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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Wednesday, August 7, 2013

श्री नाथान्तर्धान वर्णन ।

वैक्रमिक सम्वत् 420 में नेपाल राज्य का उचित प्रबन्ध कर श्रीनाथजी पर्वतीय प्रदेशों में भ्रमण करने लगे। जो अनेक विषम मार्गों को उलंघित कर कुछ दिन के बाद तिब्बत और तिब्बत से चीन साम्राज्यन्तर्गत प्रविष्ट हुए। इसके कतिपय प्रान्तीय विचरण के द्वारा अपने योगोपदेशात्मक ढोल की आवाज लोगों के श्रोतों तक पहुँचाकर आप तुर्कि स्थान में भ्रमण करते हुए आपके कतिपय वर्ष व्यतीत हो गये थे। तथापि इस बात का कोई निश्चयात्मक उल्लेख नहीं पाया गया कि आपने इन देशों में कितने मुमुक्षु जनों को उद्धृत किया। अन्ततः इस सुदीर्घ पर्यटन का परिश्रम उठाकर भी आप श्रान्त न हुए। और कुछ वर्ष के अनन्तर अब देश में पहुँचे। वहाँ से इस देशीय लोगों के ’ मक्का नामक माननीय पवित्र स्थान के समीप जाकर एक अनुकूल स्थल में आपने अपना आसन स्थिर किया। यहाँ तक के लोग अजपानाथ के शिष्यों के भ्रमण द्वारा योग के महत्त्व में कुछ आस्था रखने लगे थे। यही कारण था आपका आसन स्थल समग्र दिन आपके दर्शनार्थ आगन्तुक लोगों से परिपूर्ण रहता था। एक दिन सायंकाल होते ही जब आपकी आज्ञानुसार वे समस्त लोगों अपने-अपने गृह पर चले गये तब इस देश में आगन्तुक योगियों के मुख से जो लोगों ने आपकी महिमा सुन रखी थीं आपने किसी न किसी प्रकार के अनुष्ठान द्वारा उसको सार्थक कर लोगों के हृदयागार में अपनी उतनी ही प्रतिष्ठा प्रतिष्ठित करने का विचार स्थिर किया। अतएव आप लोगों के चले जाने पर कुछ अन्धकार के समय रूपान्तर में परिणत हो मक्केशरीफ के प्रार्थनेय विस्तृत स्थल में पहुँचे और मन्दिरद्वार के अभिमुख पैर कर सो गये। तदनु कुछ ही देर में प्रार्थना करने का अवसर उपस्थित हुआ। एवं प्रथम प्रार्थक ने आकर ज्यों ही देखा तो उसको मक्के के सम्मुख पैर किये हुए एक मनुष्य सोता हुआ दिखाई दिया। यह देख उसने कहा कि अरे ! तू कौन है जो प्रार्थनावसर से पहले ही यहाँ आ सोया है। उठ और अपने आपको सम्भाल किधर पैर कर रहा है। यह सुनकर भी आप गाढ़ निद्रास्थ पुरुष की तरह मौनत्वाश्रित हुए सोते ही रहे। बल्कि यहाँ तक कि उसके अतीव समीप आकर जगाने के लिये अनेक प्रयत्न करने पर भी आप टस मे मस न हुए। इससे वह कुछ क्रुद्ध  हुआ  और आपके पैर पकड़कर मन्दिर द्वार के विपरीत करने लगा।  पैरों के हस्त लगाने और उनको इधर करने तक तो वह यही समझ रहा था कि यह यहीं का कोई मनुष्य है परन्तु यह उसको आत्यन्तिक विस्मय में डालने वाला कोई अन्य ही मनुष्य निकला। कारण कि वह जब-जब आपके पैर पकड़कर जिस-जिस ओर फेरता था। उसको उसी-उसी ओर मन्दिर का द्वार दिखलाई देता था। हय देख वह स्वयं आश्चर्य के समुद्र में विलीन हुआ अन्य मनुष्यों के समीप गया। उसने उनको भी इस घटना से विज्ञापित किया। इधर प्रार्थना का अवसर भी आ पहुँचा था। अतएव कुछ मनुष्य तो प्रार्थना करने के लिये और अधिक इस श्रुत कुतूहल के निश्चय प्राप्त करने के लिये वहाँ आ उपस्थित हुए। तथा आपको फिर तादृश चक्र देकर श्रुत वृत्तान्त का निश्चय करने लगे। परन्तु बात असत्य नहीं थी उन्होंने जिस-जिस और आपके पैर किये उसी-उसी ओर मक्के का दर्शन हुआ। समस्त दर्शक लोग हस्त से हस्त विमर्दन करते और विविध विचित्रोदाहरणों के सहित अनेक गाथाओं का उद्घाटन करते थे। ठीक ऐसी ही दशा में श्रीनाथजी ने अपाना वास्तविक वेष स्फुटकर उनसे कहा कि उपस्थित सज्जनों ! इस घटना को देखकर तुमको विशेष चकित नहीं होना चाहिये। यद्यपि योगियों के लिये यही क्या इससे भी अधिक महान् आश्चर्योत्पादक घटना उपस्थित कर दिखलाना कोई बड़ी बात नहीं है। तथापि इसका यह मतलब नहीं कि योगी लोग इन्हीं सिद्धियों से अपने आपको कृतकृत्य समझते हों। कृतकृत्य होने के लिये तो ब्रह्मरूपावस्था की प्रापक नैरन्तर्य सामाधिक दशा ही विशेष उपकारक हो सकती है। फिर क्या बात है हम लोग कृतकृत्य करने वाली उस दशा का परित्याग कर जहाँ तहाँ इन सिद्धियों का उद्गार क्यों और किस कारण से किया करते हैं। यह इसी हेतु से किया करते हैं कि उस सामाधिक दशा में निपुण होकर हम स्वयं तो कृतकृत्य होने के योग्य हो गये है परं करुणानिधि भगवान् आदिनाथजी की प्रेरणानुसार अन्य मुमुक्षु जनों को भी उस पद पर चढ़ाने की अभिलाषा रखते हैं। और अपनी सिद्धिरूप यन्त्र के द्वारा अनेक जनसमुदाय को अपनी ओर आकर्षित कर निरीक्षण किया करते हैं कि इस समुदाय में कौन ऐसा पुरुष है जो उस पद पर चढ़ने के लिये तैयार हो। ठीक इसी के अनुकूल मैंने अपनी सिद्धिस्वरूप यन्त्र से तुमको आकर्षित कर एकत्रित किया है। और मुमुक्षु जनान्बेषणा के तथा कर्तव्य पालना के लिये यह और प्रकट कर देता हूँ कि जिस शुद्धाशय महानुभाव को सांसारिक विविध विचित्र दुःखों ने अत्यन्त तिरस्कृत कर डाला हो और वह इसीलिये स्वयं उनसे निसंग रहने की अभिलाषा कर प्रत्युत उन्हीं का तिरस्कार करना चाहता हो तो आज से ही गार्हस्थ्यमोह पाश को खण्डशः कर किसी योगी का आश्रय ग्रहण कर ले। आज वह दिन है जिसमें सुयोग्य योगियों का सम्मेलन होना दुर्लभ नहीं है। इतना होने पर भी कोई मुमुक्षु मनुष्य इधर ध्यान न देकर दुःखत्रय से पीडि़त रहै तो उसका ऐसा करना वैसा ही है जैसा किसी का जल प्रवाहित नदी के कूल पर बैठा रह कर भी तृषा से आकुल रहना। बस यही आवाज हमने आप लोगों के श्रोतों तक पहुँचानी थी। अब हम अपने आसन पर जाते हैं। भगवान् मक्लाधीश महादेव तुमको कल्याण प्रदान करे। इस कथन के अनन्तर आप तो अपने आसन पा आ विराजे, उपस्थित लोग स्वकीयाभीष्ट कार्य में प्रवृत्त हुए। यद्यपि प्रातःकाल होते ही फिर अनेक नर-नारियों ने उपस्थित हो आपकी उचित अभ्यर्थना की और चार मुमुक्षु महानुभावों के हृदय को आपकी चेतावनी रूप बाण ने असाधारण विभिन्न भी कर दिया तथापि इस समय कोई मनुष्य आपकी शरण में नहीं आया। तदनु आप यहाँ से प्रस्थानित हो फिर भ्रमण करने लगे। और कुछ समय के अनन्तर भारत विभाजक शलेमान पर्वत पर आ विराजे। उधर उक्त चारों मुमुक्षु महानुभाव यद्यपि किसी विशेष कारण से उस समय तो आपकी चरण छाया में न आ सके थे परन्तु पीछे से एकत्र सम्मति कर वे महोपरामी हुए आपके अनुगामी बने। और जिधर आपके गमन का परिचय मिलता गया उधर चलते रहे। परं हत भाग्य वे अभी तक आपको प्राप्त न कर सके थे। यहाँ जब कि श्रीनाथजी इस पर्वत पर निवास करने वाले स्वशिष्य शिक्षारत योगियों के विशेष आग्रहानुरोध से दो चार दिन विश्रामित हो गये तब तो उनको भी आपके निकट आ प्राप्त होने का कुछ सुभीता मिला। तथा सम्भवथा कि आप एक अथवा दो दिन भी और गति स्थगित रखते तो उनको आपकी चरण च्छाया में बैठ कर स्वकीय गमन श्रान्ति निवारण करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता, परं जिस दिन वे इस स्थान पर पहुँचे उस दिन आप इस पर्वत से नीचे उतर चुके थे। योगियों के द्वारा यह समाचार उपलब्ध कर वे भी अविलम्ब से ही नीचे अवतरित हुए। और शीघ्र गति से आपका अनुसरण करते हुए अन्ततः आपके अतीव समीप तक पहुँच ही गये। इधर उनका इस भाव से अपने पीछे चलते आना आपसे भी अविदित न रह गया था। अतएव आपने अपने मन्त्र प्रभाव से ’ पृथिवी में गर्त निर्माण कर उनको देखते ही उसमें प्रवेश किया। यह देख वे बड़े ही खिन्नचित्त हुए। और समझ गये कि हम लोग सौभाग्यशाली नहीं है। जबकि श्रीनाथजी मुमुक्षुजनोद्धार के लिये ही देशाटन करते हैं तब हमको देखकर उनका अन्तर्धान होना इस बात को स्पष्ट सूचित कर रहा है  कि हम दुर्भाग्यशाली एवं योग क्रियाओं के अनधिकारी मनुष्य हैं।  अब क्या करें और उनको कैसे प्राप्त करें। अच्छा होता यदि उसी समय उनके चरणकमल का आश्रय ग्रहण कर लेते। किसी ने यह सच्च कहा है कि अवसर बीता फिर हस्तगत होना सुलभ नहीं होता है। हम लोगों ने अवसर उलंघित कर कितने ही दिन के निरन्तर गमन का असाधारण परिश्रम भी उठाया तो भी लक्ष्यवस्तुओं प्राप्त न कर सके। अच्छा जो भी कुछ हो शुद्ध संकल्प से पीछे हटना समझदार मनुष्यों का काम नहीं हम लोगों ने जो कुछ धावन प्रधावन किया सो किया अब एक कदम भर भी आगे नहीं चलेंगे। एवं एक कदम भर पीछे न हटकर अपने प्राणों की यही अन्तिम दशा देखेंगे। जिससे कुछ ही दिन में यह स्पष्ट मालूम हो जायेगा कि देखें श्रीनाथजी हमको अपना आश्रय देते हैं। अथवा हमको अपने प्राणपक्षी बनाने देते हैं। इत्यादि विचारा-विचार के अनन्तर आपकी प्राप्ति के उद्देश्य से अपने प्राणों तक को न्योंछावर करने का दृढ़ निश्चय कर वे चारों महानुभाव उसी जगह बैठ गये। और श्रीनाथजी का ध्यान रखते हुए पूर्व चिन्तित वृत्त के पूरा करने का प्रयत्न करने लगे। इधर श्रीनाथजी उनके परोक्ष भाग में कुछ ही अन्तर पर पृथिवी से बहिर निकल कर उनकी विश्वासता एवं दृढ़ता को परीक्षित कर रहे थे। आपने अभिमतानुकूल जब इस बात में उनको उत्तीर्ण देखा तब तो अत्यन्त प्रसन्न होकर आप उनके सम्मुख आ खड़े हुए। यह देखते ही उनकी शुष्क आशालता फिर हरी-भरी हो उठी। और वे सादर आपके चरणों में गिरे। अधिक क्या आपने उनको स्वीकार कर धैर्यान्वित किया और अपने सन्देश के साथ स्वकीय शिष्य सूर्यनाथ की सेवा में प्रेषित किया। इस प्रकार उनको उचित मार्ग पर चढ़ाकर आप फिर यहाँ से प्रस्थानित हुए। और मारूस्थलीय तथा मध्यवाड़ आदि प्रान्तों में भ्रमण करते हुए कुछ दिन में गिरनार पर्वत पर पहुँचे। यहाँ कुछ दिन के विश्राम से आपने अपने उत्तरदायित्व की सफलता पूर्ण रीति से अवगमन किया। सौभाग्य आपको अपना कार्य प्रशस्य विधि से समाप्त हुआ दीख पड़ा। यही कारण हुआ आपने अपने आपको सर्वसाधारण की दृष्टि से परोक्ष बनाने का संकल्प किया और योगिसमाज को एकत्रित करने के लिये सूचना भी प्रेषित कर दी। कुछ ही दिन के बीतने पर सूचित योगियों ने उपस्थित हो गिरनार शिखर को आच्छादित कर लिया। यह देख आपने अपना अभिप्राय प्रकट करते हुए कहा कि उपस्थित योगिवृन्द ! भगवान् आदिनाथजी की आज्ञा, जो हमको गुरुद्वारा प्राप्त हुई थी, यह कहने का प्रयोजन नहीं कि उसके पालन करने में हमने कुछ उठा रक्खा हो। प्रत्युत इतने दीर्घकाल पर्यन्त नैरन्तर्य प्रयत्न से आज तक हमने उसको असाधारण विस्तार में परिणत कर दिया है। यही कारण है वह भारत के ही प्रत्येक प्रान्तों में नहीं अन्य देशीय प्रान्तों में भी सादर व्यवहृत की जाती है। ऐसी दशा में ईश्वर न करे हम अहंकार का शब्द कह उठे परं इतना जो कि प्रत्यक्ष है अब कहें तो कह सकते हैं कि हम अपने कार्य में कृतार्थ हो अलक्ष पुरुष की गोद में बैठने के योग्य बन गये हैं। अतएव हम आज से आप लोगों के वर्तमान सम्बन्ध का परित्याग कर उसी जगह बैठने के विशेष उद्योग में लीन होने के निमित्त यहाँ से प्रस्थान करते हैं। भगवान् आदिनाथ आपको और आपके प्रचार को सकुशल बनाया रखें। परं चलते समय हम आपको एक सूचना से और सूचित करना चाहते हैं। और वह यह है कि संसार में प्रकृति एवं ईश्वर के नियमानुसार किसी भी मनुष्य ने किसी कार्य को न तो सदा किया है और न कोई सदा करेगा। किन्तु दो दिन पहले वा हमारे की तरह दो दिन पीछे उसको अवश्य ही उस कार्य से विरहित होना पड़ता है। अतएव वह कार्य प्रचलित रहना न रहना अनुयायी लोगों के ऊपर ही निर्भरता रखता है। यदि अनुयायी लोग सुयोग्य होते रहें और अपनी उचित प्रथा का संचालन करते रहें तो उसके द्वारा उनका तो भला होता ही है साथ में मनुष्य समाज का भी भला हो सकता है। अन्य था जो सम्भव है सो होता ही है। इसलिये हम चाहते हैं कि जिस प्रकार गुरुजियों की उपस्थिति अनुप स्थिति में हमने इस प्रथा को प्रतिष्ठित रखा है आप लोग भी इसको ऐसी ही रखने का प्रयत्न करते रहें और इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये यम नियमादि आठ सिद्धान्त सोपानों में अनास्था रखने वाले मनुष्य को कभी अपना कृपापात्र न बनायें। कभी भूलकर भी ऐसा करने में प्रवृत्त हुए तो समझ लो हमारी यह प्रतिष्ठा बालू की भीत बन जायेगी। जो उन अनधिकारियों की ओर से मरम्मत का असम्भव होने के कारण शीघ्र ही नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगी। बस हमने तो यही कहना था। अब हम जाते हैं। गुरुभाई गोपीचन्दनाथ ! तथा शिष्य भर्तृनाथ ! देखना हम जाते हैं, यह कहकर आपने अपने शरीर को लघु बनाते हुए उदान वायु को वशंगत किया। उधर इस कृत्य में परिणत होते समय आपको योगिसमाज ने अपनी विनम्र अन्तिम प्रणति से सत्कृत किया। और आपके, दोनों का, नाम उच्चरण करने से उसने आज से ही गोपीचन्दनाथ भर्तृनाथजी को अपने सर्व प्रधान निश्चित कर लिया। इस प्रकार असाधारण प्रैतिक प्रणति के तथा अपने भावार्थ समझने के प्रत्युपकारार्थ फिर आशिस प्रदान करते हुए श्रीनाथजी वि.सं. 450 में आकाश गति के द्वारा कैलास के लिये उड्डीयमान हुए। आज का दिन बड़ा ही विलक्षण था। जिसमें भारत को ही पाश्र्ववत्र्ती अन्य देशों को भी अपने असाधारण प्रकाश से प्रकाशित कर भारत का एक सूर्य चिरकाल के लिये अस्ताचल की ओट में छिप गया। परन्तु पाठक ! ध्यान रखिये सूर्य के अस्त होते ही यद्यपि प्रगाढ़ अन्धकार का साम्राज्य नहीं होता है तथापि ज्यों-ज्यों उसके अस्त होने के अनन्तर अधिक क्षण व्यतीत होते हैं त्यों-त्यों अन्धकार अपना आधिपत्य स्थापित करता जाता है। ठीक इसी उदाहरण का स्थल योगिसमाज बने बिना न रहा। खेद और अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ता है कि यद्यपि श्रीनाथजी का पाश्चात्य प्रकाश रूप जब तक भर्तृनाथादि महानुभाव देश में प्रत्यक्षतया भ्रमण करते रहे तब तक तो अनधिकारी पुरुष समाजात्मक अन्धकार की योगिसमाजात्मक संसार में कुछ भी दाल न गली थी। तथापि श्रीनाथात्मक सूर्य के अस्त हो जाने पर ज्यों-ज्यों काल बीतने लगा और उसका गोपीचन्दनाथ तथा भर्तृनाथात्मक अवशिष्ट प्रकाश भी जब कुछ काल में संकुचित हो उसी सूर्य की जगह जा विलीन हुआ तब तो अनधिकारी पुरुष रूप अन्धकार की खूब ही दाल गलने लगी। और थोड़े ही दिन में उसका योगिसमाज रूप संसार में पूर्ण साम्राज्य स्थापित हो गया। इसमें जो-जो असाधारण अनर्थ उपस्थित हुए वे इसमें नहीं भगवान् आदिनाथ स्वास्थ्य प्रदान करे तो एक आधुनिक पृथक् इतिहास में वर्णन करूँगा। यह इतिहास श्रीनाथजी को आज से अपना अधिनायक न देखकर स्वयं भी आगे बढ़ना स्थगित करता है। वन्दे मातरम्।
इति श्री नाथान्तर्धान वर्णन ।

Thursday, August 1, 2013

श्रीनाथ नेपाल राज्य परिवर्तन करण

धवल गिरि पर्वतस्थ श्रीनाथजी ने यद्यपि अपने प्रिय शिष्य को योग साधनीभूत क्रियाओं में प्रवृत्त कर दिया था, तथापि एक आकस्मिक ऐसा विघ्न उपस्थित हुआ जिसको प्रथम निवारित करना उचित समझ कर आपने अपना कार्य स्थगित कर दिया। और वह यह था कि यहाँ से लगभग 80, 90 कोशकी दूरी पर पूर्व दिशा में वर्तमान त्रिशूल गंगा के प्रभवस्थान पर्वत पर बाममार्गी लोगों का एकदल एकत्रित हो, किस प्रकार से हम अपने अभिमत का साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं, इस विषय में परामर्श कर रहा था। अन्ततः बहुत छान-बीन के पश्चात् उसने स्थिर किया कि आज कल सर्वत्र श्रीनाथजी के यश का डंका बज रहा है यदि वे हमारे मार्ग को सत्कृत कर दें तो यह कहने का प्रयोजन नहीं कि सांसारिक लोग फिर भी हमको घृणा की दृष्टि से ही देखते रहेंगे। प्रत्युत समस्त राजा प्रजा लोग, जो कि श्रीनाथजी में असाधारण श्रद्धा भक्ति रखते हैं, पवित्र समझ कर हमारे मार्ग को सादर ग्रहण कर लेंगे। ऐसा होने पर हम निन्दा से तो मुक्त हो ही जायेंगे सम्भव है संसार में हमारी प्रतिष्ठा भी हो जायेगी। ठीक इसी निश्चय के अनुसार उन्होंने श्रीनाथजी का आव्हान किया। अतएव आप इस आरम्भित कार्य को विश्रामित कर सशिष्य वहाँ पहुँचे। और पारस्परिक आदर सत्कार के अनन्तर आपने अपने आव्हान कारण को स्फुट करने के लिये उनको आज्ञापित किया। उन्होंने विनम्र अभ्यर्थना करते हुए आपको सूचित किया कि आप कृपा कर हमारे विषयक प्रधानत्व को स्वीकृत कर लें। यह सुन आपने कहा कि हम यह पूछना चाहते हैं आप यथार्थ रीति से प्रकट कर दें कि आप अपनी प्रतिष्ठा चाहते हैं वा प्रतिष्ठा की उपेक्षा कर अपने अवलम्बित मार्ग की वृद्धि करना चाहते हैं। यदि प्रतिष्ठा चाहते हैं तो आप अन्य सब झगड़ों को छोड़कर केवल योगक्रियाओं से ही सम्बन्ध जोड़ लें। इसके अतिरिक्त यदि गृहीत मत की पुष्टि करना चाहते हैं तो हम नहीं सक सकते कि साधुओं का कार्य जहाँ मुमुक्षुजनों को सन्मार्ग पर चढ़ा देना है वहाँ वे उन विचारों को कुत्सित पथ में प्रविष्ट करने के लिये कटिबद्ध हो जायें। उन्होंने कहा कि यद्यपि हमारा मूल सिद्धान्त यही है कि सांसारिक घृणित लोगों के हृदयों में हमारी प्रतिष्ठा भी लब्धावकाश हो जाय। तथापि यह नहीं कि वह इस मत के अभाव से जन्य हो। किन्तु इससे सम्बन्ध रखने वाली ही प्रतिष्ठा होनी चाहिये। आपने कहा कि इस मार्ग से सम्बन्ध रखते हुए न तो आप लोगों की प्रतिष्ठा होगी एवं न हम आपका सहचार ही रखने को तैयार हैं। इस प्रकार कापालियों की शुष्क आशा लता में जल वर्षने का अवसर उपस्थित न हुआ। न तो उन्होंने अपने निकृष्ट मार्ग का परित्याग करना स्वीकार किया। और न उसके सद्भाव में श्रीनाथजी ने उनसे सहचार रक्खा। अन्ततः त्यक्त कार्य में फिर प्रवृत्त होने के लिये श्रीनाथजी यहाँ से चलने के अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। परं इतने ही में एक मामला और आपके सम्मुखीन हुआ और वह मामला यह था कि उसी जगह पर विराजमान भगवान् ’ नीलकण्ठ की यात्रार्थ आये हुए ’ मत्स्येन्द्री जाति के लोगों ने आप से प्रार्थना करी कि वर्तमान महाराजा महीन्द्र देवजी बौद्ध लोगों का विशेष सत्कार कर हमको घृणा की दृष्टि से देखते हैं। यही कारण है दिनों दिन हमारी जाति का हास होता जा रहा है। इससे तो सम्भव है कुछ ही दिन में हमारी जाति का एवं पूज्यपाद देवता मत्स्येन्द्रनाथजी का नामोनिसान तक लुप्त हो जायेगा। अतएव आपको चाहिये कि इस विषय में किसी उचित उपाय को अवलम्बित करें। यह सुन आपने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उनको सान्तोषिक वाक्यों से धैर्यवलम्बित कर आप यहाँ से प्रस्थानित हुए। जो ललित पाटन के समीप जाकर भोगमती गंगा पर विश्रामित हुए। तथा एक ऐसे मन्त्र का अनुष्ठान कर, कि जब तक कोई हमको इस आसन से न उठा सके तब तक इस प्रान्त में वर्षा नहीं होगी, कुछ दिन के लिये दृढ़ासनासीन हो गये। इसी प्रकार एक-दो के क्रम से तीन वर्ष व्यतीत होने को आये परं वर्षा का कोई लक्षण नहीं दिखाई दिया। यह देख राजा महीन्द्र देव बड़े ही चकित हुए। और कई एक छोटे-मोटे यज्ञ भी अनुष्ठित किये गये। तथापि उनका कोई सान्तोषिक फल दृष्टि गोचर न हुआ। अन्त में ज्योतिषयों से परामर्श कर उसने इस वर्षाभाव के कारण की गवेषणा की। बहुत छानबीन के अनन्तर ज्योतिषियों ने यथार्थ वृत्तान्त का उद्घाटन किया कि आपके ऊपर योगेन्द्र गोरक्षनाथजी तिर्यग् दृष्टि किये बैठे हुए हैं। और उन्होंने यह प्रण किया है कि जब तक हम इस आसन से न उठेंगे तब तक यहाँ वर्षा न होगी। राजा ने कहा कि फिर इस बात का साधक उपाय क्या है। यदि कोई समुचित उपाय दृष्टिगोचर हो जाय तो उसका आश्रय ग्रहण कर योगेन्द्रजी को प्रसादित कर लेंगे। सम्भव है अपने से कोई प्रामत्तिक कार्य अनुष्ठित हो गया होगा परं यह असम्भव नहीं कि योगेन्द्रजी प्रसन्न नहीं होंगे। हमको विश्वास है कि ये लोग जब कभी किसी के ऊपर कुपित होते हैं तो स्वार्थ के उद्देश्य से नहीं किन्तु परहितोद्देश से ही हुआ करते हैं।   इस  पर भी योगेन्द्र गोरक्षनाथजी का तो अवतार ही इस मुख्योद्देश से हुआ है कि सन्मार्ग से च्युत हुए लोग उनका आश्रय ग्रहण कर फिर उसी मार्ग चढ़ जाये। अतएव मैं भी यदि किसी उचित मार्ग से भ्रष्ट हो गया हूँगा तो उनके आश्रित हो शीघ्र उसको अवलम्बित कर सकूँगा। आप लोग जो सम्भवित हो वह उपाय शीघ्र प्रकटित कर दें। उन्होंने बतलाया कि आपके कट्टर बौद्ध हो जाने से यहाँ के अधिष्ठातृ देवता मत्स्येन्द्रनाथजी की प्रतिष्ठा में बहुत कुछ न्यूनता आ गई है। जो कुछ लोग इस देवता के ऊपर असाधारण विश्वास रखते हैं और इसी कारण से उनकी एक मत्स्येन्द्री जाति पृथक् प्रतिष्ठित हुई चली आ रही है उनके विषय में राजकीय लोग बहुत घृणित व्यवहार करते हैं। इस बात को केवल हमारा ज्योतिष ही नहीं बतला रहा है बल्कि कुछ हमने अपने श्रोतों द्वारा भी श्रवण किया है। राजा ने पूछा कि कब और किस प्रकार यह बात सुनने में आई थी। उन्होंने उत्तर दिया कि आज नहीं इन बातों को श्रवण किये तीन वर्ष बीत चुके समझें। कपाली लोगों और योगेन्द्रजी के पारस्परिक परामर्शानन्तर श्री नीलकण्ठ यात्रार्थ गये हुए उक्त लोगों ने श्रीनाथजी के अभिमुख इस विषय की प्रार्थना उपस्थित की थी ठीक उसी समय। लोगों की बात पर ध्यान देकर योगेन्द्रजी पाटन में आये और भोगमती पर आसनासीन हुए अब तक विराजमान हैं। उनकी आन्तरिक इच्छा स्वकीय गुरुजी को फिर तादवस्थ्य प्रतिष्ठित करने की है। अतएव हम, यदि आप उस पर कटिबद्ध हो जायें तो, एक ऐसा उपाय बतलाते हैं जिससे मत्स्येन्द्रनाथ की प्रतिष्ठा भी हो जायेगी और इनका आसन खुल जायेगा जिससे फिर शीघ्र वर्षा होने लगेगी और सम्भव है श्रीनाथजी आपके ऊपर असाधारण प्रसन्न भी हो जायेंगे। राजा ने कहा कि हाँ बस ऐसी ही कोई युक्ति बतलाओ। उन्होंने कहा कि उनके गुरु श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी की एक प्रतिमा तैयार कराई जाय। जिसको आत्यन्तिक श्रद्धेय सत्कार के साथ ’ रथयात्रा से इनके अभिमुख ले जाया जाय। यह देख श्रीनाथजी गुरुजी की आदेशात्मक प्रणति करने के लिये खड़े हो जायेंगे। बस इतनी ही देरी समझना चाहिये। इनके खड़े होते ही समस्त समस्यायें, जो कि उपस्थित हो रही हैं, हल हो जायेंगी। तदनु महाराजा महीन्द्र देव ने ठीक इसी अनुष्ठान का आश्रय ग्रहण किया। तथा वह इसमें कृतकार्य भी हो सका। परं खैर श्रीनाथजी ने अपने वार्षिक अस्त्र का संहार तो कर लिया एवं राजा को यह आज्ञा भी प्रदान कर दी कि गुरुजी की इस प्रतिष्ठा में किसी प्रकार भी न्यूनता न आने देने का प्रयत्न करना होगा। तथापि अपनी प्रसन्नता का कोई लक्षण प्रकट नहीं किया और राजन् ! तुमको सावधान रहकर हमारे इस कृत्य के मर्म को समझने की अत्यन्त आवश्यकता है केवल यह कहकर यहाँ से प्रस्थान किया। जो कतिपय कोश की दूरी पर जाकर आप अपने प्रिय शिष्य को फिर आरम्भित त्यक्त क्रियाओं का तत्त्व समझाने लगे। इस कार्य में प्रवृत्त हुए आपके ज्यों-ज्यों दिन व्यतीत होते थे त्यों-त्यों आपका शिष्य आपकी उपदेश ग्रहणता को सार्थक करता हुआ जा रहा था। इसी क्रम से आपके लगभग चैदह वर्ष व्यतीत हो चले। शिष्य महानुभाव आपका नाम चरितार्थ करने वाली दशा में प्रविष्ट हो चुका। परं एक वृद्धा स्त्री और उसके पुत्र से अतिरिक्त किसी मनुष्य ने भी ऐसा व्यवहार उपस्थित नहीं किया कि जिससे उसके सन्मार्ग में चलने का प्रमाण मिल सके। एवं न राजा की ओर से ही कोई ऐसा प्रबन्ध था कि जिससे कुत्सित कृत्यों की तरफ बढ़ते हुए लोगों के मार्ग में कुछ बाधा उपस्थित हो सके। अथवा ठीक है राजा के कर्तव्याकर्तव्य विमूढ हो जाने पर प्रजा के वैसे हो जाने में देर ही क्या हो सकती है। यही कारण हुआ श्रीनाथजी के द्वारा सचेत करने पर भी जितना होना चाहिये था राजा उतना सचेत नहीं हुआ। उसकी यह मन्द गति देखकर राजकीय लोग भी उससे आगे बढ़ सके जिससे उक्त मत्स्येन्द्री जाति के लोगों का मुख उज्जवल होने के बदले तिरस्कृति हेतुक मलीनता ही धारण करता रहा। मतलब निकल जाने पर मत्स्येन्द्रनाथजी की प्रतिष्ठेय रथयात्रा भी निमित्त मात्र ही प्रतीत होने लगी। यह देखकर श्रीनाथजी के अनुमान की सत्यता में प्रमाण मिल गया। राजा महीदेव के स्वकीय शरणागत होने के समय आपने प्रथम ही यह अनुमान किया था कि बौद्ध लोग अपनी दाल गलने के प्रयत्न में राजा को अपनी ओर आकर्षित करेंगे। ऐसा होने से यह असम्भव नहीं कि राजा फिर हमारी चेतावनी को भूल जाय जिससे हमको फिर इसके प्रतिकूल किसी अनुष्ठान का आश्रय लेना पड़े। ठीक यही कारण था आप उसको कोई विशेष वर प्रदान न कर मौन रीति से ही इधर चले आये थे। और राजधानी से लगभग पन्द्रह-बीस कोश की ’ दूरी पर ही विश्रामित हो गये थे। एवं आप इस विचार से युक्त थे कि जब तक शिष्य को श्क्षिित करेंगे तब तक राजा की तथा राजकीय पुरुषों और प्रजा की बुद्धि  ठिकाने आ  गई तो सौभाग्य  की बात है  नहीं तो  किसी विशेष उपाय के अवलम्बन द्वारा उचित प्रबन्ध करने पर ही यहाँ से चलना होगा। अब सचमुच ही आपको वह लक्षण दीख पड़ा जिसके अनुकूल आपने उक्त निश्चय को सार्थक किये बिना आपने अपना छुटकारा नहीं समझा था। अतएव आप अपनी इच्छा पूरी करने के लिये किसी सुगम उपाय की गवेषणा में दत्तचित्त हुए तथा कुछ क्षणिक विचारा-विचार के अनन्तर आपने निश्चय किया कि राजा महीन्द्र देव को पदच्युत कर किसी अन्य सुयोग्य व्यक्ति को सिंहासनाभिषिक्त कर देना विशेष उचित होगा। साथ ही यह भी अनुमान किया कि इस कार्य को पूर्ण कर देना कोई साधारण बात नहीं है। कारण कि प्रथम तो आजकल बौद्ध लोगों का अत्यन्त प्राधान्य है जो समस्त राजा के पक्षपाती होने के कारण उसके पदच्युत न होने के प्रयत्न में ही अपनी सर्व शक्ति खर्च करेंगे। द्वितीय किसी प्रकार यह कार्य भी सम्पादित हो गया तो सिंहासनासीन करने के लिये इस राजा के कोई सुयोग्य पुत्र भी नहीं है। ऐसी दशा में प्राथमिक आवश्यकता इस बात है कि राज्य संचालनानुकूल कोई ऐसी व्यक्ति अन्वेषित की जाय तो हमारे चिन्तित मनोरथ को सफल करने वाली हो। अन्ततः आपका ध्यान एकाएक उक्त वृद्धा स्त्री के अद्वितीय पुत्र की ओर आकर्षित हुआ। यह महानुभाव आपने गृह में मातृ द्वितीय ही था और गो सेवा विशेष हेतु से अपनी जीवनचय्र्या प्रचलित कर रहा था। आज लगातार बारह वा तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके श्रीनाथजी के विषय में होने वाली इस महाशय की तथा इसकी पूज्य माता की सेवा भक्ति का निरन्तर युद्ध चल रहा था। कभी किसी अवसर और विषय में माता की सेवा अपना असाधारण रूप दिखलाती थी तो कभी किसी अवसर एवं विषय में पुत्र की श्रद्धेय सेवा उससे भी अधिक महत्त्व सूचित करती थी। अधिक क्या इस प्रकार प्रतिदिन उत्तरोत्तर प्रवृद्ध होने वाली माता पुत्र की श्रद्धेय सेवा ने आपके हृदय स्थान पर अच्छा प्रभाव डाल दिया था। अतएव आपने इसी महानुभाव को महाराजा महीन्द्रदेव का प्रतिनिधि बनाने का संकल्प किया। और मैं इसको राजा बना दूंगा तो इसके उपकार पर प्रत्युपकार करने में तथा राजा के परिवर्तन करने में कृतकार्य हो सकंूगा आपने एक पन्थ और ये दो कार्य समझकर एक दिन स्वकीय कृपापात्र उस लड़के से यह प्रस्ताव किया। यह सुनकर वह विचारा स्तब्ध नेत्र हो कुछ देर तक निरन्तरावलोकन द्वारा आपके चरणकमल की ओर निहारता रहा और अपने मुख से कुछ भी न बोला। क्यों कि उसके तो यह बात सौ सहस्र लक्षों क्या करोड़ों कोश भी समीप नहीं थी कि मैं भी राज्य सिंहासनासीन होने के योग्य हूँ वा हो जाऊँगा। फिर वह विचारा इस विषय में शीघ्रता के साथ क्या उत्तर देता। (अस्तु) कुछ क्षण के अनन्तर उसने विचलित मुख से ही किसी प्रकार यह शब्द निकाला कि भगवन् ! मैं एक सीधा जैसा मनुष्य हूँ। अतएव मैं आपके मतलब को नहीं समझ सकता हूँ कि आप किस अभिप्राय से आज ऐसा अश्रुतपूर्व वाक्य बोल रहे हैं। यों तो जिस मनुष्य के ऊपर आपकी कृपादृष्टि हो जाय और उसे जो भी आप देना चाहें दे सकते हैं। क्यों कि आप योगेन्द्र हैं आप जैसे शक्तिशाली महानुभावों को कोई भी वस्तु अगम्य नहीं है जिसके प्रदान में आपकी असमर्थता सूचित होती हो। तथापि मैं अपनी दशा पर दृष्टि डाल कर सहसा इस बात में असन्दिग्ध नहीं हो सकता हूँ कि ठीक आप जैसा कह रहे हैं वैसा ही वृत्तान्त अवश्यम्भावी है। श्रीनाथजी ने अपनी असन्दिग्ध स्पष्ट पटूक्ति से उसके विक्षिप्त हृदय में निश्चयता प्राप्त की, जिसके श्रवण करने के साथ-साथ ही वह समझ गया कि यह ठीक कहा है निरीहभाव से की हुई महात्माओं की सेवा बिना फल प्राप्त किये समीप से नहीं जाती है। अतएव उसने अनेक विनम्र प्रणति के अनन्तर हार्दिक कृतज्ञता प्रकट कर माता की सन्मति लेने के पश्चात् आपको प्रत्युत्तर देने के लिये विज्ञापित किया। यह सुन आपने सहर्ष आज्ञा दी। वह शिर झुकाकर शीघ्र माता के समीप पहुँचा। और श्रीनाथजी की प्रसन्नता का समस्त समाचार उसने माता को सुनाया। जिसके श्रवण मात्र से इसकी भी ठीक वही दशा हुई जो कि पुत्र की हुई थी। परं कुछ क्षण में सचेत होने के अनन्तर वह प्रिय वसन्त के साथ ही शीघ्र श्रीनाथजी के चरणाविन्द की सेवा में उपस्थित हुई। और कहने लगी भगवन् ! क्या मैं यह निश्चय कर सकती हूँ कि आपने जो कुछ मेरे इस पुत्र के अभिमुख कहा है वह अवश्यम्भावी है। यदि यह सत्य है तो यह कहने का प्रयोजन नहीं कि मैं जैसी अपने आपको मान बैठी हूँ वैसी ही दरिद्रा स्त्री हूँ। प्रत्युत एक भाग्यशाली पुरुष की जन्मदात्री होने के कारण सर्व सम्पन्न कही जा सकती हूँ। अतएव आप अपने आन्तरिक भाव से यह प्रस्फुट कर दें कि आपके कथन का यथार्थ रहस्य क्या है। श्रीनाथजी ने कहा कि जैसी तुम्हारी अस्खलित सेवा है तुम्हारी वैसा ही विश्वास रखने की आवश्यकता है। हम जो संकल्प कर चुके हैं वह व्यर्थ नहीं जा सकता है। तुम दृढ़ निश्चय कर लो और समझ लो तुम्हारी इस अतीव साधारण जीवनचय्र्या का आज ही से परिवर्तन हो चुका है। इतना होने पर भी यह कार्य इसी बात पर अवलम्बित है कि हमारी निर्दिष्ट विधि से तुम एक कदम भी वापिस न हटो। उसने सपुत्र आपके चरण स्पर्शित करते हुए कहा कि पूज्यपाद ! आपकी महती कृपा देवी ही हमको इतना साहस देगी जिसके हेतु से आपके द्वारा प्रदर्शित मार्ग से हम कुछ भी पीछे न हटेंगे। अतः बतलाइये और प्रकट कीजिये हमको किस विधि का आश्रय ग्रहण करना उचित है। यह सुन आपने आज्ञा प्रदान करी कि समीपस्थ तालाब की आद्र्रमृत्तिका के कुछ मनुष्य पुतले तैयार करो। यह आज्ञा श्रवण कर माता पुत्र अविलम्ब से ही इस कार्य में प्रवृत्त हुए और भावी वशात् इसमें सफलता भी प्राप्त कर सके। यह देख प्रसन्न मुख हुए श्रीनाथजी ने अपने संजीवन मन्त्र को आश्रित किया। जिसके अमोघ प्रयोग से सचमुच मनुष्य तैयार होकर वे आपसे अभ्यर्थना करते हुए कह उठे कि भगवन् ! कहिये और बतलाइये किस कार्य सिद्धि की आवश्यकता है। आपने ठहरो-ठहरो यह कह कर वृद्धा स्त्री के तेजस्वी तरूण पुत्र बसन्त की ओर इशारा करते हुए कहा कि भद्र ! ये वीर पुरुष तेरे असाधारण सहायक होंगे जो परिपन्थी से कभी पराजित न होकर उसको स्वयं पराजय के समुद्र में विलीन कर देंगे। अतएव तुम जाओ और राजा महीन्द्रदेव जो हमारी तिर्यग् दृष्टि का पात्र हो चुका है उस पर विजय प्राप्त कर स्वयं सिंहासनासीन हो जाओ। यह सुन वह आपके चरणों में गिरा और अपने मस्तक पर गुरु चरण रज धारण कर तथा हस्त में गुरुपताका लिये हुए सहायक वीर पुरुषों के सहित राजधानी की ओर अग्रसर हुआ। अधिक क्या श्रीनाथजी की अमोघ इच्छानुसार उसने राजा महीदेव को अविलम्ब से ही पराजित कर लिया। राजकर्मचारियों के लाख शिर पटकने पर भी राजप्रासाद के ऊपर श्रीनाथजी की पताका फर्राने लगी। राजा महीदेव सहकारियों के सहित प्राण बचाकर राजधानी का परित्याग कर गया। और इस आकस्मिक दुर्विज्ञेय विस्सापक घटना के विषय में अन्वेषणा करने लगा ऐसा करने पर उसको ज्ञात हुआ कि श्रीनाथजी की तिर्यग् दृष्टि का ही यह समस्त फल उदय हुआ है। अतएव वह अपूर्व श्रद्वेय व्यवहार से श्रीनाथजी की शरण में प्राप्त हुआ अपराध क्षमा करने की अभ्यर्थना करने लगा। यह देख आपने स्पष्ट कह सुनाया कि हम जो निश्चय कर चुके हैं वह कभी अन्यथा नहीं होगा। यदि तुमको अपना अवशिष्ट जीवन सुख से व्यतीत करना है तो हमारी इस बात पर सहमत हो जाओ कि उस साहसी पुरुष बसन्त को अपना पुत्र स्वीकार कर उसे सिंहासन प्रदान कर दो और स्वयं ईश्वराधन से समय व्यतीत किया करो। ऐसा करने से हमारी प्रतिज्ञा तो सफल हो ही जायेगी, तुम्हारी जीवन चय्र्या में भी कुछ विघ्न उपस्थित न होगा। यह सुन उपायान्तराभाव से, या श्रीनाथजी की असाधारण कृपा के पात्र सुयोग्य पुत्र की उपलब्धि हेतुक प्रसन्नता से, राजा किसी प्रकार आपके कथन पर सहमत हो गया। तदनन्तर राजा के सहित श्रीनाथजी राजधानी में आये और बड़े समारोह के साथ बसन्त को महाराजा महीन्द्रदेव का दत्तकपुत्र उद्घोषित कर वि. सं. 420 में बसन्तदेव या बसन्तसेन नाम से सिंहासनाभिषिक्त करते हुए आपने अपनी प्रतिज्ञाओं से उसको जकड़ीभूत बना दिया। तथा स्पष्ट कह सुनाया कि जब तक इन प्रतिज्ञाओं का पूरी तरह से पालन होता रहेगा तब तक यह साम्राज्य अपनी गौरवगरीमा से कभी वंचित न हो सकेगा। इस प्रकार आप अपना चिन्त्य कार्य पूराकर यहाँ से कार्यान्तर सम्पादना के लिये प्रस्थानित हुए। इधर महाराजा बसन्तदेव अत्यन्त कुशलता के साथ राज्य कार्य का संचालन करने लगे। इसी महानुभाव से गोरखा जाति का बीज वपन हुआ है। परन्तु (नेपाल का प्राचीन इतिहास) इस नाम की पुस्तक जो हमको पटियाला राज्यान्तर्गत भटिण्डा, की लायब्रेरी से उपलब्ध हुआ है उसें लिखा है कि नेपाल के राजा पृथिवीनारायण ने अपने राज्य की सबसे अधिक सीमा बढ़ाकर गोरखापर्वत पर्यन्त राज्य किया था इसी कारण महाराज का नाम गोरखा पड़ा और फिर उसके अनुयायी गोरखा जाति में परिणत हुए। निःसन्देह लेखक ने यह महान् भूल की है। पृथिवी नारायण से पहले ही मत्स्येन्द्री जाति की तरह गोरखा जाति भी विद्यमान थी। हाँ यह अवश्य है कि महाराजा वसन्त देव के बाद श्रीनाथजी की आज्ञाओं का भंग हो जाने से राज्य की दशा गिर गई थी। जिससे राज्य कई भागों में विभक्त हो गया था। फिर वसन्तदेव से लगभग 1450 वर्ष पीछे पृथिवी नारायण का प्रादुर्भाव हुआ जिसने कीर्तिपुरादि के तेजरसिंहादि राजाओं के साथ बार-बार घोर युद्ध किया। जिसमें उसने कुछ सफलता भी प्राप्त की। नेपाल के उक्त इतिहास में तथा मुरादाबाद निवासी पं. बलदेवप्रसाद द्वारा लिखित एक-दूसरे (नेपाल का इतिहास) इस नाम के पुस्तक में यद्यपि पृथिवी नारायण को, गोरखा राजा, इस शब्द से व्यवहृत किया है। तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि वह गोरखा जाति का मूल पुरुष था। किन्तु जैसे कीर्ति पुरादि के राजा तेजरसिंहादि को निवार जाति का होने से निवारी राजा कहा जाता था वैसे ही पृथिवी नारायण को गोरखा जाति का होने से गोरखा राजा कहा जाता था। अतएव यह गोरखा जाति का विधाता नहीं था। यह सौभाग्य तो श्रीनाथजी के अत्यन्त कृपापात्र महाराजा महीन्द्रदेव के दत्तकपुत्र वसन्तदेव को ही उपलब्ध हुआ था। इतने दीर्घ समय को प्राप्त होकर ही (गोरखा) यह नाम भुट्टान से लेकर काश्मीर राज्य तक के हिमालय पर्वत में रहने वाले समस्त पर्वतीय लोगांे में व्याप्त हो गया। इतने विस्तृत देश में रहने वाला कोई भी मनुष्य जब भारत के नीचे देश में आता है तब यहाँ के लोग उसे गोरखा या गोरखिया कह कर पुकारते हैं। गोरक्षनाथजी के विषय में भक्तिभाव का विस्तार करने वाले वसन्तदेव के बिना और इतना दीर्घकाल व्यतीत हुए बिना, यह सम्भव नहीं कि आज से करीब 150 वर्ष पहले होने वाले पृथिवी नारायण के सम्बन्ध से यह नाम इतने ही अल्पकाल में इतने दूर तक व्याप्त हो जाय। नेपाल के इस पं. बलदेव प्रसाद द्वारा लिखित इतिहास में यह भी लिखा है कि गोरखा लोग राजपूताना से नेपाल में आये। परं यह भी गलत है, न तो ये लोग इधर से आये और न कोई गोरखा जाति राजपूताने में प्रसिद्ध है (अस्तु) पाठक ! सन्तोप का विषय है इस महानुभाव ने श्रीनाथजी के नियमों को प्राणपण से निवार्हित किया। ठीक आज ही से इस देश के पूज्यदेवता श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी की फिर पूर्ववत् असाधारण प्रतिष्ठा प्रचलित हुई। बल्कि ऐसी प्रतिष्ठा से श्रीनाथजी भी वंचित न रहे। यहाँ तक कि मुख्यतया राज्य के अधीश्वर ही आप समझे जाने लगे। राजपूताने के भील लोगों की तरह यहाँ के पहाड़ी लोग भी गौआदि माननीय पशुओं को जो अभक्ष्य नहीं समझते थे। इत्यादि प्रथाओं का समूल विच्छेद किया गया। देवी देवताओं की फिर सात्विक रीति से पूजा होने लगी। परदेशी लोगों के साथ और देवी सम्प्रदाय के लोगों के साथ उचित व्यवहार किये जाने लगे। गौ ब्राह्मण, विरक्त पुरुषों को कष्ट पहुँचाने वाले मनुष्य के लिये शूली का दण्ड निर्धारित किया गया। अधिक क्या समस्त पूर्वीय अनुचित प्रथाओं का समूल उच्छेद होने के कारण साम्राज्य में परिवर्तन ही उपस्थित हो गया।
इति श्रीनाथ नेपाल राज्य परिवर्तन करण वर्णन।