पाठक महाभाग ! क्षमा कीजिये मैं सिंहावलोकन न्याय से एक बार फिर आपका ध्यान उक्त अध्यायों की ओर आकर्षित करता हूँ। आप कृपया कालीकोट (कलकत्ते) वाले वृतान्त पर दृष्टिपात करने का प्रयास करें। ऐसा करने से आप एक बार फिर इस बात से परिचित हो जायेंगे कि श्रीनाथजी स्वयं दाक्षिणात्य प्रान्तों को लक्षित कर समीपस्थ योगियों को स्वच्छन्दता से विचरण की आज्ञा प्रदान करने के अनन्तर जब वहाँ से गमन कर गये थे, तब वे योगी भी अपने-अपने अभीष्ट स्थान के उद्देश्य से प्रस्थानित हुए पर्यटन करने लगे थे। उनमें यद्यपि अन्य योगी एकाकी भ्रमण द्वारा योगोपदेश कर अपने कर्तव्य पालन में अग्रसर हुए थे, तथापि सूर्यनाथ और पवननाथ ये दोनों महानुभाव एकत्रित रहते हुए ही इस कार्य में दत्तचित्त हुए। आप गुरुजी से पृथक् होने के अनन्तर सर्प गति से कतिपय वर्ष पर्यन्त इधर-उधर के अनेक प्रान्तों में भ्रमण कर तीर्थराज प्रयाग प्रान्त में आये। ’ यहाँ आपके गुरुभाई भर्तृनाथजी कुछ दिन से गति स्थगित कर रहे थे। इनसे आपका अपूर्व पै्रतिक साक्षात्कार हुआ। और कुछ दिन के लिये आप भी यहाँ विश्रामित हो गये। आप लोगों का कई एक दिन योगप्रचार विषयक पारस्परिक परामर्श होता रहा। अन्तिम दिन जबकि दोनों महानुभाव प्रस्थानाभिमुख हुए तब भर्तृनाथजी ने पूछा कि आप लोगों का अब किस ओर जाने का विचार है। उन्होंने उत्तर दिया कि हम उसी पांचाल देशीय पहाड़ी पर जायेंगे जहाँ हमको योग दीक्षा प्राप्त हुई थी। क्यों कि कुछ वर्ष समाधिनिष्ठ होने की इच्छा है इस कार्य के लिये हमको वही स्थल विशेष रूचिकर है। सम्भव हो सकता है कि वहाँ तक के देशाटन में कोई मुमुक्षु शरणगत हो जायेंगे तो उनकी दीक्षा प्रणाली के कारण से इस कार्य में कुछ काल का विलम्ब हो जायेगा यदि ऐसा न हुआ तो बस वहाँ पहुँचने की ही देरी है हम शीघ्र उस अवस्था में परिणत होने वाले हैं। तदनु भर्तृनाथजी ने कहा कि अच्छा आप चलिये। कोई मुमुक्षु हस्तगत हुआ तो हम भी कुछ दिन में वही आते हैं। और यह भी सम्भव है आप लोगों का भी पर्यटन निष्फल नहीं जायेगा अवश्य कोई न कोई महोपरामी महाभाग उपस्थित हो आप लोगों को अपना उत्तरदायित्व हल करने का अवसर देगा। जिससे आप मुझे वहाँ इसी अवस्था में उपलब्ध हो सकेंगे। यह सुन उन्होंने, खैर जैसी श्रीनाथजी की इच्छा होगी वैसी दृष्टिगोचर हो ही जायेगी हमारा तो दोनों बातों से कल्याण है, यह कहकर आदेश-आदेश शब्दोच्चारण के साथ शिरनमन पूर्वक वहाँ से प्रस्थान किया और भवसागर तरणानुकूल योगात्मक नौका से परिचित होने के लिये जनों को प्रोत्साहित करते हुए आप कुछ दिन में लक्षित स्थान आधुनिक प्रख्यात गोरक्ष टीला पहाड़ पर पहुँचे। आपका यह भ्रमण भर्तृनाथजी की अमोघ सम्भावनानुसार चार परम वैरागी सज्जनों ने सार्थक किया। अतएव आप अपना उद्देशित सामाधिक कार्य स्थगित कर प्रथम दो-दो को ग्रहण करने के साथ-साथ ही शिष्यों को संसार समुद्रोल्लंघनक्षम योगरूप नौका का जटिलजालावरूद्ध मर्मस्थान दर्शाने लगे। आप लोगों के इस कृत्य में प्रवृत्त होने से कुछ ही दिन पश्चात् उधर से भर्तृनाथजी भी असंख्य युग से सांसारिक अगाध पंकपतित हुए स्वोद्धारेच्छु एक महानुभाव को स्वीयभुजावलम्बित कर वहीं आ उपस्थित हुए। और दो-चार दिन के विश्रामानन्तर उनकी तरह आप भी अपने शिष्य को गम्यस्थान का मार्ग प्रदर्शित करने में तत्पर हुए। यह महानुभाव जैसा आप चाहते थे ठीक वैसा ही समाहित चित्त उत्तमाधिकारी निकला। अतएव आपने यमनियमादि की उपेक्षा कर केवल अभ्यास वैराग्य से ही उसको योगवित् बनाने के अभिप्राय से प्रथम शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्ति के लिये षट्कर्मों में निपुण किया। तदनन्तर कुछ दिन में उक्त दो उपायों से ही जब वह सामाधिक दशा में विलीन होने का ठीक-ठीक प्रकार समझ गया तब आपने उसके लिये अनपेक्षित भी मन्द मध्यमाधिकारी के उपकारक उपायों से उसको विज्ञापित करना आरम्भ किया। और बतलाया कि अये महाभाग! यदि मन्द अधिकारी कोई पुरुष तुम से योगमार्ग में प्रवृत्ति कराने का विशेष आग्रह करे तो तुम उसको इन षट्कर्मों और यम नियमादि अष्ट अंगों मंे पूर्ण कुशल करके ही वैसा कर सकोगे। अतः ऐसे पुरुष के लिये अष्टांगों की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। इस बात पर दृढ़ निश्वास न रखने वाले को कुछ दिन के विलम्ब से अकृतकार्य होकर फिर इसी क्रम पर आना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त यदि कोई मध्यमाधिकारी पुरुष योगवित् बनने के अभिप्राय से तुम्हारे शरणागत हो तो उसको कृतकृत्य करने के लिये तुम्हें केवल अनशनादि उचित व्रत, तथा प्रणवजप और प्रणिधान इन तीन उपायों से ही कार्य लेकर अन्य यमादि की उपेक्षा करनी होगी। तदन्य सौभाग्यवश यदि उत्तमाधिकारी कोई सज्जन तुम्हारा आश्रय ग्रहण करै तो उसको अभीष्ट सिद्धिप्रद प्रकार को तुमने स्वयं ही अनुष्ठित किया है। उसका इसी से कार्य निर्वाहित हो जाने से मन्द मध्यमाधिकारी के प्रकार को केवल तुम्हारी तरह समझ लेना ही उचित होगा। इस तरह प्रयत्नाप्रयत्न साध्य प्रकार त्रय का ज्ञान प्राप्त कर वह अत्यन्त आनन्दित हुआ। तथा धन्य गुरो! धन्य गुरो ! शब्दोच्चारण करता हुआ गुरुजी के चरण पुगल मंे बार-बार मस्तक लगाने लगा। एवं गुरुजी की असाधारण प्रीति देखकर गदगद हो कहने लगा कि स्वामिन् ! सम्भव है हो जायेगी परं इस समय मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं जिससे मैं आपके महत्तर उपकार का बदला चुका सकूँ। यह सुन भर्तृनाथजी ने कहा कि अये भद्र ! यह बात सदा याद रखनी चाहिये कि शिष्य के लिये यदि गुरुपकार का बदला चुकाना है तो इससे उत्तम और कुछ नहीं कि वह गुरुपदेश को अबन्ध्य बना दे। ऐसा न करने वाला मनुष्य अन्य शारीरिक सेवादि सहस्र कृत्यों से भी यथार्थ रूप में गुरु का बदला नहीं चुका सकता है। और न आभ्यन्तरिक भाव से गुरु उसके ऊपर प्रसन्न ही होता है। इस बात में प्रमाण अन्वेषणा के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक मनुष्य में घटा लीजिये कोई भी मनुष्य किसी का परममित्र वा सेवक बना हो और अनेक प्रकार की घड़ी भी धैर्य न धर सकता हो। इतना होने पर भी यदि वह अपरमित्र के वा सेव्य के द्वारा निर्दिष्ट सदुपदेश में आस्था न रखता हो तो वे उसके विषय में नासिका संकुचित करने लग जाते हैं। अतएव इससे यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि कोई भी मनुष्य किसी दूसरे के उपकार का प्रत्युपकार करना चाहता हो वा उसको प्रसन्न करना चाहता हो तो वह उसके गृहीत पथ पर सविश्वास पदार्पण करै। ठीक इसी के अनुकूल जब तुम अपने प्रबल पांच शत्रुओं के साथ युद्ध करने के उद्देश्य से हमारे अवलम्बित मार्ग पर डटे हो बल्कि आ डटे ही नहीं तुमने युद्धोपयोगी सामग्री भी संगृहीत कर ली हैं तब यह कहने का प्रयोजन नहीं कि हमारा बदला चुकाने के लिये किसी और बात की आवश्यकता है। किन्तु तुमने हमारे प्रयुक्तोपदेश को सविश्वास और शीघ्रता के साथ जो ग्रहण किया है हमने इसी को सब कुछ प्रत्युपकार समझ लिया है। रह गई उपदेश चरितार्थता की बात, उसमें हम कुछ सन्देह ही नहीं करते हैं। क्यों कि हमारे उपदेश में कौशल्य प्रापत करना कभी निष्फल नहीं हो सकता है। आपके इस कथन से शिष्य महानुभाव के हृदयागार में आपके विषय की भक्ति श्रद्धा का जो प्रवाह प्रचलित हुआ उसका परिमाण लिखना लेखनी की शक्ति से बहिर है। वह प्रथम तो प्रत्येक क्रिया प्रदान में प्रदर्शित होने वाली आपकी असाधारण चतुरता और प्रीति पर ही मुग्ध हो गया था। दूसरे आपको प्रत्युपकारार्थ निरीह समझ कर उसके आन्तरिक स्थान में जो धारणा संचरित हुई वह सर्वथा अकथनीया थी। ठीक उसी का उद्घाटन करने के अभिप्राय से उसने कहा कि स्वामिन् ! यों तो ईश्वरीय वास्तविक इच्छा का मर्म जानना बड़ा ही दुष्कर है नहीं कह सकते उसकी अनुकूलता के अनुसार कुछ काल में क्या से क्या हो जाय तथापि स्वकीय चित्त की भावना आपके अभिमुख प्रस्फुट करता हूँ मैं प्राणान्त पर्यन्त भी आपके पुण्योपदेश से संस्कृत हुए अपने शरीर को कलंकित करने वाली प्रमत्ता धारण नहीं करूँगा। तथा भगवान् न करै मैं आहंकारिक वाक्य कह डालूँ परं इतना अवश्य कहूँगा कि मेरी उचित कर्तव्य पालना को देखकर आप अपने चित्त में स्वयं यह निश्चय करने को बाध्य होंगे कि अवश्व हमने पात्र में ही वस्त्वारोप किया है। यह सुनकर भर्तृनाथजी अत्यन्त प्रसन्न हएु कहने लगे हाँ यह अवश्य है किसी भी देश की उन्नति अवनति को उसका वाणिज्य सूचित कर सकता है। अर्थात् इसका मतलब यह हुआ कि कोई भी मनुष्य किसी देश के व्यापारी की उन्नति देखकर भ्रमण किये बिना ही उस देश की उन्नति का निश्चय कर लेता है। ठीक इसी प्रकार हमने तुम्हारे सादर क्रिया ग्रहणता में प्रदर्शित होने वाले श्रद्धेय व्यापार से यह प्रथम ही निश्चित कर लिया है कि हमारा जितना उपदेश तुम्हारे में प्रविष्ट हो चुका है वह किसी प्रकार भी किम्प्रयोजन नहीं हो सकता है। प्रत्युत भगवान् आदिनाथजी सहायक हो जायें तो तुम्हें इसके द्वारा जीवता से विरहित हो जाने का अवसर प्राप्त हो सकेगा। तदनन्तर शिष्य को पूर्ण अधिकारी प्रमाणित कर आपने उसको मान्त्रिक आस्त्रिक विद्याओं में असाधारण कुशलता प्राप्त कराना आरम्भ किया। उसी प्रकार कुछ दिन और सानन्द व्यतीत होने लगे। पाठक ! सम्भव है यह बात आप से अनवगत नहीं होगी कि संसार में जितने मनुष्य देखें जाते हैं पूर्वजन्माचरित अदृष्टाख्य कर्म की पोटली उन सबके साथ विद्यमान रहती है। वह भी यह स्मरण नहीं रखना कि जैसे प्रत्येक व्यक्ति में जीवात्मा समरस है वैसी ही समता रखने वाली होगी। प्रत्युत समस्त व्यक्ति जितने भेद में परिणत हुई हैं उतने ही भेदान्वित वे कर्म पोटली भी समझनी चाहिये। यही कारण है उनके अनुकूल विविध कार्यों में अवतरित व्यक्ति विविध प्रकार से ही कृताकृत कार्य देखी जाती हैं। कोई भी मनुष्य किसी कार्य में एक दिन प्रवृत्त रहता हुआ निपुणता प्राप्त करता है तो कोई मनुष्य अर्ध दिवस में ही उसका मर्म समझ जाता है। कोई एक तीसरा ऐसा अनार्थ मिलता है वह उसी कार्य में कुशल होने की अभिलाषा से दो वा तीन दिन तक खर्च कर डालता है। ठीक यही वृत्त यहाँ भी उपस्थित हुआ। भर्तृनाथजी का शिष्य उन्हीं क्रियाओं में अन्य योगियों से पीछे प्रवृत्त होने पर भी पहले उत्तीर्ण हुआ। प्रिय शिष्य की यह विलक्षण प्रतिभा देखकर भर्तृनाथजी के आनन्द का ठिकाना न रहा। आप परम हर्षित हृदय से अस्फुटतया उसकी प्रशंसा करने लगे। और उसको दैनिक समाधि का अवलम्बन करने की आज्ञा प्रदान कर गुरु भाइयों के परामर्शानुसार कुछ काल के लिये स्वयं भी समाधिनिष्ठ हो गये। इधर कुछ ही दिन के अनन्तर सूर्यनाथजी तथा पवननाथजी ने भी अपने-अपने शिष्यों को तादृश बना दिया। तथा स्वकीय पूर्व चिन्तन के अनुकूल शिष्यों को अभ्यास परिपक्व करते रहने का आदेश दे कर ये भी उसी अवस्था में अवतरित हुए। भगवान् आदिनाथजी की सानुकूल अपरिमित कृपा अपरिमित कृपा के प्रताप से आप लोगों का यह काल निर्विघ्नता के साथ अतिक्रमित हुआ। भर्तृनाथजी के समाधि का उद्घाटन कर बैठने पर भी सूर्यनाथादि का अभी कुछ ही समय अवशिष्ट था। ऐसी ही दशा में आपने देशान्तर भ्रमणार्थ गमन करने का संकल्प किया। एवं इस विषय में अपने हृद्य शिष्य का अभिमत लेने के लिये उससे कहा कि भद्र ! हम अन्यत्र जाना चाहते हैं। बोलो तुम्हारी क्या इच्छा है हमारे साथ चलना है अथवा यहीं रहना है वा अन्यत्र जाना है। उसने कहा कि स्वामिन् ! यह आपकी आज्ञा पर ही अवलम्बित है। यह कहने का प्रयोजन नहीं कि जो अनुष्ठातव्य कृत्य है वह आप से अनवगत होगा। प्रत्युत तीनों की ग्राह्याग्राह्यता आपके अभिमुख विद्यमान है। जिस किसी का भी आदेश प्रदान करेंगे। मुझे वही शिरोधार्य स्वीकृत होगी। इस पर भी यह तो स्पष्ट ही है कि अब यहाँ निवसित रहने का मेरा कोई आवश्यकीय प्रयोजन दृष्टिगोचर नहीं है। अवशिष्ट रह गई दो बात उनमें जिस ओर भी आप मुझे प्रवृत्त करेंगे मानों मुझे अपना कर्तव्य पालन करने का अवसर प्रदान करेंगे। सौभाग्य यदि आप स्वकीय चरणच्छाया में रक्खेंगे तो मैं आपकी सेवा कर आपविषयक उत्तरदायित्व से मुक्त होने का लाभ उठाऊँगा। इसके अतिरिक्त अन्यत्र योग प्रचारार्थ प्रेषित करेंगे तो मैं उसमें प्रयत्नशील होकर श्री महादेवजी के उत्तरदायित्व से विमुक्त हो सकूँगा। यह सुन मन्द मुस्करा कर आपने कहा कि अच्छा दो चार दिन के अन्तर ही यहाँ से चलेंगे। तुमको कुछ दिन पर्यन्त हमारे साथ ही रहना होगा। उसने गुरुजी के इस निश्चयात्मक आदेश को हस्ताजंलि बद्ध हुए शिर नमन द्वारा अंगीकृत किया। तथा अपने अपरिमित आनन्दान्वित हृदयागार में अनेक भावनाओं का उद्धार करता हुआ वह प्रास्थानिक पवित्र दिवस की प्रतिपालना करने लगा। अर्थात् वह अपने विषय में मैं कुछ वर्ष पहले क्या था और क्या बन गया, यह विचार कर हर्ष शोक दोनों का ही उद्घाटन करने लगा। उसने यद्यपि, मैं असंख्य जन्मान्तरों से इस सांसारिक दुःखत्रय से तिरस्कृत होता हुआ चला आ रहा था सौभाग्य अब के इससे विमुक्ति पाने के लक्षण अभिमुख हुए, यह सोचकर तो महा हर्ष प्रकट किया। एवं इसी बात का अधिकार लेकर वह भगवान् आदिनाथजी से आरम्भ कर प्रधान योगाचार्यों की विनम्र अभ्यर्थना करता-करता इस शिलोच्चय स्थल की भी प्रशंसा करने लगा। जड़ वस्तु की स्तुति करना समुचित नहीं है यह समझता हुआ भी उसका परम हर्ष हर्षित हृदय प्रेरणा किये बिना ही यह कहने को बाध्य हुआ कि धन्य है हे अद्रे ! तुम्हें धन्य है मेरे इतना महत्व और पवित्रत्व प्राप्त करने के समय मुझे तुमने अपने ऊपर धारण किया। जिससे अनुष्ठित कृत्य के लिये जैसे सौख्यप्रद पवित्र स्थानिक निवास की आवश्यकता होती है मुझे वैसा ही सर्वथानुकूल निवास प्राप्त हो सका। इसका फल यह हुआ कि मैं अपने ध्येय की प्राप्ति के साधक कार्य वृन्द से उत्तीर्ण हो गया। इस उपकार के लिये मैं तुम्हें फिर धन्यवाद देता हूँ तुम धन्य हो 3 । परं क्षमा कीजिये अब मैं तुमसे वियोगित होने वाला हूँ। तथापि वह इस क्षण के अनन्तर यह स्मरण कर, शोक ग्रस्त हुआ कि अहो राई की ओट में पर्वत छिपा हुआ है, यह कहने वाले किंचित् भी भूल नहीं करते हैं। यद्यपि अज्ञानाच्छादित हृदय सांसारिक मूढ लोग इस कहावत का ज्यों का त्यों अर्थ लगाकर इसको तो सोलों आने झूठ और इसके कथन करने वाले को असत्य भाषी बतला डालते हैं। तथापि जो मनुष्य कभी अनुकूलादृष्ट वशात् अपने हृदय को अज्ञानाच्छादन से लब्धावकाश कर देखता है तो उसको इस बात में किंचित् भी असत्यता नहीं दीख पड़ती है। कारण कि अज्ञानान्धकार से विरहित स्वच्छ हृदय से उसको इस कहावत का मर्म स्पष्टतया प्रतीत होने लगता है। और वह निश्चय करता है कि इस कहावत में राई का अर्थ सत्संगतिनिष्ठ किंचित् दुःख है। एवं पर्वत का अर्थ असंख्य कल्पों में होने वाला दुःख है। जो महोच्छायमान मेरू पर्वत की समानता रखता है। मेरू पर्वत की अपेक्षा राई जितने परिमाण में वर्तमान है इस दुःख ढेर की अपेक्षा वह सत्संगतिनिष्ठ दुःख उतने ही परिमाण से युक्त कहा जा सकता है। उसी राई की समानता रखने वाले सत्संगति निष्ठ दुःख की आड में यह पर्वत की समानता रखने वाला असंख्य काल्पिक दुःख ढेर छिपा हुआ है। कोई भी महाभाग मनुष्य यदि इस बात पर पूर्ण विश्वास ले आवे और योगवित् सत्पुरुष की संगतिनिष्ठ योगक्रिया विषयक राई पारिमाणिक उस दुःख से पार हो जाये तो इस कल्पान्तर्गत पर्वत पारिमाणिक दुःख से उलंघित होना उसको कुछ भी कठिन नहीं है। इसी का नाम है राई की ओट में पर्वत का छिपना। ठीक इसी बात को साभिप्राय जानने के लिये आज भगवान् श्रीमहादेव जी ने मुझे अवसर प्राप्त कियां जिसमें यथार्थ अनुभव कर आज मैं स्वयं उसका प्रमाणभूत हो सका। अहो क्या ही आश्चर्य की बात है इस अज्ञान में कितनी प्रबल और कैसी विचित्र शक्ति है। सुगम से सुगम उपाय के समीप होने पर भी वह मनुष्यों को उसका साक्षात् न होने देकर कल्पों पर्यन्त महादुःख में डाले रहता है। हे मनुष्यों ! यदि तुम मेरी आवाज को सुनते हो तो राई की ओट में पर्वत छिपा है निःसन्देह छिपा है। इसको किंचित् भी झूठ नहीं सकझो। तुम्हारे भले के लिये मैं शुद्ध भाव से तुम्हें चेतावनी देता हूँ कि यह बात सोलों आने सत्य है। अतएव तुम जहाँ बहुत काल से इस मेरु पर्वत समान दुःख का अनुभव करते आये और कर रहे हो वहाँ कृपा कर जिस राई समान छोटे दुःख का मैंने अनुभव किया है उसका अनुभव करने के लिये तुम भी कटिबद्ध हो जाओ। फिर देखोगे और निश्चय करोगे वह महादुःखात्मक पर्वत राई की आड में छिपा हुआ था कि नहीं। यदि यह कहो कि चेतावनी देने वाला स्वयं दुःखत्रय से विमुक्त नहीं हुआ है किन्तु अभी तो उसने मुक्ति के साधन ही प्राप्त किये हैं। फिर वह महा दुःख से पार होने की जो हमको सूचना देता है यह संगत कैसे हो सकती है। तो इस कथन में मैं हृदय से स्वीकृत करूँगा। एवं तुम्हारी पुष्टि के लिये कह भी दूँगा कि अवश्य मैं कभी असाधारण दुःख से मुक्त नहीं हुआ हूँ। परं साथ में यह कहे बिना नहीं रह सकता कि यहाँ तक पहुँचने पर मैंने जिन अनेक सांसारिक साधारण दुःखों को उलंघित किया है उनके अभाव से मुझे इतना आनन्द हो गया है जिससे मैं सहज में ही यह निश्चय कर सकता हूँ कि अब वह स्थान दूर नहीं जिससे प्रविष्ट हो दुःखत्रय से विरहित हो सकूँगा। इत्यादि अनेक उपस्थित संकल्पों में विलीन होने के अनन्तर उसने अपने गुरुभाई अन्य योगियों को सूचित किया कि हम तो अभी एक दो दिन में ही देशान्तर पर्यटन के लिये यहाँ से प्रस्थान करने वाले हैं। अतः कृपादृष्टि रखना और पारस्परिक गोष्ठी में प्रसंगवश से कोई अनुचित शब्द निकल गया हो उसके विषय में क्षमाप्रदान करना, सम्भव है पूज्यपादजियों के जागरित होने पर आप लोग भी देशान्तर के लिये गमन करेंगे। जिससे फिर कहीं न कहीं दर्शन लाभ होगा। उन्होंने कहा कि यह तो निश्चय ही है दो आगे पीछे अपने कार्य में अवतरित होने के लिये हमको भी यहाँ से प्रस्थानित होना ही पड़ेगा। क्यांे कि प्रयोजन से अतिरिक्त यहाँ निवास करने का कोई विशेष महात्म्य नहीं है। परं यह है कि जब तक गुरुजी समाधिनिष्ठ हैं तब तक यहाँ ठहरना ही उचित है। आशा है अवधि समीप होने से अब गुरुजी भी शीघ्र समाधि का उद्घाटन करने वाले हैं। अतएव आप कुछ ही दिन और यहीं ठहरें फिर साथ ही भ्रमणोन्मुख होवेंगे। कतिपय वर्ष के सहवास से हम लोग आपके प्रेमपाश से आबद्ध हो गये हैं। यही कारण है परस्पर में अनेक उचित प्राकरणिक वार्तालाप करते कराते हम लोगों का सौख्यप्रद समय व्यतीत हो रहा है। उसने कहा कि यह सब आप लोगों की कृपा है। मैंने जो आपके संसर्ग से लाभ उठाया है वह सर्वथा प्रशंसनीय है। मैं आप लोगों के अपूर्व प्रैतिक व्यवहार पर हार्दिक धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता हूँ। परं इस विषय में तो क्षमा ही कीजिये। मैं अधिक दिन यहाँ ठहरने के लिये समर्थ नहीं हूँ। क्यों कि गुरुजी निश्चय कर चुके हैं कल वा परुत् दिन वे अवश्य प्रस्थानित होने वाले हैं। यह सुन उनमें से भावाी के प्रेरित हुए एक योगी ने सहसा यह शब्दोच्चारण किया कि आप यहाँ ठहरने के लिये असमर्थ क्यों हैं। गुरुजी जायेंगे तो यह तो नहीं कि इस स्थल को ही उठा ले जायेंगे। इधर से इसका यह कहकर विश्राम लेना हुआ तो उधर से वायु सेवनार्थ बहिर गये हुए भर्तृनाथजी दैवगत्या वहाँ आ निकले। यह देख वे शंकित से होकर प्रकरणान्तर की बात करने लगे। परन्तु उनकी इस शंका का कारण शब्द आपसे अश्रुत न रहा। इतना होने पर भी आपने उनके सम्मुख तो कुछ प्रस्ताव नहीं किया परं अपने चित्त में यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि इनको ऐसा ही करके दिखलाया उचित है। आखिर एक दो दिन बीते तीसरा दिन आने को तैयार हुआ। आपने अपने शिष्य को विज्ञापित कर दिया कि तुम अपने इसी आसन पर विराजमान रहना। हम एक ऐसा उपाय करेंगे जिससे केवल हमको ही चलना पड़ेगा। तुम बिना ही पादक्रम किये हमारे साथ चल सकोगे। वह सत्य वचन यह कह कर गुरुजी की आज्ञा के अनुसार स्थित रहा। उधर आपने गुरुप्रदत्त विचित्र विद्या का अनुष्ठान किया। जिसके अमोघ प्रताप से सूर्यनाथादि के आसन से कुछ अन्तर पर जहाँ आपका आसन स्थित था उस जगह का पहाड़ फट कर पृथक् हो गया। यह देख प्रसन्न होते हुए आपने उसको वहाँ से उठाकर कहीं अन्यत्र ’ स्थापित किया। पाठक इस चरित्र से योग के महत्त्व जो लोगों के हृदय पर प्रभाव पड़ा उसका आप स्वयं अनुमान कर सकते हैं।
इति श्री भर्तृनाथाद्रि वहन वर्णन ।
ReplyDeleteHey, very nice blog. thanks for sharing your site and knowledge.
8 mukhi nepalese rudraksha
8 mukhi price