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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Thursday, May 9, 2013

श्रीज्वालेन्द्रनाथोत्पत्ति वर्णन

श्री मत्स्येन्द्रनाथजी गोरक्षनाथजी को चन्द्रगिरि नामक ग्राम की ओर भेजते ही स्वयं संसार के दुःखत्रय से पीडि़त जनों को योगोपदेश द्वारा सानन्द करते हुए मध्यप्रदेश में भ्रमण करने लगे। तथा कतिपय वर्ष तक भ्रमण कर फिर वहाँ से भी प्रस्थान कर गये और शनैः-शनैः श्रीगंगा यमुना नदियों के मध्यस्थ देश में आ पहुँचे। इसी देशस्थ हस्तिनापुर नामक नगर के ’ वृहद्रथ नामक राजा ने पुत्रोंत्पत्ति के उद्देश्य से एक पुत्रेष्टीयज्ञ का आरम्भ किया था। जिसमें दूर-दूर से बड़े ही योगक्रिया कुशल योगी मत्स्येन्द्रनाथजी को तथा ऋषिमुनियों को आमन्त्रित किया था। अतएव इस महोत्सव में कतिपय दिन पहले ही से मत्स्येन्द्रनाथजी उपस्थित आ हुए। उधर से अन्य ऋषि मुनि भी शनैः-शनैः आने लगे कुछ ही दिन में खासी भीड़ हो गई। फिर राजा ने प्रथम एक सभा की और उसमें सनति हस्तसम्पुटी किये हुए आगत विद्वानों से प्रार्थना की कि आप लोग शुभमुहूर्तान्वित पक्ष तथा दिन देखकर यज्ञ का आरम्भ करो। उन्होंने तत्काल ही राजा की आज्ञानुसार कार्य आरम्भ कर दिया। समस्त नदियों का जल मंगाया गया। बड़ी-बड़ी औषधि मंगायी गई। तथा अनेक प्रकार के गान्धिक पदार्थ भी मंगाये गये। इस प्रकार नाना सामग्रियों द्वारा यथावत् शास्त्रोक्त विधि से यज्ञ कर अग्निदेव को प्रसन्न किया गया। तत्काल ही अग्निकुण्ड से एक मनोहर दिव्यरूपवान् अद्वितीय बालक उत्पन्न हुआ। जो शीघ्र ही राजा के समर्पण किया गया। जब राजा ने बालक की सुन्दरता देखी तब तो वह अत्यन्त ही आनन्दित हुआ परमात्मा की महती कृपालुता के विषय में बार-बार धन्यवाद देने लगा। क्योंकि आजयर्पन्त राजा के कोई पुत्र नहीं हुआ था अतः इस लड़के के दर्शन करने से राजा को वह प्रसन्नता प्राप्त हुई मानों प्रसन्नता के विषय का आज का दिन राजा के लिये अद्वितीय ही है। अब से पहले राजा को ऐसा आनन्द प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। (अस्तु) राजा शीघ्र ही बालक को अपने प्रासाद में ले गया। और वहाँ जाकर उसे अपनी रानी के अर्पण किया। बस क्या था लड़के को देखते ही एक बार तो रानी मानों मूच्र्छित ही हो गई थी। परन्तु जब वह कुछ सचेत हुई तो उसने तत्काल ही लड़के को अपने गोद से लगाकर ईश्वर की महती कृपा के विषय में राजा की तरह असंख्य धन्यवाद दिया। तदनन्तर राजा ने समस्त नगर में बाजे बजने के लिये तथा अनेक प्रकार के दान पुण्य करने के लिये मन्त्री लोगों को आज्ञा दी। ठीक उसी समय नगर के प्रतिगृह में अनेक प्रकार के मंगलमय गीत गाये जाने लगे और नाना प्रकार के बाजे बजने लगे। एवं कितने ही क्षुधार्ति पुरुषों को अनेक प्रकार के भोज्य दिये गये। तथा सुयोग्य व्यक्तियों को बहुत सा दान भी दिया गया। इस प्रकार जब अपरिमित आनन्द के साथ यह कार्य समाप्त हो गया तब देशान्तर से आये हुए सर्व ऋषि मुनि राजा से असाधारण सत्कार प्राप्त कर अपने-अपने आश्रम को चले गये। केवल मत्स्येन्द्रनाथजी ही वहाँ पर विद्यमान रहे। क्यों कि उन्होंने विचार किया था कि यह लड़का अन्तरिक्ष नारायणों का अवतारी है अतः अब मुझे वह कृत्य करना चाहिये जिससे राजा बाल्य अवस्था में ही यदि इस लड़के को सांसारिक व्यवहार में प्रवृत्त करे तो इस बालक को तत्काल अपने अवतार धारण के मुश्योद्देश्य का ज्ञान हो जाय और शीघ्रतया संसार के किम्प्रयोजन भोगविलास को तिलांजलि देता हुआ उनका परित्याग कर बैठै (अस्तु) अगले दिन आपने राजा के यहाँ सूचना दी कि हम बालक का दर्शन करना चाहते हैं। अतः उसको एक बार हमारे समीप में लाओ। मत्स्येन्द्रनाथजी की सूचना मिलते ही राजा ने बालक को उनके समीप ला उपस्थित किया। उधर नाथजी ने मन्त्रपाठपूर्वक विभूति की चुटकी प्रथमतः ही तैयार कर रखी थी वह बालक के मुख में डाल दी और राजा से कहा कि अब ले जाओ। यह देख राजा ने पूछा भगवन्! विभूति खिलाने का प्रयोजन हमको विदित होना चाहिये। प्रत्युत्तर में मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि हमने इतने दिन तक यहाँ ठहरकर जो तुम्हारा अन्न-जल अपने व्यवहार में लगाया है उसी का यह बदला है। हमने इस लड़के को वह औषधि खिलाई है जिस वशात् यह लड़का कभी भी किसी प्रकार की व्याधि से ग्रस्त न होगा और ऐसा प्रतापी हो जायेगा जिसका यश समस्त भारत में चिरस्थायी हो जायेगा। तदनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी तो देशान्तर को गमन कर गये। राजा पुत्र को लेकर अपने प्रासाद में गया और मत्स्येन्द्रनाथजी की प्रसन्नता का समाचार उसने अपनी रानी से कहा। यह सुन रानी और भी आनन्दित हुई। इसी प्रकार के आनन्द से उनके कुछ वर्ष व्यतीत हुए और राजा ने समयानुकूल बालक का सर्व संस्कार करवाया। पश्चात् जब लड़का ठीक षोडश वर्ष का हो गया। तथा विद्या में भी अच्छी कुशलता प्राप्त कर चुका था। तब एक दिन सहसा राजा के चित्त में यह विचार स्फुरित हुआ कि अब लड़का विवाह योग्य हो गया है। इसलिये अब इस विषय में कुछ उपाय होना चाहिये। (अस्तु) उक्त विचार से राजा ने एक दिन सभा की। उसमें मन्त्री लोगों के प्रति आज्ञा दी कि कुमार विवाह योग्य हो गया है, यह आप लोगों के प्रत्यक्ष ही है अतः शीघ्रता से किसी सुलक्षणा कन्या ही अन्वेषणा करनी चाहिये। तत्काल ही राजा की आज्ञा प्राप्त कर मन्त्री लोगों ने कन्यान्वेषण के लिये इधर कतिपय मनुष्य भेजे और स्वयं विवाहार्थ सामग्री एकत्रित करने के लिये तत्पर हो गये। उधर उस लड़के को भी यह सूचना मिली कि पिताजी विवाह के लिये प्रयत्न कर रहे हैं। तब तो उसने अपने विवाहित मित्रों से पूछा कि विवाहार्थ प्रथम से ही इतनी वस्तु एकत्रित की जा रही हैं वह विवाह ’ क्या वस्तु है और उसका मुख्योद्देश कया है। उन्होंने उत्तर दिया कि विवाह में बड़ी धूमधामता होती है जिसमें अन्य भी इधर-उधर के सम्बन्धी पुरुष बुलाये जाते हैं। तथा जिसका विवाह होता है उसको श्वसुर की ओर से एक कन्या प्रदान की जाती हैं जिससे कुछ दिन बाद पुत्र उत्पन्न होते हैं और उस स्त्री के साथ सम्बन्ध करने से मनुष्य को अतीवानन्द प्राप्त होता है। परन्तु इसके साथ ही साथ मनुष्य संसार के चक्र में ऐसा जकड़ी भूत हो जाता है कि नाना प्रकार के कष्टों को अनुभावित करता हुआ भी वह इनसे मुक्त नहीं हो सकता है। बस क्या था उस लड़के ने जहाँ इतना सुना उसका नीचे का श्वांस नीचे और ऊपर का ऊपर ही रह गया। अनन्तर कतिपय क्षण बीतने पर कुछ प्रबुद्ध हुआ अपने मन ही मन में विचार करने लगा कि अहो, क्षणिक विषयानन्द के लिये इस असार-संसार के जटिल जाल में जकड़ीभूत होना हमको रोचनीय नहीं है। ये सांसारिक मूढ़ लोग हैं जो अनित्य क्षणिक सुख के वास्ते अनेक प्रकार के कष्टों का अनुभव करते हुए भी रात दिन उस क्षणिक सुख की प्राप्ति का ही यत्न करते हैं। अथवा ठीक है ये बिचारे क्या करें आज्ञानिक अंधकार से आच्छादित होने से इन लोगों की बुद्धि निर्मल नहीं है। यही कारण है ये लोग इस क्षणिक सुख से अन्य भी कोई नित्य परमानन्द रूप सुख है इस बात को जानते ही नहीं है। परन्तु मैं तो इस बात को अच्छी तरह समझता हूँ इस क्षणिक सुख का लिपसु बनकर यदि सांसारिक अन्यथा व्यवहार के चक्र में पड़ गया तो फिर किसी प्रकार भी इससे विमुक्त न हो सकूँगा। अतः अब शीघ्र ही इस चक्र से दूर होकर अपने आपको विमुक्त कर लेना आवश्यकीय बात है। पश्चात् मंगलप्रद मुहूर्त देखकर वह राजमहल से बाहर निकल गया और रूपान्तर धारण कर श्री गंगाजी के तटस्थ प्रदेश में भ्रमण करता हुआ हिमालय पर्वत में पहुँचा। तथा वहीं एक अच्छी विघ्न शून्य गुहा देखकर अपनी मति के अनुसार भगवदाराधन में संलग्न चित्त हुआ। इधर जिस दिन लड़का प्रासाद से निकल फिर लौटकर नहीं गया इससे प्रासाद के रक्षक राजपुरुषों के कुल सन्देह उत्पन्न हुआ और वे परस्पर में पूछने लगे कि कुमार साहिब एकाकी बाहर किस जगह भ्रमण के लिये गये थे सायंकाल होने पर भी अब तक वापिस न आये। सम्भवतः किसी मित्र के यहाँ रह गये होंगे। इसी प्रकार की बात करते-करते अर्धरात्री होने को आई। परन्तु लड़का अब तक न लौटा। राजपुरुषों ने यह सूचना राजा को दी। उसके स्वप्न में भी यह विचार उपस्थित नहीं हुआ कि कभी ऐसा हो जायेगा अतएव नगर के प्रधान राजकीय स्थानोंे में तथा उसके मित्र अन्य लड़कों के स्थान में उसकी अन्वेषणा करने के लिये राजा ने राजपुरुषों को आज्ञा दी। ठीक उसी समय वे लोग इधर-उधर दौड़कर उसकी अन्वेषणा करने लगे अन्ततः जब वह उन लोगों को कहीं भी न मिला तब उन्होंने शीघ्र राजा के यहाँ सूचना दी कि समस्त संदिग्ध स्थानों में हम लोग उसकी अच्छी तरह अन्वेषणा कर चुके हैं तथापि कुमार का कहीं पता न चला। आगे आपके अधीन है जैसी आज्ञा करें वैसा ही हम भी करने को तैयार हैं। यह सुनकर राजा का मुख शुष्क हो गया मानों कहीं से वज्रपात हो गया हो। क्योंकि उस लड़के के समस्त योग्य गुणसम्पन्न तथा अतीव सुन्दरता युक्त और एक ही पुत्र होने से राजा का उस लड़के में बहुत ही अधिक मोह था। यहाँ तक कि बारह वर्ष पर्यन्त तो प्रासाद से बाहर भी जाने देने की आज्ञा न देकर वह उसको अपने ही समीप रखता था और प्रतिदिन उससे प्रकरणान्तर की बातें करके अत्यन्त प्रसन्नता के साथ में गोद में बैठानादि क्रिया द्वारा अपने आपको धन्य मानता हुआ कुछ न कुछ समय अवश्य व्यतीत करता था। ऐसी दशा में वह सहसा पुत्र रत्न के खोये जाने रूप वज्रपात को कब सह सकता था। अतएव उस समय मूच्र्छित हुआ राजा कतिपय क्षण पर्यन्त तो मृतक के सदृश निश्चेष्ट हो गया। वह और ऐसा जान पड़ता था मानों आज इसका जीवात्मा इसके इस प्राकृतिक स्थूल शरीर से मुक्त होकर अवश्य अगमलोक की यात्रा करेगा। परन्तु हत भाग्य ऐसा न होकर दीर्घकाल पर्यन्त इस घोर दुःख से आक्रान्त होने के लिये उसके प्राण शरीर में पूरी तरह से अपना अधिकार जमायें ही रहे। अतः कुछ क्षण के बाद वह सचेष्ट जैसा हुआ सजल नेत्र होकर अतीव दुःखमय विलाप करने लगा। ठीक उसी अवसर पर मन्त्री लोग एकत्रित हुए और उन्होंने राजा को अनेक प्रकार के दृष्टान्त प्रमाण तथा नीति शास्त्र के सयुक्ति वाक्यों द्वारा बहुत ही शान्त करने का प्रयत्न किया। परन्तु राजा को शान्ति कहाँ, ज्यों ही प्रतिदिन के सप्रीति पुत्र के हास्यमय क्रीड़ारूप व्यापार का वह स्मरण करता था त्यों ही अधिकाधिक शोकग्रस्त होता था। अधिक क्या राजा के उस तत्कालिक घोर दुःख का अनुभव या तो ईश्वर को वा राजा को होगा। अथवा रानी को होगा जो पुत्र के खोये जाने को सुनकर परमात्मा से प्राण ले लेने की प्रार्थना करती हुई अन्धी जैसी हो गई थी। और बड़े समृद्धि वाले एक साम्राज्य के स्वामी की पत्नी हो कर भी उस समृद्धिशाली राज्य को किम्प्रयोजन समझती हुई अपने आपको एक महा दरिद्रदशास्थ स्त्री के समान जानती थी। अहो ईश्वर तेरी क्या ही अलक्ष्य गति है पुत्र प्रेमरूपी रत्न कैसा विचित्र रचा है जिसके अभाव में सब सम्पत्तिमय राज्य भी तृणवत् जान पड़ता है (अस्तु) उपायान्तराभाव से विचारे राजा और रानी कब तक इस दशा में रहकर अपना निर्वाह कर सकते थे अन्ततः शनै-शनैः पूर्ववत् फिर राज्य कार्य में दत्तचित्त हो गये। बस अधिक से अधिक मनुष्य के पीछे सांसारिक लोग अपनी इतनी ही कृतज्ञता दिखला सकते हैं। अगम के लिये कोई पीछे किसी प्रकार की भी सहायता दे नहीं सकता है। इस वास्ते अगम सुधार विषयक चिन्ता वाले पुरुषों को गृहनिष्ठ मिथ्या प्रेम युक्त मनुष्यों के त्यागपूर्वक अवश्य जगद्रक्षक विश्वम्भर ईश्वर की शरण में उपस्थित होना चाहिये। (अस्तु) उधर वह बालक पर्वत कन्दरा में बैठा भगवदाराधन में तत्पर हुआ इस विचार में लीन था कि किसी के सकाश से दीक्षा अवश्य लेनी चाहिये। क्यों कि बिना दीक्षा के मनमुखी क्रिया करनी शास्त्र विरूद्ध तो है ही किन्तु पूरी तरेह से उसका अनुभव करना भी दुर्घट है। इतने में देखता क्या है कि वन में अकस्मात् अग्नि प्रज्वलित हो उठा जिससे बुरी तरह से वन वृक्ष दाह होने लगे और बड़ी शीघ्रता से अग्नि बालक के समीप तक आ पहुँचा। तब तो बालक अतीव शोकग्रस्त हुआ विचार करने लगा कि अहो अब कहाँ चाहिए कोई भी रक्षा स्थान कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता है। ठीक उसी समय अग्निदेव ने सोचा कि यह तो मेरा ही पुत्र है अतः इसको कभी नहीं जलने दूँगा। तदनन्तर लड़के के समीपवर्ती अग्नि शीघ्र ही शान्त हो गया और मूर्तिमान् होकर बालक से कहने लगा कि हे पुत्र! भय मत करो। हम तुमको कभी नहीं जलावेंगे। यह देख लड़का कुछ विस्मितसा हुआ और पूछने लगा कि सत्य बतलावें आप कौन हैं जो मेरे को पुत्र कहकर व्यवहार करते हैं। अग्निदेव ने प्रत्युत्तर में कहा कि हम अग्नि देव हैं तू हमारा पुत्र है इसलिये तेरी रक्षा के निमित्त हमने मूर्तिमान् होकर तेरे साक्षात्कार का विषय होना पड़ा है। लड़का बोला मैं तो राजकुमार हूँ, हस्तिनापुर के राजा मेरे पिता प्रसिद्ध हैं फिर आप मेरे पिता कैसे प्रमाणित हो सकते हैं। अग्निदेव ने कहा कि तेरे पिता वृहद्रथ के सन्तति न होती थी इसी हेतु से उसने पुत्रेष्टी यज्ञ द्वारा मेरे को प्रसन्न किया था। उसी समय प्रत्युपकारार्थ तेरे को राजा के लिये प्रदान करना पड़ा था। यह सुन लड़का अतीवानन्दित हुआ और अनेक प्रकार से अग्निदेव की स्तुति करने लगा। तब अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक अग्निदेव ने कहा कि पुत्र हम तेरे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं अतः हमारे से कोई वर मांगो। यह सुन लड़का बोला अच्छा यदि बात है तो कृपया आप ऐसा उपाय बतलावें जिससे मैं परम ज्ञान प्राप्त कर जीवन मुक्ति का आनन्द लेता हुआ अपने उद्देश्य को सफल कर सकूँ। तत्काल ही लड़के का ऐसा वचन सुनकर अग्निदेव उसको कैलासस्थ श्री महादेव जी के समीप ले गया, तथा अतीव नम्रतायुक्त हस्तसम्पुटी कर उसने श्री महादेवजी से कहा कि हे कृपानिधान! दीनबन्धो! आप मेरे पुत्र इस लड़के को उपदेश करो जिससे यह परमानन्द को प्राप्त हो सके। श्रीमहादेव जी ने प्रसन्नतापूर्वक उसके प्रस्ताव को स्वीकृत करते हुए कहा कि अच्छा आप निःसन्देह होकर अपने स्थान को जाइये हम आपके कथनानुसार सर्व कार्य ठीक करेंगे, क्योंकि इसके गृह परित्याग कर पर्वत में आने में तथा दीक्षा ग्रहण करने के लिये उत्कण्ठित हाने में हमारी ही प्रेरणा कारणीभूत है। यह सुन अग्निदेव अतीव प्रसन्न हुआ और सानन्द श्रीमहादेवजी नमस्कार कर अपने स्थान को प्रस्थान कर गया। उधर श्री महादेवजी उस लड़के को मत्स्येन्द्रनाथजी की सदृश अपने कुण्डलादि सर्व चिन्हों से चिन्हित कर अमर मन्त्र का उपदेश किया तथा कहा कि आज से लेकर ज्वालेन्द्रनाथ, नाम से तेरी संसार में प्रसिद्धि होगी। यह सुनते ही ज्वालेन्द्रनाथजी श्रीमहादेवजी के चरणों गिरे और अनेक प्रकार से महादेवजी की स्तुति करने लगे। इसके बाद श्रीमहादेवजी ने मत्स्येन्द्रनाथादि की सिद्विका सर्व समाचार उसको सुनाया और आज्ञा दी कि जाओ अब बदरिकाश्रम में जाकर तप करो परन्तु मार्तण्ड पर्वत में होकर वहाँ जाना वहाँ के नागवृक्ष और सूर्य कुण्ड के दर्शन करने का बहुत ही महात्म्य है। मत्स्येन्द्रनाथ ने इसी पर्वत में नागवृक्ष के नीचे एक अनुष्टान द्वारा सर्व देवताओं को प्रसन्न किया था। तत्काल ही श्रीमहादेवजी की आज्ञानुसार सनति प्रणाम कर ज्वालेन्द्रनाथजी ने कैलास से प्रस्थान किय और कतिपय दिनों में मार्तण्ड पर्वत पर पहुँच कर सूर्यकुण्ड तथा नागवृक्षादि के दर्शन किये। अनन्तर आप शनैः-शनैः फिर बदरिकाश्रम में पहुँचे। वहाँ दैवयोग से आपको वही जगह प्राप्त हुई जिस पवित्र जगह पर श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने महाघोर कठिन तप किया था। वह उसी जगह पर ज्वालेन्द्रनाथजी ने भी अपना आसन लगा लिया। यह जगह विघ्नरहित और बहुत ही अनुकूल थी जिसके समीपवर्ती बड़ी ही सुन्दर वृक्षपंक्ति थी और थी और निर्मल जल के अनेक झरने इधर-उधर बह रहे थे। अतएव एर्व ओर अनेक प्रकार के पुष्प लगे हुए थे जिन्हों की मनमोहनी सुगन्ध से चित्त बहुत ही प्रसन्न होता था। एवं सफल वृक्षों के ऊपर बैठे हुए पक्षी अनेक प्रकार के मधुर-मधुर वाक्यों की ध्वनि कर रहे थे। ठीक इसी जगह पर ज्वालेन्द्रनाथजी ने तप करने का निश्चय किया और एक दिन शुभ तिथि, वार, मुहूर्तादि, देखकर आज ही तप आरम्भ करूँगा, यह दृढ़ निश्चय करते हुए आपने एक लोहे ही कील भूमि में गाडकर उसके ऊपर अपने दाहिने पैर का अंगुष्टा स्थापित किये हुए शरीर का भार उसके ऊपर अच्छी तरह जाँचकर सर्वेन्द्रियों की चंचलता को तिलांजलि देते हुए नासाग्र भाग में दृष्टि स्थापित कर दोनों हस्तों को सम्पुटी किया और अजपा नामक हंसमन्त्र के ध्यान में आप लवलीन हो गये। तथा जब तक कन्दमूल फल जलादि का उपभोग करते रहे तब तक तो आप अवश्य यथा समय प्रत्येक क्रिया की निवृत्ति के लिये कतिपय क्षण आसन भंग करते रहे। परन्तु जब ठीक शरीर सम्बन्धी कुंजी अपने आपको मालूम हो गई और आप वायु का आहार करने लगे तब तो आपका उस झगड़े से भी पीछा छुट गया। इसीलिये आप निरन्तर ध्याननिष्ठ हो गये। ऐसी दशा में कुछ काल व्यतीत होने पर ज्वालेन्द्रनाथजी का शरीर मत्स्येन्द्रनाथजी की सदृश शुष्क पिंजर जैसा हो गया। कितने ही ऋषि, मुनि, तथा देवता लोग उनका तप देखकर अत्यन्त विस्मित हुए उनको असंख्य धन्यवाद देते थे। उसी प्रकार जब ठीक बारह वर्ष व्यतीत हो गये, तब मत्स्येन्द्रनाथजी भी अकस्मात् वहीं आ निकले और उन्होंने ज्वालेन्द्रनाथजी का आसन खुलाकर उन्हें उस घोर तप से विमुक्त किया। तदनन्तर ज्वालेन्द्रनाथजी के शरीर की जब तक पुष्टी हुई तब तक दोनों महानुभावों ने वहीं निवासकर पश्चात् देशान्तर में भ्रमण करने के लिये वहाँ से प्रस्थान किया।
इति श्रीज्वालेन्द्रनाथोत्पत्ति वर्णन 

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