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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Tuesday, June 4, 2013

श्री धुरन्धरनाथ भ्रमण वर्णन

जिस समय मीननाथजी पारस्परिक सम्मति के अनुसार विभाजित दाक्षिणात्य देशीय भ्रमणार्थ गिरनार और समुद्र के मध्यस्थ गोरक्षगुहा से, जिसका आधुनिक गोरखमढ़ी नाम प्रसिद्ध है, रवाने हुए थे उस समय धुरन्धरनाथजी भी निश्चित कार्य में अपने आपको परिणत करने के अभिप्राय से वहाँ से प्रस्थानित हो गये थे। जो सौराष्ट्र से चलकर कच्छ सिन्धु आदि देशों में भ्रमण करते हुए कतिपय मास के अनन्तर गान्धार देश में पहुँचे। यहाँ अजपानाथ नाम के एक योगी से आपका साक्षात्कार हुआ जो जाति से यवन था जिसका कुछ परिचय पीछे भी आ चुका है। यह भी बड़ा शक्तिशाली और योग में आप जितनी ही निपुणता रखता था। आप इन महानुभाव के निर्देशानुसार सुलेमान पर्वत पर आये। यहाँ अनेक कन्दरा स्थानों में निवसित योगिवृन्द, शिष्यों की योग दीक्षा मंे तत्पर था जिसने आपका हार्दिक स्वागत कर आपके शुभागमन हर्ष प्रकटित किया। इसके प्रत्युपकारार्थ आपने सारगर्भित ओजस्वी वचनांे द्वारा उसके प्रवृद्ध हर्ष को चिरस्थायी बनाने के अभिप्राय से कहा कि आप लोग धन्यतर हैं जो श्री महादेवजी की आज्ञा के पालन में अपने आपको दृढ़ भाव से तत्पर किये हुए हैं। वस्तुतः चाहिये भी ऐसा ही जब जिस दयालु कैलासानाथजी की महती कृपाकारणता से हमें सर्व कुछ प्राप्त हुआ है उसके आदेश रक्षण में शिथिलता कैसी अर्थात् कभी नहीं होनी चाहिये। यह सुन अग्रसर योगियों ने कहा कि आपका कहना वास्तविक है परं हमारी भी यही धारणा है कि ऐसा समय कभी ईश्वर न दिखलाये जिसमें श्री महादेवजी की आज्ञा में हमारी उपेक्षा हो। यही कारण है हम यथा शक्ति अपने उत्तरदायित्व की पूत्र्यर्थ प्रयत्न कर रहे हैं। निवसित योगियों के इस कथन से धुरन्धरनाथजी बड़े ही प्रसन्न हुए और उस दिन आपने वहीं विश्राम किया। अगले दिन योग क्रिया भिलिप्सु नवीन योगियों के क्रियाकाठिन्याभिभूत मन्दोत्साह को प्रवाहित करने के लिये सशिष्य योगिवृन्द को एक स्थानिक बनाते हुए आपने कहा कि क्रियाभिज्ञान प्रयत्नशील मेरे सुहृद्गण, मैं आपको सूचित कर देना चाहता हूँ आप विचार करें जिस समय किसी राजा का, विवादास्पद हो अन्य राजा के साथ घोर वैमनस्य उत्पन्न हो जाता है और उसी के फलस्वरूप पारस्परिक युद्धारम्भ हो जाने पर जब वह रणस्थल में अवतरित होता है। तब उसकी क्या दशा हुआ करती है। यदि वह स्वकीय पुत्रादि के, जिनको एक क्षण तक भी अपने नेत्रों से दूर न करता हो, मोहान्धकार से आच्छादित हो तो भी उस समय अपने हृदय से दूरकर उनके विषय में उसको उपेक्षा ही करनी पड़ती है। बल्कि यही नहीं उस समय तो समस्त आनन्दोपभोगों को ही तिलांजलि देनी पड़ती है और उसके केवल, जय पराजय, इन दो बातों की ही विशेष रटना उपस्थित रहती है। इनमें भी राजा को उस समय अपनी जय का उतना विचार नहीं रहता जितना कि पराजय के कारण उपस्थित होने वाले अनिष्ट के भय का हुआ करता है। अतएव वह हम पराजित न हो जायें, इस ध्वनि में तत्पर हुआ साम्राज्य मात्र की शक्ति को तथा अपने प्राणों तक को न्यौछावर करने के लिये तैयार रहता है। इतना होने पर भी हतभाग्य यदि वह पराजित ही हो गया तो वह लज्जा वशीभूत हुआ सचमुच ही अपने प्रिय प्राणांे को खो बैठता है। ठीक यही वृत्त आप लोगों का भी है आपने भी अपने उन पाँच शत्रुओं को पराजय करने के लिये युद्धारम्भ किया है जो दूर नहीं हमेशा आपके समीप ही इस कायात्मक किले में निवास करते हैं और प्रवल होने के कारण बड़े ही दुर्जय हैं। जिन्होंने अब तक आपको ही पराजित कर असंख्य जन्मों के घोरकष्ट में डाल रखा है। परन्तु मुझे निश्चय है यदि आप लोग उक्त राजा की तरह प्राणों तक की बाजी लगायेंगे तथा इस बात को पूरी करने के लिये दृढ़ उत्साह एवं प्रतिज्ञा करेंगे तो वह समय अब की बार समीप आ पहुँचा है जिसमें अपने चिरकालिक शत्रुओं को पराजित कर सकोगे। क्योंकि दुर्जय शब्द का यह अर्थ नहीं कि वह सर्वथा अजय है किन्तु उस पर कठिनता से विजय हुआ करती है यही अर्थ यथार्थ है। अतएव आप लोगों को इस युद्ध में इन्द्रियात्मक इन पाँच शत्रुओं के ऊपर विजय पाने में आत्यन्तिक कठिनताओं का सामना करना पड़ेगा। परं आप समग्र आपदाओं को सहन करते हुए अपने स्थान से एक पद भी पीछे न हटें और क्रिया कुशलता से प्राप्त होने वाली सिद्धि विशषक आनन्द में हर्ष प्रकटित न कर प्रथम केवल इसी बात का हमेशा स्मरण रखें कि कभी हमारी हार न हो जाय। क्यों कि अबकी बार भी इन पाँच शत्रुओं ने यदि आप लोगों को ही पराजित किया तो समझ लो फिर ऐसा अवसर मिलना दुष्कर होने से उसी चैरासी चक्र की सम्भावना है। अतः आप लोगों को चाहिये अपने कल्याणार्थ हमारी इस सूचना को स्मृतिगत रखते हुए प्राणान्त पर्यन्त प्रयत्न करते रहें। धुरन्धरनाथजी के इस उत्साह सूचक एवं भयानक कथन के श्रवण से क्रिया संल्लग्न योगियों के चित्त में बड़ा ही उत्साह तथा दृढ़ता स्थापित हुई और उन्होंने सचमुच अपने चित्त में यह दृढ़ संकल्प कर लिया कि जब तक हमारे शरीर में प्राणों का संचार विद्यमान रहेगा तब तक हम लोग अपने मार्ग से क्षणभर भी इधर-उधर पद न हटाते हुए अन्तिम स्थान पर पहुँचने की चेष्टा करते रहेंगे। इसी के उपकारार्थ इन योगियों तथा इनके दीक्षक योगियों ने आपके वचनों पर कृतज्ञता सूचित कर बड़ी हर्ष ध्वनि की। तदनु समस्त योगियों से सानन्द विदा प्राप्तकर धुरन्धरनाथजी यहाँ से चल पड़े और सुलेमान पर्वत को पारकर अनेक प्रान्तों के भ्रमण द्वारा मार्गोपलब्ध मुमुक्षजनों को अभीष्ट सिद्धि के उपायों में प्रोत्साहित करते हुए कुछ दिन में कटासराज तीर्थ पर आ विराजे। यहाँ भी निवास करने वाले अनेक स्वागतिक महात्माओं के प्रगाढ़ प्रेम का प्रत्युपकार चुकाने के हेतु से आपने अपना गमन स्थगित कर विश्राम किया। तथा पूर्वोक्तादि प्रकार से अपने चुने हुए सारमय प्रिय शब्दों द्वारा महात्माओं के शुद्ध हृदयागार में उनकी क्रिया कुशलता विषयक विश्वास एवं दृढ़ता का संचारकर अगले दिन वहाँ से प्रस्थान किया और मार्गागत लोपुर आदि प्रान्तों को तय करते हुए तथा अपने उद्देश्य की वृद्धि के लिये प्रयत्न करते हुए आप हिमालय पर्वतारम्भक पर्वतस्थ ज्वालादेवी के स्थान में पहुँचे। यह आजकल इसी देवी के पूजन हेतुक मेले के उपलक्ष्य में असंख्य प्रजाजन एकत्रित हो रहे थे। इसीलिये आप भी देखें इस जनसमूह में कितने लोग ऐसे हैं जो अपने चित्त में योग विषयक पूरा विश्वास रखते हैं, यह सोचकर यहाँ आये थे। अतः मेले से अनति दूरी पर आसनासीन होकर आप लोकमत निरीक्षणात्मक कार्य में दत्तचित्त हुए और कुछ क्षण के अनन्तर जब आपने स्वाधिष्ठित पहाड़ी के समीप होकर गुजरने वाले मार्ग की ओर देखा तब आपकी दृष्टि सहसा अजासंघ के ऊपर पड़ी। जिसको व्यापारी लोग मेले में विक्रय करने के अभिप्राय से ले जा रहे थे। यह देख आपके संकल्प हुआ कि यह मेला तो पशुओं के क्रय-विक्रय का नहीं है, फिर भेड़-बकरों का मेले मेें जाने का कौनसा प्रयोजन है। अन्त में जब आपके इस वृत्तविषयक कारण को अवगत करने की विशेष उत्कण्ठा उत्पन्न हुई तब तो आपने एक पुरुष से इसका परिचय माँगा। उत्तरार्थ उसने कहा कि भगवन्! तामस लोगों के मनो-विनोद के लिये ये लोग इन बकरों को मेले में ले जा रहे हैं। कल देवी की पूजा का मुख्य दिवस है तामस लोग व्यापारियों से इनको खरीदकर देवी पर बलि रूप में चढ़ायेंगे। यह सुनकर उस समय तो आप चुपके हो गये। परं प्रातःकाल ही आप वहाँ जाकर देवी मन्दिर के द्वार पर खड़े हो गये और मेले में आपने सूचना प्रेरित की कि देवी के निमित्त से कोई पशु हिंसा न करे। तत्काल ही जिव्हास्वाद लोलुप अज्ञानान्धकारावृत लोगों के मस्तक ठणक पड़े। और उन्होंने इस बात की जाँच करना आरम्भ किया कि यह आज्ञा खास भाईजी की है वा किसी अन्य की। पश्चात् अन्वेषणा करने पर जब उन्होंने निश्चय कर लिया कि देवी की नहीं किसी योगी ने यह आज्ञा प्रचारित की है। तब तो उन्हों में से कतिपय लोगों ने तो, जो तामस होने पर भी योगियों की आज्ञा को किसी प्रकार भी देवी की आज्ञा से कम न मानते थे, अपने हिंसा विषयक मनोरथ का परित्याग कर दिया। परं मूढ़मति वाले अन्य उन लोगों ने, जिनके हृदय में यह उल्टा दृढ़ संस्कार पड़ा हुआ था कि सचमुच ऐसा व्यवहार करने के लिये देवी की आज्ञा है इससे देवी प्रसन्न भी होती है, आपकी आज्ञा में उपेक्षा प्रकट कर अपना आज्ञानिक कार्य कर डालने की चेष्टा की। यह देख आपने विचार किया कि अज्ञानियों को स्वानुकूल करने की अभिलाषा वाले पुरुष की, जैसों के साथ तैसा हुए बिना, कार्य सिद्धि होनी कठिन है। अतएव आपने मन्त्रात्मक आग्नेयास्त्र को प्रहृत कर स्वाज्ञा भंग करने के अपराध से उन लोगों पर अपना कोप प्रकटित किया। बस क्या था इस भयंकरास्त्र के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले तेजोऽतिशय ने समस्त लोगों को व्याकुल कर डाला। यह देख उन्होंने भी समझ लिया कि इस भयंकर उत्पात का हेतु योगी की आज्ञा का भंग करना है। इसीलिये अन्य लोगों ने आज्ञा अस्वीकत्र्ताओं पर विविध अपशब्दों द्वारा दबाव डाला कि तुम लोगों को चाहिये अपने कर्तव्य विषय में पश्चाताप कर योगी से क्षमा करने की अभ्र्यथना करो। अन्यथा तुम और तुम्हारे पीछे ये समस्त लोग महाकष्ट में परिणत होंगे। इस कथन से जब तामस लोगों को अनुसन्धान हो आया तब तो उन्होंने शीघ्र ही बिना कुछ संकल्प किये जाकर नाथजी की शरण ली। तथा प्रतिज्ञा करी कि भगवन् इस दाहात्मक माया को उपसंहृत कीजिये, हम लोगों ने अपने अवास्तविक प्रचलित मनोरथ का परित्याग कर दिया है। उनकी इस प्रार्थना को श्रवण कर आपने प्रयुक्तास्त्र का उपसंहार कर बायवीय अस्त्र का प्रयोग किया जिससे अतीव प्रबलवेग वाला वायु चलने लगा। यद्यपि इससे उष्णता कुछ शान्त हो गई थी तथापि लोगों के हृदयागार में जो भय की कुछ मात्रा उपस्थित हो चुकी थी उसमें किंचित् भी न्यूनता न आई। क्यों कि प्रबल वायु वेग द्वारा  उध्रितोड्डीमानतृण काष्ठादि के आघात से उत्पन्न होने वाला संकटात्मक भय दग्धावस्था से किसी प्रकार भी कम न था। परन्तु इस कष्टावस्था का अधिक देर तक अनुभव नहीं करना पड़ा। आपने कुछ ही क्षणों में वातास्त्र का भी संकोच कर वार्षिकास्त्र का प्रयोग किया। इसके वशात् वर्षा होने से जब धूलि आच्छादित हो गई और शीतलतान्वित मन्द गति वायु प्रवहन करने से पुनर्लब्ध प्राणाभिमत हुए अत्यन्त प्रसन्नता के साथ लोग जब आपके दर्शन करने की अभिलाषा से शरण में आ उपस्थित हुए तब आपने समस्त जन समुदाय को अवधानित करते हुए कहा कि अये आर्य सन्तानों ! आप लोगों का किया हुआ पाप-पुण्य मुझे कोई किसी तरह का कष्ट वा आराम नहीं दे सकता है परं वास्तविकता की ओर स्वयं चलकर दूसरों को चलाने का मुझे अधिकार होने से मैं यह यथार्थ घोषणा करता हूँ कि वे पापात्मा पुरुष असत्य और भूल के रास्ते पर चलते हैं जो किसी देवता के निमित्त पशु हिंसा करने का दूसरों को परामर्श देते वा स्वयं ही साहस करते हैं। क्या वह देवता, जो इस कृत्य से प्रसन्न हो तुमको सर्व कुछ प्रदान करने में समर्थ है तो इतना पौरष नहीं कर सकता कि इस पशु को स्वयं भोज्यस्थान बना ले। यदि कहो कि वह स्वयं ऐसा भी कर सकता है परं उसे हमारे जैसी क्षुधा नहीं लगती जिससे वह इस कृत्य में प्रवृत्त हो। अतः वह तो केवल हमरी श्रद्धा देखता है तो इस पर मैं आप से प्रश्न करता हूँ कि यह श्रद्धा भक्ति कैसी। शिर जाय पशु का, प्राणवियोग का घोर कठिन दुःख पशु को भोगना पड़े और श्रद्धाभक्ति देखी जाय तुम्हारी। यदि आप से प्रबल कोई पुरुष आपका वा आपके पुत्र का शिर छेदन कर देवी के अर्पण करे तो आप इसे उस पुरुष की श्रद्धा स्वीकार करेंगे वा नहीं। यदि करें तो मुझे सूचित कीजिये आज यह धर्म मैं भी संचित कर लेता हूँ। नहीं तो असहाय गरीब पशु पर खंग चलाकर तुम देवता में अपनी श्रद्धा को कैसे रख सकते हो तथा जिसने कष्ट उठाया उसी ने कुछ पाया, इस सत्य एवं प्रसिद्ध वृत्त के अनुसार जब तुमने अपने में कुछ भी क्लेश सूचक कृत्य का आरम्भ नहीं किया तब अन्य प्राणी के कष्ट का फल तुम कैसे भोग सकते हो। अतः समस्त लोग इस रहस्य को अच्छी तरह समझ लें जिसके वास्ते तुम ऐसा व्यवहार करते हो वह देवता प्रमत्त नहीं है वह खूब समझता है कि ये लोग अपने शरीर तो चेटीदंश जितना भी दुःख नहीं सहन करते और निर्दयी होकर दूसरे प्राणी के कष्ट द्वारा पोलपाल का फल चाहते हैं। यही कारण है इस कृत्य से तुम्हारे ऊपर देवी प्रसन्न नहीं होती है और न भविष्य में कभी होगी। बल्कि दूर जाने की आवश्यकता नहीं आप ही बतलाइये अब से पहले आपने और भी कई एक पशु देवी के अर्पण अवश्य किये होंगे उनसे कभी देवी प्रसन्न हो तुमको अभीष्ट फल देने के लिये तैयार हुई। यदि नहीं तो फिर तुम्हारा इस कृत्य में प्रवृत्त होना मूर्खता नहीं तो और क्या है। कहो कि प्रसन्न हुई और फल प्रदान किया है तो मैं चाहता हूँ आप लोग उसे मुझे बतलायें जिससे मैं भी समझ लूं कि मेरा ऐसा निरोध करना असंगत है। आपके इस कथन पर जनता की ओर से कहा गया कि जो लोग यहाँ आते हैं उनके हृदयगत अनेक फल मनोरथ बड़े ही विकट तरह के होते हैं जिनको वे दूसरे के आगे प्रकट नहीं किया करते हैं। इस वास्ते किसके किस मनोरथ की सिद्धि हुई यह कोई नहीं कह सकता है। हाँ यह अवश्य है कि सर्व के मनोरथ सफल नहीं होते घुणाक्षर न्याय से कभी किसी का मनोरथ सिद्ध होता है। क्यों कि यह बात लोगों की अपनी भक्ति और विश्वास के ऊपर है। यह सुन आपने कहा कि सर्व का न होकर घुणाक्षर न्याय से ही फल सिद्धि होती है तो फिर वही बात हुई आप लोगों का ऐसा करना व्यर्थ है। क्यांे कि यह आकस्मिक भाग्योपलब्ध मनोरथ सिद्धि तो जो मानसिक पूजा द्वारा अन्य देवता की अर्चना करते हैं। वा किसी की भी नहीं करते उन पुरुषों की भी हो जाया करती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि तुम्हारे इस आज्ञानिक कृत्य से देवी प्रसन्न नहीं है। रह गई भक्ति और विश्वास की बात, यदि इन दोनों के बिना फल सिद्धि नहीं है तो इससे यह साफ जाहिर हो गया देवी केवल तुम्हारी भक्ति और विश्वास की भूखी है इसी बात में यदि तुम्हारी दृढ़ता हो जायेगी तो देवी प्रसन्न हो फल अवश्य देगी। परं पशु हिंसा का कारण तुम्हारी जिव्हालोलुपता से अतिरिक्त कोई नहीं। याद रखो ! इस कर्म का अनुष्ठान कर तुम लोग अपने को जटिल जाल में बन्धित करने का प्रयत्न कर रहे हो। जब कि अहिंसात्मक व्रत का, जिसके प्रत्यक्ष फल का मैंने स्वयं अनुभव किया है, इतना बड़ा प्रभाव है कि जो पुरुष इसको सम्यक् रीति से धारण कर लेता है उसको कोई प्राणी कष्ट पहुँचाने का यत्न नहीं करता है। तो फिर जो पुरुष हिंसा व्रत में ही तत्पर रहता है उसको वे प्राणी, जिनकी वह हिंसा कर चुका है, वर्तमान जन्म वा जन्मान्तर में उतना ही कष्ट कैसे नहीं पहुँचायेंगे, किन्तु अवश्य पहुँचायेंगे। इसके अतिरिक्त यह भी सोचना चाहिये जबकि बड़े पुण्यकत्र्ता पुरुष स्वर्गीय सुखांे को भोगते हैं तो क्या पापकत्र्ता नारकीय दुःखों को न भोगेंगे किन्तु अवश्य भोगंेगे। परन्तु आप लोगों में सत्संगति शून्य बहुत से ऐसे भी अज्ञानी लोग हैं जो यह अभिमत रखते हैं कि स्वर्ग नरक और अग्रिम जन्म किसने देखा है। जो कुछ सुख-दुःख भोगे जाते हैं वे इसी जन्म में और जन्म भी यही है। इन पुरुषों को यवन समझना चाहिये। क्योंकि यवनों का यह निश्चय होता है कि यह पाँच तत्त्व का शरीर अपने-अपने तत्त्व में मिल जाता है अवशिष्ट कुछ नहीं रहता जो फिर जन्म लेकर सुख-दुःख भोगता हो। ठीक यही कारण है ये लोग स्वानुकूल स्वादिष्ट प्राणी को जमीकन्द की तुल्य समझते हुए उसकी हिंसा करने में कुछ भी आगा पीछा नहीं देखते हैं। परं हमारे सनातन आर्य धर्मानुकूल यह अभिमत नहीं है। ईश्वरीय आज्ञा अनादि वेदों से लेकर आधुनिक निर्माणित हमारे किसी आर्य धर्म सूचक ग्रन्थ में ऐसा स्वीकार किया नहीं मिलेगा कि फिर जन्म नहीं है। किन्तु समस्त आर्य शास्त्र उच्च स्वर से बार-बार घोषित कर रहे हैं कि मनुष्यों ! स्वधर्म को न त्यागो, ऐसा करने से तुम्हारा अधःपतन होगा और जन्मान्तर में नरक के निवासी होना पड़ेगा। अतएव मैं आप लोगों से एक बार फिर निरोध करता हूँ कि स्वकीय कल्याण वा अभीष्ट सिद्धि समझकर कभी इस कृत्य में आप लोग प्रवृत्त न हों। आपकी इस आज्ञा को समग्र लोगों ने सादर स्वीकृत किया तथा प्रतिज्ञा कर ली कि हम लोग यावज्जीवन इस पशु हिंसात्मक कृत्य का अवलम्बन न करके केवल शास्त्रीय गान्धिक द्रव्य पूजा द्वारा एवं मानसिक पूजाद्वारा ही देवी को प्रसादित करने की चेष्टा किया करेंगे। इस प्रतिज्ञा को श्रवण कर धुरन्धरनाथजी अत्यन्त आनन्दित हुए और आशीर्वाद वचनों द्वारा लोगों को आश्वासन दे अपने आसन पर आ विराजे। कुछ क्षणों के अनन्तर पाँ मनुष्य, जो आपके मर्म भेदी वचनों से अत्यन्त वैराग्याश्रित हो स्वकीय मन्तव्य के अनुसार संसार प्रचलित मिथ्या मर्यादा को तिलांजलि दे चुके थे, आपकी सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने शिष्य बनाने के विषय में बड़े ही विनम्र वचनों द्वारा आपसे अभ्यर्थना की कि भगवन् ! अपनी शरण में रखकर हमको अपने भाग्य की परीक्षा करने का अवसर प्रदान करो। इस पर आपने कहा कि तुम्हारे भाग्य की परीक्षा तो जभी हो चुकी तब तुमने इस विचार को स्थिर किया था। तथापि मैं यह और चाहता हूँ कि तुम लोग अपने घर जाओ और कुटुम्बियों को अपनी तरफ से निःसन्देह कर आओ। जब तुम लोग इस काम को कर हमारे पास आ जाओगे तब तुमको हम अपना शिष्य बनायेंगे। आपकी इस आज्ञा को अंगीकार कर साष्टांग प्रणाम के अनन्तर वे अपने-अपने घर गये। जिनमें से एक तो अपनी माता की, यदि तू चला गया तो मैं अपने जीवन को नष्ट कर दूँगी, इस प्रतिज्ञा के वशीभूत हो कुछ दिन की प्रतीक्षा में वहीं रह गया और चार वापिस लौट कर आपके चरणारविन्द की छाया में आ निवसित हुए। तदनु इन महानुभावों को साथ लेकर आप यहाँ से चले और कुछ दिन के भ्रमणानन्तर पर्वतोपत्यका में स्थित श्री यमुना नदी के तट पर पहुँचे। यहाँ आपका गुरुभाई शम्भुनाथ अपने शिष्यों को अभ्यसित कर रहा था। उससे आपका साक्षात्कार हुआ और अपना कार्य निवेदित कर आपने उसको सूचित किया कि हमको इतना अवकाश नहीं जो इतने दिन इनके अभ्यास में लगा सके। अतः तुमने इन चार शिष्यों को और दीक्षित करना होगा। उसने आपकी आज्ञा स्वीकृत की और विश्वास दिलाया कि आप इस बात की ओर से निःसन्देह रहें ये मेरे ही शिष्य हैं। यह सुन आपने हर्ष प्रकट कर अपने शिष्यों से कहा कि मैं जिस कार्य में परिणत हूँ उसकी तुमको मालूम हो जायेगी वह ऐसा है जिसको स्थगित कर तुमको योगाभ्यास में नहीं चढ़ा सकता हूँ। अतः यह मेरा ही गुरुभाई है जो तुमको दीक्षा देगा तुम मुझ और इसमें कुछ अन्तर न समझना, तथा योगाभ्यास में दृढ़ता एवं विश्वासता के साथ प्रयत्न किये जाना और यह तो तुमको मालूम ही है कि जब किसी वृक्ष के कोई फल आरम्भ होता है उसके रस की आरम्भिक दशा से लेकर पक अवस्था पर्यन्त समता नहीं रहती है। किन्तु वह ज्यों-ज्यों फल  पक्कास्था समीप आती है त्यों-त्यों अनेक दशाओं में परिणत हो अन्त में उसी मधुरास्था में प्राप्त होता है। ठीक यही वृत्तान्त योगक्रियाओं का भी समझना चाहिये। इनमें प्रवृत्त हुए तुम लोगों को बड़ी-बड़ी कठिनतायें झेलनी पड़ेगी। परं जिन-जिन कठिनाइयों को दृढ़तापूर्वक तुम लोग ज्यों-ज्यों पार करते जाओगे त्यों-त्यों उस समय होने वाले आनन्द का तुम लोगों को स्वयं अपने आप में अनुभव होने लगेगा और जब परिपक्वावस्था आयेगी अर्थात् तुम लोग समस्त क्रियाओं में कुशलता प्राप्त कर लोगे तब जो अपरिमित आनन्दात्मक मधुर रस उत्पन्न होगा वह ऐसा होगा जिसका आस्वादन कर तुम लोग स्वयं यह कहने को विवशित होगे कि यह बात यथार्थ है अब तक हम लोग इस अलौकिक आस्वादन से वंचित ही थे। आपका यह आदेश शिष्यों ने सहर्ष अंगीकार किया और स्वकीय चिन्तित कार्य मंे दत्तचित्त रहने के विषय में उन्होंने आपको प्रोत्साहित भी किया। अतएव आप वहाँ से प्रस्थानित हो अग्रसर हुए। तथा हिमालय के आरम्भक पर्वतों के मध्यस्थ प्रदेशों में एवं हिमालयागत अनेक सरिताओं से सिंचित होने वाले प्रदेशों में भ्रमण करते-करते आप पाटली आदि नगरों को उल्लंघित बनाते हुए नयपालाख्य प्रदेस्थ उस स्थान में पहुँचे जहाँ स्वीय गुरु श्रीनाथजी ने कुछ काल निवास कर शिष्यों को निज गृह की कंुजी प्रदान की थी। ठीक उसी स्थान पर आपका गुरुभाई अजयनाथ अपने कतिपय शिष्यों को योग साधनीभूत क्रियाओं का तत्त्व समझा रहा था। जो आपकी कार्यावली एवं योगदक्षता से जयमान परम महत्ता से प्रथम ही भली प्रकार परिचित था। अतएव इस महानुभाव से आपका हार्दिक मिलाप हुआ और अन्योन्य कौशल्य प्रष्टव्य के अनन्तर अजयनाथ ने कहा कि कहिये आपके भ्रमणोद्देशात्मक कार्य का प्रवाह तो संतोषजनक है। इसके उत्तरार्थ आपने प्रकटित किया कि हाँ आज दिन पर्यन्त योग विस्तार की अवस्था संतोषप्रद एवं तरूणी कहिये इसमें कोई सन्देह की बात नहीं परं ईश्वरीय नियत नियमानुसार तरूणावस्था के उत्तर काल में जरावस्था भी अवश्यम्भावी है जिसका निवारण करना सुसाध्य नहीं। तथापि ऐसा समय जब आयेगा अभी तो हम उस बात को स्मृतिगत कर हतोत्साह नहीं होना चाहते और न हुए ही हैं। यही कारण है जहाँ देखते हैं वहीं योगोपदेश का साम्राज्य दृष्टिगोचर होता है। इत्यादि वार्तालाप करते कराते सायंकाल आ उपस्थित हुआ। अजयनाथजी के नियतक्रियावकाशोप्लब्ध शिष्यों की सादर विनम्र प्रणति ने आपको अत्यन्त सत्कृत किया। जिससे आप अतीव प्रसन्न हुए और उनके प्रति आपका महाकारूण्य भाव उत्पन्न हुआ। अतएव दयाद्र्रचित्त धुरन्धरनाथजी ने अपना प्रसाद प्रकटित करने के अभिप्राय से विवश हो उनसे कहा कि योगसोपान आरोहणाभिलिप्सु प्रिय महानुभावों ! जब आप लोगों की असंख्य जन्मान्तर्गत दीर्घकालिक भक्ति के प्रभाव से अत्यन्त करुणाद्र्र हृदय विश्वनाथ श्रीमहादेवजी ने दुःखत्रय के विघातक योग रूप इस अद्वितीय औषध का प्रादुर्भाव करना पड़ा है, जिसके साधनों में इस समय आप लोग दत्तचित्त हो रहे हैं। तब आपको यह योग्य नहीं कि इस महापुण्योपलब्ध औषध के पान में जो कटुताओं का आधिक्य है उससे नासिका संकुचित कर पान विषयक घृणा उत्पन्न करें। क्योंकि जैसे के विनाशार्थ तैसे उपाय का उपस्थित करना समुचित और न्याय संगत है। अतएव अगम्य तथा अनादि कालिक दुःखत्रय जितना दुरेत्य एवं सबल है उतना ही योगात्मक औषध भी महाकटु एंव महाबली अवश्य है। इस बात का हमको स्वयं अनुभव करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। तथापि ऐसा नहीं कि यह कार्य सम्पादित करना मनुष्य की शक्ति से बहिर हो। किन्तु हृदय में कुछ दृढ़ता को स्थान मिलना चाहिये बस कार्य समाप्ति का समय समीप आता जायेगा। आपके इस कथन से प्रफुल्लित हृदय एंव प्रोत्साहित अजयनाथजी के शिष्यों ने अपने ऊपर होने वाले अनुग्रह के विषय में कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा कि भगवन् ! हमें विश्वास है जब आप जैसे अनुग्रहियों एवं स्वयं दयालु श्रीमहादेवजी की भी हमारे ऊपर निरंतर कृपादृष्टि है तब योगात्मक औषधपान में सम्मुख होने वाली कटुतायें हमको किंश्चित् भी विचलित नहीं कर सकती है। प्रत्युत आपके परामर्शनुसार जब हम विश्वसित और दृढ़तान्वित है तो महाकटुतायें हमारे लिये महामधुरता के रूप में परिणत होगी। उनकी ऐसी वास्तविक उक्ति से धुरन्धरनाािजी आभ्यन्तरिक भाव से और भी प्रसादित हुए और उन्होंने निश्चय किया कि ये मन्दोत्साह होेने वाले नहीं प्रत्युतपूर्ण अधिकारित्व हेतु से ये अपने अभिलषित स्थान पर पहुँचने वाले हैं। अतएव आपने आदर के सहित उनको अपने-अपने आसन पर विराजमान हो आराम करने की अभिमति दी। तदनु रात्री बीत जाने पर प्रातःकाल अरूणोदय होते ही अजयनाथजी से तथा तिसके शिष्यों से आदृत हो धुरन्धरनाथजी वहाँ से रवाने हुए और भुट्टानादि देशों को पारकर चीनदेशीय पिलांग वा पेनांग प्रान्त में जा प्र्राप्त हुए। यहाँ भी कुछ काल गोरक्षनाथजी विश्रामित हुए थे, ठीक उसी समय से एक गुहा भी यहाँ पर निर्मापित की हुई विद्यमान थी जिसमें कुछ दिन से विन्दुनाथ नामक आपके ही गुरुभाई निवास कर रहे थे। जिसने आपकी सहायतार्थ इस देश मंे योगोपदेश प्रचार का तथा   तन्नर्दिष्टनिरीक्षणात्मक कार्य का भार अपने ऊपर धारण कर रखा था। इसीलिये उससे आपकी ओर से सम्मेलन हुआ और पारस्परिक आनन्द वृत्तान्तोपहित प्रश्नोत्तर के पश्चात् आपने प्रस्ताव उपस्थित किया कि सम्भवतः इस देश में स्वोद्देश का उतना प्राधान्य नहीं है जितना कि भारत में है। इसके उत्तर में विन्दुनाथजी ने कहा कि हाँ यह आपका अनुभव सत्य है क्योंकि इस देश में गुरुजी बहुत विलम्ब से आये थे तभी से अधिक लोगों की यह धारणा परिपक्व हुई है कि इस अलौकिक विद्या प्राप्ति के बिना भवबन्धन से विमुक्त होना कठिन ही नहीं सर्वथा असम्भव है। अतः यही कारण है इधर आकर्षित हुए लोग दिनों दिन योगियों की संख्या प्रवृद्ध कर रहे हैं। इस वास्ते सम्भव है कोई दिन में यह त्रुटि जो आपको इस समय दीख पड़ती है नहीं रहेगी। यह सुन धुरन्धरनाथजी के चित्त का समाधान हुआ। इसीलिये कुछ दिन के सहवासानन्तर विन्दुनाथजी के सद्गृहीत कार्यक्रम पर अनुकूल सहानुभूति प्रकट कर आपने वहाँ से भी गमन किया और ब्रह्म, प्रभृति स्वाधिकृत समस्त देशों में भ्रमणकर कतिपय वर्षों के अनन्तर धुरन्धरनाथजी अपने पूर्वीय स्थान में आये जहाँ अपने शिष्यों की दीक्षा का भार स्वकीय गुरुभाई विलशयनाथजी पर आरोपित कर गये थे। यहाँ इस अवधि तक विलशयनाथजी की सोत्सुकता प्रैतिक शिक्षा प्रणाली से आपके तारकनाथादि कई एक शिष्य निपुण हो चुके थे। यह देख कुछ दिन के सहवासोत्तर उनको आपने आज्ञापित किया कि जाओ अब पृथक् भ्रमण कर अपने उत्तर दायित्व विषय का कुछ प्रयत्न करो। क्यों कि तुम्हारे कल्याण मार्ग की रस्सी तुम्हारे हस्त में आ चुकी है जिसके अवलम्बनारोहण से तुम मुक्तिभाजन स्थान में पहुँच सकोगे यदि प्रमत्ताच्छादित हृदयागार न हुए तो। तदनु शिष्यों के प्रस्थानित होने पर आप द्वादश वर्षीय अवधि रख समाधिनिष्ठ हो गये और यह समय सानन्द समाप्त हो जाने से आप फिर अपने कार्य में दत्तचित्त हुए। इसी प्रकार अनुकूल सामयिक समाधि लगाते तथा प्राप्तावसरिक शरीर का परिवर्तन करते आपने भी अपना कार्यक्रम युधिष्ठिर सम्वत् 2160 से 2639 तक प्रचलित रखा।
इति श्री धुरन्धरनाथ भ्रमण वर्णन

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