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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Friday, July 5, 2013

श्री दूरंगतनाथ समाधि वर्णन

इतिहास प्रेमी वाचक महाशयजी ! आप कृपाया अघीत अध्यायों पर दृष्टिपात करते हुए निरंजननाथजी के शिष्य दूरंगतनाथ; आधुनिक काल प्रसिद्ध धोरंगनाथजी को स्मृतिगत करें। क्यों कि अध्याय का आप प्रारम्भ कर रहे हैं इसके अधिनायक आप महानुभावी हैं। जिन्हों के शुभ नाम से आपको आगत अध्याय में परिचित किया जा चुका है। साथ ही यह बात भी प्रकट की गई है कि वे योग सिद्धि में गुरुजी के समत्व को प्राप्त हुए भी तैजस प्रकृति के पुरुष थे। आप गुरुपलब्ध योग क्रिया कौशल्य के प्रभाव से बहुकालिक योग प्रचार के द्वारा श्रीमहादेवजी की आज्ञा का सम्यक् रीति से पालन कर इधर-उधर के अनेक देशों में भ्रमण करने के अनन्तर सौराष्ट्र देश में आये। और इस देशीय एक पट्टन नामक नगर की सीमान्तर्गत गुहा निर्मित कर शिष्य को स्वकीय शरीर रक्षार्थ प्रबोधित करने के पश्चात् उसमें द्वादश वर्ष के लिये समाधिनिष्ठ हो गये। आपने अपने शिष्य के योग तत्त्ववेता बनाने में जिस प्रकार हितैषिता की पराकाष्ठा दिखलाई थी वह उसी प्रकार आपके विषय में सीमारहित श्रद्धा रखता था। इसीलिये वह गुरुजी की आज्ञा को शिरोधार्य समझ कर उस कार्य में दत्तचित्त हुआ। तदनु जब कि गुरुजी समाधि के द्वारा ब्रह्मरूपावस्था में प्रविष्ट हो चुके तब इस महानुभाव ने कल्पित औषधियों के सकाश से उनके शरीर को संस्कृत कर गुहा का द्वार बन्ध कर दिया। तथा अपनी दिनचर्या का प्रारम्भ इस प्रकार किया कि आठ पहर में समीपस्थ पट्टन नगर में भोजन कर आना और समस्त दिन स्वयं भी समाधिक आनन्द में मग्न रहना। यह दिनचर्या कई मास तक यथेष्ट रीत्या प्रचलित रही। अभी एक वर्ष भी पूर्ण नहीं होने पाया था। इस बीच में एक विघ्न आ उपस्थित हुआ और वह यह था कि यह महानुभाव जो भोजन के लिये नगर में जाता था इसे देखकर लोग नासिका संकुचित करने लगे। तथा धीरे-धीरे यह कहकर, कि साधु को एक दिन भोजन देना होता है न कि प्रतिदिन, इस दर्जे तक पहुँचे कि उन्होंने इसको भोजन देना बन्ध कर दिया। पाठक ! देखिये आज वह समय है जिसमें भारत के कौने-कोने में योगियों की अद्भुत शक्तिशालिता की धूम मची हुई है। और तो क्या इसी नगर की छाती पर महात्मा निरंजननाथजी के परम प्रभावशाली शिष्य दूरंगतनाथजी स्वयं द्वादश वर्षीय समाधि में विराजमान हैं। जिनके शरीर रक्षक ये शिष्य भी भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। इतना होने पर भी नहीं जानते लोगों ने क्यों ऐसा किया। अथवा ठीक है इसी को कहते हैं भावी बलवान्। जिसके चक्र से असंग रहना सर्वथा असम्भव है। यही कारण था अनेक प्राणियों के भोग की अवधि समाप्त होने से उनके विलक्षण अदृष्ट ने उनके आभ्यन्तरिक बाह्य दोनों चक्षुओं को ज्ञान शून्य कर डाला। इसीलिये वे शक्तिशाली महात्मा के सम्मुख स्थित होने पर भी उससे किंचित् भयभीत न हो अपने निन्द्यकृय के फला फलका कुछ भी विचार न कर सके। सम्भव है कि लोगों को दूरंगतनाथजी के समाधिनिष्ठ होने का समाचार मालूम न हुआ हो। और यह सोच कर, कि साधु के लिये एक ही ग्राम के गो रे बैठकर समय यापन करना उचित नहीं, उन्होंने उसका भोजन बन्धकर दिया हो। खैर जो भी कुछ हो लोगों का कृत्य विचार शून्य और सर्वथा अनुचित कहने योग्य था। इधर शिष्य महानुभाव को गुरुजी की आज्ञात्मक परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये बारह वर्ष व्यतीत करने थे। वह यह देखकर कुछ खिन्नचित्त हुआ सही परं शीघ्रता के साथ धैर्यावलम्बित हो सोचने लगा कि खैर जो कुछ होगा देखा जायेगा। परं यह तो निश्चय करूँ कि समस्त ही नगर ऐसा है वा कुछ लोग, आखिर गली-गली भ्रमण कर जब उसने इस बात की गवेषणा की तब समस्त नगर में एक भी मनुष्य उसको ऐसा न मिला जो उसका सत्कार करने के लिये अग्रसर हुआ हो। यह देख उसने लोगों के द्वारों पर जाने की आशा छोड़ दी। और इस कृत्य का आश्रय लिया कि जिस वणी में वह निवास करता था उससे एक भार काष्ठ संचितकर बाजार में लाकर बेच देना और उससे उपलब्ध मात्राओं से अन्नक्रय कर एक कुम्भकारी वृद्धा स्त्री की चक्की से पीस गुहा पर ले आता। तथा इच्छानुसार स्वयं हस्त से भोजन बनाकर स्वकीय क्षुधा का वेचन चुकाता था अधिक क्या कहैं इसी प्रकार जैसे तैसे कर उसने बारह वर्ष पूरे किये। गुरुजी का समाधि से जागरित होने का अवसर समीप आ गया। उसने गुरु शरीर को फिर संस्कृत कर तैयार किया। दूरंगतनाथजी बारह वर्ष की समाधि से ब्रह्मानन्द का अनुभव कर जागरित अवस्था में परिणत हुए। और नेत्रोद्घाटित करते ही आपने जब अपने शिष्य की ओर दृष्टिपात किया तब तो आपने एकाएक उसके शिर को जटा पंूज से शून्य देखा। जिसका अवलोकन करते ही आप आश्चर्य ग्रस्त हुए सहसा पूछ उठे कि यह क्या बात है। प्रथम तो योगियों के लिये वृद्ध होना ही लज्जोत्पादक है। इतना होने पर भी अधिक अवस्था हो गई हो तो यह समझा जा सकता है कि उसी का कुछ यह दोष हो जिससे शिर के बाल गिर गये हों, सो तो है ही नहीं फिर कारण क्या हुआ सच्च बतलाओ। वह महानुभाव यदि ग्राम का कुछ अनिष्ट करना चाहता तो स्वयं भी कर सकता था। परं उसको अपने उदर के लिये अनेक प्राणियों को महाकष्ट में नियोजित करना रुचिकर नहीं था। तथा गुरुजी के जागरित काल का स्मरण करते हुए उसको इस बात का भी डर था जो अब उसके सम्मुख आ खड़ी हुई। तथापि वह विचारा अब और क्या करता। आखिर जो सत्य बात थी बतलानी ही पड़ी। बस क्या था उसने कहने ही दे दूरंगतनाथजी की लालाटिक प्रकृति सहसा संकुचित हो गई। वे इतने कुपित हुए उनके नेत्रों से क्रोधाग्नि की रस्मिया निकलने लगी। जिससे उनका स्वरूप उस दशा में परिणत हुआ मानों प्रलयकाल के आगमन का सन्देश लाये हों। आखिर हुआ भी वही। उस नगर को प्रलायाग्नि से दग्ध करने के अभिप्राय से उन्होंने अपने शिष्य को विज्ञापित किया कि शीघ्र जाओ यदि नगर में कोई तुम्हारा कृपा पात्र हो तो उसको सूचित कर दो कि वह नगर से बहिर निकल जाय। यह सुन कर उसने समझ लिया कि नगर की खैर नहीं है तथापि वह गुरु के निश्चय को पलटने के लिये समर्थ नहीं हुआ। अतएव उसने कहा कि स्वामिन ! यद्यपि एक वृद्धा स्त्री के बिना मेरा कोई भी मनुष्य नगर में कृपापात्र नहीं है तथापि जहाँ तक हो अच्छा है यदि आप अपने इस कालिक क्रोधावेश को अनन्तर ही अवरूद्ध कर लें तो ऐसा करने से बहु संख्यक प्राणियों का मंगल हो सकेगा। परं ईश्वर को ऐसा ही नहीं कुछ और मंजूर था। इसीलिये उन्होंने उच्च स्वर से फिर कहा कि नहीं जाओ-जाओ शीघ्र जाओ। हम जो संकल्प कर चुके वह कभी अन्यथा नहीं हो सकता है। आखिर यह आज्ञा प्राप्त कर शिष्य महाशय चला और शीघ्र नगर में पहुँचा। पहुँचते ही उसने बूढिया को सूचित किया कि माई क्षमा कीजिये मैं तुझे नगर से बहिर निकालने के लिये आया हूँ। अतः शीघ्रता कीजिये और जो कुछ ग्राह्य सामग्री हो उसको उठाकर बहिर ले जाइये उसके ये आकस्मिक वचन सुनकर बूढि़या चैंक उठी। तथा कहने लगी क्यों महाराज ! यह आज क्या कह रहे हो। जब कि नगर भर में आपकी किसी ने बात तक न पूछी तब मैंने एक चक्की मात्र से आपका सत्कार किया तो उसका यह प्रतिफल मुझे नगर निर्वासिनी बनाते हो। उसने कहा कि मातः ! आप इस बात का अभिप्राय नहीं समझ पाई हैं। उसी वृत्तान्त के हेतु से मेरे गुरुजी आज जो बारह वर्ष की समाधि से उठे हैं नगर के ऊपर क्रोधित हो गये हैं। सम्भव है कि वे नगर को किसी खतरे में डालेंगे। इसी कारण से मैं आपको अक्षुण्ण रखने के लिये बहिर जाने का परामर्श दे रहा हूँ। यह श्रवण करते ही वह समझ गई कि लोगों के भोग की समाप्ति हो गई निश्चित होती है। अतः उसने अपने एकमात्र गधे पर कुछ सामग्री आरोपित कर नगर से बहिर प्रस्थान किया। मूर्ख लोग इसे अकस्मात् सामान लादकर बहिर जाते देखकर भी अपने चित्त में किसी मंगलप्रद शुभ विचार की स्थिति न कर सके। बल्कि श्रीमती कुम्भकारिणी को इस ढंग से ग्रामान्तर जाते देख हास्योद्घाटन करने लगे। वह भी निःसन्देह लोगों का अदृष्ट अनुकूल नहीं है यह निश्चय करती हुई उनके ऊपर पड़ने वाले आपत्तियों के पहाड़ को प्रस्फुट न कर चुपकी हो बहिर निकल गई। इधर वह महानुभाव यह कार्य कर शीघ्र गुरुजी के समीप आया। और कहा कि स्वामिन् ! उस वृद्धा ने चक्की प्रदान की थी जिससे मैं काष्ठनैमित्तिक उपलब्ध अन्न का चूर्ण तैयार करता रहा। इसके अतिरिक्त यदि उसके पास पर्याप्त निर्वाह होता तो मुझे यहाँ तक सम्भव है कि वह केवल अपने गृह से ही मेरा कोई प्रबन्ध कर देती। जिससे मुझे इतना कष्ट न उठाना पड़ता। परं यह बात नहीं थी। वह स्वयं अर्थाभाव से अपने जीवन को कष्टमय बना रही थी। यही कारण था वह केवल चक्की प्रदान से ही मेरा सत्कार कर सकी। दूरंगतनाथजी ने, खैर जो भी कुछ हो अब तो उसके विषय में कोई चिन्ता नहीं हम उसको अपना आशीर्वाद दे चुके हैं जिससे वह ग्रामान्तर में निवास कर अपने जीवन को सुखमय व्यतीत कर सकेगी, यह कहते हुए गुरुपलब्ध प्रलयास्र को सन्धानित किया। तथा समस्त पट्टन नष्ट हों, यह शब्दोच्चारण कर उसका प्रयोग भी कर दिया। बस क्या था अनर्थ उपस्थित हो गया। आपके उक्त शब्दोच्चारण से न केवल एक वही पट्टन नष्ट हुआ बल्कि इस नाम के तात्कालिक विद्यमान कई ग्राम बात की बात में धूलि में मिलने को तैयार हुए। यह क्यों और कैसे हुआ। यद्यपि एक उसी नगर का अपराध था। और सम्भव हो तो उसके साथ ऐसा व्यवहार करना भी कदाचित् न्याय संगत हो सकता था। तथापि अन्य ग्रामों का कोई दोष नहीं था। जिसके कारण से वे आपके इस प्रलयकालिक अस्त्र प्रयोग के लक्ष्य बनते। फिर क्यों ऐसा हुआ। इसका कारण यह है संसार में यह बात प्रसिद्ध है कि कोई भी मनुष्य जिस प्राणी में जितना अधिक प्रेम रखता है उसी का विधात करने के लिये यदि कोई अन्य तृतीय मनुष्य तैयार हो जाय तो वह प्रीति रखने वाला विघातक के ऊपर उतना ही अधिक क्रोधित होता है। ठीक इसी के अनुकूल दूरंगतनाथजी का शिष्य के शिरोवाल नष्ट हुए देख उसके कष्ठमय जीवन बीतकर भी स्वीय आज्ञा पूरी करने के हेतु से उसमें अधिक प्रेम उत्पन्न हो गया था। अतएव वे उसके अपराधी नगर पर महाक्रोधित हो प्रमादी बन गये थे। जिससे उनका शब्द की ओर कुछ भी ध्यान न रहा। और उन्होंने प्रमाद से समस्त पट्टन नष्ट हो, शब्द की जगह बहुवचन वाचक समस्त पट्टन नष्ट हो शब्द का उच्चारण कर दिया इसी से यह महान् अनर्थ उपस्थित हुआ। आपका अभिप्राय यद्यपि ऐसा था कि नगर का एक दो मोहल्ला बाजार नहीं किन्तु समग्र नगर नष्ट हो। तथापि हों शब्द के ऊपर उच्चरित होने वाली अनुस्वार ने उस अभिप्राय का परिवर्तन कर डाला। इसी को कहते हैं परमात्मा की विचित्र गति, तथा पर्वत से राई और राई से पर्वत बनाना। (अस्तु) नष्ट होने वाले अन्य पट्टन नगरों में किसी नगर की सीमान्तर्गत पूज्यपाद योगेन्द्र गोरक्षनाथजी अपना मार्ग तय कर रहे थे। वे कुछ क्षण में ज्यों ही उन्होंने नगर को उस दशा में परिणत होते देखा। ठीक इसी समय आपने उसके कारण के जानने की अभिलाषा से अपने बाह्यनेत्र बन्ध कर जब आभ्यन्तरिक नेत्रों से देखा तब तो दूरंगतनाथजी का अखिल वृत्तान्त उनके सम्मुख आ खड़ा हुआ। अतएव आपने उपयोगी मन्त्र प्रयोग द्वारा निर्दोषी नगरों को तत्काल निर्विघ्न बनाकर तादृश सुखी किया। और वहाँ से प्रस्थान कर आप दूरंगनाथजी के समीप गये। उन गुरु चेलों ने बड़े ही विनम्र भाव से आपकी स्वागतिक अभ्यर्थना की। तथा आन्तरिक भाव से अनुमान किया कि मालूम होता है श्रीनाथजी को हमारा कार्य रूचिकर नहीं हुआ है। यथार्थ में बात थी भी ऐसी ही। श्रीनाथजी यद्यपि मर्यादा भंगभय से अपराधी को कुछ दण्ड देना अच्छा समझते थे। तथापि वैसा नहीं जैसा दुरंगनाथजी ने दिया। वे तो चाहते थे कि दण्ड सर्वथा ऐसा ही होना चाहिये जिससे अपराधी की बुद्धि तो ठिकाने आ जाय परं उसकी ऐसी असाधारण हानि न हो जिससे वह बिचारा बात की बात में अपना सर्व कुछ खो बैठे। अतएव आपने दूरंगतनाथजी को सम्बोधित करते हुए कहा कि यद्यपि अन्य ग्रामों को तो हमने नष्ट होनने से वंचित रख दिया है। और यह हुआ भी ठीक ही है। क्यों कि न तो उनका कोई अपराध था। एवं न तुम्हारा उनको नष्ट करने का कोई अभिप्राय ही था। तथापि हम यह नहीं चाहते कि इस अपराधी नगर के विषय में भी इतना अधिक दण्ड होना चाहिये था। इसके विनाशार्थ तुम्हारा इतना क्रोधित होना कि जिससे शब्दोच्चारण की स्मृति थी न रही यह तुम्हारे को ही नहीं योगि समाज मात्र को कलंकित करने वाला है। ऐसे कृत्यों से तो जहाँ हम लोग अपने आपको जनोद्धारक समझ रहे हैं वहाँ लोग हमको जनविनाशक मानने के साथ-साथ अपनी सिद्धियों का अभिमान रखने वाले भी निश्चित कर बैठेंगे। अतएव नगर का अनुचित कृत्य होने पर भी उसकी योग्यता से अधिक दण्ड देने के कारण तुम भी दण्डित हुए बिना नहीं रह सकोंगे। क्यों कि जिस प्रकार तुम्हारी क्रूर दृष्टि से अपराधी नगर नहीं वंचित रह सका उसी प्रकार समाज की तिर्यग् दृष्टि से तुम नहीं वंच सकते हो। यह सुन दूरंगतनाथजी ने अपनी प्रमत्ता स्वीकृत करने के साथ-साथ तथास्तु शब्दोच्चारण पूर्वक पूर्वक आत्यन्तिक विनम्र भाव प्रकट करते हुए आपकी आज्ञा अंगीकृत की। तथा कहा कि भगवन् ! जिस कृत्य को मैं कर बैठा हूँ उसको स्वयं भी अनर्थ नहीं समझता हूँ यह बात नहीं तथापि अवश्यम्भावी वृत्त को रोकने का साहस करना मानों ईश्वरीय इच्छा में आघात पहुँचाना है। ठीक इसी रीति से मैं अपने आपको निर्दोषी बनाना चाहूँ तो बना सकता हूँ। परं ऐसा समझना और करना मानों आपकी आज्ञा का भंग करना है। अतएव वैसा न कर आप जो कुछ मेरे विषय में दण्डार्थ कल्पना कर चुके हैं उसको पूरी करना मेरा प्रथम कर्तव्य है। इसलिये कृपा कीजिये और आज्ञा दीजिये मैं किस प्रायश्चित का अवलम्बन करूँ। श्रीनाथजी ने अभी कुछ ठहरो यह आदेश प्रदान कर ज्वालेन्द्रनाथजी आदि अनेक योगियों के पास समुद्रतटस्थ द्वारका के समीप ’ स्थल में आगमन करने की सूचना प्रेषित की। और आप स्वयं भी उन गुरु शिष्यों के सहिस उस निर्दिष्ट स्थान में पहुँचे। वहाँ कुछ ही दिन में बहुत योगी आ एकत्रित हो गये। गोरक्षनाथजी ने सबके समक्ष दूरंगतनाथजी का अपराध प्रकट कर उसके विषय में दण्ड निर्धारित करने की सम्मति ली। ज्वालेन्द्रनाथजी ने समाज की ओर से भी स्वीकृत और प्रशंसनीय होगा। इस पर फिर श्रीनाथजी ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा कि अच्छा समाज की यदि यही इच्छा है तो मैं प्रकट करता हूँ इन्हें छत्तीस वर्ष का प्रायश्चित करना होगा। और वह तीन भागों में विभक्त करना होगा। तथा प्रत्येक भाग के साथ द्वादशवर्षीय अवधि रखनी होगी। जिनमें प्रथमावधि पर्यन्त एक पादाधार से द्वितीय अवधि पर्यन्त पृष्ठाधार से तृतीय अवधि पर्यन्त मस्तकाधार से स्थित रहना होगा। तथा प्रत्येक भाग के साथ द्वादश वर्षीय अवधि रखनी होगी। जिनमें प्रथमावधि पर्यन्त एक पादाधार से द्वितीय अवधि पर्यन्त पृष्ठाधार से तृतीय अवधि पर्यन्त मस्तकाधार से स्थित रहना होगा। आपकी इस आज्ञा का योगी समाज की आरे से समर्थन हो चुकने पर दूरंगतनाथजी ने सबके मध्य खड़ा हो क्षमा प्रार्थना करते हुए दण्ड को स्वीकृत किया। तदनन्तर ज्वालेन्द्रनाथजी तथा कारिणपानाथजी आप दोनों गुरु शिष्य गोरक्षनाथजी की अनुमति प्राप्त कर कैलास के लिये प्रस्थानित हुए। अन्य सब महानुभाव भी अपने-अपने अभीष्ट मार्ग में तत्पर हुए। केवल सशिष्य दूरंगतनाथजी ही अपने शरीर में स्वास्थ्य तथा विशेष बल प्राप्त करने के उद्देश्य से कुछ दिन वहाँ विराजमान रहे। आपने इसी जगह गुरु परमात्मा को प्राप्त किया था। तात्कालिक समस्त वृत्तान्त अपने प्रिय शिष्य को सुनाते रहे। इसी प्रकार सानन्द वार्तालाप से चारमास व्यतीत हो गये। समाधि हेतु से आपके शरीर में जो कुछ निर्बलता प्राप्त हो गई थी उसका पूर्ण रीति से निवारण हो बलाधिक्य की स्थापना हुई। यह देख आप वहाँ से प्रस्थानित हुए कच्छ देश की ओर अग्रसर हुए। अपनी तपश्चर्यानुकूल स्थानों का निरीक्षण करते-करते आप मार्गागत एक पहाड़ के ऊपर चढ़े। दैवगत्या आपके ऊपर चढ़ते ही अकस्मात् यह पाषाण संचय कम्पायमान हो गया। मानों अपराधी दूरंगतनाथजी को अपने ऊपर चढ़े हुए देख घृणा के सहित उनके निवास को अस्वीकृत कर रहा है। यह देख उन्होंने भी उसका यही अर्थ लगाया। अतएव वे सहसा अये ! ’ कुष्ठी हमारे निवास के लिये तू इतना घृणित है, यह कहते हुए नीचे उतर आये। और एक दूसरे ’ पहाड़ पर जाकर विश्रामित हुए। यह स्थान उनके रूचिकर होने पर भी पूर्वोक्त की तरह इसने कोई अशुभ लक्षण प्रकट नहीं किया। ठीक इसी जगह श्रीनाथजी की आज्ञा पालन करने के लिये आप उनके निर्देशानुसार क्रामिक प्रायश्चितात्मक तपश्चर्या में तत्पर हुए। अर्थात् आपने बारह वर्ष तक एक पदाधार से खड़े हो वृक्षासन से तप किया। बारह वर्ष तक भूमि पर सीधी तरह सोकर मृतकानुकारी शवासन से तप किया। बारह वर्ष तक पैर ऊपर तथा मस्तक भूमि पर धारण कर विपरीत मुद्रा से तप किया। यद्यपि श्रीनाथजी की आज्ञा इस आसन के विषय में साधारणतया स्थित रहने की थी। तथापि आपने आचार्यजी की आज्ञा को और भी अधिक परिपक्व बनाने के लिये सुपारी पर मस्तक आरोपित कर अपनी असाधारण अनुलोमता का परिचय दिया। जिससे आपकी दिनचर्या महाकठिन दशा में परिणत हुई। और संचित अपराध उससे पराजित हो आपके शरीर से निर्वासित हुआ। यही नहीं बल्कि आपके शरीर में इतना अधिक तेज बढ़ गया मानों साक्षात् चतुर्भुजी भगवान् आकर प्रविष्ट हो गये हों। यही कारण था जिस दिन आपके दण्ड की अवधि पूरी हुई उस दिन आपने अपने शिष्य से कहा मैं किस ओर नेत्र खोलूं। जिस ओर की तू सम्मति प्रकट करेगा उसी ओर खोलूंगा। पाठक ! आज वह दिन है आपकी तपश्चर्या समाप्ति के उपलक्ष्य में अनेक राजा महाराजा लोग आकर एकत्रित हो गये थे। जो कुछ दूरी पर स्थित हो आभ्यन्तरिक भाव से आपको असंख्य धन्यवाद देते हुए हस्तों में विविधोपायन सामग्री धारण कर आपके महापुण्योपलब्ध पवित्र दर्शन करने के लिये लालायित हो रहे थे। अतएव उन लोगों को त्रैकौणिक पंक्तिबद्ध हुए देख शिष्य महानुभाव ने प्रार्थना की स्वामिन् ! वासपाश्र्व में वर्तमान वमुद्र की ओर कृपा दृष्टि कीजिये। यह सुन उन्होंने वैसा ही किया। उनकी नेत्र ज्योतिःसहसा बहिर भूत हो प्रलयास्त्र के रूप में परिणत हुई। यद्यपि पुनः अनर्थोत्पत्ति के भय से आपने उसके शमनार्थ किसी अन्य उपाय का प्रयोग भी किया था तथापि उसने शान्त होते-होते समुद्र को तिरस्कृत किया। जिसके अत्यन्त सन्तप्तस्पर्श को न सहता हुआ रत्नाकर महानुभाव कई क्रोश पीछे हट गया। पाठक ! देखिये योगी महानुभावों का कैसा विचित्र चरित्र है। ये पद-पद और बात-बात पर उसी कृत्य का अवलम्बन करते हैं जिससे योग का महत्त्स प्रकट होने पर भी लोगोें का चित्त इधर आकर्षित होे। आखिर हुआ भी यही कई एक महाभागों ने अपने चित्त में दृढ़ निश्चय कर लिया कि पूजा समर्पणा के बाद हम इस बात से नाथजी को सूचित करेंगे। यदि इन्होंने स्वीकृत किया तो आज से ही हमको गृहीत व्यवहार से मुक्त हुआ समझना चाहिये। (अस्तु) दूरंगतनाथजी ने अपनी दृष्टि का संहार कर शिष्य की ओर इशारा किया। उसने शीघ्रता के साथ समीपस्थ राज संघ को अग्रसर होने की सूचना दी। वे लोग आगे बढ़े और स्वहस्त गृहीत नाना प्रकार की अर्चना सामग्री समर्पण करते हुए आपका मंगलप्रद आशीर्वाद ग्रहण करने लगे। इस स्थल के लिये यह दिन बड़ा ही अपूर्व एवं सौभाग्य का था। राजा लोगों ने आपका असाधारण सत्कार कर वह अवसर उपस्थित किया जो राज्याभिषेक के समय भी होना दुर्घट है। अन्ततः पूजा समर्पणा के साथ-साथ पूर्वोक्त वैरागी महानुभावों को आपके समर्पित कर नृप समूह अपने-अपने स्थान पर गया। इधर आप उपलब्ध शिष्यों को योग का तत्त्व समझाने में दत्तचित्त हुए।
इति श्री दूरंगतनाथ समाधि वर्णन

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