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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Monday, June 17, 2013

श्री भर्तृनाथ वैराग्य वर्णन

आप उक्त अध्याय में पढ़ चुके हैं कि भर्तृजी की राज्य संचालकता सर्वथा श्लांघनीया थी। इसी से राजकीय पुरुष उससे सहमत रहते हुए अपनी अनेक श्रद्धेय काय्र्यावली का परिचय देते थे। और मनोविनोद के लिये प्रत्येक अवसर पर एक से एक विचित्र क्रीड़ात्मक अभिनय में प्रेरित कर उसे राज्योपभोगों का पात्र बनाने का यत्न करते थे। इधर उसने विक्रम के सहवास से अपने आपको राजनैतिक पटुता का भण्डार बना लिया था। अतएव वह स्वयं विचारशील होने से उन लोगों के परामर्शानुसार राज्य कार्यों की विचारणार्थ ध्यानावस्थित न होकर वाहियात क्रीड़ाभिनय में अधिक समय नष्ट करता हुआ अपने आपकी इन्द्रिय परायणता का परिचय नहीं देता था। तथापि उसके कोई एक अवसर ऐसा सम्मुखीन हो जाता था कि अनुयायियों के विशेष आग्रहानुरोध से उसको वह करना ही पड़ता था। दैव वशात् एक दिन ही अवसर आ उपस्थित हुआ। अनुजीवियों की प्रेरणानुगत हुए भर्तृजी आखेट करने को वन में गये। वहाँ जाकर अनेक हरिणियों की स्मराग्नि शान्त करने वाले एकाकी यूथाधिप मृग का वध कर भर्तृजी ज्यों ही अपने सहकारियों से प्रशस्य हुए वापिस लौटे त्यों ही प्रिय पति के मृतक शरीर पर प्राणों तक न्योछावर करने का दृढ़ निश्चय रखने वाली उन हरिणियों ने स्वकीय जीवन ममता का परित्याग कर उनका पारितिक मार्ग अवरूद्ध किया। वे निर्भीक हुई अनेक चैंतरफ चक्राकार से चक्र लगाती थी। तथा अपने विस्तृत नयनों के करूणोत्पादक निरन्तरावलोकन से वे ऐसा भाव प्रकट कर रही थी मानों कह रही हैं कि या तो प्राणनाथ को सजीव कर छोड़ो। अन्यथा हमारे भी प्राणों का हरण कर प्रिय पति के साथ ही हमारी यात्रा समाप्त करो। उनका प्राणनाथ के विषय का अकुतोभय व्यवहार देखकर भर्तृजी तथा उसके सार्थी समस्त चकित हो गये। और अपनी धृष्टता के साथ-साथ स्वकीय आरम्भित कृत्य पर कुछ लज्जित हुए भी मृगियों के अभ्यर्थना पूर्ण व्यवहार की उपेक्षा कर उनकी पंक्ति के अभिमुख घोड़े भगाते हुए आगे बढ़ने का प्रयत्न करने लगे। इतना होने पर भी पति के अभाव में सजीव रहना निष्प्रयोजन समझने वाली उन मृगियों ने अपना साहस नहीं छोड़ा। और उनका मार्ग अवरूद्ध करने में वे अनवरत प्रयत्न करती रही। साथ ही अपनी आन्तरिक अभ्यर्थना द्वारा ईश्वरीय अनेक गुणगायन पूर्वक अपने मरण वा पति के विमोक्षण की याचना करती रही। सौभाग्य उनकी अभिलाषा पूर्ण हुई। कुछ काल से तोरनमाल पर्वत पर निवास करने वाले महात्मा श्रीमद्योगन्द्र गोरक्षनाथजी, जो कि भर्तृको उसके उद्देशित पथ में प्रेरित करने की ताक में बैठे हुए अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे, अकस्मात् इधर आ निकले और सम्मुखीन मार्ग तय करते हुए उन्होंने जब भर्तृ और हरिणियों के इस दयामय वृत्तान्त को देखा तब तो उन्हों के अपूर्व प्रसन्नता उत्पन्न हुई। तथा उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस घटना विषय में कोई युक्ति दिखला कर भर्तृ के वैराग्य उत्पन्न कर अपना आगमन सफल करेंगे। अतएव उन्होंने कुछ पादक्रम पर्यंन्त अग्रसर हो भर्तृको को सम्बोधित किया कि अये महानुभाव ! क्या इस मृग के हनन से पहले तुझे यह विचार भी हुआ था कि इसके वियोग में इन अनल्प मृगिकाओं की क्या गति होगी। यदि हुआ था तो किस प्रकार तू पाषाण से भी कठिन हृदय कर इस निष्ठुर कृत्य में प्रवृत्त हुआ। यदि नहीं हुआ था तो तुझे चाहिये कि इस मृग के विषय में अपने आपकी तुलना करे। यदि आज तुझे ही कोई तेरे प्राणों से विरहित कर दे तो कहिये तेरी उन अनेक राणियों का, जो कि तुझे प्राप्त हो अपने ऐहलौकिक स्वर्गोपम भोग को सार्थक कर रही हैं, क्या समाचार उपस्थित हो। क्या ऐसा होने से उनके लिये समस्त संसार अन्धकारमय नहीं प्रतीत होगा। क्या उनका अपरिमित आमोद, जो कि आज विस्तृत हो रहा है, समस्त मिट्टी में नहीं मिल जायेगा। ठीक यही दशा अब इन मृगिकाओं की हो रही है। जो स्वामी के विरह में अपने प्राणों तक की परवाह न करती हुई इस आत्यन्तिक करूणोत्पादक अभिनय को उपस्थित कर रही है। आश्चर्य है इतना होने पर भी तुम्हारा निष्ठुर हृदय किंचित् भी द्रवीभूत नहीं होता है। यह सुन भर्तृराजा ने कहा कि महाराज ! आप जानते हुए भी क्यों मूल करते हैं। यह आखेट करना तो राजा लोगों का स्वाभाविक कृत्य है। इसमें साधारण लोगों ने ही नहीं श्रीरामचन्द्रादि माननीय महानुभावों ने प्रवृत्ति कर इसके स्वाभाविक होने की आत्यन्तिक पुष्टि की है। फिर कोई कारण नहीं कि हम लोग ऐसे कृत्य में घृणा उत्पन्न कर विरामी हो जायें। इसके प्रत्युत्तरार्थ फिर श्रीनाथजी ने कहा कि खैर यह वात्र्ता रहो। राजा लोगों का यह कृत्य स्वाभाविक है अथवा नहीं इस विषय में हम अधिक वाद-विवाद नहीं करना चाहते हैं। किन्तु हमारा तो केवल यही कहना है कि अनेक हरिणियों की कामना पूर्ण करने वाला यह एक ही मृग था जिसका तुम वध कर चुके हो। अब इसके अभाव में हरिणियों का कोई आधार नहीं कि जिसके आश्रित हो ऐहलौकिक आनन्द का अनुभव करती हुई ये अपने जीवन को सफल समझें। अतएव जहाँ ऐसी दशा उपस्थित होती हो वहाँ ऐसा स्वाभाविक कृत्य भी अनुचित समझा जाता है। अनुचित ही नहीं ऐसे कर्म का आरम्भ करने वाला पुरुष महान् अनर्थी शब्द से व्यवहृत किया जाय तो कोई असंगत बात नहीं है। यही सूचित करने के लिये हमको प्रकृत प्रस्ताव कहने का साहस करना पड़ा है। तदनु कुछ मुस्करा कर फिर राजा ने कहा कि भगवन् ! खैर हम आपके कथन की उपेक्षा नहीं करते है। और भविष्य में जो आखेट करेंगे उस समय इस विषय का बहुत ध्यान रखेंगे। जिससे आज जैसा अनर्थ उपस्थित न हो सकेगा। परन्तु करें क्या यह जो अनर्थ हो गया इसका परिहार करने के अनुकूल हमारे समीप कोई सामग्री नहीं। हाँ हो सकता है आप महात्मा है। परोपकार के लिये ही देशाटन करते हैं। न कि स्वार्थ के लिये। अतएव इस मृतक मृग को सजीव कर दें तो हम लोग इस परिवाद से मुक्त हो आपका गुण गायन करेंगे। और ये मृगी भी, जिनके ऊपर आकस्मिक वज्रपात हो गया है, आपका हृदय से गुणानुवाद करेंगी। भर्तृजी की यह तर्क गर्भित वाणी सुनकर श्री नाथजी ने समझ लिया कि इसका अनुकूल अदृष्ट ही इसे प्रेरित कर यह तर्कना करवा रहा है कि कोई चमत्कार दिखलाओ जिससे इसके वैराग्य उत्पन्न हो। और यह अपने औद्दशिक पथ पर पदार्पण करे। अतः श्रीनाथजी ने उच्च स्वर से कहा कि अच्छा इसे घोड़े से नीचे डालो हम इसको तादवस्थ्य दशा में नियुक्त करते हैं। यह सुन वे चकित से होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे। और उन्होंने कुछ हंसी सी समझ कर जो वचन कह डाला था उसकी सचमुच पूर्ति होने के लक्षण दिखाई देने लगे। आखिर ऐसी ही दशा में कुछ सोच विचार के अनन्तर विवश हो उन्होंने अश्वारोपित मृग को मुक्त कर नीचे डाल दिया। उधर श्रीनाथजी तैयार खड़े हुए अपनी भस्मपेटिका में हस्त डाल ही रहे थे जिन्होंने सजीव मन्त्र का जाप कर कुछ भस्मी उसके ऊपर छोड़ी। तत्काल ही वह प्रभावित हो शीघ्रता के साथ मृगिकाओं में जा सम्मिलित हुआ। यह देख हरिणियों के आनन्द की सीमा न रही। वे समस्त एक बार ही श्रीनाथजी की ओर निहार कर, मानों उन्होंने प्रत्युपकारार्थ हार्दिक धन्यवाद प्रयुक्त किया है, अपने प्राणनाथ को प्राप्त हो वहाँ से स्थलान्तर के लिये अपसरित हुई। इधर इस घटना ने भर्तृजी का मर्म स्थान बींघकर उसे ऐसा कर दिया मानों किसी ने उसका जीवात्मा पकड़ कर बहिर निकाल लिया हो। यही कारण था वह कुछ देर तक निश्चेष्ट सा होकर पाषाण प्रतिमा में परिणत हुआ। ठीक इसी अवसर पर श्रीनाथजी की दृष्टि एकाएक उसके चेहरे पर पड़ी। तत्काल ही कुछ मुस्कराते हुए उन्होंने कहा कि क्यों क्या बात है। तुम्हारा कथित वचन सार्थक हुआ। जिससे तुम अनर्थ कारित्व से विमुक्त हुए। ऐसी दशा में तुम्हें उचित नहीं कि शिथिल मुख कर शोकीय अवस्था का परिचय दो। श्रीनाथजी के इस कथन की समाप्ति के साथ ही कुछ अवधानित हो घोड़े की खलिन दूर फेंककर वैरागी भर्तृजी ने महात्माजी के चरणयुगल का आश्रय लिया एवं कहा कि भगवन् ! मैं शोकवान् नहीं हुआ हूँ। कारण कि वस्तु के नष्ट होने पर शोक का सम्भव हो सकता हैं न कि प्राप्ति होने पर। आपने तो उस वस्तु की, जो हमारे द्वारा नष्ट हो चुकी थी, पुनः प्राप्ति की है फिर शोक किस बात का जिसको मैं अपने आप में आश्रय दूँ। प्रत्युत इस बात से, कि हम जो अनर्थ कर बैठे थे उसका आपने निवारण किया, मुझे महान् आनन्द प्राप्त हुआ है। और विश्वास हो गया है कि यह आनन्द केवल आपके वेष में ही है न कि राज्योपभोग में। अतएव मैं अब आपकी शरण छोड़कर राजकार्यों में प्रवृत्त होने के लिये तैयार नहीं हूँ। मुझे आशा है आप मेरी प्रार्थना को वापिस लौटाने का प्रयत्न न करेंगे। और मुझे अनुगृहीत कर मेरे गन्तव्य मार्ग को निष्कण्ट बनाने की कृपा करेंगे। श्रीनाथजी यद्यपि इसी कार्य के लिये यहाँ आये थे। और चाहते थे कि ऐसा अवसर उपस्थित हो जिसमें भर्तृ का अन्तःकरण वैराग्य की धाराओं से परिपूर्ण हो जाय। तथापि उसके मर्म स्थान में इससे भी अधिक जो चोट लग चुकी थी वह श्रीनाथजी से छिपी नहीं थी। और वह यह थी कि भर्तृ का मन सदैव अपनी प्राण प्यारी पतिव्रता पिंगला राणी में उलझा रहता था। इसका कारण पिंगला के यथार्थ पातिव्रत्य धर्मादि अनेक गुण थे। अतएव सम्भव था कि इस अवसर के बीतने पर भर्तृ को उसका अवश्यम्भावी स्मरण हो आनेे से वैराग्य में शिथिलता उपस्थित हो जाती। इसी हेतु से उसको धैर्य का अवलम्बन कराते हुए श्रीनाथजी ने कहा कि हाँ अवश्य जैसा तुम कहोगे वैसा ही किया जायेगा। परं ऐसा करने में राणियों की सम्मति आवश्यकीया है यदि वे मुझे आज्ञा प्रदान कर शाप हेतुक आशंका से रहित कर देंगी तो मैं तुझे अपना शिष्य बनाने में कुछ भी विलम्ब न करूँगा। यह सुन राजा स्तब्ध नेत्र हो निराशा प्रकट करने लगा। कारण कि इस बात के लिये राणियों का स्वीकार करना उतना ही असम्भव था जितना कि चेंटी के लिये समुद्र का पान करना। अतएव हतभाग्य भर्तृको इस अवसर में अपनी आशालता के हरित होने का लक्षण नहीं दिखाई दिया। और उपायान्तराभाव से विवश हो श्रीनाथजी के सहित ही नगर में जाने के लिये बाध्य हुआ। वहाँ जाने पर श्रोत्र परम्परा द्वारा ज्यो हीं प्रकृत घटना का संचार नगर में संचरित हुआ त्यों ही अनेक नर-नारी उपस्थित हो श्रीनाथजी की वन्दना करने में दत्तचित्त हुए। उधर प्रासाद में सूचना भेजने पर जो सम्भव था वहीं हुआ। राणियों ने विशेष करके पिंगला ने तो यहाँ तक कर लिया कि राजा के वियोग में मैं अपने प्राणों तक को नहीं रख सकती हूँ। अतः मुझे सजीव रखना है तो उसका यही उपाय है कि राजासाहिब मुझ से विरहित न हों। यह सुन भर्तृजी बड़ी चिन्ता में पड़े। इधर पतिव्रता स्त्री के शाप का भय तो उधर श्रीनाथजी के सम्मुख जो वचन कह डाला उससे विमुख होने पर होने पर उपस्थित होने वाली लज्जा का भय उसे नतानन बना रहा था। अन्ततः विद्धान्तःकरण होकर भी उक्त हेतु से, विशेष करके श्रीनाथजी के प्रबोधित करने से, किसी प्रकार उसने फिर राज्यभार को, जो कि एक बार आन्तरिक भाव से त्याग दिया था, ग्रहण कर लिया। ऐसा होने से राजप्रासाद में फिर आनन्द की लहर उड़ने लगी। राणियों ने श्रीनाथजी के इस निरीह व्यवहार पर कृतज्ञता प्रकट कर असंख्य धन्यवाद दिये। और प्रत्युपकारार्थ सेवा शुश्रुषा करने की अभिलाषा से उन्होंने श्रीनाथजी के कुछ दिन वही निवास करने के लिये विशेष आग्रह किया। यही आग्रह राजा साहिब और इस अवसर पर उपस्थित होने वाली गोपीचन्द की जन्मदात्री प्राथमिक राजा की पुत्री भर्तृजी की धर्मभगिनी मैनावती का भी था। यह अत्यन्त चतुर तथा अपूर्व श्रद्धा वाली थी। इसकी भक्ति की पराकाष्ठा देखकर श्रीनाथजी ने विवश हो कुछ मास तक उज्जयिनी में विश्राम करना ही पड़ा। अनन्तर मैनावती को, आवश्यकता पड़ने पर हमारा स्मरण करना हम उपस्थित हो शीघ्र सहायक होंगे, यह वचन देकर आपने तोरनमाल के लिये फिर प्रस्थान किया। इधर राजासाहिब द्विविद्या विचार से ग्रसित हुए राज्य कार्यों का निर्वाहन करने लगे। कभी राज्य विषयक समस्या में दत्तचित्त होते थे तो कभी उस घटना का स्मरण कर खिन्न मनोरथ हो जाते थे। और अपनी अभिलाषा निष्फल होने का हेतु स्वकीय पत्नी पिंगला को प्रमाणित करते थे। एक दिन इसी विषय का अधिकार लेकर भर्तृजी ने पिंगला से कहा कि तूने अपने पातिव्रत्य की घोषणा कर मेरे प्रवृद्ध वैराग्य में उस दिन आघात पहुँचा दिया। जिससे मेरी वह प्रतिज्ञा, जो कि मैंने गोरक्षनाथजी के सम्मुख करी थी, व्यर्थ हुई। उसका स्मरण होते ही मुझे आत्यन्तिक लज्जा का सामना करना पड़ता है इतना होने पर भी यदि तुझे त्वदीय पातिव्रत्य की वास्तविकता का कोई प्रमाण मिल जाय तो मैं उस लज्जास्पद वृत्तान्त की उपेक्षा कर तुझे धन्यवाद दे सकता हूँ। कारण कि स्त्री चरित्र बड़ा ही दुर्भेद्य होता है। शास्त्रकारों ने जहाँ तक उनकी बुद्धि का प्रसार हुआ है इस विषय पर खूब जोर डालकर मनुष्यों को सचेत किया है। अतएव ऐसा न हो कभी मैं तेरी झूठी धमकी के विवश हो उस कल्याण मार्ग से वंचित रहता हुआ संसार में अपने आपको कलंकित कर बैठूँ। यह सुन पिंगला ने ओजस्विनी भाषा से उत्तर दिया कि स्वामिन् ! जो अवसर हस्त से निकल गया उसके विषय में पश्चाताप करना बुद्धिमानों का काम नहीं है। रह गई मेरे विषय में सन्दिग्ध होने की बात, इसके लिये मैं साभिमान कह सकती हूँ कि मैं पतिव्रता ही नहीं पतिव्रताओं में अग्र गणनीया हूँ। जो स्त्री हठ से पति के मृतक शरीर के साथ चिता में भस्मात् हो जाती है वे संसार में पतिव्रता कहलाने योग्य है सही परं उनकी द्वितीय स्थान में गणना होती है। प्रथम स्थानिक स्त्री वे ही हो सकती हैं जो पति के प्राणपक्षी होने पर तत्काल ही बिना किसी विशेष उपाय के अपने प्राणों को भी उसी दशा में परिणत कर दें। ठीक मैं भी एक इन्हीं स्त्री रत्नों में गिनी जा सकती हूँ। आप चाहें तो कभी इस विषय में मुझे तेरे इस सत्यता पूर्ण वाक्य से ही निश्चय हो गया कि तू यथार्थ पतिव्रता है। परन्तु उसको इतना विश्वास दिलाकर भी भर्तृजी ने अपने गूढ रहस्य को अपने अन्तर छिपायें रक्खा। और कभी अवसर प्राप्त होने पर पिंगला के ओजस्वी वाचनिक वृत्तान्त के निरीक्षण करने का विचार स्थिर किया। इसी विषय की ताक में दत्तचित्त हुए भर्तृजी के कुछ मास व्यतीत हुए। एक दिन जब कि मृगया के लिये अपने सहकारियों के सहित भर्तृजी वन में गये तब उसके सहसा इस बात का स्मरण हो आया। अतएव उसने एक मृग मारकर उसके रूधिर में अपने वस्त्र प्लावित किये और उनको इस सन्देश के साथ, कि राजा साहिब सिंह के द्वारा मारे गये उनकी यह सूचना है, प्रासाद में भेज दिया। राजपुरुष स्वामी के मरण सूचक चिन्ह स्वरूप वस्त्र लेकर ज्यों ही महल में पहुँचा त्यों ही राणियों के करूणा स्वर क्रन्दन से एक बार ही प्रासाद गूंजारित हो उठा। इस आकस्मिक विस्मापक अशुभ शब्द को श्रवण कर समीप देशस्थ श्रोता लोग आत्यन्तिक शोकान्वित हुए। और उन्हों में से जो प्रासाद प्रवेश विषय में अप्रतिहत गति थे उन लोगों ने सम्भव उपायों द्वारा राणियों को धैर्यावलम्बन कराने का प्रयत्न किया। परं इतनी देर तक स्थित रहकर पिंगला राणी उनकी वाक्य रचना के श्रवण करने का साहस न कर सकी। उसने पति का मरण सुनते ही दो बार दीर्घ श्वास लेकर अपनी ऐहलौकिक यात्रा समाप्त कर दी। यह वृत्तान्त भी राजा के मरण समाचार के साथ-साथ ही नगर में विस्तृत हो गया। इन आकस्मिक दो असाधारण मृत्युओं ने नगर में ऐसी हलचल उपस्थित की जैसी कि कभी पूर्व न हुई थी। नगर के प्रासादों पर उड़ने वाली वे रंग बिरंगी पताकायें, जो कि राजा के आखेट प्रस्थान समय चढ़ाई गई थी, समस्त उतार दी गई। इनसे अतिरिक्त अन्य कितने ही ऐसे चिन्ह जो कि नगर के श्रृंगार रूप थे समस्त हटा लिये गये। जिससे कुछ ही देर में राजधानी उज्जयिनी आभूषण हरे जाने वाली धनाढ्य घर की स्त्री के रूप में परिणत हुई। और राजा के मृगया प्रस्थानीय उपलक्ष्य में जिन-जिन स्थानों में प्रातःकाल अनेक मांगलिक बाजे बाज रहे थे। तथा अनेक प्रकार से दान पुण्य किये जा रहे थे उन स्थानों में अब ऐसी उदासीनता छा गई थी कि जो देखता था उसी का मन रोष से उमड़ आता था। ऐसी ही दशा में अपने गुप्त रहस्य के द्वारा राजा साहिब भी वहाँ आ पहुँचे। और नगर की प्रातःकालिक शोभा से विपरीत दशा को देखकर स्वयं विस्मित हुए अपने सजीवत्व से लोगों को अत्यन्त हर्षित बनाने लगे। यह देख थोड़ी ही देर में नगर की फिर वही शोभा उपस्थित हुई। परन्तु चकित हुए राजा साहिब को यह द्विबारी शोभा किंचित् भी रंजित न कर सकी। क्यों कि उसने ज्यों ही प्राण प्रिया सत्यवादिनी अपनी पिंगला राणी का मरण श्रवण किया त्यों ही वह इतना दुःखी हुआ जिसके दुःख का परिणाम लिखना लेखनी की शक्ति से बहिर है। यही कारण था वह अपने राजस्व अभिमान का विस्मरण कर हा पिंगला-पिंगला आदि नैरन्तर्य शब्द धारा को प्रवाहित करने लगा। यहाँ तक कि पिंगला को अपनी उत्संगारोहिणी बनाकर उसके पूर्वाचरित आनन्द प्रद चरित्रों का उद्घाटन करने लगा। इसी कृत्य में तत्पर हुए उसके दो दिन बीत गये। परं वह शान्त होने के बदले में उत्तरोत्तर अािक क्लेश प्रकट कर प्रमत्त जैसा व्यवहार करने लगा। और जब राणी के शरीर में दुर्गन्ध का सम्भव होने लगा और किसी प्रकार राजपुरुषों ने उसका उचित रीति से अग्नि संस्कार कर दिया तब तो राजा ने श्मशानों में ही डेरा डाल दिया। कुछ ही दिनों में खान पान से रहित हो हा पिंगला, हा पिंगला रटते हुए राजा साहिब की अस्थि शेष रह गई। यह देख समस्त राजकीय पुरुष अत्यन्त क्लेश में पड़े, और उन्होंने इस जटिल समस्या के हल करने के लिये नर्मदा तट पर निवास करने वाले विक्रम को बुला भेजा। उसने अविलम्ब से उपस्थित हो भर्तृजी के समझाने में कुछ उठा न रक्खा। परन्तु वह अपने अवलम्बित पथ से एक कदम भी विचलित न हुआ। अनन्तर उसकी समग्र राणियों ने भी उसके समझाने में अकथनीय साहस प्रदर्शित कर अपने भाग्य की परीक्षा की। इतना होने पर भी जब वह टस से मस न हुआ तब तो उसकी समस्त राणी उसके ऊपर इस बात का अधिकार लेकर, कि राजा साहिब हम सबकी उपेक्षा कर एक पिंगला के ही पीछे प्राण त्यागते हैं, असन्तुष्ट हो गई। और क्लेशाधिक्य से विवश हो उनकी भावना यहाँ तक जागरित हो गई कि राजा साहिब इससे अधिक दुःख न देकर अब अपनी ऐहलौकिक यात्रा समाप्त कर दें तो कहीं अच्छा है। ठीक ऐसे ही अवसर पर दीन बन्धु भगवान् श्रीमद्योगेन्द्र गोरक्षनाथजी रूपान्तर धारण किये हुए अकस्मात् इधर आ निकले। एवं जब कि वे श्मशानों के समीप से प्रस्थान कर रहे थे तब उन्होंने अपना एक पात्र, जो कि उनके समीप था, पृथिवी पर छोड़ दिया। वह तत्काल ही भूमि पर गिरते ही अनेक खण्डों में परिणत हुआ। यह देख श्रीनाथजी ने भी हा पात्र, हा पात्र शब्द की उच्च स्वरीली घोषणा कर भर्तृजी की तरह अपने आपको क्लेश में डाल दिया। वे भंगीभूत पात्र के टुकड़ों को उठाते और उन्हें सम्मिलित कर तादवस्थ पात्र बनाने का प्रयत्न करते थे। एवं पात्र के तादृश न बनने से उक्त शब्द की घोषणा को अधिकाधिक घोषित करते थे। उनके एक तुच्छ वस्तु के लिये इस प्रकार अपने आपको क्लेशित करते हुए देख भर्तृजी का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ। और उसके इस घटना का निर्णय करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई। अतएव वह अपना आरम्भित कृत्य परित्यक्त कर कुछ पादक्रम अग्रसर होता हुआ श्रीनाथजी के निकट आया। और पूछने लगा कि अये, भिक्षुक ! कहिये यह क्या बात है एक क्षुद्र चीज के लिये, जो कि बिना ही दामों के हर एक जगह पर मिल सकता है, इस प्रकार अपने आत्मा को दुःखित कर रहे हो। यदि अभी नगर में जाकर आप कुम्भकारों को इस वृत्त से विज्ञापित करंें तो वे कितने ही ऐसे पात्र आपके समर्पण कर देंगे। ऐसी दशा में मैं नहीं समझता कि एक ऐसी मामूली वस्तु के विषय में आपका इतना क्लेशित होना कहाँ तक उचित हैं यह सुन श्रीनाथजी ने कहा कि यद्यपि यह ठीक है ऐसे पात्र अनेक मिल सकते हैं। तथापि वे इसकी तुलना से तुलित नहीं हो सकते हैं। कारण कि यह बहुत काल से हमारे समीप था। इसके अनुकूल आरामाधिक्य से हमारा इसमें इतना स्नेह हो गया था जिसका कोई पारावार नहीं। अतएव हमको जितना यह रंजित करता था उतना कोई दूसरा नहीं कर सकता है। यही कारण है हम आत्यन्तिक प्रीति दिखला कर इसके उपकार का बदला चुका रहे हैं। तदनु फिर भर्तृजी ने कहा कि तथापि यह एक तुच्छ और जड़ वस्तु है इसका आपके विषय में कोई उपकार नहीं बन सकता है। कारण कि किसी भी प्रकार कोई उपकार कर सकता है तो वह चेतनाश्रित प्राणी ही कर सकता है। और उसके प्रत्युपकारार्थ उपाय का अवलम्बन करना मनुष्य के लिये समुचित कार्य है। ऐसा करने वाला मनुष्य लोक दृष्टि से भी भूल नहीं कर रहा है। क्यों कि उपकारी और प्रत्युपकारी दोनों ही चेतन हैं। एक के उपकार को दूसरा समझने की शक्ति रखता हुआ प्रत्युपकार करने की अभिलाषा करता दीख पड़ता है। ऐसी दशा में प्रत्युपकार के भ्रम से आपने अपरिमित कष्ट ही उठाया तो कहिये उसका इसको क्या अनुभव होगा। अतएव आपको योग्य है कि आप इस हास्यास्पद कृत्य से विरामी हो जायें। यदि मार्तिक पात्र आपको इस जितना रंजित नहीं कर सकता है तो मैं राजतिक वा कांचनिक अथवा इससे भी अधिक रत्न जडि़त पात्र बनुवा कर आपके समर्पण कर दूँगा। जो इसकी विस्मृति उपस्थित कर आपके अपूर्व प्रसन्नता उत्पन्न करेगा। यह सुन कर श्रीनाथजी बोले कि राजन् ! तुम भूल कर ऐसा कह रहे हो। तुम्हारे में इतना सामथ्र्य नहीं कि तादृश वस्तु तैयार कर हमको प्रसन्न कर सको। अतः हमको अपने कृत्य में लगे रहने देकर तुम अपने कार्य में दत्तचित्त हो जाओ। हां हो सकता है यदि तुम कहो तो हम तुम्हारी उस वस्तु को, जिसके वियोग में तुम अपने प्राणों तक को न्योंछावर करने का संकल्प कर चुके हो, तैयार कर सकते हैं। आपका यह अमृतायमान वचन सुनकर राजा समझ गया कि मैंने जो इन महात्मा को एक साधारण भिक्षुक समझा था यथार्थ में ये वैसे नहीं हैं। प्रत्युत मालूम होता है कोई गुप्त चरित्र योग्य महात्मा हैं। और कोई ऐसी क्रिया जानते होंगे जिससे अपने कथन की सफलता दिखला सकंे। अतएव उसने प्रसन्न मुख से कहा कि भगवन् ! मैं तो उस वस्तु के निमित्त, जो कि आज इस लोक में नहीं दीख पड़ती है, अपना शरीर नष्ट किये जा रहा हूँ। और ठीक ऐसा करता हूँ। क्यों कि पिंगला सौन्दर्यादि अनेक गुणों से चित्ताकर्षण करने वाली होने पर भी एक अद्वितीय पतिव्रता थी। इसलिये कृपया आप मुझे फिर उसकी उपलब्धि कर दें तो इसे अच्छा और क्या हो सकता है। मैं तो समझता हूँ कि आप सचमुच ऐसा कर एक जीवन दान देते हुए अक्षय्य यश प्राप्त कर सकेंगे। यह सुनकर श्री नाथजी ने निर्दिष्ट समय पर्यन्त उसे नेत्र बन्ध रखने के लिये आज्ञा दी। उसने वैसा ही किया। आपने सृष्टि रचनानुकूल विधि का अनुष्ठान कर पिंगलानुकारिणी अनेक स्त्रियों का आविष्कार करने के साथ-साथ भर्तृ के पूर्वावलोकित अपने यथार्थ रूप को भी प्रकट किया। और भर्तृ को नेत्र खोल अपनी पिंगला के अपनाने का वचन देने के साथ-साथ यह भी कह सुनाया कि, अमुक ही पिंगला है, ऐसा यथार्थ निश्चय किये बिना तुम किसी को भी हस्तगत नहीं करने पाओगे। अतः प्रथम दृढ़ निश्चय कर लेना आवश्यकीय है। आपकी इस आज्ञा को प्राप्त हो आनन्दित हुआ भर्तृ ज्यों ही उधर देखने लगा त्यों ही उसकी दृष्टि अनेक पिंगलाओंे के ऊपर पड़ी। जिनका दृश्य सर्वथा अविशेष था। इसलिये जब कि वह अधिक देर तक सन्निहित दृष्टि हुआ भी तादृश निश्चय न कर सका तब तो कुछ विस्मित और निराश हुआ महात्माजी की ओर देखने लगा। परं वे भी अब उस साधारण भैक्षुकीय दशा में न थे, अतएव उसने जिस क्षण में आपके मुखारविन्द पर दृष्टि डाली उसी क्षण में चरणाविन्द का भी स्पर्श किया। बस यही अवधि थी जब तक कि पिंगला का स्नेह उसके मर्म स्थान में असाधारण चोट पहुँचा रहा था। अब श्रीनाथजी आकस्मिक दर्शन कर पूर्वीय घटना के स्मरण से वैराग्यान्वित हुआ भी वह परम वैरागी हो ’ गया। और कह उठा कि भगवन् ! क्षमा कीजिये इस अवधि से पूर्व जो कुछ हुआ वह सर्वथा अकथनीय है। आज से आगे आपके चरणारविन्द के अतिरिक्त मेरा कोई आश्रय नहीं हो सकता है। मैंने भूल की जो एक स्त्री के पीछे, जिसका कि कभी न कभी वियोग होना अवश्यम्भावी था, अपने आत्मा को इतना क्लेशित किया। जब आप ऐसे गुरु विद्यमान हैं जिनकी मुट्ठी में अनेक पिंगला निवास करती हैं तब आपको छोड़ अन्यत्र भटकना मुझे मूर्खता का परिचय देना है। तदनु श्रीनाथजी ने अपनी कृत्रिम माया का संहार कर कुछ ऐसे वाक्य प्रत्युक्त किये जिनसे भर्तृजी के वैराग्य की मात्राओं का अनुमान हो जाय। परं अब वह बात नहीं थी, वैराग्यात्मक अग्नि से भर्तृजी के चित्तात्मक बीज की अंकुरित होने वाली शक्ति दग्ध हो चुकी थी। इसीलिये श्रीनाथजी के एक दो बार नहीं-नहीं करने पर भी उसके शिष्य होने के विषय में विशेष आग्रह किया। यह देख विक्रम तथा अन्य समस्त प्रधान राजकीय पुरुषों को निश्चय हो गया कि यह अब हमारे हस्तगत रहने वाला नहीं है। अतएव उन्होंने भी भर्तृ को आश्रय देने के लिये श्रीनाथजी से अभ्यर्थना की। और कहा कि भगवन् ! आपके जनोद्धारक पवित्र उपदेश से सम्भव है इसकी दशा सुधर जायेगी। जिससे इस स्नेहात्मक पाश से विमुक्त हो यह अपने आगमिक मार्ग को स्वच्छ कर सकेगा। अन्यथा हमें सुझ पड़ता है यह इसी प्रकार अपने प्राणों की अन्तिम दशा देखेगा। इस वास्ते आपको उचित है कि इसे स्वीकार कर लें। श्रीनाथजी यह चाहते ही थे। और इसीलिये यहाँ आये भी थे। अतएव आपने अनुकूल अवसर देखकर उसके अंगीकार करने के साथ-साथ उपस्थित लोगों को आशीर्वाद दे वहाँ से प्रस्थान किया। जो कुछ दिन के अनवरत गमन के अनन्तर आप बदरिकाश्रम में पहुँचे। वहाँ जाकर आपने प्रिय पात्र परम वैरागी भर्तृ को भर्तृनाथ, बनाया। और योग साधनीभूत वास्तविक दीक्षा से दीक्षित कर उसे योगेन्द्र बनाने का प्रयत्न किया। वह तो प्रथमतः ही योगी ही नहीं योगेन्द्र था। अतएव गुरुजी के इसारे मात्र से ही समस्त ग्राह्यानुकूल क्रियाओं में शीघ्र निपुणता प्राप्त कर वह उनसे उत्तीर्ण हुआ। यह देख परम हर्षित हो श्रीनाथजी ने उसे अमर होने का आशीर्वाद दिया। और उसको योग का यथार्थ तत्त्व समझाने पर भी आस्त्रिक विद्या का मर्म बतलाना आरम्भ किया।
इति श्री भर्तृनाथ वैराग्य वर्णन।



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