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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Sunday, June 23, 2013

श्री ज्वालेन्द्रनाथ कूप निस्सरण वर्णन।

पाठक ! मैनावती का यह अनुमान ठीक था कि वे लोग ज्वालेन्द्रनाथजी को कूप में डालने के अनन्तर अपने मन में अपूर्व मोद बढ़ा रहे थे। परन्तु मैनावती के द्वारा ज्वालेन्द्रनाथजी के शिष्य कारिणपानाथ का स्मरण होने से, विशेष करके उसके उत्तेजित स्वभाव का परिचय मिलने से, उनके छक्के छूट गये। और अपने हार्दिक मोद-प्रमोद का परित्याग कर वे इस बात का निश्चय करने लगे कि अवश्य इस विषय में उपस्थित होने वाली आपदाओं से हम लोग नहीं बच सकते हैं। यही कारण था वे अपने कुत्सित कार्य से लज्जित एवं शोकाकुल हुए सभा में नीचे को ग्रीवा नमन किये बैठे रहे। और मैनावती के सम्मुख न देख कर कुछ भी उत्तर न दे सके। प्रत्युत क्षमाप्रार्थी हुए मैनावती से ही अनुकूल उपाय पूछने को बाध्य हुए। तथा कहने लगे कि शीघ्र ही किसी उपाय को अवलम्बित नहीं किया जायेगा तो यह हमको भी निश्चय है कारिणपानाथ गुरुजी के विषय में होने वाले इस कृत्य को कभी न सह सकेगा। एवं सूचना मिलते ही हमको अपनी महान् अनिष्ट कारिणी तिर्यग् दृष्टि का लक्ष्य बनायेगा। ठीक हुआ भी यही। मैनावती के अगुप्तभाव से सभा में प्रकृत वृत्तान्त के उद्घोषित करने से एक दो ही दिन में यह समाचार सुदूर देश तक विस्तृत हो गया। जो कतिपय शिष्यों के सहित देशाटन करते हुए कारिणपानाथजी ने भी सुन पाया। उन्होंने तत्काल ही इस वृत्तान्त का निश्चयात्मक परिचय लेने के लिये अपना एक शिष्य उधर प्रेषित किया। वह शीघ्रता के साथ राजधानी में प्राप्त हुआ। और सम्मुखागत लोगों से उक्त घटना की सत्यासत्यता का प्रमाण मांगने के साथ-साथ उस कूप में प्रदर्शित करने का भी आग्रह करने लगा। लोगों ने उसका तेजस्वी एवं उग्ररूप देखकर आभ्यन्तरिक भाव से भयाकुल हो यथार्थ मर्म का उद्घाटन किया। तथा कूप को दिखलाने के लिये एक मनुष्य उसके साथ भेज दिया। योगी ने उस नवीन अवरूद्ध किये हुए कूप के देखने से, विशेष करके राजा के कठोर दण्ड की सम्भावना होने पर भी लोगों के उसकी उपेक्षा कर साफ-साफ कह डालने से, निश्चय कर लिया कि यह बात असत्य नहीं। राजा ने अवश्य इस अनुचित ही क्या महान् अनुचित कृत्य का अनुष्ठान किया है। जिसके अपराध में वह अल्पदण्ड का भागी नहीं हो सकता है। ठीक इसी समय जब कि आप कूप के ऊपर खड़े हुए अपने हृदयात्मक समुद्र में विविध भावात्मक तरंगों को तरंगित कर रहे थे तब यह सूचना राज प्राशाद में भी पहुँच गई कि प्रकृत वृत्तान्त के निरीक्षणार्थ एक योगी यहाँ आया है जो कि कारिणपानाथजी का भेजा हुआ है। यह सुन गोपीचन्द के विशेष करके उन प्रधान राजपुरुषों के, जिन्होंने उक्त कृत्य कर डालने का परामर्श दिया था, पैरों के नीचे की भूमि निकलने लगी। और उनके लिये समस्त संसार जलमय दीखने लगा। अन्ततः अपने चित्त को कुछ अवधानित कर सामर्पाणिक सामग्री के सहित वे लोग योगी की सेवा में उपस्थित हुए। तथा अपने कारूणिक विनम्र वाक्यों द्वारा अपराध क्षमा करने की अभ्यर्थना करने लगे। यह देख अपने राक्तिक नेत्रों की तिर्यगवलोकना के द्वारा उनके हृदयागार में और भी भय स्थापित कर पूजा सामग्री को अस्वीकार करता हुआ गुरुजी की आज्ञानुसार केवल वृत्तान्त की सत्यसत्यता का निर्णय करने के अनन्तर वह वहाँ से प्रस्थानित हुआ। इससे उन लोगों का भयाग्नि विदग्ध हृदय और भी भस्मीभूत हो गया। और बिना ही व्याधि के शरीर की चैष्टिक शक्ति क्षीण हो गई। मानों उनके प्राण ही शेष रह गये। एक दूसरे की ओर निहारता हुआ अपने उझलते हुए हृदय को अत्यन्त कठिनता के साथ रोक रहा था। उनके अश्रुओं के बिन्दु अपने प्रवल वेग द्वारा नेत्रों से बहिर होने का साहस करने पर भी पारस्परिक लज्जा के कारण भीतर ही रह जाते थे। खैर ज्यों त्यों कर वे लोग वापिस लौटे। और एक बार अपने कथन की उपेक्षा देखकर भी वे फिर मैनावती की शरण में पहुँचे। एवं शीघ्र ही आपदाओं का पहाड़ शिर पर गिरने वाला है यह कहकर उससे बचने का उपाय पूछने लगे। उसने प्रथम तो उनको खूब डाट दिखलाई। परं पुत्र गोपीचन्द को अत्यन्त खिन्न देखकर उसके हृदय में कारूणिक संचार संचरित हुआ ऐसी प्रेरणा करने लगा मानों वह यह कह रहा है कि बस अन्त हो गया अब इन्हें धैर्य देने की अत्यन्त आवश्यकता है। अतएव उसने यह कहकर कि, अच्छा तुम लोग अपने चित्त को खास्थ्यान्वित करो मैं कोई उपाय सोचूंगी, उनको वहाँ से विदा किया। और स्वयं विज्ञापित विधि के अनुसार उसने श्रीमद्योगेन्द्र गोरक्षनाथजी का आव्हान किया। तत्काल ही उन्होंने आकाशिक आगमन से उपस्थित हो अपने प्रदत्त वचन की रक्षा की। और स्वकीय आव्हान निमित्त का परिचय मांगा। मैनावती ने उचित रीति से आपका स्वागतिक सत्कार कर उत्तर में कहा कि भगवन् ! यद्यपि आव्हान कारण ऐसा नहीं कि आप से अविदित हो तथापि आपके प्रश्न की सार्थकतार्थ समासतया मैं इतना ही कह देना पर्याप्त समझती हूँ कि बहुत समय से इसी कुटिका में निवास करने वाले महात्मा ज्वालेन्द्रनाथजी गोपीचन्द ने कूए में डलुवा दिये हैं। और इस वृत्त की सूचना उनके शिष्य कारिणपानाथ को भी मिल चुकी है। वह शीघ्र ही यहाँ आने वाला है। जो इस अपराध में न जानें कैसी अनिष्टकारिका दशा उपस्थित करेगा। अतएव उसकी तिर्यग् दृष्टि से और अनर्थ से विमुक्ति पाने का उपाय बतलाने के हेतु से आपको आहूत किया गया है। इसके उत्तर में पूज्यपादजी ने कहा कि यद्यपि समस्या बड़ी जटिल है जो कारिणपानाथ के लिये सर्वथा असह्या है तथापि जहाँ तक भी हो सकेगा हम इसको हल करने का प्रगाढ़ प्रयत्न करेंगे तू स्वयं स्वस्थ हुई गोपीचन्द आदि को स्वाथ्य प्राप्त करने का साहस देगा। यह सुन मैनावती अतीव प्रसन्न हुई। और आपके लिये सर्व प्रयोजनीय वस्तुओं का ठीक प्रबन्ध कर अपने प्रासाद में आ गई। वहाँ आने पर उसने गोपीचन्द को अपने समीप बुलाया। और श्रीनाथजी के आगमन का तथा उनके अमृतायमान वचन का समस्त समाचार उसे सुनाया। अब तो वह प्रसादित मुख से बोल उठा मातः धन्य है धन्य है आशा है आपके कृपा कटाक्ष से पवित्र हुए हम लोगों को अब उस सम्भावनेय अनिष्ट का मुख न देखना पड़ेगा। इस पर मैनावती ने कहा कि अनिष्ट का मुख नहीं देखना पड़ेगा इतना ही नहीं यदि तू अब भी कुछ समझेगा और मेरी शुभ अभिमति की ओर कुछ दृष्टिडा लेगा तो सब कुछ बन सकता है। अन्यथा एक इसी आपदा से छुटकारा मिल गया हो क्या है। तेरे अल्प जीवन में इतनी आपत्तियाँ आयेंगी तुझे किसी न किसी दिन अवश्य धूलि में मिश्रित कर डालेंगी। इस वास्ते तू जा गुरु गोरक्षनाथजी को क्षमा करने की अभ्यर्थना कर आन्तरिक स्पष्ट भाव से विज्ञापित कर दे कि भगवन् ! संसार में इस अनर्थ से उत्पन्न होने वाले कलंक से मुझे मुक्त कर दो तो मैं आपका वा जिसकी आप आज्ञा दें उसी का शिष्य बन जाऊँगा। अर्थात् उसने सोचा कि कुछ क्षण पहले तो वह अवसर प्राप्त था जिसमें मुझे अपना सर्वनाश होने की आशंका थी। बल्कि आशंका थी यही नहीं श्रीनाथजी न आते तो होता भी वैसा ही। और अब फिर वह अवसर आ प्राप्त हुआ जिसमें मुझे नष्ट होने से बचने का ही नहीं प्रत्युत चिरकाल के लिये अपनी अक्षुण्ण कीर्ति स्थापित करने का सौभाग्य मिल रहा है। फिर इन किंचित्काल के भोगों का जिघृक्षु हुआ अमूल्य अवसर को हस्त से निकाल दूँ तो मेरा ऐसा करना अनुचित ही नहीं बल्कि मेरी मूर्खता का उत्पादक होगा। इसी मन्तव्य को स्थिर करने के साथ-साथ उसने माता के परामर्श पर कृतज्ञता प्रकट की और चरणों में मस्तक लगाने के अनन्तर जननी का शुभाशीर्वाद ले अपने सहचारियों के सहित आराम में पहुँचकर स्वोचित रीत्यनुसार श्रीनाथजी की बन्दना की। प्रत्यभिवादनार्थ सान्तोषिक वचनों का प्रयोग करने के पश्चात् आपने कहा कि भावी प्रबल है। जिसका वेग अवरूद्ध करना कठिन ही नहीं सर्वथा असम्भव है। अतः जो कुछ हो चुका वह कृत्य यद्यपि संसार में महा कलंक का चिन्ह है तथापि इस विषय में तुम्हें विशेष खिन्न होने की आवश्यकता नहीं। कारण कि हमारे में और हमोर द्वारा निर्दिष्ट होने वाली विधि में पूरा-पूरा विश्वास रखेगा तो इस कलंक से मुक्त ही नहीं होगा बल्कि संसार में अपने शुभ्र यश को चिरकाल के लिये विस्तृत कर सकेगा। पूज्य पाद जी के इस कथन पर शिर नमन कर गोपीचन्द ने स्फुट रीति से सूचित किया कि आपका जो निर्देश जिस अनुष्ठान के लिये मुझे प्राप्त होगा मैं उसके करने में केवल उत्सुक ही नहीं हूँगा प्रत्युत प्राण रहते तक उसके पूरा करने का प्रयत्न करूँगा। यदि मैं अपने इस वचन से वापिस लौटूँ तो अलक्ष्य पुरुष के न्यायालय में महादोषी के दण्ड का भागी हूँ। यह सुन कुछ मुस्कराते और आन्तरिक भाव से प्रसन्न हुए श्री नाथजी ने पूरा विश्वास देने की अभिलाषा से उसको यह आज्ञा दी कि यदि यही बात है तो तेरा कार्य सिद्ध हुआ यही समझना चाहिये। तुम जाओ एक काम करो, व्यापारी का वेष बनाकर, इधर आते हुए कारिणपानाथ को मार्ग में निमन्त्रित कर सर्वोत्तम भोजन प्रदान के द्वारा उसे सत्कृत करो। भोजनान्त में वह तुम्हें आशीर्वाद देगा और अवश्य देगा। इसके विषय में कोई सन्देह न रखना चाहिये। ऐसा होने पर फिर उसका कोप तुम्हारी कुछ भी हानि न कर सकेगा। जाओ-जाओ अब इस कार्य को विलम्बित करना ठीक नहीं है, विलम्ब हुआ तो सम्भव है वह तुम्हारे पहुँचने से पहले ही इधर आ निकले। जिससे हमारा चिन्तित निर्देश निष्फल हो जाय। गोपीचन्द आपकी इस आज्ञा को शिरोधार्य समझ कर वहाँ से प्रस्थानित हुआ। और बणजारे का चिन्ह बनाने की अभिलाषा से राजकीय समझ कर वहाँ से प्रस्थानित हुआ। और बणजारे का चिन्ह बनाने की अभिलाषा से राजकीय पुरुषों को सूचित करते हुए उसने कहा कि कतिपय वैल एकत्रित कर उनमें विविध प्रकार के भोजन की सामग्री भर लो। उन्होंने बड़ी शीघ्रता के साथ सब प्रबन्ध ठीक कर राजा की आज्ञा को सफल किया। यह देख गोपीचन्द ने राजकीय चिन्ह उतारकर अपने साथियों के सहित बणजारे के रूप में प्रवेश करने के अनन्तर वहाँ से जिस मार्ग होकर कारिणपानाथजी का शिष्य गया था उसी मार्ग से प्रस्थान किया। कुछ विश्रामों के अनन्तर किसी नगर की सीमान्तर्गत सौभाग्यवश उसको कारिणपानाथजी के विश्रामित होने की सूचना मिल गई। बस उसने अपना पड़ाव उसी जगह पर डाल दिया। और अपने चतुर अनुजीवियों को उचित भेंट-पूजा देकर यह समझा दिया कि तुम लोग जाओ और इस बात का निश्चय करो नाथजी सचमुच ही वहाँ ठहरे हुए हैं क्या, यदि यह बात सत्य होय तो यह सामग्री उपायन रूप से उनके समर्पण कर कह देना कि भगवन् ! हमारे नायक ने हमको आपकी चरण सेवा में इस अभिप्राय से प्रेषित किया है उसकी आन्तरिक अभिलाषा है कि मैं कुछ वाणिज्य अंश को महात्माओं की सेवा में प्रयोगित कर दूँ। जिससे मेरा गार्हस्थ्य कर्तव्य हल हो जाने पर भी मेरे वाणिज्य में पवित्रता आ जाने की सम्भावना है। राजा की इस आज्ञा को शिरोधार्य मानकर वे लोग जब वहाँ पहुँचे तब सचमुच ही कारिणपानाथजी को विश्राम किये हुए देखा। इससे वे प्रसन्न हुए नाथजी के अतिसमीप पहुँचे। एवं समर्पणा समर्पित कर उन्होंने स्वामी की प्रार्थना को स्वकीय मुख द्वारा घोषित किया। भाग्यवश नाथजी ने अविलम्ब के साथ उन्हें आशीर्वाद प्रदान कर मस्तक से स्पर्श करने के अनन्तर शीघ्र वापिस लौटे हुए गोपीचन्द के पास आये। तथा नाथजी के अंगीकारात्मक अमृतायमान वचन को उद्घोषित करने के साथ-साथ उन्होंने परम हर्ष प्रकट करते हुए उससे कहा कि महाराज ! बड़ा ही हर्ष का विषय है हमको जाते ही वे लक्षण दिखाई दिये जिन्हों से आपकी कार्या सिद्धि में किंचित् भी सन्देह न रहा। महात्माजी ने अपनी उपलब्धि से हमको आनन्दित कर देने पर भी इस बात से परमानन्दित किया कि हमारी प्रार्थना पर पूरा ध्यान देते हुए आपका निमन्त्रण स्वीकृत किया। अतएव अब विलम्ब करना उचित नहीं भोजन सामग्री शीघ्र भेज दी जाय। इस शुभ सन्देश से राजा के हर्ष की सीमा न रही। इसीलिये उसने अविलम्ब के साथ पर्याप्त सामग्री उधर भेज दी। अधिक क्या भोजन तैयार हो गया। और कारिणपानाथजी की आज्ञानुसार पंक्ति के समय गोपीचन्द स्वयं वहाँ पर उपस्थित हुआ। एवं पंक्ति में सम्मिलित हो योगियों के हस्त का प्रसाद ग्रहण करने पर भी भोजनान्त में जब कारिणपानाथजी ने आशीर्वाद प्रदान कर उसके शिर पर हस्त रख दिया तब तो वह कृतज्ञता प्रकट कर वहाँ से विदा हुआ अपने विश्रामस्थान में आया। तथा भृत्यों को यह आज्ञा प्रदान कर, कि अवशिष्ट सामग्री मार्ग में आने वाले ग्रामों के उन लोगों को, जो बुभुक्षित हों, वितीर्ण कर देना, स्वयं कुछ सहायकों के सहित वहाँ से गमन कर शीघ्र राजधानी में पहुँचा। और तादृश शुभ समाचार गोरक्षनाथजी के सम्मुख वर्णित करते हुए उसने कहा कि भगवन् ! ठीक कार्य वैसा ही हुआ जैसा कि आपने प्रथमतः ही सूचित किया था। यह सुन श्रीनाथजी ने कार्य पूरा करने के विषय में उसे धन्यवाद दे प्रशंसित किया। इस पर कृतज्ञता प्रकट करने के साथ-साथ यह कहता हुआ, कि भगवन् ! सब आपकी ही परम कृपा का यह फल है, आपके चरणों में मस्तक लगाकर गोपीचन्द अपने प्रासाद में गया। और कार्य पूर्णता के उपलक्ष्य में भी कुछ दान पुण्य करने की आज्ञा प्रचारित करता हुआ कारिणपानाथजी के आगमन की प्रतिपालना करने लगा। उधर से अग्रिम दिन शिष्य मण्डली के सहित कारिणपानाथजी भी राजधानी की सीमा में आ पहुँचे। और वहीं से अपने आगमन की सफलतार्थ नगर के ऊपर कुछ आपत्ति डालने के लिये मान्त्रिकास्त्र का प्रयोग करने लगे। इस कृत्य के करते-करते वे नगर के अति निकट आ पहुँचे। परं नगर का अभी तक बाल भी बांका न हुआ। यह देख कारिणपानाथजी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने सोचा कि आजयपर्यन्त ऐसा अवसर कहीं भी प्राप्त नहीं हुआ था जिसमें हमारा प्रयत्न निष्फल गया हो। आज और यहाँ क्या कारण है जो ऐसा हुआ, सम्भव है गोपीचन्द की माता मैनावती ही गुरुजी की दीक्षा से इस दर्जे तक पहुँची हो जिसने मेरा अस्त्र किम्प्रयोजन बना दिया है। अथवा गोरक्षनाथजी नगर के रक्षक बन यहाँ निवास कर रहे होंगे। अन्ततः आपने जब ध्यानावस्थित होकर देखा तब तो श्रीनाथजी के विषय मे आपका अनुमान ठीक होने पर आपने जब ध्यानावस्थित होकर देखा तब तो श्रीनाथजी के विषय में आपका अनुमान ठीक होने पर आपने उस गुप्त रहस्य को जाना जो श्रीनाथजी के परामर्शानुसार गोपीचन्द ने आपका आशीर्वाद ग्रहण किया था। यह देख आपने इस समस्त समाचार को अपने शिष्यों के सम्मुख प्रकट किया था। और यह निश्चय कर कि जब श्रीनाथजी की ही ऐसी इच्छा है तब उसके विपरीत कृत्य का अनुष्ठान करना हमारे लिये उचित नहीं है, अपने प्रयोग को स्थगित किया। तथा अपने शिष्यों से कहा कि चलो कूप पर चलकर उसे साफ करेंगे। और देखेंगे कि अब तक गुरुजी का शरीर कौन दशा तक पहुँचा है। कारिणपानाथजी के कतिपय नवीन शिष्य, जो अब तक आप लोग योगेन्द्रों की आन्तरिक लीलाओं के रहस्य को नहीं समझने लगे थे, श्रीनाथजी के उक्त व्यवहार में अरूचि उत्पन्न कर गोपीचन्द के ऊपर अधिक क्रोधित हुए उसे दण्डित ही करना चाहते थे। अतएव गुरुजी की आज्ञा सुन उन्होंने स्पष्ट भाव से कहा कि स्वामिन् ! जब यहाँ आ ही गये हैं तो हमारे लिये वह कूप दूर नहीं है। और न उसका मार्जन करना ही कोई बड़ी बात है। जब आपकी आज्ञा होगी तब यह तो क्या ऐसे-ऐसे अनेक कूपों का शोधन कर डालेंगे। परन्तु प्रथम हमको इस बात के लिये आज्ञापित करो कि हम गोपीचन्द के प्रासाद पर जाकर उसे कुछ उचित दण्ड दें। और उसे बतला दें कि राजत्व अभिमान से ऐसे अनुचित कृत्य कर बैठने का कैसा नतीजा हुआ करता है। उनके ये गर्वपूर्ण एवं विचार शून्य वचन कारिणपानाथजी के रूचिकर न हुए। क्यों कि जो कार्य गुरू से न हुआ हो शिष्य के लिये उसके करने का ठेका उठाना सचमुच गुरुजी का अपमान करना है। दूसरे जिसके प्रतिपालक स्वयं श्रीनाथजी हैं उसका ये क्या अनिष्ट कर सकते थे। इसी हेतु से उनकी बुद्धि ठिकाने लाने के अभिप्राय से आपने कुछ नासिका संकुचित कर उनसे कहा कि अच्छा प्रथम बाग में चलते हैं। वहाँ श्रीनाथजी का इस विषय में कुछ परामर्श लेंगे। और फिर जैसा अवसर देखेंगे वैसा करेंगे। यह कह जब आप उधर प्रस्थानित हुए तब उनको भी पीछे चलना ही पड़ा। कुछ देर में वहाँ पहुँचे। तथा पारस्परिक आदेश-आदेश शब्दोच्चारण के सहित अभिवादन प्रत्यभिवादनात्मक सत्कार से सत्कृत हो यथा स्थान पर बैठ गये। आगमन हेतुक प्रस्ताव की उपस्थिति हुई। ठीक इसी समय जब कि दोनों महानुभाव इसी विषय का मिथःआलाप कर रहे थे तब उन लोगों ने फिर ऐसे कई एक वाक्य कह डाले जिन्हों से श्रीनाथजी को उनके प्रथमोक्त गार्विक वाक्यों का भी पता मिल गया। परं उस समय आप चुप रहे और आन्तरिक रीति से, इनके भीतर क्या भरा हुआ है जिससे उसका ठीक-ठीक परिचय मिल सके कोई ऐसा उपाय करना चाहिये, इस बात का निश्चय करने लगे। इतने ही में विविध उपायन तथा भोजन सामग्री लेकर राजा साहिब भी आ पहुँचे। उसकी यह सामग्री यद्यपि प्रथम तो कारिणपानाथजी ने अस्वीकृत की परं अन्त में भी नाथजी के अनुरोधानुसार ग्रहण कर ली। और कूप के समीप ही विश्राम करने का निश्चय कर सब सहायता के सहित वे वहाँ पहुँचे। भण्डार चेतन कर दिया गया। इधर से भोजन तैयार हुआ तो उधर से सायंकाल उपस्थित हुआ। कारिणपानाथजी ने सशिष्य सान्ध्य विधि समाप्त कर कूपस्थ स्वकीय गुरुजी के तथा श्रीनाथजी के उद्देश्य से आदेश-आदेश शब्दोद्घोषित किया। और श्रीनाथजी की आज्ञानुसार उनका भोजन उनकी कुटी पर ही प्रेषित कर योगियों को पंक्तिबद्ध हो जाने की आज्ञा के साथ-साथ यह आज्ञा भी प्रदान की कि इधर से निवृत्त हो भोजन लेकर नगर के चैं तरफ चक्र लगा देगा। जिससे कि आज के दिन नगर में कोई क्षुधात्र्त न रहे। उन्होंने वैसा ही किया और पक्क पदार्थों के पात्र सम्पूरित कर नगर के सर्वतः परिक्रमा लगतो हुए भोजन वितरण करना आरम्भ कर दिया। ठीक इसी समय जब कि वे, है 3 कोई बुभुक्षित मनुष्य 3 जो हमारा भोजन ग्रहण करे, यह घोषणा करते हुए फिर रहे थे तब श्रीनाथजी रूपान्तर में परिणत हो एक वृक्ष के नीचे जा बैठे। और उच्च स्वर से कहने लगे कि अये ! पुण्यात्माओं मुझ गरीब की ओर भी कुछ कृपा दृष्टि करना। कई दिन से अनाशनिक हूँ। जिससे सम्भव था आज मेरे प्राण पक्षी हो जाते। परं आपकी आशापाश ने ही उन्हें बन्धित कर रखा है। यह सुन वे शीघ्र उधर लौटे। और कहने लगे कि ले भोजन कहों में लेगा। उन्होंने अपना एक छोटा सा पात्र उनकी ओर बढ़ाया तथा कहा कि इसमें जो कुछ डालना हो डाल दो। परं मैं अत्यन्त भूखा हूँ यह कह ही चुका हूँ। इसलिये इस पात्र को पूर्ण कर देना। यह सुन कर उन्होंने क्रमशः सब चीज को कि उनके समीप थी कुछ-कुछ कर पात्र में छोड़ी। परं उनका कहीं पता न लगा कि वे कहाँ गई। अधिक क्या उन्होंने जितना भोजन उनके पास था सब पात्र में डाल दिया। इतने पर भी जब वह पूर्ण न हुआ तब उन्होंने एक योगी भोजन लाने और इस बात को गुरुजी के सम्मुख वर्णित करने के लिये वापिस भेजा। वह विश्राम में आया और उक्त घटना का सब समाचार कारिणपानाथजी को कह सुनाया। आपने कहा कि सम्भव है श्रीनाथजी ही उधर चले गये होंगे। अतः अमुक योगी जाय और देख आये कि वे अपनी कुटी पर हैं वा नहीं। यह सुन निर्दिष्ट योगी गया जिसको श्रीनाथजी अपनी कुटी में बैठे मिले। उसने शीघ्र लौट उनकी उपस्थिति का समाचार दिया। इस पर कुछ शंकित हो कारिणपानाथजी ध्यान निष्ठ हुए उस व्यक्ति के याथाथ्र्य को देखने लगे। जिससे आपको मालूम हो गया कि यह सब श्रीनाथजी की ही लीला है। एवं उनकी आन्तरिक अभिलाषा है कि जनों को कुछ चमत्कार दिखला कर अपना ऐहागमन सार्थक करें। इसी कारण कुछ भोजन के साथ आप स्वयं उधर चले। यह देख दर्शनार्थ आगत जनता भी, देखें इस विषय में क्या होगा, इस विचार के आश्रित हो आपके पीछे चल पड़ी। कुछ क्षण के अनन्तर आप घटनास्थल पर पहुँचे और दरिद्र रूप में परिणत श्रीनाथजी को आभ्यन्तरिक रीति से नमस्कार कर उनके पात्र में भोजन डालने लगे। जन समाज के देखते-देखते अर्ध प्रहर व्यतीत हो चला। न तो लेने वाले का पात्र पूर्ण हुआ और न देने वाले का पात्र ही रिक्त हुआ। यह देख उपस्थित लोग बड़े ही विचार चक्र में पड़े। एवं विस्मित मुख से परस्पर में कह उठे कि देखो यह अत्यन्त ही आश्चर्य की बात है। समझ में नहीं आता कि इस ग्राहक के पात्र में डाला हुआ इतना भोजन कहाँ गया। तथा दाता के पात्र में इतना भोजन कहाँ से आ गया। इस प्रकार जब लोगों की स्थिति विस्मयान्वित हो गई। तब श्रीनाथजी ने अपने वास्तविक रूप का आश्रय लिया। इससे लोगों की दशा और भी साश्चर्या हुई। और कारिणपानाथजी के अनुकरणार्थ सब वे भी श्रीनाथजी के चरणाविन्द की प्रणति में तत्पर हुए इस प्रकार बड़ा आनन्दोत्सवसा उपस्थित हुआ। दोनों महानुभावों की कीर्ति का गायन करते एवं योग विषय की अनेक गाथाओं का उद्घाटन करते-करते अपने-अपने घर को गये। उधर लोगों की प्रणामात्मक सत्कृति से सत्कृत हुए आचार्यजी भी अपनी कुटी में पहुँचे। इधर अपना कार्य सम्पूर्ण कर शिष्यों के सहित कारिणपानाथजी नगर की परिक्रमा करते हुए अपने आसन पर आये। परन्तु इस खेल ने आपके पूर्वोक्त नवीन शिष्यों के आन्तरिक स्थान में कुछ गड़बड़ी फैला दी। अतएव वे आपसे यह पूछने के लिये बाध्य हुए कि स्वामिन् ! हम सुनते हैं इन आचार्य जियों के गुरु श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी गृहस्थी थे। यदि यह बात सत्य है तो हम यह पूछना चाहते हैं उन गृहस्थी के सकाश से ये इतने शक्तिशाली कैसे हो गये। यह सुन कारिणपानाथजी समझ गये कि ये लोग अभी तक मत्स्येन्द्रनाथजी की और श्रीनाथजी की शक्ति शालिता से अनभिज्ञ हैं। इसीलिये आपने कहा कि यह पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे गृहस्थी हो गये थे तो विषयानन्द की लालसा से नहीं प्रत्युत परोपकार के लिये ही हुए थे। यही कारण था उस कृत्य से उनकी शक्तिशालिता में कुछ भी न्यूनता न आई। बल्कि सच पूछो तो इसी का नाम उपकारता है जिससे कर्ता की शक्ति नष्ट न हो। इसके विपरीत संसार में ऐसे भी अनेक पुरुष हैं जो यह मानते हैं कि किसी भी छोटे-मोटे परोपकार के लिये मनुष्य के प्राण तक के जाने की सम्भावना हो तो उसको इस बात की कुछ भी परवाह न करनी चाहिये। परं मेरी समझ में ऐसा मानने और करने वाले भूलते ही नहीं अत्यन्त भूल करते हैं। और वे उपकार के बदले में अनुपकार कर बैठते हैं। कारण कि कोई ऐसा एक बड़ा उपकार आ उपस्थित हुआ जिसमें प्रवृतिकर्ता की सर्व शक्ति क्षीण हो गई, तो इससे क्या हुआ। इस उपकृति के औद्देशिक एकाध मनुष्य को ही वह रंजित कर सका। इससे अन्य जो उसके द्वारा अनेक छोटे-छोटे उपकार होने वाले थे जिन्हों से अनेक पुरुषों की आत्मायें रंजित होने वाली थी उनकी ओर तो मानों उसने ताला लगा दिया। कहो ऐसा उपकार वास्तविक उपकार की उपाधि कैसे पा सकता है। अतएव मनुष्य को चाहिये कि शक्तिनाशक बड़े उपकार को नमस्कार करे। और शक्तिसाध्य उससे छोटे-छोटे अनेक उपकार कर उस जितना और अनुकूलता हो तो उससे भी अधिक गौरव स्थान को प्राप्त करे। श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी का अपने परापक्रम को तादवस्थ्य रखते हुए उस उपकार के करने का यही अभिप्राय था। अतः तुम यह न सोचो कि वे गृहस्थी थे और इसीलिये उनकी शक्ति भी नष्ट हो गई होगी। इसके अतिरिक्त यदि अब भी तुम्हारा चित्त उलझन में ही पड़ा रह गया हो तो तुम्हें यह सोचना चाहिये उनके राजत्व ग्रहण करने से बहुत काल पूर्व श्रीनाथजी उनके शिष्य हुए थे। जिन्होंने गुरुजी की समस्त अलौकिक विद्याओं को ग्रहण किया। फिर उनके महाशक्तिशाली होने में क्या सन्देह हो सकता है। बल्कि कितनी ही बातों में, जिन्हों में हमारा अभी पहुँचना बाकी है, ये पहुँच चुके हैं। यही कारण इनके महत्त्व का भी समझना चाहिये। जिससे गुरुजी के एवं स्वगुरुजी के विद्यमान रहते हुए भी इन्होंने जगत् गुरु और आचार्य की उपाधि प्राप्त की है। यह सुन उनका मन सन्तोषित हुआ। और श्रीनाथजी के प्रति उनके हृदय में कुछ श्रद्धा का बीज अंकुरित हुआ। उक्त प्रकार की वार्तायें करते-कराते अर्धरात्री हो गई। यह देख इधर अपने-अपने आसन पर स्थित हो ये लोग निद्रात्मक महान् आनन्दाराम में पहुँचे। उधर श्रीनाथजी कूप के ऊपर पहुँचे। और इस अभिप्राय से कि हमारे से अतिरिक्त इस कूप को कोई भी रिक्त न कर सकें, एक मन्त्र का प्रयोग कर वापिस लौट आये। तदनु प्रातःकाल हुआ। निर्दिष्ट समय पर राजा की ओर से मजूर दल के आ पहुँचने के साथ-साथ कारिणपानाथजी भी सशिष्य नित्यकृत्य से निवृत्त हो तैयार हुए कूप पर गये। और शिष्यों को यह आज्ञा देकर कि आज कम से कम सायंकाल तक कूप को अवश्य साफ करा लेना, अपने आसन पर ही आ गये। यही बात उनके शिष्यों ने मजूरों को सुनाते हुए कहा कि तुम लोगों को बड़ी चतुरता के साथ कार्य करना चाहिये। क्यों कि आज ही इसको पूरा करना है। यदि कशर रही तो गुरुजी असन्तुष्ट होंगे। इस कथन पर श्रद्धा रखते हुए विचारे मजूरों ने प्रयत्न करने में कूछ उठा न रखा। तथापि सायंकाल समीप आने तक कूए के साफ होने का ढंग न दिखाई दिया। यह देख योगी भी शारीरिक परिश्रम करने लगे। परं सूर्य अस्त पर्यन्त उनकी अभिलाषा पूरी न हुई। इससे वे लोग कुछ हर्षक्षयी हुए। और गुरुजी के समीप आकर कहने लगे कि स्वामिन् ! विचारे मजूरों ने तथा हमने भी अत्यन्त प्रयत्न किया तो भी कूआ सन्तोषप्रद साफ नहीं हुआ है सम्भव है कल अर्ध दिन में ठीक हो जायेगा। कारिणपानाथजी ने कहा कि तुम लोग कहते थे हम आपकी आज्ञा होगी उसी समय यह क्या अनेक कूप रिक्त कर देंगे। तुमसे तो और तुमसे ही क्या इतने मजूरों से भी समस्त दिन परिश्रम करते रहने पर यह एक ही कूआ साफ न हुआ। इससे अपनी गर्वभरी वाणी का स्मरण कर वे लोग नतानन किये हुए बोले कि खैर भगवन् ! जो कुछ हुआ सो तो हो गया कल यह कार्य अवश्य ठीक हो सकेगा। यह सुन कारिणपानाथजी चुप हो गये। रात्री बीत गई। फिर प्रातःकाल आया। वे लोग मजूरों के सहित बड़े जोर से परिणत हुए। और सायंकाल तक लगे रहे। परं फिर भी इच्छापूर्ति से वंचित ही रहे। अब तो उनकी विस्मयता एवं लज्जा का ठिकाना न रहा। वे आभ्यन्तरिक भाव से सोचने लगे कि गुरुजी के सम्मुख कैसे जायें और अपना मुख दिखलायें। अन्ततः निराश्रय हो वे आसन पर आये। और अपनी स्थिति का सब समाचार गुरुजी को सुनाने लगे। उसी समय कारिणपानाथजी समझ गये कि अवश्य कोई विशेष कारण है। अतएव उन्होंने आज शिष्यों को और कुछ न कहते हुए केवल इतना ही कहकर कि अच्छा थोड़ा बहुत बाकी रह गया वह कल ठीक हो जायेगा, सन्तोषित किया। और स्वयं उस विशेष कारण के परिचयार्थ ध्यान मग्न हुए। ऐसा करने पर फिर आपके श्रीनाथजी का खेल दृष्टिगोचर हुआ। परं जानकर भी आपने उसे प्रकट नहीं किया। एवं प्रातःकाल होते ही शिष्यों को फिर उसी कार्य के लिये उत्साहित किया। वे गये और दिनभर घोर प्रयत्न करते रहे। परं वह कूप कुछ ही अधस्तात् हुआ। अब तो उनकी बुद्धि और भी ठिकाने आ गई। तथा उनको भी यह पक्का विश्वास हो गया कि बात ऐसी ही गोलमाल नहीं है अवश्य कुछ न कुछ कारण है। जिससे कूप का रिक्ता होना दुष्कर ही नहीं असम्भव हो गया है। आखिर वे लज्जित हुए फिर गुरुजी के पास आये। और कहने लगे कि महाराज ! हमको तो यह जान पड़ता है कि कूए में किसी ने कुछ प्रयोग कर दिया है। यही कारण है एक दिन का कार्य तीन दिन करने पर भी पूरा न हुआ। और न होने का कोई लक्षण ही दिखाई देता है। अतः आप देखें और बतलावें क्या है किसने किया है। यह सुन कारिणपानाथजी ने कहा कि यह और कुछ नहीं तुम्हारे आहंकारिक वचनों का फल है। जो आचार्य जी ने उपस्थित किया है। अतएव तुम लोग उनकी कुटी पर जाओ। और उनके क्षमाप्रार्थी बनों। ऐसा करने पर ही गुरुजी के निकालने का सुभीता होगा। अन्यथा नहीं। गुरुजी की आज्ञानुसार वे शीघ्र बाग में गये। और गोरक्षनाथजी के चरणों में गिरे। आपने प्रत्यभिवादानन्तर पूछा कि क्या ज्वालेन्द्रनाथजी निकल आये। उत्तरार्थ उन्होंने संकुचित मुख से कहा कि भगवन् ! अभी कहाँ जब आपकी कृपा दृष्टि कार्य करेगी तब निकलेंगे। हम कौन विचारे हैं जो उनको निकाल सके। इस पर कुछ हंसते हुए आपने कहा कि हमने तो अपने गुरुजी को संसार सागर मंे गिरे हुओं को निकाल लिया था। क्या तुम लोग उनको कूप से नहीं निकाल सकते हो। इस पर वे कुछ भी उत्तर न देकर स्तब्ध नेत्र हुए बैठे रहे। आपने फिर कहा कि अच्छा यदि यही बात है और यह कार्य हमारे ऊपर ही निर्भर है तो कल हम ही करेंगे। परं तुम जाओ और गुरुजी को सुना दो कि कल मध्यान्ह में हमारी रसोई होगी। और भोजन निवृत्ति के अनन्तर ज्वालेन्द्रनाथजी को निकाला जायेगा। यह सुन आपके चरणों का स्पर्श कर वे लोग अपने आसन पर आये। एंव श्रीनाथजी की हास्यमयी आदि सब बातों की सूचना गुरुजी को देते हुए कुछ उत्साह प्रकट करने लगे। इधर श्रीनाथजी ने यही सूचना नगर में भी भेज दी। तथा प्रत्यक्षता से कह सुनाया कि कल मनोवांच्छित भोजन होगा। जिसकी ग्रहण करने की अभिलाषा हो वह मध्यान्ह से कुछ पहले कारिणपानाथजी के विश्राम स्थल में उपस्थित हो जाय। बस क्या था प्रातःकाल होने तक यह सूचना नगर भर में विस्तृत हो गई। और बाजार, गली, घरों में बैठे हुए उत्साहित लोग इसी विषय की वार्ता करने लगे। होते-होते मध्यान्ह आगमन के लक्षण भी दीख पड़ने लगे। नागरिक अनेक भोक्ता तथा कितने ही कुतूहल द्रष्टा लोग उधर दौड़ पड़े। अधिक क्या इतने मनुष्य एकत्रित हो गये जिसे साधारण मेला कह सकते हैं। कुछ ही क्षण में निर्दिष्ट अवसर उपस्थित हो गया। यह देख आचार्य जी ने योगियों समेत सब लोगों को पंक्तिबद्ध हो जाने की आज्ञा प्रचारित की। उन लोगों ने पंक्ति लगाई। और उनके आगे दो-दो पत्र भी रख दिये गये। श्रीनाथजी तथा कारिणपानाथजी आप दोनों महानुभाव पंक्ति मध्य में विचरते हुए उसका निरीक्षण करने लगे। यह कार्य कुछ क्षण में समाप्त हो गया। श्रीनाथजी ने उच्च स्वर से घोषणा कर दी कि जिस मनुष्य की जिस पदार्थ के खाने की रूचि हो वह उसी की कल्पना करे। वही पदार्थ उसके पत्र में उतना ही आ जायेगा जितने से उसकी तृप्ति हो सकेगी। यह सुन समस्त पंक्तिबद्ध लोगों ने स्वकीय इच्छा के अनुसार भोजन की स्मृति की। और वे उसी को प्राप्त हो गये। परं कारिणपानाथजी के एक शिष्य ने, जो उक्त नवीनों में से था, सोचा कि यदि आचार्यजी अपने कथनानुसार मनोऽभिलषित वस्तु प्राप्त कर देंगे तो यह कम आश्चर्य की बात नहीं। अतएव मैं सर्प की कल्पना करूँगा देखें वह आता है वा नहीं। बस पत्र का उठाना ही था एक भंयकर चेष्टा करता हुआ कृष्ण सर्प उसकी दृष्टि गोचर हुआ। जिसको देखकर वह सहसा पीछे हटा। उधर वह सर्प भी चकित सा होकर इधर-उधर दौड़ता हुआ समीपस्थ गृहस्थ लोगों की पंक्ति में जा घुसा। वे लोग भय के मारे पंक्ति भंग करने लगे। जिससे खासा कोलाहल मच गया। यह देख कारिणपानाथजी शीघ्र उपस्थित हुए। तथा मन्त्र प्रयोग से सर्प को जकड़ीभूत बनाकर लोगों के चित्त को स्वस्थ करते हुए कहने लगे बस घबराओ नहीं हमने उसको निश्चेष्ट कर दिया है। अब उसका कोई भय न करो। और आनन्द से भोजन पाओ। ऐसा होने से पंक्ति पूर्ववत् सुशोभित हुई। उधर उस शिष्य को लेकर आप पंक्ति बहिर आये। और कहने लगे कि अरे दुष्टाशय ! तूने क्यों मेरा नाम कलंकित किया। क्या यह समय इस कृत्य योग्य था। एक तो तूने भोजन के अवसर में अनुचित वस्तु की कल्पना कर श्रीनाथजी की शक्ति का निरीक्षण करते हुए उनमें अपनी अविश्वासता प्रकट की। दूसरे जो अवसर आनन्द के सहित भोजन के भोग लगाने का था उसी समय लोगों में विघ्न उपस्थित किया। तेरे इस अनधिकारित्व सूचक कृत्य पर हम क्षमा नहीं कर सकते हैं। अतएव तू आज से योग भ्रष्ट हुआ और तेरे ऊपर जो हमारा शिष्यत्व का अभिमान था वह हमने आज से उठा लिया। तू जा और कहीं जा। हमारे साथ तेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहा। यह सुन वह गुरुजी की ओर से निराश हुआ गोरक्षनाथजी की ओर अग्रसर हुआ। एवं उनके चरणों का स्पर्श कर बोला कि भगवन् ! क्षमा कीजिये भावी वश से ऐसा हो गया है। इसके उत्तरार्थ उन्होंने कहा कि यह सत्य है भावी वश से ऐसा हुआ है। परन्तु भावी समीप से नहीं जा सकती है। अतएव तूने यह भी भावी वश से ही हुआ समझ लेना चाहिये कि तू आज से योगिता का पात्र न रहेगा। और इसी सर्प के सकाश से अपनी जीवनचर्या पूरी करेगा। उस विचारे के गुरुजी का कथन सुनते ही होश ठिकाने आ गये थे। एक मात्र आप ही उसका आश्रय स्थान थे। और उसने आशा भी की थी कि सम्भव है आचार्य जी मुझे क्षन्तव्य समझेंगे। जिससे गुरुजी को भी उनके अनुकूल होना पड़ेगा। ऐसा होने से मैं फिर अपने उसी पद पर पहुँच सकूँगा। परं हतभाग्य उसकी सम्भावना के प्रतिकूल ही फल दृष्टिगोचर हुआ। वह आचार्यजी का शापमय वचन सुनते ही मूच्र्छित सा हो गया। उसके लिये समस्त संसार जलमय प्रतीत होने लगा। जो गुरु अपनी प्रेममयी दृष्टि से पवित्र कर उसे सम्मुख बैठाते थे एवं शिर के ऊपर हस्त स्पर्श कर उसका मोद बढ़ाते थे। आज वे गुरु उसे सौ क्रोश दूरी पर दीखने लगे। इससे मारे शोक के उसका हृदय उझल पड़ा। अतएव उसने करूणाक्रन्दन करते हुए अपनी महा दीन दशा उपस्थित की। जिसका प्रभाव कारिणपानाथजी के हृदय पर पड़े बिना न रहा। इसी कारण से वे विवश हो गय। और उन्होंने उसका हस्तग्रहण कर उसे अपने औरसिक स्पर्श से सन्तोषित किया। तथा कहा कि पुत्रक ! अब इस विषय में तुझे अधिक क्लेशित नहीं होना चाहिये। मनुष्य कुछ अपने शरीर पर गुजरता है वह अपना ही किया समझना चाहिये न कि उसको निष्कारण किसी अन्य का आरोपित किया समझ कर अपनी आत्माओं को अधिक कष्ट देना। अब तेरे लिये जो आचार्यजी ने आज्ञा प्रदान की है इससे अतिरिक्त कल्याणप्रद मार्ग नहीं है। अतएव इनका इस भावी सानुकूल आज्ञा का पालन करता हुआ अपने आपको फिर पात्र बनाने का प्रयत्न कर, जिससे हम तुझे ग्राह्य समझ कर फिर इसी अवस्था में नियुक्त कर लेंगे। गुरुजी के इस व्यवहार से उसके तरंगित हृदय की झाल कुछ मन्द हुई और उसने कहा कि अच्छा महाराज ! यदि यही बात है और यह मेरे किसी पूर्व जन्माचरित निकृष्ट कृत्य का फल है तो इसे भी भोग के द्वारा हल करना ही है। परन्तु श्रीनाथजी की आज्ञानुसार यह कैसे हो सकेगा कि मैं सर्प के द्वारा अपना जीवन निर्वाहन करूँ। कारण कि यह तो हस्त स्पर्श करते समय आज ही मेरा काम तुमाम समाप्त कर देगा मेरा जीवना और उसका निर्वाह करना तो दूर रहा। यह सुन कारिणपानाथजी ने कहा कि ले, ये मन्त्र हम तुझे देते हैं जिन्हों से तू अपनी इच्छानुसार सर्प को चेष्टित अचेष्टित आदि चाहे जिस दशा में प्राप्त कर सकेगा। और उसकी दुश्चेष्टा से तेरा बाल बांका न होगा। गुरुजी की आज्ञानुसार वह मन्त्र और सर्प का ग्रहण कर वहाँ से चलता ’ बना। उसका यह आकस्मिक निर्वासन देख बहुतरे लोगों के हृदय भर आये। अधिक क्या उसके गुरुभाई, जो स्वयं गुरुजी की चरणच्छाया में बैठे हुए पंक्ति भ्रष्ट मृग की तरह उसकी ओर निहार रहे थे, अत्यन्त दुःखी हुए। परं उपायान्तराभाव से उन्होंने अपने उझलते हुए हृदय को किसी प्रकार धैर्यान्वित किया। तदनु पंक्ति विषयक सब कार्य समाप्त हो गया। ज्वालेन्द्रनाथजी की निष्काशनार्थ श्रीनाथजी धूमधाम के साथ साथ कूँए पर पहुँचे। और उन्होंने सृष्टि रचनात्मक विधि का अनुष्ठान कर एक प्रयोग उपस्थित किया। जिसके अमोघ फल प्रभाव से कूप में प्रक्षिप्त किये हुए तृण आदि की शलभ (टिड्डी) बन कर आकाश में व्याप्त हुई। और बात की बात में कूप का मार्जन हो गया। ज्वालेन्द्रनाथजी की तादृश आसनस्थ प्रतिमा का प्रत्यक्ष दर्शन होने लगा। यह देख आपने गोपीचन्द को सम्बोधित करते हुए कहा कि दो पुतले, जो कि तुलना और ऊँच-नीच में तुम्हारे शरीर के सम हों, तैयार करा कर शीघ्र ले आओ। उसने तत्काल अपने भृत्यों को सूचित किया। वे बड़ी स्फुर्ति के साथ राजा के कृत्रिम शारीरिक पुतलों को तैयार कराकर ले आये। जो गोपीचन्द ने अपने आप ग्रहण कर श्रीनाथजी के समर्पण किये। उनको ग्रहण करते हुए आपने गोपीचन्द को सचेत किया कि तुम अपने चित्त को उद्धेगित न करना। और हमारे कृत्य में पूरा विश्वास रखना। यदि चित्त में कुछ भी खिन्नता हुई तो समझ लो करा-कराया समस्त प्रयत्न मिट्टी में मिल जायेगा तथा उसका इतना घोर अनिष्ट फल उत्पन्न होगा तुम्हारे साथ ये दर्शक लोग भी आपत्ति के समुद्र में पड़ जायेंगे। जिससे बहिर निकलना दुष्कर ही नहीं सर्वथा असम्भव हो जायेगा। गोपीचन्द ने आपकी इस चेतावनी को शिर नमन द्वारा स्वीकृत करते हुए कहा कि भगवन् मैं कह चुका हूँ और कह ही नहीं चुका सर्वदा कथन का स्मरण रखता हूँ कि प्राण रहते आपकी आज्ञा से एक कदम भी पीछे न हटूँगा। श्रीनाथजी ने उसके इस कथन पर हर्ष प्रकट कर एक प्रतिमा कूए के किनारे पर रखी। तथा स्वयं उसको पीछे से पकड़ कर ठहरा रखते हुए अपने शरीर की रक्षार्थ मन्त्र जाप करने लगे। इधर मन्त्र पूरा हुआ। उधर अपने पीठ पीछे खडे हुए गोपीचन्द से आपने कहा कि तुम यहीं खड़े ज्वालेन्द्रनाथजी को बहिर निकलने के लिये पुकारो हम इस पुतले की छाया कूप मंे डालेंगे यह देख वे इस बात को पूछेंगे किय ह शब्द और छाया किसकी है तब तुम न बोलना हम स्वयं उत्तर दे देंगे। यह आज्ञा मिलते ही उसने घोषणा की कि स्वामिन्, बहिर आने की कृपा करो। उधर गोपीचन्द के शब्दोच्चारण के साथ-साथ श्रीनाथजी ने प्रतिमा को कुछ कूए की और अवनत किया। तत्काल ही प्रतिध्वनि हुई किय यह शब्द किसकी है। गोपीचन्द चुप रहा। गोरक्षनाथजी ने उत्तर दिया आपके शिष्य गोपीचन्द की है। इस वाणी के ऊपर कूप से आवाज आई कि अरे अपराधिन् ! भस्म हो जाय। तत्काल उक्त प्रतिमा की भस्म ढेरी हो गई। ठीक इसी क्रम से दूसरी प्रतिमा का समाचार हुआ समझना चाहिये। अब तृतीय बारी आई। जिसमें श्रीनाथजी ने गोपीचन्द को स्वयं कूप पर खड़ा होने की आज्ञा दी। और साथ ही यह भी कह सुनाया कि अब के उत्तर भी तुम्ही को देना होगा। यह सुन वह शीघ्र अग्रसर हुआ। और कूप के ऊपर खड़ा होकर पूर्वोक्त प्रार्थना करने लगा। ज्वालेन्द्रनाथजी ने फिर पूछा कि अरे जिसने मेरे दो बचन निष्फल कर डाले ऐसा तू आवाज देने वाला कौन है, क्या सचमुच गोपीचन्द है। उसने विनम्र वाक्य से प्रत्युत्तर दिया कि हाँ गुरुजी मैं आपका चरण सेवक गोपीचन्द ही हूँ। यह सुन वे, अये पुत्र ले हम तो निकल आते हैं परं तू भस्म न हुआ तो अमर ही हो जाय, इस वाक्य की अमृतायमान ध्वनि करते हुए कूप से बहिर आये। अब तो उपस्थित जनता के आनन्द की सीमा न रही। उसके प्रसन्न सुख से उच्चरित होने वाले जय शब्द ने वह स्थल गंूजारित कर दिया। तदनन्तर गोपीचन्द ने अपने राज्य को अधिकारियों के अधीनस्थ कर गोरक्षनाथजी के परामर्श से ज्वालेन्द्रनाथजी की शरण ले अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। और श्री महादेवजी की आज्ञा पालन करने के लिये प्रथम सोपान पर पदार्पण किया। उधर ज्वालेन्द्रनाथजी अपनी विविध विचित्र क्रीडाओं से जन समाज को विस्मित करते हुए बहुत समय से इस बात की ताक में बैठे ही थे। अब वह अवसर उपस्थित हुआ जिसमें उनका वार सफल हो गया। अतएव आप गोपीचन्द को लेकर कुछ दिन के अनन्तर पवित्र और निरत्यय स्थान बदरिकाश्रम में पहुँचे।
इति श्री ज्वालेन्द्रनाथ कूप निस्सरण वर्णन।

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