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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Friday, May 17, 2013

श्री देवराज इन्द्र साबर विद्या ग्रहण वर्णन ।


नारदजी के इस पूर्वोक्त व्यवहार से इन्द्र बड़ा ही शोकाक्रान्त हुआ और उसका चित्त इस प्रकार की विचारणा के प्रवाह में प्रवाहित हुआ कि अहो, इन योगी लोगों ने यह ऐसी अद्भुत विद्या कहाँ से प्राप्त की है जो किसी अन्य देव वा दैत्य के समीप नहीं देखी जाती है। अतएव ये लोग इस दुर्जय विद्यारूप शस्त्र के प्रभव से विजयी हुए निशंकता के साथ तीनों लोकों में अप्रतिहत गति से विचरण करते हैं और अपने कौतुक से ही जिसको चाहें तिरस्कृत कर सकते हैं इसका उदाहरण मैं स्वयं ही बन चुका हूँ। अतः कोई ऐसा सुदपाय अन्वेषित किया जाय जिसके द्वारा मैं इन लोगों के समीप से इस विद्या को उपलब्ध कर सकूँ। तत्पश्चात् एक दिन इन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पतिजी से भी इस विषय में परामर्श किया। बृहस्पतिजी ने प्रत्युत्तर में इन्द्र को ज्ञात कराया कि यह तो तुम स्वयं देख ही चुके हो कि यह लोग अपार शक्तिशाली होने के साथ-साथ स्वतन्त्र भी हैं। अतः इस कार्य सिद्धि के लिये उपायान्तराभाव से केवल कोई उपाय है तो सनम्रता सेवा ही हो सकता है। अतएव आप इसी उपाय द्वारा अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के वास्ते अपने भाग्य की परीक्षा करें। बस यह ही हमारी सम्मति है। यह सुनकर इन्द्र ने फिर कहा कि आपका यह कथन सर्वथा सत्य है मुझे भी यही उपाय उचित जान पड़ता है। परन्तु सेवा की किस रीति से और कहाँ पर की जाय मैं इस विषय में सन्दिग्ध हूँ। इसलिये इस विषय मं कोई निश्चय हो तो अच्छा है। यह सुनकर बृहस्पतिजी ने बतलाया कि मेरी समझ में तो यह आता है कि समस्त योगियों को आप निमन्त्रण देकर अमरापुरी में ही आहूंत करें और प्रकाश में घोषित कर दें कि आप लोग कृपया अवश्य शुभागमन से कृतार्थ करें क्योंकि हमने दर्शन प्रसन्नार्थ समग्र योगियों का चतुर्मासा कराने के लिये निश्चय किया है। बल्कि एक बात और करें वह यह है कि प्रसिद्ध योगिधौरेय मत्स्येन्द्रनाथादि के समीप एक विशेष सूचना भेजी जाय जिससे उनके आने में कोई सन्देह न रह जाय। गुरुजी की इस उचित सम्मति को शिर झुकाकर अंगीकृत करते हुए इन्द्र ने इस कार्य की पूर्ति के लिये अपने कार्यकत्र्ताओं को आज्ञा दे दी। जिससे शीघ्र भोजनोपकरण संचित किये जाने लगे और उक्त मन्त्र जपना की घोषणा कर दी गई। तथा अपने विश्वासी सेवकों के द्वारा मत्स्येन्द्रनाथजी, गोरक्षनाथजी आदि बड़े-बड़े योगियों की सेवा में विशेष सूचनाएँ प्रेषित की गई। यह समाचार उपलब्ध होते ही शनैः-शनैः प्रसन्नचित्त अति प्रतापशाली जाज्वन्यमान शरीर कान्ति वाले दिगम्बर तपस्वी आने लगे, इसी प्रकार कतिपय दिनों में समस्त इन्द्राभीष्ट महात्मा आ पहुँचे। जो एक उत्तम स्थान में, जो प्रथमतः ही सज्जीकृत किया गया था, निवासित किये गये और एक ऐसा प्रबन्ध किया गया कि जिससे प्रतिदिन प्रातःकालिक और सायंकालिक एक विशेष गोष्ठी हुआ करे। जिसके द्वारा उभय पक्षस्थ अनेक अपरिचित वार्ताओं का पारस्परिक बोध हो सके। इसी क्रम से समय व्यतीत होते हुए कितने ही दिन चले गये। परन्तु इन्द्र का यह अभिमत स्थिर नहीं हुआ कि कौन महात्मा की विशेष सेवा शुश्रुषाकर साबर विद्या प्राप्त की जाय। अन्ततः उसने विचारा-विचार के अनन्तर रेवननाथजी को इस कृत्य के लिये लक्ष्य ठहराया और तिरोभाव से उन्हीं के ऊपर अधिक शुश्रुषा की दृष्टि रखने लगा। अधिक क्या उनको इस रीति से प्रसादित किया कि वे इन्द्र को स्वकीय साबर विद्यारूप अद्वितीय शस्त्र प्रदान करने के लिये सहमत हो गये और प्रकाश में इन्द्र को यह भी कह सुनाया कि प्रकृत वार्ता प्रत्यक्षकार में परिणत की जाय तो और भी अच्छा है। क्यों कि आप लोगों की शश्रुषा के वशीभूत हुआ मैं किसी प्रकार भी परिवर्तित तो नहीं हो सकता हूँ परन्तु मुझे आशंका है कि कभी अन्त में इसका फल अनुकूल न हो और योगी लोग इस विधि को तस्करता वा, बश्चना समझ लें। रेवननाथजी की इस सूचना पर उपेक्षा रखते हुए इन्द्र ने कहा कि पीछे की बात पीछे देखी जायेगी आप कार्य आरम्भ तो करें। यह सुन रेवननाथजी ने इन्द्र के उत्तप्ततागर्भित उत्तावलेपन को देखते हुए समझ लिया कि इसको अधीर होकर कार्य निकाल लेना ही रूचिकर है। अतएव उन्होंने विद्या प्रदान करनी प्रारम्भ की और कतिपय दिन में उसे समस्त निज विद्यालंकार से अलंकृत किया। अनन्तर जब यह कार्य समाप्त हो गया तो इन्द्र ने आदानित विद्या की पुष्टि के लिये एक यज्ञ करना निश्चित किया। जिसका अत्यन्त समारोह के साथ वस्तु पूज्य एकत्रित कर आरम्भ भी कर दिया गया। योग्य व्यक्तियों को बड़े-बड़े परिताषोत्मक उपहार दिये गये और बड़े-बड़े आनन्दोत्सवों के साथ पूज्य व्यक्तियों की अभ्यर्थना की गई। इतने में योगियों का निर्दिष्ट सामयिक अवधिकाल भी आ पहुँचा और आप लोगों को विदा करने की विधि भी निश्चित कर दी गई। ठीक जिस समय अनेक देवताओं के सहित उपस्थित होकर इन्द्र ने सबके समक्ष इस बात को घोषित किया कि हे माननीय महात्मा पुरुषों! मैंने महात्मा रेवननाथजी के सकाश से साबर विद्या ग्रहण की है अतः आप लोग सादर आशीर्वचन प्रदान कर मुझे इसके तत्काल फल देने का शुभ वाक्य प्रयुक्त करो जिससे उपकृत हुआ मैं सदा आप लोगों का यश गायन किया करूँगा। इन्द्र की यह छùता देखकर सब योगी लोग बिगड़ उठे। इतने में मत्स्येन्द्रनाथजी ने इन्द्र को शाप देते हुए कहा कि हे इन्द्र! तुमने हम लोगों को क्या इसी अभिप्राय से बुलाया था। अस्तु यह भी रहो यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा थी तो हम से स्फुट क्यों नहीं कहा जिससे हम चाते तो सानन्द साबर विद्या का प्रदान कर देते। परन्तु छù घात से हम कहते हैं कि तेरी यह विद्या निष्फल रहेगी। यह सुनकर देवराज बड़ा ही विचलित हुआ और कहने लगा कि भगवन्! खैर जो कुछ हुआ सो तो हो गया परन्तु आप मेरे परिश्रम की ओर दृष्टिपात कर मुझे अनुगृहीत करंें। जिससे इस शाप की निवृत्ति हो और मैं अपने अभीष्ट फल को प्राप्त हो सकूँ। मत्स्येन्द्रनाथजी ने इन्द्र की इस अधीरताक्रान्त नम्रता युक्त सुकोमल अभ्यर्थना का श्रवण कर आद्र्रीभूत चित्त की प्रेरणा से कहा कि अच्छा द्वादश वर्ष तपश्चर्या द्वारा श्रीमहादेवजी की अर्चना करो और भविष्य में किसी के साथ भी छल न करने का निश्चय करो, और कहो कि किसी के साथ मैं छल करूँ तो मेरी साबर विद्या नष्ट हो, जब ऐसा स्वीकृत करोगे तब तुम्हारा अभिलषित मनोरथ फलदाता होगा। इन्द्र ने नाथजी के इस परामर्श को तथास्तु, कहते हुए शिरोधार्य समझा और निर्दिष्ट कृत्य की समाप्ति के उत्तर उक्त विद्या के लाभ को उपलब्ध हुआ। इसी प्रकार इन्द्र को प्रसन्न कर अनेक महानुभावों ने इस विद्या से लाभ उठाया। परन्तु अन्त में पारस्परिक छल कपट के दोष से दूषित होकर यह विद्या नष्ट हो गई। हाय काल तेरी कैसी अगम्य गति है। जिस विद्या की प्राप्ति में योगाचार्यों और अनेक देवता लोगों को अपरिमेय दुःख उठाना पड़ा था आज उसका कहीं कुछ भी दिग्दर्शन नहीं होता है। सच्च कहा है (सर्वंयस्य वशादगात्स्मृतिपदंकालाय तस्मै नमः)।
इति श्री देवराज साबर विद्या ग्रहण वर्णन ।

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