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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Monday, May 20, 2013

श्री माणिकनाथोत्पत्ति वर्णन ।


अपने शिष्य गोरक्षनाथकी प्रेरणानुसार उक्त कार्य पूरा कर श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी देशाटन के लिये प्रयागराज से प्रस्थानित हुए और उन्होंने निश्चय किया कि किसी ऐकान्तिक निरपाय पवित्र स्थान पर चलकर कुछ दिन समाधिस्थ हो ब्रह्मरन्वर से अधःपाती अमृत बिन्दु के आस्वादनानन्द का अनुभव करेंगे। इसी विचार से ग्राम-ग्राम, नगर-नगर भ्रमण करते हुए आप गोदावरी नदी के तटस्थ प्रदेश में आये। तब गोरक्षनाथजी ने प्रार्थना की कि भगवन्! इसी प्रान्त में एक धामा नामक ग्राम है। जिसमें माणिक नाक का एक भक्त है। वह बड़ा ही साधु सेवक तथा मुमुक्षु पुरुष है। जिसको मैं कुछ प्रसाद, जब आप प्रयाग में शरीरान्तर प्रविष्ट हुए उस समय भ्रमण में दे गया था। अतः अब देखना चाहिये उसका क्या समाचार है। यह सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी ने उसे ग्राम की ओर चलने की आज्ञा दी और चार दिन में भ्रमण करते एवं जनों को अपने दिव्यदर्शन तथा अमृतमय सारगर्भित उपदेशात्मक वचनों से अतीवानन्दित करते हुए इसी धामा नामक नगर में आ उपस्थित हुए और मणिक के विषय में उन्होंने ग्राम्यलोगों से वार्तालाप किया। प्रत्युत्तरार्थ लोगों ने कहा कि महाराज! कतिपय वर्ष बीत गये वह तो प्रमत्त हो गया है। आप लोगों जैसा ही एक साधु यहाँ आया था जिसके साथ उसका कुछ पारस्परिक आलाप हुआ था। तत्पश्चात् नहीं जानते उसके क्या हुआ क्या नहीं उसकी जैसी दशा है वह घोर कठिन और भयानक है। हम लोगों ने इस अवस्था में आजपर्यन्त किसी मनुष्य को नहीं देखा है। प्रारम्भ में तो वह अपने समस्त वस्त्रादि वस्तु संचय की गठड़ी बनाकर शिर धारण किये हुए सप्ताह तक एक जगह पर स्थित रहता हुआ अलक्ष्य शब्द की ध्वनि करता रहा। उसकी यह गति देखकर उसके अखिल कौटुम्बिक लोग तथा अन्य हम ग्रामीण लोग बड़े ही विस्मित हुए और उसको ग्राम में लाने के लिये बाध्य किया गया। परं उसको एक जगह से दूसरी जगह लाने का हमारा निरोध करना व्यर्थ ही था। क्योंकि उसका दैवगति वशात् पदक्रम होना बन्द हो गया था। यह देख हम लोगों के आश्चर्य की सीमा और भी अधिक बढ़ गई और सब हस्तमर्दन करने लगे कि अब इसकी क्या दशा होगी। तदनन्तर उसको जंगल से ग्राम में ले जाने के विषय में निराश होकर हमने उसको बैठने के लिये कहा। परन्तु वह बैठने में भी कृत्य कार्य न हुआ। निरन्तर हस्तसम्पुटी किये अलक्ष्य शब्द की घोषणा करता था। इस प्रकार इसके दुःख से दुःखित कुटुम्बी लोगों ने बड़े-बड़े ज्योतिषी पण्डितों से इस विषय में परामर्श किया। एवं उन द्वारा बतलाई गई विधि के अनुसार यथा शक्तिदान पुण्य भी किया परन्तु उनका सब प्रयत्न निष्फल हुआ। यहाँ तक कि वह किसी का दिया हुआ भोजन भी नहीं खाता था और वायु वेग से उड्डीयमान हुए वृक्षों के शुष्क पत्ते, जो उसके वंशगत होते थे, उन्हीं को खाकर शरीरयात्रा की पूर्ति करता था। अनन्तर जब सप्ताहपूर्ण हो गया तो उसका शारीरिक बन्धन खुला और शिर धड़ी गठड़ी को वहीं डालकर ग्राम में न जाता हुआ जंगल में ही इधर-उधर भ्रमण करता रहा। क्षुधा लगने पर वृक्षपत्तों से वा तृण से ही उसकी निवृत्ति कर लेता था और कोई मनुष्य उसके साथ वार्तालाप करने की इच्छा प्रकट करता तो वह उसको कुछ भी प्रत्युत्तर न देता था। यदि वह मनुष्य अधिक वार्ताओं से उसको बाधित करता तो वह उस जगह से भाग जाता था। उसकी यह दशा देखकर लोगों ने भी आखिर पीछा छोड़ दिया। इसके बाद कतिपय दिन तक तो उसने ऐसी ही दशा में व्यतीत किये परन्तु जब उसको भी इस बात का निश्चय हो गया कि अब मुझे कोई क्लेशित नहीं करेगा तब तो उसने एक ही जगह पर स्थित होकर तप करना आरम्भ किया। जो बावाहारी हुआ आज तक उसी अवस्था में है जिसके दर्शनार्थ सुदूरवर्ती भी लोग आकर उसके विषय में श्रद्धा प्रकट करते हुए उसे और उसके जन्मदाता माता-पिता को हृदय से असंख्य धन्यवाद देते हैं। एवं इस ग्रामवासी हम लोग भी उसे अपना शिरताज समझते हुए नित्य प्रातःकाल उसके चरणारविन्द में नमस्कार किया करते हैं। क्योंकि हम को अत्यन्त प्रसन्नता और गौरव है कि हमारा ग्राम भी एक उत्तम तथा पवित्र ग्राम है। जिसने एक ऐसे अलौकिक विचित्र तपस्वी को अपने में उत्पन्न होने के लिये स्थान दिया है जिसके पुण्योपल्बध पवित्र और घोर तप ने बहु संख्यक लोगों की अनुचित विषयान्धकार में प्रसुप्त आत्माओं को जागृत कर डाला है। एवं पुरातन तपस्वियों की गाथा सुनकर जो लोग एतादृश घोर तप को असम्भावी तथा कप्लित और स्वप्नेकी बातें कहा करते थे उनकी आँखों में अपना तादृश घोर तपरूप अंजन लगाकर उनको दिखला दिया कि अरे! पामर जीवों असत्य अनुचित सांसारिक निस्सार जटिल जाल में बद्ध हुए तथा कर्तव्याकर्तव्य विमूढ़ हुए तुम लोग जैसा कुछ समझ बैठे हो वैसा नहीं है। किन्तु जो कुछ प्राप्त पुरुषों ने कहा वा शास्त्रों में लिखा है सब सत्य है। अतः किसी को इस संसार के व्यर्थ अस्थायी माता कृत्य से कुछ ग्लानि हो गई हो और इसीलिये वह मनुष्य योनि प्राप्त करने के मुख्योद्देश्य को प्राप्त करने में प्रयत्नलीन हो रहा हो तो आगे बढ़े मेरा अनुकरण करे। ग्राम्य लोगों की यह बात सुन मत्स्येन्द्रनाथजी आभ्यन्तरिक भाव से उसके ऊपर बडे+ ही प्रसन्न हुए और लोगों के कथन पर कृतज्ञता प्रकट करते हुए उनको सूचित करने लगे कि वह पूर्व जन्म का मुमुक्षु तथा तपस्वी पुरुष है अतएव उसको इधर आकर्षित किया गया है और इसको इधर आकर्षित कर इस दशा में प्राप्त करने वाला यह योगी यह हमारा शिष्य गोरक्षनाथ है जिसको आप लोग उसके साथ वार्तालाप करने वाला कह रहे हो। बस क्या था मत्स्येन्द्रनाथजी के चरणों में गिरना आरम्भ किया और अनेक नम्र वचनों द्वारा माणिक के आरम्भित वृत्त के पूछने की प्रार्थना कि यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी की आज्ञानुसार गोरक्षनाथजी ने कहा कि गुरुजी के कथनानुसार वह शुभ संस्कारी पुरुष है। परन्तु प्रकृति देवी के नियमानुसार इस व्यावहारिक चक्र में पतित्त होकर वह विस्मृत संस्कार हो गया था। इसीलिये मैं उसको इस सांसारिक चक्र से निकाल कर अभिलषित मार्ग पर पहुँचाने की इच्छा से यहाँ आया उसके घर जाकर उसे कुटुम्बियों से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि वह कृषि कर्म करने के लिये क्षेत्र में गया है। कुछ क्षण में ग्राम से भोजन की निवृत्ति के अनन्तर मैं भी वहीं पहुँचा क्योंकि हम लोगों का कार्य ही भवरूप सागर में निमज्जनोन्मज्जन करते हुए मुमुक्षु जनों को बाहर निकालकर उनको शुभ मार्ग पर लगा देना है। अतएव मैं जब कृषि कर्मरत लोगों से मणिक का क्षेत्र पूछता हुआ उसके पास उपस्थित हुआ तब उसने मुझे योगी समझकर नम्र नमस्कार की। परन्तु मैंने उसके साथ कुछ क्षण अधिक वार्तालाप करना निश्चय कर उससे कहा कि भक्त मैं तो तो क्षुधा से पीडि़त हूँ। यदि कुछ तुम्हारे समीप है तो दीजिये जिससे क्षुधा शान्त हो जाय। यह सुनकर उसने निर्विकल्पता से कहा कि महाराज! आइये बैठिये मेरे पास रोटी रक्खी है जो मैं प्रातःकाल जब घर से आया था साथ ले आया था जिनमें से कुछ तो मुझ आपके दास ने अपने व्यवहार में लाई और कुछ अवशिष्ट हैं। यदि आज्ञा है तो मैं आपकी सेवा में उपस्थित करता हूँ लीजिये। यह देख मैंने भी सादर तथा भक्ति सहित समर्पण करते हुए जानकर उनके लेने के लिये आगे हस्त बढ़ाया और मुझे उसका स्वभाव तथा उसकी भक्ति देखने की आन्तरिक अभिलाषा भी थी इसीलिये जब उसने मुझे रोटी दे दी तब मैंने उनमें से कुछ ग्रास खाकर उसके सम्मुख ही वे रोटी कुत्ते के आगे डाल दी और उससे कहा कि अब क्षुधा निवृत्त हो गई कुछ जल और पिला दो उसने शीघ्र ही कूप से, जो समीप में वर्तमान था, शीतल जल लाकर मुझे पिलाया। अर्थात् अधिक क्या जब तक मैं वहाँ पर स्थित रहा तब तक मेरी क्षुश्रुषा के लिये वह हस्त बान्धकर खड़ा रहा। यह देख मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। अतएव मैंने वहाँ से प्रस्थान करने की तैयारी करते हुए कहा कि मैं तुमसे बड़ा ही प्रसन्न हुआ हूँ। तुम्हारे इस विनम्र सीधे सादे स्वभाव तथा भक्ति ने हमारा चित्त आकर्षित कर लिया है। इसीलिये जो अभीष्ट हो धन जनादि, जिससे ऐहलौकिक जीवन के आनन्द का अनुभव कर सको, मांग लो। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने को समर्थ हूँ। प्रत्युत्तर में उसने कहा कि महाराज! द्वार पर आये आप जैसे महानुभावों की सेवा शुश्रुषा करने के लिये रूक्खा सूका टुकड़ा परमात्मा ने अच्छा प्रदान किया हुआ है। जिसके द्वारा गार्हस्थ्य धर्म का निर्वाहन चले जाता है। अतः धनादि की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। परं यदि आप सचमुच प्रसन्न हुए हों तो ऐहलौकिक सुख को जाने दीजिये मुझे उस सुख की अभिलाषा है जिस सुख से सुखी हुए आप औरों को सुखी बनाने के वास्ते देशाटन करते हो। यह सुन मुझे जो जानना था उसका असने स्वयं प्रादुर्भाव कर दिया। इसीलिये मैंने उसके ऊपर कृपा की और कुछ विभूति उसके मस्तक पर लगा दी जिसके प्रभाव से उसको अपने पूर्वकृत कार्य का स्मरण हो आया। ठीक उसी समय से उसने सांसारिक मिथ्या प्रपंच को हार्दिक तिलांजलि देकर स्वकीय आगममार्ग स्वच्छ करने की अभिलाषा से ईश्वराधन करना ही सर्वथा उचित समझा। इसीलिये उसकी वर्तमान अवस्था हुई है। गोरक्षनाथजी की यह बात सुनकर लोगों की मणिक के विषय में और भी अधिक श्रद्धा उत्पन्न हुई और उनके निश्चय हो गया कि ठीक यह हमारा श्रद्धास्पद पूर्व जन्म से ही नहीं इस जन्म से भी अद्वितीय तपस्वी तथा प्रभावशाली पुरुष है। तदनु ग्रामीण लोगों के साथ पारस्परिक वार्तालाप कर लोगों के निर्दिष्ट मार्गानुसार दोनों महानुभाव उस स्थान पर पहुँचे जहाँ मणिक तप कर रहा था। उधर जब मणिक की दृष्टि स्वाभिमुख आते हुए उनके ऊपर पड़ी तब तो उसने आभ्यन्तरिक भाव से आनन्दित होकर अपने मन ही मन में दोनों के प्रति भक्ति प्रकट करते हुए मानसिक नमस्कार की। परन्तु वह अपने स्वरूपाकार में शिथिल न हुआ क्योंकि वह जानता था कि योग क्रिया का बड़ा ही महत्त्व है इस क्रिया में संलग्न हुआ योगी सम्मुख आये ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गुरु तक को शारीरिक सत्कार नहीं दे सकता है। क्योंकि क्रिया भंग हो जाने पर अतःपात की आशंका है। ठीक यह ही विचार कर मत्स्येन्द्रनाथजी तथा गोरक्षनाथजी को उसने मानसिक नमस्कार किया। इतने में उनकी भी दृष्टि माणिक के ऊपर पड़ी और उन्होंने देखा कि यह तो अतीव घोर तप में संलग्न है क्योंकि वह अन्य खाद्य वस्तुओं को तिलांजलि देकर केवल पवनाहारी हो गया था। अतएव उसकी अस्थि त्वचा ही शेष जान पड़ती थी। शरीर शुष्क होकर पिंजर की उपमा में परिणत हो गया था जिसका अवलोकन कर वज्र हृदय वाले पापी से पापी पुरुष भी हृदय करूणा से परिपूर्ण हो द्रवीभूत हो जाता था। अतएव दर्शक पुरुष अपने मिथ्याभिमान और अहंकार को छोड़कर हार्दिक भाव से यह कहने के लिये बाध्य हो जाता था कि धन्य हो तपस्वी को गर्भ में धारण करने वाली मातः ! तुम धन्य हो। ऐसे विचित्र पवित्र अलभ्य अद्वितीय पुत्र रत्न को जन्म देकर अपने गर्भस्थान को पवित्र करने वाली मातः! तुम धन्य हो। ऐसे पुत्र रत्न को उत्पन्न कर तुम केवल हमारे श्रद्धास्पद माणिक जी की माता नहीं इस प्रान्त अथवा देश मात्र के जन समुदाय की माता बनी हो। अतः आपको तथा आपके इस वीर पुत्र तपस्वी को हमारा बार-बार हार्दिक नम्र नमस्कार है। (अस्तु) इस प्रकार की अशोढ़ दशा देखकर मुमुक्षु जनों द्वाराक करूणार्द हृदय श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने गोरक्षनाथजी की ओर इशारा करते हुए कहा कि अब इसको इस दशा से विमुक्त कर स्वाकार में परिणित करो। गुरुजी की यह आज्ञा प्राप्त होते ही गोरक्षनाथजी ने उसको स्वारम्भित क्रिया से मुक्त कराकर उसमें अपना शिष्यत्व आरोपित किया और उसको गुरुजी की आज्ञानुसार कुण्डलादि स्वचिन्हान्वित कर द्वादश वर्ष पर्यन्त फिर तप कराने के लिये एक दिन गुरु मत्स्येन्द्रनाथजी से परामर्श किया। प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि अभी कुछ दिन और भी शान्त रहना चाहिये क्योंकि अभी इसका शरीर उतना सबल नहीं हुआ है जिससे उस अवधि तक पहुँच सके। वस्तुतः मेरी सम्मति के अनुसार तो अब उतने समय तक कराने की कोई आवश्यकता नहीं है। अतः कुछ दिन की तपस्या के अनन्तर जब तक यह उपयोगी विद्या में निपुण हो सके तब तक इसको अपनी समीप रखकर विद्या सिखलाने में पूरी सहायता देना। हम यहाँ से भ्रमण करते हुए बंगदेश की ओर जायेंगे। तुम बदरिकाश्रम में जाओ और इस कार्य के पूरा करने में जितनी शीघ्रता हो सके करना। तदनन्तर इसको एकाकी भ्रमण कर मुमुक्षु जनोंद्धार में तत्पर हो, यह उपदेश देकर स्वयं हमारे समीप आ जाना क्योंकि पूर्व निश्चित किया गया समाधिस्थ होने का विचार अवश्य पूरा करना है। यह सुन गुरुजी के चरणाविन्द में आदेश-आदेश कर श्री गोरक्षनाथजी सशिष्य वहाँ से प्रस्थानित हुए और देशाटन करते तथा माणिकनाथ को अपने अनेक अपरिचित वृत्तों से परिचित करते हुए कुछ दिन में बदरिकाश्रम में जा पहुँचे। वहाँ जाने पर हठ विद्यादि अनेक विद्याओं का परिचय देकर उसको फिर कुछ दिन तप करने के लिये उत्साहित किया। अनन्तर श्री गोरक्षनाथजी की आज्ञानुसार कुछ दिन एक पदाश्रित हो तप करने पर जब उसका शरीर ठीक साध्य हो गया तथा अन्य भोजनादि की आवश्यकता न रख कर वह केवल वायु द्वारा ही शरीर यात्रा निर्वाहित करने लगा तब उसको अपने वचनों में दृढ़ कर अपनी अनावश्यकता समझाते हुए गोरक्षनाथजी वहाँ से अन्यत्र चले गये। माणिकनाथ के तप की अवधि उन्होंने केवल पाँच वर्ष की रखी थी अतएव यह समय उन्होंने पर्वतीय बड़े-बड़े दिगम्बर तपस्वी ऋषिमुनि योगियों की पारस्परिक गोष्ठी में व्यतीत किया और नैमिषारण्यादि अनेक स्थानों में विचरते तथा योगोपदेश करते-करते जब यह अवधि समीप आई तब गोरक्षनाथजी ने भी उधर प्रस्थान किया और कुछ दिन के अनन्तर आप माणिकनाथ के पास आये। जब आपने यह देखा कि हमारा शिष्य ठीक उसी हमारी निर्दिष्ट विधि के अनुसार अटल खड़ा हुआ गुरु आज्ञा के घोर कठिन नियम को रक्षित कर गुरुभक्ति तथा ईश्वर भक्ति की पराकाष्ठा प्रदर्शन पूर्वक अपने महत्त्व तथा उच्चाभिलाषित्व का परिचय दे रहा है। तब तो श्रीनाथजी हार्दिक भाव से आत्यन्तिक प्रसन्न हुए और उसको उस अवस्था से विमोचित कर स्वकीय आज्ञा पूर्ण कर दिखलाने के विषय में अनेक मधुर वचनों द्वारा सन्तोषित करण पूर्वक धैर्यान्वित तथा सुखान्वित किया। यह देख माणिकनाथ ने अपने गुरु देव को बार-बार आदेश करते हुए हर्ष प्रकट कर अपना अहो भाग्य समझा और गोरक्षनाथजी का ऐसा नैरीह्य स्वाभाविक जनोंद्धारक तत्परतात्मक प्रेम, तथा हित, अवलोकित कर अपने श्रद्धान्वित पवित्र हृदय से निस्सरित मधुर वाणी द्वारा उनकी स्तुति की। इसके पश्चात् गोरक्षनाथजी ने उसको अनेक बाण विद्या तथा साबर विद्याओं का तत्व समझाया और जब यह निश्चय हो गया कि अब इसमें कोई त्रुटि नहीं रह गई है तब एकाकी विचरण कर जनों को योगोपदेशदानार्थ कटिबद्ध हो जाय, यह आज्ञा सुनाकर स्वगुरु श्री मत्स्येन्द्रनाथजी को लक्ष्य ठहराकर उस जगह से गमन किया।
इति श्री माणिकनाथोत्पत्ति वर्णन ।

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