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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Wednesday, August 7, 2013

श्री नाथान्तर्धान वर्णन ।

वैक्रमिक सम्वत् 420 में नेपाल राज्य का उचित प्रबन्ध कर श्रीनाथजी पर्वतीय प्रदेशों में भ्रमण करने लगे। जो अनेक विषम मार्गों को उलंघित कर कुछ दिन के बाद तिब्बत और तिब्बत से चीन साम्राज्यन्तर्गत प्रविष्ट हुए। इसके कतिपय प्रान्तीय विचरण के द्वारा अपने योगोपदेशात्मक ढोल की आवाज लोगों के श्रोतों तक पहुँचाकर आप तुर्कि स्थान में भ्रमण करते हुए आपके कतिपय वर्ष व्यतीत हो गये थे। तथापि इस बात का कोई निश्चयात्मक उल्लेख नहीं पाया गया कि आपने इन देशों में कितने मुमुक्षु जनों को उद्धृत किया। अन्ततः इस सुदीर्घ पर्यटन का परिश्रम उठाकर भी आप श्रान्त न हुए। और कुछ वर्ष के अनन्तर अब देश में पहुँचे। वहाँ से इस देशीय लोगों के ’ मक्का नामक माननीय पवित्र स्थान के समीप जाकर एक अनुकूल स्थल में आपने अपना आसन स्थिर किया। यहाँ तक के लोग अजपानाथ के शिष्यों के भ्रमण द्वारा योग के महत्त्व में कुछ आस्था रखने लगे थे। यही कारण था आपका आसन स्थल समग्र दिन आपके दर्शनार्थ आगन्तुक लोगों से परिपूर्ण रहता था। एक दिन सायंकाल होते ही जब आपकी आज्ञानुसार वे समस्त लोगों अपने-अपने गृह पर चले गये तब इस देश में आगन्तुक योगियों के मुख से जो लोगों ने आपकी महिमा सुन रखी थीं आपने किसी न किसी प्रकार के अनुष्ठान द्वारा उसको सार्थक कर लोगों के हृदयागार में अपनी उतनी ही प्रतिष्ठा प्रतिष्ठित करने का विचार स्थिर किया। अतएव आप लोगों के चले जाने पर कुछ अन्धकार के समय रूपान्तर में परिणत हो मक्केशरीफ के प्रार्थनेय विस्तृत स्थल में पहुँचे और मन्दिरद्वार के अभिमुख पैर कर सो गये। तदनु कुछ ही देर में प्रार्थना करने का अवसर उपस्थित हुआ। एवं प्रथम प्रार्थक ने आकर ज्यों ही देखा तो उसको मक्के के सम्मुख पैर किये हुए एक मनुष्य सोता हुआ दिखाई दिया। यह देख उसने कहा कि अरे ! तू कौन है जो प्रार्थनावसर से पहले ही यहाँ आ सोया है। उठ और अपने आपको सम्भाल किधर पैर कर रहा है। यह सुनकर भी आप गाढ़ निद्रास्थ पुरुष की तरह मौनत्वाश्रित हुए सोते ही रहे। बल्कि यहाँ तक कि उसके अतीव समीप आकर जगाने के लिये अनेक प्रयत्न करने पर भी आप टस मे मस न हुए। इससे वह कुछ क्रुद्ध  हुआ  और आपके पैर पकड़कर मन्दिर द्वार के विपरीत करने लगा।  पैरों के हस्त लगाने और उनको इधर करने तक तो वह यही समझ रहा था कि यह यहीं का कोई मनुष्य है परन्तु यह उसको आत्यन्तिक विस्मय में डालने वाला कोई अन्य ही मनुष्य निकला। कारण कि वह जब-जब आपके पैर पकड़कर जिस-जिस ओर फेरता था। उसको उसी-उसी ओर मन्दिर का द्वार दिखलाई देता था। हय देख वह स्वयं आश्चर्य के समुद्र में विलीन हुआ अन्य मनुष्यों के समीप गया। उसने उनको भी इस घटना से विज्ञापित किया। इधर प्रार्थना का अवसर भी आ पहुँचा था। अतएव कुछ मनुष्य तो प्रार्थना करने के लिये और अधिक इस श्रुत कुतूहल के निश्चय प्राप्त करने के लिये वहाँ आ उपस्थित हुए। तथा आपको फिर तादृश चक्र देकर श्रुत वृत्तान्त का निश्चय करने लगे। परन्तु बात असत्य नहीं थी उन्होंने जिस-जिस और आपके पैर किये उसी-उसी ओर मक्के का दर्शन हुआ। समस्त दर्शक लोग हस्त से हस्त विमर्दन करते और विविध विचित्रोदाहरणों के सहित अनेक गाथाओं का उद्घाटन करते थे। ठीक ऐसी ही दशा में श्रीनाथजी ने अपाना वास्तविक वेष स्फुटकर उनसे कहा कि उपस्थित सज्जनों ! इस घटना को देखकर तुमको विशेष चकित नहीं होना चाहिये। यद्यपि योगियों के लिये यही क्या इससे भी अधिक महान् आश्चर्योत्पादक घटना उपस्थित कर दिखलाना कोई बड़ी बात नहीं है। तथापि इसका यह मतलब नहीं कि योगी लोग इन्हीं सिद्धियों से अपने आपको कृतकृत्य समझते हों। कृतकृत्य होने के लिये तो ब्रह्मरूपावस्था की प्रापक नैरन्तर्य सामाधिक दशा ही विशेष उपकारक हो सकती है। फिर क्या बात है हम लोग कृतकृत्य करने वाली उस दशा का परित्याग कर जहाँ तहाँ इन सिद्धियों का उद्गार क्यों और किस कारण से किया करते हैं। यह इसी हेतु से किया करते हैं कि उस सामाधिक दशा में निपुण होकर हम स्वयं तो कृतकृत्य होने के योग्य हो गये है परं करुणानिधि भगवान् आदिनाथजी की प्रेरणानुसार अन्य मुमुक्षु जनों को भी उस पद पर चढ़ाने की अभिलाषा रखते हैं। और अपनी सिद्धिरूप यन्त्र के द्वारा अनेक जनसमुदाय को अपनी ओर आकर्षित कर निरीक्षण किया करते हैं कि इस समुदाय में कौन ऐसा पुरुष है जो उस पद पर चढ़ने के लिये तैयार हो। ठीक इसी के अनुकूल मैंने अपनी सिद्धिस्वरूप यन्त्र से तुमको आकर्षित कर एकत्रित किया है। और मुमुक्षु जनान्बेषणा के तथा कर्तव्य पालना के लिये यह और प्रकट कर देता हूँ कि जिस शुद्धाशय महानुभाव को सांसारिक विविध विचित्र दुःखों ने अत्यन्त तिरस्कृत कर डाला हो और वह इसीलिये स्वयं उनसे निसंग रहने की अभिलाषा कर प्रत्युत उन्हीं का तिरस्कार करना चाहता हो तो आज से ही गार्हस्थ्यमोह पाश को खण्डशः कर किसी योगी का आश्रय ग्रहण कर ले। आज वह दिन है जिसमें सुयोग्य योगियों का सम्मेलन होना दुर्लभ नहीं है। इतना होने पर भी कोई मुमुक्षु मनुष्य इधर ध्यान न देकर दुःखत्रय से पीडि़त रहै तो उसका ऐसा करना वैसा ही है जैसा किसी का जल प्रवाहित नदी के कूल पर बैठा रह कर भी तृषा से आकुल रहना। बस यही आवाज हमने आप लोगों के श्रोतों तक पहुँचानी थी। अब हम अपने आसन पर जाते हैं। भगवान् मक्लाधीश महादेव तुमको कल्याण प्रदान करे। इस कथन के अनन्तर आप तो अपने आसन पा आ विराजे, उपस्थित लोग स्वकीयाभीष्ट कार्य में प्रवृत्त हुए। यद्यपि प्रातःकाल होते ही फिर अनेक नर-नारियों ने उपस्थित हो आपकी उचित अभ्यर्थना की और चार मुमुक्षु महानुभावों के हृदय को आपकी चेतावनी रूप बाण ने असाधारण विभिन्न भी कर दिया तथापि इस समय कोई मनुष्य आपकी शरण में नहीं आया। तदनु आप यहाँ से प्रस्थानित हो फिर भ्रमण करने लगे। और कुछ समय के अनन्तर भारत विभाजक शलेमान पर्वत पर आ विराजे। उधर उक्त चारों मुमुक्षु महानुभाव यद्यपि किसी विशेष कारण से उस समय तो आपकी चरण छाया में न आ सके थे परन्तु पीछे से एकत्र सम्मति कर वे महोपरामी हुए आपके अनुगामी बने। और जिधर आपके गमन का परिचय मिलता गया उधर चलते रहे। परं हत भाग्य वे अभी तक आपको प्राप्त न कर सके थे। यहाँ जब कि श्रीनाथजी इस पर्वत पर निवास करने वाले स्वशिष्य शिक्षारत योगियों के विशेष आग्रहानुरोध से दो चार दिन विश्रामित हो गये तब तो उनको भी आपके निकट आ प्राप्त होने का कुछ सुभीता मिला। तथा सम्भवथा कि आप एक अथवा दो दिन भी और गति स्थगित रखते तो उनको आपकी चरण च्छाया में बैठ कर स्वकीय गमन श्रान्ति निवारण करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता, परं जिस दिन वे इस स्थान पर पहुँचे उस दिन आप इस पर्वत से नीचे उतर चुके थे। योगियों के द्वारा यह समाचार उपलब्ध कर वे भी अविलम्ब से ही नीचे अवतरित हुए। और शीघ्र गति से आपका अनुसरण करते हुए अन्ततः आपके अतीव समीप तक पहुँच ही गये। इधर उनका इस भाव से अपने पीछे चलते आना आपसे भी अविदित न रह गया था। अतएव आपने अपने मन्त्र प्रभाव से ’ पृथिवी में गर्त निर्माण कर उनको देखते ही उसमें प्रवेश किया। यह देख वे बड़े ही खिन्नचित्त हुए। और समझ गये कि हम लोग सौभाग्यशाली नहीं है। जबकि श्रीनाथजी मुमुक्षुजनोद्धार के लिये ही देशाटन करते हैं तब हमको देखकर उनका अन्तर्धान होना इस बात को स्पष्ट सूचित कर रहा है  कि हम दुर्भाग्यशाली एवं योग क्रियाओं के अनधिकारी मनुष्य हैं।  अब क्या करें और उनको कैसे प्राप्त करें। अच्छा होता यदि उसी समय उनके चरणकमल का आश्रय ग्रहण कर लेते। किसी ने यह सच्च कहा है कि अवसर बीता फिर हस्तगत होना सुलभ नहीं होता है। हम लोगों ने अवसर उलंघित कर कितने ही दिन के निरन्तर गमन का असाधारण परिश्रम भी उठाया तो भी लक्ष्यवस्तुओं प्राप्त न कर सके। अच्छा जो भी कुछ हो शुद्ध संकल्प से पीछे हटना समझदार मनुष्यों का काम नहीं हम लोगों ने जो कुछ धावन प्रधावन किया सो किया अब एक कदम भर भी आगे नहीं चलेंगे। एवं एक कदम भर पीछे न हटकर अपने प्राणों की यही अन्तिम दशा देखेंगे। जिससे कुछ ही दिन में यह स्पष्ट मालूम हो जायेगा कि देखें श्रीनाथजी हमको अपना आश्रय देते हैं। अथवा हमको अपने प्राणपक्षी बनाने देते हैं। इत्यादि विचारा-विचार के अनन्तर आपकी प्राप्ति के उद्देश्य से अपने प्राणों तक को न्योंछावर करने का दृढ़ निश्चय कर वे चारों महानुभाव उसी जगह बैठ गये। और श्रीनाथजी का ध्यान रखते हुए पूर्व चिन्तित वृत्त के पूरा करने का प्रयत्न करने लगे। इधर श्रीनाथजी उनके परोक्ष भाग में कुछ ही अन्तर पर पृथिवी से बहिर निकल कर उनकी विश्वासता एवं दृढ़ता को परीक्षित कर रहे थे। आपने अभिमतानुकूल जब इस बात में उनको उत्तीर्ण देखा तब तो अत्यन्त प्रसन्न होकर आप उनके सम्मुख आ खड़े हुए। यह देखते ही उनकी शुष्क आशालता फिर हरी-भरी हो उठी। और वे सादर आपके चरणों में गिरे। अधिक क्या आपने उनको स्वीकार कर धैर्यान्वित किया और अपने सन्देश के साथ स्वकीय शिष्य सूर्यनाथ की सेवा में प्रेषित किया। इस प्रकार उनको उचित मार्ग पर चढ़ाकर आप फिर यहाँ से प्रस्थानित हुए। और मारूस्थलीय तथा मध्यवाड़ आदि प्रान्तों में भ्रमण करते हुए कुछ दिन में गिरनार पर्वत पर पहुँचे। यहाँ कुछ दिन के विश्राम से आपने अपने उत्तरदायित्व की सफलता पूर्ण रीति से अवगमन किया। सौभाग्य आपको अपना कार्य प्रशस्य विधि से समाप्त हुआ दीख पड़ा। यही कारण हुआ आपने अपने आपको सर्वसाधारण की दृष्टि से परोक्ष बनाने का संकल्प किया और योगिसमाज को एकत्रित करने के लिये सूचना भी प्रेषित कर दी। कुछ ही दिन के बीतने पर सूचित योगियों ने उपस्थित हो गिरनार शिखर को आच्छादित कर लिया। यह देख आपने अपना अभिप्राय प्रकट करते हुए कहा कि उपस्थित योगिवृन्द ! भगवान् आदिनाथजी की आज्ञा, जो हमको गुरुद्वारा प्राप्त हुई थी, यह कहने का प्रयोजन नहीं कि उसके पालन करने में हमने कुछ उठा रक्खा हो। प्रत्युत इतने दीर्घकाल पर्यन्त नैरन्तर्य प्रयत्न से आज तक हमने उसको असाधारण विस्तार में परिणत कर दिया है। यही कारण है वह भारत के ही प्रत्येक प्रान्तों में नहीं अन्य देशीय प्रान्तों में भी सादर व्यवहृत की जाती है। ऐसी दशा में ईश्वर न करे हम अहंकार का शब्द कह उठे परं इतना जो कि प्रत्यक्ष है अब कहें तो कह सकते हैं कि हम अपने कार्य में कृतार्थ हो अलक्ष पुरुष की गोद में बैठने के योग्य बन गये हैं। अतएव हम आज से आप लोगों के वर्तमान सम्बन्ध का परित्याग कर उसी जगह बैठने के विशेष उद्योग में लीन होने के निमित्त यहाँ से प्रस्थान करते हैं। भगवान् आदिनाथ आपको और आपके प्रचार को सकुशल बनाया रखें। परं चलते समय हम आपको एक सूचना से और सूचित करना चाहते हैं। और वह यह है कि संसार में प्रकृति एवं ईश्वर के नियमानुसार किसी भी मनुष्य ने किसी कार्य को न तो सदा किया है और न कोई सदा करेगा। किन्तु दो दिन पहले वा हमारे की तरह दो दिन पीछे उसको अवश्य ही उस कार्य से विरहित होना पड़ता है। अतएव वह कार्य प्रचलित रहना न रहना अनुयायी लोगों के ऊपर ही निर्भरता रखता है। यदि अनुयायी लोग सुयोग्य होते रहें और अपनी उचित प्रथा का संचालन करते रहें तो उसके द्वारा उनका तो भला होता ही है साथ में मनुष्य समाज का भी भला हो सकता है। अन्य था जो सम्भव है सो होता ही है। इसलिये हम चाहते हैं कि जिस प्रकार गुरुजियों की उपस्थिति अनुप स्थिति में हमने इस प्रथा को प्रतिष्ठित रखा है आप लोग भी इसको ऐसी ही रखने का प्रयत्न करते रहें और इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये यम नियमादि आठ सिद्धान्त सोपानों में अनास्था रखने वाले मनुष्य को कभी अपना कृपापात्र न बनायें। कभी भूलकर भी ऐसा करने में प्रवृत्त हुए तो समझ लो हमारी यह प्रतिष्ठा बालू की भीत बन जायेगी। जो उन अनधिकारियों की ओर से मरम्मत का असम्भव होने के कारण शीघ्र ही नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगी। बस हमने तो यही कहना था। अब हम जाते हैं। गुरुभाई गोपीचन्दनाथ ! तथा शिष्य भर्तृनाथ ! देखना हम जाते हैं, यह कहकर आपने अपने शरीर को लघु बनाते हुए उदान वायु को वशंगत किया। उधर इस कृत्य में परिणत होते समय आपको योगिसमाज ने अपनी विनम्र अन्तिम प्रणति से सत्कृत किया। और आपके, दोनों का, नाम उच्चरण करने से उसने आज से ही गोपीचन्दनाथ भर्तृनाथजी को अपने सर्व प्रधान निश्चित कर लिया। इस प्रकार असाधारण प्रैतिक प्रणति के तथा अपने भावार्थ समझने के प्रत्युपकारार्थ फिर आशिस प्रदान करते हुए श्रीनाथजी वि.सं. 450 में आकाश गति के द्वारा कैलास के लिये उड्डीयमान हुए। आज का दिन बड़ा ही विलक्षण था। जिसमें भारत को ही पाश्र्ववत्र्ती अन्य देशों को भी अपने असाधारण प्रकाश से प्रकाशित कर भारत का एक सूर्य चिरकाल के लिये अस्ताचल की ओट में छिप गया। परन्तु पाठक ! ध्यान रखिये सूर्य के अस्त होते ही यद्यपि प्रगाढ़ अन्धकार का साम्राज्य नहीं होता है तथापि ज्यों-ज्यों उसके अस्त होने के अनन्तर अधिक क्षण व्यतीत होते हैं त्यों-त्यों अन्धकार अपना आधिपत्य स्थापित करता जाता है। ठीक इसी उदाहरण का स्थल योगिसमाज बने बिना न रहा। खेद और अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ता है कि यद्यपि श्रीनाथजी का पाश्चात्य प्रकाश रूप जब तक भर्तृनाथादि महानुभाव देश में प्रत्यक्षतया भ्रमण करते रहे तब तक तो अनधिकारी पुरुष समाजात्मक अन्धकार की योगिसमाजात्मक संसार में कुछ भी दाल न गली थी। तथापि श्रीनाथात्मक सूर्य के अस्त हो जाने पर ज्यों-ज्यों काल बीतने लगा और उसका गोपीचन्दनाथ तथा भर्तृनाथात्मक अवशिष्ट प्रकाश भी जब कुछ काल में संकुचित हो उसी सूर्य की जगह जा विलीन हुआ तब तो अनधिकारी पुरुष रूप अन्धकार की खूब ही दाल गलने लगी। और थोड़े ही दिन में उसका योगिसमाज रूप संसार में पूर्ण साम्राज्य स्थापित हो गया। इसमें जो-जो असाधारण अनर्थ उपस्थित हुए वे इसमें नहीं भगवान् आदिनाथ स्वास्थ्य प्रदान करे तो एक आधुनिक पृथक् इतिहास में वर्णन करूँगा। यह इतिहास श्रीनाथजी को आज से अपना अधिनायक न देखकर स्वयं भी आगे बढ़ना स्थगित करता है। वन्दे मातरम्।
इति श्री नाथान्तर्धान वर्णन ।

4 comments:

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