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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Thursday, June 20, 2013

श्रीज्वालेन्द्रनाथ कूप पतन वर्णन

आप उक्त अध्याय में भृर्तनाथजी की धर्म बहिन मैनावती के नाम से परिचित हो चुके हैं। यही श्रीमती स्वकीय श्वशुरालनिष्ठ महात्मा ज्वालेन्द्रनाथजी के अमोघ सत्संग से सांसारिक व्यवहार विषयक उपराम तोपहित होती हुई भी भर्तृ सम्बन्धी इस अतीत वृत्तान्त से उस दर्जे तक पहुँची जिसमें समस्त संसार स्वाप्निक पदार्थ प्रतीत होने लगा। इसी कारण से स्वर्गीय पति के अनन्तर कुछ वर्ष से एक विस्तृत साम्राज्य की स्वामिनी होने पर भी राज्योपभोग उसे किंचित् भी रंजित न कर सकते थे। और वह स्वकीय कल्याण प्रद मार्ग को स्वच्छ बनाने के लिये अधिक समय ईश्वराराधन में दत्तचित्त रहती थी। यहाँ तक कि इस परिणामी संसार के अस्थायी पदार्थों में निःसारता का अवगन कर जिस प्रकार वह अपने आपको चिरस्थायी बनाने का प्रयत्न कर रही थी उसी प्रकार अपने कुटुम्ब के भी स्थायी होने की अभिलाषा करती थी। भर्तृ सम्बन्धी घटना के उपलक्ष्य में पिता के यहाँ आई हुई मैनावती जब अपनी राजधानी में पहुँची तब उसने अपने हृद्य पुत्र गोपीचन्द को, जो कि अठ्ठारह वर्ष की अवस्था में प्रविष्ट हो चुका था और कुछ ही दिन से राज्यासन पर अभिषिक्त हुआ था, इस संसार सागर से उत्तीर्ण बनाने का संकल्प किया। ठीक उसी रोज, जब कि माता के शुभागमन पर उचित उत्सव प्रकट पर मातुल का समाचार पूछने के लिये गोपीचन्द माता के चरणाविन्द की सेवा में उपस्थित हुआ, तब उसके द्रुमिल नारायण का अवतार होने के कारण दिव्याकृतिमान् होने पर भी राज्य ऐश्वर्य से प्रवृद्ध शरीर सौन्दर्य को देख मैनावती प्रथम तो कुछ स्नेह युक्त हुई। एवं विचार करने लगी कि मेरा पुत्र जैसा कि राजा होना चाहिये ठीक उससे एक कदम भी पीछे न हटकर सर्वथा अनुकूल है। फिर क्या इन भाग्योपलब्ध राज्योपभोगों की ओर से इसको वैरागी बनाकर भिक्षु दशा में नियुक्त कर देना मेरे लिये उचित कार्य है। कभी नहीं परन्तु कुछ देर के मननोत्तर वह स्नेह ही उसके प्राथमिक मन्तव्य की पुष्टि करने वाला हुआ। उसने निश्चय किया कि मेरे पुत्र का यह शारीरिक सौन्दर्य, जिसकी समता को हमारे राज्यभर में ही नहीं संसार मात्र में भी कोई प्राप्त नहीं कर सकता है, कुछ काल में प ृथिवी में मिल जायेगा। जिसका होना न होना समान समझा जाकर इसकी जन्मदात्री होने के कारण अद्वितीय पुत्र उत्पन्न करने का जो, मुझे आज महान् गौरव प्राप्त है, यह सर्वथा लुप्त हो जायेगा। इसलिये अच्छा होय दि भगवान् मेरी मनोऽभिवांछा के अनुकूल ऐसा अवसर उपस्थित कर दें कि मेरा पुत्र योगी हो उस अवस्था में प्रविष्ट हो सके जिसमें उक्त शोचनीय दशा की उपलब्धि न हो। ऐसा होने से मेरा वह स्वच्छ यश, जो आज प्रत्येक मनुष्य के मुख से उद्घोषित हो रहा है, चिरतादवस्थ्य बना रहेगा। ठीक इसी विषयक विचारणानुसार उसने उस दिन को उल्लंघित कर फिर किसी दिन गोपीचन्द्र का चित्त निर्णीत विषय की ओर आकर्षित करने के लिये उसको अपने प्रासाद में बुला भेजा। वह सूचना मिलते ही शीघ्रता के साथ पूज्य माता की चरणच्छाया में उपस्थित हो विनम्र वाक्य प्रार्थना पूर्वक स्वकीय आव्हान निमित्त को पूछने लगा। मैनावती के जहाँ इतनी चिन्ता थी कि उसके लिये एक-एक दिन भारी हो रहा था और वह सोचती थी कि गोपीचन्द मेरे आदेश को आज स्वीकार करता अब ही स्वीकार कर ले। वहाँ उसे यह भी सन्देह था कि सम्भव है पुत्र अपनी चढ़ती अवस्था के कारण, विशेष करके पाश्र्ववर्ती इन्द्रियास्वादन लोलुप लोगों के, मेरे अभिमत से विपरीत पट्टी पढ़ाने के कारण ऐसे प्रस्ताव को स्वीकृत नहीं करेगा। अतएव उसने आत्यन्तिक खेद सूचक अश्रुपात पूर्वक बड़ी कठिनता के साथ प्राकृतिक प्रस्ताव आरम्भ करने वाला वाक्य अपने मुख से निकाला। जिसके श्रवण करने के साथ-साथ ही गोपीचन्द की भ्रूकुटी टेढ़ी हो गई। परं वह अपूर्व बुद्धिमती थी। कुछ ही देर में अपने वाक्य रचनात्मक कौशल्य द्वारा उसका चेहरा साफ कर देने पर भी उसने उसको विशेष प्रबोधित बनाने का यत्न किया। एवं कहा कि पुत्र ! तुझे दोष नहीं इस समय तेरी अवस्था ही ऐसी है। परं याद रखना मैं जो कुछ कह रही हूँ वह इस समय तो अवश्य तुझे प्रतिकूल प्रतीत होगा। तथापि तेरे भविष्य को अनुकूल बनाकर वह अवस्था प्राप्त कर देगा जिसमें प्रविष्ट होने पर तुझे स्वयं यह मालूम हो जायेगा कि मैं निःसन्देह उस समय इस कृत्य से नासिका संकुचित कर असाधारण भूल कर रहा था। मैं प्रमत्ता नहीं हो गई हूँ जो तुझे ऐसी विषय दशा में परिणत कर निष्प्रयोजन महाकष्ट में डालती हूँ। किन्तु मैंने सौ बार इस विषय में परामर्श कर तुझे सावधान कर देना अपना असाधारण कर्तव्य समझा है। मैंने जिस समय इस नगरी में पदार्पण किया था उस समय तेरे पितामह राज्यासन पर विराजमान थे जो सर्व कार्यकुशल होने के साथ-साथ अतीव रूपवान् थे। जिसकी प्रजाहितैषिता से उपकृत हुए प्रजाजन अनल्प प्रशंसा करते थे। परं खेद है कुछ ही दिन में मेरे देखते-देखते उसका शरीर सौन्दर्य, तथा उसकी वह असाधारण कीर्ति, जो प्रत्येक मनुष्य के मुखारविन्द से उच्चरित होती थी, सब मिट्टी में मिल गई। जिसका आज कोई नाम तक लेता हुआ नहीं सुना जाता है। तदनन्तर तेरे पिता सिंहासनासीन हुए। उनका गौरव चरित्र भी अपने पिता से किसी प्रकार न्यून कोटि का नहीं था। परं कुछ दिन के बाद मेरे देखते-देखते कालचक्र ने उनको भी अपने गाल में डाल लिया। जिनका वह समस्त गौरव, जिसके विषय में वे फूले न समाते थे, आज न होने की समान हो गया। ठीक यही दशा कुछ दिन में तेरी भी हो जायेगी। फिर कहिये ऐसे राज्योपभोगों से, जिनका गौरव जलीय बुलबुले की तरह कुछ ही काल प्रत्यक्ष दिखलाई देकर सर्वदा लीन हो जाता है, क्या वास्तविक लाभ हो सकता है। अतएव तुझे उचित है कि इन अस्थायी राज्योपभोगों में विषवत् निरीह होकर अपनी गौरव गरीमा को चिरस्थायिनी बनाने के लिये योगेन्द्र ज्वालेन्द्रनाथजी का शिष्यत्व ग्रहण कर ले। ऐसा होने से मैं जो आज तेरे विद्यमान होने पर भी अपने आपको वन्ध्या की तुल्य मान रही हूँ पुत्रवती हो जाऊँगी। यह सुनकर गोपीचन्द्र का हृदय उमड़ आया। और इसीलिये वह उठा कि मातः ! थोड़े ही दिन से राजकार्यों का परिचय होने पर भी मैंने कोई ऐसा नियम प्रचलित नहीं किया जो प्रजा के लिये प्रतिकूल हो। और प्रजाजन उससे दुःखित हो मेरे विषय में घृणा करते हों। प्रत्युत मेरे कार्यक्रम को देखकर हमारी प्रजा इतनी सन्तुष्ट हुई है कि अपने मुक्त कण्ठ से मेरी प्रशंसा करने के साथ-साथ आपको असंख्य धन्यवाद देती है। और कहती है कि गोपीचन्द में जो अपूर्व राजनीति प्रविष्ट हुई है उसका कारण उसके गुण नहीं बल्कि उसकी माता के गुण हैं। कारण कि उस श्रीमती ने अपने पति के स्वर्गवास होेने के अनन्तर राजनैतिक विषय में जो असीम चतुरता दिखलाई थी उसी का संचार गोपीचन्द में संचरित है। जिसका प्रमाण स्वरूप गोपीचन्द के तादृश प्रजावत्सलतादि अनेक गुण आज हमारी दृष्टि गोचर हैं। अतएव इससे यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि असंख्य धन्यवादास्पद उस श्रीमती ने पुत्र को स्वयं दीक्षित किया है। इसी हेतु से उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय उतन ही थोड़ी है। देखिये मातः ! जिसके राज्य कार्य कौशल्य से प्रसन्न हुई प्रजा मेरी ही नहीं आपकी भी अपूर्व राजनैतिक पटुता का यहाँ तक गायन कर रही है, और जिसमें कोई आभ्यन्तरिक ऐसा दुर्गुण प्रविष्ट हो गया हो जिससे समय पाकर राज्य की अथवा कुटुम्ब की अप्रतिष्ठा होने की सम्भावना होती हो उसे आज ही परित्यक्तर वह आपकी कृपा का पात्र बनने को तैयार है, ऐसा पुत्र जब में आपकी चरणच्छाया में विद्यमान हूँ तब मेरी समझ में यह नहीं आता कि आपका वन्ध्या बनने का अभिप्राय है। रह गई कुछ काल में पिता आदि की तरह मेरे मरणों की बात, यह तो चक्र अनादिकाल से चला ही आता है। यदि आज ही मैं यह सोचकर, कि मुझे कुछ दिन में मरना है, इन उपभोगों को, जो बड़े भाग्य से प्राप्त हुए हैं, त्याग कर फिकर में बैठ जाऊँ तो मेरा कुछ समय पर्यन्त सजीव रहकर जो महान् आनन्द भोगना है यह भी हस्त से जाता रहे। और जब मरने की अपेक्षा आज ही मरे सदृश हो जाऊँ। इस वास्ते मुझे उचित है जितने आनन्द का जब तक अनुभव कर सकूँ उतने ही सन्तुष्ट हो ईश्वर की महती कृपा पर कृतज्ञता प्रकट करूँ। जो कि प्राचीन काल से हमारे पूर्व पुरुष की क्या सृष्टि मात्र के पुरुष करते चले आ रहे हैं और आगे करेंगे। इसके अनन्तर मैनावती ने कहा कि पुत्र सांसारिक लोगों के अभिमत से जो तेरा मत सम्बन्ध रखता है इसी कारण से मैं तुझे अब तक अपने सच्चे पुत्र के स्थान में नहीं मान रही हूँ। कारण कि यों तो संसार में सहस्रों नहीं लक्षों अथवा करोड़ों स्त्रियें प्रतिदिन पुत्र उत्पन्न करती हैं। जो कुछ सुख और अधिक दुःख के भण्डार बन थोड़े ही दिन में कुत्ते आदि पशु की मौत मर जाते हैं। जिनके मरण की देश में तो क्या ग्राम की ग्राम तक जान नहीं पड़ती है ऐसे उन पुत्रों का जन्म देने वाली स्त्री भी यदि अपने आपको पुत्रवती कहलाने का अभिमान रखती हों तो रखें। परं मैं उनको पुत्रवती कहने के लिये तैयार नहीं हूँ। मेरे मन्तव्य के अनुसार तो वही स्त्री पुत्रवती है जिसके पुत्र ने किसी असाधारण उचित कृत्य का अनुष्ठान कर संसार के इतिहास का परिवर्तन करने के कारण अपने आपको अमर बनाते हुए जननी को भी अमर बना डाला हो। और वह इसी हेतु से संसार के चिर प्रचलित इतिहास में अन्य स्त्रियों के लिये प्रमाण भूत हो गई हो। ठीक इसी मेरे मन्तव्य को सार्थकता प्राप्त करने के उद्योग में लगने दृढ़ निश्चय कर प्रकृत प्रस्ताव को स्वीकृत कर ले तो मैं आज ही से तुझे अपना सच्चा पुत्र समझकर अपने आपको पुत्रवती मानने का दावा रखने लगूंगी। अन्यथा नहीं। क्यांे कि तूने सावधानता के साथ राज्य ऐश्वर्य भोगते हुए अपनी समुन्नति सूचक कुछ ऐसा भी कोई कार्य कर डाला कि जिससे तू प्रजा की तरफ से और भी इससे अधिक सत्कार का पात्र बन जायेगा। और प्रजाजन मुक्त कण्ठ से तुझे सुना-सुना कर तेरी प्रशंसा करने लगेंगे। परन्तु कब तक जब तक कि तू सजीव रहेगा और उनको इसी प्रकार रंजित किये जायेगा। मरने के बाद तो आज जिस प्रकार तेरे पिता आदि का यश जैसा नगर की नाट्यशालाओं में वर्णित होता होगा वैसा तेरा भी हो जायेगा। सच पूछिये तो जैसे आज उनका होना न होने की समान दीख पड़ता है यही दशा तेरी भी होगी। फिर इस किंचित्कालिक अल्प यश को, जो तेरे राज्य मात्र में ही प्रतीत होता है, देखकर पुत्रवती के अभिमान पूर्वक मैं अपने आपको धन्य कैसे समझ सकती हूँ कभी नहीं, अतएव तुझे योग्य है कि तू उक्त योगिराज का शिष्य बन मेरे अभीष्ट की पूर्ति करे। यह सुन गोपीचन्द ने कहा कि मातः ! मुझे जिस कृत्य में प्रविष्ट करने का आप अनुरोध कर रही हैं उसके विषय में यद्यपि मैंने स्वयं तो ऐसा निश्चय प्राप्त नहीं किया है कि उसका अवलम्बन करने से मुझे अवश्य कोई असाधारण लाभ होगा। तथापि आप मेरी पूज्य माता हैं। आपके लिये संसार में अधिक से अधिक कोई प्रिय वस्तु है तो वह मैं ही हो सकता हूँ। अतएव केवल इसी आनुमानिक विचार पर विश्वास कर कि आप जिस कार्य में मुझे प्रेरित करती हैं वह अवश्य ऐसा होगा जो मेरे कलयाण का हेतु बन जायेगा। और उसकी वास्तविकता का अनेक बार के मनन द्वारा आपने निश्चय भी प्राप्त किया होगा। ऐसी दशा में मुझे यह उचित नहीं कि मैं आपके परामर्श में किंचित् भी ध्यान न दूँ। अतः मैं उक्त विचार के आधार से आपके अभिमत का अनुगामी होता हुआ भी केवल नीति की रक्षा के लिये इष्टजनों की सम्मति प्राप्त करूँगा। एवं परिषद् निर्णय के अनन्तर आपको इस विषय की निश्चयात्मक सूचना से सूचित करूँगा। इस कथन के उत्तर माता का हार्दिक आशीर्वाद लेकर गोपीचन्द अपने निवास भवन में गया। और आमात्यजनों के परामर्शानुसार एक सभा का निर्माण कर उसमें माता के मन्तव्य को प्रकटित किया। जिसको श्रवण कर उपस्थित लोग चकित हो गये। उनके ललाट में यह बात नहीं समाई कि माताजी का यथार्थ अभिप्राय क्या है। आखिर बहुत देर के पश्चात् यह प्रस्ताव पास कर, कि सब महानुभाव अपने-अपने भवन पर जाकर इस रहस्य का तत्त्व निश्रित कर कल की सभा में प्रकट कर दें, उस दिन की सभा विसर्जित की गई। और प्रधान पुरुष स्वकीय स्थानों पर पहुँच आन्तरिक दृष्टि से उक्त वृत्तान्त का मर्म देखने लगे। परं हाय कौन जानता था कि उन सबके दिमाक में एक ऐसी बात अपना अड्डा जमा लेगी कि जिसके अनुसार वे लोग मैंनावती के मन्तव्य से विपरीत अर्थ लगा बैठेंगे जिससे कि महान अनर्थ उपस्थित हो जायेगा। खेद के साथ लिखना पड़ता है कि अग्रिम दिन वाली सभा में अधिकांश लोगों ने आन्तर्धानिक भाव से राजा को विज्ञापित किया कि हमको तो ऐसा अनुभव होता है माताजी साहिब इस ज्वालेन्द्रनाथ योगी के साथ जो कि बहुत काल से राजकीय आराम में निवास करता है, पे्रम पाश से बन्धित हो गई है। तदनुकूल उसकी आभ्यन्तरिक यह इच्छा जान पड़ती है, कि पुत्र को योगी बनाकर राज्य से बहिर निकाल दूँ और ज्वालेन्द्रनाथ के साथ निर्भयता से राज्य करती हुई मनमानी क्रीड़ाओं का अनुभव करूँ। क्यों कि हम बहुत दिन से इसके पारस्परिक प्रगाढ़ प्रेम को लक्षित कर चुके हैं, प्रतिदिन सन्ध्या के समय जब कि लोगों का अधिक गमनागमन बन्ध हो जाता है वह अपनी उन सहचारिणियों के साथ जो उसके ही जैसे आचरण करने वाली हैं ज्वालेन्द्रनाथ के समीप जाया करती है। यह देखते हुए भी हमने, इस बात को सोच कर कि कभी यह रहस्य स्वयं प्रकट होगा, आज तक प्रत्यक्ष रूप से उद्घोषित नहीं किया था। सुतरां वह अवसर भी आ उपस्थित हुआ। जिसमें इतने दिन के बाद उस गुप्त रहस्य का पड़दा फट गया। किसी ने ठीक कहा है अनर्थ का घट सदा परिपूर्ण नहीं रहता है। पाठक ! आप समझ सकते हैं भावी कभी समीप से नहीं जाती है। अतएव उनकी इस विपरीत उक्ति से गोपीचन्द के चित्त में परिवर्तन हो गया। जिससे अतीव खिन्न दशा मंे परिणत हुआ वह पूछने लगा कि सम्भव है माताजी ने इसी अनुचित कृत्य का अनुष्ठान कर हमें कलंकित करने का उद्योग किया है परं क्या इस बात की सत्यता विषयक आप लोगों के पास कोई प्रमाण है। जिससे मुझे भी ऐसा दृढ़ विश्वास हो जाय। उत्तर में उन्होेंने कहा कि प्रमाणों में प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने किसी अन्य की दाल नहीं गलती है। आप हमारे निर्देशानुसार बाग में चलिये। और इसी प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुकूल उसे स्वयं योगी के समीप जाती हुई देखिये। इस कथन के आधार पर गोपीचन्द ने उस दिन की भी सभा का विसर्जन किया। और सायंकालिक निर्णीत चरित्र के अवलोकनार्थ उस अवसर की प्रतीक्षा में चित्त लगाया। शोकाग्नि विदग्ध हृदय गोपीचन्द का वह दिन बड़े कष्ट से व्यतीत हुआ। इतने ही में इधर से निर्दिष्ट समय के अनुसार विज्ञापक महानुभाव भी धीरे-धीरे एकत्रित हो गये। उधर मैनावती का प्रत्याहिक नियम था ही जो प्रथम उचित रीति द्वारा ज्वालेन्द्रनाथजी को परीक्षित बनाकर उसके पूर्ण योगेन्द्र होने का दृढ़ निश्चय प्राप्त करती हुई केवल अपना ही नहीं बल्कि कुलगुरु समझ कर सेवा करने जाती थी। अतएव जब कि नियमित सामग्री ले वह गुरुजी के समीप पहुँची तब वायु सेवन के बहाने से राजासाहिब के सहित ये लोग भी उधर जा निकले। और इन्होंने माताजी को योगी के समीप बैठी हुई देख गोपीचन्द को सूचित किया कि महाराज ! लो अपनी आँखों देख लो। भला वह बात नहीं है तो रात्री होने पर स्त्री का इसके पास जाने का क्या काम है। यह देख गोपीचन्द के हृदय में सहसा अग्नि प्रज्वलित हो उठा। परं वह उस समय महा दुःखी हो मौनता धारण किये हुए वापिस लौट आया। और इस कलंक के आच्छादित करने के लिये किस उपाय का अवलम्बन करना होगा इस विषय में उन पाश्र्ववर्ती लोगों की सम्मति लेने लगा। अनेक विचारा विचार के अनन्तर कुत्सित हृदय लोगों ने निश्चय कर उसको राय दी कि अन्य अनुकूल उपायान्तराभाव से यही एक सुकर उपाय हमारी बुद्धिगत होता है कि जिस किसी रीति से इस योगी को गुप्त कर दिया जाय। कारण कि इस अनर्थ रूपी रोग की जड़ यही है। ऐसा होने पर न तो माताजी को इसका संसर्ग प्राप्त हो सकेगा और न यह अनर्थ होगो। इस पर गोपीचन्द ने कहा कि यह ठीक है परं योगी के लुप्त करने का भी तो कोई सुभीता अन्वेषित करना चाहिये। क्यों कि यह कार्य बढ़ा ही जटिल है। यदि उसे अपने राज्य से निकल जाने की सूचना दी जाय तो वह इसका हेतु पूछेगा। जिसके बतलाने पर सम्भव है कि वह कुपित हो जाय। और शाप वा किसी मन्त्र का प्रयोग कर बैठे। जिससे हमको लेने के देने पड़ जायेंगे। इसके अतिरिक्त यदि माताजी को उसके पास जाने से अवरूद्ध किया जाय तो वह रोकने का हेतु पूछेगी। जिसके स्फुट करने से वह स्वयं क्रुद्ध हुई इस वृत्त को योगी के सम्मुख कह डालेगी। इससे फिर उसके कोप द्वारा उक्त अनिष्ट उत्पन्न होने की सम्भावना है। इस पर भी स्वार्थ सिद्धि के लिये हम अधिक कठोर बनना चाहें और नाथजी के प्राण अपहरण करने की अभिलाषा करंे तो यह कभी सम्भव नहीं हो सकता है। अज्ञानान्ध हुए हम प्रहार भी कर बैठें तो उसका बाल तक बांका न होगा। प्रत्युत वह हम ही को मिट्टी में मिला देगा। ऐसी दशा में समझ नहीं पड़ती कि उसको कैसे गुप्त किया जायेगा। मन्त्रियों ने कहा कि निःसन्देह आपका कथन सत्य है यदि उसकी सावधानता में हम कुछ उपद्रव कर बैठेंगे तो अवश्य हमें आपकी कथित आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। परं हम चाहते हैं कि उसके साथ जो भी बर्ताव किया जाय वह तब किया जाय जब कि उसने समाधि में प्रवेश किया हो। और कुछ काल के लिये वह अपने आपको विस्मृत कर बैठा हो। ठीक इसी निश्चय को प्रधानता मिली। जिसके अनुसार उन्होंने अपना एक गुप्तचर नियत कर उसे यह समझा दिया कि जब कभी ज्वालेन्द्रनाथ योगी समाधि निष्ठ हो तब हमको शीघ्र सूचना देना। वह आज्ञा प्राप्त कर इसी बात की ताक में रहने लगा। दैवगत्यनुकूल एक दिन ऐसा भी आ पहुँचा जिसमें वे ब्रह्मरूपता प्रापक सामाधिक अवस्था में परिणत हुए। यह देख निरीक्षक ने शीघ्र उपस्थित हो राजा साहिब को विज्ञापित किया। उसने उसी समय प्रधान पुरुष को आज्ञा दी कि अवसर आ पहुँचा है तुम जाओ और अपनी इच्छा के अनुकूल उसी कृत्य का अनुष्ठान करो जिससे हमारी कार्य सिद्धि हो जाय। मन्त्री इस प्रेरणा से प्रेरित हो कुछ अनुयायियों के सहित घटना स्थान में पहुँचा। और जो कुछ लोग नाथजी की सम्भवित सेवा के लिये वहाँ पर नियत थे उन्हें अपने-अपने गृह पर जाने का परामर्श देने लगा। वे विचारे क्या करते। आखिर तो नौकर और उसी के नियुक्त किये हुए थे। अतः वे लोग अधिक विचार न करके इस बात का यथार्थ रहस्य अनुभव किये बिना ही कुछ शंकित हुए अपने घर चले गये। उधर उसने युक्तिपूर्वक नाथजी को उठवा कर एक कूप में, जो कि कुछ काल से अवाहित होने के कारण जल रहित था, डलवा दिया। उसमें कितने ही ईंट पत्थर पड़े हुए थे अतएव उसका अभिप्राय था कि इसमें गिरते ही नाथजी के समस्त अंगप्रत्यंग खण्डशः हो जायेंगे। जिससे उसका जीवात्मा इस शरीर का परित्याग कर पक्षी का रूप धारण करेगा। परं ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था उस दुष्ट की अभिलाषा पूर्ण न हुई। इनकी यह पाप बुद्धि नाथजी से भी अविदित न थी। आपको इस आज्ञानिक कृत्य के रहस्य का मर्म प्रथमतः ही मालूम हो गया था अतः जिस समय उन्होंने आपको कुटी से बहिर निकाला उसी समय शरीर के साथ वायु का स्पर्श होने के कारण आप जागरित हो चुके भी यह विचार कर, कि देखें ये दुष्ट मेरे साथ किस अनुष्ठान का व्यवहार करते हैं, अचेत जैसी अवस्था में स्थित रहे। और जब उन्होंने आपको कूप में प्रक्षिप्त किया तब आपने उदान वायु का निरोध कर शरीर को पृथिवी पर न गिरने देकर कुछ हस्त ऊपर ही ठहरा लिया। यह देख वे लोग आश्चर्यात्मक समुद्र में निमग्न हुए। परं अभी उनकी विनाशकारिणी दुष्ट बुद्धि के कृत्य का अवसान नहीं हुआ था। इसी कारण से उन्होंने यह सोचकर, कि कोई ऐसी वस्तु हो इसके नीचे गिराने और इसे आघात पहुँचाने में सहायक हो, एक गुरुतर भार वाली पाषाण शिला अन्वेषित तथा आहृत कर आपके ऊपर छोड़ी। हत भाग्य इस पर भी उनकी आशलता हरित न हुई। आपके ऊपर को हस्त उठाने से जब वह शिला आप तक न पहुँच कर शिर के कुछ ऊपर ही स्तब्ध हो गई, तब तो उनके अंकुरित आश्चर्य का कोई पारावार न रहा। उनका हृदय घबड़ा उठा, मारे भय के समस्त अंगप्रत्यंग कम्पायमान हुए। आखिर किसी प्रकार बड़ी कठिनता का सामना कर वे गोपीचन्द के समीप गये। और उसको इस अनिष्ट सम्भव के विस्मापक समाचार से सूचित किया। जिसका श्रवण कर वह भी घबड़ा उठा। परं विनाश काले विपरीत बुद्धि काली कहावत के अनुसार उसने इस अनिष्टोत्पत्ति की कुछ भी परवाह न करके यह आज्ञा प्रदान कर दी कि जाओ ऊपर से काष्ठ घासादि डलवा कर कूप को सम्पूरित करवा दो। इससे वायुबन्ध होने के कारण तथा घास की उष्णता के कारण से वह अपने प्राणों से हस्त धो बैठेगा। यह सुन राजा की आज्ञा भंग न कर सकने के कारण आभ्यन्तरिक भाव से डरते कम्पते वे फिर वापिस लौटे ! और उन्होंने कुछ मनुष्यों को और बुला कर वृक्ष शाखाओं तथा तृण भारों से नाथजी को आच्छादित कर समीप स्थल में वर्तमान अश्वशालीय कूडे के ढेर से कुछ लीद उठवा कर ऊपर कुटुवा दी। तदनु फिर राजा के समीप आकर अपनी कार्य पूर्णता के विषय में प्रसन्नता प्रकट करने लगे। मूर्खों ने यह विचार तो कहाँ करना था कि जो ऐसी ही गुहा में, जहाँ वायु प्रविष्ट नहीं होता है, बैठकर 500-500 वर्ष पर्यन्त तक की समाधी लगाते हैं उनका इस दशा में नियुक्त कर देने से क्या अनिष्ट हो सकता है। (अस्तु) उन लोगों ने मोद-प्रमोद के साथ इसी विषय की अनेक वार्ता करते कराते आनन्द से वह दिन व्यतीत किया। उधर सन्ध्या होते ही नित्य नियमानुसार मैनावती बाग में पहुँची। परं आज वहाँ क्या था। न तो कोई नोकर था, जो उसके आगमन पर उचित कार्य में भाग लेकर अपनी उपस्थित सूचित करते थे, दीख पड़ते हैं। न कुटी के अभ्यन्तर जाकर देखा तो गुरुजी ही दीख पड़े। इससे उसी समय उसका हृदय पकड़ा गया। और निश्चय किया कि अवश्य कुछ न कुछ दाल में काला है। इतना होने पर भी उसके यह विश्वास तो स्वप्न में भी नहीं था कि ऐसा अनर्थ हो जायेगा। परं वापिस लौटकर उसने वहाँ रहने वाले नौकरों के घर सूचना भेज उनको बुलाकर जब वहाँ से घर आ जाने का कारण एवं गुरुजी के कहाँ चले जाने का समाचार पूछा और उसके उत्तर में उन्होंने जब ज्वालेन्द्रनाथजी की उपस्थिति में कुछ सहचरों के साथ मन्त्री ने वहाँ पहुँचकर इच्छा न होने पर भी अपने को हठात् घर भेज देने का समाचार प्रकट किया, तब तो उसकी शंका और भी बढ़ गई। और वह अनुमान करने लगी कि मैंने गोपीचन्द को जो योगेन्द्रजी का शिष्य बनने के लिये कुछ कहा सुना था मालूम होता है उसी के विषय में अरूचि प्रकट कर उसने इस बिरक्ति ठाठ का विचार कर चुपचाप यहाँ से चले गये हैं। शुकर है वे चुपचाप प्रस्थान करते हुए इनके अनुचित व्यवहार पर कुछ भी हर्ष क्षय न हुए। यदि किंचित् भी क्रुद्ध होकर इनकी ओर टेढ़ी दृष्टि करते तो इन्हें संसार में अपने आपकी रक्षा के लिये कहीं भी जगह न प्राप्त होती। एवं जिस शुद्ध अभिलाषा से मैंने गोपीचन्द को अपने कल्याणप्रद मार्ग को स्वच्छ बनाने का परामर्श दिया था मुझे अपनी आँखों ही उसका विपरीत फल देखना पड़ता। मैनावती ने इस प्रकार कुछ खेद प्रकट कर केवल इतना ही निश्चित किया कि गोपीचन्द का अश्रद्धेय व्यवहार देखकर गुरुजी राजधानी से कहीं अन्यत्र चले गये हैं। परन्तु वह उसके महान् अनर्थकारी कृत्य को अभी तक भी न जान सकी थी। और न कोई ऐसा हो जाने की उसे सम्भावना ही थी। अतएव उसने गुरुजी कहाँ गये हैं इस बात का पूरा परिचय लेने के लिये अपने किसी गुप्तचर को अवधानित किया। मन्त्री लोगों ने यद्यपि यह कार्य आत्यन्तिक गुप्त रीति से किया था। और जो लोग कूप के भरने में सहायक थे उनको, उन्होंने कूप के बन्ध करने का कारण कहीं ज्वालेन्द्रनाथ का छिपाना सूचित कर दिया तो प्राणदण्ड दिया जायेगा, यहाँ तक का भय सुना के परिपक्व कर डाला था। तथापि इसने अपने बुद्धिचातुर्य के प्रभाव से शीघ्र ही यथार्थ तत्त्व का अवगमन कर मैनावती के सम्मुख वर्णित किया। बस क्या था उसने ज्यों ही पूज्यपादजी का पुत्र के द्वारा कूप में पतन होना श्रवण किया त्यों ही ऊपर का श्वास ऊपर और नीचे का नीचे रह गया। वह मूच्र्छित हो शरीर की असावधानता के कारण सिंहासन से नीचे गिरना ही चाहती थी तत्काल ही समीपस्थ दासी ने उसको रक्षित कर शीतादि अनुकूल उपचार के लिये अन्य दासी को आहूत किया। वह शीघ्र स्वास्थ्यप्रद ओषधि ले आई। जिसका प्रयोग करने से कुछ क्षणों के अनन्तर माताजी साहिब लब्धसंज्ञा हुई। उसको इतना दुःख हुआ था मानों किसी ने उसका मर्मस्थान पकड़कर खण्डशः कर डाला हो। यही कारण था वह सचेत होेने पर भी कितनी ही देर तक कुछ न कह सकी। अन्ततः एक दीर्घ श्वांस लेकर उसने ईश्वर की अगम्य गति के सूचक दो-चार शब्दों का उद्घाटन करते हुए कहा कि मनुष्य इसीलिये अल्पज्ञ समझे जाते हैं। ये ईश्वर की वास्तविक अभिलाषा क्या है इस बात को नहीं जान सकते हैं। ये अपनी बुद्धि के अनुसार निश्चय कर करते हैं कुछ और ईश्वरेच्छानुसार हो बैठता है कुछ ! ठीक यही दशा मेरी भी हो गई। हाय मैं क्या यह जानती थी कि कल्याण के विपरीत पुत्र नरक के मार्ग में प्रविष्ट हो जायेगा। हाय मैं अब क्या करूँ और कहाँ चली जाऊँ। नहीं जानती इस अनर्थ का कब क्या फल होगा। सम्भव है अभी तक योगेन्द्रजी की समाधि ही न खुली हो। जब वे उस दशा में जागरित होंगे और अपने साथ इन महान् अनुचित व्यवहार का बर्ताव देखेंगे तब नहीं जानती पुत्र के विषय में कैसा अवसर उपस्थित करेंगे। इस तरह शोकाग्नि विदग्ध हृदय से बहुत विलाप करने के अनन्तर उसने एक सभा करने की आज्ञा दी। जिसका शीघ्र ही प्रबन्ध होने के कारण उसमें उपस्थित होने वाले गोपीचन्द तथा उसके तत्कृत्य परामर्शक सहचारियों को उसने अपने क्रोधावेश वशात् कुछ क्षण के लिये आन्तःपुरिक लोकमर्यादा की परवाह न करके खूब ही तर्जना दी। आप सदाचारिणी एवं ईश्वर में दृढ़ निष्ठा वाली होने पर भी एक महायोगेन्द्र जी की अमोघ सेवा शुश्रुषा के प्रभाव से विलक्षण प्रतिभावाली बन चुकी थी। अतएव आपके तेजस्वी मुखारविन्द से उद्घोषित होने वाले युक्तियुक्त वाक्यों की निरन्तर प्रणालिका ने उनकी ग्रीवा नीचे को कर दी। यह देख उसको उनके पापमय कृत्य का खूब ही परिचय मिल गया। और गोपीचन्द की ओर निर्देश कर उसने फिर कहना आरम्भ किया कि संसार में स्वार्थी लोगों की बुद्धि से प्रायः ऐसे ही कार्य अधिक सम्पादित हुए दीख पड़ते हैं जैसा कि आज हमारे यहाँ हो गया। परं अधिकारी पुरुष को उचित है वह अपने श्रोतों को ही प्रधानता न देकर अपनी सूक्ष्म बुद्धि से भी कुछ कार्य ले। और जहाँ तक शक्यता हो प्रकृत वृत्तान्त की सत्यासत्यता का पूरा परिचय ले। खेद के साथ कहना पड़ता है और उसके विषय में मुझे अत्यन्त दुःख है जो तुझे स्वयं स्वकीय बुद्धि का कुछ भी व्यय न करके इन स्वार्थी लोगों के परामर्शानुसार मेरे मन्तव्य से विपरीत अर्थ में विश्वसित हो इस अनर्थ के करने में अवतरित होने का अवसर मिला। शोक, शोक, शोक, क्या तुझे इतना विचार नहीं हुआ कि ऐसे महान् योगेन्द्र इस सांसारिक पाश से बद्ध नहीं होते हैं जैसा कि मैंने निश्चय कर छोड़ा है। यदि वे सचमुच ही तेरे निश्चय के अनुसार अपने पथ से विचलित हो बैठे होते तो उनकी वह अलौकिक शक्ति, जिसने तेरे पितामह आदि को और तुझे तथा तेरे अनुयायियों को भी चकित कर डाला है, अभी तक कभी की नष्ट हो गई होती। और वे सांसारिक साधारण लोगों की तरह कुछ ही काल पर्यन्त इस लोक की यात्रा समाप्त कर परेत राज के द्वार पर पहुँचे होते। परं ऐसा नहीं दीख पड़ता है। ये असंख्य वर्ष से इस लोक में विद्यमान रहते हुए भी भविष्य में इसी प्रकार अक्षुण्ण रहेंगे। क्यों कि योगेन्द्र का मरण बड़ा ही दुष्कर है। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं यहीं देख लीजिये तेरे प्रदादा-दादा और पिता कहाँ गये। वे तो कुछ काल तक अपने आहंकारिक कृत्य का अनुष्ठान कर धूलि में मिल गये। और ये महाराज अभी तक जैसे के तैसे ही बैठे हैं। बल्कि सच पूछे तो सांसारिक भोगों की आरे से मेरे उपरामता उत्पन्न होने में इसी विचार से सहायता दी है। मैंने सोचा था कि जब से इन योगेन्द्रजी का हमारे नगर में आना सुना जाता है उस समय के अनन्तर आज तक मरणोत्पत्ति की परम्परा से पीढ़ी की पीढ़ी गुजर गई परं ये महात्माजी आनन्द के साथ समय व्यतीत करते हुए अभी तक वैसे ही विराजमान हैं। जब योग में इतनी शक्ति है कि मनुष्य को असंख्य बार पशु-पक्षी की मौत से नहीं मरणा पड़ता है तो इसी का अवलम्बन क्यों न किया जाय। यही कारण था मैंने, मेरे पुत्र की यह अद्वितीय छबिली शान उसके पिता आदि की तरह धूलि में न मिल सके तो सौभाग्य है, यह दृढ़ विचार कर तुझे उधर ध्यान देने के लिये उत्साहित किया था। परं हाय तूने मेरे समस्त शुभ मनोरथों पर खाक डाल दी। और उलटा एक ऐसा काम कर बैठा जिससे हमारा कहीं भी ठिकाना न रहेगा। क्या तूने और तेरे इन सहचारियों ने यह समझ लिया कि महात्माजीका अन्त हो गया अब उससे हमको कुछ भय नहीं। याद रखना प्रथम तो ये ही नहीं मर सकते और चाहें तो सूक्ष्म शरीर बनाकर अभी बहिर निकल सकते हैं। परं तुम्हारी दुष्टता को देख रहे हैं कि वह कब तक इनके हृदय में अपना केन्द्र रखती है। द्वितीय मान लिया जाय कि ये अपनी दयालुता के कारण वा किसी अन्य कारण से तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट न करेंगे। तो भी तुम उससे वंचित नहीं रह सकते हो। कारण कि इनका शिष्य कारिणपानाथ शक्तिशालिता में इनके तुल्य होता हुआ भी एक बड़े उत्तेजित स्वभाव का योगी है। वह तुम्हारे इस कृत्य को अवश्य सुन पायेगा। और तुमको ही क्या सम्भव है नगर मात्र को खतरे में डालकर तुम्हारे इस दुष्ट चरित्र की निर्यातना करेगा। ऐसी दशा में कहो तुम लोगों ने अविचार से इतने बड़े अनर्थ में हस्त डालकर उससे उत्पन्न होने वाले महान् अनिष्ट से अपने आपको बचाने के लिये कोई उपाय भी सोचा है क्या। बोलो-बोलो और सोचा हो तो ऊपर को हस्त उठाओ। यह सुनकर भी जब किसी ने हस्त न उठाया तब तो उसको और भी दुःख हुआ। और उसने कहा कि अच्छा यदि यही बात है तो तुम लोग अपने कर्तव्य का फल भोगना। मैं अपनी आँखों से तुम लोगों का अनिष्ट देखकर अपने शुभ मनोरथ का विपरीत फल नहीं देखना चाहती हूँ। अतएव मैं आज ही नगरान्तर के लिये यहाँ से प्रस्थान करती हूँ। मैनावती के ये दुःख भरे वाक्य सुनकर गोपीचन्द का तथा अन्य कई एक लोगों को अश्रुपात हो गया। और महा कष्टाक्रान्त हृदय से कुछ भी उत्तर न दे कर वे कितनी देर पर्यन्त पाषाण प्रतिमा की सदृश स्तब्ध दृष्टि से उसके मुख की ओर निहारते रहे। तथा कुछ क्षण के अनन्तर सभा विसर्जन करने की सूचना देकर जब मैनावती सभास्थल से चलने लगी तब गोपीचन्द ने अपने सहचारियों के सहित माता के चरणों का आश्रय लिया। और अपने अनुचित कृत्य पर अनल्प पश्चाताप करने के अनन्तर उससे अन्यत्र न जाने का अनुरोध करने के साथ-साथ आगमिष्यमाण अनिष्ट के परिहारानुकूल सम्भवित उपाय के बतलाने का आग्रह किया। यह सुन क्रोधावेश से नासिका संकुचित किये हुए उसकी प्रार्थना में उपेक्षा प्रकट कर वह अपने प्रासाद में चली गई। उधर सभा विसर्जित कर समस्त सभ्य लोग अपने-अपने स्थान पर गये। और इस विषय में न जानें क्या होगा इस प्रकार की महाचिन्ता से आक्रान्त हुए प्रत्याहित ऐसो आराम से वंचित रहे। 
इति श्रीज्वालेन्द्रनाथ कूप पतन वर्णन । 

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