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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Thursday, June 6, 2013

श्री निरंजननाथ भ्रमण वर्णन

पाठक महोदय ! करणारिनाथजी के और निरंजननाथजी के पारस्परिक संसर्ग का विच्छेद कच्छनामक देश में हुआ था यह आप पीछले अध्याय में पढ़ चुके हैं। उस समय दक्षिण देश का उद्देशित कर करणारिनाथजी के उधर प्रस्थानित होने पर निरंजननाथजी ने भी उत्तरीय देश में विचरणार्थ अपना मनोरथ निश्चित किया था। परन्तु भगवान् कृष्णजी के पूजनार्थ द्वारका के अभिमुख जाने वाले यात्री दल को देख एकाएक आपका वह मनोरथ स्थगित हुआ। अतएव आपने द्वारका को लक्ष्य स्थान बनाकर प्रथम उधर ही प्रस्थान किया और कुछ दिन के मार्गिक विश्रामानन्तर आप ठीक अवसर पर वहाँ पहुँच गये। आपका यहाँ आना सांसारिक लोगों की तरह मेला देखने वा भगवान् कृष्णजी से भौतिक पदार्थों की याचना करने के लिये नहीं था। अतएव आपने अपना आगमन सफल करने का उपयोगी उपाय अन्वेषित किया। और वह यह था कि भगवान् के दर्शनार्थ मन्दिर में जाने के लिये आपने ’ अवतिराज का सज्जीकृत हस्ती मंगाया जो आपकी सूचना पहुँचते ही भेज दिया गया था। उसके आने पर आप सवार हो नगर की ओर बढ़े। परन्तु कुछ क्षण में आप ज्यों ही नगर के समीप पहुँचे त्यों ही द्रष्टाओं के लिये आप एक अत्यन्त विस्मापक कुतूहल के स्थान बन गये। जो-जो मनुष्य हस्ती की ओर दृष्टिपात करते थे उन-उन मनुष्यों को आप हस्त के साज से दो हस्त ऊपर बैठे दीख पड़ते थे। यह देख विस्मित दर्शक लोग हस्ती के अनुयायी राजकीय कर्मचारी से आपका परिचय लेकर परस्पर में एक-दूसरे को परिचय देते हुए स्वस्व कार्यस्थान में जाते हुए भी मार्गोपलब्ध मनुष्य को इस घटना से परिचित करते थे। जिसका फल यह हुआ कि कुुछ ही देर में समग्र नगर इस वृत्तान्त के कोलाहल से गूंजारित हो उठा और सहस्रों स्त्री-पुरुष आपके दर्शनार्थ मन्दिर की ओर प्रभावित हुए। इधर कुछ क्षण में अपने मनोरथ की सार्थकतार्थ लोगों को चकित करते हुए आप मन्दिर के द्वार पर जा उपस्थित हुए और कर्तव्य पालनार्थ हस्ती से उतर पुष्पमाला हस्त में लिये हुए आप मन्दिर के आभ्यन्तरिक आंगण में गये। इस समय यह मन्दिर भी स्त्री तथा अनेक पुरुषों से परिपूर्ण था। वे मन्दिर और श्रीकृष्ण जी मूर्ति के दर्शन का ध्यान छोड़कर आपके दर्शनार्थ एक - दूसरे के ऊपर से गिरते थे।  ठीक  ऐसे  ही अवसर में निरंजननाथजी भगवान् की प्रतिमा के सम्मुख हुए। इतने ही में एक चतुर्भुजी मूर्ति मन्दिर से निकल आपके आगे आ खड़ी हुई। जिसको माला पहिनाने के अनन्तर प्रणति से सत्कृत कर आप वापिस लौट आये। इस द्वितीय अलौकिक घटना ने विस्मित लोगों के हृदय को और भी विस्मयान्वित कर डाला और मन्दिरान्तर प्रविष्ट इन लोगों ने बहिर निकल कर जयोंही इस भाग्योपलब्ध दृश्य की सूचना अन्य लोगांे को दी यों ही वे लोग, जो इस समय मन्दिर में थे वे धन्य एवं भाग्यशाली पुरुष हैं जिन्होंने भगवान् कृष्णजी का साक्षात्कार किया यदि हम भी मन्दिर में होते तो योगेन्द्रजी के पवित्र दर्शन के साथ-साथ भगवान् का भी दर्शन करते परं ऐसा क्यों होता हमारे मन्द भाग्य हैं जिनका यह पश्चातापात्मक फल उदय हुआ, इस प्रकार के आलाप द्वारा हस्त मलते हुए अपने मन्दभाग्यत्व को प्रकटित करने लगे और हस्तीपर आरूढ़ हो अपने आसनस्थान की ओर जाते हुए निरंजननाथजी के अनुयायी हुए। जिससे कुछ ही देर में बड़ी भीड़ उपस्थित हो गई। श्रद्धान्वित लोग अनेक प्रकार की मांगलिक भेंट-पूजा समर्पित कर अपनी भावना की पराकाष्ठा दिखलाते थे। उधर पुष्पलताओं का तो यह हाल था कि आप के मुखारविन्द सम्बन्धी दर्शन के पिपासुलोग यदि उनको उतार कर एक ओर कर एक ओर न रखते तो वे नाथजी के किसी अंग प्रत्यंग को भी न दीखने देती। (अस्तु) उक्त घटनाओं के श्रोत्र परम्परा द्वारा श्रवण होने से अवन्तीराज भी आपके दर्शनों का पिपासु हुआ इसी अवसर पर आ उपस्थित हुआ। जिसने समीपस्थ पुष्पसंचय को और भी उन्नत बना दिया और स्वोचित विविधोपायन समर्पणा के अनन्तर साष्टांग प्रणतियों के द्वारा आत्यन्तिक भक्ति प्रकट कर प्राश्निक हुआ कहने लगा कि महाराज ! हम लोगों को अत्यन्त हर्ष के साथ-साथ यह गौरवपूर्वक अभिमान भी है कि हम लोग महा भाग्यशाली है। अतएव इसका फलस्वरूप आज यह दृश्य उपस्थित है कि आपके दुष्प्राप्य दर्शनात्मक अमृत से अपने पापिष्ठ दंदह्यमान नेत्रों को पवित्र एवं शीतल बनाने का हमको अच्छा अवसर मिल गया है। इसके अतिरिक्त जो त्रुटि अभी अवशिष्ट है निश्चय है वह भी तादृश न रहेगी। यह सुन निरंजननाथजी ने कहा कि वह त्रुटि क्या है जो आप लोगों के महा भाग्यशालित्व में न्यूनता पहुँचा रही है। राजा ने कहा कि यद्यपि वह हमारी अभिलाषात्मक त्रुटि आपसे अविदित नहीं है तथापि आपके प्रश्नानुरोध से मैं स्फुट कर देता हूँ। मैंने श्रवण किया है कि बहुत मनुष्यों को आपने श्रीकृष्णजी का दर्शन कराया है। क्या यह बात सच है और यदि सच्च है तो मेरी अभिलाषा जो इस विषय में अंकुरित हो चुकी है क्या, आप उसको वृक्षरूप में परिणत कर फल सहित करने की परम कृपा करेंगे। इसके उत्तर आपने कहा कि लोगों को मैंने भगवान् का दर्शन कराया यह बात सच्च है और नहीं भी है। क्यों कि सच्च तो इसलिये है कि उस समय उपस्थित लोगों ने मेरे द्वारा दर्शन किया और नहीं इसलिये है कि इस विषय में उन लोगों ने मेरे से कोई अनुरोध नहीं किया था जिसके विवश हो मैं ऐसा करने के लिये बाध्य होता। किन्तु श्रीकृष्णजी योगेन्द्र हैं उधर मैं भी योगी हूँ। हम योगीलोगों की यह रीति है कि परस्पर में आगन्तुक का यथोचित स्वागत किया करते हैं। सम्भव है इसी हेतु से प्रतिमा में प्रविष्ट हो उन्होंने अग्रसरण किया था जिनके ऐसे व्यवहार से उपकृत हो मैंने भी उनकी हार्दिक प्रणति की और वापिस लौट आया। प्रसंग वशात् अदृष्ट अनुकूल होने से इस अवसर पर उन लोगों को भी दर्शन हो गया। यह कोई विस्मापक बात नहीं आगे तुम्हारी भावना ठहरी चाहे जैसा अर्थ लगाया करो। राजा ने कहा कि महाराज! हमारा अदृष्ट ही कोई ऐसा विपरीत हो कि हमारी इच्छा की सफलता में विघ्नस्वरूप हो जाय तो बात दूसरी है नहीं तो हमारी भावना निःसन्देह यही है कि दर्शन आपने कराया है और आप प्रसन्न हों तो हमको भी अवश्य करा सकते हैं। क्यों कि आपके लिये यह बात कोई असम्भावी नहीं है। निरंजननाथजी ने पूछा कि आप लोगों को ऐसा निश्चय किस बात से हुआ कि हमारे लिये ऐसा कर दिखलाना असम्भावी नहीं किन्तु सम्भावी ही है। राजा ने उत्तर दिया कि यह निश्चय तो मेरे पहले से ही था इसकी पुष्टि आपके अपने आपको योगी बतलाने से हो गई। क्यों कि शास्त्र और वृद्ध लोगों के द्वारा देखा तथा सुना जाता है कि योगियों के लिये ऐसी बात कुछ भी दुःसाध्य नहीं होती है। श्रीकृष्णजी को ही ले लीजिये जब वे योगी थे तो उन्होंने अर्जुन को क्या-क्या अलौकिक लीला दिखलाई यह आबाल वृद्ध सभी जानते हैं। अतएव यदि आप भी अपने विषय में योगित्व का अभिमान रखते हैं तो हमारी आशा लता के हरी-भरी होने में कोई सन्देह नहीं है। निरंजननाथजी ने कहा कि श्रीकृष्णजी योगिराज थे मैं ऐसा मानता हूँ। उधर अर्जुन उनका जैसा असाधारण भक्त था इस बात का परिचय उन्हीं शास्त्र वा वृद्ध पुरुषों से लीजिये। ऐसी दशा में श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को अलौकिक चमत्कारों का दिग्दर्शन कराया तो कोई बड़ी बात नहीं है। परन्तु मैं अपने विषय में योगित्व का अभिमान रखता हुआ भी न तो योगिराजत्व का अभिमान रखता हूँ और न तुम्हारा अर्जुन के तुल्य असाधारण भक्ति निष्ठ होने का कोई निश्चित प्रमाण ही मिलता है। तथापि तुमने आशासित होकर जो हमारे साथ प्रार्थना विषयक आलाप किया है हम इसको किम्प्रयोजन नहीं होने देंगे। अब तुम अपने आश्रम पर जाओ और सायंकालिक कृत्य से निवृत्त हो अपने इष्ट मित्रों के सहित हमारे समीप आना। तुम्हें श्रीकृष्णजी के अतिरिक्त उनकी तात्कालिक द्वारका का दर्शन करायेंगे। जिससे तुम्हें मालूम होगा कि उस समय यहाँ कितने उन्नत और कैसे-कैसे प्रासाद तथा उनके ऊपर कैसी-कैसी रोशनी और कैसी-कैसी कितनी पताकायें उडा करती थी। तथा देवताओं से अधिष्ठित महा प्रकाशित विमान किस प्रकार ऊपर चक्राकार से भ्रमण करते हुए अपने प्रकाश को नगर प्रकाश से मिश्रित करते थे। जिसका फल यह होता था कि सुदूर देशवासी पूर्वीय अपरिचित लोगों को ऐसी ’ शंका हुआ करती थी, कि अभी सूर्यनारायण अस्त नहीं हुआ है। आपकी इस रोमांच करने वाली पूर्णकामा वाणी को श्रवण करने के साथ-साथ ही अपने भाग्यशाली होने का पूरा निश्चय कर बार-बार प्रणति से सत्कृत करता हुआ अवन्तीराज बोला कि भगवन् ! आप्त पुरुषों ने, महात्माओं के साथ शुद्ध भाव से सम्पादित होने वाला संग कभी निष्फल नहीं होता है, यह ठीक ही कहा है। अतः मैं आपका महान् कृतज्ञ हूँ और यावंजीवन रहूँगा। परन्तु खेद है मेरे अधीनस्थ कोई ऐसी वस्तु नहीं जिससे आपके उपकार का बदला चुका सकूं। इत्यादि वचनों से महती नम्रता दिखला कर आपकी आज्ञानुसार अवन्तीराज अपने निवास भवन में गया। उधर कुछ देर में भोजन समय उपस्थित हुआ। जिसमें अपने इष्ट मित्रों के सहित वह भोजन थाल पर बैठा। परं किसको भोजन प्रिय लगता था उन्हों के तो आज यह भी ध्यान नहीं था कि संसार अथवा हम संसार मंे हैं वा नहीं। किन्तु वे इसी ध्वनि में थे कि कब सायंकाल हो और हम उस दृश्य को देखें। आज का दिन तो उनके लिये मानों वर्ष के समान गुजर रहा था। खैर किसी प्रकार कुछ थोड़ा बहुत खा पी कर भोजन से निवृत्त हुए और उसी विषय की अनेक वार्ताओं के द्वारा दिवस को यापित करने लगे। आखिर को बड़ी कठिनता के साथ जैसे-तैसे करके उन्होंने दिन व्यतीत किया। तथा सायंकालिक नित्यकृत्य से लब्धावकाश हो वे निरंजननाथजी की सेवा में उपस्थित हुए। इधर आप अपने वचन की सफलता देखने के लिये प्रथमतः ही तैयार बैठे थे। अतएव आपने अलक्ष्यपुरुष से अनुगृहीत होकर राजा तथा उसके सहचारियों को मन्त्र संशोधित भस्मी प्रदान की और आज्ञा दी कि मस्तक तथा नेत्र आच्छादन पर लगाकर नगरी की और देखो। उन्होंने आपकी आज्ञानुसार नेत्र पड़दे और ललाट पर भस्म लगाकर ज्यों ही उधर अवलोकन किया त्यों ही उनको सचमुच वही दुश्य, जिसका नाथजी ने प्रथम ही वर्णन किया था, दिखाई दिया। अतएव उन व्योमव्यापी प्रासादों को, जो विविध प्रकाश से प्रकाशित तारकित आकाश का तिरस्कृत कर रहे थे और आवश्यकता पड़ने पर जिनके ऊपर विमान ठहरते और उड़ जाते थे, देखकर वे लोग आश्चर्य ग्रस्त हुए और उन्मत्तों की तरह चेष्टा प्रकटित कर परस्पर में कहने लगे कि वे पुरुष धन्य थे जो उस समय ऐसे नगर में निवास करते थे। इतने ही में इधर से नाथजी भी बोल उठे क्या राजन् ! कुछ दीख पड़ता है। राजा ने कहा कि भगवन् ! जो दीख रहा है वह आपके अन्तर्गत है यही कारण था जो आपने प्रथम ही इस दृश्य का स्वरूप वर्णित कर दिया था। फिर नाथजी बोले तो कहो अब और कितनी देर तक देखोगे। राजा ने कहा कि भगवन्! इस दृश्य को देखते-देखते हमारे नेत्रों की तृप्ति का समय यदि अवलम्बित किया जाय तो वह अभी समीप नहीं है। इस वास्ते हमारा कब तक देखना न देखना आपकी इच्छा निर्भर है। यह सुन निरंजननाथजी ने कहा कि अच्छा नेत्रों के ऊपर वस्त्र फेर भस्मी उतार डालो। उन्होंने मन्द गति से आपकी यह आज्ञा पालन की जिसके पूर्ण होते ही नाथजी की कृत्रिम माया का अपसरण हुआ और दृश्य की तरफ से निवृत्त हो ये लोग नाथजी के चरणाविन्द में मस्तक झुका-झुका बार-बार नमस्कार करने लगे। तथा कहने लगे कि भगवन्! आप लोग धन्य हैं इस कलियुग में आप ही सच्चे मार्ग में चल रहे हैं। जिसका फल स्वरूप परमात्मा जी परम कृपा के पात्र बन अनेक अलौकिक शक्तियों के भण्डार हो रहे हो। जिनके द्वारा स्वयं सांसारिक त्रिविध दुःख से मुक्त हो हम जैसे अज्ञानान्धकारा वृत अनेक प्राणियों का उपकार कर सकते हो। फिर राजा ने कहा कि भगवन्! कभी कुछ और कभी कुछ कहने से चाहे आप मुझे प्रमत्त समझें परं मैं यह स्पष्ट कह देता हूँ कि इस दृश्य के पहले जो मैंने अपने आपको महा भाग्यशाली बतलाया था वह निःसन्देह अज्ञान से बतलाया था। वस्तुतः वैसा नहीं किन्तु मैं दुर्भाग्य मनुष्य हूँ। कारण कि वैसा होता तो मेरा यह संसर्ग आपके साथ आज नहीं कुछ काल पहले होता। जिससे मैं आपका शिष्य बन उस विषय में कुछ न कुछ सफलता अवश्य प्राप्त करता। परन्तु मैं हतभाग्य अव करूँगा क्या आप मेरी अवस्था देख ही रहे हैं जो उस दशा में परिणत है जिसमें मनुष्य योगक्रियाओं को किसी प्रकार साध्यस्थान नहीं बना सकता है। तथापि राज्य कार्यों से लब्धावकाश हो मैं परमात्मा से यह प्रार्थना अवश्य किया करूँगा कि अग्रिम जन्म में मुझे आप लोगों का संसर्ग अनुकूल अवस्था में प्राप्त हो। तदनु निरंजननाथजी ने कहा कि हाँ यह तो प्रत्यक्ष है जरावस्थानिष्ठ होने से इस जन्म में तो तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण होनी असम्भावी है तथापि इस बात से तुम्हें अधिक खिन्न चित्त नहीं होना चाहिये। क्यों कि यदि इस विषय में तुम्हारा अन्तरिक भाव निश्चित हो गया है इसीलिये अपने कथनानुसार ईश्वर ऐसी अभ्यर्थना भी करते रहोगे तो अग्रिम जन्म भी अधिक दूर नहीं समीप ही आ पहुँचा है। अतएव अब तुम अपने स्थान पर जाओ और अपने निश्चय को प्रतिदिन दृढ़ करते हुए हमारे साथ होने वाले वार्तालाप को विशेष शुभदायक बनाने के लिये ईश्वर के प्रार्थी बनो। यह सुन असकृत् प्रणाम से विनम्री भाव प्रकटित कर कभी महानन्दित और कभी हर्षक्षयी होते हुए अवन्ती राजादि सब लोग अपने निवास भवन में गये। इनके नगर में पहुँचने से कुछ देर पश्चात् प्राथमिक दो घटनाओं की तरह श्रोत परम्परा से इस बात का समाचार भी सारे नगर में विस्तृत हो गया। जिसका फल यह हुआ कि कतिपय अदृष्टानुकूल लोगों के हृदयों में प्राथमिक घटना द्वारा वपन किया हुआ जो वैराग्य का बीज था वह द्वितीय घटना से अंकुरित हो इस तृतीय घटना के समाचार से वृक्षरूप में परिणत हुआ। अतएव वे लोग सांसारिक पदार्थों की मोह ममता छोड़ निरंजननाथजी की सेवा मंे आने लगे। जो एक दो आदि के क्रम से प्रातःकाल तक पच्चीस (25) मनुष्य एकत्रित हो गये। उधर अवन्तीराज के दो कर्मचारी, जो उक्त घटना में उपस्थित थे, मानों उसी समय अपने आपको नाथजी के अर्पण कर चुके थे। इनके हृदय स्थान में इतनी चोट लगी थी कि इन्होंने निश्चय कर लिया था ये सांसारिक पदार्थ दीखने मात्र प्रिय हैं। वस्तुतः अस्थायी है, इनके साथ प्रीति करना वायु वा श्रावणी मेघों के साथ प्रीति करना है। इसीलिये इन महानुभावों ने एक क्षणभर भी नेत्र सम्मिलित न कर समग्र रात्री व्यतीत की और स्थिर किया कि दिन होने पर प्रातरिक कर्म से लब्धावकाश जो जब महाराजा साहिब सिंहासनारूढ़ होंगे तब इस विषय में उनसे आज्ञा देने की प्रार्थना करेंगे। ठीक अब वही अवसर आ उपस्थित हुआ। इधर ये इसकी प्रतिपालना में बैठे ही थे। इन्होंने सम्मुख स्थित हो प्रणामपूर्वक अपना चिन्तित मनोरथ प्रकट किया। उधर राजा स्वयं इस बात के लिये तैयार हो चुका था परं बूढापे ने रोक दिया था। तथापि आभ्यन्तरिक भाव से प्रसन्न हो वह इनकी दृढ़ता देखने के लिये इनको पटूक्तियों द्वारा समझाने लगा कि तुम मेरे अत्यन्त विश्वासी सेवक हो। अतएव मैं इधर से उधर सूर्य हो जाय तो भी तुम्हें अपने हस्त से नहीं छोड़ सकता हूँ। यदि कहो कि आप स्वयं ऐसा करने को कहते थे जो अवस्था अनुकूल होती जैसी कि हमारी है तो आप किससे आज्ञा देने की प्रार्थना करते तथा करते तो न मिलने पर आपको कैसा गुजरता। इस पर यह ध्यान रखना चाहिये कि मैंने यह बात अभ्यन्तरिक यथार्थ भाव से नहीं कही थी। क्यों कि यदि मुझे ऐसा करना रूचिकर होता तो क्या इनसे अन्य इतने पराक्रमशाली योगी पहले नहीं देखे तथा सुने थे। मैं फोरन उसी समय किसी न किसी महात्मा की शरण ले लेता। परं ऐसा कर बैठना मुझे तो न कभी अच्छा मालूम हुआ न होता है न होगा। किन्तु यह व्यावहारिक रीति है किसी माननीय महात्मा के समीप जाने पर ऐसे वचन कहे ही जाते हैं। जिन्हों से उसकी प्रसन्नता हो और अपनी श्रद्धा स्फुट होती हो। जिस समय राजा ये वाक्य कह रहा था उस समय उनके मर्म स्थान को भेदन कर वृश्चक की तुल्य पीड़ा दे रहे थे और राजा के इस खाने तथा दिखाने के हस्ती वाले भिन्न-भिन्न दांतों से निश्चय कर लिया था कि राजा लोग प्रायः ऐसी ही नीति से काम लिया करते हैं। इसलिये अवश्य कुछ दाल में काला है। परं तो भी यह तो नहीं हो सकता कि हमको आज्ञा न मिलेगी हां कुछ कठिनता अवश्य उपस्थित होगी। अतएव उन्होंने कहा कि स्वामिन् ! आपका कहना यथार्थ एवं राजनीति युक्त है। अवश्य राजा को अपने सवकांे पर ऐसी ही प्रीति रखनी चाहिये। तथापि हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि हमको रोक रखने के लिये आप किस उपाय का अवलम्बन करेंगे। हो सका है कि आप हमें राजत्व बल से महात्माजी की सेवा में न जाने देकर अपने नगर में रख सकेंगे। परन्तु वैराग्य से दग्धान्तः स्थान हुए हम लोग, अन्नोत्पत्ति में उषर भूमि की तरह आपकी राजकार्य संचालना में कारण नहीं हो सकते हैं। ऐसी दशा में आपको उचित नहीं कि हमारे प्रादुर्भूत सौभाग्य को विघ्नित कर दुर्भाग्य में परिणत करें। यह सुन राजा ने, अपने सेवक को सहसा दूर न कर उसमें प्रगाढ़ प्रीति दिखलाना, तथा किसी कार्य में उसकी ओर से निश्चता जब तक प्राप्त न हो तब तक उसमें उसे प्रवृत्त न होने देनात्मक, इन दो नीतियों को प्रयोग को सफल देखकर कहा कि अहो ! तुम लोग धन्य हो जो इस विषय में उत्साहित हुए हो। मैंने तुम्हारे में विश्वास प्राप्त करने के वास्ते ही ऐसा निषेधात्मक वचन कहा था। अन्यथा ऐसा कौन दुरात्मा मनुष्य है जो ऐसे शुभ कार्य से जिससे, मनुष्य मनुष्यता को प्राप्त कर सकता है, वंचित रखकर अपने स्वार्थ में पाशबद्ध बनावें। बल्कि मैं इस बात से विशेष प्रसन्न हूँ कि खैर अवस्था प्रतिकूल होने से मैं तो स्वयं योगेन्द्रजी के उपकार का बदला न दे सका परन्तु मेरे सेवकों दे अवश्य दिया। अतः मैं हार्दिक प्रसन्नता से कहता हूँ तुम लोग जाओ और योगेन्द्रजी को अपना सर्वस्व समझो। खैर इस बात का तो मुझे शोक है कि जिस समय तुम लोग योगेन्द्रजी की विशेष की विशेष कृपा के पात्र बन अपने अभीष्ट को प्राप्त होंगे जब तक मैं तुम्हारे इस सम्बन्ध में न रह सकूँगा। तथापि मेरा जीवात्मा इसी से सन्तोषित हो जायेगा कि तुम लोग मार्ग ही में श्रान्त न होकर अपने अभीष्ठा सिद्धिप्रद स्थान पर सीधे पहुँच ही जाना। उन्होंने प्रसन्न मुख से गर्व रहित होकर कहा कि पद्यपि इस बात के लिये हम प्रथमतः ही आपको निःसन्देह नहीं बना सकते कि अवश्य हम लक्ष्यस्थान में पहुँच जायेंगे। तथापि हमने अपने आपको अवश्य निश्चित कर रखा है। इसी से आप भी यत्न करें तो केवल यह अनुमान कर सकते हैं कि जिस कार्य में जिस मनुष्य का चित्त एवं विश्वास दोनों एकत्रित होते हैं उस मनुष्य का वह कार्य अवश्य सफल हुआ करता है। तदनु अच्छा भगवान् करे तुम्हारी कहनी के अनुकूल ही करणी भी हो, यह कहकर राजा ने उनको बड़े आदर एवं समारोह से विदा किया और कुछ देर में वे फिर योगेन्द्रजी की सेवा में जा विराजे। आगे मात्र्यरोकियों जैसे पच्चीसों की मण्डली बैठी ही थी। जिसमें अधिक लोग ऐसे थे कुछेकों के पीछे निःसहाय स्त्री बच्चे हरिणियों की तरह अनुयायी हुए अपने करूणोदोधक क्रन्दन से नाथजी के आसन को कम्पायमान कर रहे थे। अतएव निरंजननाथजी ने उनमें से पांचों को अंगीकार कर, जो सर्वथा अनुकूल थे, अवशिष्टों को, जिससे उनके जीवन की आवश्यकतायें अनुकूल रहे, कुछ ऐसी विधि प्रदान द्वारा सन्तोषित कर यह शिक्षा दे, कि अग्रिम जन्म में अनुकूल अवसर प्रदान करने के विषय में ईश्वर से प्रार्थना करते रहना, वापिस लौटा दिया। और इन पांच तथा दो राजकीय कर्मचारी जो जाति के क्षत्रिय तथा वैश्य थे और जिनका दुर्जन तथा तारक नाम था, इन सातभावी शिष्यों के सहित निरंजननाथजी ने यहाँ से गमन किया। जो शनैः-शनैः देशाटन करते तथा अनेक वृतान्ताश्रित हो अपने शिष्यों के वैराग्य और विश्वास की धाराओं को प्रवृद्ध बनाते हुए कुछ दिन के अनन्तर मध्यवाड (मेवाड़) देश में आये। इस देश के पार्वत्य भाग में मारवाड़ सीमान्त के लगभग परशुराम नामक तीर्थ पर जो पर्वतों से घिरा हुआ है, अपना आसन स्थिर किया। क्यों कि अत्यन्त ऐकान्तिक और चित्त प्रसन्न करने वाला रमणीय स्थल था। अतएव इस स्थान को सर्वथा अनुकूल समझ कर निरंजननाथजी ने अपने अनुयायियों को यहीं दीक्षित करने का निश्चय किया और दो दिन के विश्रामानन्तर कार्य आरम्भ कर दिया। उनको प्रथम अपने वेष से संस्कृत कर नाथपदान्त नाम रक्खा। जिनमें छहों के नाम तादवस्थ रहने पर भी दुर्जन का नाम परिवर्तित हुआ। अर्थात् निरंजननाथजी ने उसके दुर्जन नाम की जगह दूरंगत नाम स्थापित किया। अतएव उसका दूरंगतनाम (आधुनिक घोरंगनाथ) नाम प्रसिद्ध हुआ। यह महानुभाव पूरा सिद्ध एवं तैजस प्रकृति का पुरुष था। जिसका वर्णन यथास्थान पर आगे आयेगा। निरंजननाथजी ने स्वकीय सम्प्रदाय में प्रविष्ट कर शिष्यों को उनके गम्य स्थान का मार्ग दर्शाना आरम्भ किया। जो लगातार चैबीस 24 वर्ष की अस्खलित प्रयत्न धाराओं से यह कार्य वशंगत हुआ। अर्थात् उन्होंने बारह वर्ष तक अष्टांगों में पूर्ण कुशलता दिखला कर निर्विकलप योग में प्रवेश किया। अतएव स्वकीय प्रयत्न की सफलता का अवलोकन कर निरंजननाथजी विशेष हर्षित हुए। और अव्यर्थ प्रयोग प्रयोजनीय विद्याओं के निश्चित अधिकारी बनाने के लिये उनको बारह वर्ष की अवधि रखकर विशेष तप करने में प्रोत्साहित किया। इस वीर पुरुषों ने भी अस्खलित उत्साह के साथ अनेक कष्टों को उल्लंघित बनाकर निर्विघ्नता से यह अवधि समाप्त की। तथा इस चैबीस 24 वर्षीय गुरुपरिश्रम को अमोघ बनाकर गुरुजी को यह दिखला दिया कि निःसन्देह हम लोग आपकी सम्पूर्ण विद्याओं के अधिकारित्वावच्छिन्न हैं। इसलिये निरंजननाथजी ने महाप्रसन्न हो उनको असकृत् बधाई प्रदानित की और स्वाधीनस्थ समस्त विद्याओं से परिचित बनाकर अपने विषय में भी सूचित कर दिखलाया कि सच्चे गुरु शिष्यों को परिपक्व बनाने के लिये कोई भी वस्तु उठाई न रखकर किन-किन रूपों में परिणत होते हैं। इस प्रकार अपने शिष्यों को मनुष्यतोपहित बनाकर आपने कहा कि अये मेरे शिष्य वर्ग ! यद्यपि मैंने तुझको उस मार्ग पर ला छोड़ा है जो नेत्र खोले हुए सीधा चलता रहेगा तो वे असंख्य सांसारिक दुःख जो मेरी शरण में आने के पहले तू अनुभवित करता था फिर कभी तेरी दिनचय्र्या में उपस्थित न होंगे। तथापि मैं तुझे सचेत करता हूँ यह सांसारिक वैमोहनिक जाल बड़ा ही दुर्गम्य एवं दुष्त्याज्य है जो अच्छों को भी आकर्षित कर वेष्ठित करता है। जिसका फल यह होता है कि फिर उनके नेत्र खुले नहीं रहते हैं। अतएव वे अपने मुख्यमार्ग से इधर-उधर अपसरित हो रजकश्वान की दशा में परिणत हो जाते हैं। इस वास्ते तुझे उचित है कि तू इतने ही से अपने आपको कृत कृत्यतान्वित न समझकर सदा सचेत रहे। जिससे तेरे विषय में मैंने जो स्वार्थिक सुख छोड़कर प्रबल कष्ट उठाया है यह तुझे थोड़े ही दिन सुख देने वाला नहीं किन्तु सदा के लिये त्रिविध दुःख से विमुक्त करने वाला हो। (धन्य गुरुजी आप इतने कष्ट द्वारा शिष्यों को इस दर्जे पर पहुँचा कर भी उनके स्थान की नीम कितनी मजबूत बना रहे हैं।) अस्तु गुरुजी की यह परम प्रैतिक वाणी सुनकर समस्त शिष्य आपके चरणों में गिरे। तथा आत्यन्तिक विनम्र भाव से बड़े ही युक्ति युक्त प्रासंगिक कोमल शब्दों द्वारा कृतज्ञता प्रकट कहते हुए कहने लगे कि स्वामिन् ! आप निश्चित हों कभी ऐसा न होगा कि आपका यह वचन हमारे स्मृतिपथ से विचलित हो। इस उत्तर से प्रसन्न मुख होकर निरंजननाथजी ने अपने निर्विघ्न कार्य समाप्ति के विषय में आभ्यन्तरिक भाव से अलक्ष्य पुरुष का गुणानुबाद किया और स्वकीय शिष्य मण्डली के सहित देशाटन के लिये प्रस्थान कर वंग देश को लक्ष्य बनाया।
इति श्री निरंजननाथ भ्रमण वर्णन।

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