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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Saturday, June 15, 2013

श्री भर्थरीनाथ जन्मवर्णन

एक बार स्वकीय मार्ग विस्तार चिकीर्षु श्रीमहादेवजी की प्रेरणानुकूल मित्रावरूणी नामक स्वर्गीय देवता भारतीय यात्राभिकाङ्क्षी हुआ अवध प्रान्तान्तर्गत सरयू नदी के तटस्थ आरण्य स्थल में अवोत्तीर्ण हुआ। प्रावृषेण्य ऋतु के होने से यह स्थल जितना था उतना ही मन को आल्हादित करने वाला भी था। अतएव उक्त स्वर्गीय महापुरुष स्वीय विमान को स्थगित कर विविध विहंगमों की रसीकशब्दोद्घोषणा से गूंजारित श्यामायमान रम्य, अरण्य की शोभा का अवलोकन करने में ज्यों ही इतस्ततः परिक्रमित हुआ, त्यों ही दैवगत्यनुकूल स्वर्गागत विलक्षण आभूषणों से विभूषित मनोहर रूपवती एक स्त्री अकस्मात् उसकी दृष्टि गोचर हुई। जिसको देखकर ऐकान्तिक रमणीय आरण्य स्थल की सहायता से सवल हुए स्मरने जो दशा उपस्थित की वह उसको सहन करने में असमर्थ हुआ। अधिक क्या यहाँ तक कि अपना मनोरथ पूरा करने के लिये उसने प्रथम उसका परिचय लेना चाहा। परं उसमें कृत कार्य होने के पहले ही महापुरुष का मनोवांच्छित सहसा शरीर से बहिरभूत हो उसके नतानन होने में कारण हुआ। इस आकस्मिक लज्जास्पद घटना का अनुस्मरण कर ईश्वरीय विचित्र गति के विषय में परामर्श करते हुए नाकी महानुभाव ने वीर्य पातानन्तर कामीय कष्ट दशा से विमुक्ति पाने पर शान्तचित्त हो इधर-उधर दृष्टि प्रक्षिप्त की। और किसी विशेष कारण से उपस्थित होने वाले मेरे इस हास्यमय वृत्तान्त को अन्य कोई पुरुष तो नहीं देखता है क्या, इस अभिप्राय से कुछ देर तक स्थल का संशोधन करते रहने पर जब कोई मनुष्य दृष्टिपथारोही न हुआ और वह स्त्री भी अपने आगत मार्ग में तत्पर हुई तब तो उसने अपने अमोघ वीर्य की, जो कि रक्षित था, स्थापना करने का सुभीता अन्वेषित किया। वह यह था कि समीपस्थ क्षेत्र में किसी कृषक का एक पात्र रक्खा हुआ था, जिसको भारतीय लोग, भर्थुवा, भर्थी, भर्थु, भर्थिया, आदि शब्दों से व्यवहृत किया करते हैं, उसी में कुछ जल तथा मृत्तिका के सहित उसको स्थापित कर एक प्रवृद्ध शाखी वृक्ष के सच्छिद्र मूल में रख छोड़ा और अनन्तर अपने अभीष्ट स्थान को प्रस्थान किया। उधर ईश्वरीय अगम्य रक्षा से रक्षित हो वह पात्रस्थ शरीर कारण प्रतिदिन अधिक परिमाणी होने लगा। और ठीक अनुकूल अवसर पर्यन्त शरीराकारी हो प्रसवकालिक बालक के परिमाण में परिणत हुआ। इसी समय हरिनारायण ने उसमें प्रविष्ट होकर जो असह्य तेज की धारा प्रवाहित कर रखी थी उनके प्रबल प्रताप से वह पौराणिक दशास्थ लघिष्ठ घट फूट गया। अतएव लब्धावकाश हो बालक इधर-उधर हस्त पैरों का प्रक्षेपण और संहार करता हुआ तथा उनके अंगुष्ठों का चुम्बन करता हुआ सानन्द समय व्यतीत करने लगा। यद्यपि कोई खास मनुष्य ऐसा नहीं था जो उसकी क्षुधा पिपासा के परिहारार्थ उसके खाद्य एवं पेय सामग्री उपस्थित करता हो तथापि उसके महापुरुष होने के हेतु से इच्छा मात्र से आवश्यकीय वस्तु प्राप्ति में उस दशास्थ बालक की इच्छा कारण नहीं बन सकती तो उसकी दैनिक जीवन चर्या की रक्षार्थ श्री परम दयालु भगवान् आदिनाथजी की विशेष कृपा ही उन उपायों को प्रेरित करती थी कि जिन्हों से अचेत भी उस बालक का पालन पोषण होता था। अतएव यही कारण था उसी वृक्ष के विवरान्तर्गत मधुमक्षिकाओं के पटल से मधु के बिन्दु उसके अंगों पर गिरने आरम्भ हो गये। जिनके चूषण काल में वह उस मधु का भी आसवादन ले सका। और उसी के पोष से पुष्ट हो उसने कुछ दिन निर्वाहित किये। ये दिन सानुकूल बीतने पर भी उसके लिये एक सुभीता और उपस्थित हुआ। वह यह था कि एक प्रसव वेदना से आक्रान्त हरिणी उसी वृक्ष विवर के समीप आकर बैठ गई। कुछ क्षणानन्तर अधिक कष्ट का अनुभव कर किसी प्रकार उसने एक बच्चा प्रसूत किया। जिसके बहिरभूत होने पर भी उसकी वह दशा नहीं आई जिसके आश्रय हो अपनी सन्तति का शीघ्र चाटन चुम्बन करती। आखिर बहुत देर में वह सचेत हुई। परं फिर भी उसने अपने पुत्र और समीपस्थ बालक में दृष्टि डाली तो समझ लिया कि दोनों ही मेरे उदर से उत्पन्न हुए हैं। अतएव उसने दोनों का चाटन चुम्बन कर अघटित घटना उपस्थित कर दी और दोनों को ही स्तनपान द्वारा पुष्टांग बनाने का प्रयत्न करने लगी। उसका वह प्रयत्न भी सफल हुआ। कुछ काल बीतने पर दोनों बालक इधर-उधर हरिणी के पीछे-पीछे फिरने लगे। मार्गिक बच्चे के शीघ्रगामी होने पर भी मृगी धावनादि क्रिया से वंचित रहती थी। कारण कि हमारे चरित्रनायक मानुषीय बालक के घुटनों की सहायता से मन्द गति का परिचय देने हेतु से वह उसे छोड़कर जा नहीं सकती थी। परन्तु यह व्यतीकर बहुत दिन प्रचलित न रहा। भगवान् आदिनाथजी की कृपा हुई। उसके अनुकूल किसी कार्यवश से उसी वनस्थ मार्ग में गमन करने वाला जयसिंह नामक भट्ट जातीय कोई मनुष्य अपनी पत्नी के सहित अकस्मात् वहाँ आ निकला। जो मार्ग की कुछ ही दूर पर मृगी के पीछे-पीछे चलते हुए मनुष्य बालक को देखकर अत्यन्त विस्मित हुआ। और स्वकीय पत्नी के अतीव आग्रहानुसार बालक के पकड़ने के प्रयत्नशील हुआ। बालक शीघ्र ही उसके हस्तगत हो गया। जिसके अतीव सुन्दर रूप और होनहार विलक्षण दृश्य को देखने के साथ-साथ उसकी विस्मापक पशु सांसर्गिक घटना का अवलोकन कर महान् आश्चर्य के समुद्र मंे निमग्न हुए भी दोनों स्त्री पुरुष अनेक प्रैतिक वाक्य और चुम्बनादि कृत्य के द्वारा अत्यन्त प्यार करते हुए उसकी चमक निकालने का उद्योग करने लगे। इधर बालक को उठाकर उक्त व्यवहार का प्रयोग करते हुए वे मार्गानुसारी बने ज्यों-ज्यों पद उठाते थे त्यों-त्यों वह हरिणी करूणीत्पादक शब्दों का उच्चारण करती हुई उनके पीछे-पीछे चलती थी। और पुत्रवती होने पर भी बालक में अपना अपरिमित मोह प्रदर्शित करती हुई उन अपुत्र पति पत्नियों के लब्ध पुत्र विषयक मोह को तिरस्कृत कर रही थी। यहाँ तक कि बालक की विमुक्ति विषय में अपने प्राणों तक को न्योछावर करने का साहस रखती हुई अपने प्रेमाधिक्य की पराकाष्ठा दिखला रही थी। परं हतभाग्य उसका वह प्रयत्न सफल न हुआ और नगर के समीप पहुँचने से अपना और अपने एकाकी बच्चे का कौशल्य न देखकर वह वापिस ही लौट आई। उधर परम हर्षहर्षित जयसिंह नगर में प्रविष्ट हो सम्मुखागत प्रष्टा लोगों के द्वारा पुत्रोपलब्धि विषयक वृत्तान्त को विस्तृत करने लगा। बस क्या देर थी श्रोत्रप्रणालिका से प्रसृत समाचार समग्र नगर में व्यप्त हो गया। अतएव अनेक नर-नारी जयसिंह के गृह पर आकर श्रुतघटना की सत्यता का परिचय लेते थे। और बालक का तेजोमय दिव्य रूप देखकर अपने गृह में भी वैसे ही पुत्र की सत्ता स्थापित करने के लिये आभ्यन्तरिक भाव से ईश्वर की विशेष अभ्यर्थना करते थे। तथा जयसिंह से उसके पशु सांसर्गिक अरण्य निवासात्मक असांगतिक वृत्तान्त को सुनकर वे अत्यन्त विस्मित हो हस्त से हस्तविमर्दन करते हुए ईश्वरीय अलक्ष्य गति के विषय में अनेक गाथाओं का उद्घाटन करने लगते थे और बालक को अपने-अपने उत्संगारो ही बनाकर अपने उन्नत प्रेम की मात्राओं को सफल बनाते थे। इसी प्रकार के आनन्दोत्सव से जयसिंह के कितने ही दिन एक दिन के समान व्यतीत हुए। और शुभलक्षण पुत्रोपलब्धि विषय में लोगों द्वारा विशेष सत्कार को प्राप्त हो अब वह वर्षों का मासों के समान निर्वाहन करने लगा। अनन्तर अपने प्रशस्य गुणों से उपमाता पिताओं को रज्जित करता हुआ बालक अनुकूल अवस्था में प्रविष्ट हो गया तब उसने बालक को विद्वान् बनाने के, एवं उसके शुभ लक्षणाकर्षित धनाढ्य लोगों से द्रव्योपार्जित करने के, अभिप्राय से काशी नगरी में निवास करने की अभिलाषा की। और अपनी पत्नी के सहमत की सहायता प्राप्त कर उसने कुछ ही दिन के बाद पत्नी पुत्र के सहित वहाँ से प्रस्थान किया। तथा काशी में पहुँचकर वहाँ रहने वाले अपने किसी सम्बन्धी की सहायता द्वारा एक स्थान प्राप्त कर निवास करना भी आरम्भ कर दिया। कुछ दिन सानन्द व्यतीत हुए। प्रातिवेश्य लोगों का उससे और उसका प्रतिवेशियों से परिचय हो गया। उधर उसके सम्बन्धी द्वारा बालक की विस्मापक उपलब्धि का समाचार भी धीरे-धीरे नगर में व्याप्त जिन-जिन लोगों के श्रोत्रगत होता था वे ही बालक को देखने आते और वृत्त की सत्यता का निर्णय करने के लिये जयसिंह के सम्बन्धी और ग्राम तक की साक्षी प्राप्त करते थे। और स्वान्तःकरणनिष्ठ बालकोपलब्धि विषयक सन्दिग्ध वृत्तान्त में विश्वसित हो उसे श्रद्धा की दृष्टि से सत्कृत करते थे। तथा बालक का भावी महापौरुषेय लक्षण देख उसके अवतारी होने की सम्भावना करते थे। जिस समय लोगों की भावना यहाँ तक बढ़ चुक थी उस समय अध्यापक के समर्पित हुआ बालक लोगों के मन्तव्य में और भी दृढ़ता स्थापित करने के हेतु से अनेक प्रासंगिक अवसरों में अपने किसी न किसी प्रकार के विलक्षण चरित्रों का उद्घाटन कर रहा था। उसका यह समचार देख अध्यापक महानुभाव भी चुपके न रह सके। और जयसिंह के सम्मुख स्वकीय मुख द्वारा बालक के प्रतिदिन प्रदर्शित होने वाले शुभ वृत्तान्त के विषय की प्रशंसा करने को बाध्य हुए। इस प्रकार पुत्रोपलब्धि के अनन्तर उसके आज पर्यन्त जो दश वर्ष व्यतीत हुए वे पुत्र की और पुत्र के द्वारा अपनी प्रशंसा सुनते सुनाते ही व्यतीत हुए। अतएव जयसिंह ने अपने आपको भी धन्य समझा। और स्वकीय नगर से प्रस्थान करने के पहले द्रव्योपार्जना विषयक जो अभिलाषा की थी उसने उसमें भी बहुत कुछ कुशलता प्राप्त की। परं खेद की बात है कि वह द्रव्य संचय उसका ही नहीं दोनों पति पत्नियों के विनाश का हेतु हुआ। कारण कि उसके सांसारिक उत्कर्ष प्राप्ति की अभिलाषा जागरित हुई। जिसके वशीभूत हो उसने विचार स्थिर किया कि कुछ दिन में मेरा पुत्र विवाह योग्य होने वाला है। अतः उस अवसर से पहले मेरे पास जो पर्याप्त धन एकत्रित हो गया है इसे व्ययकर अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल अपने नगर में जाकर एक मनोहर स्थान बनवा लूँ। ठीक इसी निश्चय को कार्यरूप में परिणत करने के लिये उसने काशी से प्रस्थान करने की तैयारी की। और पुत्र को अध्यापक महाशय की सेवा में उपस्थित रहते हुए निरन्तर विद्याध्ययन करने की आज्ञा दी। परं हमारे चरित्रनायक इस बालक को श्री महादेवजी ने ग्रन्थों का कीड़ा बनकर अधिक समय नष्ट करने के वास्ते नहीं भेजा था। अतएव बालक की बुद्धि ने ईश्वरीय प्रेरणानुकूल पलटा खाया। जिससे अपने पिता जयसिंह जी को उसने स्फुट कह सुनाया कि मैं एकाकी यहाँ नहीं रह सकता हूँ। अतः मुझे भी अपने साथ ही ले चलना होगा। जयसिंह की उक्त इच्छा प्रबृद्ध हो चुकी थी। इस वास्ते उसने उसमें बाधा उपस्थित न कर लड़के को साथ ले चलना ही समुचित समझा। और उसके तथा पत्नी के सहित काशी से प्रस्थान भी कर दिया। एक वंचक मनुष्य, जो इनके समीपस्थ द्रव्य विषयक समाचार से विदित हो चुका था और अपने सहमतों के परामर्शानुसार किसी न किसी उपाय का अवलम्बन कर इनके प्राण विनाश द्वारा मुद्रकाओं को स्वहस्तगत करना चाहता था, यहीं से इनके साथ हो लिया। अधिक क्या उसने ऐसे युक्तियुक्त वाक्यांे का प्रयोग किया कि जिससे उसके विषय में वे कुछ भी सन्दिग्ध न हुए। और चारों ही विविध व्यावहारिक वार्तालाप करते कराते सानन्द मार्ग तय करने लगे। जब चलते-चलते मध्यान्ह समय उपस्थित हुआ देखा तब एक जलाशय के समीपस्थ सघन वट वृक्ष के अधः उन्होंने विश्राम किया। तथा कुछ भोजन जो साथ में लिये हुए थे परस्पर में खा पी कर धूप निवारण के अभिप्राय से लेट गये। निशंक होने के कारण उन्होंने मार्गिक साधारण श्रान्ति का दूर करने के लिये कुछ देर पर्यन्त की निद्रा का आव्हान किया। यह देख निद्रा देवी ने भी शीघ्र उपस्थित हो ऐसा आक्रमण किया जिससे वंच के अतिरिक्त वे तीनों अवस्था में प्रविष्ट हुए। बस यही दुर्भाग्य का अवसर था जो अवश्यम्भावी दैवगत्यनुकूल आ प्राप्त हुआ। अतएव निद्राक्रमण के द्वारा अचेत दशा निष्ठ जयसिंह और उसकी स्त्री को और भी अचेत बनाकर उनके द्रव्य का अपहरण करने में उस निर्दयी दुष्ट वंचक सार्थी मनुष्य को अच्छा सुभीता मिल गया। वह अपने गुप्त तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा दोनों की ग्रीवा का भंग कर मात्राओं को स्वहस्तगत करने के समकाल में ही वहाँ से प्रभावित हुआ। उधर जब वह लड़का निद्रा से विमुक्त हो देखने लगा तो वह चतुर्थ मनुष्य उसे दिखाई न दिया। और सहसा माता-पिता के रूधिर प्लावित उत्तमांग को देखकर शोकात्मक अगाध समुद्र में निमग्न हुआ। परं करता क्या, उसके ऊपर होने वाले आकस्मिक वज्रपात का परिहार करने के लिये कोई सहायक मनुष्य नहीं था। जो कि धैर्यात्मक नौका का अवलम्बन प्रदान कर उसके द्वारा शोक समुद्र के तीर पर पहुँचाता हुआ उसके ऊपर से वज्र प्रहार का वार वंचित कर देता। अतएव वह उपमाता पिता के स्वविषयक अनल्प प्रेम के ऊपर कुछ देर अश्रुपात कर आत्र्तस्वर के सहित ही वहाँ से चल पड़ा। कुछ ही दूर तक मार्ग तय करने पर जब उसने सम्मुखीन मार्ग में दृष्टिपात किया तब उस मार्ग को आकाश व्यापी धूलि से आच्छादित देखा और अनुमान किया कि अनेक रथ लिये हुए धनाढ्य लोगों की बरात वा राजकीय सेना दल आता है। परं वह एक तृतीय ही दल निकला। जो अनेक प्रकार की वाणिज्य वस्तुओं को वाहित करने वाले सहस्रों वैलों से संगठित हुआ था। इस दल के स्वामी भारतीय प्रसिद्ध व्यापारी भट्ट वा बणजारे लोग थे। पारस्परिक दृष्टि मिलने पर लड़के का विकलित दृश्य देखकर उससे उन्होंने यथार्थ समाचार सुनाने का का अनुरोध किया। उसने भी आद्यन्तीय समस्त वृत्तान्त, जो कि बीत चुका था स्फुट कर दिया। जिसके श्रवण मात्र से उन लोगों का भी आन्तरिक स्थान उमड़ आया। और दयादर्भिभूत चित्त की प्रेरणा से अनेक प्रकार के प्रैतिक वाक्यों द्वारा धैर्य स्थापित कराते हुए वे लोग उसे वापिस ही लौटा ले गये। एवं कुछ ही देर में घटनास्थल में पहुँच कर जब दोनों व्यक्तियों को उस अवस्था में, जो कि लड़के ने सूचित की थी, देखा तब तो उन्हों की करूणा का भण्डार और भी विस्तृत हो गया। यहाँ तक कि उन्होंने बड़े आदर के सहित दोनों व्यक्तियों का अग्नि संस्कार कर लड़के को अपने ही आश्रय में रख लिया। और खान पान सवारी आदि का ऐसा प्रबन्ध कर दिया जिससे उसको किंचित् भी दुःख का अनुभव न करना पड़ा। ठीक यही कारण था कि वह कुछ ही दिन में उपमाता पिता के सांसर्गिक व्यवहार को विस्मरण कर उनके साथ ऐसी चेष्टायें करने लगा मानों उन्हीं में उत्पन्न हुआ है। अधिक क्या यहाँ तक कि उस दल के प्रधान स्वामी में जिसने उसको आश्रय देकर अपना महान् अनुग्रह प्रदर्शित किया था, जयसिंह की तरह उप पिता का सम्बन्ध रखने लगा। और उसके उपकार का बदला चुकाने के लिये एक ऐसा सुभीता प्रकट किया जिसके द्वारा उसी को नहीं समस्त व्यापारियों को लाभ हुआ। वह सुभीता यह था कि वह लड़का पशुवाणी का अर्थ समझता था। अतएव व्यापारी दल के ऊपर चोरों के आक्रमण की अथवा और किसी प्रकार के उत्पात की सम्भावना विषयक लक्षण सूचित करने वाले गीदड़ादि की वाणी का भावार्थ वह उन लोगों को प्रबोधित कर देता था। जिससे वे सचेत होकर सम्भवित उपाय द्वारा चोरादिकों के आक्रमण को व्यर्थ कर स्वकीय जानमाल की रक्षा कर लेते थे। ठीक यही व्यापारी दल मार्गागत अनेक नगरों सम्बन्धी वस्तुओं का क्रय-विक्रय करता हुआ कुछ मास के अनन्तर अवन्ती देशस्थ प्रसिद्ध नगरी उज्जयिनी में पहुँचा। यहाँ सायंकाल के अवसर में, जब कि दल के प्रधान पुरुष वाणिज्य विषयक परामर्श कर रहे थे, शृंगालों की चीत्कार का मर्म समझ कर लड़के ने बतलाया कि आज अर्ध रात्री उपस्थित होने पर इस नगरी में एक राक्षस प्रविष्ट होगा, जो कि पश्चिम दिशा से आ रहा है। यदि उसका आक्रमण निवारण न किया गया तो नागरिक लोगों को अत्यन्त सांकटिक अवस्था का अनुभव करना पड़ेगा। यह सुन उन विश्वासित लोगों ने शीघ्रता के साथ प्राकृतिक परामर्श करना छोड़ उसी विषयक की अनेक गाथाओं का उद्घाटन करना आरम्भ किया। तथा बहुत देर के विचारा विचार के अनन्तर इस वृत्तान्त की सूचना राजकीय पुरुषों को दे देने का निश्चय किया। ठीक इसी अवसर पर, जब कि उक्त निश्चय के अनुसार सूचना भेजने के लिये वे लोग किसी चतुर मनुष्य को तैयार कर रहे थे, अकस्मात् विक्रम नाम का एक राजपुरुष, जो कि उस समय नगर का रक्षक नियत था, उनके समीप ही आ निकला। और उसने उन व्यापारियों का उचित परिचय लेकर उनको सचेत रहने का परामर्श दिया। उन्होंने उसके कथन पर कृतज्ञता प्रकट करने के अनन्तर कहा कि हम लोग सदा सचेत रहते हुए भी आज आपके कथनानुसार विशेष सचेत रहेंगे। जिसके द्वारा वाणिज्य वस्तु ग्रहण में लालायित चोरादिकों से हमारी रक्षा हो सकेगी। परन्तु हमारे से भी अधिक आज आप लोगों के सावधान रहने की आवश्यकता है। कारण कि एक राखस, जिसका नगरी में ही प्रवेश कर कुछ उत्पात उपस्थित करने का उद्देश्य है, अर्ध रात्री के अवसर पर आयेगा। अतएव उस अनिष्टकारी के आक्रमण को व्यर्थ करने के लिये आप लोगों को चाहिये कि उपयुक्त सामग्री का संचय तैयार रखें। व्यापारियों के अदृष्ट पूर्व घटना विषयक ऐसे वाक्य सुनकर हूंकारे के साथ विक्रम पूछ उठा कि तुम लोगों को इस वृत्तान्त का परिचय कैसे हुआ। तथा इसके सत्य होने में तुमने किस प्रमाण का अवलम्बन किया है। जिसका अवगमन कर मैं भी इस विषय में असन्दिग्ध हो जाऊँ। उन्होंने उत्तर दिया कि यह एक लड़का, जो कि कतिपय मास से हमारे साथ रहता है, किसी भी प्रकार के उत्पात को सूचित करने वाली पशुवाणी का मर्म समझकर हमको प्रबोधित किया करता है ऐसा अवसर एक बार नहीं कई बार उपस्थित हो चुका है। इसीलिये हम इसके कथन में निःसन्देह हो गये हैं। आज फिर शृगालों की चीत्कार श्रवण कर इसने प्रकृत घटना का उल्लेख किया है। जिसमें निश्चित हो उसकी सूचना आप लोगों को देने के लिये हम उद्यत हो रहे थे। हर्ष का विषय है अनुकूल अवसर पर आप स्वयं उपस्थित हो गये। तदनु विक्रम ने समीपस्थ उस लड़के की ओर निर्देश करते हुए पूछा कि क्या अवश्य यह घटना होगी। उसने उत्तर दिया कि यह घटना आवश्यकीय है। इसमें विश्विसित हो कोई ऐसा उपाय, जिससे कि राक्षस पराजित हो जाय, अन्वेषित करो। इसके साथ-साथ एक बात और भी है जिसका मैं अभी उद्घाटन कर देना समुचित समझता हूँ। और वह यह है कि उस राक्षस के रूधिर में एक ऐसी शक्ति विद्यमान है यदि कोई पराक्रमी महानुभाव उसको मारकर उसके रूधिर का अपने मस्तक पर टीका कर ले तो वही इस नगरी के सिंहासन पर अभिषिक्त हो। और अत्यन्त कुशलता के साथ राज कार्य का निर्वाहन करे। यह सुन कृतज्ञता प्रकट करने के अनन्तर प्रस्थानित हो अनेक भावों में परिणत हुआ विक्रम अपने नागरिक रक्षा स्थान पर पहुँचा। एवं अनुकूल शस्त्र को सज्जीकृत कर रात्रिन्चर की प्रतिपालना में दत्तचित्त हुआ। उधर से निर्दिष्ट समय पर राक्षस भी आ पहुँचा। और ज्यों ही नगर के तोरण द्वार में प्रविष्ट हुआ त्यों ही उपस्थित विक्रम ने उसको सावधान होने के लिये ललकारा। वह चेतनता के साथ हूँकार कर विक्रम की ओर झपटा। इधर यह भी तादवस्थ्य निष्क्रिय ही न खड़ा रहकर राक्षस का अनुकारी बना। अधिक क्या बहुत देर पर्यन्त भयंकर युद्ध होने पर अन्त में विक्रम की विजय हुई। वह दुष्ट मारा गया जिसके रूधिर का बिन्दु विक्रम ने स्वकीय उत्तमांग पर धारण किया। और उसके फल को गुप्त रखकर केवल राक्षस के बध का समाचार प्रधान राजपुरुषों को मालूम कराया। इस माहापाराक्रमिक कृत्य को श्रवण एवं निश्चित कर उन्होंने विक्रम की अत्यन्त श्लाघा की। यहाँ तक कि विक्रम की अनेक कार्य कुशलता तथा आत्यन्तिक पराक्रमता देखकर उन लोगों ने विक्रम के प्रति हार्दिक श्रद्धा प्रकट की और वर्तमान राजा के पुत्र न होने से उन्होंने आभ्यन्तरिक रीति द्वारा अपने हृदय स्थान में इस प्रकार की भावना का बीज अंकुरित किया कि इस राजा साहिब के अनन्तर यह विक्रम ही हमारा अधिनायक हो तो सौभाग्य की बात है। इधर उनकी यह भावना विक्रम से भी अविदित न रही। अतएव उक्त लड़के की भविष्य वाणी के साफल्य में असन्दिग्ध करने वाले शुभ लक्षणों का अवलोकन कर विक्रम ने लड़के के प्रति अपनी श्रद्धा का उद्धार किया और प्रधान राजपुरुषों से सान्तोषिक प्रशंसा तथा परितोषक प्राप्त कर वह व्यापारियों के समीप गया। वहाँ जाकर उसने उन्हों से उक्त लड़के को प्रदान करने की प्रार्थना की। अधिक क्या उनके अनेक बार नाटने पर भी किसी प्रकार विक्रम ने उसको अपने हस्तगत कर लिया। एवं अपना धर्म का भ्राता स्वीकार कर अपनी माता को उसके प्रयोजनीय गुणों से परिचित करने के साथ-साथ इस बात से सूचित किया कि अद्यावधि से मेरे में और इसमें पार्थक्य भावना का कभी स्वप्न तक न देखना। पूज्यमाता ने भी तथास्तु शब्दोच्चारण कर पुत्र की शुभाज्ञा को अमोध करते हुए हमारे चरित्र नायक उक्त लड़के को स्वकीय उत्संगोरोही बना लिया और विविध प्रैतिक उन वाक्यों का, जिन्हों से बालकों को हर्ष उत्पन्न हो सकता है, प्रयोग किया। ठीक इसी अवसर से विक्रम और वह लड़का प्रतिदिन साथ में रहते हुए सानन्द समय व्यतीत करने लगे। प्राथमिक मिलाप के समय प्रगाढ़ प्रीति से विक्रम ने उसके यद्यपि विशेष समाचार पूछने की उपेक्षा की थी। तथापि कुछ दिन के संसर्ग से जब कि उनका सच्चा सम्बन्ध हो गया तब विक्रम ने एक दिन उसकी जन्मचर्या के विषय में प्रश्न किया। उत्तरार्थ लड़के ने कहा कि मैंने भी अभी तक इस बात का कोई निर्णय नहीं किया है। अतएव कुछ दिन का अवकाश दो तो आन्तरिक मुख से इस विषय का स्वयं ज्ञाता बन तुम्हें विज्ञापित करने की चेष्टा करूँगा। यह सुन विक्रम ने बड़ा हर्ष प्रकट किया। और उसके कथन से उसके योगी होने का अनुमान कर कृतज्ञता के साथ कहा कि भ्रातः ! यद्यपि मैं तेरे सद्गुणों पर इतना मुग्ध हो गया हूँ कि मेरी आन्तरिक अभिलाषा ऐसी नहीं जो मुझे उक्त बात पूछने के लिये प्रेरित करती हो तथापि व्यावहारिक दृष्टि से सोच कर, कि सम्भवतः कभी ऐसा ही कोई प्रसंग आ उपस्थित हो जिसमें इस बात की आवश्यकता पड़ती हो, मैंने यह अनपेक्षित प्रस्ताव उपस्थित किया है। अतः तुम शान्ति के सहित जब तक बन पड़े इसका निश्चय प्राप्त करना। इसके अनन्तर उसी दिन से लड़का आसनासीन हो कर क्रामिक अभ्यास से स्वकीय जन्म वृत्तान्त का अनुभव करने लगा। थोड़े ही दिन में उसका वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् स्वकीय देव मित्रावरूणी के अंश से भर्थी नामक पात्र द्वारा प्रादुर्भूत होने वाले अपने शरीर सिषयक समस्त वृत्त उसने विक्रम से निवेदित किया। यह सुन विक्रम अत्यन्त प्रसन्न हुआ। और आज से उसने उसका, भर्थी नाम उद्घोषित किया। जो कुछ ही दिन में यह नाम भर्थरी और भर्तृ शब्द में परिणत हुआ। यही कारण है आज तक भी उस महापुरुष को प्रसंग वश से अविद्वान लोग भर्थरीनाथ और विद्वान भर्तृनाथ शब्द से सत्कृत करते हैं। (अस्तु) कुछ दिन के अनन्तर उसकी भविष्य वाणी सफल हुई। राजा ने विक्रम के ऊपर प्रसन्नता प्रकट कर राज्यभार स्थापित किया। इधर प्रजा की दृष्टि से विक्रम के सर्वथा योग्य पुरुष निश्चित होने पर भी विक्रम अपने से अधिक सर्व कार्य कौशल्य को भतृ भ्राता के अन्दिर देख चुका और देख रहा था। इसीलिये उसने उसको अपने से न्यून कोटि में रखना उचित न समझा यही कारण था विक्रम ने भर्तृको भी स्वसदृश राजा शब्द से उद्घोषित कर राज्य कार्य निर्वाहनता के कितने ही अधिकार प्रदानित कर दिये थे जिन्हों में युवावस्था प्राप्त करने के साथ-साथ ही भर्तृजी ने ऐसी चतुरता प्रदर्शित की जिसके ऊपर मुग्ध होकर विक्रम ने एक-एक कर सर्व अधिकार उसके समर्पण करने पड़े। और वह स्वयं ऐकान्तिक स्थल में निवास कर ईश्वराराधन में अधिक समय व्यतीत करने लगा। इस प्रकार राज्य का समस्त भार भर्तृजी के शिर पर आरोपित हुआ। जिसके निर्वाहन में अद्वितीय नैतिक कुशलता देखने के साथ-साथ भर्तृजी का दुःसह्य रूप देखकर कितने ही प्रधान राजपुरुष तथा अन्य कोई एक राजा लोग उस पर मोहित हो गये। और अपनी-अपनी कन्या प्रदान कर उन्होंने उससे सच्चा सम्बन्ध स्थापित किया अतएव भर्तृजी ने पिंगला आदि अनेक सुलक्षणा अंगनाओं के साथ सहवास करते हुए अपने आपको ऐहलौकिक विविधानन्द का अनुभव करते हुए की तरह प्रदर्शित करना आरम्भ किया।
इति श्री भर्तृ जन्म चय्र्या वर्णन ।

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