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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Saturday, June 8, 2013

श्री ज्वालेन्द्रनाथ भ्रमण वर्णन

पाठक महोदय ! आपको विज्ञापित किया जा चुका है कि ज्वालेन्द्रनाथजी युधिष्ठिर सम्वत् 2118 से लेकर 2639 ’ तक की सामाधिक ब्रह्मयपावस्था का अनुभव कर स्वकीय उद्देशित कार्य भार को शिर पर आरोपित करने के लिये लब्ध संज्ञा हो चुके हैं। जिन्होंने निरंजननाथ और करणारिनाथ को प्रेषित कर हिंगलाज पर्वत से प्रस्थान किया और कुछ सामयिक अनवरत गमन करने के अनन्तर कई सौ कोश पारिमाणिक मारूस्थलीय देश को पार कर आप श्रीकपित (आधुनिक काल प्रसिद्ध कलात) तीर्थ पर पहुँचे। यहाँ आगमिष्यमाण असंख्य जनसमुदाय के औद्देशिक पर्बावसर में कुछ ही काल का विलम्ब देख आपने अपना आसन स्थिर किया। इधर से आपके ही अभिप्रायाभिमुख हुए क्रमशः अन्य कई एक योगी भी वहाँ पर उपस्थित हो आपके मण्डलीश्वर शब्द से वाच्य होने में विशेष उपयोगी बनने लगे। इस प्रकार कुछ ही दिनों में योगियों की एक खासी मण्डली तैयार हो गई। जिसका विविध प्राकरणिक वर्तालाप द्वारा सानन्द समय व्यतीत होने लगा। एक दिन एक योगी ने हस्त सम्मिलित कर सुकोमलवाक् प्रार्थनापूर्वक श्री ज्वालेन्द्रनाथजी को विज्ञापित किया कि भगवन् ! मुझे प्रतीत होता है सम्भवतः इस अवसर पर अब के बहुत न्यून संख्यक मनुष्य एकत्रित होंगे। कारण कि यह तो आप स्वयं ही अनुभव कर चुके हैं कि मारुस्थलीय स्थल का मार्ग तय करना मनुष्यों के लिये सुसाध्य नहीं है। इतना होने पर भी अब के अनुकूल वर्षा के अभाव से जब प्रत्येक मार्ग में जलीय प्राप्ति दुष्कर है तब अपने प्राणों को सन्देह में डालकर कौन मनुष्य ऐसा है जो दूर देश से प्रस्थान कर स्नान के लिये यहाँ आयेगा। यह सुन ज्वालेन्द्रनाथजी ने अनुस्मरण कर अपने आभ्यन्तरिक विचार से निश्चय किया कि अवश्य बात ऐसी ही होने वाली है। परन्तु उसके अभिमत को स्फुट करने के अभिप्राय से पूछ उठे कि तो इस विषय मंे किस उपाय का अवलम्बन करना चाहिये। जिससे उक्त समस्या हल हो और हमारे आगमन के मस्तक पर व्यर्थत्व का तिलक न चढ़ सके। उसने कहा कि भगवन् ! जलाभाव की समस्या जल ही से हल हो सकती है यह आपसे अविदित नहीं। अतएव आप कृपालुत्व को आश्रित कर उसी उपाय को अवलम्बित करें जिससे कोटिसंख्यक प्राणियों की प्राण रक्षा हो और आपके शुभागमनोद्देश की सुसफलता का साम्राज्य  उपस्थित हो।  तदनु  ठीक  इसी  महानुभाव  के कथनानुकूल दयालु श्री ज्वालेन्द्रनाथजी स्वीय गुरु श्रीआदिनाथजी के महान् प्रसाद द्वारा प्राप्त किये हुए अमोघ वार्षिक अस्त्र को प्रयोगित किया। जिसके प्रभाव से सर्वत्र अनुकूल वर्षा का साम्राज्य विराजित हुआ। फिर क्या था जो त्रुटि थी वह यही थी जिसका ज्वालेन्द्रनाथजी के द्वारा निस्सरण हुआ। इसीलिये मार्गागत अनेक स्थानों में पर्याप्त जल का सम्भव होने से अनल्प मनुष्य प्रोत्साहित हुए इधर दौड़ पड़े। जिससे स्नानिक दिवस के आने तक क्षेत्र पर बड़े समारोह के साथ अमित जन समुदाय संगठित हो गया और उसमें कर्ण परम्परा से ज्वालेन्द्रनाथजी के द्वारा होने वाले वर्षा विषयक वृत्तान्त का संचार शीघ्र ही संचरित हुआ। यही कारण था पारस्परिक प्रष्टव्य से आपके आसन स्थल का अवगन कर सहस्रों मनुष्य आपके दर्शन करने आते और विविध उपायन समर्पण द्वारा अपनी श्रद्धा भक्ति की पराकाष्ठा दिखलाते थे और ज्वालेन्द्रनाथजी के अमोघ आशीर्वादपूर्वक सान्तोषिक आश्वासन से लब्धानन्द हुए अपूर्व अवसर को सूचित करते थे। क्योंकि ज्वालेन्द्रनाथजी के हिंगलाज पर्वतीय गुप्त स्थान में चिरकाल तक स्थिति रखने से आधुनिक लोगों ने उनका नाम, और पूर्वकाल में होना, तो अवश्य सुना था परं दर्शन नहीं किये थे। अतः प्रथम तो लोगांे के लिये यही बड़ा कुतूहल था कि भूतपूर्व महात्मा ज्वालेन्द्रनाथजी अब प्रकटित हुए। द्वितीय वर्षा द्वारा अपने ऊपर उनकी परम हितैषिता का अनुमान कर जब लोग सम्मुख हो अपनी नम्र प्रणति से उन्हें सत्कृत करते थे तब उनके निर्मल जलस्थलीय विमल कमलोपम नेत्रांे के अवलोकन से गार्हस्थ्य विविध दुःखद वासनाओं से विरहित हुए लोगों के हृदयहद में उस अलौकिक प्रसन्नता का स्रोत प्रवाहित होता था जिसमें विलीन हो लोगों ने, हम इस समय कहाँ हैं, इत्यादि स्मरण तक को विस्मृत कर दिया था और जब वे कुछ प्रबोधित होते थे तब ईश्वर से यही प्रार्थना करते थे कि भगवन् ! हमको इस अलब्धपूर्वासरिक आनन्दात्मकनन्दन आराम से वियोगित न कीजिये। (अस्तु) इधर जब द्रष्टा यात्री लोगों का यह हाल था उधर तब ज्वालेन्द्रनाथजी ने भी अपने औद्देशिक कार्योचित इसी अवसर को निश्चित किया, अतएव आपने स्फुट रीति से घोषित कर यह कहना आरम्भ किया कि सेवकवृन्द ! सम्भव है आपके अन्तर्गत कई एक ऐसे भी मनुष्य होंगे जो मेरे विषय में सन्दिग्ध होंगे। एवं इस अनुमान से अनुमित हुए होंगे कि श्रुत भूतपूर्व ज्वालेन्द्रनाथ नहीं किन्तु उसका नाम राशी अन्य आधुनिक योगी है। अथवा अन्य आधुनिक योगी ने अपने आपको ज्वालेन्द्रनाथ नाम से घोषित कर दिया है। अन्यथा वास्तविक ज्वालेन्द्रनाथ अब कहाँ से आता। स्मरण रखो ! मेने भी उनके हृदय की इस हलचल को अच्छी तरह समझकर ही प्रमथ अनुपयोगी यह प्रस्ताव उद्घोषित किया है। इस विषय में यद्यपि मुझे इस बात की कोई आवश्यकता नहीं कि तुम्हें विशेष प्रमाण दिखला कर, मैं वही ज्वालेन्द्रनाथ हूँ, ऐसा निश्चय उपस्थित कर दूँ। परं इतना, जो कि यथार्थ है, अवश्य कहूँगा कि मैं अद्यावधि तक सर्व साधारण के परोक्ष इस हेतु से था कि आधुनिक समय तक मैंने अपने आपकी अनपेक्षा समझ कर सामाधिक अवस्था में प्रवेश किया था। इसी ब्रह्मरूपता उपस्थितकत्र्री अवस्था में गोरक्षनाथजी और मेरा शिष्य कारिणपानाथ भी अभी तक स्थित हैं। जो कुछ वर्ष में दोनों जागरित होने वाले हैं। परन्तु उनकी प्रकटता को देखकर मेरी उक्ति को सत्य समझने के लिये तुम लोगों में से उस समय तक शायद ही कोई वंचित रहेगा। नहीं तो तुम सभी लोक इस सांसारिक चक्र में, जो कि अनादि काल से प्रवाहित हुआ चला आ रहा है, विलीन हो द्वितीय जन्मस्थ चरित्रों के नायक बन जाओगे। क्योंकि इस युग में साधारण रीति से मनुष्य सौ वर्षीय आयु वाला समझा जाता है। परं सौ वर्ष सजीव रहना तो केवल आश्चर्योत्पादक है। मनुष्य इससे भी बहुत न्यून अवस्था में जलोद्भूत वुदवुदे की सदृश कुछ ही काल प्रत्यक्ष स्थिति रख फिर जल की तरह शीघ्र ही प्रकृति में विलीन हो जाता है। इसी संगमन और उद्मनात्मक दो प्रस्तरों की चक्की मंे प्राणियों को दलित होते देखकर ही तो हम लोगों ने सांसारिक दुःखद व्यवहार को तिलांजलि दे डाली है और दीर्घ काल से इस चक्की के दलनानुकूल न होते हुए भी सदा के लिये इससे छुटकारा पाने का यत्न कर रहे हैं। अतएव अपने भाग्य को परिवर्तित करने की इच्छा वाला कोई महानुभाव ऐसा हो जो अपने आपको इस चिर प्रचलित चक्की में नहीं पीसना चाहता हो। और इसी बात को लक्ष्य बनाकर उसे असार प्रधान संसार से घृणा प्राप्त हो गई हो। वह सुवृत्त हमारे आश्रित हो उस उपदेशात्मक अमृत का पात्र बने जिसके ग्रहण करने से उस स्थान में पहुँचेगा जिसमें इस चक्की की कुछ भी दाल नहीं गल सकती है। यह सुन इसी अवसर में यात्रिवृन्दस्थ किसी सभ्य पुरुष ने कहा कि भगवन् ! आपके वचन निन्देह अमृतायमान हैं परं बलिहारी उस परमात्मा की जिसने पुत्र कलत्रादि का स्नेह इतना रसिक बनाया है जिसका आस्वादन लेते हुए हम लोगों को अमृतप्राय भी आपके उपदेश में कटुता प्रतीत होती है। यद्यपि यह बात भी हम अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसा प्रतीत होना हमारे मन्दभाग्यत्व का सूचक है और जिस किसी उपाय से इस स्नेहजाल को भंगित कर आपकी शरण में आ डटें तो फिर हमारा यह कटुपन न जाने कहाँ चला जाय। तथापि जटिल रूप से ग्रथित यह जाल खण्डशः करना ही तो दुष्कर है। अतः कोई ऐसा उपाय हो जिसके अभ्यास से जायमान वैराग्य की उत्तरोत्तर प्रवृद्ध मात्राओं के द्वारा हम स्नेहात्मक पाश से विमुक्त होने का सुभीता प्राप्त कर सकें। इसके उत्तर में ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि तुम्हारा ऐसे उपाय पूछने में प्रायास करना व्यर्थ है। क्योंकि संसार में जितनी दृष्ट वस्तु दुःखप्रदान करने वाली हैं सभी वैराग्य की उत्पादक हैं। इस पर भी यदि यह कहो कि सांसारिक दृष्ट वस्तु कितनीक तो दुःख और कितनीक सुख देने वाली हैं। अतः दुःखद वस्तु से जिस समय वैराग्य होगा सुखद वस्तु से उस समय उतना ही आनन्द उत्पन्न हो वैराग्य को तिरस्कृत कर डालेगा। फिर किस प्रकार हम वैराग्यवान् हों और स्नेह पाश से विमुक्ति पावें। तो मैं तुमसे यह पूछना चाहता हूँ कि प्रथम यह बतलाओ निवृत्ति साधक कृत्य के अतिरिक्त सांसारिक किस वस्तु को तुम सौख्यप्रद समझते हो। क्या जिसमें अपने प्राणों की तुल्य प्रेम करते हो और जिसके अभाव में सांसारिक भोगविलास को निष्फल मानते हो ऐसा पुत्र सुख देने वाली वस्तु है। अथवा क्या जिन्होंने तुम्हारा लालन-पालन अये सुसमाचार यात्रिवृन्द! कुछ क्षण अन्तर्मुख होकर तू यह विचार कर कि जिस प्रकार तेरे पुत्र उत्पन्न हुए हैं। जिनके वक्त्र चुम्बनादि विविध क्रीडाओं से जायमान आनन्दात्मक माहाहद में निमग्न हुआ तू अपने आपको धन्य समझता है। इसी प्रकार तू भी कुछ दिन पहले अपने पिता के उत्पन्न हुआ था। उसने और माता ने तेरे साथ भी ऐसा ही प्रेम किया था जैसा कि तू अब कर रहा है। परं कहिये तेरे वे माता-पिता कहाँ है और कितनेक दिन तुझे सुख देने वाले बनें। किन्तु प्रकृति देवी के अविश्रामी परिणाम में परिणमित होते हुए ऐसे छिप गये जिनका तेरे लिये फिर तादृश दर्शन होना असम्भव है। ठीक यही दशा तेरी भी होगी। कुछ दिन जानें दीजिये अपने प्रिय पुत्रों की अपेक्षा तू भी स्वकीय माता-पिता की पद्धति में पदार्पण करेगा। बस यही और इतने ही समय तक का कल्पित आनन्द है जिसको तू वास्तविक और चिरस्थायी समझ रहा है। क्या कोई विवेकी पुरुष तेरा यह मन्तव्य वास्तविक है ऐसा समाधान करने के लिये अग्रसर होगा, कभी नहीं। वह तो प्रत्युत यही कहने को उत्सुक होगा कि सांसारिक आनन्द को, जो कि परिणामी है, सदातन अथवा चिरन्तन मान बैठना अपनी महा मूर्खता का परिचय देना है। अतएव मुमुक्षु महानुभावों को उचित है कि इन भौतिक पदार्थों में अनास्था का निश्चय कर हमारे कथन में श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न करें। क्यांे कि वे यह तो अच्छी तरह समझते ही होंगे कि हम लोग जो इस प्रकार के उपलक्ष्यों पर उपस्थित होते हैं और जनसमूह के समक्ष अपना उपरोक्तादि विषय का कोई न कोई वक्तव्य उद्घोषित करते हैं वह किसी अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिये नहीं बल्कि मुमुक्षुओं को अपनी ओर आकर्षित कर निष्कण्टक मार्ग पर चलाने के लिये। अतः मोक्ष की इच्छा वालों के वास्ते यह अवसर अनुकूल है। इस अवसर से भ्रंशित हुओं को कुछ अग्रिम काल में आशाबद्ध नहीं होना चाहिये। कारण कि कोई भी वस्तु सदा एकरस नहीं रहती है। इसलिये मोक्षदायक योगोपदेश का प्रवाह न जाने किस दिन शान्त हो जाय। जिसके फिर आविष्कारक समय का शीघ्र आगमन हो वा नहीं। क्या योगिराज कृष्णजी की उक्ति, जो कि उन्होंने अर्जुन के प्रति कही थी, तुम्हें याद नहीं कि यह योग प्रचार कितनी बार अन्तर्भूत और कितनी बार प्रादुर्भूत हो चुका है। ठीक आज वही समय है जिसमें देश-देश और प्रान्त-प्रान्त में योगोपदेश का साम्राज्य स्थित है इसी हेतु से सांसारिक विविध विपदात्मक अनल से सन्तप्तसर्वगात्र महानुभावों को उचित है वे शान्तिप्रद योगोपदेशात्मक शीतल जल से सम्पूरित किसी योगी रूप सरोवर का आश्रय लें। और अपने दंदह्यमान शरीर की प्रचण्ड ज्वाला का उपशमन कर वास्तविक सुखागार में प्रविष्ट हो जायें। ज्वालेन्द्रनाथजी की इस जनोपकारिणी चेतावनी ने कतिपय लोगों को उपरामी बना दिया। जो मेला सामप्त होने तक आगे पीछे के क्रमानुसार उनकी कृपा छाया में आकर विश्रामित हुए। यह देख ज्वालेन्द्रनाथजी ने उनको और उनके माता-पिता को धन्यवाद दे उनका हर्ष बढ़ाया और उनमें से स्वानुकूल दश मनुष्यों को साथ लेकर वहाँ से प्रस्थान किया। जो देशाटन करते हुए आप कतिपय दिन के अनन्तर बदरिकाश्रम में पहुँचे। एवं मुमुक्षु महानुभावों को अपने चिन्ह से चिन्हित बनाकर प्राथमिक क्रियाओं में प्रोत्साहित किया। इसी क्रम से जब तक प्रिय शिष्य गम्यस्थान के तथा मार्ग पर पहुँचे तब तक वहाँ उपस्थित रहकर अन्त में उनके सहित बदरिकाश्रम से भी गमन किया। और अनेक वर्षों तक भारतीय प्रत्येक प्रान्तों में भ्रमण कर मध्य देशस्थ अमरकण्टक पर्वत पर पदार्पण किया। ठीक इसी स्थान में कुछ दिन निवसित हो आपने अपने शिष्यों की सम्भवित क्रियात्रुटिकी गवेषणा की। एवं उसको यदि सम्भवित हुई तो निस्सारित कर शिष्यों से कहा कि अये हृद्यो ! तुम्हें मालूम है मैंने आज तुमको किस मार्ग पर ला छोड़ा है। यह वही मार्ग है जो सीधा उसी स्थान में पहुँचायेगा जिसमें चक्की का अभाव बतलाते हुए मैंने कलात तीर्थ पर उसकी प्रशंसा की थी। अतएव मैं तुमको सूचित करता हूँ तुम लोग, अब तो वह स्थान समीप रहा है शनैः-शनैः पहुँच ही जायेंगे ऐसी उपेक्षा प्रकटित कर शिथिल प्रयत्न नहीं हो जाना। प्रत्युत सदा सांसारिक विलक्षण भोग्य पदार्थों की ओर से वैराग्यवान् हुए नैरन्तर्य सामाधिक अभ्यास से अपने आप को चिरंजीवी बना डाला और अन्तिम परीक्षा में, जो कि मोक्ष स्थान तक पहुँचने में एकाकिनी प्रतिबन्धिका है, उत्तीर्ण हो जाना। तभी मैं समझूंगा कि मेरे शिष्यों ने मेरे द्वारा घोषित होने वाली सूचना का अनुक्षण स्मरण कर मेरे उपदेश को सार्थक किया है। यह सुन नम्र प्रणतिपूर्वक आपके एक शिष्य ने प्राश्निक बन कर प्रार्थना करी कि स्वामिन् ! क्षमा कीजिये मैं अपने बुद्धि मन्दत्व के कारण से आपके परीक्षात्मक कथन का भाव नहीं समझा हूँ। अतः कृपया स्फुट कर बतलाइये जिसमें हमारी अब भी उत्तीर्ण होने की आवश्यकता है ऐसी कौन सी परीक्षा, और वह अन्तिम कैसे है। इसके उत्तर में ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि ध्यान रखो ! तुम लोग अब उस पद पर पहुँचे हो जो इच्छा मात्र से सांसारिक उत्तम से उत्तम अर्थात् स्वर्गोपम वस्तु को प्राप्त कर सकते हो। यदि इन उपलब्ध दुष्त्याज्य वस्तुओं के आस्वादन से तुम लोग वंचित रहे तो अपने विषय में समझ लेना कि हम अन्तिम परीक्षा में पास हो गये। क्यों कि अप्राप्त वस्तु में वैराग्य रखने वाले संसार में बहुत मनुष्य देखे जाते हैं। परं वस्तूपस्थिति में बैरागी हो उसके आस्वादन से निसंग रहने वाला ही मनुष्य और वीर कहलाता है। रही अन्तिम की बात, यह परीक्षा अन्तिम इसलिये है कि प्रथम गृह त्यागने के समय दृढ़ वैराग्य की परीक्षा होती है। उसके अनन्तर योग क्रिया काठिन्य में सहिष्णुता की परीक्षा होती है। तदनु उन क्रियाओं में सम्यक् निपुणता प्राप्त करने की परीक्षा होती है। इन तीन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाला योगेन्द्र उपाधिधारी महानुभाव जब सिद्धियों का भण्डार हो जाता है तब वह मोक्ष का अधिकारी हुआ उस मार्ग पर पदार्पण करता है जो कि उसको मोक्ष स्थान में प्रविष्ट करता है यदि सिद्ध मनोरथ हेतु से उपस्थित हुए नाना प्रकार के भोग्य पदार्थों में लम्पट न हो तो। अतएव मोक्षपथारोही सज्जनों के लिये इन चित्ताकर्षक भोग्य पदार्थों से निसंग रहनात्मक अन्तिम परीक्षा है। मैंने इसी परीक्षा में सफल होने के लिये तुम्हें प्रबोधित किया है। परन्तु ध्यान रखना समस्या बहुत कठीन है। मोक्ष स्थान के समीप होने पर भी जो मार्ग अवशिष्ट है वह अत्यन्त दुरुल्लंघनीय है। जिसको स्वर्ग शब्द से व्यवहृत किया जाता है वह लोक ऐसे ही लोगों का निवास स्थान है जो इस अन्तिम परीक्षा में फैल होते हैं और अपनी सिद्धियों के प्रभाव से स्वर्गीय विविध भोगों को परिमित समय तक भोग कर फिर इसी लोक के यात्री बनते हैं। अतएव गम्यस्थान में पहुँचने पर्यन्त उत्साह और वैराग्य दोनों की अत्यन्त आवश्यकता है। बस हमारी, कर्तव्य पालन कर चुकने पर भी, तुम से अन्तिम यही कहना था अब हम किसी अन्य प्रयोजन की सिद्धि के लिये तुमसे वियोगी होते हैं। तुम लोग इसी अमरकण्टक पर्वत में, जो कि नर्मदा का प्रभवस्थान होने से पवित्र माना गया है पारस्परिक शरीर रक्षा से रक्षित होकर सामाधिक अवस्था में परिणत हुए अपने गम्यस्थान को समीप बनाने का परिश्रम करते रहना। भगवान आदिनाथ तुम्हें उत्साह और वैराग्य दोनों से युक्त करे। जिससे तुम इस कार्य में कृतार्थ हो जाओ। परम हितैषी गुरुजी की इस प्रैतिक आशीर्वादात्मक वाणी को सुनकर शिष्य समुदाय आपके चरणारविन्द में पौनःपुनिक प्रणाम करता हुआ कृतज्ञता प्रकट करने लगा। तथा कहने लगा कि स्वामिन् ! आप धन्य हैं हमारे जैसे अनेक युगों से असंख्य दुःसह्य कष्टों द्वारा तिरस्कृत प्राणियों का उद्धार करने के लिये ही संसार में भ्रमण करते हैं। अतएव हम लोग आपके इस उपकार को और विशेष करके इस अन्तिम सूचना को कभी अपने हृदय से बहिर नहीं होने देंगे। इस कारण से आपको चाहिये कि आप अपने कार्य में सन्निहित चित्त हुए कभी हमारी तरफ का सन्देह न करें। ठीक इसी समय शिष्यों के योग्य कथन से समाधानित चित्त हुए ज्वालेन्द्रनाथजी ने अमर कष्टक से प्रस्थान किया और नर्मदा ’ समीपवर्ती प्रदेशों में भ्रमण करते हुए आप कुछ समय में राजधानी हेलापाटन में पहुँचे। युधिष्ठिर सम्वत् 2640 में हिंगलाज से गमन करने के अनन्तर युधिष्ठिर सम्वत् 2915 पर्यन्त के आपके इस दीर्घ पर्यटन ने आपको श्रमित प्रतीक्षात्मक हेतु से कुछ काल तक यहाँ निवास करना निश्चित कर अपना आसन स्थिर किया और कुछ वर्ष साधारण रीति से व्यतीत करने पर ज्यों ही आपके कार्य साधक समय का आगमन समीप आने लगा त्यों ही आपने किसी विशेष घटना का उद्गार करने का विचार निश्चित किया। क्यों कि नागरिक भिक्षान्न से उदरपूर्ति कर केवल काल यापन के लिये ही यहाँ नहीं बैठे थे। अतएव आपने एक अनूँठी वृत्ति का आश्रय लिया। वह यह थी कि आपका आसन नगर से एक कोश की दूरी पर था। जब वहाँ से चलकर आप भिक्षा के लिये नगर में आते तब एक भार, जो कि हरित तृण का होता था और वाजास्थ नागरिक गौ जिसे बड़े चाव से खाती थी, अपने शिर पर आरोपित कर नगर में लाते थे। तथा गौर और गवेन्द्रा को खिला देते थे। प्रतिदिन के इस नियमित कृत्य में तत्पर हुए आपका सब नागरिक लोग दर्शन करते रहते हुए भी इस भेद को नहीं जान सके थे कि यह महात्मा ज्वालेन्द्रनाथजी ही हैं। किन्तु आपकी वृत्ति का निरीक्षण करते हुए यह कहकर कि कोई गो प्रेमी मरत योगी है, अपने सन्देह का समाधान आप ही कर लेते थे। परन्तु उन लोगों का यह साधारण मन्तव्य बहुत दिन नहीं रहा। कुछ ही दिन के अनन्तर वह मस्त योगी उनके विस्मय का उत्पादक हुआ। कारण कि जब तृणभार लेकर आप नगर में प्रवेश करते थे तब वह भार आपके शिर से कितना ही ऊँचे दिखलाई देता था। यह देख प्रत्येक दृष्टा नागरिक लोगों का हृदयात्मक सरोवर महान् कुतूहल और आश्चर्यात्मक जल तरंगों से तरंगित हुआ। इसी कारण से कर्ण प्रणालिका द्वारा परिणत हुआ यह वृत्त नगर में ही नहीं प्रत्युत नगरासन्न वर्ती ग्रामों मंे भी प्रसृत हो गया। यही कारण था जब कि आपका भिक्षार्थ नगर में आगमन अवसर उपस्थित होता था तब उक्त कौतुक दर्शनार्थ सहस्त्रों नरनारी मार्गिक स्थान मंे संघित हो आपकी  प्रतिज्ञा  करते थे और जब आप नगर में आगमन कर गौआंे को घास खिलाने से तिवृत्त हो जाते थे तब आप में समारोह के साथ अपने स्थान पर ले जाकर स्वकीय सामथ्र्यानुकूल भोजन से सत्कृत करते थे। ठीक इसी प्रकार से कुछ दिनों का अतिक्रमण होने पर आपके जन विस्मापक वृत्तान्त ने नगर नृपति के हृदयागार मंे भी संक्रमण किया। जिसकी प्रबल प्रेरणा से प्रेण्य हुए राजा को भी आपके दर्शनार्थ अग्रसर होना पड़ा। राजा ने प्रस्थान किया, उधर राजकीय कर्मचारियों ने अनुकूल स्थान पर उसके तद्दृश्य दर्शनार्थ बैठने का प्रबन्ध किया। राजा साहिब बैठ गये। इधर कुछ क्षण बीतने पर नियत समय पर पूज्यपाद जी का भी अभ्यागमन हुआ परन्तु आपने इतने ही चमत्कार से अभी अपने खेल की समाप्ति नहीं की थी। किन्तु और भी विचित्र चरित्र दिखलाकर अभी लोगांे के विस्मयी हृदय को प्रविस्मयी बनाने का विचार निश्चित कर रखा था। अतएव आपने आज प्रत्याहिक घटना उपस्थित नहीं की। यह देख जो लोग आज तक उक्त कुतूहल को स्वयं न देखकर प्रतिवेशियों के वाक्प्रपंच द्वारा श्रवण करते थे उन लोगों के नेत्र निराश हो ईर्षा के सहित श्रावकों की ओर इस प्रकार निहारने लगे मानों उनको असत्य भाषी प्रमाणित कर धिक्कार दे रहे हैं। यही नहीं नेत्रों ने व्यर्थ परिश्रम हो यहाँ तक क्रोध किया कि स्व प्रयोगित अशाब्दिक धिक्कार को शब्द रूप में परिणत करने की अभिलाषा से अधस्तात् मुख के ऊपर दबाव डाला। जिससे विवश हो मुख उस शब्द के उद्घोषित करने को बाध्य हुआ। यह सुन कुतूहल दृष्टा प्रवादक लोगों ने भी अपने कथन का समाधान करना आरम्भ किया। और उसकी पुष्टी के लिये अनेक शब्दों का प्रयोग करने के अनन्तर अन्य सम्भवित प्रमाण उपस्थित किये। इतना होने पर भी वे उनके हृदय में इस बात की सत्यता का बीज बपन नहीं कर सकते और इसी विषय का खण्डन मण्डन करते हुए सब लोग अपने-अपने स्थान में गये। ठीक यही समाचार राजा का भी था। वह केवल ज्वालेन्द्रनाथजी के दर्शन करने के अनन्तर जब अनने प्रासाद में गया तब प्रसंगवश से उन पाश्र्ववर्ती राजकर्मचारियों की, जो स्वयं देखकर ही उस घटना विषय में ज्वालेन्द्रनाथजी की राजा के सम्मुख प्रशंसा किया करते थे, हंसी उड़ाने लगा। इतना ही नहीं यहाँ तक कि उस कुतूहल के सदृश उसने यही कुतूहल बना डाला कि जब कोई प्रसंग उपस्थित होता था तब वह कहता था कि अमुक कार्य इनके अधिकार में छोड़ दिया जाय, क्यों कि ये कभी झूठ नहीं बोलते हैं बड़ी कुशलता के साथ उसे निर्वाहित करेंगे। यह सुन अन्य कर्मचारी खूब ताड़ी बजाकर हास्य करते थे। जिससे उन महानुभावों को कुछ लज्जित से होकर नीचे ग्रीवा करनी पड़ती थी। अन्ततः जब इस हास्यात्मक तिरस्कार ने अन्तिम दशा में प्रवेश किया जिससे कि उनका नासिका में दम आ गया तब उन्होंने किसी गुप्त स्थान में एकत्रित होकर इस तिरस्कार से मुक्त होने का परामर्श किया और स्थिर किया कि किसी प्रकार एक बार योगी को प्रसन्न कर फिर वैसा करने के लिये उनसे प्रार्थना की जाय। जिससे राजा को निश्चय हो और हम लोग इस प्रतिदिन की तिरस्कृति से विमुक्त हो जायंे। सम्भव है ऐसा करने से हम अवश्य कृतकार्य हो जायेंगे। क्यों कि योगी लोगों का हृदय स्थान दया से सम्पूरित होता है इसीलिये वे थोड़ी ही अभ्यर्थना से प्रसन्न हो प्रार्थक का मनोरथ सफल कर डालते हैं। इत्यादि मनोविनोद के अनन्तर उनमें से एक मनुष्य, जो कि ज्वालेन्द्रनाथजी के शरणागत हो निर्णीत विषय की प्रार्थना करे, निश्चित किया गया। तदनु सूर्य अस्त हुआ रात्री आई, अन्धकार का साम्राज्य उपस्थित हुआ। जिसके प्रबल प्रताप से तिरस्कृत हो दूरगामिनी दृष्टि को संकुचित होना पड़ा। ठीक इसी अनुकूलता को प्राप्त हो प्रार्थक महानुभाव भी ज्वालेन्द्रनाथजी के चरणारविन्द में दत्तश्रुति हुआ उधर चला। जो कुछ देर में अभ्यागत हो आपके पादयुगल की सेवा में तत्पर हुआ। यह देख ज्वालेन्द्रनाथजी ने उसका परिचय और उसके आगमन का कारण पूछा, उसने अपने समस्त वृत्तान्त से आपको परिचित करते हुए कारण बतलाया। जो कि चमत्कार की असत्यता का अधिकार ले राजा के द्वारा अपने ऊपर होने वाले हास्य विषय का था। साथ ही यह भी कह सुनाया कि मैं आपके चरण युगल को आश्रित कर अपना प्राण विसर्जित कर दूँगा परं जब तक इस विषय में आप मुझे कुछ सहायता न देंगे तब तक वापिस लौटकर मै। उस तिरस्कार का भाजन नहीं बनूँगा। उसकी इस प्रतिज्ञा से प्रसन्न हुए ज्वालेन्द्रनाथजी ने मन्दहास्य कर कहा कि नहीं-नहीं इतना अधीर होने की तुझे कोई आवश्यकता नहीं। राजा जो हंसी उड़ाता है वह मेरी है न कि तुम्हारी, कारण कि तुमने जो उसके सामने कहा है वह तो निःसन्देह यथार्थ ही है। जिसके लिये तुम वास्तविकता से कुछ भी दोष के भागी नहीं हो सकते हो। परन्तु राजा के हृदय में जो बात स्थिर हुई है वह यह है। उसने सोचा है कि यह योगी ऐसे चरित्रों का भण्डार नहीं है अतः उसके इस मन्तन्य से मेरी ही अप्रतिष्टा सूचित होती है। कहिये इसमें तुम्हारी लज्जित होने की क्या संगति है। प्रार्थक ने चतुरता के साथ आपका महत्त्व सूचित करने वाले सुकोमल शब्दों को प्रयोगित करते हुए कहा कि भगवन् ! मैं जो जो कुछ समाचार आपको समझाना चाहता हूँ वह मेरी अज्ञानता एवं द्विरावृत्ति समझना चाहिये। क्यों कि जो कुछ हास्य हुआ वा न हुआ। अथवा हमारा हुआ वा आपका हुआ वह ऐसा नहीं जो आपसे छिपा हो। कारण कि आप योगीराज हैं यह तो क्या आप संसार मात्र के वृत्तान्त को एक जगह बैठे जान सकते हैं। यह सुन ज्वालेन्द्रनाथजी अधिकतर प्रसन्न हुए। तथा कहने लगे कि कहिये फिर तेरी क्या सम्मति है। राजा को पूर्व प्रकार से विश्वासी किया जाय अथवा अन्य रीति से, यह तो हम भी समझते हैं कि ये राजा लोग प्रायः ऐसे ही हुआ करते हैं जो स्वयं दर्शी हुए बिना किसी भी बात में विश्वास नहीं किया करते हैं। इस पर प्रार्थक ने उत्तर दिया कि भगवन् ! मेरा अभिप्राय तो यही है जो राजा के हृदय में असत्यता ने अपना अड्डा जमा लिया है किसी प्रकार उसका वहाँ से निस्सरण हो जाय। परं यह आपकी ही इच्छा पर निर्भर है चाहें जिस रीति से करें। ज्वालेन्द्रनाथजी ने आज्ञा प्रदान करी कि अच्छा यदि यही बात है तो तुम जाओ और राजा से कहो कि कल एक सभा करे। जिसमें नगर के सब प्रतिष्ठित मनुष्य उपस्थित हों और सभागन्तुक सबके एकत्रित होने पर हमारे समीप सूचना प्रेषित की जाय। अपनी बात की सत्यता विषयक साक्षी देने के लिये हम स्वयं सभा में आयेंगे। परन्तु एक बात तुम ध्यान में रखना उस समय हमारे वास्ते कोई सवारी न भेजना। यदि राजा इस बात के लिये आग्रह करे तो तुम कह देना कि उन्होंने मेरे से सुना दिया है यदि सवारी भेजोगे तो हम नहीं आयेंगे। आपकी यह आज्ञा श्रवण कर अत्यन्त प्रसादित हुआ प्रार्थक आपके चरणों में गिरा और आशीर्वाद उपलब्धि के अनन्तर आपके द्वारा विज्ञापित कृत्य का अनुष्ठान करने के लिये वहाँ से प्रस्थानित हुआ। जो कुछ देर में नगर प्रवेशी हुआ उन सहमतों के स्थान पर, जिन्होंने वह प्रेषित किया था, पहुँचा। अब वह अवसर था जिसमें रात्री का अर्धगमन हो चुका था और अधिक देर तक इसके परावर्तन की प्रतीक्षा कर वे निद्रा देवी की गोद में रमण करते हुए अपने आपकी स्मृति विस्मृत कर चुके थे। अतएव इसने परिश्रम से उनको प्रबोधित किया। तदनु सब एक स्थान में संघीभूत हुए। एंव प्राश्निक हो उन्होंने इसको सूचित किया महानुभाव शुभ समाचार देना जिससे प्रफुल्लित होकर हम अपक्व निद्रा की व्यवथा को अपसारित कर सकें। उनके इस कथनानुकूल उत्तर देते हुए प्रार्थक ने प्रकटित किया कि समाचार वैसा ही है जैसा कि हमने योगिराज की शीघ्र प्रसन्नता में विश्वास कर सम्भवित होना निश्चित किया था। ठीक हमारे उसी मन्तव्य के अनुकूल वे प्रसन्न हो गये। प्रसन्न ही नहीं यहाँ तक कि हमारे विषय की पुष्टि करने को कल स्वयं आयेंगे। प्रार्थक के इस कथन के साथ-साथ ही उनकी निद्राकारणिक व्यथा न जानें कहाँ चली गई। इसीलिये वे आनन्दाधिक्य प्रफुल्लित मुख पंकज से बोल उठे कि धन्य हो, धन्य हो परं यह तो बतलाइये कल योगिराज के आने का समय प्रतिदिन वाला ही निश्चत है वा अन्य है। अथवा वे आये भी तो राजा साहिब को उनका साक्षात् कैसे निश्चित होगा। क्या वे राजकीय भवन में आने की कृपा करेंगे वा राजा साहिब को ही योगेन्द्रजी के आगमन मार्गिक उस दिन वाले स्थान में उपस्थित होने के लिये अनुरोधित किया जायेगा। प्रार्थक ने ज्वालेन्द्रनाथजी की आज्ञा से उनको विज्ञापित कर उनके सन्देह का अपहरण किया। तथा साथ ही प्रातःकाल से ही राजा की आज्ञा ले सभा करने के उद्योग में दत्तचित्त हो जाने का परामर्श दिया। जो सर्व सम्मति के अनुसार अंगीकृत हो उस पर महानन्द प्रकट किया गया। अनन्तर सब अपने-अपने निवास भवन को गये और फिर महानन्द प्रदात्री निद्रा का आव्हान करने लगे। परं निद्रा आती कैस, जब-जब वह उत्सुक हुई उनकी ओर अग्रसर होती थी तब उनका दैनिक कुतूहल का स्मारणिक आह्लाद उसे अपसारित कर डालता था। खैर उनके निद्रा और आह्लाद का युद्ध होते हुआ ते किसी प्रकार प्रातःकाल आ उपस्थित हुआ और वे लोग राजा साहिब की सेवा में पहुँचे। राजा साहिब ने भी उनके अनुकूल सम्मति प्रदान की। जिससे वे सभा के उद्योग में संलग्न हुए। कुछ ही देर में सब सामग्री सज्जित हो गई। प्रातःकालिक नित्यकृत्य से लब्धावकाश हो सब गण्यमान्य सभ्य लोग सभास्थल मंे आ संघीभूत होने लगे। कुछ समय व्यतीत हुआ। निमन्त्रित महानुभाव जो आने वाले थे सब आ चुके और यथायोग्य निर्दिष्ट आसनों को अधिष्ठित कर चुके। इसी अवसर में राजा साहिब को आहूत किया गया। वह आया और सभ्यों के अभ्युत्थानादि स्वागतिक सत्कार से सत्कृत हो उस सिंहासन पर, जो कि ज्वालेन्द्रनाथी के सिंहासन से द्वितीय दर्जे में सज्जीकृत किया हुआ था, बैठ गया और उक्त महानुभावों से प्रश्न कर कहने लगा कि महात्माजी को बुलाने का क्या प्रबन्ध किया गया है। उन्होंने उत्तर दिया कि प्रबन्ध कुछ नहीं केवल सूचना मात्र ही भेज देते हैं। यह सुन नासिका संगुचित करता हुआ राजा बोल उठा वाह-वाह यह क्या किया कोई योग्य प्रबन्ध करना उचित था। उन्होंने ज्वालेन्द्रनाथजी की आज्ञा को विज्ञापित किया। जिससे वह शान्त हुआ और योगेन्द्रजी की सेवा में सन्देश भेजा गया। कुछ ही क्षण में एक अश्वारोही ने ज्वालेन्द्रनाथजी के चरणाविन्द में उपस्थित हो सादर प्रणाम करने के अनन्तर आपके आव्हान विषयक मन्त्र उद्घोषित किया। तत्काल ही आशीर्वाद प्रयुक्त कर आपने उसको विदा किया और स्वयं उदान वायु का जयन कर आकश गति के द्वारा सभास्थस्थल का स्वोद्देश निमित्त निर्मित कांचनिक सिंहासन पर पहुँचकर सभ्यों को अपने आगमन से सूचित किया। इससे कुछ क्षण पहले समस्त सभ्य लोग अपने-अपने मन में यह अनुमान लगा रहे थे कि योगेन्द्रनाथजी अब वहाँ आ लिये होंगे, आ लिये होंगे परं आपका आकस्मिक आकाशिक अवतरण देखकर स्वागत के लिये वद्धांजलि को उसे व्यर्थ समझने लगे और आपके सिंहासनारूढ़ होने पर क्रमशः सब लोगों ने आपके चरण स्पर्श से अपने आपको पवित्र बनाकर आपकी उचित अभ्यर्थना की। तदनु राजा साहिब की ओर निर्देश कर ज्वालेन्द्रनाथजी पे कहा कि राजन् ! मैं उन महानुभावों के कथन को सत्य करने के लिये आया हूँ जिन्हों को आप मिथ्याभाषी प्रमाणित कर उनका हास्य किया करते हो। राजाजी ने पहले ही लज्जित की तरह संकुचित शरीर से आपकी पूजा की थी अब वह बिचारा क्या कहता। खैर उसने सुकोमल शब्दान्वित अनेक विध प्रार्थना द्वारा क्षमा की याचना की। और आपका राजनीति की ओर ध्यान आकर्षित किया। प्रसन्न मुख से मन्द हास्य पूर्वक ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि हाँ यह अवश्य है किसी भी विषय में दृढ़ प्रमाण निश्चित किये बिना शीघ्र विश्वासी नहीं बन जाना चाहिये इसीलिये हम तुम्हारे इस व्यवहार से असन्तुष्ट नहीं है। परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कोई भी योगी हो उसके विषय में यह सोचना, कि यह कुछ नहीं साधारण ही है, सर्वथा अनुचित और निस्सन्देह भूल की बात है। क्यों कि संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं जो योगी के लिये असाध्य हो। अतएव वे क्षणभर में चाह सो कर दिखला सकते हैं। रही तुम्हारी दृढ़ प्रमाण मिलने पर ही किसी बात में विश्वास करनात्मक राजनीति की बार्ता, इसका प्रयोग करने की संसार में अन्य जगह बहुत है। योगी के विषय इसका प्रयोग करना शोभा नहीं देता है। साथ ही इसमें अनिष्ट उत्पन्त होने की भी सम्भावना है। क्यों कि तुम तो अपनी राजनीति भरोसे पर बैठ रहोगे, उधर कोई योगी तुम्हें कट्टर अनुमानित कर कोई ऐसा अनुष्ठान कर बैठेगा जिससे तुम्हें विपद् ग्रस्त होना पड़ेगा। यह सुन राजा साहिब फिर आपके चरणों में गिरे और अपनी प्रमत्ता पर पश्चाताप प्रकट करते हुए कहने लगे भगवन्! क्षमा कीजिये भविष्य में ऐसा न होगा। इस प्रतिज्ञात्मक वचन से प्रसन्न होकर आशीर्वाद देने पर आपने प्रस्थान करने के लिये अभ्युत्थान किया। यह देख राजा समन्त्री फिर आपके पाद्युगल में प्रसृत हुआ और राजकीय बगीचे में ही निवास करने के लिये आप से अनुरोध करने लगा। अधिक क्या उसने यहाँ तक आग्रह किया जिसके विवश हो ज्वालेन्द्रनाथजी को अपने भावी कार्य की सिद्धि पर्यन्त अवधि को उद्देशित कर राजकीय आराम में निवासित होना पड़ा।
इति श्री ज्वालेन्द्रनाथ भ्रमण वर्णन ।

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