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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Monday, May 6, 2013

श्री मत्स्येन्द्रनाथजी पशुपति नृप समागम वर्णन


श्री मत्स्येन्द्रनाथजी हिंगलाज से चलकर शनैः-शनैः भ्रमण करते हुए तथा जनों को योगक्रिया रूप अद्वितीय औषध द्वारा इस असार संसार के त्रिविध दुःख से विमुक्त करते हुए कतिपय मास के अनन्तर अयोध्यापुरी में पहुँचे। वहाँ एक पशुपति नामक राजा, जो कि ठीक श्रीरामचन्द्र के वंश में उत्पन्न हुआ था, राज्य करता था। जो श्रीरामजी की गद्दी के ऊपर, अपने आपको कीट की तुल्य समझता हुआ पैर तक नहीं रखता था और श्रीरामजी के उद्देश्य से निर्मित की हुई राजगद्दी के सम्मुख ही नीचे की तरफ एक साधारण आसन पर बैठकर उनकी प्रतिमा का ध्यान किया करता था। एवं इसी कर्म में प्रवृत्त रहकर प्रतिदिन एक प्रहर व्यतीत किया करता था। अस्तु! एक दिन ऐसा हुआ जब कि मत्स्येन्द्रनाथजी भिक्षा के लिये नगरी में गये तब मन्दिर में श्रीरामचन्द्रजी की गद्दी थी, जिसका कि राजा प्रतिदिन दर्शन करने तथा सत्कार करने जाता था। दैव योग से आप उसी मन्दिर के द्वार पर जा निकले। ठीक वही समय राजा के पूजार्थ मन्दिर में आने का था। अतएव राजा साहिब भी वहीं आ निकले और ज्यों ही पालकी से उत्तर कर मन्दिर में जाने लगे त्यों ही मत्स्येन्द्रनाथजी भी उसके पीछे-पीछे मन्दिर में प्रविष्ट होने के लिये अग्रसर हुए। ठीक उसी अवसर में एक राजपुरुष ने पुरःसर हो आपको समझाने के अभिप्राय से कहा कि महाराज अपरिचित पुरुष को मन्दिर में प्रविष्ट होने देना, ऐसी राजा साहिब की आज्ञा नहीं है। अतः आप कृपा कर वापिस लौट जायें। तब मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि हम रमते राम अभ्यागत योगी हैं। बहुत दूर से भ्रमण करते हुए केवल दर्शनार्थ ही यहाँ आये हैं। इस वास्ते दर्शन करने से हमको रोक रखना आप लोगों को उचित नहीं। यह सुन द्वारपालों ने उत्तर दिया कि हमारे कत्र्तव्य और कल्याण का रास्ता ही यह है कि हम अपने स्वामी की तथा उसके वचन की तन-मन-धन से पालना करें और उसकी आज्ञा के विरूद्ध कुछ भी कार्य न करें। अतः जब उसकी आज्ञा ही यह ऐसी है कि कोई अपरिचित पुरुष मन्दिर में न घुसने पावे तो ऐसी दशा में हमारे लिये कौन ऐसा रास्ता खुला रह गया कि जिसका अनुसरणकर हम आपको मन्दिर में जाने दें। हां हो सकता है यदि शिविका से उतरने के समकाल में ही आप राजासाहिब से इस विषय की प्रार्थना करते और वह आपके अप्रतिहत गति होने की हमको चेतावनी देते तो कोई वजह नहीं हम आपको रोक रखते। परं करें क्या ऐसा तो हुआ नहीं। ऐसी दशा में यदि हम आपको अन्दर प्रविष्ट होने दें तो हमारी खैर नहीं हो सकती। उनके ये युक्ति-युक्त वाक्य सुनकर भी मत्स्येन्द्रनाथजी कुछ मुस्कराये और उनका अपराध उपस्थित करने के लिये आप भीतर ही घुसने लगे। यह देख द्वारपालों का दिमाक गर्म हो गया और उन्होंने कहा कि उये भिक्षुक, उचित रीति से समझाने पर भी दिय आप नहीं मानते हैं तो हमको अपने यथार्थ बल का आश्रय लेना पड़ेगा। यह सुन मन्दिर प्रवेश की आशा छोड़कर मत्स्येन्द्रनाथजी वहाँ से अपसरित हो गये और भिक्षा करने के अनन्तर शीघ्र अपने आसन पर आ विराजे। वहाँ कुछ क्षण स्थिर रहने पर जब आपकेा व्यतीत पूर्व घटना का स्मरण हो आया तब आपने आभ्यन्तरिक दृष्टि से देखा कि राजा पशुपति मन्दिर स्थित श्रीरामचन्द्रजी की गद्दी के सम्मुख पड़ा हुआ साष्टांगप्रमाण कर रहा है। तत्काल ही आपने अपनी झोली से विभूति निकालकर समन्त्र उधर फेंक दी। जिसका उद्देश्य राजा को निश्रेष्ट करना था। अतएव राजापशुपति उसी समय भड़ीभूत हो गया। उसकी उठने चलने हिलने की समस्त शक्ति क्षीण जैसी होने से शरीर पत्थरवत् स्थूल हो गया। इस आकस्मिक दुर्विज्ञेय घटना का अनुभव कर राजा अत्यन्त ही विस्मित हुआ। परं वह इस आशा पर कि सम्भव है कुछ देर में यह अज्ञात व्याधि शान्त हो जायेगी, मौनता के साथ तद्वत् स्थिर रहा। और ईश्वर की अलक्ष्यगति पर विवेचना करता रहा। तथापि बहुत देर हो गई उसका उस व्याधि से छुटकारा न हुआ। यह देख समीपस्थ सेवक लोग भी आन्तधार्मिक रीति से कुछ-कुछ सान्देतिक वार्ता करने लगे। आखिर ज्यों-ज्यों क्षणव्यतीत होने लगे त्यों-त्यों उनका सन्देह अधिकाधिक प्रबद्र्धित होने लगा और वह वे भीतर ही भीतर विचारने लगे। क्या कारण है अन्य रीति से पूजा न करके महाराज साष्टांग नमस्कार में ही दत्तचित्त हो गये। अब तो भोजन का समय भी उपस्थित हुआ। ठीक इसी अवसर में राजा को विलम्बित जानकर मन्त्री भी वहाँ आ गया। द्वार पर आते ही उनसे जब पाश्र्ववत्र्ती लोगों के मुख द्वारा तथा भीतर जाकर स्वकीय नेत्रों द्वारा राजा की वह दशा देखी तब तो वह भी चकित रह गया और हस्त जोड़कर राजा से कहने लगा महाराज आज अकस्मात् यह क्या घटना हुई है क्या आपका नियम तो स्खलित नहीं हो गया जिससे भगवान् रामचन्द्रजी ने ही कुपित हो आपको यह दण्ड दिया हो। राजा ने उत्तर दिया कि मुझे नहीं मालूम क्या हुआ और कौन देव कुपित हो गया। और देव ही क्रुद्ध हुआ हो मुझे यह भी विश्वास नहीं हो सकता है कारण कि मुझे अपने कत्र्तव्य पर पूरा निश्चय है मेरे से कोई ऐसा कृत्य नहीं बना है जो सरासर अनुचित हो। और उसके उद्देश्य से देव मेरे ऊपर कुपित हो गया हो। मान लिया कि किसी अज्ञात रीति से हमारी कुछ भूल हो गई हो। पर मुझे यह विश्वास नहीं होता कि उस अज्ञात भूल पर कुपित हो देव मुझे इतना कठिन दण्ड दें। इससे तो मेरी यह दशा हो गई है कि मेरी उठने चलने हिलने की समग्र शक्ति नष्ट हो गई। यह सुन मन्त्री और भी आश्चर्यान्वित हुआ और सेवकों के सहित राजा के हस्त पैर दबाने लगा। परं वह स्वाभाविक व्याधि नहीं थी जो किसी चिकित्सा से चली जाती। अतएव मन्त्री ने दबाने तथा अन्य अनेक उपचारों से उसको राजा के शरीर से निकाल दूर करने का बहुत ही प्रयत्न किया तो भी वह टस से मस न हुई। अर्थात् मन्त्री के प्रयत्न को सफलता न प्राप्त हुई। इससे मन्त्री के शोक का ठिकाना न रहा और वह समीपस्थ सेवक तथा द्वारपालों से पूछने लगा कि तुम लोगों ने द्वार पर आये किसी महात्मा का तिरस्कार तो नहीं किया है जिसके कोप वशात् महाराज की यह दशा हो गई हो। उन्होंने उत्तर दिया कि हां एक महात्मा आज अवश्य यहाँ आये थे। जिन्होंने महाराज के साथ ही मन्दिर में प्रविष्ट होने का साहस किया था। परं उसके अनेक बार प्रयत्न करने पर भी हमने उसको भीतर न जाने दिया क्यों कि हमारे लिये ऐसी ही आज्ञा है। जिसका पालन करना हमारा कत्र्तव्य था सोई हमने किया। जिससे वे महात्मा वापिस तो लौट गये। परं सम्भव है इस व्यवहार से उनके आशा स्थान में आघात पहुँचा होगा और बहुत सम्भव है यह कृत्य भी उन्हीं ने उपस्थित किया हो। उनके इस कथन से मन्त्री की अन्तरात्मा में यह बात खूब समा गई कि निःसन्देह यह घटना ऐसे ही उपस्थित हुई है। अतएव उसने पूछा कि वे ढंग के महात्मा थे। उनका पूरा-पूरा परिचय दो जिससे उनकी अन्वेषणा कर उनको प्रसन्न करने का प्रयत्न किया जाय। उन्होंने कहा कि वह बड़ा ही तेजस्वी पुरुष था। जिसके कानों में कुण्डल गले में शेली कक्ष में झोली शरीर पर भस्मी लगी हुई थी। यह सुनकर मन्त्री ने समग्र वृत्तान्त मन्दिरस्थ राजा साहिब के समक्ष कह डाला। तत्काल ही राजा ने आज्ञा प्रदान की कि वह महात्मा जिस प्रकार मिल सके सोई उपाय करो। मन्त्री ने शीघ्र ही राजपुरुषों को विज्ञापित कर मत्स्येन्द्रनाथजी की अन्वेषणा के लिये नगर से बाहर भेज दिया। तथा यह कह सुनाया कि एक दो कोश पर्यन्त के जितने बाग-बगीचे हैं सब में देखना किसी न किसी में महात्मा तुम्हें अवश्य मिल जायेंगे। राज पुरुष मन्त्री की आज्ञा पर सिर झुकाकर नगर से बाहर निकले और कई एक मण्डलियों में मिभक्त हो प्रत्येक आराम का निरीक्षण करने लगे। सौभाग्यवश उनमें से एक मण्डली सरयू नदी के ओर रवाने हुई और महात्मा प्राय ऐकान्तिक स्थल को ही रुचिकर समझा करते है यह विचार करती हुई ज्यों ही इधर-उधर दृष्टि प्रक्षिप्त करने लगी त्यों ही उसकी दृष्टि सरयू नदी के तटस्थ श्मशानों में विद्यमान एक वट वृक्ष की छाया में सानन्द बैठे हुए मत्स्येन्द्रनाथजी के ऊपर पड़ी। राजपुरुष आपको देखते ही आभ्यन्तरिक भाव से अत्यन्त प्रसन्न हुए। एवं कुछ क्षण में आपके समीप जाकर अनेक बार साष्टांग प्रणाम करने लगे। तथा कहने लगे कि भगवन् क्षमा कीजिए यह आपको कष्ट देने के लिये आये हैं। आपके चरणारविन्द को हमारे राजासाहिब ने स्मृत किया है। अतः हम दासों तथा महाराज के ऊपर आप अपनी महती कृपा करें और नगर में चलकर अपनी चरणरज से उनका उद्धार करें। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि हम लोग योगी हैं। क्षुधानिवारणार्थ एक बार ही नगरी में भोजन लेने के लिये जाते हैं। फिर विनाप्रयोजन नगरी में जाना उचित नहीं समझते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी बात है कि हम लोग स्वतन्त्र है किसी का कभी कोई अपराध नहीं करते हैं इसीलिये हम किसी का भय भी नहीं रखते हैं। फिर हमें क्या आवश्यकता है जो किसी के महल में जाये और उसका दुःख देखकर अपनी आत्माओं को भी दुःख में डाल दें। इस पर राजपुरुषों ने कहा कि यह ठीक हैं आपके वचन के प्रत्येक अक्षर सत्यता से परिपूर्ण हो रहे हैं जिनके विषय में तो हमें किचिंत भी सन्देह नहीं। परं हम लोग यह समझते हैं कि आप लोग महात्माओं का देशाटन, परोपकार उद्देश्य से है न कि स्वार्थ के लिये। फिर किसी आत्मा के सुखप्रदानार्थ आपका नगरी में जाना निःप्रयोजन कैसे कहा जा सकता है। अतएव हमको यह पूर्ण आशा है कि आप हमारी प्रार्थना पर पूरा ध्यान देकर नगर में चलने के लिये प्रस्तुत हो जायेंगे। मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि यह कार्य तो वैद्य लोगों का है। उन्हें शीघ्र ही बुलाकर, राजा को क्या दुःख है, इस बात से परिचित कर दो। वे यथानुकूल औषध प्रदान कर उसे सम्भावित दुःख से मुक्त करेंगे। राजपुरुषों ने कहा कि बड़े-बड़े सुबुद्धि वैद्यों को बुलाकर महाराज की खूब चिकित्सा करा चुके हैं। परं उनका समस्त प्रयत्न निष्फल हुआ है और राजा भी ठीक ही है। कारण कि यदि ऐसी शारीरिक व्याधि जिसका कि उन्हें निदान मालूम हो, उपस्थित हो जाय तो सम्भव है अनुकूल औषध द्वारा उसका निवारण कर सकते। परं करे क्या वह, जिसका कुछ निदान हो, ऐसी पित्तादि दोष पूरित शारीरिक व्याधि नहीं है। उसका परिहार करना सर्वथा आपकी अत्यन्त परिपूर्ण हो गया था। तथापि उन्होंने कुछ विचार कर एक बार फिर चलने को इनकार किया और साफ-साफ कह सुनाया कि हम नहीं चलेंगे तुम जाओ उन से नहीं तो और किसी अच्छे वैद्य को बुलाकर राजा की औषध कराओ। देखो शायद ईश्वरीय इच्छा अनुकूल निकले और राजा स्वस्थ हो जाये। आपके इस निराशोत्पादक उत्तर को सुनकर राजुपरुषों का आनन्द, जो कि आपके प्राप्त होने से उपलब्ध हुआ था, समस्त जाता रहा। अतएव कुछ राजपुरुष तो वहीं रहे और कुछकों ने नगरी में जाकर मत्स्येन्द्रनाथजी के मिलने का तथा उनके नगरी में न आने का समग्र वृत्तान्त मन्त्री लोगों के समक्ष वर्णित किया। तत्काल ही विविध प्रकार की भेंट-पूजा तैयार कर बड़े-बडे+ सरदारों के सहित रथ में बैठे हुए मन्त्री लोग उसी स्थल में आये और कुछ दूर से पदाति हुए नग्न पैरों से बहुत समीप में प्राप्त हो आपके चरणों में गिरे। तथा समस्त सामग्री समर्पित कर अभ्र्यथना करने लगे कि भगवन् कृपा कीजिये महात्माओं का अवतार परोपकार के उद्देश्य से ही हुआ करता है। आज हमारे राजा सहिब अत्यन्त असह्य दुर्विज्ञेय व्याधि से ग्रस्त हैं। अतएव यदि आप शीघ्रता के साथ उनकी रक्षा न करेंगे तो नहीं कह सकते कि वे सजीव रह जायेंगे। मत्स्येन्द्रनाथजी ने अब अधिक सफाई करना उचित नहीं समझा और करूणाद्र्रीभूत हृदय की अनिवार्य प्रेरणा से आप उनके साथ नगरी में जाने को बाध्य हुए। वहाँ ज्यों ही राजा ने मत्स्येन्द्रनाथजी को आते हुए देखा त्यों ही शरीर में चेष्टा का अभाव होने से अपने मन ही मन में अनेक बार नमस्कार की और उनके अतीव समीप आ जाने पर अत्यन्त कोमल वाणी द्वारा सत्कारपूर्वक पुनः नमस्कार की। तथा कहा कि भगवन् महात्मा लोग परोपकारी होते हैं यह वृत्त, समस्त विश्वव्यापी होने के कारण, किसी से छिपा नहीं है। ऐसी दशा में मैं आशा करता हूँ यदि आज्ञानिक भाव वशात् हम लोगों से भूल हो गई हो तो आप अवश्य उस पर क्षमा प्रदान करेंगे। तब मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि आप लोग जो कुछ कह रहे हैं वह सर्वथा योग्य है परन्तु प्रथम आप यह कहें मैं किसलिये यहाँ बुला गया हूँ। राजा ने उत्तर दिया कि भगवन् आप सर्व कुछ जानते हुए भी हम से पूछते हैं यह तो केवल आप अपना रूप छिपाते हैं। परं क्या वास्तविक में अब हमारे हृदय से आप दूर हो सकते हैं, कभी नहीं। आपने अपने विषय में हमारी वह श्रद्धा उत्पन्न की है जिसका जब तक यह वर्तमान शरीर और ये प्राण सम्मिलित रहेंगे तब तक पूरी तरफ से परिचय दिया जायेगा। यह जो कुछ मैं कह रहा हूँ आप इसको अन्यथा न समझें। क्यों कि मैं श्रीरामचन्द्र जी के वंश में जन्मा हूँ। इसी वंश की (प्राण जायें पर वचन न जाई) यह सर्व लोक प्रसिद्ध उक्ति आपसे भी छिपी नहीं है। अतः मुक्त दास से वाक्य पर विश्वासित हो कर अब मेरे को इस दुःसह्य वेदना से विमुक्त करो। मत्स्येन्द्रनाथजी ने, अच्छा फिर इस प्रकार किसी महात्मा का तिरस्कार नहीं करना, यह कहते हुए अपनी झोली से एक चुटकी विभूति निकाली और उसको मन्त्र पढ़ने के बाद राजा की ओर फेंक दिया। तत्काल ही राजा साहिब बैठे हो गये और बैठते ही फिर मत्स्येन्द्रनाथजी के चरणों में गिरते हुए कहने लगे कि भगवन् आज आपके महान् अनुग्रह से ही हमारा सजीव रहना है। अन्यथा कब तक ऐसी दशा में हम अपने प्राणों को रख सकते थे। हमें अवश्य ही शीघ्रता के साथ किसी न किसी दिन विक्राल काल के मुख में जाना ही पड़ता। अब हम चाहते हैं आप अपने नाम से हमको विज्ञापित कर दें। जिससे आपके शुभाक्षरान्वित नाम के प्रकाश का प्रतिबिम्ब हमारे हृदय पर अपनी स्थिति करे। तद्नन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि हमारा नाम मत्स्येन्द्रनाथ है। सम्भवतः प्रथम भी यह नाम तुमने कभी न कभी अवश्य सुना होगा। यह सुनकर राजा ने कहा कि हाँ भगवन् इस नाम का अवश्य हमने श्रवण किया हुआ है। परन्तु आपके विषय में लोगों के मुख से निकली वाणी को सुनकर हम किंचित् भी विश्वास न कर रहे थे। यही नहीं आपकी सिद्धिविषयक वार्ताओं को अतथ्य समझ कर उनके श्रवण करने की उपेक्षा भी किया करते थे। और उन वार्ताओं का सत्य होना इतना असम्भव समझते थे जितना आकाश में पुष्प का होना। परन्तु वह ईश्वर कैसा दयालु है कैसा भक्तवत्सल है कैसा न्यायी है जिसने आज हमको साक्षात् आपके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त किया है। और हमारे कठोर हृदय में स्थित उस अविश्वास को नष्ट-भ्रष्ट कर पूर्ण रीति से यह प्रकट कर दिया है कि जैसी आपकी महिमा कीर्ति लोगों के मुख से उच्चरित हुई वाणी से सुनी जाती थी आप ठीक वैसे ही हैं। इस प्रकार राजा पशुपति ने अनेक तरह के शब्दों द्वारा मत्स्येन्द्रनाथजी की महिमा तथा स्तुति प्रकट करके एक अतिसुन्दर स्वर्णमय सिंहासन मंगाया और उसके ऊपर मत्स्येन्द्रनाथजी को बैठाकर उनकी विधिवत् पूजा की। तथा कतिपय मास के बाद गुरुमन्त्र ग्रहणपूर्वक उनका शिष्यत्व भी स्वीकृत किया। यही नहीं यहाँ तक कि वह मत्स्येन्द्रनाथजी के दर्शन बिना तथा उनकी आज्ञा बिना भोजन तक ग्रहण नहीं करता था और मत्स्येन्द्रनाथजी के सम्मुख कभी अपनी अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं करता था। यह देख एक दिन मत्स्येन्द्रनाथजी ने, क्या कारण है राजा ने हमारा शिष्यत्व ग्रहण किया है तथा हमारी सेवा में ही अधिकांश समय व्यतीत करता है तथापि मालूम होता है किसी मर्मभेदी दुःख ने इसका हृदय अतीव कष्टान्वित कर रखा है, यही कारण है जितना राजाओं को प्रसन्न चित्त रहना चाहिये उतना यह नहीं देखा जाता है, यह विचार कर उससे कहा कि राजन् तुमको किस विषय की चिन्ता है जिस वशात् तुम प्रतिदिन उदासीन रहते हो। अब हमारे सम्मुख प्रकट करो। हम अवश्य उसका परिहार कर देंगे। यह सुन हस्तसम्पुटी कर अत्यन्त कोमल वाणी द्वारा पशुपति राजा ने कहा कि भगवन् आपके महान् अनुग्रह से हमारे सर्वसम्पत्ति विद्यमान है जिसका आपको भी साक्षात्कार हो चुका है। एवं पुत्र भी पर्याप्त और बहुत अनुकूल है। अतः इस विषय आदि की मुझे स्वप्न में चिन्ता नहीं है। किन्तु जिस भारत विख्यात यशवाले रघुकुल में मैंने जन्म लिया है उसी इस कुल के अद्वितीय भूषण श्रीरामचन्द्रजी की सम्मान एवं श्रद्धापूर्वक बहुत समय से भक्ति करते हुए भी मैंने आजपर्यन्त उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। यही कारण है इसी एकमात्र चिन्ता से आक्रान्त हुआ मेरा हृदय कभी प्रसन्नता युक्त नहीं होता है। यों तो प्रस्तावनुरोध से कभी न कभी अवश्य समयानुकूल वार्तालाप में हंसना तथा चित्त को प्रसन्नतान्वित सूचित करना पड़ता है, परं आभ्यन्तरिक रीति से नहीं। मन अवश्य इसी विषय में लीन रहता है। अतएव यदि आपकी महती कृपा वशात् मेरी यह चिन्ता अपने अभीष्ट को प्राप्त होने पर मुझे विमुक्त कर दे तो फिर कौन ऐसा पुरुष है जो मेरे से अधिक अपने आपको उत्तम तथा पुण्यशाली मानता हो। तदनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि अच्छा-अच्छा अब तुम इस चिन्ता को निःसन्देह अपने हृदय से उठा दो। हम अवश्य तुमको रामचन्द्रजी का दर्शन करायेंगे। तथा साथ ही जिस दुष्प्राप्य अद्भूत योग क्रिया सिद्ध शक्ति का प्रभाव, अखिल संसार में अपनी महती प्रतिष्ठा जमा चुका है एवं जिस योग शक्ति द्वारा हमने निखिल देवी-देवताओं को अपने विषय में प्रसन्न कर उनसे वरदान प्राप्त किया है उसी योगशक्ति का परिचय तुम को कुछ दे चुकने पर भी अब फिर देंगे। परन्तु यह सर्व कुछ आप लोगों के विश्वास पर ही निर्भर है। यदि पूर्ववत् मिथ्या उक्ति समझकर मेरे वाक्यों पर पूरी तरह विश्वास न किया जायेगा तो कभी आप लोग अपने अभीष्ट को प्राप्त न कर सकेंगे। यह सुनकर राजा तथा मन्त्री लोगों ने कहा कि नहीं-नहीं महाराज ऐसा कभी नहीं हो सकता है जो कि हम आपके वचन को विश्वास मय न समझते हों। यह सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी झोली से एक चुटकी विभूति निकाली और मन्त्र सहित उसको राजा तथा राजा के पाश्र्ववर्ती कई एक मनुष्यों के मस्तक में लगा दिया। पश्चात् वे उनको सरयू नदी के तटस्थ किसी ऐकान्तिक स्थान में ले गये और वहाँ जाने पर आपने फिर अपनी झोली से विभूति निकाली तथा धूम्र मन्त्र पढ़कर उसको आकाश की ओर फेंक दिया। जिससे तत्काल ही आकाश से लेकर पृथिवी पर्यन्त घोर अन्धकार छा गया। जिसने सूर्यनारायण के प्रकाश को पराजित कर अपना पूरा अधिकार जमा लिया। यहाँ तक कि समीप खड़े हुए राजा तथा राजपुरुष परस्पर में एक-दूसरे को देख न सकते थे। अतएव इस प्रकार धूम्र की अधिकता होने से राजासाहिब व्याकुल हो गये और उनके नैत्रों से जल बहने लगा। यह देख विवश होकर राजा ने मत्स्येन्द्रनाथजी से कहा कि महाराज यह धूम्र कम हो जाय तो अच्छा है। क्योंकि यह हमारे नैत्रों में प्रवेश कर हमको अतीव दुःखान्वित कर रहा है। तब मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि आप लोग क्षत्रिय हैं क्यों इतने शीघ्र भयभीत होते हो। परमात्मा की बहुत ही विचित्र गति है नहीं जानते किस समय कौन घोर विघ्न आ उपस्थित हो जाय। मनुष्य को धैर्यान्वित होते हुए उसे सहिष्णुता से निवारित करने के लिये अवश्य अपने आप में कुछ साहस तथा सहन शक्ति रखनी चाहिए। यह कहते हुए आपने फिर झोली से विभूति निकाल कर समन्त्र आकाश में फेंक दी। जिससे अत्यन्त वेग युक्त वायु चलने लगा और छोटे-छोटे वृक्ष उखड़ कर इधर-उधर दौड़ने लगे। ऐसा होने से पृथिवी पर बड़ा ही कोलाहल आरम्भ हुआ। फिर कुछ क्षण के बाद यह उत्पात शान्त कर आपने एक चुटकी विभूति और निकाली। तथा आकर्षण मन्त्र के साथ उसको सूर्य की तरफ फेंक दिया। तत्काल ही सूर्यनारायण मूर्तिमान् हो कर नीचे उतरे और निश्चेष्ट से हो गये। ऐसा होने से सहसा समग्र पृथिवी पर अन्धकार सा छा गया। तत्काल ही श्री महादेवजी कैलाश से अयोध्यापुरी में आये। इसी प्रकार विष्णु तथा ब्रह्माजी भी गरुड़ तथा हंस पर आरूढ़ होकर वहीं आ उपस्थित हुए। वहाँ सूर्य को मूचर््िछत देखकर श्री महादेवजी ने शिष्य से कहा कि तुमने सूर्यनारायण को किस प्रयोजन से इतना कष्ट दिया है। मत्स्येन्द्रनाथजी ने उत्तर दिया कि यह पशुपति राजा हमारा शिष्य सूर्यवंश से उत्पन्न हुआ है और बड़ा ही धर्मात्मा तथा नीतिज्ञ है। यही नहीं आजकल समग्र भारत में जितने राजा हैं उन सब में इसकी सबसे अधिक कीर्ति तथा महिमा है जो भारत के बाल से वृद्ध तक सर्व के हृदय में अपनी स्थिति जमायें हुए हैं। तथापि इसको अब तक सूर्य ने दर्शन नहीं दिया है। इसी हेतु से हमने इसको अपने मन्त्र द्वारा यहाँ बुलाकर कष्टान्वित करना पड़ा है। तब विष्णुजी ने कहा कि अच्छा अब इसको इस कष्ट से विमुक्त करो हम समझा देंगे यह सदा आपकी आज्ञानुकूल रहेगा। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी ने अपनी झोली से एक चुटकी विभूति निकालकर सूर्यनारायण की तरफ फेंक दी जिससे तत्काल ही सूर्य दुःख रहित एवं सचेष्ट हो गया और श्री विष्णुजी के कथनानुसार कह उठा कि हे मत्स्येन्द्रनाथजी आज से लेकर मैं सदा आपकी आज्ञानुकूल ही कार्य करा करूँगा। आप हमारे जैसे उपकारी लोगों के ऊपर सदा कृपा करते रहें। और इतनी शीघ्र ऐसे असह्य कष्ट से व्यथित न किया करें। किन्तु हमारे योग्य जो कोई कार्य उपस्थित हो जाय तो प्रथम उससे हमको सूचित करना उचित समझा करें। यदि सूचना के अनन्तर आपकी आज्ञा का सम्मानपुरःसर पालन नहीं किया जाय तो आपका इस प्रकार कष्ट देना सर्वथा उचित और न्यायपूर्वक है। अच्छा जो कुछ हुआ सो हुआ अब आप कहें मेरे विषय में क्या आज्ञा है जिसके कारण मुझे इतने कष्ट का अनुभव करना पड़ा है। तब मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि इस हमारे शिष्य पशुपति राजा को प्रसन्नचित्त होते हुए दर्शन देकर सन्तुष्ट करो और अपना वचन दो आपको जिस जगह जिस समय याद करें उसी जगह उसी समय पर उपस्थित होना होगा। तब सूर्यनारायण ने उत्तर दिया कि यह पशुपति हमारा वंशज है इसलिये पुत्र की तुल्य है इसके ऊपर हम सदा प्रसन्न रहते हैं यह निःसन्देह सत्य जानों। आगे भी आज की सदृश ही हम दर्शन देने को तैयार हैं यदि इसकी इच्छा होगी तो। एवं आपको भी तीनों देवों के समक्ष ही वचन देते हैं आप जिस स्थान पर समय हमारा आव्हान करेंगे उसी स्थान पर तत्काल ही हम उपस्थित हो जायेंगे। यह हम इस वचन का उल्लंघन करें तो तीन प्रकार की हत्या से आक्रान्त हो जायें। इसके बाद सूर्यनारायण अपने पूर्वस्थान को गये और विष्णुजी तथा ब्रह्माजी ने भी मत्स्येन्द्रनाथजी को वर प्रदान किया। तथा कहा कि हमारे इस वर पर पूर्ण रीति से विश्वास रखना। अब हम अपने स्थान को जाते हैं तुम्हारा कल्याण हो। इस प्रकार आशीर्वाद प्रदान कर तीनों देवता स्वीय-स्वीय स्थानों को चले गये। कवेल मन्त्री लोगों के सहित राजा तथा मत्स्येन्द्रनाथजी ही अवशिष्ट रह गये। तत्काल ही फिर राजा ने पूर्वप्रस्ताव किया कि भगवन् श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन तो नहीं हुआ। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि हाँ अभी दर्शन कराते हैं कुछ क्षण शान्ति करो। पश्चात् मत्स्येन्द्रनाथजी ने झोली से विभूति निकाली और आकर्षण मन्त्र के साथ फेंक दी। बस क्या था हस्त में धनुष धारण किये हुए पूर्वश्रुतरूप से तत्काल ही श्रीरामचन्द्रजी प्रकट हो गये। यह देख समन्त्री राजा उनके चरणों में गिरा और उसने कहा कि हे भगवन्! हे दयालो! आप धन्य हैं आपने मुझ कीट पर अनुग्रह कर अपने पवित्र दर्शन में मुझे कृतार्थ किया है। अतः आपका दास मैं आजीवन आपकी प्रतिमा का ध्यान करता हुआ आपके यश तथा आपकी कृपालुता को विस्तृत करूँगा। तब श्रीरामजी, राजा के ऊपर और भी अतीव प्रसन्न हुए। और अपने हस्त को उसके सिर पर धरकर कहने लगे कि हे राजन्! तुम भी धन्य हो जो सांसारिक पदार्थों के कीट न बनकर सवैराग्य ईश्वराधन में ही अधिकांश समय व्यतीत कर रहे हो। यही नहीं बल्कि तुमने अपने सदाचारपूर्वक दृढ़ भक्ति प्रभाव से हमको मानों अपने वश में ही कर डाला है। इसी हेतु से हम स्वयं उपस्थित हैं तुम अपना अभीष्ट वर मांगो। तब अत्यन्त नम्रतापूर्वक हस्तसम्पुटी कर राजा ने कहा कि भगवन् आपकी महती कृपा से मुझे अन्य सर्व सम्पत्ति प्राप्त है। केवल मैं आपकी भक्ति से ही वंचित हूँ। अवश्य आप मुझे अपने चरणों का दास बनाकर इस संसाररूपार्णव से पार करेंगे। अनन्तर अच्छा ऐसा ही होगा तुम अपने विश्वास को छोड़ नहीं बैठना, यह कहकर जब श्रीरामजी प्रस्थान कर गये तब मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि राजन्! कहिये तुम्हारी इच्छा पूर्ण हुई वा नहीं। यह सुन राजा मत्स्येन्द्रनाथजी के चरणों में गिरा और हस्त जोड़कर कहने लगा कि हे भगवन्! आपको बार-बार धन्यवाद है। आपकी महती कृपा से ही मेरे को तीनों देव तथा रामजी के दर्शन कर अपना जीवन सफल करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। अतः इस महान् उपकार के लिये मैं सदा आपका कृतज्ञ रहूँगा।
इति श्री मत्स्येन्द्रनाथजी पशुपति नृप समागम वर्णन

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