझे यह मनुष्य योनि, अन्य योनियों में भी प्राप्त होने वाले विषयानन्द के उपभोगार्थ नहीं, केवल दुःखत्रय से मुक्त होने के अर्थ ही मिली है, वह मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के लिये यत्न ही कैसे कर सकता है अर्थात् नहीं कर सकता है। अतएव पुण्योपलब्ध मनुष्य योनि में, प्रथम, यह योनि मुझे केवल मोक्ष प्राप्ति के वास्ते मिली है, यह निश्चय हो जाना पुरुष को अपना भाग्य उदय हुआ समझना चाहिये। इस पर भी यदि वह पुरुष अपने निश्चय को सार्थक बनाने के अभिप्राय से मोक्षसाधनीभूत उपयों में संलग्न हो जाय तो समझो उस पुरुष के वे दिन समीप हैं जिनमें वह शिवभगवान् की गोद में बैठा हुआ उस दशा को अनुभवित करेगा जो प्रसादित हुए भगवान् द्वारा उसके शिर पर हस्तस्पर्श करने से उत्पन्न होगी और समीपस्थ भगवान् के गल में विराजमान सर्प अपनी प्रगाढ़ प्रीति सूचित करता हुआ अपनी लपलपाती हुई जिव्हाओं द्वारा उससे क्रीड़ा करने का साहस करेगा। परं मुझे आत्यन्तिक हर्ष और महान् गौरव है जो आप लोग स्वयं इस बात के योग्य हैं। अतएव मैं हार्दिक आशीष देता हुआ असंख्य धन्यवाद देता हूँ कि आप लोग धन्य हैं जिन्होंने अपना आगमिक मार्ग स्वच्छ बनाते हुए अपने आपको उस पद पर पहुँचने के योग्य बनाया है। साथ ही सचमुच यह भी प्रसिद्ध कर दिखलाया कि हम इस लोक में, पामर पुरुषों के ग्रहणयोग्य अस्थायी निःसार विषयानन्द में, लिप्त होने के लिये नहीं आये हैं। प्रत्युत इसलिये आये हैं कि मनुष्य योगि मिलने के वास्तविक उद्देश्य की उपलब्धि कर सांसारिक लोगों को यह दिखला दें कि तुम लोग भूल के मार्ग में चल रहे हो। इत्यादि वचनों के प्रयोग द्वारा क्रिया सिद्धि के लियेे प्रयत्नशील योगियों को आश्वासन प्रदान कर मीननाथजी वहाँ से विदा हुए। जो इधर-उधर के अनेक प्रान्तों में पर्यटन करते हुए कुछ दिन में अनन्तर महाराष्ट्र देशीय प्रसिद्ध स्थान भीमाशंकर में आये। यह स्थान भारतवर्षीय द्वादशज्योतिर्लिंगो में से एक है। अतएव इसके अत्यन्त पवित्र और रमणीय होने से आपने कुछ वर्ष यहाँ निवास करने की अभिलाषा की जो उनके पाश्र्ववर्ती शिष्य के भी अभिमतानुकूल हुई। इसी से आपने गमनस्थगित कर जब आज तक के भ्रमण पर दृष्टिपात किया और स्वकीय उद्देश्य प्रवाह को सन्तोष जनक पाया तब स्वीय शरीर रक्षा के लिये शिष्य को सचेत रहने की आज्ञा दे स्वयं सप्तवार्षिक समाधि के आनन्दात्मकागार में प्रवेश किया। आपका यह समाधि निर्विघ्नता के साथ व्यतीत हुआ। इसीलिये आपने निरपाय सामाधिक उपलक्ष्य में कृतज्ञता प्रकट करते हुए स्थानीय योगियों को धन्यवाद दिया। अनन्तर यहाँ से भी विदा हो भ्रमणान्तर्गत ग्रामीण तथा नागरिक मुमुक्षुजनों को अपने अनुपम योगोपदेश द्वारा वांछित फल सिद्धि का मार्ग प्रदर्शित करते हुए तथा योग प्रवृत्यर्थ तत्साधनांे में परिश्रम रतयोगियों को प्रोत्साहित करते हुए कतिपय वर्ष के अनन्तर पूर्व प्रसिद्ध कदरी स्थान में पदार्पण किया। इस स्थान के आधुनिक अधिष्ठाता स्वकीय गुरुभाई गोरक्षनाािजी के शिष्य, जिनको स्वयं गोरक्षनाथजी नियत कर गये थे, इनके साथ आपका कतिपय दिन तक स्वोद्देश विषयक परामर्श होता रहा। अन्त में अपने शिष्य को इनकी रक्षा में समाधिस्थ हो जाने की आज्ञा देकर इस स्थान में निवसित कुछ योगियों को अपने साथ ले आप यहाँ से भी प्रस्थानित हुए और इतस्ततः देशाटन करते हुए कुछ दिन में श्री रामेश्वर पहुँचे। यहाँ आने पर आपको सूचना मिली की सिलौन द्वीप में ऐसे मनुष्यों की संख्या पर्याप्त नहीं है जो मोक्ष प्रदयोगोपाय में पूर्ण श्रद्धा रखते हो। कारण कि श्री मत्स्येन्द्रनाथजी के इस देश में आकर राज्यकार्य में तत्पर होने के समय हनुमान उनकी रक्षार्थ नियत हुआ था यह वृत्त पाठक पीछे पढ़ चुके हैं। अतः उस अवसर में जो योगी इस टापु तक पहुँचने में समर्थ हुए थे वे युक्ति युक्त वचनों द्वारा समझा बुझा कर हनुमान ने देश बहिष्कृत कर दिये थे और नवीनों का इस टापु में आने का निषेध किया गया था। जो भावीवश योगियों ने भी उसे स्वीकृत कर पूरा किया। पश्चात् मत्स्येन्द्रनाथजी के इस टापु को त्यागकर भारत आ जाने पर हनुमान्जी ने भी प्रतिषेध को स्थगित किया जिससे कोई-कोई योगी इसमें प्रविष्ट होने के लिये अग्रसर हुए। तथापि उतने ही योगियों से वह सफलता प्रकटित नहीं हुई जो भारत में देखी जाती है। इसी कारण से आपने यहाँ से कूच कर सिंहलद्वीप का मार्ग ग्रहण किया और वहाँ जाकर निरीक्षणात्मक कार्य आरम्भित होने पर जब आपने मालूम किया तो उपलब्ध सूचना को बहुत कुछ यथार्थ रूप में पाया और निश्चय किया कि किसी विशेष उपाय का अवलम्बन किये बिना कार्य सिद्धि दुष्कर होगी। इस वास्ते समीपस्थ योगियों के साथ सहमत हो आप इस देशीय राजधानी में गये और एक महोत्सव की स्थापना कर उसमें सम्मिलित होने के लिये देशमात्र में निमन्त्रण पहुँचा दिया। तथा साथ ही यह भी घोषित कर दिया कि जो कोई इस महोत्सव में आने का साहस करेगा वह वांछित भोजन तो प्राप्त कर ही सकेगा परं साथ ही उस दृश्य को भी देखेगा जो आजपर्यन्त देखने में नहीं आया होगा। बस क्या था जहाँ यह सूचना देश में प्रसृत हुई तत्काल ही सहस्र-सहस्र पुरुष इस अश्रुत एवं अदृष्ट पूर्व विस्मयान्वित महोत्सव के उपलक्ष्य में आ आकर संचित होने लगे। इस प्रकार दो चार दिन के व्यतीत होने तक ही नगर मनुष्यों से परिपूर्ण हो गया। यह देख आपने प्रजाजनों को अवधानित किया कि आप लोग, जिनको भोजन ग्रहण करने की अभिलाषा हो, नगर से बहिर संस्कारित दीर्घ विस्तृत स्थल पर अमुक समय तक उपस्थित हो जायें। अब विलम्ब ही क्या था सूचना प्रचारित होने पर नागरिक एवं आगन्तुक असंख्य मनुष्य निर्दिष्ट स्थल की ओर रवाने हुए। जिनसे कुछ ही समय के अन्तर्गत सम्मार्जित स्थल सम्पूरित हो गया। इन सङ्घीभूत मनुष्यों में यद्यपि ऐसे भी मनुष्य बहुत थे जो इसी नगर निवासी थे और वे भोजनादानार्थ नहीं केवल कुतूहल देखने के लिये आये थे तथापि मीननाथजी के निरोधातिशय से विवश हो उन्हें भी भोजन ग्रहण करने में सहमत होना पड़ा। अतएव आज्ञानुसार समस्त लोगों के यथाक्रम पंक्तिबद्ध होने पर मीननाथजी ने अपने अनुयायी योगियों को आज्ञापित किया कि प्रतिमनुष्य के आगे ऊपर नीचे करके दो-दो पत्तल स्थापित की जायें। उन्होंने तत्काल ही आज्ञा अंगीकृत कर पूर्वाहृत कमल पत्रों को उसी रीति से वितीर्ण कर दिया। यह कार्य समाप्त होने पर आपने यह आज्ञा घोषित की कि आप लोगों के आगे जो दो-दो पत्र रखे गये हैं। इनको इधर-उधर न करके तादवस्थ्य स्थित रखना और जैसे-जैसे भोजन में रूचि हो उसकी कल्पना कर लेना। तथा जब हमारे शृंगनाद की ध्वनि हो तब आकाश में दृष्टिपात कर पत्रों को उद्घाटित करना फिर देखोंगे आपक पत्तल में अभिलषित एवं पर्याप्त भोजन तैयार मिलेगा। इस प्रकार कुतूहावलोक्ता जनसमूह ने जब आपके कथन की अभिसन्धि अच्छी तरह अवगत कर ली तब तो आपने स्वकीय गुरु श्री मत्स्येन्द्रनाथजी की प्रदानित विद्या का आश्रय ग्रहण किया। और पेटिका से कुछ भस्म उद्धृत कर, ऋद्धिनाथ कुबेर को लक्ष्य स्थान बनाते हुए समन्त्र, उधर प्रक्षिप्त की। अतएव साबर विद्या वशीभूत कुबेर आन्तर्घानिक भाव से जब आकर उपस्थित हो गया तब आपने अपने समीपस्थ योगियों को नादघोषणा करने की आज्ञा दी। यह सुन उन्होंने शीघ्र आज्ञा का पालन किया। उधर भोजनाभिलाषी लोगों ने आज्ञानुसार ऊपर को देख ज्यों ही पत्र को उठाया त्यों ही नीचे पत्र पर अभिलाषानुकूल पर्याप्त अशन परोसा हुआ मिला। यह देख विस्मय ग्रस्त लोग आज्ञानुसार भोजनादान में प्रवृत्त हुए और उससे सानन्द तृप्त हो अपने-अपने विश्राम भवन पर गये। मार्ग में जाते हुए लोग विविध प्राकरणिक गाथाओं द्वारा मीननाथजी की प्रशंसा करते हुए योग का महत्व वर्णन करते थे। नगर में जहाँ देखिये घर-घर में इसी विषय की वार्तायें होती थी। यह आनन्दोत्सव तीन रोज तक होता रहा। चतुर्थ दिन के लिये आपने आज्ञापित किया कल समस्त जनसमूह को प्रातःकालिक नित्यकृत्य से निवृत्त होते ही निर्दिष्ट स्थान में उपस्थित हो जाना चाहिये। ठीक यही हुआ, प्रातःकाल होते ही बड़े उत्साह के साथ लोग अपने कृत्य की समाप्ति में दत्तचित्त हुए। क्योंकि उन्हें इस बात का स्मरण था कि वांछित भोजन प्रदान के अनन्तर सम्भवतः आज अदृष्ट पूर्वदृश्य दिखलाया जायेगा। अतएव वे लोग कुछ दिन चढ़ने तक शीघ्रता के साथ वहाँ जा पहुँचे जहाँ अन्य अनुयायी योगियों के साथ मीननाथजी विराजमान थे। आपने भी जब यह समझ लिया कि मनुष्यों की पर्याप्त संख्या उपस्थित हो गई है तब समस्त लोगों को सम्बोधित कर कहा कि यह बात आप लोगों से अज्ञात नहीं है सत्संगति शून्य मनुष्य अपने दुर्गुणों के वश होकर जब कोई अनर्थ कर बैठता है तब उसके कृत्यानुकूल उसे निकृष्ट फल अवश्य प्राप्त होता है। यह देख उसके क्रोध एवं शोक का कोई पारावार नहीं रहता है और संसार में मेरे जैसा दुःखी कोई नहीं परमात्मा ने बहुत दुःखी किया, ईश्वर अन्यायी है जो मुझे इतना कष्ट दे रहा है। इत्यादि वाक्य उच्चारण कर करूणामय स्वर से क्रन्दन करता हुआ अपभ्रंश शब्दों द्वारा विष्णु शिवादि को भी उपलम्भित करने लगता है। परं क्या कोई यह कहने का साहस करेगा कि उसका ऐसा व्यवहार वस्तुतः ठीक है। किन्तु यथार्थवेत्ता कोई भी पुरुष अथवा मैं यह कभी कहने के लिये उत्सुक नहीं कि ईश्वर अन्यायी है और इसीलिये वह उसको निरपराध ही क्लेशित करता है। प्रत्युत मैं तो यह कहने के लिये उत्कण्ठा रखता हूँ कि ईश्वर न कभी निरपराध किसे कष्ट देता है और न कभी कष्ट के उत्पादक निकृष्ट कार्यों में प्रवृत्त होने के लिये उसको प्रेरित ही करता है। किन्तु वह बड़ा ही दयालु है उसने उसके उन कष्टों को नष्ट करने के वास्ते, जिनको वह अपने अतथ्य अभिमान से जायमान कार्यों से संचित करता है, उपाय भी रचकर सम्मुख रख छोड़ा है। बल्कि यही नहीं कि दयाद्र्रचित्त भगवान् ने पुरुष के कष्ट बिना शार्थ उपाय तो रचा हो परं उसके विज्ञान कराने वाले महापुरुष का अभाव होने से मनुष्य उक्त वाक्य द्वारा लाभ न उठा सकता हो। किन्तु यहाँ तक कि करूणासिन्धु भगवान् श्रीमहादेवजी ने कष्ट विनाशक उस योगात्मक उपाय का पूर्णरीति से तत्त्व समझाने के लिये कई एक महापुरुषों को संसार में प्रेषित किया है। जिनकी महती कृपा से ही मुझे भी उस योग रूप उपाय का कुछ परिज्ञान हुआ है। यदि वह ईश्वर को अन्यायी बतलाने वाला महानुभाव इस योगरूप उपाय की ओर कुछ ध्यान दे तो उसे स्वयं दुःख भोगना तो दूर रहा जिस पर उसकी विशेष दृष्टि होगी उस पुरुष का भी दुःख नष्ट हो जायेगा। यद्यपि वैषयिकरसास्वादन के वैराग्य द्वारा उस उपाय में प्रवृत्त हुआ मनुष्य चाहे तो मोक्ष प्राप्ति कर सकता है तथापि यह मान लिया जाय जिसको मैं भी स्वीकृत करता हूँ कि मोक्ष तक पहुँचना साधारण बात नहीं है तो भी इसके प्रभाव से जो सिद्धियाँ प्राप्त होगी वे ऐसी हैं जिनके द्वारा स्वयं महान् आनन्द को प्राप्त हुआ पुरुष दूसरे अनेक प्राणियों का उपकार कर सकता है। यही कारण है हम लोग स्वयं ऐसे हुए तुम्हारे भले के लिये इस देश में आकर योग मार्ग का द्वार खोलने में बाध्य हुए हैं। अतएव जो सांसारिक विविध दुःखों से पीडि़त हो और उनसे अपने आपको विमुक्त करने की अभिलाषा रखता हो तो आइये योग सार्ग के खुले द्वार से प्रवेश कर अपने अभीष्ट सुख स्थान में पहुँच जाइये, बस यही हमारा कहना है। इसी बात को सुनाने के लिये आप लोगों को निमन्त्रित कर यहाँ बुलाने का कष्ट दिया गया है। परं निमन्त्रण में दो वार्ताओं की घोषणा थी। जिनमें एक तो अभिलषित भोजन प्राप्ति विषयक थी जिसको आप लोग अनुभवित कर चुके हैं। दूसरी अदृष्ट पूर्व दृश्य विषयक थी जो अभी अवशिष्ट है। जिसके विषय में आप लोग अपने चित्त में अनेक ऐसे संकल्प उठा रहे होंगे कि न जानें महात्माजी कैसा विलक्षण दृश्य दिखलायेंगे। इसके लिये मैं आप लोगों को प्रथम ही सचेत कर देता हूँ कि जिसके दिखलाने में मुझे किसी विशेष प्रयत्न का अवलम्बन करना पड़े वह दृश्य ऐसा नहीं है। किन्तु बिना ही प्रयत्न किये दीखने वाला है और वह यह मेरा शरीर ही है। यदि आप लोग योग क्रियाओं में कुछ भी विश्वास रखते हों तो निश्चय कर लें मैं वही पुरुष हूँ जिसको, कई सौ वर्ष व्यतीत हुए जब कि मत्स्येन्द्रनाथ नाम के योगी यहाँ के राजा नियत हुए थे, उनके पुत्र होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हम दो भ्राता थे जिनमें बड़े को, जिसका नाम परशुराम था, राज्यतिलक देकर महात्माजी मुझे अपने साथ ले गये थे। उन्हों की महत्ती कृपा से मुझे योग दीक्षा प्राप्त हुई जिसके प्रभाव से इतने दीर्घ समय के अतिक्रमिक होने पर भी मैं जैसा का तैसा ही हूँ। यही नहीं अभी बहुत काल तक ऐसा ही रहूँगा। यह सब उसी वस्तु का प्रभाव है जिसकी ओर मैं आप लोेगों का ध्यान आकर्षित कराने की चेष्टा कर रहा हूँ। योग क्रियाभिज्ञान के बिना मनुष्य, मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं है। उसका तुच्छ जीवन ऐसा ही है जैसा क्षुद्र जीव कुक्कर विडालादि का। आप लोग तथा उसके अन्य कुटुम्बी और राजकर्मचारी महाशय कहाँ गये। आप लोगों में इतिहास .......... कितने ही लोग ऐसे होंगे जो उनका नाम तक नहीं जानते होंगे। अतएव मनुष्य को इस परिणामी संसार में अपने जीवनोद्देश्य के जानने के लिये तथा इसमें अपनी अक्षुण्ण कीर्तिस्थापित करने के लिये यदि कोई उपयोगी उपाय है तो वह यही है कि वह योग में प्रवृत्त हो जाय। मीननाथजी के इस वैराग्य सूचक कथन का लोगों पर बड़ा ही प्रभाव पड़ा। जिनमें कतिपय पुरुष ऐसे निकले उनको संसार के मिथ्या व्यवहार में प्रवृत्त होना ऐसा सूझने लगा जैसा विष के पान में प्रवृत्त होना। अतएव उन लोगों में मीननाथजी की शरण ले अपना अभिप्राय प्रकटित किया जिससे वे अपनी अभीष्ट सिद्धि करने में समर्थ हो सके। इन महानुभावों में एक राजघराने का पुरुष भी था जिसके प्रबल वैराग्य ने अन्य राजकीय लोगों पर भी अपना प्रभाव डाला। इसका फल यह हुआ कि योगतत्त्व जिज्ञासु पुरुषों की थोड़े ही दिन में इतनी संख्या हो गई जिसको देखकर मीननाथजी ने अपना आगमन प्रयत्न सफल हुआ समझा और योग जिवृक्षु पुरुषों को दीक्षित करने के वास्ते अपने अनुयायी योगियों को आज्ञापित कर आप स्वयं वापिस लौट आये। जो मद्र आदि देशों में भ्रमण करते हुए कुछ काल में फिर समाधिस्थ होने के अभिप्राय से उसी सौराष्ट्र देशस्थ गोरक्षनाथजी की गुहा पर पहुँचे। यहाँ उनका शिष्य निवास कर रहा था उसको स्वकीय शरीर रक्षा के लिये प्रबोधित कर स्वयं द्वादश वर्षीय समाधि में स्थित हो गये और समय के समाप्त होने पर भ्रमणार्थ फिर प्रस्थानित हुए। इसी प्रकार प्राप्तावसरिक समाधि द्वारा आयु बढ़ाते तथा आवश्यकता पड़ने पर शरीर का परिवर्तन करते हुए आपने आपना कार्यक्रम पूरा किया। अर्थात् युधिष्ठिर सम्वत् 2160 से 2631 तक आप अपने कार्य को संचालित करते रहे।
इति श्री मीननाथ भ्रमण वर्णन ।

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