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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Monday, May 27, 2013

श्रीमद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ महोत्सव वर्णन

श्री गोरक्षनाथजी ब्रह्मागिरि से चलकर बहुत समय तक इधर-उधर भ्रमण करते हुए और योग का महत्त्व जानने की इच्छा वाले मनुष्यों को उस पद पर पहुँचाते हुए दक्षिण देशस्थ समुद्र तट के समीप वर्तमान कदरी (आधुनिक प्रसिद्धकजली) स्थान में पहुँचे। जहाँ सिंहलद्वीप से आते समय भी विश्रामित हुए। यह बड़ा ही ऐकान्तिक और रमणीय स्थल था जिसका मनोहारी दृश्य तथा जलवायु उनके चित्त को हर्षित करने वाला होकर उनके वहाँ निवास करने में सहायक हुआ। यह देख प्रसन्न हो उन्होंने उस स्थल को अपना आश्रय बना लिया। जिसमें दीर्घकाल तक निवास कर आपने अनेक शिष्य बनायें और उनको यथा अधिकारी निश्चित कर उसी क्रम से योग शिक्षा प्रदान करते हुए योगेेश्वर पद पर पहुँचा दिया। जिससे वे अपना ऐहलौकिक आगमन सफल जानकर उनकी विविध सेवा शुश्रुषा में तत्पर हुए। इस प्रकार पारस्परिक शिक्षा प्रदान तथा सेवा करते कराते सानन्द समय व्यतीत होने पर गोरक्षनाथ जी ने अपने शिष्यों को असम्प्रज्ञाताख्य समाधि का आनन्द अनुभवित करने के लिये उत्साहित किया। जिससे उन्होंने गुरुजी की कृपा वशात् कुछ ही दिनों में वहाँ तक निपुणता प्राप्त की कि जितने काल तक समाधि लगाने की इच्छा हो उतने काल तक लगा सके। यह देख गोरक्षनाथजी ने भी जब यह निश्चय कर लिया कि ठीक ये लोग इस कृत्य में उत्तीर्ण हो गये हैं तब तो उनके लिये आज्ञा प्रदान की कि द्वादश वर्षीय मर्यादा रख कर समाधिस्थ हो जाओ। गुरुजी की यह आज्ञा श्रवण करते ही समस्त शिष्य समाधि निष्ठ हुए जिनके शरीरों की रक्षा स्वयं श्री नाथजी करते थे। तदनु एक के अनन्तर दूसरा दूसरे के अनन्तर तीसरा इसी क्रम से सानन्द और विघ्न विहीनता के साथ द्वादश वर्ष व्यतीत हो गये। इस बहु लम्बे समय की समाधि में भी उत्तीर्ण देखकर गोरक्षनाथजी ने अपने शिष्यों के ऊपर आभ्यन्तरिक भाव से प्रसन्न हुए सोचने लगे कि ठीक हमने जैसा इनको उत्तम अधिकारी समझ कर तप कराने की उपेक्षा करते हुए एकदम अभ्यास वैराग्य द्वारा इस दशा में प्राप्त होने के लिये यत्न किया था ये वैसे ही निकले और क्रम प्राप्त प्रत्येक दशा में इन्होंने निपुणता प्रदर्शित की। ठीक ऐसी ही मनोधारणा के पश्चात् गुरुजी ने शिष्यों के शरीर को संस्कृत किया। जिससे निर्दिष्ट अवधि पर उन्होंने अपनी समाधि को उद्घाटित कर गुरूचरण रजको मस्तक पर धारण करते हुए नम्रता युक्त अनेक वन्दना की। साथ ही यह भी अभ्यर्थना की कि स्वामिन्! हमें कुछ आज्ञा प्रदान करो जिससे हम कुछ लोक हितार्थ कार्य संचालन कर अपने नाथनाम के अन्वर्थी हो सके। गोरक्षनाथजी स्वयं इस कृत्य को संचालित करने के लिये अवतरित हुए थे और अपने शिष्यों को अनेक कष्ट तथा प्रयत्न से इतने अधिक शक्तिशाली बनाने का भी उनका उद्देश्य यही था कि यह कुछ लोकहितार्थ कार्य संचालित कर अपने गम्य मार्ग को समीप करें। अतएव अत्यन्त प्रसन्नता के साथ निर्विकल्प हो उन्होंने आज्ञा दी कि अवश्य ऐसा विचार करना उचित और न्याय संगत है। क्यों कि मैंने इसीलिये तुमको मादृश बनाया है कि जिससे तुम हमारे उद्देश्य की पूर्ति कर सको और उसके साधनीभूत किसी भी क्रिया के निमित्त तुमको दूसरे का मुख न ताकना पड़े। अतः जाओ अभीलषित कार्य में कुशलता दिलाकर जनहितार्थ कृत्योत्पादन करते हुए उनके हृदय में वह भाव अंकुरित करो की जिससे वे लोग तुमको अपना हृदयनाथ समझे। ऐसा करने पर तुम अपने इस वेष धारण में धारण में कृत्य कार्य हो अनृण हो सको। यह सुनकर उनके हृदय में और भी अधिक उत्साह का प्रवाह प्रभावित हो गया। अतएव हसतसम्पुष्टी कर गुरुजी की पुनः-पुनः आदेश-आदेश शब्दपूर्वक साष्टांग प्रणाम करने पर उन्होंने वहाँ से गमन किया। तथा इतस्ततः अनेक देशों में भ्रमण करते हुए कितने ही पुरुषों को योग का तत्व समझाकर गुरु आज्ञा को सार्थक किया उधर गोरक्षनाथ जी अपने शिष्य को प्रेषित कर स्वयं दीर्घकाल के लिये समाधिनिष्ठ हो गये। उन्होंने विलशयनाथ नामक एक शिष्य को स्वकीय शरीर रक्षार्थ अपने समीप ही रख लिया था। उसने बड़ी सावधानी के साथ गुरुजी के शरीर की रक्षा करते हुए अपने शिष्यत्व का परिचय दिया। इस लम्बे चैथे समय के बीतने तक भारत वर्ष में योग विद्या प्रचार की सीमा पराकाष्ठों को पहुँच चुकी थी। ऐसा कोई देश अवशिष्ट न रह गया था कि जिसमें योग क्रियाओं के मुमुक्ष पुरुष न हो। यही कारण था प्रत्येक देशों में योगी लोग विश्रामित थे और योग दीक्षा ग्रहण करने वालों की प्रत्येक दिन परम्परा लगी रहती थी। यह दशा केवल भारतीयों की नहीं थी बल्कि इस धूम को श्रवण कर आलौकिक और अद््भूत शक्ति प्राप्त करने की अभिलाषा वाले विदेशी लोगों ने भी अपनी ग्रीवा उन्नत करते हुए भारत की ओर दृष्टि डाली और इतस्ततः भ्रमण करते हुए यथोपलब्ध योगी की विधि सेवा सत्कार कर उसे योग का मर्म जाना। इन महानुभाव में एक तुर्क भी प्रविष्ट था जिसने अग्रिम समय एक बार गोरक्षनाथजी से भी परामर्श किया था जिसका वर्णन आगे आवेगा। इसने भी योग में इतनी निपुर्णता प्राप्त की थी कि यह अपने शरीर को चिरकाल तक रख सका था। ठीक ऐसी ही दशा में गोरक्षनाथजी ने समाधि को खोला और अब तक जो महानुभाव योग दीक्षाकाङ्क्षी हुए यहाँ पर जमा हो रहे थे उनको अपनी कृपा का पात्र बनाकर उनके मनोरथ की सिद्धि की। इस कार्य की समाप्ति के अनन्तर उन्होंने स्वकीय हृदयागार में एक विलक्षण महोत्सव रचने का संकल्प किया। जिसमं प्रथम स्वगुरु मत्स्येन्द्रनाथजी की सम्मति लेना भी आवश्यकीय समझा गया। अतएव आपने प्रथम उनके आव्हानार्थ नाद बजाया जिकी मन्त्र संशोधित ध्वनि ने मत्स्येन्द्रनाथजी के श्रोत्रालय में पहुँचकर उनका ध्यान गोरक्षनाथजी की ओर आकर्षित किया। यह देख उन्होेंने शीघ्रता के साथ समझ लिया कि हमको परम प्रिय शिष्य गोरक्षनाथ ने स्मृत किया है। अतएव उन्होंने हमको शीघ्र चलना चाहिये न जानें किस आवश्यकीय काय्र के लिये बुलाया है, इत्यादि विचार करते हुए सूक्ष्म शरीर बनाकर वायुवेग द्वारा वहाँ से प्रस्थान किया। जो कतिपय क्षण में ही आप स्वकीय शिष्य के समीप पहुँचे। उधर से गुरुजी को अकस्मात् प्रकट होते देखकर गोरक्षनाथजी ने उन्हों की नाद पूजा करते हुए नमस्कारात्मक आदेश किया और उनके शीघ्र उनके शीघ्र उपस्थित होने के विषय में उनकी बार-बार स्तुति की। तदनु प्रसन्न हुए मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि शीघ्रतार्थनाद ध्वनि के द्वारा हमें आहूत करने का हेतु कौन विशेष कार्य है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गोरक्षनाथजी ने कहा कि स्वामिन्! यहाँ पर महोत्सव रचने की हमारी इच्छा है जिसमें हमने आपकी सम्मति लेना आवश्यकीय समझा इसीलिये आपको आहूत किया गया है अतः आप अपना अभिमत प्रकट करें। मत्स्येन्द्रनाथजी ने विर्विकल्पता से कहा कि तुम जो कार्य आरम्भ करो उसमें हमारी अभिमति की कोई प्रतीक्षा न किया करो क्योंकि तुम मेरे विश्वासपात्र शिष्य हो। अतः जिस किसी भी कार्य को आरम्भित करोगे वह सर्वथोचित और कर्तव्यतान्वित ही होगा। यह सुन गोरक्षनाथजी ने प्रार्थना की कि स्वामिन्! आपका ऐसा कहना निःसन्देह यथार्थ है तथापि हमारा आन्तरिक भाव इस बात के लिये बाध्य किया करता है कि प्रत्येक कृत्य में जहाँ तक सम्भव हो हम आपकी अभिमति से वंचित न रहें। शिष्य की इस उक्ति के समाप्त होते ही मत्स्येन्द्रनाथजी ने आज्ञा प्रदान कर दी किय यदि यही बात है तो हमारी भी अनुमति है किसी दृष्टमुहूर्त दिन को शीघ्र ही महोत्सव बना दिया जाए। गुरुजी की अनुमति मिलने पर गोरक्षनाथजी ने एक शुभमुहूर्तान्वित दिन स्मृतिगत कर उसी दिन अपने शीघ्रतार्थनादध्वनि द्वारा योगिसमाज को बुलाने का संकल्प किया। सहसा एक विचार उपस्थित हुआ, जिसके प्रकट करने के लिये उसने स्वगुरु तथा प्रगुरु से सनति अभ्यर्थना करते हुए आज्ञा मांगी। उन्होंने प्रसन्न मुख से उसको उत्साहित और धैर्यान्वित करते हुए अंकुरित मनोरथ प्रत्यक्ष करने को कहा। अतः उसने निशंक होकर बतलाया कि अग्रिम वर्ष जो गोदावरी गंगा स्नान का पर्व आने वाला है इस उपलक्ष्य पर बहुत जन समूह समूहित होगा। अतः ठीक यदि इसी अवसर पर अपना भी प्रस्ताव उपस्थित किया जाय तो अनायास ही अनेक जनसमुदाय हमारे उत्सव में सम्मिलित होने के लिये बाध्य होगा जिससे हमारा उत्सव महोत्सव उपाधि को धारण करने में समर्थ हो सकेगा, बस यही मेरा चिन्त्य अभिमत था आगे आपकी कृपा है स्वीकृति हो या न हो। यह सुनते ही गोरक्षनाथजी ओर दृष्टिपात करते हुए मत्स्येन्द्रनाथजी बोले कि वस्तुतः ऐसा ही होना चाहिये हमारी भी समझ में यही करना उचित है। क्योंकि ऐसा किये बिना हम अपने उत्सव के लिये उन्हीं योगियों को आहूत कर सकते हैं जो हमारे शीघ्र आव्हानार्थनाद ध्वनि के समझने की अभिसन्धित रखते हैं। परं इतनी ही व्यक्तियों द्वारा उत्सव महोत्सव पद वाच्य नहीं हो सकता है। अतः अवश्य प्रकृत प्रस्ताव का ही आश्रयण करना चाहिये। गुरूजी की अभिमति सूचक यह वाक्य श्रवण करते ही गोरक्षनाथजी ने अपनी सम्मति मिश्रित करने के लिये (तथास्तु) कहते हुए स्वशिष्य के प्रस्ताव को अंगीकृत किया और समय पर योग्य प्रस्ताव उपस्थिति के विषय मेंे उसकी प्रशंसा कर उसके प्रस्ताव स्वीकृतिविषयक सन्देह ग्रस्त चित्त को सन्देह शून्य किया। तदनन्तर सानन्द एक के बार दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा कर द्वादश मास व्यतीत हो चले। उधर गोदावरी कुम्भपर्व भी आरम्भ हो गया। इस उपलक्ष्य में मुमुक्षु जन उद्धारक बड़े-बड़े योगी तथा ऋषिमुनि विरक्त महात्मा लोग और मुमुक्षु प्रजाजन, जिन में राजा बाबू आदि प्रत्येक कोटि के मनुष्य थे, उपस्थित हुए थे। ठीक इसी अवसर पर योगेन्द्र गोरक्षनाथजी की आज्ञा मेले में प्रचारित की गई। इस समय कौन ऐसा देश था जिसमें निवास करने वाले लोग, गोरक्षनाथजी के नाम तथा उनकी लोकहितौषिता एवं अद्भुत शक्तिशालिता से परिचित न हों। किन्तु सभी देशीय पुरुषों ने उनके लोकहितार्थ अनुपम कृत्य का परिचय पा लिया था। अतएव उनकी सूचना के श्रवण मात्र से ही उनकी दिव्य मूर्ति का दर्शन करने और उनकी कृपा का पात्र बनने के लिये मेलास्थ अधिक जन समूह का चित्त उमडते-उमडते शरीर से बहिरभूत होने के लिये यत्न करने लगा। यह दशा देख पर्वस्नान की समाप्ति होते-होते प्रस्थानित जनसमूह की पंक्तिरूप परम्परा आरम्भ हुई जिसमें प्राथमिक पंक्तिगत योगी थे। जो काषाय रंगरंजित बडे+-बड़े पताकादि मंगलोपलक्षण चिन्ह रचना से सुशोभित थे। इस प्रकार योगि पृष्ठगामिनी पंक्ति में अनेक विरक्त और तदनुगामिनी में अनेक भक्ति वशिष्ट सेवक जन थे। ये लोग भी स्वकीय मांगल्य वस्तु जात से वंचित न थे। अतएव इस पंक्तित्रय की आधुनिक गमनकालिक विचित्र शोभा अद्वितीया थी। चित्ताकर्षक श्रोत्रपानीप्रय विविध बाध्य ध्वनि करता हुआ अनेक मार्गिक विश्रामानन्तर यह पंक्तित्रय कतिपय मास में गन्तव्यकजली स्थान में पहुँचा जहाँ सगुरू श्रीनाथजी विश्राम कर रहे थे। उधर गोरक्षनाथजी की दृष्टि अपरिमित जन समूह के ऊपर पतित हुई जिसको अवलोकित कर उन्होंने तदागमनोत्थ प्रसन्नता प्रकट करते हुए तदर्थ विविध भोज्य प्रबन्ध के लिये ऋद्धिसिद्धियों सहित कुबेर को आहूत करना अवश्यकीय जान अपनी भस्मपेटिका में हस्त डाला। जिससे कुछ भस्म उद्धृत की और मन्त्र जाप के अनन्तर कुबेर को लक्ष्य स्थान बनाकर उसे प्रक्षिप्त किया। तत्काल ही वह सेवार्थ उपस्थित हुआ और गोरक्षनाथजी को अपने आगमन से प्रसादित करता हुआ स्वाव्हान निमित्त से परिचित हुआ। यह देख श्रीनाथजी ने उसकी शीघ्रागमन विषयक प्रशंसा करते हुए उसको प्राप्त अवसर की प्रतीक्षा करने को कहा। जिसके लिये उसने (तथास्तु) शब्द का प्रयोग करते हुए अपने आपको तन्निर्दिष्ट समय से अवलम्बित किया। इधर स्वागतिक जनसमूह पंक्तित्रय की शीतल स्निग्ध सघनच्छाया वाले वृक्षों का आश्रय प्राप्त कर यथोचित रीति से स्थापित विविध पताकाओं की अनुपम विचित्र शोभा उपस्थित हुई। जिनके नीचे वैश्रामिक योगी सिद्धासन, भद्रासन, गोमुखासन, पùासनादि से आसीन हुए दर्शक जन संघ के आमोद-प्रमोद में शिथिलता उत्पादन करते हुए वैराग्यता का संचार कर रहे थे। गोरक्षनाथजी की कृपा से अनेक वर्षा होने से वह जंगल अधिक तरीमय हो गया था जिसका फल यह हुआ क वह वन अनेक प्रकार के सुगन्ध प्रद विचित्र पुष्पों से पुष्पित हो गया। अतएव इस पुष्पावली की मनोहारी गन्ध से प्रसन्न दर्शक लोगों का चित्त योगियों के दर्शन द्वारा पवित्र एवं सात्विक हुआ एकाग्रता को प्राप्त हो ध्यानमय हो जाता था। जिससे ध्यानावस्थित लोगों को यह भान नहीं होता था कि हम कौन और कहाँ है। फल यह हुआ कि इस अनुपम ध्यानानन्द ने कितने ही अनुकूलादृष्ट पुरुषों को सांसारिक स्वाप्नप्रीति से वियुक्त किया और अन्त में वे स्वोपरामता हेतु दृश्य योगियों की तुल्यता को प्राप्त हुए। इसी प्रकार विश्राम करने के अनन्तर दर्शन करते कराते कुछ देर में सायंकालिक भोजन का अवसर उपस्थित हुआ जिसमें श्रीनाथजी ने भोजन प्रदाता को, जो प्रथमतः ही इस अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था, प्रबोधित किया। तत्काल ही जिसकी जैसे भोजन में रूचि थी उस पुरुष के आगे वैसा ही भोजन परोसा गया। जिसको समस्त जनसमूह ने सहर्ष ग्रहण कर स्वकीय क्षुधा को प्रशान्त किया। परं जिस श्रेणी के लोग अभी तक गोरक्षनाथजी के महत्व तथा अपरिमित शक्तिशालिता से विशेष अभिज्ञ न थे वे इस घटना से अत्यन्त विस्मित हुए विविध प्रकार के संकल्प विकल्पात्मक प्रवाहित समुद्र में निमग्न हुए। उन्होंने सोचा था कि भोजन के लिये जो समाहि किया जा रहा है सम्भवतः कहीं भोजनालय में, जहाँ बनाकर अभी तैयार किया होगा, चलना पड़ेगा। परन्तु यह उनकी भूल निकली और उपरोक्त विचार करते समय ही अभिलषित भोजन आगे परोसा दिखाई दिया। साथ ही यह घोषणा भी श्रोतगत हुई कि सानन्द भोजन करो जैसी जिसकी अभिलाषा हो (अस्तु) इसी प्रकार अनेक विचारगत हुए लोगों ने भोजन की निवृत्ति प्राप्त की और वे आभ्यन्तरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार से गोरक्षनाथजी को हार्दिक नमनकर मार्ग गमन श्रान्ति विवशात् निद्रालय बन गये। यह दशा केवल उन अधिक लोगों की थी जो महोत्सव कुतूहल लालायित हुए मार्ग से संघ में मिश्रित हो गये थे। न कि गोरक्षनाथ के कृपापात्रों की जो इस महोत्सव से अलभ्य वस्तु की प्राप्ति के ही लिये आगन्तुक बने थे और प्रत्येक क्षण उनकी विशेष कृपा के चिन्ह में वद्ध दृष्टि रहते थे। क्योंकि इन विश्वासी महानुभावों की धारणा थी कि प्रत्येक मनुष्य की दशा श्रीनाथजी विमलहृदय में प्रतिबिम्बित है। अर्थात् वे सब की श्रद्धा और सचेचता के साक्षी हैं। अतः उदर सम्पूरित कर पशुवत् श्वास प्रश्वास से शरीर को लूहारभ्रस्ति का बना डालना उचित नहीं है। इसीलिये वे लोग निद्रालय बनने से वंचित रहे थे। (अस्तु) रात्री देवी ने अपने प्रस्थान की सूचना दी प्रातःकाल हुआ योगी लोग अपने प्रातःकालिक नित्य कृत्य से निवृत्त हुए एवं अन्य लोग भी स्वकीय कर्म समाप्ति के पश्चात् गोरक्षनाथजी की नूतन आज्ञा की प्रतीक्षा में दत्त चित्त हुए। तदनु कुछ ही क्षणों के अनन्तर आज्ञा घोषित हुई कि आज समीपस्थ समुद्र में कुछ योग शक्ति का चमत्कार दिखलाया जायेगा अतः दर्शक जन समुदाय इसके लिये सावधान रहे। साथ ही यह भी सूचित कर दिया कि यह दिग्दर्शन मध्यान्ह समय होगा। इस आज्ञा का प्रचार करते कराते दैनिक भोजन समय उपस्थित हुआ जिसमें जन समुदाय को रात्रेय वृत्तवत् तृप्त किया गया। कुछ देर के पश्चात् घोषित आज्ञा का समय आ पहुँचा जिससे समस्त जन समूह समुद्र के कूल पर स्थित हो चमत्कार की प्रतिपालना करने लगा। ठीक इसी अवसर पर मत्स्येन्द्रनाथजी, गोरक्षनाथजी तथा ज्वालेन्द्रनाथजी आये और जन समूह के मध्य सज्जीकृत एक उच्च स्थल पर विराजमान हो गये। बैठने के कुछ क्षण बाद मत्स्येन्द्रनाथजी ने अपने गुरुभाई ज्वालेन्द्रनाथजी की ओर इशारा किया जो जल क्रियात्मक चमत्कार दिखलाने का था। उन्होंने शीघ्र इशारे का मर्म जाना और खड़े हो गुरुभाई मत्स्येन्द्रनाथजी से आज्ञा मांगी। तत्काल आज्ञा प्रदानित हुई ज्वालेन्द्रनाथजी समुद्र की ओर अग्रसर हुए और पृथिवी स्थल की तरह सहस्र पदक्रम पर्यन्त जल के ऊपर चलकर वापिस लौट आये। इस चमत्कार के अनन्तर वे पुनः समुद्र में प्रविष्ट हुए जिनके समीप जाते ही जल इधर-उधर हो गया जिससे वे नगर गली की तरह फिर सहस्र पदक्रम अग्रसर हो सके और पुनःवापिस लौटे। जिनके पीछे-पीछे जल समरस होता हुआ दीख पड़ता था। इस चमत्कार के पश्चात् वे समुद्र तट पर खड़े हुए उन्होंने अपने तेज से समुद्र को सहस्र कदम दूर हटा दिया तथा फिर प्रवृद्ध कर अपने तक पहुँचाया। तदनन्तर जल में स्वकीय कुटीवत् प्रवेश कर ध्यानावस्थित हो गये जो एक प्रहर पर्यन्त स्थित रहे जिनके शरीर को जलने स्पर्शित नहीं किया था। इतना चमत्कार दिखलाकर ज्वालेन्द्रनाथजी अपने गुरुभाई मत्स्येन्द्रनाथजी की बराबर आ बैठे। तदनन्तर बड़े आनन्द और उत्साह के साथ कुछ क्षण में गोरक्षनाथजी ने अपनी आज्ञा घोषित की कि उपस्थित महानुभावो! अपने-अपने आसनों पर जाकर आराम करो कल फिर आज वाले समय पर प्रदर्शनी के लिये उत्कण्ठित रहना होगा। इस आज्ञा के श्रवण होते ही समस्त लोग स्वकीय विश्राम स्थल में जा बिराजे। तदनु सायंकाल हुआ जिसमें समग्र लोग स्वकीय सायंकालिक कृत्य से निवृत्त हुए। इसके पश्चात् भोजन प्रदाता की कृपा हुई जिससे दैनिक क्षुधा शान्तकर लोग रात्री अतिक्रमित करने का प्रयत्न करने लगे। रात्री भी प्रस्थानित हो गई प्रातःकालिक क्रिया से विमुक्त हो लोग कुछ क्षण आसनासीन हुए ही थे इतने में फिर भोजन की सावधानी रखने वाली घोषणा प्रचारित हुई। भोजन भी परोसा गया जिसको ससत्कार ग्रहण कर लोग निर्दिष्ट समय की प्रतिपालना में समाहित चित्त हुए। वह समय भी समीप आ पहुँचा। ठीक इसी समय सम्मार्जित एक-दूसरे स्थल पर प्रस्थानित होने की ओर आज्ञा सुनाई गई। जिसके श्रवण करते ही लोग सूचित जगह पर जाकर विराजमान हुए जहाँ कुछ क्षण के अनन्तर उक्त तीनोें महानुभावों ने आकर सम्मानित आसन को सुशोभित किया और कुछ क्षण के बीतने पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने गोरक्षनाथजी की ओर दृष्टिपात की जिसका पूवोक्त तात्पर्यथा। गोरक्षनाथजी खड़े हुए और उन्होंने प्रजा को सम्बोधित किया कि समस्त लोग हमारी तरफ दृष्टि रखे। यह सूचना देते ही समग्र जनसमूह उनकी ओर बद्ध दृष्टि हुआ। जिसके देखते-देखते गोरक्षनाथजी ने अपना शरीर क्रमशः मशक (मच्छर) की तरह सूक्ष्म बना डाला। जिससे वे आकाश में गमन कर गये और जन समूह की दृष्टि के अगोचर हो गये। पश्चात् फिर नीचे आये और पूर्वीय स्थूल शरीर में परिणत हुए। तदनन्तर आपने अपने प्रवृद्ध तेज द्वारा स्वीय शरीर को अग्नि की तरह जलाया और उसको फिर तद्धत् किया। इसके बाद आप मृतक मनुष्य, जो प्रथमतः ही मंगा रखा था, उसके देह में प्रवेश कर स्वकीय शरीर को मृतकवत् चेतनता शून्य दर्शाकर फिर अपने शरीर में प्रविष्ट हुए। तदनु आपने उस मृतक मनुष्य के शरीर का छेदन कर खण्डशः किया और फिर उसके खण्ड एकत्रित कर संजीवनी विद्या द्वारा उसको सजीव बनाया। इन चमत्कारों के पश्चात् जनप्राकार के अन्तर्गत रक्षित विस्तृत चैक में छोटी सी नई सृष्टि करी जिससे आंगण में छोटे-छोटे स्थान तैयार हुए। जिनमें तदनुकूल अनेक स्त्री-पुरुष निवास कर रहे थे। दर्शकों के अच्छी प्रकार देखने पर इस कृत्रिम माया को अपहृत कर गोरक्षनाथजी ने उस मन्त्र का अवलम्बन किया जिसके प्रभाव से पृथिवीमाता ने अपने मुख को प्रसारित किया। जिसमें श्रीनाथजी प्रवेश करते ही फिर पृथिवी पूर्ववत् सन्तल हो गई और श्रीनाथजी कुछ दूरी पर जाकर पृथिवी देवी के मार्ग प्रदान करने से बहिर निकले और गुरुजी के समीप आकर बैठ गये। यह देख दोनों गुरुभाइयों ने सत्कार सूचक वाक्यों द्वारा गोरक्षनाथजी की प्रशंसा की और आज के प्रशंसनीय प्रदर्शन को विसर्जित करते हुए फिर इसी स्थान में इसी समय पर स्वागतिक होने का जनता को परामर्श दिया। तदनु अत्यन्त आनन्द और मंगल के साथ पूर्वोक्त रीति से फिर वह समय उपस्थित हुआ जिसमें समस्त लोग प्रथमतः ही उत्कण्ठाबद्ध थे। अतः सभी उक्त जगह पर जाकर उक्त तीनों योगेन्द्रों के आगमन की प्रतिपालना में अवधानित हुए। ठीक इसी अवसर पर मूर्तित्रय की कृपा हुई और जनता सत्कारित आसनासीन होने के अनन्तर कुछ क्षण में मत्स्येन्द्रनाथजी खडे+ हुए। जिन्होंने प्राथमिक वार्षिकास्त्र, आग्रेयास्त्र, वातास्त्रादि के महत्त्व का दिग्दर्शन कराते हुए उस मन्त्रात्मक अस्त्र का महत्त्व प्रदर्शित किया जिसके वशीभूत हुए इन्द्रादि देवता भी विक्रमवीर की तरह उपस्थित हो योगी से सेवार्थ आज्ञा की भिक्षा मांगने लगते हैं। तदनन्तर सूर्य के प्रकाश को मन्द करणादि अनेक विलक्षण चरित्र दिखला कर आपने अपना प्रदर्शन समाप्त किया और स्वीय आसन पर आकर आप विराजमान हुए इसके पश्चात् गोरक्षनाथजी खडे+ हुए और उन्होंने लोगों को सम्बोधित कर उच्चारित होने वाले वाक्यों में ध्यान देने को कहा जिससे लोग तद्वत् हुए और गोरक्षनाथजी ने अपना वक्तव्य उपथित किया कि महानुभावो ! हमारी सूचना पर श्रद्धा रखते हुए आप लोगों ने जो यहाँ आकर हमारी आज्ञा की पालना की है इसके लिये आप लोगों को हमारा आन्तरिक हृदय असंख्य धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता है। परन्तु सम्भावना है आप लोगों में या इस वृत्तान्त को श्रवण करने वाले अन्यत्रस्थित कतिपय लोग ऐसे अवश्य निकलेंगे जो हमारे इस कृत्य को नाट्य अथवा बाजीगर का तमाशा समझ कर हमको उसके दिखलाने वालोें की उपाधि से भूषित करेंगे। तथापि ऐसा समझ कर बैठ जाने वालों को स्मरण रखना चाहिये कि उक्त तमाशा दिखलाने वालों को प्रजा के कुछ द्रव्य ग्रहण करने की अभिलाषा रहती है। इसीलिये उनके तमासे का आरम्भ है, किन्तु हमारा तमाशा न तो उन जैसा तमाशा है और न हम उन जैसे तमाशगीर हैं तथा न कोई हमको उनकी तरह आप लोगों से आदान करने की ही इच्छा है। केवल इसी हेतु से हमने इस महोत्सव का आरम्भ कर दृष्ट चरित्रों को प्रदर्शित किया है कि संसार में अधिक मनुष्य ऐसे हैं जो अपने आपको पुरुषार्थ शून्यतापूर्वक आलस्योपहत हुए अकर्मण्यता और पौरहीनता सूचित करते हुए एक क्षुद्र प्राणी के तुल्य समझ बैठते हैं। जो विशेष शक्तिसूचक किसी भी विषय की बात सुनकर चैंक उठा करते हैं और उस बात में अपनी अश्रद्धा सूचित कर नासिका संकुचित करते हुए बिना ही कुछ विचार किये मुख से कह डालते हैं कि अजी कहीं ऐसा हुआ करता है ये सब मनघडन्त वार्ता हैं। कोई ऐसा कुछ करने वाला है तो आओ हमारे सम्मुख कर दिखलाओ, इत्यादि। महानुभावों ! हमारा अभिप्राय ऐसे ही विषयग्रस्त श्रद्धाहीन आलसी, अपने आपको क्षुद्र मानने वाले पुरुषों को, सचेत करने का है। अतः उन लोगों को चेतना चाहिये वस्तुतः जैसा तुम अपने को समझ रहे हो वैसी बात नहीं है। देखो यदि तुम्हारे दो नैत्र हैं तो, अपनी कल्पना को मिथ्या मानों और हमारे तमाशे से शिक्षा ग्रहण करो। तथा कुछ पुरुषार्थी बनो योग का महत्त्व समझने में किश्चित भी आलस्य अपने अन्दर न घुसने दो और अन्वेषणा कर देखो इस शरीर में कैसी-कैसी शक्तियाँ छिपी हुई हैं जिन द्वारा तुम जैसे बनना चाहो बन सकते हो फिर देखोगे तुम्हारी वह कपोल कल्पना यथार्थ थी वा मिथ्या थी। गोरक्षनाथजी इत्यादि वाक्यों द्वारा जिस समय अपने महोत्सव का लोगों को मुख्योद्देश समझा रहे थे उस समय मत्स्येन्द्रनाथजी के एक विचार स्मृतिगत हुआ। वह यह था कि उन्होंने सोचा हमारे शिष्य गोरक्षनाथ ने जो गुरुभक्ति का विशेष परिचय देकर हमको यह वर प्रदान करने के लिये बाध्य किया है कि, तुम सम्प्रदाय के प्रवत्र्तक अर्थात् मुख्याचार्य मानें जाओगे, इस रहस्य के प्रकट करने का आज अच्छा अवसर है। अतएव वक्तव्य समाप्त कर गोरक्षनाथजी के आसनासीन होने पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने इस विषय की आज्ञा समस्त जन समुदाय में प्रचारित की। जो शीघ्र स्वीकृत हुई और विविध मांगल्य उपकरण मंगाये गये जिनसे अभिषिक्त कर गोरक्षनाथजी को उस उपाधि से सुशोभित किया गया और साथ ही उनको जगद्गुरु भी स्वीकृत किया गया। यही कारण है दीर्घकाल अतिक्रमित होने से किसी कारण द्वारा योगि सम्प्रदाय की ऐसी शिथिल अवस्था होने पर भी इस स्थान के सिंहासनासीन महन्त को इस देश निवासी लोग आज भी जगद्गुरु शब्द से सत्कृत करते हुए उस अतीत शुभ महोत्सव को स्मृतिगत किया करते हैं। (अस्तु) पूर्वोक्त कृत्य के अनन्तर महोत्सव समाप्ति की सूचना प्रचारित कर लोगों को अभीष्ट स्थान में जाने का परामर्श दिया गया। जिससे महोत्सव भंग कर जन समुदाय वहाँ से प्रस्थानित हुआ। ठीक इसी समय से प्रत्यक्षता प्राप्त कर गोरक्षनाथजी इस सम्प्रदाय के मुख्य विधाता एवं शिरोमणि समझे गये। जिनकी आज तक तद्वत् ख्याति है।
इति श्रीमद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ महोत्सव वर्णन 

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