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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Wednesday, May 15, 2013

श्रीरेवननाथ यमपुर गमन ।


श्री रेवननाथजी बदरिकाश्रम से भ्रमण करते हुए तथा योग क्रियारूप अद्वितीय औषध द्वारा निजभक्तों को इस अतथ्य संसार के जटिल जाल से प्राप्त दुःखत्रय से विमुक्त करते हुए कतिपय मास में वापिस नर्मदासंगत रेवा नदी के तटस्थ एक तुण्डित, नामक ग्राम में पहुँचे और ग्राम के बाह्यस्थल में एक विमल जल पूरित सुमनोहर वृक्षपंक्तियों से आकृत सरोवर के ऊपर वर्तमान वट के नीचे आपने आराम किया एवं जब मध्यान्ह हो आया तब भोजन के लिये आप ग्रास में गये और हवनधूम्र से धूषित द्वार वाले सुयोग्य गृह देखते ही अलक्ष्य शब्द की ध्वनि करने लगे। यह देखकर गृहिणी स्त्रियों ने बड़े प्रेम के साथ भोजन प्रदान किया। तदनन्तर भोजन कर फिर आप अपने आसन पर आ विराजे। बस प्रतिदिन आप इसी वृत्ति से काम लेते थे। अतएव उस ग्राम निवासी लोगों की रेवननाथजी में पूरी श्रद्धा हो गई थी। इसीलिये कुछ दिन के बाद लोगों ने बहुत ही आग्रह किया कि महाराज! आप ग्राम में जाने का परिश्रम न उठावें आपके वास्ते यही आसन पर ही भोजन आ जाया करेगा। इसी अवसर में उन बात करने वाले मनुष्यों में एक सरस्वती दत्त ब्राह्मण भी था उसने सर्व लोगों को सम्बोधन देते हुए कहा कि जब तक ये महात्माजी यहाँ पर विराजमान रहेंगे तब तक मैं यथा शक्ति भोजनादि से श्रद्धा के साथ इनकी सेवा करूँगा। इस विषय में आप सब लोग निःसन्देह हो जायें। यह सुन जब सब लोगों ने इस बात को स्वीकृत कर महात्माजी से भी स्वकृति प्राप्त कर ली तब तो सरस्वती दत्त बड़ी ही श्रद्धा के साथ आपकी प्रतिदिन सेवा करने लगा। इसी प्रकार सेवा करते-करते जब ठीक तीन मास व्यतीत हो गये और रेवननाथजी ने ब्राह्मण की अस्खलित सेवा की परीक्षा कर ली तब एक दिन देशान्तर जाने के लिये उन्होंने ब्राह्मण को सूचित किया और ब्राह्मण को सूचित किया और ब्राह्मण के ठहराने के वास्ते किये सप्रेम अत्यन्त आग्रह को अस्वीकृत कर वहाँ से प्रस्थान कर देना ही उचित समझा। तदनन्तर जब ब्राह्मण ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि यह महात्मा हैं किसी के बन्धन में न रहकर स्वतन्त्र विचरते हुए जीवन मुक्ति का पूरा आनन्द लेते हैं अतएव अब मेरे आग्रह से कुछ साध्य नहीं है, तब तो उसने प्रार्थना की कि भगवन्! अच्छा यदि आपकी इच्छा है तो आप देशान्तर की शैल के लिये प्रस्थान करना परन्तु आज तो चलते समय मुझ दास के गृह पर पधारकर वहाँ भोजन करते हुए अपने पवित्र चरणयुगल द्वारा गृह को भी पवित्र करते जायें। ब्राह्मण की इस नम्र प्रार्थना को बड़े प्रेम के साथ अंगीकार कर रेवननाथजी उसके गृह पर गये। उधर इस उत्सव में भाग लेने के वास्ते सरस्वतीदत्त ने अपने पाश्र्ववत्र्ती स्वजाति के लोगों को निमन्त्रण दिया कि आप लोग आज महात्माजी के प्रास्थानिक भोज्य में सम्मिलित होवें और जैसा भोजन मेरे गृह पर बनेगा उसे सप्रेम ग्रहण करते हुए हमारे उत्सव की शोभा बढ़ावें। यह सुनकर उन लोगों ने सरस्वतीदत्त की बात शिरोधार्य समझकर उसको इस कार्य के लिये उत्साहित किया। बस क्या था सरस्वतीदत्त ने पूरा ठाठ रोप दिया। नाना प्रकार के पक्वान और विविध प्रकार के शाक सहित रूचिकर भोजन तैयार किये गये। जिनके बनाते-बनाते दिन का अन्तिम प्रहर हो गया (अस्तु) जिस समय रेवननाथजी भोजन करके निवृत्त हुए ठीक उस समय सायंकाल का शुभ आगमन हुआ ही चाहता था। ठीक इसी ही अवसर में अमोघ आशीर्वाद देकर ज्यों ही श्री रेवननाथजी प्रस्थान करने के लिये उद्यत हुए त्यों ही सरस्वतीदत्त कतिपय ब्राह्मणों के सहित उनके चरणों में गिरा और कहने लगा कि भगवन्! दिन बहुत थोड़ा रह गया है प्रस्थान करने के बाद दिन रहते हुए किसी अग्रिम सभा में आप पहुँच नहीं सकते हैं। अतएव आज की रात्री यहीं निवास करें। यद्यपि रेवननाथजी ने चलने के लिये अपना दृढ़ संकल्प कर लिया था तथापि उन लोगों के भक्तिपूर्वक पौनःपुनिक आग्रह के वंशगत होकर आखिर आपको ठहरना ही पड़ा। तब तो बड़ी ही प्रसन्नता के साथ एक पृथक् कमरे में सरस्वतीदत्त ने महात्माजी के वास्ते अत्युत्तमता से शयन प्रबन्ध कर दिया और महात्माजी के आराम करने के अनन्तर सश्रद्धा मुठ्ठी चापी आदि से उनको भली प्रकार सन्तोषित किया। अतएव सरस्वतीदत्त की अस्खलित श्रद्धामयी भक्ति ने रेवननाथजी के निर्मल अतःकरण में अपना अच्छा प्रभाव डाल दिया था। (अस्तु) इसके बाद रेवननाथजी सो गये। क्रमशः रात्री व्यतीत होने लगी। जब ठीक लगभग अर्धरात्री बीत गई तब दैवगत्या सरस्वतीदत्त का पुत्र, जो कि एक ही था मर गया। यह देख उसकी ब्राह्मणी अतीव क्लेशित हुई बड़े ही उच्च स्वर से रोदन करने लगी। यह सुन झटपटाकर सरस्वतीदत्त ने अपनी स्त्री को बड़ी शीघ्रता के साथ रोदन करने से बन्द किया और कह सुनाया कि ब्राह्मणी! यह तो तुम निश्चात्मक जानती ही हो दैवगति के आगे किसी की कुछ पेश नहीं जाती है अतः दैवगति वशात् मृतक हुए पुत्र के पीछे रोदन करने से किसी भी विशेष फल की प्राप्ति दृष्टिगोचर नहीं आती है। किन्तु तुम्हारे इस उच्चघोषणामय रोदन से अपने गृह में सोये हुए महात्माजी की निद्राभंगपूर्वक जागृति हो गई तो महान् अनर्थ उपस्थित हो जायेगा। क्योंकि आज तक मैंने इन महात्मा की अखण्डित सेवा की है। जिससे अपने विषय में इनको कभी क्लेशित होना नहीं पड़ा है। परन्तु यदि तुम्हारे रोदन वशात् इनकी निद्रा भंग हुई तो अवश्य इनको भी अपने इस दुःख में भाग लेना पड़ेगा। अतः तुमको योग्य है रोदन को त्यागकर इन महात्मा की निद्रा में विघ्न उपस्थित न करो। (अस्तु) यह सनुकर ब्राह्मणी बिना ही विलम्ब के शान्त हो गई। क्योंकि वह पतिव्रता स्त्री थी अपने पति के वचन को भी ईश्वर की तुल्य मानने वाली थी। (अस्तु) जिस समय ब्राह्मण-ब्राह्मणी की ये बात हो रही थी उस समय रेवननाथजी जाग उठे थे। अतएव उन दोनों की वे बात रेवननाथजी ने अच्छी तरह श्रवण की थी। इसलिये ज्यों ही प्रातःकाल हुआ त्यों ही रेवननाथजी ने सरस्वतीदत्त से पूछा कि रात्री में किसी का रोदन हमारे श्रोत्रगोचर हुआ था वह किसका रोदन था और वह क्यों रोदन करता था इस बात का यथार्थ उत्तर देना उचित है। तब तो ब्राह्मण ने कुछ भी गुप्त न रखकर रात्री का सर्व वृत्तान्त, जिससे कि नाथजी पहले ही परिचित हो चुके थे, बतला दिया। जिसे सुनते ही रेवननाथजी सहसा बोल उठे क्या हमारे गृह में होते हुए भी लड़का मर गया। ब्राह्मण ने कहा हाँ महाराज आप आज्ञा प्रदान करें तो मृतक लड़के को आपके सम्मुख लाया जाय। रेवननाथजी ने आज्ञा दी कि हाँ अवश्य ऐसा किया जाय। तब तो मृतक लड़का उस जगह में ला उपस्थित किया गया। देखते ही रेवननाथजी सहसा रक्त नेत्र हो उठे और कहने लगे कि (अहो) यमराज कैसा धृष्ट है हमारे गृह पर होते समय भी उसने किंचित् खोफ न कर निर्दया के साथ पुत्र को अपने पंजों में दबाकर विचारे इन भक्तों को घोर कष्टान्वित किया है (अच्छा जो हो) अब अपनी योग शक्ति का परिचय देता हुआ मैं आप लोगों के दुःख का परिहार ही क्या आपके पुत्र को लाकर आपके सम्मुख उपस्थित करूँगा। अभी यमराज के समीप जाता हूँ। परन्तु आप लोग मेरे वापिस लौटने के समय तक मेरी पूरी तरह से श्रद्धा के साथ प्रतीक्षा करते हुए मृतक के शरीर के तादवस्थ्य रखना। जो भी कार्य सफल होता है वह विश्वास के बिना नहीं होता है अतः तुम भूलना नहीं हम जाते हैं। अधिक विलम्ब करना अब उचित नहीं है! क्यों कि वहाँ जाने में हमें विलम्ब होगा उतना ही विलम्ब हमारी कार्य सिद्धि में भी होना सम्भव है। (अस्तु) रेवननाथजी की सम्भावनामयी प्रतिज्ञा सुनकर सरस्वतीदत्तादि को विश्वास हो गया कि अवश्य ये योगीराज हैं इनके लिये ऐसा कर दिखलाना कोई असम्भांय बात नहीं। अतएव मानों पुत्र आ ही गया हो इस प्रकार प्रसन्नचित्त होकर नाथजी के वचन में आने को विश्वासित हुए की सदृश सूचित करता हुआ सरस्वतीदत्त कह उठा कि अच्छा भगवन्! ऐसा होगा तो अतीवानन्द की बात है। क्यों इस लड़के से पहले छै लड़के और भी एक बार मेरे को इस संसार में सुख का पात्र बनाकर अपनी मृत्यु द्वारा पुनः घोर दुःख में एक ...............................। यह सप्तम पुत्र था इसके सजीव रहने के लिये मैने अनेक बार आभ्यन्तरिक भाव से परमात्मा की प्रार्थना की थी। इसी हेतु से मेरे कुछ विश्वास भी हो गया था कि यह लड़का जीवित रहकर ऐहलौकिक सुख से हमें सुखी करेगा। परन्तु हमभाग्य ऐसा होना जगदीश्वर को स्वीकृत न हुआ और एक बार फिर हमें उसी दुःख का अनुभवन करना पड़ा (अस्तु) इसके बाद रेवननाथजी ने अपनी झोली से विभूति की चुटकी निकाली और मन्त्र का जाप कर भगवान् आदिनाथजी के ध्यानपूर्वक उसे अपने मस्तक पर धारण किया और निःशंक होकर आप यमपुरी में पहुँचे। वहाँ यमराज के प्रसाद की अन्वेषणा करने पर आप ज्यों ही प्रासाद के अन्तर प्रविष्ट होने के लिये उद्यत हुए त्यों ही प्रासाद के द्वारस्थ यमराजगणों ने आपको अतीव क्रूर दृष्टि से देख वहीं रोक दिया और कहा कि अरे! मृत्युलोक वाही अधम मानुष! तू कैसा निर्वुद्धि निर्लज्ज पुरुष है जो अपने आपकी रक्षा न कर स्वयं ही यहाँ आ गया है (अहो) अज्ञान की क्या ही प्रबल महिमा है छोटे से बड़े तक सर्व ही उत्तमाधम जीव यमपुरी को स्वप्न में भी देखना नहीं चाहते हुए दिन-रात इससे वंचित रहने का ही उपाय अन्वेषित करते हैं। परन्तु इतना होने पर भी अज्ञानतराच्छादित मूढ मति यह स्वयं यहाँ प्रसन्न हो आ निकला। अरे! तू अब भी वापिस मृत्युलोक को लौट जाय हम यमराज को तेरी सूचना नहीं देंगे। क्यों कि अज्ञानाच्छादित होने पर भी तू छलछिद्र से शून्य एक भोलाभाला मनुष्य प्रतीत होता है। अतएव हम लोगों को तेरे विषय में दया आती है। यह सुन रेवननाथजी ने कहा कि हमारे आने की यमराज को सूचना दो क्यों कि उससे शीघ्र ही मिलकर हमें किसी विषय की बात करनी हैं और इस बात को अपने हृदय से उठा दो जो कि मृत्युलोक वासी जानकर हमको आप लोग घृणा की दृष्टि से देख बैठे हो। क्योंकि हमलोग योगी हैं अतएव किसी एक लोकवासी नहीं किन्तु स्वेच्छाचारी हैं तीनों लोक ही हमारी वस्ति है हम चाहते हैं उसी में निवास कर बैठते हैं इसमें कोई विशेष प्रमाण की आवश्यकता नहीं हैं यदि आप लोग हमारे इस कथन को सत्य मानें तो हमारा यह प्रत्यक्ष प्रमाण जो कि हम मृत्युलोक से यहाँ आकर दे चुके हैं यही बहुत है। और यदि इससे भी अध्ािक प्रणाम की आवश्यकता होय तो यमराज के हमारे प्रस्ताव को अस्वीकार करने पर आप लोग स्वयं यही देख लेना। हम अभी कुछ न कहते हुए केवल इतना ही कहना उचित समझते हैं आप लोग शीघ्रता के साथ उसे सूचना दो। अन्यथा विवश होकर हमको ही प्रासाद के अन्तर जाकर स्वयं सूचना देनी पड़ेगी। यह सुनते ही उनमें से एक बोल उठा कि अरे! निलज्ज हमने तो तेरे विषय में दया प्रकट की थी परन्तु मालूम हुआ तू अवश्य दण्ड देने योग्य है। मृत्युलोक वासी क्षुद्रबुद्धि मनुष्य होकर भी तू इतना अभिमान और हठ करता है कि स्वयं प्रासाद में घुसकर यमराज को सूचित करूँगा। क्या तुझको हमारी तरफ से किंचित् भी भय नहीं है जिससे तू ऐसा निर्भय हुआ मुख आई बातें लगाता है। रेवननाथजी ने कहा कि तुम लोगों की तो कथा ही क्या है मैं तुम्हारे राजा से भय करने वाला नहीं हूँ इतनी देर लगाकर मैंने तुमसे बातें इसलिये की है कि सहसा किसी के गृह में घुस जाना नीति विरूद्ध है। परन्तु अब पन्दरह पलकी आज्ञा देता हूँ यदि इस निर्दिष्ट समय के अन्तर्गत तुम लोग उसे सूचित नहीं करोगे तो तुम्हारा अमंगल कर अवश्य हम स्वयं उसे सूचित करने के लिये तैयार हो जायेंगे। बस क्या था ज्यों ही रेवननाथजी ने अमंगल का नाम लिया त्यों ही यमदूत सहसा अति क्रोधान्वित हुए कहने लगे अरे! दुष्ट तैयार हो अब तेरी मृत्यु निकट आने को तैयार है। तब तो रेवननाथजी ने अपनी झोली से विभूति की चुटकी निकाली और शक्तिआकर्षण मन्त्र के साथ वह उनकी तरफ फेंक दी। जिस वशात् तत्काल ही यमराज गण शक्तिहीन और जड़ीभूत हो गये। ऐसा होने पर इस घटनास्थल में उपस्थित अन्यदर्शक लोगों ने यमराज को भी प्रासाद में जाकर इस वृत्त से विज्ञापित किया। तब तो यमराज विस्तिमन हुआ पूछ उठा कि वह कौन और कैसा पुरुष है जिसने अपने पराक्रम द्वारा हमारे द्वारपालों को पराजित कर जड़ीभूत कर डाला है। प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि एक मृत्युलोक वासी जैसा मानुष प्रतीत होता है तथापि उसकी अधिकतर सौन्दर्य तथा अतुल शक्तिशाली का अनुभव कर हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते हैं कि वह कोई मृत्युलोकवासी एक मनुष्य ही है वा अन्यलोकवासी कोई देव है। (अस्तु) ठीक इसी अवसर में यमराज का एक मन्त्री कह उठा कि महाराज! यदि आपकी आज्ञा होय तो मैं इस बात का पूरी तरह से निर्णय कर लाऊँ, यह सुन आज्ञा मिली कि अच्छा शीघ्रतया वापिस आकर प्रत्युत्तर देना, बस क्या था इतना इसारा मिलते ही यममन्त्री घटनास्थल में आया और उसने नाथजी से समस्त वृत्तान्त पूछा। तत्काल ही उन्होंने भी अपने वृत्त से यममन्त्री को परिचित कर दिया। ठीक उसी अवसर में उसने वापिस आकर यमराज को बतालाया कि वह मृत्युलोक से आया है और अपने को योगी कहता हुआ साथ ही यह भी कहता है कि यमराज को शीघ्र सूचना दो हमसे मिलें नहीं तो यथेष्ट कृत्य का आश्रय लिया जायेगा। यह सुनकर यमराज अतीव विस्मित हुआ आभ्यन्तरिक भाव से विचार करने लगा कि अवश्य यह कोई प्रबल शक्ति महायोगेश्वर है इसमें कोई सन्देह की बात नहीं। क्योंकि ऐसा न होता तो द्वारपालों को जड़ीभूत करना तो दूर रहा यहाँ हमारी नगरी में उसका आना ही दुर्घट था (अस्तु) जो हो ऐसे पुरुष द्वेष कर बैठना अन्त में मंगलप्रद नहीं दीख पड़ता है। अतएव अब प्रीति कर उसका सन्देश सुनना ही सर्वथा उचित है। इस प्रकार निश्चय कर यमराज ने आज्ञा दी कि जाओ उस महात्मा को बड़ी नम्रता के साथ सप्रीति यहाँ बुला लाओ। तत्काल ही यमराज की आज्ञा प्राप्त कर यम मन्त्री महात्माजी के समीप आकर प्रार्थना पूर्वक कहने लगा कि चलिये भगवन्! आपको प्रासाद में ही यमराज जी ने मेरे द्वारा बुला भेजा है। यह सुनते ही सहर्ष रेवननाथजी उसके पीछे चल पड़े। ज्यों ही आप यमराज के प्रासाद में गये और उनके ऊपर यमराज की दृष्टि पड़ी त्यों ही यमराज ने अपना आसन छोड़ दिया और दो-चार पद आगे चलकर उसने उन्हों का स्वागत किया तथा हस्त पकड़ स्वकीय स्वर्णमय सिंहासन पर बैठाकर स्वयं नीचे बैठा हुआ अतीव नम्रता के साथ कोमल वाणीद्वारा महात्माजी से कुशल वार्ता पूछने लगा। यह सुनकर रेवननाथजी ने समस्त आद्यन्त वृत्त सुना डाला। अर्थात् कहा कि जिस दिन रेवा नदी के समीपवर्ती तुण्डित नामक ग्राम में निवास करने वाले सरस्वतीदत्त ब्राह्मण के पुत्र को तुम ले आये थे उस दिन मैं भी उनके गृह में ही ठहरा हुआ था क्यों कि वह ब्राह्मण अत्यन्त ही श्रद्धालु और भक्ति विशिष्ट है। अतएव ऐसी दशा में मेरे उपस्थित होने पर बिचारे उस ब्राह्मण के अद्वितीय पुत्र को निर्दया के साथ गृह से निकाल ले आना तुमको उचित नहीं था क्यों कि मेेरे विद्यमान होने पर होने वाले इस अनर्थ का भार मेरे ऊपर ही है। द्वितीय यह भी है कि जब हमने इस प्रकार की विद्या प्राप्त की है जो चाहें सो कर ही सकते हैं फिर उस विद्या के प्रताप द्वारा हम अपने भक्तों का दुःख निवारण नहीं करेंगे तो हमारी वह अद्वितीय विद्या किम्प्रयोजना हो जायेगी। अतएव उसी के सकाश से हमने यहाँ आकर तुमसे उस लड़के को वापिस लौटा देने की प्रार्थना की है। इस विषय में यदि तुम लोग अनुकूल प्रत्युत्तर देते हुए लड़के को हमारे अर्पण करोगे तो अच्छा है नहीं तो विवश होकर हमने अपनी उस विद्या से अवश्य कार्य लेना होगा। बस क्या था यमराज ने जहाँ रेवननाथजी की यह दृढ़ प्रतिज्ञा श्रवण की तत्काल ही आभ्यन्तरिक भाव से निश्चय कर लिया कि अवश्य ऐसा ही हो जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्यों कि यह योगी है योगी को अनेक प्रकार की विद्या आया करती है जिसको जानने का इन्द्र को भी सौभाग्य प्राप्त नहीं होता है। इत्यादि विचार कर यमराज ने यर्थाथ ही सुना डाला। अर्थात् कहा कि भगवन्! यह कृत्य हमारे अधीन नहीं है क्यों कि आप स्वयं भी इस बात से परिचित हैं हम श्री महादेवजी के भृत्य हैं अतः आप उनसे प्रार्थना करें यदि महादेवजी इस प्रस्ताव को अंगीकृत करेंगे तो हम तत्काल ही उस लड़के को उसके गृह पर पहुँचा देंगे। क्यों कि हम लोगों का केवल लाना और पहुँचा देना ही कार्य है। इसके बाद रेवननाथजी, अच्छा हम वहीं कैलासस्थ श्रीमहादेवजी के समीप जाते हैं, यह कहते हुए कैलास के सम्मुख चले और अपनी योगसिद्धि वशात् सूक्ष्म शरीर बनाकर पवनसंगी हो गये, जिससे कतिपय क्षण में ही श्रीमहादेवजी के द्वार पर पहुँचे। जब ठीक भवन में घुसने का उद्देश्य ठहराकर आपने द्वार के अन्दर पैर रखा तब तो स्थूल शरीर हुए रेवननाथजी को देखते ही श्रीमहादेवजी के द्वारपाल गणों ने उनको अन्दर जाने से रोक दिया और अनेक प्रकार की नम्रता युक्त प्रार्थना करने पर भी उनको अन्दर न घुसने दिया तब तो रेवननाथजी ने सोच लिया कि नम्रता से कार्य सिद्धि की सम्भावना नहीं दीख पड़ती है। अतएव हमको अपने कृत्य का अवलम्बन करना ही उचित है। इसी हेतु से उन्होंने तत्काल ही अपनी झोली से एक चुटकी विभूति निकली और शक्ति आकर्षण मन्त्र का जाप कर उसको द्वारपालों की ओर फेंक दिया। जिस वशात् समस्त द्वारपाल जड़ीभूत हो गये। ठीक इसी अवसर पर किसी दर्शक अन्य गण ने श्रीमहादेवजी से जाकर कहा कि भगवन्! एक गन्धर्व जैसा दीख पड़ता है जो कि द्वार पर आ प्राप्त हुआ है और उसने समस्त द्वारपालों को निश्चेष्ट कर डाला है। अतएव आपको शीघ्रतया द्वारपालों की रक्षा करनी चाहिये। यह सुनते ही श्रीमहादेवजी ने उनकी रक्षार्थ अष्टभैरव भेजे। ज्योंही अष्टभैरव द्वारपाल आये और उन्होंने एक कृश शरीर व्यक्ति रेवननाथजी को सम्मुख खड़े हुए देखा त्योंही अष्टभैरव बड़े आनन्दित हुए तथा कहने लगे कि क्या यही व्यक्ति है जिसने द्वारपालों को दुःखान्वित किया है। यह तो कुछ भी वस्तु नहीं है काहें के लिये हमको यहाँ भेजा गया है। हमको इसके साथ युद्ध की बात करते भी लज्जा आती है। क्योंकि हमारे में से किसी एक को भेज देते तो वही इसके होश भूला देता। (अस्तु) जिस समय उन्होंने इस प्रकार के गर्वान्वित शब्द कहे तभी रेवननाथजी ने विचार लिया कि जिन्हों को इतना अभिमान है वे कब शान्ति कर सकते हैं अतः इनको मैं ही प्रथम नतीजा दिखला देता हूँ। तब तो शीघ्र ही रेवननाथजी ने झोली से विभूति निकाली और शक्ति आकर्षण मन्त्र का जाप करने के अनन्तर विभूति फेंकने से पूर्व ही एक बार तो शान्ति के साथ समझा देना ही उचित समझकर उनसे कहा कि इस विषय में हमारा कोई अपराध नहीं है। हमने श्रीमहादेवजी के समीप जाना चाहा था परन्तु अनेक नम्र प्रार्थना करने पर भी हमारी प्रार्थनाओं को तिरस्कारमय जानकर इन द्वारपालों ने हमको अन्दर जाने से बन्द किया। अतः हमको भी अपने कर्तव्य का विश्वास था जिस वशात् इनको जकड़ीभूत करना पड़ा है। अब रह गई आप लोगों की बात, यद्यपि अभी तक आप लोगों को अपनी प्रबल शक्ति का गर्व है जिस वशात् हमको तुच्छ वस्तु बतला चुके हो तथापि हमको शान्ति के साथ सप्रेम अन्दर जाने की आज्ञा न मिलने पर अवश्य आप लोगों के साथ भी इस कृत्य को व्यवहृत किया जायेगा। बस क्या था इतना सुनते ही अष्टभैरव रेवननाथजी के ऊपर टूट पड़े। उधर उन्होंने प्रथमतः ही विभूति की चुटकी तैयार कर रखी थी, जिसके फेंकते ही अष्टभैरव अपने फल को प्राप्त हुए। तत्काल ही फिर किसी अन्य दर्शक ने आकर श्रीमहादेवजी से कहा कि भगवन्! उसने तो अष्टभैरवों को भी जड़ीभूत कर डाला है, नहीं जानते वह कैसा विचित्र शक्ति कोई देव है वा कौन है। यह सुन श्रीमहादेवजी बड़े विस्मित हुए विचार करने लगे कि अवश्य यह कोई योगी है। क्योंकि अष्टभैरवों को पराजित करने के लिये अन्य किसी की शक्ति नहीं है। (अस्तु) आखिर को श्रीमहादेवजी वहाँ आये और उन्होंने दूर से अष्टभैरवों को जड़ीभूत हुए पड़ा तथा रेवननाथजी को खड़ा देखा। उधर से रेवननाथजी ने भी श्रीमहादेवजी को ज्यों ही सम्मुख आते हुए देखा त्योंही कुछ पद आगे चलकर उनकी साष्टांग नमस्कार कर आदेश-आदेश शब्द का उच्चारण किया तब तो स्वकीयरूप देखकर श्रीमहादेवजी ने रेवननाथजी को पहिचान लिया और कहा कि अन्दर क्यों नहीं प्रवेश किया इन विचारों को किस वास्ते इतने कष्ट अनुभव कराया है। तब अतीव नम्रता के साथ हस्तसम्पुटी कर रेवननाथजी ने कहा कि भगवन्! मैं आपके समीप ही अन्दर आने का अभिलाषी था परन्तु अत्यन्त नम्रतायुक्त अनेक प्रार्थना करने पर भी इन लोगों ने मेरेे को अन्दर आने के लिये आज्ञा न दी। इसीलिये मैंने इनको इनके अभिमान का फल दिखलाना पड़ा है। अन्यथा ऐसा कभी न होता। इसके बाद श्रीमहादेवजी ने पूछा कि ऐसा क्या विशेष कार्य था जिससे तुमको हमारे पास आना पड़ा है। तब तो रेवननाथजी ने समस्त वृत्तान्त कह सुनाया और यमराज के साथ जो कुछ परामर्श हुआ था वह भी सुना डाला। यह सुनकर तत्काल ही श्रीमहादेवजी प्रसन्न हो गये और कह उठे कि अच्छा उस लड़के को अवश्य तुम्हारे अर्पण किया जायेगा। परन्तु अब इन भैरवों को पूर्ववत् सशक्ति कर देना चाहिये। क्योंकि ये अपनी अनभिज्ञता का फल पा चुके हैंं। तब तो श्रीमहादेवजी के चरणों में शिर झुकाकर रेवननाथजी ने अपनी झोली से विभूति निकली, जिसको जापपूर्वक फेंक देने पर अष्टभैरव सचेत हुए और श्रीमहादेवजी ने उक्त लड़के को ले जाने के लिये सुभीता कर दिया। तत्काल ही लड़के को लेकर रेवननाथजी तुण्डित ग्राम में पहुँचे और आपने उसको सरस्वतीदत्त के अर्पण किया। यह देखकर उस समय सरस्वतीदत्त को तथा उसकी ब्राह्मणी को जो आनन्द प्राप्त हुआ उसकी अधिकता को या तो ईश्वर जानता होगा वा वे ही जानते होंगे। अतएव रेवननाथजी को असंख्य धन्यवाद देते हुए तथा अपने आपको अत्यन्त सौभाग्यशाली मानते हुए वे सुख से काल व्यतीत करने लगे। उधर रेवननाथजी यह कार्य कर देशान्तर में भ्रमण करने के लिये प्रस्थान कर गये।
इति  श्रीरेवननाथ यमपुर गमन।

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