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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Thursday, May 2, 2013

श्री मत्स्येन्द्रनाथ भद्रकाली युद्ध वर्णन

श्री मत्स्येन्द्रनाथ जी वारामलेवार से गमन करके शनैः-शनैः भ्रमण करते हुए कोकन देश में आये और वहाँ आडूल नाम के ग्राम की जिस पवित्र भूमि में भगवती देवी भद्रकाली का मन्दिर था ठीक उसी के समीपस्थ स्थल में आपने अपना आसन स्थिर किया। देवी का मन्दिर जितना ही स्मरणीय था उतना ही चित्त को आल्हादित और शान्त करने वाला भी था। यही कारण था मेले के समय असंख्य लोग देवी को प्रसन्न करने और अनेक लोग मन्दिर की शोभा देखने के लिये यहाँ आते थे। इतने अधिक लोगों का संगठन होना इस बात को सूचित करता था कि उस समय जितनी देवी भारत में विराजमान थी उन सब में इसी का उच्चासन था। अतएव इस देवी की बड़े ही धूमधाम के साथ पूजा हुआ करती थी। जिसकी श्रद्धाभक्ति और दार्शनिक लाभ की चैंतरफ घोषणा हो रही थी। श्री मत्स्येन्द्रनाथजी को यही घोषणा प्रेरित कर इधर लाई थी। अतएव भोजनादि से निवृत्त हो आप कुछ देर में अपना आसन रक्षित कर देवी के दर्शनार्थ मन्दिर में गये। परं जिस समय आप मन्दिर में पहुँचे थे उसी समय देवी किसी कारण वशात् चिन्ताकुल हुई बैठी थी। उसी अवसर पर उपस्थित हो आपने उसके अभिमुख अपना सिर झुकाया और कहा कि मातः हम बहुत दूर से आपकी महिमा सुनकर दर्शनार्थ यहाँ आये हैं। अतः आप हार्दिक प्रसन्नता प्रकट कर हमको अपने पवित्र दर्शनों का लाभ करायें। देवी प्रथमतः ही अपने प्राकृतिक स्वभाव में नहीं थी। अतः उसने आपकी अभ्यर्थना पर विशेष ध्यान नहीं दिया। यह देख आत्यन्तिक विनम्र भाव से मत्स्येन्द्रनाथजी ने पूर्ववत् फिर प्रार्थना की। यह सुन कुछ नासिका संकुचित कर देवी कह उठी कि तुम कहाँ से दुःख देने के लिये यहाँ आ खड़े हुए। जाओ चले जाओ यात्रा के उपलक्ष्य पर यहाँ आना अब हम अन्य कार्य में दत्तचित्त हैं। मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि भगवती आप जानती हैं हम ऐसे पुरुष नहीं हैं जो इतने समय तक यहीं बैठे हुए भिक्षान्न से उदर पूर्ति करते रहें। किन्तु तब तक तो न जानें हम कहाँ तक पहुँचेंगे और कौन-कौन से कार्य करेंगे। अतएव आप कृपा करें और अपने दर्शन से, जिसमें कि प्रेम झिलकता हो, मुझे पवित्र कर मेरा ऐहागमन सफल करें। हाँ यदि आप अपने चिन्त्य कार्य से कुछ देर में ही निवृत्त होने वाली हों तो मुझे समय निर्धारित कर आज्ञा दीजिये मैं निर्दिष्ट समय पर फिर उपस्थित होऊँगा। परं खेद है ईश्वरीय इच्छा कुछ और ही थी और मत्स्येन्द्रनाथजी ने जिसको एक बार मातः, इस सम्बोधन से सत्कृत किया था उसके सम्मुख विवश हो आस्त्रिक प्रयोग करना था। अतएव अवश्यम्भावी समय के अनुकूल प्रेरित हुई देवी कह उठी कि जाओ-जाओ मैं कह चुकी हूँ तुम चले जाओ नहीं तो मेरे असली रूप का दर्शन होगा। जिसके प्रकट करने के साथ तुम्हारा काल भी अवश्यम्भावी होगा। इससे मत्स्येन्द्रनाथजी समझ गये कि अन्त हो गया। इस देवी में कितना अहंकार प्रविष्ट हो गया है। आश्चर्य है साधारण मनुष्य भी अतिथि के सत्कारार्थ अग्रसर हुआ देखा जाता है। इस पर भी यदि उसकी भक्ति से कोई उपस्थित हुआ हो तो फिर कहना ही क्या है। परं दुःख है यह इतना नहीं विचारती है कि यह अतिथि जिसकी शरण में आया है वह मैं कौन हूँ और यह अतिथि भी कौन है। आखिर फिर आपने कहा कि देवी मैं तृतीय बार फिर आपसे अभ्यर्थना करता हूँ आप हार्दिक प्रेम दिखला कर हमारा हर्ष बढ़ायें। यह सुन देवी क्रोधान्वित हुई और कहने लगी कि क्या तुम मेरा पराक्रम नहीं जानते हो जो इतना हठ कर रहे हो। यदि मैं अपने आपे में आ गई तो तुम्हें मेरे तेज में इस प्रकार लीन होना पड़ेगा जैसे पतंग अग्नि में होता है। यह सुनकर आपने सोच लिया कि ठीक है प्रार्थना से कार्यासिद्धि नहीं है। अतः अब तो हमको भी अपनी शक्ति अवश्य प्रकट करनी चाहिये। इसीलिये आपने कहा कि देवी आप मुझे अपनी शक्ति से अनभिज्ञ बतलाती हो परं मैं कहता हूँ कि आप भी मेरी शक्ति से अनभिज्ञ ही हो। अन्यथा आप मेरा इतना अनुचित तिरस्कार नहीं करती। अब मैं इस बात के लिये तैयार हूँ आपने जो पराक्रम दिखलाना हो सो दिखलाओ। आपने छोटा समझकर मेरा तिरस्कार किया है परं याद रहे सूर्य देखने में छोटा ही दीख पड़ता है तथापि अपने असह्य तेज पँूज से समस्त संसार को प्रकाशित करता है। तद्वत् ही आप मुझे भी जानों। यह सुन घृत डालने से प्रज्वलित अग्नि की तरह उत्तेजित हो देवी ने कहा कि जटाजूट और भस्मी आदि से शिवरूप धारण कर जो तुम हमको अपना भय दिखलाते हो हम इस धोखे की बातों से डरने वाली नहीं है। मुझ में वह शक्ति है जिसके द्वारा यहीं उपस्थित रहती हुई मैं जगत् की रक्षा करती हूँ और राजा को रंक तथा रंक को राजा बना सकती हूँ। अतएव तुम समझो मेरे साथ विवाद करने से तुम्हें लाभ के स्थान में हानि का मुख देखना पड़ेगा, क्योंकि तुम मेरे सामने कुछ नहीं हो अर्थात् तुच्छ हो। तृण के समान हो। मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि बलि राजा के सम्मुख बावन भगवान प्रथम तुच्छ ही मालूम होते थे किन्तु समस्त राज्य दे कर भी वह उनके पदक्रम की पूर्ति न कर सका। ठीक ऐसा ही आप मुझे ही समझ लो। बस क्या था ज्यों ही मत्स्येन्द्रनाथ जी ने ऐसा कह कर अपने वाक्य की समाप्ति की त्यों ही देवी ने अपने अस्त्र का आश्रय लिया और वह प्रहार करना ही चाहती थी ठीक उसी समय मत्स्येन्द्रनाथजी ने अपनी झोली से कुछ विभूति निकाली और आग्नेय मन्त्र के जाप पूर्वक उसे आकाश की और फेंक दिया। जिससे तत्काल ही चारों दिशा अग्निमय हो गई। इस भयंकर उष्णता से व्याकुल हो घोर शब्द करती हुई भद्रा देवी हस्त में त्रिशूल धारण कर मत्स्येन्द्रनाथजी की ओर अग्रसर हुई। यह देख उसकी अनुयायिनी डंकनी, शंकनी, योगिनी भी विविध शस्त्र धारण किये हुए उसके साथ ही मत्स्येन्द्रनाथजी के ऊपर टूट पड़ी। ठीक उसी अवसर में मत्स्येन्द्रनाथजी ने फिर विभूति निकली और उसे रूद्र शक्ति मन्त्र के साथ ऊपर फेंक दिया। जिसके अमोघ प्रभाव से प्रेरित हुए ग्यारह रूद्र प्रकटि हो गये तथा प्रकट होते ही मत्स्येन्द्रनाथजी की सहायता के लिये तत्पर हुए। यह देखकर भद्रा अत्यन्त विस्मित हुई सोचने लगी कि मालूम होता है यह अपने विषय में जो उपमा दे रहा था ठीक वैसा ही है। अतः नहीं जानती अन्त में क्या होने वाला है। हमारी जय होगी वा इसी की ही। तथापि एक बार मैं अपने भाग्य की परीक्षा कर लेती हूँ। इस परामर्श के अनन्तर उसने विक्राल रूप धारण किया। तथा घोर शब्द सुनकर वायु सेवनार्थ आकाश में भ्रमण करने वाले देवता लोग अत्यन्त आश्चर्यान्वित हुए कहने लगे कि क्या कारण है आज अकस्मात् यह क्या हुआ जो देवी क्रुद्ध हो गई है। तदनु अपने-अपने विमानों पर आरूढ़ हुए वे युद्ध स्थल में आये और देवी का विस्मापक घोर युद्ध देखने लगे। भद्रिका बड़े ही कुशल गणों के सहित युद्ध कर रही थी। जिसके युद्ध कौशल्य को देखकर देवता लोग निश्चय करते थे कि इसके साथ विवाद कर मत्स्येन्द्रनाथजी ने बड़ी भूल की है। इस समय मत्स्येन्द्रनाथजी शान्त स्वभाव से खड़े हुए देवी के युद्ध चातुर्य का तथा उसकी शक्तिशालिता का अनुमान कर रहे थे। देवी ने जब आपको इस प्रकार सानन्द खडे+ देखा तब तो अपने प्रयोगित बाणों को निष्फल गये निश्चित कर अमोघ वज्रास्त्र छोड़ा। उसको इस अन्तिम अस्त्र के सफल होने की पूर्ण आशा थी परं हतभाग्य प्रबल मन्त्र से निरूद्ध हो वह भी किम्प्रयोजन ही रहा। यह देख देवी के शोक का कुछ ठिकाना न रहा। अब तो बहिर से आग्नेयास्त्र की और अन्तर से शोक की अग्नि से दंदह्यमान हुई वह विचलित सी हो गई। तदनन्तर अनुयायिनी योगिनियों के प्रबल उत्साह से उत्साहित हो कुछ देर में वह फिर अपने होश में आई और अकर्मण्यता प्रकट न करने के लिये उसने अनपेक्षित भी एक धूम्र बाण और छोड़ा जिससे चारों दिशा अन्धकारमयी हो गई। इसके ऊपर मत्स्येन्द्रनाथजी ने बायवीय मन्त्र के साथ विभूति फेंद दी जिससे प्रबल वेग वायु चलने लगा। अब तो धूम का एक जगह ठहरना असम्भव हो गया। कुछ ही देर में देखते-देखते न जानें धूम कहाँ से कहाँ चला गया। तदनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी ने फिर कुछ विभूति फेंकी। जिससे देवी को मूच्र्छा प्राप्त हो गई। यह देख अन्य शंकनी योगिनीयों ने महा कोलाहल किया जिसके श्रवणमात्र से भयभीत हुए पशु-पक्षी इधर-उधर दौड़ने लगे। ऐसी दशा में आवश्यकता इस बात की थी कि उन विचारियों को कुछ शान्ति का अवलम्बन कराया जाता पर बात उलटी ही हुई। भद्रिकादेवी ने पृथिवी पर गिरते-गिरते और भी महा भयंकर शोर मचाया जिसको सुनकर प्रतीत होता था मानों प्रलयकाल समीप आ गया है। उस घोर शद्ध से प्राणियों के भय की तो कौन क्या बात कहै पर्वत भी कम्पते दिखाई देते थे। वृक्ष स्वतः ही पृथिवी से अधर हो इधर-उधर दौड़ने लगे थे। इस प्रकार यद्यपि कुछ देर के लिये समस्त प्राणी संकट में पड़ गये थे तथापि यह कहना उचित नहीं कि उस समय देवी सुख का अनुभव करती हो। वह मूच्र्छित हो उस दशा में पहुँची थी जिसको अपने प्राणों का भी सन्देह होने लगा था। इसी हेतु से अत्यन्त शीघ्रता के साथ उसने श्री महादेवजी का स्मरण किया। तथा अभ्यर्थना की कि भगवन् इस अवसर पर मुझे महा संकट प्राप्त हुआ है। अतः शीघ्र रक्षा करो-करो। इस समय आपके अतिरिक्त मेरा कोई आश्रय नहीं है। हे कैलासधीश मैं आपकी दासी हूँ। अतः शीघ्र उपस्थित हुइये। यह सुन भक्तवत्सल दयानिधि श्री महादेव जी से कुछ क्षण भी कैलास में न ठहरा गया। देवी की आत्र्तवाणी सुनकर आपका हृदय आद्र्रीभूत हो गया। अतएव आप तत्काल ही वहाँ से प्रस्थान कर घटनास्थल में पहुँचे। ठीक उसी समय जब कि मत्स्येन्द्रनाथजी श्रीमहादेवजी को अकस्मात् सम्मुख आते देखा तब कतिपय पादक्रम आगे बढ़कर सिर नमन तथा आदीश-आदीश शद्धपूर्वक उनका स्वागत किया। शिष्य की प्रणति का प्रत्युत्तर दे श्री महादेवजी ने कष्टदशा में पड़ी हुई देवी की ओर देखा। और मत्स्येन्द्रनाथजी से कहा कि देवी तो घोर कष्ट का अनुभव कर रही है। तुम धन्य हो जिसका पराजय करना दुःसाध्य था उसको तुमने नीचा दिखला दिया। एवं इसको जो अपने सामथ्र्य का महान् अभिमान था और उससे बड़े-बड़े राक्षसों को पराजित कर यह अपने आपको अजयमान बैठी थी आज इसको पराजित कर तुमने यह दिखला दिया कि किसी का भी संसार में अपने आपको अजय मानना सर्वथा अनुचित है। कारण कि इस प्राकृतिक संसार में एक से एक अधिक शक्तिशाली अवश्य रहता है। तथा किसी अभिमानी के अभिमान को खण्डित कर अपने आत्मा को सर्व के प्रत्यक्ष दिखला देता है। इस बात का परिचय तुमने अच्छा दे डाला है। अतएव हम तुम्हारे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हैं। तुम अपने अभीष्ट वर की याचना करो। उसे प्रदान कर हम अपने वचन की रक्षा करेंगे। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि भगवन् जब मैं आपका शिष्यत्व ही ग्रहण कर चुका हूँ तब मैं यह नहीं जानता कि जो कुछ दातंय वस्तु आपके पास थी वह आपने मुझ से छिपाकर रखी होगी। ऐसी दशा में बतलाइये मैं आपसे और क्या मांगूँ। तथापि आपके वचन की सफलतार्थ मैं आपसे इसी वर की याचना करता हूँ कि मेरे ऊपर आप सदा ऐसही कृपादृष्टि रखें कि मैं अपने मार्ग में अविचलित भाव से चलता रहूँ। श्री महादेवजी ने कहा कि अच्छा ऐसा ही होगा। आज तुम्हारे ऊपर हम अशेष प्रसन्न हुए हैं। कारण कि तुमने आज एक बहुत बड़ा कार्य कर दिखलाया है। बल्कि इतना ही नहीं तुमने हमारे शिष्यत्व को प्रकाशित कर संसार के इतिहास में उसे चिरस्थायी बना डाला है। परं अब तुम्हें उचित है देवी को शीघ्र स्वास्थ्य की प्राप्ति कराओ। यह अपने अभिमान का पूरा फल पा चुकी है। मत्स्येन्द्रनाथजी ने यद्यपि अपने आग्नेयास्त्र का प्रथम ही उपसंहार कर लिया था जिससे भद्रिका से अतिरिक्त कोई प्राणी इस समय कष्टाभिभूत न था तथापि देवी की मूच्र्छा निवारणार्थ समन्त्र विभूति प्रक्षिप्त कर आपने शीघ्र गुरुजी की आज्ञा का पालन किया। अब तो भद्रि का शीघ्र सचेत हो उठी और सम्मुख उपस्थित ही महादेवजी के चरणों में गिरी। तथा अभ्यार्थना करने लगी कि भगवन् मैं आज आपकी महती कृपा से ही सजीव विराजमान हूँ। अतएव प्राप्तावसरिक अमोघ दया के विषय में आपको एक बार नहीं बार-बार धन्यवाद है। आप सदा भक्तों के हितकारी और स्वल्प प्रार्थना से शीघ्र उपस्थित हो उनको अपने आशुतोषत्व का परिचय देने वाले हो। यह सुन श्री महादेवजी ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए उसको समझाया कि तुमको इस मत्स्येन्द्रनाथ के साथ विवाद करना उचित नहीं था। परन्तु अच्छा जो कुछ हुआ सो तो हो चुका आगे के लिये सचेत रहने की आवश्यकता है। कारण कि यह योगी है किसी से भी तिरस्कृत नहीं हो सकता है। अतः तुम को हर एक समय इसके अनुकूल रहना चाहिये। श्रीमहादेवी भद्रिका ने आपकी सूचना पर सश्रद्धा सिर झुकाया और वह मत्स्येन्द्रनाथजी से अपने कृत्य के विषय में क्षमा करने के लिये प्रार्थना करने लगी एवं कहने लगी कि अये मत्स्येन्द्रनाथजी मैं आपकी शक्ति से सर्वथा अनभिज्ञ थी। अतः अनभिज्ञता वशात जो मैंने कुछ अनुचित कह सुना डाला हो उस पर आप क्षमा प्रदान करें। तथा ऐसा न समझें कि मैं आभ्यन्तरिक भाव से आपके विषय में द्वेष रखूँगी कारण कि मैं जानती हूँ यद्यपि आपका अपने कलयाण के निमित्त तो अपनी सिद्धियों का चमत्कार व्यर्थ है। तथापि मुमुक्षु, जनों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये तथा अभिमानियों के अभिमान को नष्ट कर उनके हृदय में वैराग्य स्थापित करने के लिये ऐसा कर दिखलाना कोई व्यर्थ बात नहीं है। अतएव अब मैं भी सदा आपकी आज्ञानुकूल ही रहूँगी। और जो कुछ आप कहेंगे उसे शिरोधार्य समझुंगी। यह सुन कृतज्ञता प्रकट करते हुए मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि बस इतना ही करना तुम भी हमारी प्राप्तावसरिक सहायता के लिये तत्पर रहना। देवी ने कहा कि यदि मैं आपकी आज्ञा को पूरी न करूँ तो ब्रह्महत्यादि दोषों से दूषित हो जाऊँ। यह सुन देवी को धन्यवाद दे, श्रीमहादेवजी तो कैलास को गये और मत्स्येन्द्रनाथजी गदा तीर्थ के लिये प्रस्थानित हुए।

1 comment:

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