Featured Post

जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Saturday, July 27, 2013

श्रीनाथ भिक्षार्थ पर्यटन वर्णन

अध्येतृवर्ग ! आपको सूचित किया जाता है कि श्रीनाथजी कालीकोट से गमन करने के अनन्तर वि.सं. 400 तक दक्षिण भारतीय एवं उत्तर भारतीय प्रत्येक प्रान्तों में भ्रमण करते रहेंं। यद्यपि आपने इस दीर्घकाल का कतिपय स्थलों में समाधि के द्वारा अन्य सर्वत्र योगोपदेश के द्वारा अतिक्रमण किया है। और अधिकारी पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये अनेक यथा सम्भावित चमत्कारों का उद्घाटन किया है। तथापि ग्रन्थ बुद्धि भय से मैं उन सब का व्यास न करता हुआ केवल समासतया मुख्य घटनाओं को ही आपके समक्ष कर देना समुचित समझता हूँ। श्रीनाथजी देश-देश और प्रान्त-प्रान्त में अपने उद्देश्य का सम्यक्तया निरीक्षण कर आज बहुत दिन के बाद फिर उसी आधुनिक टीला प्रसिद्ध पहाड़ पर आरूढ़ हुए। यहाँ भी कुछ काल पर्यन्त फिर सामाधिक अवस्था का अनुभव करने के अनन्तर आप हिमालय पर्वत की ओर अग्रसर हुए। जो त्रिविध दुःखाक्रमणहत पराक्रम सांसारिक पंकपतित निज जनों को उद्धृत करने के अभिप्राय से अनेक विध विचित्र चरित्रों का उग्दार करते हुए कुछ दिन में ज्वालादेवी के स्थान पर पहुँचे। वहाँ देवी के प्रकट हो आपको साक्षात् दर्शन दिया। तथा कुशल वार्तादि विषयक गौष्ठिक प्रश्नोत्तर के अनन्तर उसने आपको भोजन करने के लिये सूचित किया। आपने कहा कि इस बात के लिये तो क्षमा करनी होगी। हमको भोजन की नहीं केवल आपके दर्शन की ही क्षुधा थी सो निवृत्त हो गई। देवी ने कहा कि खैर यह तो कुछ बात नहीं दर्शन की क्षुधा दर्शन से और भोजन की क्षुधा तो भोजन से ही निवारित होती है। यदि मेरी प्रार्थना को अमोघ बनाना चाहें तो आप क्षुधा के बिना भी थोड़ा बहुत ग्रहण कर ऐसा कर सकते हैं। परं आपके नासिका संकुचित कर सहसा नाटने से मुझे और ही कुछ रहस्य प्रतीत होता है। अतएव आप कृपा कर यथार्थ वृत्तान्त प्रकट कर भोजनादि की स्वाभाविक इच्छा नहीं होने से आप अनंगीकार करते हैं या अन्य कारण से यदि कोई अन्य ही कारण। है तो मैं उसका भी ठीक प्रबन्ध कर अनुकूल व्यवस्था स्थापित कर सकती हूँ। आपने कहा कि रहस्य प्रतीत होने पर भी आप पूछने का आग्रह करती हैं तो हम स्फुट ही कर देते हैं। भोजन अस्वीकार का हेतु यह है कि हम लोग योगी हैं हमको आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार का शुद्धतात्मक नियम प्रथम ही दृढ़तया धारण करना पड़ता है। ऐसी दशा में आपका भोजन जो, मांस-मदिरा से विरहित नहीं है, हम ग्रहण कर लें तो हमारी क्रमशः दोनों प्रकार की शुद्धि जाती रहे। ऐसा होने पर ज्यों-ज्यों हमारी कालचय्र्या यापित होती जायेगी त्यों-त्यों हमको अपने अधःपतन का मुख देखना पड़ेगा। अतएव आपके इस भोजन को हम स्वयं ग्रहण न करते हुए यह चेतावनी देते हैं कि आपको भी ऐसे भक्ष्य के लिये अधिक लालायित नहीं होना चाहिये। खैर यह भी रहो आपका किया शुभाशुभ कृत्य हमारे गले नहीं पड़ सकता है परन्तु इतनी तो कृपा ही रखना फिर किसी योगी को ऐसे भोजन प्रदान के लिये आमन्त्रित नहीं करना। ऐसा हुआ तो समझ लो आप हमारे शाप की पात्र बन जायेंगी जिससे आपकी यह संसार व्यापी प्रतिष्ठा जो आज हो रही है समस्त धूलि में मिल जायेगी। रह गई अन्य प्रबन्ध करने की बात, यह यदि करना चाहें तो हमारी इच्छानुसार करना होगा। देवी ने कहा कि योगिराज जी आप जानते ही हैं मैं ऐसे भोजन से विशेष घृणा तो नहीं किया करती हूँ परं आभ्यन्तरिक इच्छा से यह नहीं चाहती कि लोग मुझे ऐसे ही भक्ष्य प्रदान किया करें। किन्तु समयानुसार लोगों की बुद्धि का परिवर्तन होने लगा है जिससे वे कुछ तो मेरे बहाने से और अधिक अपने जिव्हास्वादन के वशंगत होने से बहुलतया इसी भक्ष्य को व्यवहृत करने लगे हैं। उनकी आन्तरिक मुझ विषयक श्रद्धा तो न्यून और इस भक्ष्य व्यवहार में प्रवृत्ति अधिक देखकर मैं उनकी प्रार्थना पर ध्यान भी कुछ ऐसा ही देने लगी हूँ। जिससे वे अपनी अभीष्ट सिद्धि से हस्त धो बैठने पर भी केवल इस भक्ष्यास्वादन से ही आनन्द मना लेते हैं। इस प्रकार अपना परिश्रम निष्फल देखते हुए भी लोगों में जिव्हास्वादन होना अत्यन्त दुष्कर है। आप अपने विषय में मुझे आज्ञापित करें भोजन के लिये कैसे प्रबन्ध की आवश्यकता है जिसको शीघ्र सम्पादित कर आपके अतिथि सत्कार से अनृण होकर कर्तव्य पालना में उत्तीर्ण हो जाऊँगी। यह सुन श्रीनाथजी ने कहा कि यदि यही बात है तो तुम्हारा अतिथि सत्कार तो पूर्ण हुआ जो कि हमने सहर्ष स्वीकृत किया। परं एक काम करना चाहिये और वह यह है कि हमारी दालभात वा खिचड़ी बनाने की अभिलाषा है जिसमें जल आपका और अन्न हमारा होगा। आप किसी पात्र में जल चढ़ाकर उसको जब तक हम भैक्षेयाअन्न लेकर आवें तब तक उबालदियें तैयार रखना। साथ ही इस बात का भी स्मरण रखना कि हमारा वापिस लौटना हमारी इच्छा पर ही निर्भर रहेगा। अतएव इस विषय में शीघ्र प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम कभी लौटें तब तक आपको इस वृत्तान्त का स्मारक रूप होकर तादवस्थ रहना होगा। भगवती ज्वालादेवी ने आपकी यह आज्ञा सहर्ष स्वीकार की। और आपको भिक्षार्थ पर्यटन करने के लिये यहाँ से विदा किया। मेरे श्रीपदभाक् पूज्य तथा स्वस्ति पदभाक् सुहृद्, पाठक महानुभाव ! जी हाँ। आइये इस वृत्तान्त के लिखते-लिखते जो मेरा हृदय विक्षिप्त हो गया है इसको शान्ति देने के लिये कुछ क्षण पारस्परिक परामर्श कर लें। और नेत्रों की अश्रुपातात्मक वर्षा को जब तक हो होने दे लें। नहीं तो सम्भव है इस वर्षा से कापी के प्लावित होने पर अधिक देर कार्य स्थगित करना पड़ेगा। पाठक, कहिये और चलिये किस विषय में चलना है। अनुवादक, चलना तो किसी विषय में नहीं मैं केवल आप से यहीं पूछना चाहता हूँ क्या आप बतलाने की कृपा करेंगे कि श्रीनाथजी ने ज्वालादेवी का भोजन अस्वीकार कर यह स्मारक चिन्ह, जो आज तक विद्यमान है, क्यों स्थापित किया था। पाठक, आप ही बतलाइये हम तो केवल इतना ही जानते हैं जैसा कि सुनने में आता है कि श्रीनाथजी देवी को हांडी के नीचे अग्नि जलाते रहने की आज्ञा प्रदान कर स्वयं भिक्षार्थ भ्रमण करने को चले गये थे। बस इससे अधिक हम और कुछ नहीं जानते हैं एवं न कभी जानने की अत्युत्कट अभिलाषा ही की है। अनुवादक, अच्छा मैं बतलाता हूँ कृपया ध्यान से पढि़ये पढि़ये ही नहीं समझिये और अपने उत्तराधिकारियों को समझाने की कृपा कीजिये। श्रीनाथजी ने इस अभिप्राय से उक्त वृत्तान्त की स्थापना की है। उन्होंने हमको चेतावनी देते हुए समझाया है कि हे योगियों ! तुम्हारा अपने नैयमिक शौचत्व की रक्षार्थ शुद्ध भोजन स्वयं बनाकर अथवा अन्यत्र भिक्षा मांग कर ग्रहण कर लेना तो सर्वथा उचित होगा परं अभक्ष्य भक्षण के ग्रहणार्थ हमारी तरह नासिका संकुचित न कर आगे हस्त बढ़ाना कभी उचित नहीं समझा जायेगा। बल्कि इतना ही नहीं हस्त बढ़ाया तो समझ लो मनुष्यत्व से वंचित कर दिये जाओगे। अतएव ज्वालानिष्ठ इस स्मारक चिन्ह से स्मारक चिन्ह से सूचित होने वाली चेतावनी पर दृढ़ विश्वास रखता हुआ जो महानुभाव अभक्ष्य पदार्थ के विषय में हमारा अनुकरण करेगा वही हमारी सन्तान और अपने आपको गोगी कहलाने के योग्य हो सकता है। अन्यथाकार करने वाले वाले का कोई अधिकार नहीं कि वह योगी, इस महा गौरवान्वित शब्द से सुशोभित होने के लिये अग्रसर हो। धन्य है श्रीनाथजी आपको धन्य है एक बार नहीं अनेक बार धन्य है। आपने अपनी सन्तान को हर एक तरह से सन्मार्ग की ओर चलाने के निमित्त कुछ भी उठा नहीं रखा है। परन्तु खेद है आपकी सन्तति आधुनिक योगि समाज में अधिकांश ऐसे मनुष्य प्रविष्ट हो गये हैं जिन्होंने अपने नेत्रों के ऊपर पट्टी बान्ध लई है। यही कारण है वे आपकी प्रत्यक्ष भी इत्यादि चेतावनियों पर कुछ भी दृष्टिपात नहीं करते हैं। और अभक्ष्यास्वादन में लोलुप हुए उसके ग्रहणार्थ हस्तप्रसृत कर आपकी आज्ञा को उपेक्षित करते हैं। बल्कि यही नहीं कि वे नींच से नींच शब्दवाच्य पुरुष स्वयं ही ऐसा करते हों प्रत्युत अपनी चाटूक्तियों से अवरूद्ध हुए भोले-भाले सेवकों को भी उन अभक्ष्य पदार्थों के ग्रहणार्थ विवश करते हैं और उनको भयानक वाक्य सुनाते हैं कि वाह-वाह यह तो भैरूंका वा देवी का खाजा ही है इसको स्वीकार न करोगे तो भैरूं वा देवी तुम्हारे ऊपर प्रसन्न नहीं होंगे, जिससे तुम्हारा अनुष्ठान निष्फल हो जायेगा। आखिर वे विचारे क्या करें। किसी आशा की पिपासा से वंशगत हो सेवक विचारों को इनके नरकोत्पादक जटिल जाल से जकड़ी भूत होना ही पड़ता है। खैर कुछ भी हो इन योगी नाम को दूषित करने वाले यवन संस्कारी पुरुषों के जाल में बद्ध होने से पहले सेवक महानुभावों को श्रीनाथजी की चेतावनी पर विशेष ध्यान देना चाहिये। उनकी आज्ञा से विरूद्ध अनुष्ठान करने पर इन कालियुगिक जीवों के देवता भैरूं और देवी तो बात ही क्या है सृष्टिकत्र्ता ब्रह्मा भी प्रसन्न होने के लिये समर्थ नहीं है। इस वास्ते सेवक लोगों और वंचित योगियों को चाहिये कि ऐसे लोगों को को कर्णच्छिद्री देखकर योगी न समझ बैठें। ये तो संसार में देवी और भैरु के नाम से अन्यथा डींग हांक कर केवल अस्थि चूषने के लिये ही अवतरित हुए हैं। अहो अविद्ये ! तुझे नमस्कार है 3 तू जितनी दूर रहे उतना ही शुकर है। अब भी यदि तेरी भेंट पूरी हो गई हो तो कृपा कर दे और जहाँ तक तेरा प्रसार हो चुका है वहीं तक में सन्तोष कर ले। ऐसा करने से तेरा बड़ा ही उपकार होगा। नहीं तो सम्भव है पूज्यपाद योगेन्द्र गोरक्षनाथजी आदि महानुभावों की कुछ ही अवशिष्ट रही कीर्ति समस्त रसातल में पहुँच जायेगी। क्या तुझे मालूम नहीं जिस योगी नामधारी के ऊपर तेरी छाया पड़ती है वह चाहे पृथिवी उलट-पलट हो जाय परं, जिसके मुख पर भैरुं का प्याला सुशोभित नहीं हुआ है वह सच्चा योगी नहीं है, यह कहता हुआ कुछ भी आगे-पीछे नहीं देखता है। अतएव भगवती प्रकृते ! मैं फिर तुझे नमस्कार करता हूँ तथा तेरे चरणों में मस्तक स्पर्शित करता हूँ तू मेरी विनम्र वन्दना पर कुछ ध्यान दे और क्षमा कर। योगिसमाज का पीछा छोड़ दे। अब तो इसकी प्रतिष्ठा निःसन्देह रसातल में पहुँचने वाली है। इस समाज के विषय में जो, संसार कभी यह भावना रखता था कि जरासी तिरछी दृष्टि होने पर न जानें यह क्या कर बैठेगा, आज वही संसार इसके पीछै ताड़ी बजाता हुआ धूलि फैंकता है। यह क्या बात है और कुछ नहीं सब तेरी कृपा है। अतः क्षमा कर तेरी बहुत दाल गल चुकी है। अब तो तुझे चाहिये कि तू अपनी छाया को संकुचित कर ले। मैं हृदय से तुझे विदा करता हूँ। और यह अच्छी तरह जानता हूँ कि तू अत्यन्त बलवती है। जिसने चेतन शक्ति को भी इस प्रकार अपने हसत का खिलौना बनाकर इच्छानुसार नचा रखा है। (अस्तु) पाठक ! कृपा कीजिये और पूर्व प्रकरण में ध्यान दीजिये। श्रीनाथजी ज्वालाजी से प्रस्थान कर नीचे के अनेक प्रान्तों में इधर-उधर भ्रमण करने लगे। एवं पूर्व दिशा के अभिमुख हो मार्गागत नगर ग्रामों के लोगों को भिक्षा प्रदान करने के लिये सूचित करने लगे। परन्तु पाठक ! स्मरण रखना श्रीनाथजी ने केवल भिक्षा लेने के लिये सूचित करने लगे। परन्तु पाठक ! स्मरण रखना श्रीनाथजी ने केवल भिक्षा लेने के लिये पात्र हस्त में धारण नहीं किया था। यदि ऐसा ही होता तो यह कहने का प्रयोजन नहीं उनको वहाँ भिक्षा नहीं मिल सकती थी। किन्तु उन्होंने तो, हमने देवी का त्याज्य भोजन ग्रहण नहीं किया इसी प्रकार कोई भी योगी ग्रहण न करै, इस बात को भविष्य के लिये स्मारक चिन्ह बनाना था। अतएव आप इतनी भिक्षा मांगते थे जिसकी पूर्ति कोई नागरिक वा ग्रामीण पुरुष न कर सकता था। वे लोग अपनी श्रद्धानुसार जितनी कुछ भिक्षा समर्पित करते थे उससे आपका पात्र छोटा-सा होने पर भी मन्त्र संशोधित होने के कारण भरपूर नहीं होता था। आपके इस पात्र की जो, सेर अन्न के परिमाण वाला दीखने पर भी कतिपय मण अन्न को हजम कर जाता था, यह शक्ति देखकर लोग बड़े ही विस्मत होते थे। तथा योग के महत्त्व की दुर्विंज्ञेय लीला बतलाकर हस्त से हस्त विमर्दन करने लगते थे। यह देख मन्द मुस्कराते हए आपने कहा कि अये सेवक लोगों ! इस पात्र के विषय में हमारा यही वरदान है कि जब कोई इतना अन्न प्रदान कर दे जितना कि हम मांग रहे हैं तभी तू सुभर हो ना अन्यथा नहीं। यही कारण है जब तक यह अपनी मांग पूरी नहीं देखता तब तक उससे न्यून पारिमाणिक अन्न से पूर्ण नहीं होता है। यह सुन उपायान्तराभाव से विचारे वे लोग मौन ही रह जाते थे। और आप अग्रिम मार्ग का अनुसरण करते थे। इसी प्रकार अपने रंग में मस्त हुए आप कुछ दिन के अनन्तर मानपुर (आधुनिक प्रसिद्ध गोरखपुर) में पहुँचे। और मान तालाब पर आसन स्थिर कर आपने इसी याचना को नगर में प्रचारित किया। अधिक क्या अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार भिक्षा प्रदान करने के लिये बहुसंख्यक लोग उपस्थित हुए। परन्तु पूर्व की तरह आपका पात्र अपनी पूर्ति का मुख न देख सका। ठीक इसी अवसर पर एक महानुभाव, जो पाटन नगर का रहने वाला था और यहाँ किसी कार्यवश से आया हुआ था, विनम्र भाव से अभ्यर्थना करता हुआ बोल उठा। भगवन् ! यदि इतने अन्न से भी, जितना कि लोगों ने देना स्वीकार किया है, आपका पात्र पूर्ण नहीं होगा तो मैं नहीं जानता इसको कितने और अन्न की आवश्यकता है। परं इतना मैं अपनी ओर से कर देता हूँ कि आप अपने चरणरज से मेरे नगर को पवित्र करें तो मेरी कतिपय लक्ष रुपये की सत्ता है अपने सहित आपके समर्पण कर दूँगा। यदि उस समग्र सामग्री वैक्रयिक अन्न से आपका प्रयोजन कुछ सिद्धि प्राप्त कर ले तो मैं अपने आपको धन्य ही नहीं कृतकृत्य समझ लूँगा। कारण कि उसके भोक्ता पुत्र का अभाव होने से मुझे मरणावसर में भी यही सन्देह करना पड़ेगा कि न जाने किन-किन अनर्थों में उस द्रव्य का उपयोग होगा। उनकी अपेक्षा मेरे उपस्थित रहते हुए ही वह आपके पवित्र कार्य का सहायक बन जाय तो इससे उत्तम और क्या हो सकता है। यह सुन कुछ मुस्कराते हुए श्रीनाथजी ने कहा कि धन्य है वीर-पुरुष तुझे धन्य है। इतने भ्रमण में तन-मन-धन से हमारे पात्र को पूरा करने की चेष्टा वाला एक तू ही वीर पुरुष निकला है। परं यह ध्यान रखना हमने भिक्षा लेना नहीं कोई अन्य प्रयोजन सिद्ध करना था सो हो चुका है। तुम अपनी सत्ता को अपने अधीनस्थ रखते हुए भुक्त बनाओ। यदि पुत्राभाव से यह उपभोग सुखमय प्रतीत न होता हो तो यह त्रुटि पूरी करनी बड़ी बात नहीं है। पाठक ! अधिक न कहकर हम केवल इतना ही कह देना समुचित समझते हैं वह महानुभाव मुमुक्षु था। अतएव उसने, महाराज ! आपको तीनों चीज अर्पण करने का वचन दे चुका हूँ इससे पीछे हटकर मैं अपना कल्याण नहीं देखता हूँ, इस बात का हठकर आपका आश्रय ग्रहण किया। उसको इस प्रकार अपने वचन की पालना में दृढ़ हुआ देखकर श्रीनाथजी उसके ऊपर प्रसन्न हो गये। और कहने लगे कि हम पाटन में आयेंगे। तुम जाओ तब तक अपने सत्त्व का ठीक प्रबन्ध कर स्त्री आदि सुहृद्गण को भी सन्तोषित करो। ऐसा होने पर निःसन्देह तुम हमारी संगति में प्रविष्ट हो सकोगे। आपकी इस आज्ञा पर शिर झुकाकर वह उसी समय वहाँ से प्रस्थानित हो गया। इधर आप यहाँ से उठकर कुछ दूर-पश्चिम की ओर एक अनुकूल स्थल पर जा विराजे। यहाँ तक तृण की कुटी तैयार कराकर आपने लोगों को आज्ञापित किया कि जो कोई जितना अन्न देना चाहे इसमें लाकर डाल दे। यह आज्ञा पाते ही सब लोग जिसकी जितनी शक्ति थी उसके अनुसार दाल-चावल लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुए। कुछ ही देर में वह कुटी निरवकाश हो गई। यह देख आपने आज्ञा दी कि आस-पास के ग्रामों में जहाँ तक हो सकै सूचना भेज दी जाय। गरीब लोग जितनी आवश्यकता हो उतना अन्न उठा ले जायेंगे। लोेगों ने अग्रिम दिन आपकी यह आज्ञा पूरी कर दी। परुत् दिन इस अन्न के ग्राहक लोगों के झूण्ड के झूण्ड आ खड़े हुए। श्रीनाथजी, लोगों के द्वारा उनके आनीत अश्वगर्दभादि बाह्य वस्तुओं में अन्न भराने लगे। अधिक क्या जितना अन्न नगर के लोगों ने आपके समर्पित किया था उसका कई गुणा खर्च करने पर भी कुटिया टस से मस न हुई। यह देखते हुए लोग अत्यन्त विस्मयात्मक अर्णव में गोते लगाने लगे। तथा परस्पर में वार्ता करने लगे कि देखो योगियों की कैसी अगम्य लीला है। इनको दिया तथा इनसे लिया न जाने कहाँ जाता और कहाँ से आता है। जब हम इनके पात्र में डालते हैं तब तो वह भरने में नहीं आता है एवं इनकी कुटी से निकालते हैं तो यह रिक्त होने में नहीं आता है। अथवा ठीक है योग से अगम्य कोई वस्तु नहीं है। इस प्रकार की धीरता से होने वाला उनका यह आलाप श्रीनाथजी के भी श्रोत्रगत हो गया। अतएव आपने, लो कुटी हम रिक्त कर देते हैं तुम क्यों आश्चर्य करते हो, यह कहकर परिपक्व करने के लिये कुछ तो मिश्रित दाल-चावल पृथक् निकलवा लिये अवशिष्ट अपने पात्र में विलीन कर लिये। और एक कटाहा मंगाकर रक्षित अन्न को पक्व बनाने की आज्ञा दी। कुछ ही देर में यह कार्य सफल हो गया। प्रथम आपने खिचड़ी ग्रहण की। अनन्तर जन पंक्ति में वितीर्ण की गई। उपस्थित कतिपय सहस्र मनुष्यों की क्षुधा शान्त करने पर भी कटाह ने अपना तलीय भाग नहीं दिखलाया। अन्ततः जब समस्त मनुष्य भोजना दान से लब्धावकाश हो गये तब आपने सम्बोधन करते हुए लोगों को अपने इस कृत्य का यथार्थ उद्देश्य सुनाया। और कहा कि यद्यपि समय का प्रवाह अपना प्रभाव अवश्य दिखलायेगा तथापि यह कहने का प्रयोजन नहीं कि उस प्रभाव में प्रवाहित न होने के लिये कोई वंचित रहना चाहेगा तो नहीं रह सकेगा। किन्तु वह उससे वंचित रहता हुआ हमारे मार्ग का स्मारक भी बना रह सकेगा। खैर जो भी कुछ हो हमारे अनुयायी कहलाने वाले सज्जन समय के चक्र में न पड़ जाये हमने इसी अभिप्राय से देवी ज्वालाजी के त्याज्य भोजन को अस्वीकार कर भिक्षापात्र हस्त में धारण करते हुए इस वृत्त का उद्गार किया है। आशा है आप लोग भी इस स्मारक चिन्ह को सम्भवित अनुकूलता के साथ ’ प्रचलित रखेंगे। आपके इस कथन पर शिर झुकाते हुए लोगों ने वाचनिक नियम किया। जिससे आप अत्यन्त प्रसन्न हुए और लोगों को हार्दिक आशीर्वाद प्रदान कर देवी पाटन की ओर प्रस्थान कर गये। आगे उक्त महानुभाव गृह प्रबन्ध की ओर से सर्वथा निश्चित हो आपके शुभागमन की प्रतिपालना कर ही रहा था। उसने स्वागतिक होते ही अपना शरीर आपके समर्पण कर दिया। आप उसको सादर ग्रहण कर उत्तर की और बढ़े। और धवलगिरि नामक पर्वत पर जाकर उसको अपने गृह की कंजी बतलाने लगे।
इति श्रीनाथ भिक्षार्थ पर्यटन वर्णन ।

Tuesday, July 23, 2013

श्री भर्तृनाथाद्रि वहन वर्णन

पाठक महाभाग ! क्षमा कीजिये मैं सिंहावलोकन न्याय से एक बार फिर आपका ध्यान उक्त अध्यायों की ओर आकर्षित करता हूँ। आप कृपया कालीकोट (कलकत्ते) वाले वृतान्त पर दृष्टिपात करने का प्रयास करें। ऐसा करने से आप एक बार फिर इस बात से परिचित हो जायेंगे कि श्रीनाथजी स्वयं दाक्षिणात्य प्रान्तों को लक्षित कर समीपस्थ योगियों को स्वच्छन्दता से विचरण की आज्ञा प्रदान करने के अनन्तर जब वहाँ से गमन कर गये थे, तब वे योगी भी अपने-अपने अभीष्ट स्थान के उद्देश्य से प्रस्थानित हुए पर्यटन करने लगे थे। उनमें यद्यपि अन्य योगी एकाकी भ्रमण द्वारा योगोपदेश कर अपने कर्तव्य पालन में अग्रसर हुए थे, तथापि सूर्यनाथ और पवननाथ ये दोनों महानुभाव एकत्रित रहते हुए ही इस कार्य में दत्तचित्त हुए। आप गुरुजी से पृथक् होने के अनन्तर सर्प गति से कतिपय वर्ष पर्यन्त इधर-उधर के अनेक प्रान्तों में भ्रमण कर तीर्थराज प्रयाग प्रान्त में आये। ’ यहाँ आपके गुरुभाई भर्तृनाथजी कुछ दिन से गति स्थगित कर रहे थे। इनसे आपका अपूर्व पै्रतिक साक्षात्कार हुआ। और कुछ दिन के लिये आप भी यहाँ विश्रामित हो गये। आप लोगों का कई एक दिन योगप्रचार विषयक पारस्परिक परामर्श होता रहा। अन्तिम दिन जबकि दोनों महानुभाव प्रस्थानाभिमुख हुए तब भर्तृनाथजी ने पूछा कि आप लोगों का अब किस ओर जाने का विचार है। उन्होंने उत्तर दिया कि हम उसी पांचाल देशीय पहाड़ी पर जायेंगे जहाँ हमको योग दीक्षा प्राप्त हुई थी। क्यों कि कुछ वर्ष समाधिनिष्ठ होने की इच्छा है इस कार्य के लिये हमको वही स्थल विशेष रूचिकर है। सम्भव हो सकता है कि वहाँ तक के देशाटन में कोई मुमुक्षु शरणगत हो जायेंगे तो उनकी दीक्षा प्रणाली के कारण से इस कार्य में कुछ काल का विलम्ब हो जायेगा यदि ऐसा न हुआ तो बस वहाँ पहुँचने की ही देरी है हम शीघ्र उस अवस्था में परिणत होने वाले हैं। तदनु भर्तृनाथजी ने कहा कि अच्छा आप चलिये। कोई मुमुक्षु हस्तगत हुआ तो हम भी कुछ दिन में वही आते हैं। और यह भी सम्भव है आप लोगों का भी पर्यटन निष्फल नहीं जायेगा अवश्य कोई न कोई महोपरामी महाभाग उपस्थित हो आप लोगों को अपना उत्तरदायित्व हल करने का अवसर देगा। जिससे आप मुझे वहाँ इसी अवस्था में उपलब्ध हो सकेंगे। यह सुन उन्होंने, खैर जैसी श्रीनाथजी की इच्छा होगी वैसी दृष्टिगोचर हो ही जायेगी हमारा तो दोनों बातों से कल्याण है, यह कहकर आदेश-आदेश शब्दोच्चारण के साथ शिरनमन पूर्वक वहाँ से प्रस्थान किया और भवसागर तरणानुकूल योगात्मक नौका से परिचित होने के लिये जनों को प्रोत्साहित करते हुए आप कुछ दिन में लक्षित स्थान आधुनिक प्रख्यात गोरक्ष टीला पहाड़ पर पहुँचे। आपका यह भ्रमण भर्तृनाथजी की अमोघ सम्भावनानुसार चार परम वैरागी सज्जनों ने सार्थक किया। अतएव आप अपना उद्देशित सामाधिक कार्य स्थगित कर प्रथम दो-दो को ग्रहण करने के साथ-साथ ही शिष्यों को संसार समुद्रोल्लंघनक्षम योगरूप नौका का जटिलजालावरूद्ध मर्मस्थान दर्शाने लगे। आप लोगों के इस कृत्य में प्रवृत्त होने से कुछ ही दिन पश्चात् उधर से भर्तृनाथजी भी असंख्य युग से सांसारिक अगाध पंकपतित हुए स्वोद्धारेच्छु एक महानुभाव को स्वीयभुजावलम्बित कर वहीं आ उपस्थित हुए। और दो-चार दिन के विश्रामानन्तर उनकी तरह आप भी अपने शिष्य को गम्यस्थान का मार्ग प्रदर्शित करने में तत्पर हुए। यह महानुभाव जैसा आप चाहते थे ठीक वैसा ही समाहित चित्त उत्तमाधिकारी निकला। अतएव आपने यमनियमादि की उपेक्षा कर केवल अभ्यास वैराग्य से ही उसको योगवित् बनाने के अभिप्राय से प्रथम शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्ति के लिये षट्कर्मों में निपुण किया। तदनन्तर कुछ दिन में उक्त दो उपायों से ही जब वह सामाधिक दशा में विलीन होने का ठीक-ठीक प्रकार समझ गया तब आपने उसके लिये अनपेक्षित भी मन्द मध्यमाधिकारी के उपकारक उपायों से उसको विज्ञापित करना आरम्भ किया। और बतलाया कि अये महाभाग! यदि मन्द अधिकारी कोई पुरुष तुम से योगमार्ग में प्रवृत्ति कराने का विशेष आग्रह करे तो तुम उसको इन षट्कर्मों और यम नियमादि अष्ट अंगों मंे पूर्ण कुशल करके ही वैसा कर सकोगे। अतः ऐसे पुरुष के लिये अष्टांगों की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। इस बात पर दृढ़ निश्वास न रखने वाले को कुछ दिन के विलम्ब से अकृतकार्य होकर फिर इसी क्रम पर आना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त यदि कोई मध्यमाधिकारी पुरुष योगवित् बनने के अभिप्राय से तुम्हारे शरणागत हो तो उसको कृतकृत्य करने के लिये तुम्हें केवल अनशनादि उचित व्रत, तथा प्रणवजप और प्रणिधान इन तीन उपायों से ही कार्य लेकर अन्य यमादि की उपेक्षा करनी होगी। तदन्य सौभाग्यवश यदि उत्तमाधिकारी कोई सज्जन तुम्हारा आश्रय ग्रहण करै तो उसको अभीष्ट सिद्धिप्रद प्रकार को तुमने स्वयं ही अनुष्ठित किया है। उसका इसी से कार्य निर्वाहित हो जाने से मन्द मध्यमाधिकारी के प्रकार को केवल तुम्हारी तरह समझ लेना ही उचित होगा। इस तरह प्रयत्नाप्रयत्न साध्य प्रकार त्रय का ज्ञान प्राप्त कर वह अत्यन्त आनन्दित हुआ। तथा धन्य गुरो! धन्य गुरो ! शब्दोच्चारण करता हुआ गुरुजी के चरण पुगल मंे बार-बार मस्तक लगाने लगा। एवं गुरुजी की असाधारण प्रीति देखकर गदगद हो कहने लगा कि स्वामिन् ! सम्भव है हो जायेगी परं इस समय मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं जिससे मैं आपके महत्तर उपकार का बदला चुका सकूँ। यह सुन भर्तृनाथजी ने कहा कि अये भद्र ! यह बात सदा याद रखनी चाहिये कि शिष्य के लिये यदि गुरुपकार का बदला चुकाना है तो इससे उत्तम और कुछ नहीं कि वह गुरुपदेश को अबन्ध्य बना दे। ऐसा न करने वाला मनुष्य अन्य शारीरिक सेवादि सहस्र कृत्यों से भी यथार्थ रूप में गुरु का बदला नहीं चुका सकता है। और न आभ्यन्तरिक भाव से गुरु उसके ऊपर प्रसन्न ही होता है। इस बात में प्रमाण अन्वेषणा के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक मनुष्य में घटा लीजिये कोई भी मनुष्य किसी का परममित्र वा सेवक बना हो और अनेक प्रकार की घड़ी भी धैर्य न धर सकता हो। इतना होने पर भी यदि वह अपरमित्र के वा सेव्य के द्वारा निर्दिष्ट सदुपदेश में आस्था न रखता हो तो वे उसके विषय में नासिका संकुचित करने लग जाते हैं। अतएव इससे यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि कोई भी मनुष्य किसी दूसरे के उपकार का प्रत्युपकार करना चाहता हो वा उसको प्रसन्न करना चाहता हो तो वह उसके गृहीत पथ पर सविश्वास पदार्पण करै। ठीक इसी के अनुकूल जब तुम अपने प्रबल पांच शत्रुओं के साथ युद्ध करने के उद्देश्य से हमारे अवलम्बित मार्ग पर डटे हो बल्कि आ डटे ही नहीं तुमने युद्धोपयोगी सामग्री भी संगृहीत कर ली हैं तब यह कहने का प्रयोजन नहीं कि हमारा बदला चुकाने के लिये किसी और बात की आवश्यकता है। किन्तु तुमने हमारे प्रयुक्तोपदेश को सविश्वास और शीघ्रता के साथ जो ग्रहण किया है हमने इसी को सब कुछ प्रत्युपकार समझ लिया है। रह गई उपदेश चरितार्थता की बात, उसमें हम कुछ सन्देह ही नहीं करते हैं। क्यों कि हमारे उपदेश में कौशल्य प्रापत करना कभी निष्फल नहीं हो सकता है। आपके इस कथन से शिष्य महानुभाव के हृदयागार में आपके विषय की भक्ति श्रद्धा का जो प्रवाह प्रचलित हुआ उसका परिमाण लिखना लेखनी की शक्ति से बहिर है। वह प्रथम तो प्रत्येक क्रिया प्रदान में प्रदर्शित होने वाली आपकी असाधारण चतुरता और प्रीति पर ही मुग्ध हो गया था। दूसरे आपको प्रत्युपकारार्थ निरीह समझ कर उसके आन्तरिक स्थान में जो धारणा संचरित हुई वह सर्वथा अकथनीया थी। ठीक उसी का उद्घाटन करने के अभिप्राय से उसने कहा कि स्वामिन् ! यों तो ईश्वरीय वास्तविक इच्छा का मर्म जानना बड़ा ही दुष्कर है नहीं कह सकते उसकी अनुकूलता के अनुसार कुछ काल में क्या से क्या हो जाय तथापि स्वकीय चित्त की भावना आपके अभिमुख प्रस्फुट करता हूँ मैं प्राणान्त पर्यन्त भी आपके पुण्योपदेश से संस्कृत हुए अपने शरीर को कलंकित करने वाली प्रमत्ता धारण नहीं करूँगा। तथा भगवान् न करै मैं आहंकारिक वाक्य कह डालूँ परं इतना अवश्य कहूँगा कि मेरी उचित कर्तव्य पालना को देखकर आप अपने चित्त में स्वयं यह निश्चय करने को बाध्य होंगे कि अवश्व हमने पात्र में ही वस्त्वारोप किया है। यह सुनकर भर्तृनाथजी अत्यन्त प्रसन्न हएु कहने लगे हाँ यह अवश्य है किसी भी देश की उन्नति अवनति को उसका वाणिज्य सूचित कर सकता है। अर्थात् इसका मतलब यह हुआ कि कोई भी मनुष्य किसी देश के व्यापारी की उन्नति देखकर भ्रमण किये बिना ही उस देश की उन्नति का निश्चय कर लेता है। ठीक इसी प्रकार हमने तुम्हारे सादर क्रिया ग्रहणता में प्रदर्शित होने वाले श्रद्धेय व्यापार से यह प्रथम ही निश्चित कर लिया है कि हमारा जितना उपदेश तुम्हारे में प्रविष्ट हो चुका है वह किसी प्रकार भी किम्प्रयोजन नहीं हो सकता है। प्रत्युत भगवान् आदिनाथजी सहायक हो जायें तो तुम्हें इसके द्वारा जीवता से विरहित हो जाने का अवसर प्राप्त हो सकेगा। तदनन्तर शिष्य को पूर्ण अधिकारी प्रमाणित कर आपने उसको मान्त्रिक आस्त्रिक विद्याओं में असाधारण कुशलता प्राप्त कराना आरम्भ किया। उसी प्रकार कुछ दिन और सानन्द व्यतीत होने लगे। पाठक ! सम्भव है यह बात आप से अनवगत नहीं होगी कि संसार में जितने मनुष्य देखें जाते हैं पूर्वजन्माचरित अदृष्टाख्य कर्म की पोटली उन सबके साथ विद्यमान रहती है। वह भी यह स्मरण नहीं रखना कि जैसे प्रत्येक व्यक्ति में जीवात्मा समरस है वैसी ही समता रखने वाली होगी। प्रत्युत समस्त व्यक्ति जितने भेद में परिणत हुई हैं उतने ही भेदान्वित वे कर्म पोटली भी समझनी चाहिये। यही कारण है उनके अनुकूल विविध कार्यों में अवतरित व्यक्ति विविध प्रकार से ही कृताकृत कार्य देखी जाती हैं। कोई भी मनुष्य किसी कार्य में एक दिन प्रवृत्त रहता हुआ निपुणता प्राप्त करता है तो कोई मनुष्य अर्ध दिवस में ही उसका मर्म समझ जाता है। कोई एक तीसरा ऐसा अनार्थ मिलता है वह उसी कार्य में कुशल होने की अभिलाषा से दो वा तीन दिन तक खर्च कर डालता है। ठीक यही वृत्त यहाँ भी उपस्थित हुआ। भर्तृनाथजी का शिष्य उन्हीं क्रियाओं में अन्य योगियों से पीछे प्रवृत्त होने पर भी पहले उत्तीर्ण हुआ। प्रिय शिष्य की यह विलक्षण प्रतिभा देखकर भर्तृनाथजी के आनन्द का ठिकाना न रहा। आप परम हर्षित हृदय से अस्फुटतया उसकी प्रशंसा करने लगे। और उसको दैनिक समाधि का अवलम्बन करने की आज्ञा प्रदान कर गुरु भाइयों के परामर्शानुसार कुछ काल के लिये स्वयं भी समाधिनिष्ठ हो गये। इधर कुछ ही दिन के अनन्तर सूर्यनाथजी तथा पवननाथजी ने भी अपने-अपने शिष्यों को तादृश बना दिया। तथा स्वकीय पूर्व चिन्तन के अनुकूल शिष्यों को अभ्यास परिपक्व करते रहने का आदेश दे कर ये भी उसी अवस्था में अवतरित हुए। भगवान् आदिनाथजी की सानुकूल अपरिमित कृपा अपरिमित कृपा के प्रताप से आप लोगों का यह काल निर्विघ्नता के साथ अतिक्रमित हुआ। भर्तृनाथजी के समाधि का उद्घाटन कर बैठने पर भी सूर्यनाथादि का अभी कुछ ही समय अवशिष्ट था। ऐसी ही दशा में आपने देशान्तर भ्रमणार्थ गमन करने का संकल्प किया। एवं इस विषय में अपने हृद्य शिष्य का अभिमत लेने के लिये उससे कहा कि भद्र ! हम अन्यत्र जाना चाहते हैं। बोलो तुम्हारी क्या इच्छा है हमारे साथ चलना है अथवा यहीं रहना है वा अन्यत्र जाना है। उसने कहा कि स्वामिन् ! यह आपकी आज्ञा पर ही अवलम्बित है। यह कहने का प्रयोजन नहीं कि जो अनुष्ठातव्य कृत्य है वह आप से अनवगत होगा। प्रत्युत तीनों की ग्राह्याग्राह्यता आपके अभिमुख विद्यमान है। जिस किसी का भी आदेश प्रदान करेंगे। मुझे वही शिरोधार्य स्वीकृत होगी। इस पर भी यह तो स्पष्ट ही है कि अब यहाँ निवसित रहने का मेरा कोई आवश्यकीय प्रयोजन दृष्टिगोचर नहीं है। अवशिष्ट रह गई दो बात उनमें जिस ओर भी आप मुझे प्रवृत्त करेंगे मानों मुझे अपना कर्तव्य पालन करने का अवसर प्रदान करेंगे। सौभाग्य यदि आप स्वकीय चरणच्छाया में रक्खेंगे तो मैं आपकी सेवा कर आपविषयक उत्तरदायित्व से मुक्त होने का लाभ उठाऊँगा। इसके अतिरिक्त अन्यत्र योग प्रचारार्थ प्रेषित करेंगे तो मैं उसमें प्रयत्नशील होकर श्री महादेवजी के उत्तरदायित्व से विमुक्त हो सकूँगा। यह सुन मन्द मुस्करा कर आपने कहा कि अच्छा दो चार दिन के अन्तर ही यहाँ से चलेंगे। तुमको कुछ दिन पर्यन्त हमारे साथ ही रहना होगा। उसने गुरुजी के इस निश्चयात्मक आदेश को हस्ताजंलि बद्ध हुए शिर नमन द्वारा अंगीकृत किया। तथा अपने अपरिमित आनन्दान्वित हृदयागार में अनेक भावनाओं का उद्धार करता हुआ वह प्रास्थानिक पवित्र दिवस की प्रतिपालना करने लगा। अर्थात् वह अपने विषय में मैं कुछ वर्ष पहले क्या था और क्या बन गया, यह विचार कर हर्ष शोक दोनों का ही उद्घाटन करने लगा। उसने यद्यपि, मैं असंख्य जन्मान्तरों से इस सांसारिक दुःखत्रय से तिरस्कृत होता हुआ चला आ रहा था सौभाग्य अब के इससे विमुक्ति पाने के लक्षण अभिमुख हुए, यह सोचकर तो महा हर्ष प्रकट किया। एवं इसी बात का अधिकार लेकर वह भगवान् आदिनाथजी से आरम्भ कर प्रधान योगाचार्यों की विनम्र अभ्यर्थना करता-करता इस शिलोच्चय स्थल की भी प्रशंसा करने लगा। जड़ वस्तु की स्तुति करना समुचित नहीं है यह समझता हुआ भी उसका परम हर्ष हर्षित हृदय प्रेरणा किये बिना ही यह कहने को बाध्य हुआ कि धन्य है हे अद्रे ! तुम्हें धन्य है मेरे इतना महत्व और पवित्रत्व प्राप्त करने के समय मुझे तुमने अपने ऊपर धारण किया। जिससे अनुष्ठित कृत्य के लिये जैसे सौख्यप्रद पवित्र स्थानिक निवास की आवश्यकता होती है मुझे वैसा ही सर्वथानुकूल निवास प्राप्त हो सका। इसका फल यह हुआ कि मैं अपने ध्येय की प्राप्ति के साधक कार्य वृन्द से उत्तीर्ण हो गया। इस उपकार के लिये मैं तुम्हें फिर धन्यवाद देता हूँ तुम धन्य हो 3 । परं क्षमा कीजिये अब मैं तुमसे वियोगित होने वाला हूँ। तथापि वह इस क्षण के अनन्तर यह स्मरण कर, शोक ग्रस्त हुआ कि अहो राई की ओट में पर्वत छिपा हुआ है, यह कहने वाले किंचित् भी भूल नहीं करते हैं। यद्यपि अज्ञानाच्छादित हृदय सांसारिक मूढ लोग इस कहावत का ज्यों का त्यों अर्थ लगाकर इसको तो सोलों आने झूठ और इसके कथन करने वाले को असत्य भाषी बतला डालते हैं। तथापि जो मनुष्य कभी अनुकूलादृष्ट वशात् अपने हृदय को अज्ञानाच्छादन से लब्धावकाश कर देखता है तो उसको इस बात में किंचित् भी असत्यता नहीं दीख पड़ती है। कारण कि अज्ञानान्धकार से विरहित स्वच्छ हृदय से उसको इस कहावत का मर्म स्पष्टतया प्रतीत होने लगता है। और वह निश्चय करता है कि इस कहावत में राई का अर्थ सत्संगतिनिष्ठ किंचित् दुःख है। एवं पर्वत का अर्थ असंख्य कल्पों में होने वाला दुःख है। जो महोच्छायमान मेरू पर्वत की समानता रखता है। मेरू पर्वत की अपेक्षा राई जितने परिमाण में वर्तमान है इस दुःख ढेर की अपेक्षा वह सत्संगतिनिष्ठ दुःख उतने ही परिमाण से युक्त कहा जा सकता है। उसी राई की समानता रखने वाले सत्संगति निष्ठ दुःख की आड में यह पर्वत की समानता रखने वाला असंख्य काल्पिक दुःख ढेर छिपा हुआ है। कोई भी महाभाग मनुष्य यदि इस बात पर पूर्ण विश्वास ले आवे और योगवित् सत्पुरुष की संगतिनिष्ठ योगक्रिया विषयक राई पारिमाणिक उस दुःख से पार हो जाये तो इस कल्पान्तर्गत पर्वत पारिमाणिक दुःख से उलंघित होना उसको कुछ भी कठिन नहीं है। इसी का नाम है राई की ओट में पर्वत का छिपना। ठीक इसी बात को साभिप्राय जानने के लिये आज भगवान् श्रीमहादेव जी ने मुझे अवसर प्राप्त कियां जिसमें यथार्थ अनुभव कर आज मैं स्वयं उसका प्रमाणभूत हो सका। अहो क्या ही आश्चर्य की बात है इस अज्ञान में कितनी प्रबल और कैसी विचित्र शक्ति है। सुगम से सुगम उपाय के समीप होने पर भी वह मनुष्यों को उसका साक्षात् न होने देकर कल्पों पर्यन्त महादुःख में डाले रहता है। हे मनुष्यों ! यदि तुम मेरी आवाज को सुनते हो तो राई की ओट में पर्वत छिपा है निःसन्देह छिपा है। इसको किंचित् भी झूठ नहीं सकझो। तुम्हारे भले के लिये मैं शुद्ध भाव से तुम्हें चेतावनी देता हूँ कि यह बात सोलों आने सत्य है। अतएव तुम जहाँ बहुत काल से इस मेरु पर्वत समान दुःख का अनुभव करते आये और कर रहे हो वहाँ कृपा कर जिस राई समान छोटे दुःख का मैंने अनुभव किया है उसका अनुभव करने के लिये तुम भी कटिबद्ध हो जाओ। फिर देखोगे और निश्चय करोगे वह महादुःखात्मक पर्वत राई की आड में छिपा हुआ था कि नहीं। यदि यह कहो कि चेतावनी देने वाला स्वयं दुःखत्रय से विमुक्त नहीं हुआ है किन्तु अभी तो उसने मुक्ति के साधन ही प्राप्त किये हैं। फिर वह महा दुःख से पार होने की जो हमको सूचना देता है यह संगत कैसे हो सकती है। तो इस कथन में मैं हृदय से स्वीकृत करूँगा। एवं तुम्हारी पुष्टि के लिये कह भी दूँगा कि अवश्य मैं कभी असाधारण दुःख से मुक्त नहीं हुआ हूँ। परं साथ में यह कहे बिना नहीं रह सकता कि यहाँ तक पहुँचने पर मैंने जिन अनेक सांसारिक साधारण दुःखों को उलंघित किया है उनके अभाव से मुझे इतना आनन्द हो गया है जिससे मैं सहज में ही यह निश्चय कर सकता हूँ कि अब वह स्थान दूर नहीं जिससे प्रविष्ट हो दुःखत्रय से विरहित हो सकूँगा। इत्यादि अनेक उपस्थित संकल्पों में विलीन होने के अनन्तर उसने अपने गुरुभाई अन्य योगियों को सूचित किया कि हम तो अभी एक दो दिन में ही देशान्तर पर्यटन के लिये यहाँ से प्रस्थान करने वाले हैं। अतः कृपादृष्टि रखना और पारस्परिक गोष्ठी में प्रसंगवश से कोई अनुचित शब्द निकल गया हो उसके विषय में क्षमाप्रदान करना, सम्भव है पूज्यपादजियों के जागरित होने पर आप लोग भी देशान्तर के लिये गमन करेंगे। जिससे फिर कहीं न कहीं दर्शन लाभ होगा। उन्होंने कहा कि यह तो निश्चय ही है दो आगे पीछे अपने कार्य में अवतरित होने के लिये हमको भी यहाँ से प्रस्थानित होना ही पड़ेगा। क्यांे कि प्रयोजन से अतिरिक्त यहाँ निवास करने का कोई विशेष महात्म्य नहीं है। परं यह है कि जब तक गुरुजी समाधिनिष्ठ हैं तब तक यहाँ ठहरना ही उचित है। आशा है अवधि समीप होने से अब गुरुजी भी शीघ्र समाधि का उद्घाटन करने वाले हैं। अतएव आप कुछ ही दिन और यहीं ठहरें फिर साथ ही भ्रमणोन्मुख होवेंगे। कतिपय वर्ष के सहवास से हम लोग आपके प्रेमपाश से आबद्ध हो गये हैं। यही कारण है परस्पर में अनेक उचित प्राकरणिक वार्तालाप करते कराते हम लोगों का सौख्यप्रद समय व्यतीत हो रहा है। उसने कहा कि यह सब आप लोगों की कृपा है। मैंने जो आपके संसर्ग से लाभ उठाया है वह सर्वथा प्रशंसनीय है। मैं आप लोगों के अपूर्व प्रैतिक व्यवहार पर हार्दिक धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता हूँ। परं इस विषय में तो क्षमा ही कीजिये। मैं अधिक दिन यहाँ ठहरने के लिये समर्थ नहीं हूँ। क्यों कि गुरुजी निश्चय कर चुके हैं कल वा परुत् दिन वे अवश्य प्रस्थानित होने वाले हैं। यह सुन उनमें से भावाी के प्रेरित हुए एक योगी ने सहसा यह शब्दोच्चारण किया कि आप यहाँ ठहरने के लिये असमर्थ क्यों हैं। गुरुजी जायेंगे तो यह तो नहीं कि इस स्थल को ही उठा ले जायेंगे। इधर से इसका यह कहकर विश्राम लेना हुआ तो उधर से वायु सेवनार्थ बहिर गये हुए भर्तृनाथजी दैवगत्या वहाँ आ निकले। यह देख वे शंकित से होकर प्रकरणान्तर की बात करने लगे। परन्तु उनकी इस शंका का कारण शब्द आपसे अश्रुत न रहा। इतना होने पर भी आपने उनके सम्मुख तो कुछ प्रस्ताव नहीं किया परं अपने चित्त में यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि इनको ऐसा ही करके दिखलाया उचित है। आखिर एक दो दिन बीते तीसरा दिन आने को तैयार हुआ। आपने अपने शिष्य को विज्ञापित कर दिया कि तुम अपने इसी आसन पर विराजमान रहना। हम एक ऐसा उपाय करेंगे जिससे केवल हमको ही चलना पड़ेगा। तुम बिना ही पादक्रम किये हमारे साथ चल सकोगे। वह सत्य वचन यह कह कर गुरुजी की आज्ञा के अनुसार स्थित रहा। उधर आपने गुरुप्रदत्त विचित्र विद्या का अनुष्ठान किया। जिसके अमोघ प्रताप से सूर्यनाथादि के आसन से कुछ अन्तर पर जहाँ आपका आसन स्थित था उस जगह का पहाड़ फट कर पृथक् हो गया। यह देख प्रसन्न होते हुए आपने उसको वहाँ से उठाकर कहीं अन्यत्र ’ स्थापित किया। पाठक इस चरित्र से योग के महत्त्व जो लोगों के हृदय पर प्रभाव पड़ा उसका आप स्वयं अनुमान कर सकते हैं।
इति श्री भर्तृनाथाद्रि वहन वर्णन ।

Saturday, July 20, 2013

श्री चौरंगीनाथ शालिपुर आगमन वर्णन ।

चौरंगीनाथजी गुरुजी की आज्ञा प्राप्त कर कलकत्ता से प्रस्थानित हुए किसी प्रकार के अनवरत गमन द्वारा एकदम शालिपुर पहुँचे। यहाँ आपने उस बाग में जो कि आपके जन्म दिन स्मारक रूप से लगाया गया था, अपना आसन निश्चित किया। महाराजा शालीवाहन की तिर्यग् दृष्टि से यह आराम भी वंचित न रह सका था। उसने जैसे ही आपके साथ महान् अनुचित और अविचार का व्यवहार किया था वैसे ही बहु प्रयत्न से आरोपित इस बाग की परिचालक व्यवस्था का भी भंग कर डाला था। यही कारण था जहाँ कभी सहस्रोंे संख्या में मनुष्य कार्य करते हुए इसके मनोरंजक सौन्दर्य को बढ़ाते थे। वहाँ आज एकाध मनुष्य पड़ा केवल पशु बारण का ही काम कर रहा है। कितने ही वृक्ष शुष्क होकर नष्ट हो गये थे। कितने ही इस दशा में पहुँचने वाले थे। अधिक क्या जिस मनुष्य ने इसकी उस समय की सुन्दरता देखी थी वह कौन ऐसा मनुष्य था जो इस अवसर में इसको देख अपने नेत्रों से दो बूँद न डालता हो। यह दशा देख आपका चित्त भी कुछ विक्षिप्त हुआ और उसमें अनेक भाव उत्पन्न होने लगे। अन्ततः सावधान हो आपने गुरुपदिष्ट वार्षिकास्त्र का प्रयोग किया जिससे बाग की बहुत दिनों से उत्पन्न हुई तृषा शान्त हुई। प्रतिदिन शुष्क दशा में परिणत होने वाले वृक्ष अपने जीवित होने की आशा करने लगे। अधिक क्या बाग में प्राकृतिक स्वभाव में परिवर्तन हो आया। यह जहाँ इस दशा में मालूम होता था कि मानों आपके कत्ल होने का शोक कर रहा है वहाँ आज ऐसा प्रतीत होने लगा मानों सचमुच आपके आगमन पर प्रसन्नता प्रकट कर रहा है। टूटे-फूटे पुष्प पेड़ों में फिर कलियों का उद्गमन हुआ जिनकी परस्पर में मिश्रित हुई सुगन्धी पूर्वावसर का स्मरण कराने लगी। सात्विक शीतल वायु मन्द गति से प्रचलित हुआ। यह देख वे पक्षी जो इससे नासिका संकुचित कर अन्य बागों में चले गये थे फिर इसी में आकर निवसित हुए। जिनके विभिन्न स्वरमाधुर्य ने आपके विक्षिप्त चित्त को ठिकाने ला दिया। इतना होने पर भी मूढ बागवासी मालाकार ने यह नहीं सोचा कि अकस्मात् बाग की दशा पलट जाने का कारण है। किन्तु उसने अनुमान किया कि अब के वर्ष का ऋतु ही ऐसा अनुकूल है जिससे बाग की अघटित घटना उपस्थित हो गई। योगी को ऐसा करने की कौन जरूरत पड़ी जो किसी का बाग शूका वा हरा करे। यदि ऐसा ही होता तो आजपर्यन्त कहीं एक योगी यहाँ आये और इच्छा हुई उतने दिन निवास कर चले गये। उन्होंने ही इसको कभी का ऐसा कर दिया होता। अस्तु अन्ततः जब दिनों दिन बाग की चमन अवस्था बढ़ती ही चली गई तब उसने अपने प्रतिवेशियों वा अपने से मिलने वाले राजपुरुषों से इस विषय में परामर्श करना आरम्भ किया। बल्कि यहाँ तक कि अननुभवित सुगन्ध पुष्पों की माला तैयार कर राजकीय कर्मचारियों की सेवा में भेजने लगा। कुछ दिन तो यह वार्ता सन्दिगध होने पर भी उन लोगों के मन की मन ही में रही और उपहार रूप से उसको कुछ देते लेते हुए सोचते रहे कि शायद अपनी आजीविकार्थ प्रयत्न से सींचकर इसने कोई वृक्ष ऐसा तैयार कर लिया होगा। जिससे कि कुछ पुष्प उपलब्ध हुए जायें। परं जिस प्रकार वह प्रतिदिन मालायें भेजने लगा उसी प्रकार उनका चित्त अधिकाधिक सन्देहग्रस्त होने लगा और जब कभी वे यह निश्चय करते थे कि यह इनते तथा ऐसे पुष्प प्रतिदिन कहाँ से लाता है। जिस बाग में यह रहता है उसमें इतने पुष्पों का मिलना मुश्किल ही नहीं असम्भव है। तब आप ही अपने मन में इस प्रकार समाधान भी कर बैठते थे कि अथवा ठीक है राजा साहिब का उपेक्षित होने से वह बाग सब लोगों की उपेक्षा का पात्र हो गया। इसीलिये पुष्पग्राही लोग उधर कोई भी नहीं जाते हैं शायद यही कारण होगा कम से कम होने पर भी बड़ा बाग होने से इतने पुष्प अक्षर मिल ही जाते होंगे। तथापि यह बात अधिक दिन ऐसी सन्देहस्पद न रह सकी। उन लोगों ने स्वयं वायुसेवन के समय उधर जाकर उसका निरीक्षण किया। परं आज यह वह बाग न रहा था जो शून्यशान दशा में परिणत हो गया था। ये महानुभाव ज्यों ही बाग के समीप पहुँचे थे त्यों ही इन्हों को उसमें बैठे हुए पक्षियों के उद्घोषित कालोहल से उसके परिवर्तन की सूचना मिलती गई थी। आखिर जब ये राजपुरुष बाग के अन्तर प्रविष्ट हुए तब तो इन्होंेने महान आश्चर्यग्रस्त हो इस अघटित घटना का कारण पूछना चाहा तथा माली से कहा कि किसी ओर से से जल का आगमन नहीं होने पर भी इस बाग में जल की कोई त्रुटि मालुम नहीं होती है। यही कारण है कि दो सप्ताह के अन्तर्गत अकस्मात् बाग का विस्मापक द्रश्य उपस्थित हो गया है। भला इसके विषय में तुझे कुछ विदित है किस कारण से यह ऐसा हुआ है। उसने उत्तर दिया कि लगभग दो वा तीन सप्ताह हो गये एक दिन रात्री के समय इस बाग में अच्छी वर्षा हुई थी। तदनन्तर जब मैं प्रातःकाल उठकर देखता हूँ तब प्रतिदिन सूक्ष्म वर्षा हुई पाती है। जिससे एकाएक बाग की दशा पलटकर इस दर्जे पर पहुँची है। अतएव मैं स्वयं इस विषय में सन्दिग्ध हूँ। और मैंने इस आकस्मिक घटना का हेतु जानने की चेष्टा भी की है। परन्तु अभी तक कृत कार्य नहीं हुआ हूँ। यह सुन कारणाभिज्ञान से निराश हुए वे इधर-उधर की आरामीय शोभा देखने में दत्तचित्त हुए। और परिक्रमण करते-करते वे ज्यों ही महात्माजी के आसन स्थल के समीप पहुँचे त्यों ही उनकी दृष्टि एका-एक आपके मुखारविन्द के ऊपर पड़ी। वे देखते ही कुछ कह तो नहीं सके परं उस अवस्थानिष्ठ आपके शरीर का उनके हृदयागार में शीघ्र स्मरण हो आया। और उनके आन्तरिक यह इच्छा उत्पन्न हुई कि हम महात्माजी से कुछ क्षण वार्तालाप करें। आखिर उत्कट अभिलाषा से विवश हुए वे अग्रसर हुए। एवं उचित प्रणाम कर पास में बैठ गये। और अनेक प्राकरणिक वृत्तान्तों का उद्घाटन करने लगे। यद्यपि कुछ अवस्था भेद से आपके प्राकृतिक दृश्य मंे विभिन्नता आ गई थी तथापि वह इतनी नहीं थी कि आपका स्वरूप बिल्कुल परिवर्तित हो गया हो। अतएव पारस्परिक प्रश्नोत्तर करते कराते राजकीय पुरुषों के हृदयागार में दो बिचारों का युद्ध होने लगा। जब वे आपको परिचित कर यह विचार स्थिर करते थे कि यह वही राजकुमार है तब वे इस विचार से सन्दिग्ध होते थे कि जब उसके हस्त पैर काटे जा चुके हैं तो उसका तो जीवित रहना ही असम्भ है। फिर किसी कारण से सजीव ही रह गया हो तो हस्त-पैर कहाँ से आते जिन्हों के द्वारा कूप से निकलकर वह आज इस दशा में पहुँच सकता। अन्ततः आपके शरीर विषय में जो उनका सन्देह था वह तो आपके वाचनिक परिचय से दूर हो गया। परं यह एक हस्तादि तादृश हो जाने का विस्मय उनके हृदय में खटकता रहा। यही कारण था वे निशंक होकर यह प्रकट नहीं कर सके कि आप वे ही हमारे शिर के ताज हैं। आखिर चित्त द्विविधा में ही प्रणाम पूर्वक आपकी आज्ञा प्राप्त कर विविध वार्ताओं का परिवर्तन करते कराते वे स्वकीय निवास स्थान में आये और उन्होंने लब्धावसर में बाग-विषयक घटना से राजा साहिब को सूचित किया। साथ ही इस बात का भी उद्घाटन किया कि कतिपय दिन में बाग में एक योगी ठहरा हुआ है। जिसके समस्त लक्षण मृतकराज कुमार के लक्षणों से सम्बन्ध रखते हैं। सम्भव है उसी की कृपा दृष्टि से यह बाग इस भूतपूर्व अवस्था में पहुँचा हो। क्यों कि इस घटना का हमने सावधानतया अन्वेषित करने पर भी अन्य कारण कोई उपलब्ध नहीं किया है। यह सुनकर राजा कुछ विस्मित और अधिक आनन्दित होकर कह उठा कि प्रातःकाल होते ही मैं स्वयं उधर चलूँगा। एवं देखूंगा तुम्हारा कथन कहाँ तक सत्य है। प्रातःकालिक उद्देश्य में निर्णीत होकर वे लोग स्वकीय कृत्य में संलग्न हुए। इधर राजासाहिब आज बहुत दिनों के बाद विस्मृत वृत्तान्त पुत्र का स्मरण कर वैमोहिक अगाध समुद्र में निमग्न हुआ अनेक भावों में परिणत होने लगा। पुत्र के प्राण हरने के अनन्तर आज पर्यन्त जो समय व्यतीत हुआ था उसमें कुछ-कुछ लक्षण ऐसे भी दीख पड़े थे जिन्हों से राजासाहिब को राणी के विषय में सन्देह होने लगा था। वह कभी-कभी निश्चय कर बैठता था कि सम्भव है यह सब विपरीत जाल विस्तृत हुआ है। जिसमें वृद्ध हुए मेरा नाश ही नहीं हुआ है बल्कि संसार के इतिहास में मैं कलंकित प्रसिद्ध हो चुका हूँ। जन्मारम्भ से ही पुत्र के शुभ लक्षण देख कहाँ तो मुझे उसके द्वारा संसार में अपनी कीर्ति विस्तृत करने की आशा थी कहाँ इस दुष्टा की मिथ्या पटूक्तियों से भ्रमित हो मैं अद्वितीय कलंकित निश्चित हुआ। मैं सब कुछ जानता हुआ भी अनजान बन गया। मैंने नहीं सोचा था कि मेरी यह इन्द्रिय लोलुपता कभी शान्त अवस्था भी धारण करेगी। और यह दुष्टा सदा के लिये मेरी प्रिय पात्र न रहेगी। हाय पुत्र कृष्ण ! जनसमाज मोहन विषय में तू सचमुच ही कृष्ण था। जिस इस दुष्टा के मोहान्धार से आच्छादित हो मैं तेरे साथ इतना बड़ा अनर्थकारी अन्याय कर बैठा यह भी तेरे बपु सौन्दर्य को देखकर अपने आप में न रह सकी। केवल मेेरे वा मेरे कुटुम्ब के लिये ही नहीं समस्त भारत के लिये तू एक विचित्र वस्तु था। तेरी छबी और असाधारण लावण्यता के ऊपर देशी लोग भी मोहित हुए बिना न रह सके। तेरे साथ अपनी पुत्री और भगिनियों का विवाह करने के लिये उनके भेजे हुए दूत नित्य मेरे द्वार पर खड़े रहते थे। हाय पुत्र कृष्ण ! तू आज सजीव होता तो मैं कितने ही राजामहाराजाओं का माननीय बन जाता और उन लोगों की पुत्री वा बहिनें आज मुझे पिता की तुल्य दृष्टि से सत्कृत करती। हाय पुत्र कृष्ण ! तूू मेरे घर में क्या बनने के लिये अवतरित हुआ था और किस दशा में परिणत हुआ। तेरा वह बपु सौन्दर्य, जिसके कारण से यदि आज तू जीवित होता तो मैं अनेक प्रधान धरानों का सम्बन्धी बन जाता, समस्त पृथिवी में विलीन हो गया। उसके साथ ही मेरा वह कष्ट उठाना भी, जो मैंने तेरी प्राप्ति के लिये अनेक सुदूरवर्ती तीर्थों की यात्रा में भ्रमित होकर उठाया था, धूलि में मिश्रित हो गया। तेरी उपलब्धि के निमित्त किये गये असाधारण दानपुण्य तो व्यर्थ हुए ही सांसारिक इतिहास स्थिति पर्यन्त महाकलंककटीका मेरे मस्तक पर चढ़ गया। हाय पुत्र कृष्ण ! अब मैं तुझे कहाँ देखू और क्या करूँ। अपनी इस तीक्ष्णखंग से इस दुष्टाचारिणी का शिर उडा दूँ तो मुझे दो हत्याओं का सामना करना पड़ेगा। हे भगवन् ! अच्छा होता यदि आपकी इतनी कृपा होती। संसार में या तो यह पापाचरणी जन्म ही न लेती वा इसका मेरे साथ कोई सम्बन्ध ही न होता। हाय पुत्र कृष्ण ! मैं तेरे जैसे पुत्र को प्राप्त हो कर भी आज दोनों लोकों से भ्रष्ट हो गया। इति। पाठक ! स्मरण रखिये इस प्रकार का प्रलापात्मक निश्चय कर राजा क्रोधावेश से दन्त कटकटाता हुआ राणी को अपराधिनी ठहराने के लिय जब उसके पास जाता था तब वह अपनी चातुर्योक्यिों से फिर उसको प्रशान्त कर देती थी। विशेष करके अपने अपराध की साक्षी के लिये वह प्रमाण मांगती थी। यही कारण था दृढ़ प्रमाणभाव से महाक्रोधित हुआ भी राजा राणी को यमलोक पहुँचाने की उपेक्षा कर अपने दंदह्यमान हृदय को किसी प्रकार शान्त कर लेता था। परन्तु इस शोक सन्ताप ने महाराजा शालिवाहन का हृदय घुण प्रणष्ट लकड़ी की तरह जरजरी भूत बना डाला था। जिससे राणी की प्रतिष्ठा अब उसमें किंचित् भी अवकाश न पा रही थी। इधर जिस प्रकार राजा की प्रीति उससे दूर होेने लगी थी उसी प्रकार राणी की मुखकान्ति मन्द होती आ रही थी। क्योंकि उसको प्रथम तो राजा का अपने विषय में विमुख होना खटकता था। दूसरे इससे वह यह भी निश्चय करती थी और महा भयभीत होती थी कि राजा मेरे विषय में जो घृणित हो गये हैं इससे मालूम होता है इन्होंने मेरे अनर्थ जाल का यथार्थ भेद पा लिया है। तीसरे वह अपने दुष्टाचरण से करा बैठने वाली हत्या के पाप से मन ही मन में उसको याद कर प्रतिदिन क्लेशित रहती थी। बल्कि सच पूछिये तो उसके मुखारविन्द पर झिलकने वाली इसी पाप हेतुक मलीनता को देखकर राजा के चित्त में सन्देह होने लगा था और वह अनुमान करता था कि सम्भव है यह सब इसी की रचना है। जिसमें इसका अन्तःकरण साक्षी होने के कारण उस पाप को याद रखती हुई यह इस दशा में परिणत होती जा रही है। तथापि वह दृढ़ प्रमाणाभाव से वा उभयानर्थ भय से छुरी कचरे वाली दशा का अवलोकन करता हुआ किसी प्रकार समय व्यतीत कर रहा था। आज बहुत दिनों के अनन्तर प्रिय पुत्र का अमृतमय स्मरण हृदय में उपस्थित हुआ। विशेष करके योगी का दृश्य प्रिय पुत्र के समान सुनकर वह महान् आनन्दित हुआ और उसके चित्त में योगी के दर्शन करने की अत्यन्त उत्कण्ठा उत्पन्न हुई। खैर अनेक संकल्प विकल्पात्मक समुद्र में निमग्न हुए उसने वह रात्री बड़ी ही कठिनता के साथ व्यतीत की। अन्धकार और प्रकाश का पारस्परिक युद्ध होेने लगा। प्रकाश से पराजित हो अन्धकार जिस प्रकार संकुचित होता जा रहा था उसी प्रकार अपना विस्तार करता हुआ जा रहा था। ऐसा होते हुआ ते विजयलक्ष्मी पूर्णतया प्रकाश के हस्तगत हुई। यह देख प्रकाश स्वामी सूर्यनारायण की अभ्यर्थना के लिये पक्षी चूँ-चूँ शब्द की मधुर ध्वनि करने लगे। जिसने नेत्रावरूद्ध निद्रक राजा को दिनागमन की सूचना दी। राजा उठा और स्नानादि क्रियाओं के अनन्तर नित्यकृत्य पूजा पाठ में प्रवृत्त हुआ। परं आज इन्द्रियराज के वहाँ नहीं होने से राजा केवल अपना नियम ही पूरा कर सका। इतने ही में उधर से राजकीय प्रधान पुरुष मन्त्री महाशय भी उपस्थित हुए। राजा उनके साथ बाग की शोभा और योगिराज के दर्शन करने के लिये वहाँ से चला और कुछ ही देर में ज्यों ही बाग के समीप पहुँचा त्यों ही उनकी यथार्थ उक्ति का उसको ठीक प्रमाण मिल गया। यह देख इस विषय में असन्दिग्ध हो वह सीधा चैरंगीनाथ के समीप गया। तथा स्वोचित उपायन प्रणामादि से आपको सत्कृत कर अनुकूल दिशा में विराजमान हुआ। विराजमान ही नहीं बल्कि आपका दर्शन कर महा मोहान्धकार में डूब गया। कितनी क्षण बीत गई वह चुप हुआ प्रस्तर प्रतिमा की तरह निरन्तर दृष्टि से आपकी ओर देखता रहा। लज्जा हेतु से अत्यन्त कठिनता के साथ रोके हुए भी प्रेमाश्रु बलात् बहिर हो राजा के सूक्ष्मांचले को प्लावित करने लगे। आज पुत्र ध्यान के अतिरिक्त सांसारिक किसी भी वस्तु का उसे ध्यान नहीं था। उसका मन यह साक्षी देकर, कि सचमुच यह वही मेरा राजकुमार है, उसके साथ हठात् छाती से छाती मिलाकर मिलने के लिये अधीर हो रहा था। बल्कि ऐसा करने के लिये राजा ने कईकए बार उठकर आगे बढ़ना चाहा। परं किसी प्रकार अपने उद्भूत हृदय बेग को उसने रोक ही लिया। उसकी रुकावट का जो भी कुछ कारण था वह यही था कि मन्त्रियों की तरह वह भी इसी बात में सन्दिग्ध हुआ कि जब पुत्र के हस्त पैर छिन्न कर दिये गये थे तो उनका फिर तादृश होना सम्भव कैसे हो सकता है। अतएव अन्य दृश्य तथा वाणी से अपना पुत्र होने का निश्चय उपस्थित होने पर भी एक इसी सन्देह ने उसके दृढ़ विश्वास नहीं होने दिया। यही कारण हुआ वह अधिक देर तक अपनी अत्यन्त खिन्न दशा का परिचय देकर किसी प्रकार अपने हृदय में धीरता धारण करता हुआ प्राकृत विषय की ही वार्ता करने लगा। अर्थात् उसने कहा महात्माजी मैं आपसे निष्कपट हृदय से सत्य कहता हूँ आज संसार में इतने बड़े साम्राज्य का अधीश्वर होकर भी जितना मैं दुःखी हूँ उतना मैं नहीं समझता कोई अन्य पुरुष भी होगा। यह सुन प्राश्निक हुए आपने कहा कि यद्यपि मैं आपकी विचलित दशा को देखकर इस अनुमान के युक्त हो गया था कि आप किसी साधारण दुःख से ग्रसित नहीं हैं और वैसा ही आपने कह भी डाला। तथापि मैं यह स्फुटतया पूछना चाहता हूँ कि जिसने आपकी ऐसी शिथिल स्थिति बना डाली है वह कौन ऐसा दुःख है। प्रत्युत्तरार्थ राजा ने कहा कि महाराज ! यद्यपि मैं इस समय अपुत्र हूँ मेरे लिये एक यही बड़ा दुःख हो सकता है। तथापि इस दुःख से मैं उतना सन्तप्त नहीं जितना कि स्वकीय छोटी राणी के मिथ्या जटिलजाल में जकड़ीभूत होकर पुत्र रत्न की हत्या कर बैठने से हूँ। वह पुत्र जिस रीति से मैने प्राप्त किया था उसको तथा पुत्र के समस्त लक्षणों को देखकर तो मैं अपने हृदय में इस विश्वास को अवकाश नहीं दे सका था कि उसने सचमुच उपमाता को कुत्सित दृष्टि से देखा है। परं राणी की प्रामाणिक पटूक्तियों के पाश से आबद्ध हो मैं इस कलंककारी अनर्थ के कर बैठने में समर्थ हुआ। जिससे भारत मात्र का एक लाल सदा के लिये हमारी दृष्टि के अगोचर हो गया। वह पुत्र होनहार प्रतीत होने पर भी शारीरिक विचित्र सौन्दर्यादि गुणों से जन साधारण के हृदय में प्रसन्नता स्थापित करने वाला था। जिसका रूपरंग आपके दृश्य से बहुत कुछ सम्बन्ध रखने वाला था। उस समय अनर्थ पर उतरे हुए मैंने उसके हस्त पैर छिन्न करा दिये थे। यदि मुझे इस बात में कोई प्रमाण मिल जाय कि वे फिर भी वैसे ही हो सकते हैं तो मैं आपको ही अपना पुत्र समझने में एक क्षण का विलम्ब नहीं कर सकता हूँ। यह श्रवण कर आपने कहा कि हाँ ऐसा हो सकता है एक मनुष्य का शारीरिक दृश्य दूसरे की समता को कहीं न कहीं घुणाक्षर न्याय से प्राप्त कर भी लेता है। ऐसा ही मैं भी हूँगा। परं मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि राणी ने अपने कथन की सत्यता के लिये आपको क्या प्रमाण दिखलाया। तथा जो दिखलाया वह अब भी विद्यमान है वा नहीं। राजा ने उत्तर दिया, यद्यपि भगवान् जानें सत्य था वा कृत्रिम, राणी के शारीरिक दृश्य से तो स्पष्ट प्रतीत होता था कि यह अवश्य किसी मन्मथोन्मत्त मनुष्य का कृत्य है। तथापि मैं उसके उतने ही प्रमाण में निष्ठा न कर जब प्रमाणान्तर मांगने लगा तब दासियों ने भी निशंक भाव से यह स्फुट कह सुनाया कि बात सचमुच ऐसी ही है हमारे देखते-देखते कृष्ण ने इस अनुचित कृत्य में हस्त डाला है। यह सुनकर भी मैं कुछ दिन मौर रहा। और गुप्त रीति से दासियों को सर्व प्रकार का भय दिखलाकर मैंने उनसे पृथक्-पृथक् इस रहस्य की अन्वेषणा की। परं जब उन्होंने अपना प्राण देना उचित समझकर भी अपने सत्य घोषित वचन से वापिस लौटना पाप समझा तब तो विवश होकर मैंने राणी की अरूचि कर भी बात पर विश्वसित हो वह अनर्थ करना ही पड़ा। वे ही दासी अब तक सजीव है। यदि आपकी इच्छा हो तो मैं उनको बुला दूँ। जिन्हों से स्वयं निर्णय कर आप देख सकते हैं कि मैंने जो कुछ किया वह देशकाल के अनुकूल उचित था वा वास्तविक अनर्थ ही। आपने कहा कि यद्यपि हम योगी हैं सदा किसी एक जगह पर स्थित नहीं रहते हैं। दो दिन आपके यहाँ तो चार दिन आगे किसी के कहीं निवास करते-करते देश विदेशों में ही भ्रमण करते हैं। अतएव न तो हम लोगों को सांसारिक मनुष्यों के ऐसे झगड़ों में हस्त डालना उचित है और न हमारी ऐसे झगड़ों में हस्त डालने की कुछ अभिलाषा ही है। तथापि जब आप कहते हैं और इस बात के लिये आग्रह करते हैं तो मैं भी उनसे कुछ परामर्श कर देख लूँ कि उनका कथन कहाँ तक सत्यता पूर्ण है। अतः आप उन्हीं को क्या समस्त राणियों को भी बुला भेजें। जिससे मेरे निरीक्षण में कुछ भी त्रुटि न रह जाय। यह सुन राजा ने शीघ्र सूचना भेजकर राणियों को बाग में बुला भेजा। राजकीय सूचक पुरुष प्रासाद में गया। राणियों में राजासाहिब की आज्ञा प्रचारित की गई। इस पुराणी बात को फिर अंकुरित हुई सुनकर पुत्र गामिनी राणी का भीतर ही भीतर कलेजा कटने लगा। और उसके लिये समस्त संसार जलमय दीखने लगा। वह आज एक बड़े प्रभावशाली राजा की पत्नी होकर भी अपने आपको अकेली समझती हुई महाशोक सागर में डूबने लगी। परं करती क्या आखिर सज्जीकृत शिबिका में सवार हो बाग में चलने के लिये तैयार हुई। इधर कृष्ण की पूज्य माता के पास भी सूचना गई। उसने अनुमान किया कि अक्षर आते जाते योगी बाग में निवास करते ही रहते हैं। किसी से राजा साहिब की इस विषय में कुछ वार्तायें हुई होंगी। जिनमें प्रकरण वश से इस बात की आवश्यकता समझी गई होगी कि फिर गवेषणा की जाय। परं इस विषय में मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। अशल में यथार्थ बात तो यह थी जिस दिन से पुत्र रत्न कृष्ण उसकी छाती से पृथक् कर सदा के लिये नेत्र से दूर ही नहीं हृदय विदारक दशा में परिणत किया गया था वह उसी दिन से उस सपत्नी छोटी राणी से घृणा किया करती थी। आज पर्यन्त न तो कभी उसने उसके साथ वार्तालाप किया और न कभी एक स्थल में सहबास किया था। तथा न ऐसा करने की उसकी कोई आन्तरिक इच्छा ही थी। आज बहुत दिनों के बाद ऐसा अवसर उपस्थित हुआ। उसने सोच लिया कि अवश्य उस द ुष्टा के पास एक जगह पर बैठना होगा। और सम्भव है प्रकरण वश से हृदय की झाल न रूके और उस पापात्मा के साथ कुछ कहना सुनना पड़े। अतएव उसने सूचक को समझा दिया कि मेरी ओर से महाराजाजी को विनम्र भाव से यह कह देना मुझे दीखना तो बन्ध हो ही गया है प्रतिदिन सुनना भी कम होता जा रहा है। ऐसी दशा में मेरा इस विषय में तो कुछ प्रयोजन है ही नहीं यदि महात्माजी के पुण्योपलब्ध पवित्र दर्शनार्थ और अमृतमय उपदेश के श्रवणार्थ ही मैं वहाँ आने का प्रयत्न करूँ तो परमात्मा ने मैं इस योग्य भी न रखी। अतः मेरा वहाँ पर आना व्यर्थ है क्षमा कीजिये। ठीक यही प्रार्थना सूचक ने वापिस जाकर महाराजा शालिवाहन को सुना दी। इसी समय सूचक पुरुष की ओर इशारा करते हुए चैरंगीनाथजी ने कहा कि नहीं उनको जरूर यहाँ आना होगा। यदि कम सुनने और न दीखने की बात का ही अवलम्बन है तो यह सुविधा हम उपस्थित कर देते हैं। लो यह लो हमारी भस्मी ले जाओ इसमें से कुछ तो उनको खिला देना और कुछ नेत्रों के ऊपरी भाग पर देना भगवान् आदिनाथजी की कृपा होगी दोनों समस्यायें हल हो जायेगी। यह सुन समीपस्थ राजा तथा मन्त्री उपमन्त्री लोग भीतर ही भीतर प्रसन्न हुए। और उनको इस अवसर में कुछ अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होने के लक्षण दिखाई दिये। उधर सन्देश वाहक पुरुष भी प्रसन्न हुआ शीघ्र महलों में पहुँचा। और महात्माजी की बतलाई विधि के अनुकूल प्रयोग करने की सूचना पूर्वक वह विभूति उसने राणी के समर्पण की। राणी ने ईश्वर को धन्यवाद दे सादर विभूति ग्रहण कर उसे उसी विधि से कार्यरूप में परिणत किया। बस उसको इसी अवधि तक अन्धकारमय सृष्टि दिखाई देती थी। अब वह अन्धकार पूंज न जाने किधर गया। उसको चारों ओर स्वच्छ शुभ्र प्रकाश दीखने लगा। यह देख वह ईश्वरीय आकस्मिक कृपा का अनुमान कर आभ्यन्तरिक रीति से प्रसन्न हुई। कृष्ण मृत्यु के अनन्तर पुत्र शोक सन्तप्त हृदय वाल उस विचारी का बहुत दिनों के बाद आज कुछ चित्त ठिकाने आया। तथा इस शुभ लक्षण के आधार से वह अपने कुछ सुदिन आने की आशा करने लगी। और उज्जवल कान्ति प्रसन्न मुख से बोल उठी लाओ पाल्की तैयार है तो शीघ्र लाओ। शिबिका प्रथमतः ही सज्जीकृत हुई खड़ी थी। वह आरोहस्थान पर लाई गई। जिसमें सवार हो वह शीघ्र बाग में पहुँची। इस महान् उपकार से उपकृत हुई उसकी अभिलाषा थी कि मैं प्रथम महात्माजी के दर्शनपूर्वक उचित अभ्यर्थना कर अपने ऊपर हुए उसके उपकार का बदला चुकाऊँगी। परं ऐसा न करने देकर वह एक तम्बू में, जो अन्तःपुर रूप से प्रथम ही खड़ा किया गया था, बैठा दी गई। क्यों कि राजा से आपने यह प्रथम ही कह दिया था कि जब तक हम प्रकृत बात का ठीक निर्णय न कर लें तब तक माई लोगों को हमारे स्पष्ट दर्शन से वंचित रहकर पड़दे के अन्तर रहना रहेगा। ठीक इसी आज्ञा के अनुकूल आभ्यन्तरिक प्रणाम तथा शिर झुकाकर वह तम्बू में विराजमान हो गई। जिसका प्रसन्नमुख और दुःसह्य नेत्र ज्योतिः देखकर समस्त राणी और दासी चकित सी हो गई। तथा वह पुत्रघातिनी राणी, और उसकी मिथ्याभाषिणी सहचरी दासी, अपने मन ही मन में अत्यन्त क्षुब्ध हुई। उन्होंने सोचा कि अबके इस अवसर पर बचना कठिन है। जिसने प्रणष्टनेत्र ज्योतिः राणी की दिव्य दृष्टि बना दी उसके लिये हमारा अनिश्ट करने में कौन बाधा हो सकती है। इसी प्रकार के संकल्प विकल्पों में जिस समय वे विलीन हो रही थी ठीक उसी समय आपने अपने एक ऐसे मन्त्र का अनुष्ठान किया जिससे उनके शरीर के कुछ-कुछ पीड़ा होने लगी। अब तो उनके होश और भी ठिकाने आ गये। उनके शरीर में कल्पना उपस्थित हो गई। ऐसी ही अवस्था में आपने कहा कि माताओ ! आप इस बात पर पूर्ण ध्यान रखें यद्यपि उचित मार्ग से भ्रष्ट न होना ही मनुष्य का मुख्य धर्म है। तथापि किसी अदृष्ट प्रतिकूलता के कारण से मनुष्य उस मार्ग पर चलने में भूल भी कर बैठे तो उस भूल को विनम्र भाव से स्वीकार कर लेना भी कम महत्त्व की बात नहीं है। ऐसा करने वाला मनुष्य एकबार भूल जाने पर भी लोक दृष्टि से घृणा का पात्र नहीं बन सकता है। ठीक इसी के अनुकूल जो कुछ बीत चुका है उसका स्मरण न कर अब तो आप सत्य-सत्य कह सुनाने का उत्साह करें। इससे आपकी भूल-भूल के स्थान में नहीं समझी जायेगी। और इससे जो कुछ आपको लाभ होगा वह ऐसा होगा जिससे आपके आज ही से सुदिन आरम्भ हो जायेंगे। परं इतना और स्मरण रखना कि आप यह सोचकर, कि हम प्राथमिक कथन से विपरीत कहेंगी तो हमारा अपराध प्रकट हो जायेगा, और उसके आधार पर राजा न जानें हमको कैसा कठिन दण्ड देगा, कभी मिथ्या न कह बैठना। ऐसा करने से लेने के देने पड़ जायेंगे। यह कहने का प्रयोजन नहीं कि आप इसी जन्म में नरकाधिकारिणी हो जायेंगी। प्रत्युत जन्मान्तरों में भी उससे नहीं बच सकेगी। इसके अतिरिक्त आप यह भी नहीं समझ बैठना कि हमारा गूढ़ रहस्य अभी तक किसी ने भी नहीं जाना है। हमने गुरुजी की कृपा से ऐसी विधि प्राप्त की है जिसके द्वारा मनुष्य का शुभाशुभ कृत्य सहज में ही जाना जा सकता है। अतएव हमने आपके वास्तविक तत्त्व को स्वयं तो समझ लिया है परन्तु हम राजा के और इन सब लोगों के समक्ष आपके मुख से उसको प्रकटित हुआ देखना चाहते हैं। इसके साथ ही एक बात और कह देना उचित समझते हैं। और वह यह है कि हम विवाद के भूखे नहीं है। आपकी प्राथमिक एक वाणी ग्रहण करेंगे बस उसी के ऊपर स्वर्ग नरक निर्भर है। इसलिये आपको उचित है कि आप खूब सोच समझकर जो कुछ वृत्तान्त है सत्य-सत्य कह सुनायें। पाठक ! ध्यान दीजिये यह कहने का प्रयोजन नहीं कि नाथजी जो कुछ कह रहे थे वैसा करके न दिखलाते। अतएव अब उन विचारियों के लिये रास्ता ही कौन रह गया था जिसमें प्रविष्ट हो अपने रहस्य को छिपाती हुई आपत्तियों से सर्वथा वंचित रह जाती। अतएव उन्होंने इधर-उधर की समस्त परिवृत्तियों की उपेक्षा कर सत्य कह देने में ही अपना कल्याण समझा। अर्थात् राणी ने स्पष्ट कह सुनाया कि महाराज निःसन्देह मेरा अपराध है। मैंने अपने इस क्षुद्र शरीर की रक्षार्थ कुवासनाग्रस्त होकर भी सुवासना प्रमाणित करने के लिये विपरीत जाल की रचना की थी। इसी प्रकार दासियों ने भी प्रकटित कर दिया कि भगवन्! महाराणी के भय से अथवा अपनी आजीविका की वृद्धि के हेतु से समझो हमने असत्य भाषण कर इसके कथन का समर्थन किया है। यथार्थ में कुमार का कुछ भी दोष नहीं था। यही नहीं बल्कि वह एक अद्वितीय मातृ भक्त था। इसके हजार छल करने पर भी उसने अपने मुख से माता से अतिरिक्त कोई शब्द नहीं निकला था। और अपने आपको विमुक्त करने के लिये वह बार-बार इसके चरणों में मस्तक लगाता था। जिसका यह व्यवहार देखकर हमारा भी हृदय भर आया। परं अपने आपे में न होने के कारण यह टस से मस न हुई। अन्त में उस विचारे ने किसी प्रकार इससे विमुक्ति पाई। यह सुन राजा के शरीर में महाक्रोधाग्नि प्रज्वलित हुआ। जो राजा के हजार धैर्य धारण करने पर भी अन्तर छिपा न रह सका। यही कारण हुआ राजा विवश हो खंग हस्त में धारण कर राणी का शिर काटने को दौड़ पड़ा। जिसको मन्त्री लोेगों और आपने बड़ी कठिनता के साथ आसन पर स्थित किया। राजा के इस क्रोधावेश से यद्यपि राणी तथा दासियों की भूमि पीली हो गई थी। और उनका इस भय से प्राण शुष्क हुआ जा रहा था कि राजा किसी प्रकार पड़दे के भीतर तक आ पहुँचे तो उनकी तीक्ष्ण तलवार का वार व्यर्थ न जाकर अवश्य हमारे दो खण्ड कर डालेगा। तथापि उनके चित्त को धैर्यावम्बित करने के अभिप्राय से आपने कहा कि राजन्! आप जो भी कार्य करेंगे वह हमारी आज्ञा के प्रतिकूल नहीं करने पायेंगे। अतएव आप इस विचारियों के ऊपर इतना क्रोध न करें। इनका कोई अपराध नहीं उस अभागे के ललाट में ऐसी ही रेखायें पड़ी थी जिनके अनुकूल उसने ऐसी कठिन आपत्ति का सामना करना अवश्य ही था। सो हो चुका उसके विषय में किसी प्रकार के प्रायश्चित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। परं यह ध्यान रखिये सच्चे मनुष्य का सदा ईश्वर सहायक रहता है। ऐसे मनुष्य का अनिष्ट करने के लिये कोई सहस्रों क्या लक्षों लक्षों क्या करोड़ों उपाय करे तो भी उसका बाल तक बांका नहीं कर सकता है। इस बात के प्रमाण भूत हमारे इस पवित्र भारत में अनेक प्रल्हादि महानुभावों के प्रसिद्ध होने पर भी मैं आज आप लोगों की दृष्टि पथ के ऊपर विराजमान हूँ। मैं सच्चा और अधिक सच्चा आपका वही पुत्र कृष्ण हूँ। जिसको हस्त पैरों से रहित करा कर भी आपने कुछ सुखी समझा होगा। जिस कारण से उसको कूए में प्रक्षिप्त करने की आज्ञा प्रदान की गई। परं मैं सच्चा था, यही कारण हुआ इतना करने पर भी आपका प्रयत्न सफल न हुआ। मैं करूणावतार जनोद्धारक योग मूर्ति गुरुगोरक्षनाथजी की कृपा से फिर वैसा ही हो गया। बल्कि वैसा ही नहीं हुआ मैं उस दर्जे तक पहुँचा हूँ जहाँ मुझे फिर कभी ऐसे दुःख का अनुभव नहीं करना पड़ेगा। बस अधिक से अधिक राजा ने आपकी उक्ति यहीं तक श्रवण की। उसने सहसा आसन से उठकर आपकी ग्रहणतार्थ धावा किया। और आपको दोनों हस्तों से पकड़कर उन्मत्त की तरह पड़ गया। वह भी व्यावहारिक लज्जा का विस्मरण कर राजा से वंचित रहे आपके अंग को छाती से लगाती हुई प्रेम मूच्र्छा से राजा की सदृश ही अचेत हो गई। अये ईश्वर ! तेरी रचित सृष्टि में पुत्र भी एक विचित्र वस्तु है। नहीं जानते आपने यह वस्तु कितने मूल्य की बनाई है। जिसके अभाव में विस्तृत साम्राज्य भी किम्प्रयोजन समझा जाता है। हम ज्यों ही संसार में दृष्टि डाल कर देखते हैं त्यों ही क्या दरिद्र धनाढ्य क्या राजा क्या महाराजा क्या मण्डलेश्वर सब ही इस वस्तु के लिये तेरी अभ्यर्थना करते रहते हैं। और इसके प्राप्त होने पर ही अपने यथोपलब्ध साम्राज्योपभोग पर्यन्त को सफल समझते हुए भी स्वकीय जीवन चय्र्या को सार्थक मानते हैं। प्राप्त होने पर भी सौभाग्य यदि वह पुत्र सर्व लक्षण सम्पन्न हो तो माता-पिता के आनन्द की सीमा ही क्या हो सकती है। खैर इस विषय में हम अधिक नहीं कहना चाहते हैं। संसार में पुत्र के ऊपर जब पशु-पक्षी भी हमको अपने शरीर तक न्यौछावर करते दीख पड़ते हैं तब मनुष्य के पुत्र प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक हो सकती है यह अनुमान द्वारा ही जानने योग्य है। अथवा जिन पाठक महाशयों को पुत्रोपलब्धि का सौभाग्य मिला है वे स्वयं इस रहस्य से परिचित होंगे। इसी रहस्य में विलीन सपत्नीक महाराजा शालि वाहन आज संसार सागर को आनन्दसागर समझकर उसमें डूब रहे थे। इस प्रकार उसको अपने आपे में न देखकर व्यावहारिक लज्जा उसके शरीर से प्रस्थान कर चुकी थी। यही कारण था वह युद्ध प्रवृत्त तितरों की तरह पुत्र से ग्रंथित हो उपस्थित जनता की ओर से सम्भवित होने वाले उपहास्य की किंचित् भी परवाह न करता था। एवं स्वकीय मुख से कुछ भी शब्दोच्चारण न कर केवल प्रेमाश्रुओं से स्वीय सूक्ष्म वस्त्र और नाथजी के शरीर को प्लावित कर रहा था। उसकी यह दशा देख उपस्थित जनता भी अपने हृदय को वश में न रख सकी। उसका समुद्र पूरकी तरह विस्तृत हृदय अपने प्रेमाश्रु रूप तरंगों को शरीर से बहिर फैंकने लगा। इधर वृक्षों का भी यही समाचार था। वे सूक्ष्म वर्षा के कारण से जल प्लावित पत्रों से बिन्दु छोड़ते हुए ऐसे प्रतीत होते थे मानों ये स्वयं भी प्रेमाश्रुपात कर जनता का अनुकरण कर रहे हैं। इधर पक्षिगण क्षेत्रों के लिये उड्डीयमान होकर इस भाव को प्रकटित करते थे मानों वे इस प्रेमाधिक्य को सह नहीं सकते थे। यही कारण था अब बाग में चूँ तक का भी शब्द नहीं होता था। राजकीय मर्यादा से मौन धारण किये हुए प्रजाजन अश्रुपात द्वारा राजा का अनुकरण कर रहे थे। यह दृश्य बड़ा ही विचित्र और हृदय ग्राही था। लगभग दो घड़ी पर्यन्त महाराजा शालिवाहन उसी अचेत दशा में स्थित रहे। अन्त में स्वयं कुछ संज्ञोपलब्ध होकर राणी को प्रबोधित करने लगे। वह सचेत हुई और चाहती थी कि पुत्र से कुछ वार्ता कर प्रथम इसकी उस विषम स्थिति से परिचित हो जाऊँ। परं अभी तक उसके सौ प्रयत्न करने पर भी मुख से बोल न निकलता था। पूज्य माता की यह दशा देखकर आपने कहा कि मात ! आपने मेरे विषय में इतना सीमा भंजक शोक नहीं करना चाहिये। जिससे आपका शरीर ही केवल कृशता को प्राप्त नहीं हुआ है आपके नेत्र भी अपना कार्य समाप्त कर बैठे हैं। जिससे आपको जीवित दशा में ही मृतक की तरह समय व्यतीत करना पड़ा है। जब कि मैं रघुकूल भूषण श्रीरामचन्द्रजी के हस्त स्थापित श्रीरामेश्वर भगवान् के प्रसाद से आपको प्राप्त हुआ था तब आपने निःशोक होकर यह विश्वास रखना चाहिये था कि न तो मेरा पुत्र ऐसे कुत्सित कृत्य में प्रवृत्त हो सकता है। और न ऐसी अविचार प्रयुक्त बाधायें उसका बाल तक बांका कर सकती हैं। यह सुन माताजी ने करूणा स्वर से किसी प्रकार शब्दोच्चारण कर कहा पुत्र ! तू जानता है परमात्मा ने स्त्री जाति को बहुत कुछ मृदु हृदय वाली बनाया है। जो शोकप्रद छोटे से छोटा भी अभिनय उपस्थित होने पर यह उसको अपने अधिकार में नहीं रख सकती है। यही कारण हुआ मैं सब कुछ सोचती हुई भी उस अभिनय को देख दुर्दशा ग्रस्त हुए बिना न रह सकी। इसके अनन्तर आपने, अच्छा ईश्वर जिस दशा में रखे उसको उसी दशा में धन्यवाद देना चाहिये अब तक जो कुछ हुआ सो तो हो चुका उसके विषय में आपको कुछ भी विचार न होना चाहिये अब तो आपको यही उचित है कि आप सामयिक नियमानुसार ईश्वराधन तथा अनेक दान-पुण्यों में दत्तचित्त होकर अपना आगमिक मार्ग स्वच्छ बनायें, यह कह कर अपनी मौसी और दासियों को मिलने के लिये समीप बुलाया। वे आई और आपका यथोचित सत्कार कर सम्मुख बैठ गई। आपने अपने अमृतायमान उपदेश से उनके उत्तप्त हृदय को शान्त किया। तदनु अनेक राजपुरुष अपने-अपने प्रेम की पराकाष्ठा दिखलाते हुए आपको सत्कृत करने लगे। ठीक ऐसी ही दशा में महाराजा शालिवाहन ने किसी प्रकार खड़े होकर यह घोषित कर दिया कि राजकर्मचारिगण ! आपके अधिनायक आज आपके हस्तगत हो गये हैं। आज से ही आप मेरी आशा छोड़ कर इन्हों को अपना शिरताज महाराजा स्वीकृत कीजिये। मैं अनर्थकारी होने के कारण इस भार को ग्रहण न करता हुआ ईश्वराराधन में तत्परता करूँगा। जिससे इस जन्म निष्ठ अनर्थकारित्वरूप टीके को अपने मस्तक से उतारकर जन्मान्तर में इस भार ग्रहण के योग्य हो सकूँगा। यह सुन महाराजा शालिवाहन की राजाकार्यों की ओर से दृढ़ घृणा देख कर मन्त्री लोग तो चुप रहे। परं आपने कहा कि राजन् ! यद्यपि आप अज्ञानता के कारण अनर्थ कर बैठे और उसकी निवृत्ति के लिये आपकी अत्युत्कण्ठा भी है, तथापि मैं नहीं समझता कि वह अज्ञानता आपका अब तक भी पीछा छोड़ गई है। यही कारण है आप फिर दूसरा अनर्थ करने के लिये प्रोत्साहित हो गये हैं। आपका यह अनर्थ, कि मुझे राज्यभार ग्रहण करने को बाध्य करना, उससे किसी प्रकार की कम नहीं है। बल्कि कहूँ तो कह सकता हूँ कि यह अनर्थ उससे कहीं अधिक महत्त्व रखता है। कारण कि आपके उस अनर्थ से तो मेरा कुछ भी न बिगड़ा है। प्रत्युत उस पद तक पहुँच गया हूँ कि मैं चाहूँ तो आपको उस अनर्थकारित्व से ही मुक्त नहीं कर दूँ बल्कि भारत में आपको एक यशस्वी पुरुष प्रसिद्ध कर दूँ और आपके कथनानुसार यदि मैं राज्यभार को ग्रहण कर लूँ तो आप तो उस दोष से वंचित रह ही नहीं सकते हैं मैं भी अपने गम्य कल्याणप्रद मार्ग से भ्रष्ट हो जाऊँ। मेरा ऐसा हो जाना आपके और मेरे दोनों के लिये ही हानिकारक है। अतएव आप फिर इस उद्देश्य से कोई शब्द मुख से न निकाल बैठें। इस पर राजा ने कहा खैर क्षमा कीजिये मैंने ऐसा कह कर भूल प्रदर्शित की आप ऐसा न करें इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं। परन्तु मैं और आपकी माता आपके वियोग में किसी प्रकार भी नहीं रह सकते हैं। अतएव हम दोनों बाणप्रस्थी हो आपके साथ वन-पर्वतों में निवास करते हुए उस पाप परिहार के लिये प्रायश्चित करेंगे। ये लोग अपने राज्य को संभालें और उसका प्रबन्ध करें हमारा उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि आप मुझे ऐसा न करने के लिये बाध्य करें तो वह ठीक नहीं। कारण कि पुत्र तो कोई है ही नहीं। मैं कुछ वर्ष में जब इस लोक की यात्रा समाप्त कर बैठंूगा तब भी तो इन लोगों ने ऐसा करना ही पड़ेगा। इससे उचित यही है कि ये लोग मुझे आज ही अवकाश दे दें जिससे मैं अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकूँगा। इस पर आपने कहा कि खैर मरना तो अवश्यम्भावी हैै। राजकीय प्रवृत्ति मंे तो किसी प्रकार इसका निवारण हो ही नहीं सकता है। यदि इसी बात की अत्यन्त उत्कण्ठा हो कि मैं वह उपाय प्राप्त करूँ जिससे मेरा बार-बार मरण तथा जन्म न हो तो मेरी ओर से आप आज ही वनोवासी होते अब हो जायें ऐसा करने के लिये आपको धन्यवाद है। परं पुत्र न होने के कारण से तथा मेरे साथ किये गये अन्याय के उद्देश्य से आप बाणप्रस्थी धारण करते हो तो कृपा कीजिये आप वैसा न कर इसी अवस्था में जहाँ तक हो सके ईश्वराराधन तथा विशेष दान पुण्य से अपना मार्ग स्वच्छ कीजिये यह पुत्राभाव की त्रुटि तो आपकी मैं दूर कर देता हूँ। लीजिये कुछ तो गुरु का प्रसाद रूप यह भस्मी है, इसको आप खाना और मेरी छोटी माता को खिलाना। इसके अतिरिक्त जिस कूप में मैं डाला गया था उसका जल मंगाकर कुछ दिन व्यवहार में लाना। ऐसा करने से आपको एक-दूसरे कृष्ण की प्राप्ति होगी। वह जिस दिन जन्म ग्रहण करे उस दिन उक्त पापी की निवृत्त्यर्थ एक महायज्ञ का आरम्भ करना और उस उपलक्ष्य में अपने नाम का सम्वत् प्रचलित कर देना। इस कृत्य से आप न केवल उस पाप का निवारण कर सकेंगे प्रत्युत संसार में अपनी कीर्ति स्थापित कर सकेंगे। और इस कार्य में आप अवश्य कृतकृत्य होंगे। यह सुन महाराजा शालिवाहन किसी प्रकार सन्तुष्ट हो गये। उपस्थित जनता ने अपूर्व हर्ष ध्वनि की। आपकी माता के साथ-साथ उपमाता भी, जो कि राजा की तिर्यग् दृष्टि से दीन दशा में अपने दिन व्यतीत करती थी, आज से अपने फिर उसी राणी के पद पर अभिषिक्त हुई समझ कर आनन्द में निमग्न हुई। अधिक क्या इस उद्देश्य से समस्त नगर में ही नहीं राज्यभर में मंगल मनाया गया। तदनन्तर कुछ दिन के निवास द्वारा पूज्य माता का हृदय शीतल कर फिर मिलने का वचन दे आपने वहाँ से सादर प्रस्थान किया।
इति श्रीचौरंगीनाथ शालिपुर आगमन वर्णन ।

Saturday, July 13, 2013

श्रीनाथ पर्यटन वर्णन

पाठक ! स्मरण रखिये आचार्य श्रीमद्योगेन्द्र गोरक्षनाथजी विक्रम सम्वत् 24 में द्वारका निष्ठ योगि संघ के मध्य में दूरंगतनाथजी को दण्ड विधि समझाकर प्रस्थानित हो गये थे। आप यवन जातीय अजपानाथ योगी के सहित समुद्र तटस्थ प्रदेशों में भ्रमण करते हुए हिंगलाज पर्वत पर पहुँचे। यहाँ कुछ दिन विश्राम कर फिर गान्धारादि देशों में पर्यटन करने लगे। और अपने अमृतायमान उपदेश से जन साधारण को पवित्र करते तथा उनका चित्त स्वकीय मोक्षमार्ग की ओर आकृष्ट करते हुए कुछ काल में शलेमान पर्वत पर गये। यहाँ अजपानाथजी के कतिपय शिष्य अपने-अपने शिष्यों को योगवित् बना रहे थे। उन्होंने ज्यों ही आचार्यजी तथा स्वकीय गुरुजी को अकस्मात् आते हुए देखा त्यों ही कुछ पादक्रम अग्रसर हो आप महानुभावों का उचित रीति से स्वागतिक सत्कार किया। यह देख श्रीनाथजी ने उनको प्रत्यभिवादन से प्रोत्साहित करते हुए कहा कि महानुभावों ! आज मैं आप लोगों के इस अनुष्ठित कृत्य को देखकर महान् आनन्दित हुआ अपने आप में फूला नहीं समाता हूँ। तथा इस बात से परिचित हो गया हूँ कि जो मनुष्य किसी भी जाति को नीचोच्च की दृष्टि से देखते और उसके साथ वैसा ही नीचोच्च का व्यवहार करते हैं वे निःसन्देह मन्द बुद्धि और विचार शून्य हैं। क्यों कि कोई भी जातिमात्र कभी नीच वा उच्च कोटि की नहीं बन सकती है। यद्यपि संसार मात्र में आज आर्य जाति सबसे उच्च और उत्तम कोटि में गिनी जाती है तथापि हम उसके प्रत्येक मनुष्य कम नहीं हैं जो स्वोचित कृत्य से पदच्युत कृत्यों की पराकाष्ठा दिखलाते हुए यवनों से भी आगे बढ़ जाते हैं। इसी प्रकार आर्य जाति की तिर्यग् दृष्टि की पात्र यवन जाति के भी प्रत्येक मनुष्य को हम तदनुकूल तिरछी दृष्टि से नहीं देख सकते हैं। इसमें कतिपय मनुष्य ऐसे हैं जो मनुष्योचित वास्तविक कितने ही कृत्यों में आर्यों से आगे बढ़ जाते हैं। इस बात में प्रमाण की अन्वेषणा करने के लिये कहीं दूर जानेे की आवश्यकता नहीं आज आप लोग हमारी दृष्टि के सम्मुख ही खड़े हैं। आप लोगों ने योगवित् बनकर दूसरों को तद्वत् बनाते हुए न केवल श्रीमहादेवजी की आज्ञा का पालन किया है बल्कि अपने आपकी अक्षुण्ण स्वच्छ कीर्ति स्तम्भ को संसार मात्र में स्थापित कर दिया है। इससे हम आप लोगांे को सप्रीति हार्दिक धन्यवाद देते हैं। और आशा रखते हैं कि आप लोग इस कृत्य से कभी उपरामी न होकर अनवरत संलग्न रहेंगे। यह कहकर आपके शान्त होने के समकाल में ही वे लोग सशिष्य आपके चरणों में मस्तक स्पर्शित करने लगे। तथा कहने लगे भगवन ! हम लोगों ने न तो कुछ किया ओर न कुछ करने योग्य ही हैं। आपकी कृपा दृष्टि ही ऐसी अमोघ है जिसने हमको अपनी और आकृष्ट कर आज आपके ये अमृतमय वचन श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त किया है। हाँ इतना अवश्य है आपकी इस अमोघ भविष्यवाणी को सुनकर आज हम लोगों को पूर्ण विश्वास हो गया है कि हमारे ऊपर आपकी कृपादृष्टि कम नहीं है। अतएव आज तक नहीं आया तो भविष्य में वह एक दिन अवश्य आने वाला है जिसमें हम लोग आपके कथनानुसार संसार में अवश्य अपने कीर्तिरूप स्तम्भ को प्रतिष्ठित कर सकेंगे। उनका यह औत्साहिक कथन सुनकर आपने उसका समर्थन किया और उनको आन्तरिक आशीर्वाद प्रदान कर अजपानाथजी से विदा होने की आज्ञा मांगी। उसने कहा कि स्वामिन् ! आपको विदा करने के लिये तो मैं और ये महानुभाव सब तैयार खड़े हैं। परं मेरी इच्छा है कि आप प्रथम मुझे ही विदा कर दें। मैं श्रीभगवान् आदिनाथजी की सेवा में उपस्थित हो अलक्ष्य पुरुष को लक्ष्य बनाने का प्रयत्न करना चाहता हूँ। आपके सानन्द मन्द मुस्कराते हुए कहा कि अवश्य आप ऐसा कर सकते हैं। आपने अपना कार्य प्रशस्य रीति से पूर्ण किया है। फिर आपके इस गमन में कोई खास वजह वहीं कि हम रूकावट करें। इस पर प्रसन्न हो अपने शिष्यों को सम्बोधित करते हुए उसने कहा कि मेरा शिष्य वर्ग ! मैं इस बात से कम सन्तुष्ट नहीं कि आपने मेरे उपदेश को अच्छा समझा है। बल्कि समझा ही नहीं दूसरों को समझाकर उसका विस्तार भी खूब कर दिया है। जिसका फल यह हुआ कि आज मैं अपने उत्तरदायित्व से विमुक्त हो कृत कृत्य हुआ कैलास जाने की योग्यतान्वित हो गया हूँ। इतना होने पर भी मैं यह और देखना चाहता हूँ कि मेरे परोक्ष होने पर भी आप लोग इसी सीधे महोन्नतिकारक मार्ग में गमन करते रहें। जिससे मै। अलक्ष्य पुरुष की गोद में बैठा हुआ भी अपने आपको धन्य समझता रहूँ। यह सुन उसके शिष्यों ने चरण स्पर्शित करते हुए सान्तोषिक वाक्य सुनाये। जिन्हों से अत्यन्त प्रसन्न हो हार्दिक आशीर्वाद प्रयुक्त कर अजपानाथजी कैलास के यात्री बने। इधर श्रीनाथजी उन योगियों से सत्कृत होने के अनन्तर प्रस्थानित हो शलेमान पर्वत से पार हुए। जो कटासराज तीर्थ पर होते हुए पांचाल देशीय ’ एक पर्वत पर पहुँचकर कुछ काल के लिये विश्रामित हुए। यहाँ तक की यात्रा में सुखिराम और सूर्यमल्ल नाम के दो मुमुक्षु जन आपके हस्तगत हुए थे। आप उनको दीक्षित करने में दत्तचित्त हुए। कुछ काल व्यतीत हुआ। वे योगक्रियाओं में आत्यन्तिक निपुणता प्राप्त कर सके। और समाधि प्रकार को भी खूब समझ गये। यह देख आचार्यजी ने उनको योगवित् बना देने पर भी कदाचित् अवसरोपयोगिनी आस्रिक विद्या में भी चतुर किया। अनन्तर दोनों शिष्यों को दैनिक समाधि करते रहने की आज्ञा प्रदान कर कुछ काल के लिये स्वयं समाधिनिष्ठ हो गये। आप वैक्रमिक सम्वत् 50 से 100 तक अर्थात् पचास वर्ष तक समाधिनिष्ठ रहे। पश्चात् सूर्यनाथ ’ पवननाथ अपने इस दोनों शिष्यों तथा अन्य आगन्तुक योगियों के सहित आप उत्तरा खण्ड की ओर प्रस्थानित हुए। और कुछ ही दिन में हिमालय की उपत्यका के समीप जा पहुँचे। यहाँ एक ’ ग्राम के निकट आपने अपना पड़ाव डाल दिया। और दूध लाने की अनुमति दे अपना एक शिष्य ग्राम में भेजा। वह गया और दूध के लिये उसने ग्रामीण लोगों कसे याचना की। उन्होंने उसका हास्य करने की अभिलाषा से अंगुलिका निर्देश करते हुए कहा महाराज ! उस सम्मुखीन गली में अमुक नाम का ब्राह्मण है उसके यहाँ बहुत दूध होता है। साथ ही वह साधुओं का भक्त भी है। कोई भी अवसर हो अकस्मात् साधु आ निकलै तो इच्छानुसार दूध पिलाता तथा भोजन कराता है। यह सुन वह योगी नाम पूछता हुआ उसी ब्राह्मण के गृह आंगण में जा पहुँचा और देखा तो वह ब्राह्मण इस दशा में पाया कि उसके पास केवल एक धोती थी। जिसको कभी-कभी उसकी एक मात्र सहायक ब्राह्मणी धारण कर लेती थी। तथा कभी-कभी ब्राह्मण करता था अर्थात् भिक्षावृत्ति के लिये ग्राम में जाने के अवसर में ब्राह्मण शाटिका धारण करता और ब्राह्मणी गृह में नग्न बैठी रहती थी। उसके आने पर भोजन बनाने आदि के अवसर पर जब उसको ब्राह्मणी धारण करती तब ब्राह्मण गृह में नग्न बैठा रहता था। उनकी यह दशा देखकर पवननाथजी का हृदय भर आया। तथा साथ ही प्रसन्न भी हुआ। उसने सोचा कि लोगों ने जो मेरा हास्य किया है इसका गुरुजी के सम्मुख वर्णन करूँगा। जिससे सम्भव है गुरुजी इसकी ओर कृपादृष्टि डालेंगे। और यह हास्य इसके लिये लाभदायक हो जायेगा। ठीक हुआ भी .... । जब वह महानुभाव किसी गृहान्तर से दूध लेकर गुरुजी की सेवा में पहुँचा तब उसने लोगों का हास्यवृत्तान्त श्रीनाथजी के श्रोतगत किया। वे तत्काल ही ब्राह्मण के घर पहुँचे। और उसको कह सुनाया कि लोगों ने हमारा इस प्रकार से हास्य किया है। अतएव हम तेरे घर से दूध ही नहीं पीवेंगे बल्कि तुझे इस ग्राम का माननीय शिरोमणि बना देंगे। लो यह विभूति इसको गृहाँगण और कोठे में प्रक्षिप्त कर देना। कुछ देर के अनन्तर कोठे में तो प्रभूत धन और रूचिकर वस्त्र प्राप्त होंगे। संध्या होने पर बहुत सी गौ तुम्हारे इस आंगण में आयेगी।  तुम  गौओं के आते ही दूध निकालने लग जाना। हम ठीक उसी अवसर पर आयेंगे। और दूध पीये पिलायेंगे। यह सुन ब्राह्मण आपके चरणों में मस्तक लगाकर अभ्यर्थना करने लगा। और बड़े ही विनम्र भाव से कृतज्ञता प्रकट करते हुए उसने विभूति को सादर ग्रहण किया। तदनु श्रीनाथजी तो आपने आसन पर आ विराजे। ब्राह्मण के जैसा करने पर तैसा हुआ। अभी सायंकाल होना तो बाकी ही था प्रथम ही मांगलिक ध्वनि होने लगी। ग्राम्यलोग ब्राह्मण को अपूर्व वस्त्र तथा आभूषण धारण किये इधर-उधर फिरता देख समझ गये कि ईश्वर ने इसका भाग्य पलटने के लिये ही हमसे हंसी कराई है। अथवा ठीक है जब ईश्वर किसी को कुछ देता वा उसके ऊपर प्रसन्न होता है तब ढोल नहीं बजाता है कि मैं इस प्रकार वा इस समय तुझे कुद प्रदान करूँगा वा तेरे ऊपर प्रसन्न हूँगा। किन्तु उसके ऐसा करने के लिये अनेक रास्ते हैं। ठीक यही उदाहरण आज हमारी दृष्टि के सम्मुख विराजमान हैं। लोगों में इस प्रकार की वार्ता होते हुए और सुनते सुनाते यह वृत्तान्त समीपस्थ अन्य ग्रामों तक विस्तृत हो गया। यह सुनते ही प्रत्यक्ष निश्चय करने के वास्ते अनेक नर-नारी इधर दौड़ने लगे। और पूर्व दृष्ट दरिद्री ब्राह्मण को सचमुच इस अवस्था में देख महाश्चर्य से ग्रसित हुए। इतने ही में ऊपर से सायंकाल भी आ पहुँचा। श्रीनाथजी के वचनानुकूल अनेक ग्रामीण गौ रूपान्तर युक्त हुई ब्राह्मण के गृहाग्र चैक में आकर एकत्रित होने लगी। देखते-देखते चैक गौओं से परिपूर्ण हो गया। वत्स दूध से तृप्त हो-हो कर अपनी माताओं के मुखाग्र प्रदेश में खड़े हुए थे। जिनको जिव्हा से चाटती हुई गौ अपूर्व प्रमोद प्रकट कर रही थी। वह ब्राह्मण स्वयं दूध निकालता और निकलवाता श्रान्त हो गया परं समस्त गौ दोहने में न आई। बल्कि यहाँ तक हुआ कि उन गौओं का दूध स्वयं स्तनों से निकल पृथिवी पर गिरने लगा। इतने ही में उधर से समण्डालिक श्रीनाथजी भी आ गये। और अपने ब्राह्मण से कहा लो पात्र इसको पूर्ण कर सब महात्माओं को दूध पिलाओ। तदनन्तर यदि इच्छा हो तो ये उपस्थित सेवक लोग भी पी सकते हैं जिन्होंने इस योगी के दूध मांगते ही पात्र भरपूर कर प्रथम हमको पिलाया था। यह सुन समस्त वे लोग जिन्होंने हास्य किया था लज्जित से हो आपके पादस्पर्शी हुए प्रार्थना करने लगे कि भगवन् ! क्षमा कीजिये हम लोगों को आप जैसे महात्माओं का सत्संग पर्याप्त नही ंमिला है इसी कारण से हम लोगों की यह दशा है। तदनु श्री नाथजी ने, अच्छा अब इस सत्संग से विरहित न रहोगे, यह कहते हुए शालिपुर (श्यालकोट) की तरफ प्रस्थान किया। और नगर की कुछ दूरी पर उत्तर दिशा में अपना आसन स्थिर किया। यह स्थल महाराजा शालिवाहन ने अपने सैनिक घोड़ों के घास के लिय अवरूद्ध किया हुआ था। इसमें विविध प्रकार के आरण्य पशु-पक्षी निवास करते थे। तथा कई छोटे-छोटे तालाब और एक कूप भी इसमें विद्यमान था। जिससे वर्ष भर में केवल उतने ही दिन तक जल निकलता था जब तक कि घास की कटाई रहती थी। ठीक इसी कूप से जल लाने के लिये आपने अपने शिष्य पवननाथजी को उधर भेजा। वह गया और जल निकालने के लिये कूए में पात्र पाशा। पात्र के जल पर पड़ने पर उसको कूप पातित एक मनुष्य ने पकड़ लिया। यह देख योगी चकित सा होकर पूछने लगा कि तू किस अभिप्राय से यहाँ रहता है तथा किस उद्देश्य से तूने पात्र को आश्रित किया है। इसके उत्तरार्थ उसने अपनी जीवन चय्र्या को प्रस्फुट करना आरम्भ किया। तथा कहा कि मैं इसी नगर के राजा महाराज शालिवाहन का पुत्र हूँ। ’ कृष्ण मेरा नाम है। मैं एक दिन आहूत हुआ उपमाता के प्रासाद में गया था। वह मुझे देखकर विमोहित हो गई। और अपनी कुबासना पूरी करने के लिये मुझसे विशेष आग्रह करने लगी। इतनी होने पर भी जब मैंने किसी प्रकार पाप समुद्र में डूबना न स्वीकार किया तब उसने अपने चरित्र का विपरीत अर्थ घोषित कर पिताजी के हृदय को विक्षिप्त कर दिया। जिसका फल यह हुआ कि मैं बध्य समझा जा कर घातकों के समर्पित किया गया। वे लोग मेरे हस्तपाद काटकर इस कूंए में डाल गये। बस उसी दिन से मैं यहाँ पड़ा किसी प्रकार समय व्यतीत करता हूँ। और गुरुगोरक्षनाथजी का ध्यान कर कभी यह भी निश्चित कर लेता हूँ कि शायद किसी दिन वे मेरी इस दैन्य दशा पर दृष्टि डालेंगे। क्यों कि उनके अवतार का उद्देश्य ही मेरे जैसे दीन पुरुषों का उद्धार करना है। अतएव आप कौन हैं इस बात का परिचय दें। क्या आप कोई परदेशी हैं कि इसी नगर के, यदि परदेशी हों तो इस बात का पता लगा सकते हो कि आजकल गुरु गोरक्षनाथजी किस ओर विचरते हैं। अथवा मेरी इस दीन दशा की सूचना समीप पहुँचा सकते हो तो मैं अपना जीवन आपका प्रदान किया हुआ समझूँगा। यह सुन पवननाथजी ने कहा कि ठहरो इन सब बातों का निर्णय हम अभी कर देतें हैं। अतः वह अवलम्बित रज्जु को उसी प्रकार छोड़कर शीघ्रता के साथ गुरुजी के समीप आया। और उसका आद्योपान्त समस्त वृत्तान्त उनको सुनाया।  दीनोद्धारक दयाद्र्र हृदय श्री नाथजी अत्यन्त प्रफुल्लित हुए अविलम्ब के साथ ’ कूप पर गये। और उसको बहिर निकालकर अपने शरीर से स्पर्शित करते हुए कहने लगे बेटा हम तेरे हस्त-पैर फिर तादवस्थ्य कर देते हैं यदि इच्छा हो और अपने ऊपर फिर आपत्ति आने की तुझे सम्भावना न दीख पड़ती हो तो वापिस जाकर अपुत्र हुए महाराजा शालिवाहन को फिर सपुत्र बना सकता है। पाठक ! जैसी कुछ उसके साथ बीती थी आप उस घटना से अपरिचित नहीं है। अतएव अधिक क्या कहें आप इसी से समझ लिजिये श्रीनाथजी के अनेक युक्तियुक्त वाक्य सुनकर भी उसने वापिस लौटना स्वीकार न किया। अन्ततः श्रीनाथजी ने अच्छा बेटा यदि यही बात है तो हमने तुझे न केवल हस्तपादों से ही पूर्ण बना दिया है बल्कि योगतत्त्व परीक्षा में पूर्ण बना देंगे, यह कहते हुए उसको अपनी मण्डली में सम्मिलित कर लिया और वहाँ से गमन कर आप काश्मीर देशस्थ श्री अमरनाथजी के पर्वत पर गये, ठीक इसी जगह पर आपने उसको योगवित् बनाया। अनन्तर यहाँ से प्रस्थानित हो फिर भारतीय नीचे प्रान्तों में आकर भ्रमण करने लगे। और कतिपय वर्षों के पश्चात् भ्रमण करते हुए अनेक प्रान्तों को पारकर चीनदेशीय पिलांग टापु में पहुँचे। यहाँ आपकी पूर्व निर्मापित गुहा थी उसमें कुछ दिन के लिये आप विश्रामित हुए। यहाँ एक कार्य ऐसा आपकी दृष्टिगोचर हुआ जिसका अनुष्ठान करना आपने उचित समझा और वह कार्य था इस देशीय राणी को सन्तुष्ट करना। वह कतिपय वर्ष से आपके पूजा ध्यान में विशेष दत्तचित्त रहती थी। उसका मुख्योद्देश्य था आपके शिष्य पूर्णनाथ को अपना सहवासी बनाना। कारण कि वह अभी तक कुमारी बैठी हुई किसी कारण से उसी पर अवलम्बित थी। आपने इस झगड़े का फैसला कर देने के अभिप्राय से राजधानी की ओर गमन किया। और उससे कुछ दूरी पर अपना आसन स्थित कर स्वकीय प्रिय शिष्य चैरंगीनाथ को भिक्षा प्रदान कर योगियों को विशेष सत्कृत किया करती थी। क्यांे कि जिस दिन उसने यह सुना कि अद्वितीय सुन्दराकृति मेरा निश्चित वर कृष्ण योगी बना अभी तक सजीव ही है उसने उसी दिन से यह कृत्य आरम्भ किया था। साथ ही जिन ज्योतिषियों ने उसको पूर्ण के सजीव रहने का पता दिया था उन्होंने उसके समस्त लक्षण भी वर्णित कर राणी के हृदय में बैठा दिये थे। अतएव वह आगन्तुक योगियों में उन निर्दिष्ट चिन्होंका निरीक्षण भी किया करती थी। आज अकस्मात् ईश्वर के प्रेषित किये हुए वे महानुभाव भी नगर में आ प्रविष्ट हुए।  तथा लोगों के निर्देशानुसार राणी के प्रासाद में पहुँचे। अलक्ष्य शब्द को सुनकर नित्यनियमानुसार वह कैसी भिक्षा रूचिकर है यह पूछने के लिये नीचे उतर आई। बस देखते ही उसने उसका परिचय पाने में कुछ भी देर न की। और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ अपने प्रासाद के ऊपर ले गई। उसने सोचा था कि आप मेरी अभिलाषा पूरी करने के लिये ही यहाँ आये हैं। परं इतने ही में आपने कह सुनाया कि गुरुजी भी मण्डली के साथ यहीं विराजमान हैं अतः उनके लिये शीघ्र भोजन ले जाना होगा। अच्छा है यदि अविलम्ब से ही तैयार हो जाय तो मैं ले जाकर उनकी आज्ञा पालन कर सकूँगा। यह सुनकर राणी ने इस अभिप्राय से कि इनकी उन्हों से भिक्षा मांगकर लाऊँगी, अनेक प्रकार के भोजनों सहित श्रीनाथजी की सेवा में प्रस्थान किया। अधिक क्या भोजनान्त में किसी प्रकार से वे राणी के ऊपर प्रसन्न हो गये। और अनुचित कृत्य होने पर भी प्रिय शिष्य को राणी के साथ जाने की उन्होंने आज्ञा प्रदान कर दी। तदनन्तर आप तो देशान्तर के लिये रवाने हो गये। राणी प्रवृद्धानन्द से अपने आप में फूली न समाती हुई स्वकीय प्रासाद मंे आई। प्रधान पुरुषों को विज्ञापित करते हुए उसने घोषित किया कि नगर सजाया जाय और अनेक प्रकार के दान पुण्य किये जायें। आज्ञा प्रचारित हुई, सब कार्य यथावत् होने लगे। सूर्य भगवान् अस्ताचल का अतिथि बनने के लिये उत्कण्ठित हुआ। उसका तेज संहृत होने के साथ-साथ वायु में शीतलता मिश्रित होने लगी। पक्षिगण दैनिक आहारवृत्ति से निवृत्त हुए अपने-अपने आवास स्थानों में आ आकर विविध स्वर से मधुर कलोल करने लगे। ऐसी ही दशा में अपने ही मन मन कल्पित प्रिय पति पूर्ण के साथ राणी का उस शीतल वायु के सेवन करने का मनोरथ हुआ। और वह यतिबरजी के साथ ले महल की उत्तम भूमि पर चढ़ी। बस अब तक ही राणी का कल्पित सुहाग वर्तमान था। नाथजी ने अपने मुक्त करने का यही अवसर उचित समझा। तथा गुरुपदिष्ट उदान वायु का निरोध कर प्रासाद भित्ति पर बैठे हुए आपने जिस क्षण में राणी की दृष्टि से अपने को वंचित देखा उसी क्षण में शरीर को आकाशधारी बना लिया। इस कृत्य से आप ज्यों ही भित्ति से कुछ दूर हुए त्यों ही राणी ने इधर देखते ही आपके गिर जाने के भ्रम से पकड़ने के लिये आगे हस्त बढाये। प्रिय पति के ग्रहण से लालायित हुई उसने अपने गिरने का कुछ विचार न किया। बस उसके पैर दिवाल से भ्रष्ट हो गये। वह अत्यन्त वेग के साथ नीचे गिरी और ऐहलौकिक यात्रा समाप्त कर गई। यह देख कुछ देर पहले जहाँ-जहाँ नगर में मांगलिक कृत्य हो रहे थे वहाँ घोर उदासीनता का साम्राज्य स्थापित हुआ। (अस्तु) चैरंगीनाथजी ने उसको अग्रिम जन्म में अभीष्ट पति मिलने का आशीर्वाद प्रदान कर आकाश गति से प्रस्थान किया। और कुछ देर में आप अन्य ग्राम सीमान्तर्गत विश्रामित हुए गुरुजी के समीप पहुँचे। तथा जो कुछ वृत्तान्त बीता था सब आपने गुरुजी के सम्मुख प्रकट कर दिया। इससे श्रीनाथजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसको अपनी उरःस्पर्शता से सत्कृत करते हुए कहने लगे कि बेटा तू संसार सागर से पार होने की अभिलाषा से हमारा आश्रय ग्रहण कर चुका था। अतएव यह नहीं सोच बैठना कि हमने तुझे राणी को प्रदान कर फिर उसी सांसारिक सागर में प्रक्षिप्त करना उचित समझा था। किन्तु उसकी प्रार्थनानुसार उससे तेरा मिलाप करा देना उचित समझ कर भी हमारे हृदय में यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि जिस मनुष्य ने जिस कार्य के न करने में अपने शरीर तक के जाने की परवाह न की हो वह मनुष्य उस कार्य के करने में कभी उत्सुक नहीं होगा। अतएव हमारे विश्वास को पूरा कर तुम बहुत कुछ वस्तुओं के अधिकारी बन गये हो। परं यह बतलाइये राणी के लिये कुछ कृपा दृष्टि की है वा नहीं। उसने उत्तर दिया कि स्वामिन् ! पति के लिये उसने इस विषयक दशा का अनुभव करना पड़ा है। अतः मैं उसको ईप्सितपति प्राप्त होने का आशीष दे आया हूँ। श्रीनाथजी ने इसका समर्थन कर वहाँ से प्रस्थान किया। और भोट (भुट्टान) आदि अनेक देशों में भ्रमण करते हुए आप कुछ काल के अनन्तर कालिकोट (कलकत्ता) में आये। तथा अपने पूर्व वैश्रामिक स्थान पर आसन स्थिर कर कुछ दिन के लिये यहाँ ठहर गये। अन्त में सब योगियों को, हम कुछ काल पर्यन्त दाक्षिणात्य देश का भ्रमण कर योग प्रचार का निरीक्षण करेंगे तुम लोग भी अपने-अपने अभीष्ट स्थानों में जाओ समय-समय पर सामाधिक दशा में परिणत होते रह कर भी प्रचार कार्य में भाग लेते रहना, यह आज्ञा प्रदान कर पूर्णनाथजी को आपने सूचित किया कि बेटा तुझे एक बार अपनी राजधानी में जाना होगा। तेरी वृद्धा माता तेरे वियोग से नेत्र हीन हुई भी तेरी उस दुर्दशा का सदा स्मरण रखती हुई न मरी न सजीव है। जब कि तू हमारी कृपा का पात्र और इसीलिये अनेक सिद्धियों का भण्डार बन चुका है तब तेरी माता की यह दुरवस्था उसके नहीं तेरे दुःख के लिये समझनी चाहिये। अतएव तू जा और उसको अधम मार्ग में लटकती हुई को किसी उचित ठिकाने पर स्थापित कर आ। यह सुन सबने आपकी आज्ञा पालन की और अपने-अपने मार्ग पर पदार्पण किया।
इति श्रीनाथ पर्यटन वर्णन ।

Friday, July 5, 2013

श्री दूरंगतनाथ समाधि वर्णन

इतिहास प्रेमी वाचक महाशयजी ! आप कृपाया अघीत अध्यायों पर दृष्टिपात करते हुए निरंजननाथजी के शिष्य दूरंगतनाथ; आधुनिक काल प्रसिद्ध धोरंगनाथजी को स्मृतिगत करें। क्यों कि अध्याय का आप प्रारम्भ कर रहे हैं इसके अधिनायक आप महानुभावी हैं। जिन्हों के शुभ नाम से आपको आगत अध्याय में परिचित किया जा चुका है। साथ ही यह बात भी प्रकट की गई है कि वे योग सिद्धि में गुरुजी के समत्व को प्राप्त हुए भी तैजस प्रकृति के पुरुष थे। आप गुरुपलब्ध योग क्रिया कौशल्य के प्रभाव से बहुकालिक योग प्रचार के द्वारा श्रीमहादेवजी की आज्ञा का सम्यक् रीति से पालन कर इधर-उधर के अनेक देशों में भ्रमण करने के अनन्तर सौराष्ट्र देश में आये। और इस देशीय एक पट्टन नामक नगर की सीमान्तर्गत गुहा निर्मित कर शिष्य को स्वकीय शरीर रक्षार्थ प्रबोधित करने के पश्चात् उसमें द्वादश वर्ष के लिये समाधिनिष्ठ हो गये। आपने अपने शिष्य के योग तत्त्ववेता बनाने में जिस प्रकार हितैषिता की पराकाष्ठा दिखलाई थी वह उसी प्रकार आपके विषय में सीमारहित श्रद्धा रखता था। इसीलिये वह गुरुजी की आज्ञा को शिरोधार्य समझ कर उस कार्य में दत्तचित्त हुआ। तदनु जब कि गुरुजी समाधि के द्वारा ब्रह्मरूपावस्था में प्रविष्ट हो चुके तब इस महानुभाव ने कल्पित औषधियों के सकाश से उनके शरीर को संस्कृत कर गुहा का द्वार बन्ध कर दिया। तथा अपनी दिनचर्या का प्रारम्भ इस प्रकार किया कि आठ पहर में समीपस्थ पट्टन नगर में भोजन कर आना और समस्त दिन स्वयं भी समाधिक आनन्द में मग्न रहना। यह दिनचर्या कई मास तक यथेष्ट रीत्या प्रचलित रही। अभी एक वर्ष भी पूर्ण नहीं होने पाया था। इस बीच में एक विघ्न आ उपस्थित हुआ और वह यह था कि यह महानुभाव जो भोजन के लिये नगर में जाता था इसे देखकर लोग नासिका संकुचित करने लगे। तथा धीरे-धीरे यह कहकर, कि साधु को एक दिन भोजन देना होता है न कि प्रतिदिन, इस दर्जे तक पहुँचे कि उन्होंने इसको भोजन देना बन्ध कर दिया। पाठक ! देखिये आज वह समय है जिसमें भारत के कौने-कोने में योगियों की अद्भुत शक्तिशालिता की धूम मची हुई है। और तो क्या इसी नगर की छाती पर महात्मा निरंजननाथजी के परम प्रभावशाली शिष्य दूरंगतनाथजी स्वयं द्वादश वर्षीय समाधि में विराजमान हैं। जिनके शरीर रक्षक ये शिष्य भी भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। इतना होने पर भी नहीं जानते लोगों ने क्यों ऐसा किया। अथवा ठीक है इसी को कहते हैं भावी बलवान्। जिसके चक्र से असंग रहना सर्वथा असम्भव है। यही कारण था अनेक प्राणियों के भोग की अवधि समाप्त होने से उनके विलक्षण अदृष्ट ने उनके आभ्यन्तरिक बाह्य दोनों चक्षुओं को ज्ञान शून्य कर डाला। इसीलिये वे शक्तिशाली महात्मा के सम्मुख स्थित होने पर भी उससे किंचित् भयभीत न हो अपने निन्द्यकृय के फला फलका कुछ भी विचार न कर सके। सम्भव है कि लोगों को दूरंगतनाथजी के समाधिनिष्ठ होने का समाचार मालूम न हुआ हो। और यह सोच कर, कि साधु के लिये एक ही ग्राम के गो रे बैठकर समय यापन करना उचित नहीं, उन्होंने उसका भोजन बन्धकर दिया हो। खैर जो भी कुछ हो लोगों का कृत्य विचार शून्य और सर्वथा अनुचित कहने योग्य था। इधर शिष्य महानुभाव को गुरुजी की आज्ञात्मक परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये बारह वर्ष व्यतीत करने थे। वह यह देखकर कुछ खिन्नचित्त हुआ सही परं शीघ्रता के साथ धैर्यावलम्बित हो सोचने लगा कि खैर जो कुछ होगा देखा जायेगा। परं यह तो निश्चय करूँ कि समस्त ही नगर ऐसा है वा कुछ लोग, आखिर गली-गली भ्रमण कर जब उसने इस बात की गवेषणा की तब समस्त नगर में एक भी मनुष्य उसको ऐसा न मिला जो उसका सत्कार करने के लिये अग्रसर हुआ हो। यह देख उसने लोगों के द्वारों पर जाने की आशा छोड़ दी। और इस कृत्य का आश्रय लिया कि जिस वणी में वह निवास करता था उससे एक भार काष्ठ संचितकर बाजार में लाकर बेच देना और उससे उपलब्ध मात्राओं से अन्नक्रय कर एक कुम्भकारी वृद्धा स्त्री की चक्की से पीस गुहा पर ले आता। तथा इच्छानुसार स्वयं हस्त से भोजन बनाकर स्वकीय क्षुधा का वेचन चुकाता था अधिक क्या कहैं इसी प्रकार जैसे तैसे कर उसने बारह वर्ष पूरे किये। गुरुजी का समाधि से जागरित होने का अवसर समीप आ गया। उसने गुरु शरीर को फिर संस्कृत कर तैयार किया। दूरंगतनाथजी बारह वर्ष की समाधि से ब्रह्मानन्द का अनुभव कर जागरित अवस्था में परिणत हुए। और नेत्रोद्घाटित करते ही आपने जब अपने शिष्य की ओर दृष्टिपात किया तब तो आपने एकाएक उसके शिर को जटा पंूज से शून्य देखा। जिसका अवलोकन करते ही आप आश्चर्य ग्रस्त हुए सहसा पूछ उठे कि यह क्या बात है। प्रथम तो योगियों के लिये वृद्ध होना ही लज्जोत्पादक है। इतना होने पर भी अधिक अवस्था हो गई हो तो यह समझा जा सकता है कि उसी का कुछ यह दोष हो जिससे शिर के बाल गिर गये हों, सो तो है ही नहीं फिर कारण क्या हुआ सच्च बतलाओ। वह महानुभाव यदि ग्राम का कुछ अनिष्ट करना चाहता तो स्वयं भी कर सकता था। परं उसको अपने उदर के लिये अनेक प्राणियों को महाकष्ट में नियोजित करना रुचिकर नहीं था। तथा गुरुजी के जागरित काल का स्मरण करते हुए उसको इस बात का भी डर था जो अब उसके सम्मुख आ खड़ी हुई। तथापि वह विचारा अब और क्या करता। आखिर जो सत्य बात थी बतलानी ही पड़ी। बस क्या था उसने कहने ही दे दूरंगतनाथजी की लालाटिक प्रकृति सहसा संकुचित हो गई। वे इतने कुपित हुए उनके नेत्रों से क्रोधाग्नि की रस्मिया निकलने लगी। जिससे उनका स्वरूप उस दशा में परिणत हुआ मानों प्रलयकाल के आगमन का सन्देश लाये हों। आखिर हुआ भी वही। उस नगर को प्रलायाग्नि से दग्ध करने के अभिप्राय से उन्होंने अपने शिष्य को विज्ञापित किया कि शीघ्र जाओ यदि नगर में कोई तुम्हारा कृपा पात्र हो तो उसको सूचित कर दो कि वह नगर से बहिर निकल जाय। यह सुन कर उसने समझ लिया कि नगर की खैर नहीं है तथापि वह गुरु के निश्चय को पलटने के लिये समर्थ नहीं हुआ। अतएव उसने कहा कि स्वामिन ! यद्यपि एक वृद्धा स्त्री के बिना मेरा कोई भी मनुष्य नगर में कृपापात्र नहीं है तथापि जहाँ तक हो अच्छा है यदि आप अपने इस कालिक क्रोधावेश को अनन्तर ही अवरूद्ध कर लें तो ऐसा करने से बहु संख्यक प्राणियों का मंगल हो सकेगा। परं ईश्वर को ऐसा ही नहीं कुछ और मंजूर था। इसीलिये उन्होंने उच्च स्वर से फिर कहा कि नहीं जाओ-जाओ शीघ्र जाओ। हम जो संकल्प कर चुके वह कभी अन्यथा नहीं हो सकता है। आखिर यह आज्ञा प्राप्त कर शिष्य महाशय चला और शीघ्र नगर में पहुँचा। पहुँचते ही उसने बूढिया को सूचित किया कि माई क्षमा कीजिये मैं तुझे नगर से बहिर निकालने के लिये आया हूँ। अतः शीघ्रता कीजिये और जो कुछ ग्राह्य सामग्री हो उसको उठाकर बहिर ले जाइये उसके ये आकस्मिक वचन सुनकर बूढि़या चैंक उठी। तथा कहने लगी क्यों महाराज ! यह आज क्या कह रहे हो। जब कि नगर भर में आपकी किसी ने बात तक न पूछी तब मैंने एक चक्की मात्र से आपका सत्कार किया तो उसका यह प्रतिफल मुझे नगर निर्वासिनी बनाते हो। उसने कहा कि मातः ! आप इस बात का अभिप्राय नहीं समझ पाई हैं। उसी वृत्तान्त के हेतु से मेरे गुरुजी आज जो बारह वर्ष की समाधि से उठे हैं नगर के ऊपर क्रोधित हो गये हैं। सम्भव है कि वे नगर को किसी खतरे में डालेंगे। इसी कारण से मैं आपको अक्षुण्ण रखने के लिये बहिर जाने का परामर्श दे रहा हूँ। यह श्रवण करते ही वह समझ गई कि लोगों के भोग की समाप्ति हो गई निश्चित होती है। अतः उसने अपने एकमात्र गधे पर कुछ सामग्री आरोपित कर नगर से बहिर प्रस्थान किया। मूर्ख लोग इसे अकस्मात् सामान लादकर बहिर जाते देखकर भी अपने चित्त में किसी मंगलप्रद शुभ विचार की स्थिति न कर सके। बल्कि श्रीमती कुम्भकारिणी को इस ढंग से ग्रामान्तर जाते देख हास्योद्घाटन करने लगे। वह भी निःसन्देह लोगों का अदृष्ट अनुकूल नहीं है यह निश्चय करती हुई उनके ऊपर पड़ने वाले आपत्तियों के पहाड़ को प्रस्फुट न कर चुपकी हो बहिर निकल गई। इधर वह महानुभाव यह कार्य कर शीघ्र गुरुजी के समीप आया। और कहा कि स्वामिन् ! उस वृद्धा ने चक्की प्रदान की थी जिससे मैं काष्ठनैमित्तिक उपलब्ध अन्न का चूर्ण तैयार करता रहा। इसके अतिरिक्त यदि उसके पास पर्याप्त निर्वाह होता तो मुझे यहाँ तक सम्भव है कि वह केवल अपने गृह से ही मेरा कोई प्रबन्ध कर देती। जिससे मुझे इतना कष्ट न उठाना पड़ता। परं यह बात नहीं थी। वह स्वयं अर्थाभाव से अपने जीवन को कष्टमय बना रही थी। यही कारण था वह केवल चक्की प्रदान से ही मेरा सत्कार कर सकी। दूरंगतनाथजी ने, खैर जो भी कुछ हो अब तो उसके विषय में कोई चिन्ता नहीं हम उसको अपना आशीर्वाद दे चुके हैं जिससे वह ग्रामान्तर में निवास कर अपने जीवन को सुखमय व्यतीत कर सकेगी, यह कहते हुए गुरुपलब्ध प्रलयास्र को सन्धानित किया। तथा समस्त पट्टन नष्ट हों, यह शब्दोच्चारण कर उसका प्रयोग भी कर दिया। बस क्या था अनर्थ उपस्थित हो गया। आपके उक्त शब्दोच्चारण से न केवल एक वही पट्टन नष्ट हुआ बल्कि इस नाम के तात्कालिक विद्यमान कई ग्राम बात की बात में धूलि में मिलने को तैयार हुए। यह क्यों और कैसे हुआ। यद्यपि एक उसी नगर का अपराध था। और सम्भव हो तो उसके साथ ऐसा व्यवहार करना भी कदाचित् न्याय संगत हो सकता था। तथापि अन्य ग्रामों का कोई दोष नहीं था। जिसके कारण से वे आपके इस प्रलयकालिक अस्त्र प्रयोग के लक्ष्य बनते। फिर क्यों ऐसा हुआ। इसका कारण यह है संसार में यह बात प्रसिद्ध है कि कोई भी मनुष्य जिस प्राणी में जितना अधिक प्रेम रखता है उसी का विधात करने के लिये यदि कोई अन्य तृतीय मनुष्य तैयार हो जाय तो वह प्रीति रखने वाला विघातक के ऊपर उतना ही अधिक क्रोधित होता है। ठीक इसी के अनुकूल दूरंगतनाथजी का शिष्य के शिरोवाल नष्ट हुए देख उसके कष्ठमय जीवन बीतकर भी स्वीय आज्ञा पूरी करने के हेतु से उसमें अधिक प्रेम उत्पन्न हो गया था। अतएव वे उसके अपराधी नगर पर महाक्रोधित हो प्रमादी बन गये थे। जिससे उनका शब्द की ओर कुछ भी ध्यान न रहा। और उन्होंने प्रमाद से समस्त पट्टन नष्ट हो, शब्द की जगह बहुवचन वाचक समस्त पट्टन नष्ट हो शब्द का उच्चारण कर दिया इसी से यह महान् अनर्थ उपस्थित हुआ। आपका अभिप्राय यद्यपि ऐसा था कि नगर का एक दो मोहल्ला बाजार नहीं किन्तु समग्र नगर नष्ट हो। तथापि हों शब्द के ऊपर उच्चरित होने वाली अनुस्वार ने उस अभिप्राय का परिवर्तन कर डाला। इसी को कहते हैं परमात्मा की विचित्र गति, तथा पर्वत से राई और राई से पर्वत बनाना। (अस्तु) नष्ट होने वाले अन्य पट्टन नगरों में किसी नगर की सीमान्तर्गत पूज्यपाद योगेन्द्र गोरक्षनाथजी अपना मार्ग तय कर रहे थे। वे कुछ क्षण में ज्यों ही उन्होंने नगर को उस दशा में परिणत होते देखा। ठीक इसी समय आपने उसके कारण के जानने की अभिलाषा से अपने बाह्यनेत्र बन्ध कर जब आभ्यन्तरिक नेत्रों से देखा तब तो दूरंगतनाथजी का अखिल वृत्तान्त उनके सम्मुख आ खड़ा हुआ। अतएव आपने उपयोगी मन्त्र प्रयोग द्वारा निर्दोषी नगरों को तत्काल निर्विघ्न बनाकर तादृश सुखी किया। और वहाँ से प्रस्थान कर आप दूरंगनाथजी के समीप गये। उन गुरु चेलों ने बड़े ही विनम्र भाव से आपकी स्वागतिक अभ्यर्थना की। तथा आन्तरिक भाव से अनुमान किया कि मालूम होता है श्रीनाथजी को हमारा कार्य रूचिकर नहीं हुआ है। यथार्थ में बात थी भी ऐसी ही। श्रीनाथजी यद्यपि मर्यादा भंगभय से अपराधी को कुछ दण्ड देना अच्छा समझते थे। तथापि वैसा नहीं जैसा दुरंगनाथजी ने दिया। वे तो चाहते थे कि दण्ड सर्वथा ऐसा ही होना चाहिये जिससे अपराधी की बुद्धि तो ठिकाने आ जाय परं उसकी ऐसी असाधारण हानि न हो जिससे वह बिचारा बात की बात में अपना सर्व कुछ खो बैठे। अतएव आपने दूरंगतनाथजी को सम्बोधित करते हुए कहा कि यद्यपि अन्य ग्रामों को तो हमने नष्ट होनने से वंचित रख दिया है। और यह हुआ भी ठीक ही है। क्यों कि न तो उनका कोई अपराध था। एवं न तुम्हारा उनको नष्ट करने का कोई अभिप्राय ही था। तथापि हम यह नहीं चाहते कि इस अपराधी नगर के विषय में भी इतना अधिक दण्ड होना चाहिये था। इसके विनाशार्थ तुम्हारा इतना क्रोधित होना कि जिससे शब्दोच्चारण की स्मृति थी न रही यह तुम्हारे को ही नहीं योगि समाज मात्र को कलंकित करने वाला है। ऐसे कृत्यों से तो जहाँ हम लोग अपने आपको जनोद्धारक समझ रहे हैं वहाँ लोग हमको जनविनाशक मानने के साथ-साथ अपनी सिद्धियों का अभिमान रखने वाले भी निश्चित कर बैठेंगे। अतएव नगर का अनुचित कृत्य होने पर भी उसकी योग्यता से अधिक दण्ड देने के कारण तुम भी दण्डित हुए बिना नहीं रह सकोंगे। क्यों कि जिस प्रकार तुम्हारी क्रूर दृष्टि से अपराधी नगर नहीं वंचित रह सका उसी प्रकार समाज की तिर्यग् दृष्टि से तुम नहीं वंच सकते हो। यह सुन दूरंगतनाथजी ने अपनी प्रमत्ता स्वीकृत करने के साथ-साथ तथास्तु शब्दोच्चारण पूर्वक पूर्वक आत्यन्तिक विनम्र भाव प्रकट करते हुए आपकी आज्ञा अंगीकृत की। तथा कहा कि भगवन् ! जिस कृत्य को मैं कर बैठा हूँ उसको स्वयं भी अनर्थ नहीं समझता हूँ यह बात नहीं तथापि अवश्यम्भावी वृत्त को रोकने का साहस करना मानों ईश्वरीय इच्छा में आघात पहुँचाना है। ठीक इसी रीति से मैं अपने आपको निर्दोषी बनाना चाहूँ तो बना सकता हूँ। परं ऐसा समझना और करना मानों आपकी आज्ञा का भंग करना है। अतएव वैसा न कर आप जो कुछ मेरे विषय में दण्डार्थ कल्पना कर चुके हैं उसको पूरी करना मेरा प्रथम कर्तव्य है। इसलिये कृपा कीजिये और आज्ञा दीजिये मैं किस प्रायश्चित का अवलम्बन करूँ। श्रीनाथजी ने अभी कुछ ठहरो यह आदेश प्रदान कर ज्वालेन्द्रनाथजी आदि अनेक योगियों के पास समुद्रतटस्थ द्वारका के समीप ’ स्थल में आगमन करने की सूचना प्रेषित की। और आप स्वयं भी उन गुरु शिष्यों के सहिस उस निर्दिष्ट स्थान में पहुँचे। वहाँ कुछ ही दिन में बहुत योगी आ एकत्रित हो गये। गोरक्षनाथजी ने सबके समक्ष दूरंगतनाथजी का अपराध प्रकट कर उसके विषय में दण्ड निर्धारित करने की सम्मति ली। ज्वालेन्द्रनाथजी ने समाज की ओर से भी स्वीकृत और प्रशंसनीय होगा। इस पर फिर श्रीनाथजी ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा कि अच्छा समाज की यदि यही इच्छा है तो मैं प्रकट करता हूँ इन्हें छत्तीस वर्ष का प्रायश्चित करना होगा। और वह तीन भागों में विभक्त करना होगा। तथा प्रत्येक भाग के साथ द्वादशवर्षीय अवधि रखनी होगी। जिनमें प्रथमावधि पर्यन्त एक पादाधार से द्वितीय अवधि पर्यन्त पृष्ठाधार से तृतीय अवधि पर्यन्त मस्तकाधार से स्थित रहना होगा। तथा प्रत्येक भाग के साथ द्वादश वर्षीय अवधि रखनी होगी। जिनमें प्रथमावधि पर्यन्त एक पादाधार से द्वितीय अवधि पर्यन्त पृष्ठाधार से तृतीय अवधि पर्यन्त मस्तकाधार से स्थित रहना होगा। आपकी इस आज्ञा का योगी समाज की आरे से समर्थन हो चुकने पर दूरंगतनाथजी ने सबके मध्य खड़ा हो क्षमा प्रार्थना करते हुए दण्ड को स्वीकृत किया। तदनन्तर ज्वालेन्द्रनाथजी तथा कारिणपानाथजी आप दोनों गुरु शिष्य गोरक्षनाथजी की अनुमति प्राप्त कर कैलास के लिये प्रस्थानित हुए। अन्य सब महानुभाव भी अपने-अपने अभीष्ट मार्ग में तत्पर हुए। केवल सशिष्य दूरंगतनाथजी ही अपने शरीर में स्वास्थ्य तथा विशेष बल प्राप्त करने के उद्देश्य से कुछ दिन वहाँ विराजमान रहे। आपने इसी जगह गुरु परमात्मा को प्राप्त किया था। तात्कालिक समस्त वृत्तान्त अपने प्रिय शिष्य को सुनाते रहे। इसी प्रकार सानन्द वार्तालाप से चारमास व्यतीत हो गये। समाधि हेतु से आपके शरीर में जो कुछ निर्बलता प्राप्त हो गई थी उसका पूर्ण रीति से निवारण हो बलाधिक्य की स्थापना हुई। यह देख आप वहाँ से प्रस्थानित हुए कच्छ देश की ओर अग्रसर हुए। अपनी तपश्चर्यानुकूल स्थानों का निरीक्षण करते-करते आप मार्गागत एक पहाड़ के ऊपर चढ़े। दैवगत्या आपके ऊपर चढ़ते ही अकस्मात् यह पाषाण संचय कम्पायमान हो गया। मानों अपराधी दूरंगतनाथजी को अपने ऊपर चढ़े हुए देख घृणा के सहित उनके निवास को अस्वीकृत कर रहा है। यह देख उन्होंने भी उसका यही अर्थ लगाया। अतएव वे सहसा अये ! ’ कुष्ठी हमारे निवास के लिये तू इतना घृणित है, यह कहते हुए नीचे उतर आये। और एक दूसरे ’ पहाड़ पर जाकर विश्रामित हुए। यह स्थान उनके रूचिकर होने पर भी पूर्वोक्त की तरह इसने कोई अशुभ लक्षण प्रकट नहीं किया। ठीक इसी जगह श्रीनाथजी की आज्ञा पालन करने के लिये आप उनके निर्देशानुसार क्रामिक प्रायश्चितात्मक तपश्चर्या में तत्पर हुए। अर्थात् आपने बारह वर्ष तक एक पदाधार से खड़े हो वृक्षासन से तप किया। बारह वर्ष तक भूमि पर सीधी तरह सोकर मृतकानुकारी शवासन से तप किया। बारह वर्ष तक पैर ऊपर तथा मस्तक भूमि पर धारण कर विपरीत मुद्रा से तप किया। यद्यपि श्रीनाथजी की आज्ञा इस आसन के विषय में साधारणतया स्थित रहने की थी। तथापि आपने आचार्यजी की आज्ञा को और भी अधिक परिपक्व बनाने के लिये सुपारी पर मस्तक आरोपित कर अपनी असाधारण अनुलोमता का परिचय दिया। जिससे आपकी दिनचर्या महाकठिन दशा में परिणत हुई। और संचित अपराध उससे पराजित हो आपके शरीर से निर्वासित हुआ। यही नहीं बल्कि आपके शरीर में इतना अधिक तेज बढ़ गया मानों साक्षात् चतुर्भुजी भगवान् आकर प्रविष्ट हो गये हों। यही कारण था जिस दिन आपके दण्ड की अवधि पूरी हुई उस दिन आपने अपने शिष्य से कहा मैं किस ओर नेत्र खोलूं। जिस ओर की तू सम्मति प्रकट करेगा उसी ओर खोलूंगा। पाठक ! आज वह दिन है आपकी तपश्चर्या समाप्ति के उपलक्ष्य में अनेक राजा महाराजा लोग आकर एकत्रित हो गये थे। जो कुछ दूरी पर स्थित हो आभ्यन्तरिक भाव से आपको असंख्य धन्यवाद देते हुए हस्तों में विविधोपायन सामग्री धारण कर आपके महापुण्योपलब्ध पवित्र दर्शन करने के लिये लालायित हो रहे थे। अतएव उन लोगों को त्रैकौणिक पंक्तिबद्ध हुए देख शिष्य महानुभाव ने प्रार्थना की स्वामिन् ! वासपाश्र्व में वर्तमान वमुद्र की ओर कृपा दृष्टि कीजिये। यह सुन उन्होंने वैसा ही किया। उनकी नेत्र ज्योतिःसहसा बहिर भूत हो प्रलयास्त्र के रूप में परिणत हुई। यद्यपि पुनः अनर्थोत्पत्ति के भय से आपने उसके शमनार्थ किसी अन्य उपाय का प्रयोग भी किया था तथापि उसने शान्त होते-होते समुद्र को तिरस्कृत किया। जिसके अत्यन्त सन्तप्तस्पर्श को न सहता हुआ रत्नाकर महानुभाव कई क्रोश पीछे हट गया। पाठक ! देखिये योगी महानुभावों का कैसा विचित्र चरित्र है। ये पद-पद और बात-बात पर उसी कृत्य का अवलम्बन करते हैं जिससे योग का महत्त्स प्रकट होने पर भी लोगोें का चित्त इधर आकर्षित होे। आखिर हुआ भी यही कई एक महाभागों ने अपने चित्त में दृढ़ निश्चय कर लिया कि पूजा समर्पणा के बाद हम इस बात से नाथजी को सूचित करेंगे। यदि इन्होंने स्वीकृत किया तो आज से ही हमको गृहीत व्यवहार से मुक्त हुआ समझना चाहिये। (अस्तु) दूरंगतनाथजी ने अपनी दृष्टि का संहार कर शिष्य की ओर इशारा किया। उसने शीघ्रता के साथ समीपस्थ राज संघ को अग्रसर होने की सूचना दी। वे लोग आगे बढ़े और स्वहस्त गृहीत नाना प्रकार की अर्चना सामग्री समर्पण करते हुए आपका मंगलप्रद आशीर्वाद ग्रहण करने लगे। इस स्थल के लिये यह दिन बड़ा ही अपूर्व एवं सौभाग्य का था। राजा लोगों ने आपका असाधारण सत्कार कर वह अवसर उपस्थित किया जो राज्याभिषेक के समय भी होना दुर्घट है। अन्ततः पूजा समर्पणा के साथ-साथ पूर्वोक्त वैरागी महानुभावों को आपके समर्पित कर नृप समूह अपने-अपने स्थान पर गया। इधर आप उपलब्ध शिष्यों को योग का तत्त्व समझाने में दत्तचित्त हुए।
इति श्री दूरंगतनाथ समाधि वर्णन