Featured Post

जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Wednesday, June 12, 2013

श्री मद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ भ्रमण वर्णन

श्री मद्योगेन्द्र गोरक्षनाथजजी ने इतने दीर्घ समय के अनन्तर आज युधिष्ठिर सम्वत् 2650 के प्रारम्भ में गृहीत परमानन्द प्रद सामाधिक स्थिर अवस्था का परित्याग कर अपने आपको चेष्टित दशा में परिणत किया। और कुछ दैनिक निवास के बाद जब आपको सम्यक्तया शारीरिक स्वास्थ्योपलब्धि हो गई तब आपने ज्वालेन्द्रनाथजी की तरह अपने सन्निहित शरीर रक्षक शिष्य को तू अभिलषित समय पर्यन्त असम्प्रज्ञाताख्य समाधि के द्वारा अपने मोक्षमार्ग को स्वच्छ बनाने के उद्योग में दत्तचित्त हो, यह आज्ञा प्रदान कर स्वकीय उद्देश्य प्रसार निरीक्षणार्थ देश पर्यटन के लिये हरद्वार से प्रस्थान किया। और गंगा यमुना नदियों के मध्यवर्ती प्रदेशों में भ्रमण करने के अनन्तर आप कुछ मास में चित्रकूट पर पहुँचे। यह स्थान श्रीरामचन्द्रजी के धूलिधूषर चरणारविन्द की रज से पवित्र होने के कारण प्रजा की ओर से जितना ही श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था उतना ही रमणीय एवं चित्त को स्वास्थ्य देने वाला भी था। यही कारण था इसकी मनोरंजकता से विवश हो अनेक उपरामी महानुभाव इसमें निवास करने को बाध्य होते हुए श्रीरामचन्द्रजी के पवित्र चरित्रों का अनुसन्धान किया करते थे। इसी पर्वत की उपत्यका में विश्रामित निरंजनाथादि योगियों के विशेष आग्रहानुरोध आपने यहाँ स्थगित हो एक मास पर्यन्त निवास कर उनकी प्रार्थना पूर्ण की। अन्तिम दिन आनुक्रमिक क्रियाओं में प्रेरित उनके शिष्यों को अपने औत्साहित वाक्यांे द्वारा प्रोत्साहित कर चुकने पर यहाँ से भी गमन किया और फिर हिमालय के प्रत्यभिमुख हो आप पाटलीपुत्र (पटना) होते हुए पर्वतीय प्रदेश नवपाल (नैपाल) में पहुँचे। इस प्रदेश के मनुष्यों ने अभक्ष्य पदार्थों के ग्रहणार्थ जितना ही हस्त प्रसृत कर रखा था वे उतने ही निर्दयी एवं कट्टर हृदय भी थे। यद्यपि इस देश में गोरक्षनाथजी के बहुत दिन निवास करने से उनके उपदेशात्मक अमृत की बून्द बहुत लोगों के हृदय स्थान पर पड़ चुकी थी। जिसके प्रभाव से वे योग के सिद्धान्त पर पूरा विश्वास और श्रद्धा रखते थे। यही नहीं यहाँ तक कि श्रीनाथजी की विशेष कृपा के भाजन हो अपने शारीरिक वाचिक प्रयत्न द्वारा स्वयं योगोपदेश करने लगे थे। तथापि जो अधिक लोग ऐसे थे कि इस सौभाग्य की उपलब्धि न कर चुके थे वे योगियों का, जो उन्हें अभक्ष्यास्वादन से निरोधित करते थे और कुछ न कर सकने से उनको घृणा की दृष्टि से अवश्य देखते थे। ठीक यही दशा तात्कालिक राजकीय पुरुषों की भी थी। अतएव उन लोगों को प्रबोधित करने के लिये गोरक्षनाथजी ने यहाँ अपना आसन स्थिर किया और कितने ही आरण्यक हरिणों को, जो अहिंसात्मक व्रतरूप जल से प्लावित हृदय अनुमानित कर प्रतिदिन विगत शंका हुए सन्निहित की क्रीडा रत रहते थे, पाला गोरक्षनाथजी की अतिशय प्रैतिक चेष्टाओं को अवलोकित कर वे मृग थोड़े ही दिनों में इस दशा में परिणत हुए कि अपने शृंगों द्वारा आपके दयाद्र्र शरीर को खर्जित करते हुए मानों आपका बदला चुका रहे हैं। इसी प्रकार की पारस्परिक प्रेममयी प्रदर्शनी के देखते दिखाते कुछ समय सानन्द व्यतीत हुआ। परं आपने भ्रमण स्थगित कर यहाँ इसीलिये आसन स्थापित नहीं किया था कि कुछ काल सुख के साथ ही यापित होता रहे। और हमारे निमित्त से लोगों को अनुचित बुद्धि का परिवर्तन हो या न हो। प्रत्युत आपने तो किसी न किसी ढंग से विचित्र चेतावनी दे लोगों को वास्तविक मार्ग पर ला छोड़ने का संकल्प किया था। अतएव आपकी इच्छानुसार अवश्यम्भावी का चक्र भ्रमित हो विकट रूप धारण करने लगा। जिसके प्रबल वेग से आकृष्ट हृदय किसी प्रधान राजकर्मचारी की बुद्धि ने कर्तव्या कर्तव्य विमूढ़ता का आश्रय लिया। ठीक इसी हेतु से उचितानुचित कृत्य विचार शून्य वह राजकीय पुरुष अपने सहचारियों के सहित गोरक्षनाथजी के आश्रमस्थ पालित मृगों का आखेट करने के लिये वहाँ आया और यह अनुमान कर, कि इस समय गोरक्षनाथजी अपने नित्य कृत्य में प्रणहित चित होंगे, इधर-उधर निशंकभाव से तृण का अभ्यवहरण करते हुए मृगों को निमृति भाव द्वारा व्यथित करने लगा। यह देख उसके त्रास से त्रस्त हृदय विचारे मृग शीघ्र गति से प्रधावित हुए अपनी स्थली मंे आये। इधर श्रीनाथजी उसके प्रामत्तिक मन्तव्य के अनुकूल किसी ऐसे कृत्य में संलग्न नहीं थे कि मृगों का शैघ्रगतिक श्वास प्रश्वास प्रचलन पूर्वक सहसागमन देख उसके कारण की गवेषणा में उपेक्षा कर बैठते। प्रत्युत वे तो प्रथमतः ही इस अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। अतएव आपने मृगागमन पद्धति से कुछ अग्रसर हो ज्यों ही इधर-उधर प्रक्षिप्त की त्यों ही आपकी दृष्टि सहकारियों के सहित एक शाखा प्रशाखाओं से पृथिवी प्रसृत वृक्ष में छिपे हुए उस राज पुरुष पर पड़ी। जिसको देख उचित दण्ड से दण्डित करना आपने अपना कर्तव्य समझा और मन्त्रोच्चारण पूर्वक कुछ भस्मी उसकी ओर प्रक्षिप्त की। तत्काल ही मान्त्रिक भस्म प्रभाव से उसके एवं उसके सहचारियों के नेत्रों की पदार्थ प्रदर्शिका समस्त ज्योति प्रस्थानित हो गई। ज्योति के अपसरण से अब वे इस योग्य नहीं रह गये थे कि अपने आगतिक स्थान में चले जाते। अतः उनके अब आन्तरिक चक्षु खले। और अपने अपराध पर पश्चाताप प्रकट कर अपनी प्रमत्ता का उन्हों को स्मरण हो आया। अतएव  क्षमाप्रार्थी  हो  उच्च  घोषणा  द्वारा गोरक्षनाथजी की स्तुति सूचित करने वाले वाक्यों का प्रयोग कर उन्होंने अपने प्रायश्चित को उद्घोषित किया। परन्तु अपने मन्त्रात्मक शस्त्र का प्रयोग करने के अनन्तर श्रीनाथजी तो तत्काल ही आसन पर आ विराजे थे। फिर और कौन वहाँ बैठा था जो उनकी प्रार्थनानुकूल उन्हें फल प्रदान करता। इसी हेतु से कुछ देर तक प्रलाप करते रहने पर जब उनकी वाणी का प्रत्युत्तर उन्हें सुनाई न पड़ा तब तो उन्होंने अनुमान कर लिया कि नाथजी हमको दण्डित कर आसन पर अथवा देशान्तर में पर्यटन के लिये चले गये। अन्यथा हमारी प्रार्थना पर अवश्य कुछ न कुछ ध्यान देते। खैर इत्यादि कल्पना के उत्तर स्वकीय प्रार्थना की असफलता पर खेद प्रकट कर वे अब किसी रीति से प्रस्थान करने के उद्योग में प्रवृत्त हुए। परं इसमें भी वे व्यर्थ परिश्रम ही हुए। क्यों कि उन्होंने यद्यपि आनुमानिक ढंग से स्वकीय स्थानाभिमुख दिशा के उद्देश्य से कुद पादक्रम पर्यन्त अग्रसरण किया। तथापि सहसान्धकारावृत नेत्र दशा में गामनिक अभ्यासा भाव से वे अपने उद्योग में कृत कृत्य न हुए। और आखिर दुःखा कुल हो उन्हें एक जगह पर बैठ जाना पड़ा। सायंकाल हो आया। इन लोगों के अब तक वापिस न लौटने से उधर स्थानीय लोगों को इनके विषय की कुछ शंका उत्पन्न हुई। और जब प्रतीक्ष्य समय तक भी ये घर पर न पहुँचे तब तो अत्यन्त सशंक हो उन्होंने इनकी अन्वेषणा करने का विचार स्थिर किया। तथा कुछ क्षण के अनन्तर प्रस्थान भी कर दिया। जो इधर-उधर गवेषणा करते हुए वे इनके अधिष्ठित स्थल में पहुँचे और उनका विस्मापक समाचार देखकर आत्यन्तिक शोकात्मक समुद्र में निम्न हो हस्तों से हसत विमर्दित करते हुए अश्रुपात पर्यन्त के कृत्य में अवतरित हुए। यह देख इनका भी आभ्यन्तरिक हृदयात्मक सरोवर अपनी अवधि में स्थिति रखने के लिये असमर्थ हुआ और अपनी अश्रुरूप तरंगों को बहिर प्रेषित कर उन्वेषकों के कृत्य का अनुकरण किये बिना न रहा। खैर इनके विषय में विनाश काले विपरीत बुद्धि, आदि किं वदन्ति प्रवाद वाक्यों का प्रयोग करते हुए वे गृही लोग किसी प्रकार इन्हें घर ले गये और अग्रिम दिन बड़े समारोह के साथ विविध पूजा सामग्री ले अनेक राजकीय और प्रजा के लोग गोरक्षनाथजी की चरण सेवा में उपस्थित हो विनम्री भाव से अभ्यर्थना करने लगे। श्रीनाथजी ने उनकी प्रार्थना पर ध्यान देकर उन्हें आश्वासित किया। तथा साथ ही यह भी कहा कि तुम लोग एवं अन्य जो समीपस्थ ग्रामों में निवास करने वाले हैं सब इस बात को अच्छी तरह समझते हो कि ये मृग मेरे पाले हुए हैं। अतएव जान बूझकर अपराध करने वाले गर्बी मनुष्य के ऊपर क्षमा करना मानों नीतिज्ञान विषय में अपने आपको अनभिज्ञ सूचित करना है। इस कारण से मेरी इच्छा तो यहाँ तक है कि मैं इनको और भी दण्ड से युक्त कर दूँ। जिससे इनको तो मालूम हो ही जाय कि किन्तु दूसरों को भी, ज्ञातता होने पर भी आकाश पाताल को एक समझने वाला मनुष्य गर्व के आश्रय हो जो का पुरुषोत्तम अनुचित कार्य कर बैठता है उसकी कैसी गति हुआ करती है, यह जानने का अच्छा सौभाग्य मिल जाय। परन्तु तुम्हारे प्रार्थनानुरोध से मैं इतनी ही क्षमा करता हूँ कि चिन्तित द्वितीय दण्ड का प्रयोग करना स्थगित रखूँगा। यह सुन अन्धसंजात मृगयी मनुष्यों के कुटुम्बी और मित्र लोग आपके चरणारविन्द में गिर पड़े। एवं उन्होंने यहाँ तक विनम्रता प्रदर्शित की जिसके विवश हो श्रीनाथजी को उनकी प्रार्थना के अनुकूल होना पड़ा। क्यों कि आपका उन्हें अन्ध कर उनको और उनके कुटुम्बियों को महाकष्ट में डालने का ही कोई मुख्य प्रयोजन नहीं था। किन्तु उन लोगों की सीधे मार्ग पर लाना था। इसी कारण से आप शीघ्र तुष्ट हो गये और उनको सुसाध्य समझ कर प्रबोधित करने लगे कि अये, सद्गृहस्थो ! दैवी और आसुरी इन दो सन्तानों के ही प्रसिद्ध होने से तुम्हें मालूम है कि तुम्हारी कौन पक्ष में गणना हो सकती है। क्यों कि दैवी सन्तान का कोई भी विशेष गुण मुझे तुम्हारे में नहीं दीख पड़ता है। प्रत्युत उससे भिन्न समस्त वे गुण, जो आसुरी सन्तान में सम्भवित हो सकते हैं, तुम में विराजमान हैं। यही कारण है तुम लोग दैवी प्रकृति वाले पुरुषों से घृणा करने में एवं पशुओं में माननीय पशुओं तक को भक्ष्यस्थान बनाने में किंचित भी आगा पीछा नहीं देखते हो। कहो क्या तुम्हारा यह आचरण सर्वथा उचित है। यदि है तो तुम जिस प्रकार अपने प्रयत्न साध्य प्राणी पर स्वेच्छाचारी बन उसे महाकष्ट में परिणत कर डालते हो उसी प्रकार अपने प्रयत्न से साध्य समझ कर मैं तुम्हें कष्ट में नियुक्त कर दूँ तो क्या बुरी बात है। इसके विषय में तुमको पश्चाताप और कष्ट की निवृत्ति के लिये हम से प्रार्थना भी नहीं करनी चाहिये। यदि कहो कि हमारा आचरण प्रशंसनीय नहीं हो तुम्हें चाहिये आज से इस आसुरी प्रथा का परित्याग कर दो। कारण कि प्राणिहिंसात्मक प्रथा से मनुष्यों का अधःपतन होता है। हम नहीं चाहते हमारे विद्यमान होने पर भी मनुष्यों की ऐसी दशा हो। अतएव तुम लोग अपने और अपनी प्रजा के कल्याणार्थ यह नियम करो कि हम पशु हिंसा और अन्य देशीय मनुष्य हिंसा तथा योगी लोगों की ओर से घृणा करणात्मक निन्दनीय व्यवहार को स्वयं परित्यक्त कर अन्य प्रजाजनों से भी उसका परित्याग करायेंगे। क्यों कि मैंने इसी अभिप्राय को लेकर प्रथम तुम्हारे से परामर्श किया है कि राजकीय पुरुष जिस प्रथा की घोषणा करेंगे प्रजाजनों को दण्ड भयात् वह अवश्य स्वीकृत करनी पड़ेगी। हाँ हो सकता है कोई ऐसी बात हो कि उसके प्रचलित होने से मनुष्य समाज की अनल्प हानि होती हो तो प्रजाजन उसके परिचालक राजा की वह बात मानने को कभी उत्सुक नहीं होंगे। प्रत्युत राजा के बल प्रयोग करने पर उनका दिमाक ठिकाने आ जाता है जिससे राजा के लिये महान् अनिष्ठ के उत्पन्न होने की सम्भावना हो सकती है। परं यह बात वैसी नहीं है यह तो वह है जिसके ग्रहण करने से मनुष्य समाज की मनुष्य कोटि में गणना हो सकती है। अतएव मुझे विश्वास है इसके प्रचार में तुम्हें कोई बाधा उपस्थित नहीं होगी। यदि हुई भी तो उसका परिहार करने के लिये मैं स्वयं प्रकट हो तुम्हारा सहायक बनूँगा। बोलो और उत्तर दो जो कुछ मैंने कहा है यह तुम्हारे ध्यान में कैसा आता है। यह सुन राजपुरुषों ने आपके परामर्शानुकूल सम्मति प्रकट की। यद्यपि आसुरी सन्तानानुयायी प्राणिघातक मांसाशी मनुष्य इस प्रथा के परित्यागार्थ सहमत होने तो दूर रहे सम्भवतः कुछ उपद्रव कर बैठेंगे, इस बात का स्मरण कर राजपुरुष कुछ क्षुब्धचित्त हो गये थे परन्तु श्रीनाथजी का स्वयं उस समय सहायक होने का वचन सुनकर अब उनकी वह उपद्रवोत्पत्ति की सम्भावना जाती रही। इसीलिये उन्होंने बड़े उत्साह के साथ आपकी आज्ञा अंगीकृत कर उसके प्रचार करने की प्रतिज्ञा की। बस श्रीनाथजी तो यही चाहते थे। उनकी आनुलोमिक प्रतिज्ञा से आप अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और मृगयी मनुष्यों के ज्योतिर्विहीन नेत्रों को सज्योतिः करने के अनन्तर उपस्थित सब लोगों को आशीर्वाद प्रयुक्त कर वहाँ से प्रस्थानित हुए। उधर बद्ध प्रतिज्ञा राजकीय लोग भी अपने-अपने स्थानों में गये। एवं गोरक्षनाथजी की आज्ञा को कार्यरूप में परिणत करने के लिये जी जान से से प्रयत्न करने लगे। ठीक आज से ही इस देशीय मनुष्यों का, अन्य देशीय मनुष्य को बात की बात में मारकर अपना खेल समझना, एंव कतिपय प्राणियों में मूलिका आदि जैसी बुद्धि रखकर उनके भक्ष्य स्थान बनाने में किंचित् भी दोष न समझना, तथा दैवी प्रकृति वाले मनुष्य से नासिका संकुचित रखना, आदि अनुचित व्यवहार हल होने लगे। (अस्तु) अपने अभिलषित कार्य का प्रारम्भ कराकर श्रीनाथजी ने अपर देशाटन के लिये इस नैपाल देश से प्रस्थान किया। और अनेक पर्वतीय कन्दराओं मंे निवसित योगि समाज की प्रणामांजलि से सत्कृत होते हुए आप भुट्टानादि देशों को पार कर चीन देश में पहुँचे। यहाँ आपके प्रशिष्य, जिन्हों को बिन्दुनाथजी के द्वारा योगवित् होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, योगोपदेश का विस्तार कर रहे थे, उन्होंने आपका हार्दिक स्वागत किया। और अपनी उचित कार्य प्रणाली के हेतु से श्रीनाथजी को उन्होंने अपने विषय में प्रसन्न कर लिया। अतएव आपने उनको अनेक धन्यवाद प्रदान कर उचित युक्ति युक्त प्रैतिक वाक्यों द्वारा प्रोत्साहित किया। एवं अपने मार्ग पर अटल रहने की आज्ञा प्रयुक्त करने के अनन्तर यहाँ से भी गमन किया। जो ब्रह्मदेश में प्रविष्ट हो उसके प्रत्येक प्रान्त में भ्रमण कर आप उग्रा (हुगली) नदी से पार हुए। और पुनः आसाम, बंग, बिहार, उड़ीसा आदि देशों के भ्रमण को ध्यान में रखकर कुछ दिन के लिये आप इसी नदी के तट पर विश्रामित हो गये। यहाँ आपके विश्रामार्थ विशेष आग्रहकारी जो कतिपय योगी विद्यमान थे, जिन्होंने स्वकीय शिष्यों को योग साधनीभूत क्रियाओं में प्रेरित कर रखा था, उनके साथ स्वकीय उद्देश्य विस्तार विषय की विविध कथाओं का उद्घाटन करते कराते आपने निर्दिष्ट दिनों का अतिक्रमण किया। अन्तिम दिन उनके शिष्यांे को, तुम लोग दृढ़ विश्वासी और प्रयत्नशील बने रहना, भगवान् आदिनाथ तुम्हारे सहायक होंगे, जिससे तुम इस जन्म में अवश्य बाजी जीतोगे, इत्यादि उत्साह वद्र्धक वाक्य सुनाकर आप यहाँ से चल पड़े। और उक्त देशों के प्रत्येक प्रान्त में पर्यटन कर योग प्रचारात्मक स्वीयोद्देश की समालोचना में सफल प्रयत्न हुए। तदनु मध्य प्रदेशीय मुख्य-मुख्य स्थानों में होते हुए आप अमरकण्टक पर्वत पर आये। यहाँ भी ज्वालेन्द्रनाथजी के शिष्य तथा अन्य अनेक योगी निवास कर रहे थे उन्हों को आपके साक्षात्कार का सौभाग्य मिला। अतः इनको भी गुरुपदेश सार्थक करने के विषय में समाहित कर आप अग्रसर हुए और मद्र आदि देशों का उल्लंघन कर स्वीय प्रयत्न स्थापित कजली मठ में पहुँचे। यहाँ कुछ दिन विश्राम कर आपने अपने समग्र भ्रमण के फलाफल अवगमन किया। और योग प्रचार के विषय में सम्यक् दृष्टि डाल कर जब आपने उसकी तुलना की तब तो उस दशा में पाया जिससे आपके चित्त  की तुष्टी हो गई। अतएव आपने कुछ मास पर्यन्त आनन्द के सहित यहाँ निवास कर फिर उत्तर दिशा के अभिमुख प्रस्थान किया। जो कुछ दिन में इधर-उधर पर्यटन करने के अनन्तर श्री त्रिमुख के दक्षिण पश्चिम स्थल में विराजमान गौतमी गंगा के जनक ब्रह्मागिरिनामक पर्वत पर पदार्पण किया। इसी जगह पर आपका कारिणपानाथजी से, जो आपके कुछ ही दिन पीछे समाधि अवस्था से निःसंग हो चुके थे, मिलाप हुआ। पारस्परिक अभिवादन प्रत्यभिवादन के पश्चात् कारिणपानाथजी ने आपसे पूछा महाराज ! कहिये आप कौन-कौन प्रदेशों को पवित्र करते आ रहे हैं और उनमें अपने उद्देश्य प्रचार की कैसी दशा है। उत्तरार्थ श्रीनाथजी ने कहा कि यद्यपि मैं अन्य देशीय कुछ प्रान्तों और भारतीय पांचाल सिन्धु देशादि कुछ देशों को छोड़ सब देशों में भ्रमण करता हुआ चला आ रहा हूँ। तथापि ऐसा नहीं कि भ्रमणावशिष्ट देशों के प्रचार का मुझे समाचार न मिला हो। अतएव मैं दृष्ट और श्रुत सब के विषय में यह कह सकता हूँ कि आज दिन हमारे औद्देशिक प्रचार ने ऐसा प्रान्त कोई नहीं छोड़ा है जिसमें उसके साम्राज्य का डंका न बज रहा हो। यह सुन पारोक्षिक उपदेशकों के प्रयत्न पर कृतज्ञता प्रकट करते हुए कारिणपानाथजी ने आपके आल्हादक समाचार का समर्थन किया। तथा कहा कि यद्यपि मैं बहुत दिन से जागरित हो चुका हूँ तथापि किसी कारण वशात् यहीं पर निवास करते रहने से मुझे भ्रमण करने का सौभाग्य नहीं मिला। इसी कारण से मैं उक्त विषय में सन्दिग्ध था। धन्य भाग आप के दर्शन हुआ और मेरे सन्देह का अपसरण हुआ। यद्यपि यह तो निश्चय ही है कि किसी भी कार्य का प्रवाह सदा एक रस नहीं रहता है। तथापि हम नहीं सह सकते कि हमारे प्रचारक लोगों के उपस्थित रहते हुए ही उसकी दशां शिथिल हो जाय। श्रीनाथजी ने कहा कि तुम्हारा यह मन्तव्य प्रशंसनीय है। मैने भी इसी अभिप्रायभिमुख हो देशाटन के द्वारा प्रथम प्रचार का निरीक्षण करना उचित समझा और उसे पूरा भी कर डाला। सौभाग्य का विषय है उसकी दशा सन्तोष जनक प्राप्त हुई। जिसके विषय में पारोक्षिक प्रचारकों की बुद्धिमता के वास्तविक होने का अच्छा प्रमाण मिल सकता है। और उन्होंने अपने आपको अवधानित रखकर अपने उत्तरदायित्व के पूरा करने में जो अपरिमित साहस दिखलाया है इसके लिये वे असंख्य धन्यवाद के पात्र कहे जा सकते हैं। क्यों कि संसार में और फिर कलियुग में ऐसे मनुष्य अधिक नहीं हैं जो अपने उत्तरदायित्व को समझते हो। बल्कि मैं तो यहाँ तक प्रतिज्ञा करता हूँ कि मनुष्य में मनुष्यत्व है तो वह तभी है जब वह अपने उत्तरदायित्व को समझता है। नहीं तो वही मनुष्य संज्ञा मात्र का भाजन होने से पशु तुलना से युक्त किया जा सकता है। भविष्य में ऐसा ही समय आयेगा जिसमें सहस्रों के प्रति एक भी ऐसा मनुष्य मिलना दुष्कर होगा जो अपने उत्तरदायित्व को समझने वाला होने के साथ-साथ उसकी पूर्ति करने वाला भी होगा। अन्यथा उन्हीं अधिक लोगों साम्राज्य होगा जो स्वकीय उत्तरदायित्व के अनुकूल चल कर उसे पूरा करना तो दूर रहा उत्तरदायित्व शब्द के अर्थमात्र को भी न समझेंगे। यह दशा केवल स्वभावतः मोहरूप अन्धकारावृत गृही लोगों की ही नहीं उनकी भी होगी जो गृह त्यागी हुए अपने आप में योगी होने का अभिमान रखेंगे। अतएव वे लोग आचार जो प्रथम धर्म है उसका परित्याग कर अनाचारानुकूल त्याज्य पेय भक्ष्य पदार्थों में लोलुप हुए अपने अनधिकारित्व को सूचित करेंगे। यही नहीं यहाँ तक कि अहिंसाव्रत जो योगी का भूषण रूप है जिसके बिना योगी कहलाने योग्य नहीं हो सकता है उसका रहस्य न समझ कर ’ शस्त्र प्रयोग द्वारा वे स्वयं प्राणि हिंसा में दत्तचित्त होंगे। अधिक क्या योग साधनानुकूल प्रत्येक क्रिया के विपरीत ही आचरण किया करेंगे और महा कुत्सित संस्कारी उपरोक्तादि लम्पट रहने वाले लोग तो, जिन्हों से हमारे उद्देश्य के कलंकित होने का भय है, अमुक व्यवहार तो प्राचीन काल से ऐसे ही चला आ रहा है, इस प्रकार के हमारे तक दूषण लगाने वाले वाक्यों का उच्चारण करने के लिये अपने मलमिस मुख को झटिति खोल बैठेंगे। यह सुनकर कारिणापानाथजी बोले महाराज ! आपका अनुभव निःसन्देह अवश्यम्भावी है परं मेरी समझ में यह नहीं आता कि जब परम दयालु श्री आदिनाथजी ने मनुष्यों के ऊपर अपनी महती कृपा करके ही इस योग मार्ग को प्रचारित किया है तब योगियों की ऐसी दशा क्यों होगी कि वे योग का मर्म न जानकर उससे विरूद्ध कार्य करने लगेंगे। क्या श्रीमहादेवजी की मनुष्योपकारिणी कृपा क्षीण हो जायेगी। वा योगक्रियाओं का ही अन्त हो जायेगा। प्रत्युत्तरार्थ श्रीनाथजी ने कहा कि उक्त दोनों वार्ताओं में किसी का भी सम्भव न होने से एक तृतीय ही ऐसा कारण है जो उपरोक्त दशा को उपस्थित करता है और वह यह है कि जब सांसारिक त्रिविध दुःख से दुःखित हुए अधिक मनुष्य उस दुःख से मुक्ति पाने के अनुकूल मार्ग प्रदान करने के विषय में शुद्धान्तः करण से श्रीमहादेवजी की उपासना में दत्तचित्त होते हैं तब उनके उद्धारार्थ श्रीमहादेवजी अपने मार्ग का उद्घाटन करवाते हैं। उस मार्ग का प्रवाहित रहना न रहना मुमुक्षुओं के ऊपर ही निर्भर है। जब तक वे रहेंगे तब तक श्रीमहादेवजी के उपासक हो उस मार्ग में अनवरत गमन के द्वारा मुक्ति स्थान को समीप करते जायेंगे। परं जब मुमुक्षु ही न होंगे और इसीलिये वे श्रीमहादेवजी की शुद्धान्तःकरण से भक्ति भी न करेंगे तब क्षुधात्र्त हो रोदन किये बिना माता भी पुत्र को स्तनपान नहीं कराती है, तो श्रीमहादेवजी उन पापियों को अपना मार्ग दिखलाने के लिये क्या निष्कार्य बैठे हैं। कुछ मुस्कराते हुए कारिणपानाथजी ने कहा कि महाराज ! यह तो ठिक है परन्तु उन भविष्यमाण योगियों के उक्तादि अनुचित कृत्यों से अपनी और श्रीमहादेवजी तक की भी हानि हो सकती है। क्योंकि आखिर तो वे हमारे ही अनुयायी होंगे। श्रीनाथजी ने कहा कि उस कालिक योगियों का उचित व्यवहार तो यह है कि अनधिकारी को शिष्य होने के विषय में कभी आश्रय न दें। यदि किसी ने दिया भी और उससे उसी के अनुकूल कुत्सित कर्मियों की प्रणाली चल भी पड़ी तो उनको हमारे अनुयायी नहीं समझना चाहिए। हमारे अनुयायी वे ही हो सकते हैं जो निरन्तर हमारे द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर डटे रहते हैं। बल्कि भविष्यमाणों के लिये हमारी यह सूचना समझनी चाहिये कि वे हमारे मार्ग में पूरा विश्वास रखते हों और उसमें डटे रहने की पूर्ण दृढ़ता भी रख सकते हों तो हमारे अनुयायी बनने का साहस करें। अन्यथा उन्हें अधिक हानि उठानी पड़ेगी। कारिणपानाथजी ने कहा भगवन् ! जब उस समय अधिकारी न रहेंगे और अनधिकारियों को आपकी आज्ञानुसार शिष्य नहीं किया जायेगा तब तो कुछ ही दिन में योगियों का नामो निसान तक न रहने से यह समाज ही लुप्त हो जायेगा। अतः इसके स्मारक कुछ अनधिकारी भी ग्राह्य समझे जायें तो क्या हानि की बात है। श्रीनाथजी ने बतलाया कि जो भावी है वह समीप से नहीं जाती है। अतएव तुम्हारे इस कथन के ही अनुगामी हुए योगी लोग अनधिकारियों को शिष्य बनायेंगे। परन्तु हम इस बात के लिये कभी सहमत नहीं हो सकते हैं। क्यों कि कुछ भी छिद्र रह जाने से महान् अनर्थोत्पत्ति की सम्भावना है। कारण कि मर्यादा भंग होने पर लोगों को शिष्य बनाने का सन्तोष न रहेगा। ऐसा होने से अनधिकारियों के प्राधान्य का साम्राज्य उपस्थित होगा। बस फिर क्या है जिसका जोरा उसी का गोरा वाली कहावत चरितार्थ हो जायेगी। सीधे मार्ग में चलने वाले और योग्य प्रस्ताव करने वाले किसी एकाध महानुभाव की बात उन उन्मादियों के बीच मंे कुछ पेस नहीं जायेगी। अतएव तात्कालिक योगियों को इस विषय में जहाँ तक हो सकै सावधान रहने की आवश्यकता है। रह गई सम्प्रदाय लुप्त होने की बात यह कहना, केवल कथन मात्र ही है। कारण कि पत्र न रहने से वृक्ष का अभाव नहीं प्रत्युत वृक्ष न होने से पत्रों का अभाव हो सकता है। ठीक इसी के अनुकूल जब वृक्ष रूप आप लोग चिरस्थायी हैं तो सम्प्रदाय का लुप्त होना सम्भव कैसे हो सकता है। हां इतना अवश्य है कि आप लोगों के सर्व साधारण की दृष्टिगोचर न होने से कुछ अज्ञानी लोग योगियों का अभाव मान बैठेंगे। परं आखिर वे अज्ञानी ही ठहरे। अतः ऐसे मनुष्यों का कुछ मानना न मानना आप लोगों के किसी काम का नहीं। यह सुन कारिणपानाथजी ने आपके अभिमत का समर्थन करते हुए हर्ष प्रकट किया। और अपने उन शिष्यों की ओर, जिनको योग शिक्षा देने के लिये अपना भ्रमण स्थगित कर रखा था, आपका ध्यान आकर्षित किया। श्रीनाथजी ने अपना कर्तव्य पालनार्थ उनको सम्बोधित करते हुए कहा कि महानुभावों ! ईश्वरीय सर्गान्तर्गत मनुष्य नामधारी असंख्य ऐसे जीव हैं जो प्रलय पर्यन्त जन्म मरणात्मक परम्परा से विमुक्त नहीं होते हैं। ऐसी दशा में यदि वे, हम भी जन्मे हैं, इस प्रकार का अभिमान रखें तो उनका वह अभिमान झूठा तथा आज्ञानिक है। क्यों कि जन्म का अर्थ जागरित हो अपने आपको उस स्थान तक पहुँचाना है जहाँ यमराज का राज्य नहीं है। अतः जिसने उस स्थान को प्राप्त किया है वही जन्मा अन्य सब मृतक अवस्था में समझने चाहिये। परं सौभाग्य की बात है तुम लोगों ने इस रहस्य को अच्छी प्रकार समझ लिया है और यमराज के राज्य की सीमा से बहिर होने के लिये हमारे मार्ग का अवलम्बन किया है। स्मरण और विश्वास रखो ! योगेन्द्रों का आश्रय ग्रहण करना कभी निष्फल नहीं हो सकता है। उत्तरोत्तर वैराग्य और उत्साह का परिचय दिया तो तुम लोग अवश्य उक्त स्थान की उपलब्धि कर अपने आपको जन्मित पुरुषों की गणना में सम्मिलित कर सकोगे। आपके इन हर्षवद्र्धक वाक्यों ने उनको रौमांचिक दशा में पहुँचा दिया। अतएव वे आपकी अपने ऊपर होने वाली कृपा के विषय में कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए आपके चरणाविन्द में प्रसृत हुए। तथा कहने लगे कि भगवन् ! कौन ऐसा मन्दभाग्य पुरुष है जो आपकी महान् अनुग्रहात्मक नौका के प्राप्त होने पर भी अनेक कष्टों का अनुभव करने के जिये संसारार्णव के इसी तट पर बैठा रहे। हमको तो निश्चय और दृढ़ निश्चय है कि आपकी कृपा नौका के द्वारा हम संसार सागर से अवश्य पार हो जायेंगे। उनके इस कथन से आप अत्यन्त प्रसन्न हुए। और उनको स्वकीय गृहीत क्रियाओं में प्रविष्ट हो जाने की आज्ञा दी। वे शीघ्र ही आदेश-आदेश आत्मक प्रणाम से आपको सत्कृत कर अपने-अपने आसनों पर स्थित हो प्रारम्भिक कृत्य में दत्तचित्त हुए। उधर श्रीनाथजी ने प्रस्थान करने के लिये कारिणपानाथजी से आज्ञा मांगी। उन्होंने अकस्मात् दर्शन देने और शिष्यों को उत्साहित करने के विषय में अनेक प्रशस्य वाक्यों द्वारा कृतज्ञता प्रकट करने के अनन्तर बड़े ही विनम्र भाव से आपको विदा किया। आप ब्रह्मागिरी से प्रस्थानित हो बहुत काल पर्यन्त इधर-उधर भ्रमण करने के पश्चात् युधिष्ठिर सम्वत् 2960 में तोरनमाल नामक पर्वत पर पहुँचे। यह पर्वत अमरकण्टक के समीप नर्मदा से करीबन पन्द्रह कोश की दूरी पर विराजमान है। अतएव इसके रमणीय और सर्व प्रकार से अनुकूल होने से अपने कार्य की सिद्धि के अवसर तक आपने यहीं निवास करना निश्चित किया। 
इति श्री मद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ भ्रमण वर्णन । 

No comments:

Post a Comment