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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Friday, May 24, 2013

श्रीमीननाथ वर प्रदान वर्णन

श्री मत्स्येन्द्रनाथजी अपने प्राणप्रिय शिष्य गोरक्षनाथजी के उपरोक्त प्रयत्न को देखकर आभ्यन्तरिक भाव से अत्यन्त प्रसन्न होते हुए उनक बार-बार प्रशंसा की और अतीव प्रेमावृत्त हुए आप उनके उत्साह वृद्धि के लिये उनको अपने वक्षःस्थल से संयोगित कर दत्तात्रेयजी की ओर इशारा कर कहने लगे कि महराज! क्या आप देखते हैं गुरुभक्ति विषय में प्राथमिक स्थान हमारे शिष्य इस गोरक्षनाथ ने ही प्राप्त किया है। उनके वाक्य का समर्थन करते हुए दत्तात्रेयजी ने कहा कि क्यां नहीं जब आपने इनकी शिक्षा तथ अलौकिक शक्ति प्राप्त कराने के लिये स्वार्थ निमित्त कुछ भी उठा न रखा तब तो इनका इतना शक्तिशाली और गुरुभक्त होना स्वाभाविक ही था। क्या आप नहीं समझते हैं कि आत्मा का आत्मा साक्षी है और वह आत्मा समस्त देहों में समरस होने से सबके हिताहित हो समझता है। अतएव आपने जो हित इनके लिये प्रयुक्त किया उसका अनुपम फल आपको उपलब्ध हुआ है। इस असार संसार में आप जैसे गुरु और इन जैसे शिष्यों का अनुकरण करने वाले गुरु शिष्य ही अपने सानन्द निष्कलंक जीवन को पूर्ण कर भावी जनों के आदर्शरूप हुए संसार में अपनी अक्षुण्ण स्वच्छ कीर्ति का विस्तार करने के लिये समर्थ हो सकते हैं। परन्तु खेद और महा खेद है महाराज! ऐसा समय आने वाला है जिसमें इस मर्म को नहीं समझा जायेगा। अर्थात् जिस जम्न मरणात्मक असह्य दुःख का छेदन करने वाली क्रियाओं के प्रभाव से आप लोगों ने संसार में नाना प्रकार की अद्भुत लीला दिखलाई हैं प्रथम तो इन क्रियाओं के ज्ञाता योगी कम मिलेंगे और जो मिलें भीगे तो वे ऐसे होंगे कि आनुपूर्बिक विद्या को नहीं बतलायेंगे। क्योंकि उनके चित्त में इस प्रकार के भाव अंकुरित हुआ करेंगे कि सम्भवतः शिष्य के मादृश होने पर हमारी प्रतिष्ठा रसातल में चली जायेगी। अतएव क्रमाविहीन विद्या निष्फल हुआ करेगी विद्या निष्फल होने से शिष्य की गुरु के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न होनी स्वाभाविक है। इस प्रकार इन अलभ्य वस्तुरूप क्रियाओं का कुछ ही दिन मेंं हास हो जायेगा। ऐसी दशा में होने वाले योगी योगक्रिया शून्य रहते हुए सांसारिक लोगों को थोथी वार्ताओं से तर्जना दिया करेंगे और भूलाभटका कोई सांसारिक मनुष्य योगक्रिया का मुमुक्षु हुआ तच्छिज्ञार्थ उनके समीप आकर शिष्य बनने की इच्छा प्रकट किया करेगा तो उसको शिष्य करने की तो वे अवश्य शीघ्रता करेंगे परन्तु योगक्रिया की शिक्षा विचारों ने स्वयं ली हो तो उसको दें। अतः इधर उधर की वार्ताओं से उसकी उदर पूर्ति कर मुफ्त सेवा कराते हुए द्वादश वर्ष में फावड़ी का नाम गुलसफा बतला कर इसी क्रम से उतने ही वर्ष बाद फिर किसी वस्तु का दूसरा नाम बतलाया करेंगे। इतने अरसे तक निष्फल सेवा कराके, अथवा करके गुरु वा शिष्य एक तो अवश्य ऐहलौकिक यात्रा समाप्त कर बैठेगा। इस प्रकार योगी के लिये जो मृत्यु प्राप्त होना ही एक लोकनिन्दा और लज्जा की बात है वही मृत्यु योगियों को अपना भोज्यस्थान बनावेगा जिससे उनका मरणा संसार में ऐसा समझा जायेगा जैसा अधमजीव कुत्ते बिडालादि का। मत्स्येन्द्रनाथजी ने आपकी वार्ता को अवश्यम्भावी बतलाते हुए कहा कि यह सत्य है ईश्वरीय नियमानुकूल परिवत्र्तित होने वाले काल के विचित्र चक्र को कोई अवरूद्ध नहीं कर सकता है। संसार और सांसारिक कृत्य की श्रावणिक मेघों जैसी गति है। जिस प्रकार वायुवेग वशात् श्रावण मासस्थ अभ्र स्थिर नहीं रहते हैं। किसी भी वद्दल की ओर आप दृष्टि डालिये वह क्षण-क्षण में कुछ का कुछ बन जाता है ठीक यही प्रकार इधर घटा लीजिये कालचक्र वेगवश से प्रचलित एवं अन्तर्धानी क्रियाओं का लुप्त तथा प्रकट होना अनेक बार देखा गया और देखा जायेगा। इत्यादि पारस्परिक वार्तालाप के अनन्तर गोरक्षनाथजी ने गुरुजी से अनुरोध किया कि अब यहाँ से प्रस्थान करना चाहिये। यह सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी ने दत्तात्रेयजी से प्रस्थान के लिये आज्ञा मांगी। उन्होंने सहर्ष आज्ञा प्रदान की जिससे पारस्परिक आदेशात्मक नमस्कार के पश्चात् वे तीनों महानुभाव वहाँ से प्रस्थानित हुए सुदामापुरी की ओर चले। जो कुछ दिन में देशाटन करते एवं जनों को योगोपदेश हुए माधोपुर नामक नगर की सीमा पर पहुँचे यह नगर समुद्र के समीप वर्तमान होने से अधिक उपजाऊ भूमिवाला नहीं था। अतएव इसके आस-पास असंख्य खोले खण्डरों से व्याप्त जंगल दीख पड़ता था ठीक इसी वन मेंं कुछ दिन निवास करने का निश्चय कर वहीं विश्रामित हुए उन्होंने एक गुहा तैयार की। जिसमेंं मत्स्येन्द्रनाथजी द्वादश वर्ष के लिये फिर समाधिस्थ हुए और गोरक्षनाथजी को आज्ञा दे गये कि जब तक हम समाधि का उद्घाटन करें तब तक मीनराम को समस्त क्रियाओं का दिग्दर्शन करा देना जिससे फिर हमको अधिक प्रयत्न न करना पड़े। गोरक्षनाथजी ने गुरुजी क इस आज्ञा को शिर झुकाकर स्वीकृत किया। यही नहीं उस अवधि तक मीनराम को अखिल योग साधनीभूत क्रियाओं का ज्ञाता बना डाला। जिससे कि वह अवसर प्राप्ति के समय सम्प्रज्ञात योगद्वारा असम्प्रज्ञात योग में अनायास से ही प्रविष्ट हो सकै। पदनु सानन्द और विघ्न शून्यता के साथ यह समय अतीत होने पर गुरूजी को जागृत दशा में होने वाले समझ कर गोरक्षनाथजी ने उनके शरीर को संस्कृत किया। ठीक निर्दिष्ट समय पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने समाधि का उद्घाटन करते हुए तथा अपने निरपाय कार्य की समाप्ति विषयक ईश्वर को धन्यवाद देते हुए उनका हर्ष बढ़ाया और मीनराम के विषय में वार्तालाप कर उसकी क्रिया ग्रहणता विषयक तीव्रता पूछी। गोरक्षनाथजी ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि स्वामिन्! व्युत्थानित चित्त पुरुष को क्रिया ग्रहणता में अवश्य कठिनता और विलम्बता प्राप्त होती है परं समाहित चित्त अर्थात् उत्तम अधिकारी पुरूष को उक्त दोनों विलम्बता प्राप्त होती है परं समाहित चित्त अर्थात् उत्तम अधिकारी पुरुष को उक्त दोनों वार्ताओं का सामना नहीं करना पड़ता है। यही कारण है इसने कुछ ही दिनों में औत्तमाधिकारिण क्रियाओं का मर्म समझ लिया है। जिससे इसका अग्रिम मार्ग सुगम हो गया। यह श्रवण करते ही मत्स्येन्द्रनाथजी आन्तरिक रीति से अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने उसी जगह पर मीनराम को स्वकीय चिन्हान्वित कर मीननाथ नाम से प्रसिद्ध किया। जिससे वह मत्स्येन्द्रनाथजी के अधीनस्थ विविध साबरादि विद्याओं आदानार्थ अधिकारी हो सका। अतएव मत्स्येन्द्रनाथजी ने जैसा उचित समझा उसी प्रकार उसे स्वाधिकृत नाना विद्याओं से समलंकत किया और समस्त देवताओं की तुष्टि के लिये उससे एक अनुष्ठान कराने की इच्छा से तत्कृत्य के अनुकूल स्थान की अन्वेषणार्थ वे वहाँ से प्रस्थानित हुए। जो कुछ दिनों में स्वीय अघटित वत् घटनाओं से जनों को विरामी तथा विस्मयी बनाते हुए, रिनग्धश्यामवनवृक्षलतापंक्तियों से व्याप्त, तथा विविधविमल जल स्त्रोत सम्पूरित कन्दरा वाला होने से, अनेक कमलतालावलम्बीहंससार समान सरोवर गृही विचित्ररचित चित्रानुषंगी श्रोत्रसुखप्रदमधुरध्वनि करते हुए नानापक्षिवृन्दों से सुशोभित, ब्रह्मगिरि नामक पर्वत में पहुँचे। जिसका अवलोकन करते ही मत्स्येन्द्रनाथजी ने गोरक्षनाथजी की ओर इशारा करते हुए कहा कि बस मेरी समझ में हमारे कार्य की सिद्धि के अनुकूल यही स्थान उपयोगी है। गोरक्षनाथजी ने गुरुजी के वचन का शीघ्र समर्थन करते हुए उत्तर प्रदान किया कि हां स्वामिन्! यह स्थान सर्वोत्कृष्ट एवं समस्त क्रिया निर्वाहनोपयोगी है। आपकी अभिलाषा इसी जगह पर ठहरने की है तो ठहर सकते हैं कोई वाधा की बात नहीं। इस प्रकार मिश्रिताभिभूत  होकर उन्होंने स्वनिवासार्थ एकसमतलस्थल अन्वेषित किया जिसको निजकार्योपकारक तथा अन्तराय शून्य देखकर अधिष्ठित बनातें हुए अपने कर्तव्य कृत्य का आरम्भ किया। अर्थात् यहाँ द्वादश वर्ष के लिये गुरुजी की रेख देख में शरीर को छोड़कर गोरक्षनाथजी स्वयं समाधि निष्ठ हुए। उधर मत्स्येन्द्रनाथजी ने मीननाथ को सर्वदेवताओं के प्रसन्नार्थ प्रथम एक साप्ताहिक अनुष्ठान नियुक्त कर तदनन्तर द्वादश वर्षीय महाकठिन तप करने में नियोजित किया। जिसकी तदवस्थोपयोगिनी सेवा शुश्रुषा मत्स्येन्द्रनाथजी स्वयं करते थे। अतएव वह कुछ ही दिनों में तदर्थ कठन अभ्यास से अभ्यस्त हो गया और उसने ऐसा घोर तप किया जिससे उसका शरीर महाप्रभावशाली तथा दिव्य कान्ति वाला दीख पड़ने लगा। बडे+ ही सुख और व्यवधान विहीनतोत्थ मानसिक अपरिमित हर्षता के साहित उसका यह समय व्यतीत बीत गया। प्रथम गोरक्षनाथजी ने समाधि दशास्थ अनिर्वचनीय आनन्दात्मक निद्रा देवी की गोद से अपने आपको विमुक्त कर जागृत दशास्थ प्राकृतिक विविध चित्र-विचित्र रंगरंजित, वायु वेग वशात् इधर-उधर एवं ऊपर-नीचे लहराते हुए पर्वतीय वृक्षलता पूंज को देखा। जो अनेक प्रकार के प्रफुल्लित फूलों से सनाथ हो रहा था। तद्नु गोरक्षनाथजी के अनुरोधानुसार मीननाथ को उस महाकठिनतोपहित द्वादश वर्षीयकालावच्छिन्न तपश्चर्यावस्था से विमुक्ति गत करने के लिये मत्स्येन्द्रनाथजी ने एक अत्युत्तम मुहूर्तान्वित दिवस स्मृति गोचर किया और उस तपोपलब्ध पवित्र नक्षत्रतावच्छिन्न शुभ दिन के प्राप्त होने पर मीननाथ को तप से विमुक्त भी कर दिया, जिससे मीननाथ अतीवानन्दित एवं प्रसन्नचित्त हो अपने आपको धन्य समझता हुआ अपने आपको धन्य समझता हुआ अपने पूर्वजन्म कृत कर्म के शुभ होने का अनुमान कर स्वविषयक मत्स्येन्द्रनाथजी की आन्तरिक अत्यन्त हितैषिता से उपकृत होकर अतीव नम्रभाव से उनमें श्रद्धा उत्पन्न करता हुआ उनकी स्तुति करने लगा। इसीलिये मत्स्येन्द्रनाथजी ने और भी अधिक प्रसन्न हो उसके निमित्त किये जाने वाले अपने प्रयत्न को सार्थक समझा और उसको समस्त देवताओं से वर प्रदान कराने के वास्ते गोरक्षनाथजी से परामर्श किया। उन्होंने प्रस्ताव को योग्य प्रतिपादित करते हुए मीननाथ को इस कृत्य का अधिकारी बतलाया। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी प्रसन्न हुए और अपनी कक्षान्तर्गत पेटिका से विभूति निकालने को बाध्य हुए। जिसके प्रक्षिप्त करने पर तल्लक्ष्यस्थानिभूत विविध विमानारूढ़ देवी-देवता आने लगे। प्रथम गणों सहित सकुटुम्ब त्रैलोक्याधिपति महादेवजी स्वागताभिमुख हुए। तदनु ब्रह्मा तथा विष्णुजी ने कृपा की जिनके आगमन की सूचना से सूचित हो अत्यन्त शीघ्रता के साथ अनेक देवता पधारे। गायनविद्या में कुशल गान्धर्वसंघ बुलाया गया जो इन्द्रजी के साथ ही आया था। उधर ऋद्धिसिद्धियों को साथ लाने के लिये कुबेर को आहूत किया गया इधर मंगलार्थ चैसठ योगिनियों ने आकर मत्स्येन्द्रनाथजी की वन्दना की। इतने ही में बावन भैरभ, अष्टबसु, वरुण, तारागण, नक्षत्र, वायु, सत्पऋषि, सभी आ पहुँचे। जिससे ब्रह्मगिरि अत्यन्त शोभायमान हुआ वैकुण्ठ की इष्र्या करने लगा। जहाँ गन्र्धवगण अपने विचित्र गायन और बाद्यध्वनि द्वारा देवसमूह का आनन्द-प्रमोद प्रवृद्ध करता हुआ पर्वत को गूंजारित कर रहा था। वहाँ उधर से योगिनियों का चित्ताकर्षक श्रोतपान प्रिय स्निग्धस्वरगीयमान तथा रक्ताधरोपर्योष्ठचांचल्य मन्दतोपहित मंगलमय शब्द ध्वनि उसकी सहायता में नियत थी और ऋद्धिसिद्धियों के प्रताप से जो महानुभाव जैसे भोज्य पदार्थ की अभिलाषा करता था वही उसी को प्राप्त होता था। ऐसा आनन्दोत्सव बहुत समय से नहीं हुआ था। यह केवल मत्स्येन्द्रनाथजी के प्राणाधिक प्रिय कुमार एवं शिष्य मीननाथ के अत्युच्च भाग्य का अथवा मत्स्येन्द्रनाथजी की आपरिमित प्रियता का नमूना था (धन्य ऐसी गुरुप्रियता को, जिससे शिष्य इस कोटि में पहुँच सके। (अस्तु) उक्त महोत्सव के समाप्ति समय मत्स्येन्द्रनाथजी ने समस्त देवताओं से निवेदन किया कि हमने अपने शिष्य इस मीननाथ द्वारा आप लोगों की तुष्टि के लिये प्रथम एक साप्ताहिक अनुष्ठान और तदनन्तर द्वादश वर्षकालिक, महाकठिनतोपहित, तप कराया है जिसमें सकुशलता उत्तीर्ण हो यह आप लोगों के अमूल्य वर प्रदान का पात्र हो गया है। इसीलिये हमने इस महोत्सव का आरम्भ कर आप लोगों को आहूत किया है यह वृत्तान्त आप महानुभावों से अज्ञात नहीं है। अतएव आप लोग इसे वचन दें कि हम यथावसर प्राप्त होने पर तथा कालिक सहायता के लिये प्रस्तुत रहेंगे। यह सुन मीननाथ को अधिकारी निश्चित कर समस्त देवता (तथास्तु) कहते हुए स्वकीय-स्वकीय स्थानों को गये। उधर इस कार्यसिद्धि विषयक प्रसन्नता प्रकट कर इन तीनों महानुभावों ने भी, जन्म मरणात्मक संसाररूपाग्नि से दग्धदेह विविधोपायनपाणि हुए, तद्दाहशमनार्थ जलात्मक समझ कर स्वकीय सेवा में उपस्थित होने वाले, मुमुक्षु जनों के उद्धारार्थ पृथक्-पृथक होकर वहाँ से देशाटन के लिये प्रस्थान किया।
इति श्रीमीननाथ वर प्रदान वर्णन ।

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