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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Sunday, June 30, 2013

श्री गोपीचन्दनाथ चम्पावती मिलापवर्णन

आप इस बात से परिचित हो चुके हैं कि श्रीज्वालेन्द्रनाथजी गोपीचन्द को बदरिकाश्रम में ले गये थे। साथ ही वे इसको क्यों और किस उद्देश्य से ले गये थे आप लोग इस बात से भी अविदित नहीं है। तथा इस बात से भी अविदित नहीं हैं कि गोपीचन्द प्रथमतः ही अयोगी नहीं था जिसके लिये दीक्षा प्रदान करने में ज्वालेन्द्रनाथजी का अधिक समय नष्ट होता। प्रत्युत वहतो प्रथमतः ही योगेन्द्र पद ’ पर पहुँच चुका था। उसका गुरु धारण कर शिक्षा लेना निमित्त मात्र था। अतएव वह थोड़े ही दिनों में ज्वालेन्द्रनाथजी के उपदेश को सार्थक कर उनकी अनल्प कृपा का पात्र बन गया। और गुरुजी के परामर्शानुसार स्वतन्त्र रूप से देशाटन करने लगा। उधर चम्पावती नाम की बहिन जो चीनाबंगाल में विवाही हुई थी गोपीचन्द का योगी हो जाना श्रवण कर इतनी अधिक क्लेशित हुई थी जिसने भोजन कम कर मरणा तक ठान लिया था और हा भ्रातः ! हा गोपीचन्द ! हा गोपीचन्द ! दिन-रात यही रटती रहती थी। उसके इस दुःख से दुःखी हुए उसके पति राजा साहिब का सब राज्य कार्य शिथिल होता जा रहा था। इसी हेतु से उसने अपने परम दुःख से सम्पूरित कई एक सूचनायें गोपीचन्द के पास भेज रखी थी। तथा उनके द्वारा उसने प्रार्थना की थी कि आप कृपाकर एक बार इधर आयें और मेरा कष्ट निवारण करें। यदि आप इस प्रार्थना की उपेक्षा करेंगे तो आप की बहिन, जो आपकी इस वेष स्वीकृति को सुन मारे क्लेश के अतीव कृश हो चुकी है, कुछ दिन में प्राण त्याग कर देगी। जिसके अनन्तर मेरा भी प्राण पक्षी के रूप को धारण कर बैठे तो कोई असम्भव बात नहीं है। इसीलिये आपको चाहिये कि शीघ्र इधर आ अपने दर्शन से हमको कृतार्थ करें। और अपने ऊपर पड़ने वाले इन दो मृत्युओं के भार से अपने आपको मुक्त करें। इस प्रकार की हृदय बिदारक सूचनाओं के मिलते रहने पर भी गोपीचन्दनाथजी ने ज्वालेन्द्रनाथजी की दीक्षा में अधुरा रहने के कारण उधर ध्यान नहीं दिया था। अब जबकि गुरुजी की शिक्षा से पारंगत हो स्वैर गति से भ्रमण करने लगे तब आपके उस बात का स्मरण हो आया। और अधिक देर तक के सोच विचार से आपने एक बार उधर जाना ही समुचित समझा। ठीक इसी मन्तव्य के अनुसार गोपीचन्दनाथजी ने चीना बंगाला की ओर प्रस्थान किया। जो कुछ दिन के अनवरत गमन से आप उस देश की राजधानी में पहुँचे। नगरी की कुछ दूरी पर एक तालाब के ऊपर आपने अपना आसन स्थिर किया, कुछ देर में भोजन का समय भी आ उपस्थित हुआ। यह देख हस्त में पात्र धारण कर अलक्ष्य पुरुष के नाम की घोषणा करते हुए आप नगर में प्रविष्ट हुए। और अन्यत्र क्षुधा पूर्ति करने के अनन्तर स्वकीया भगिनी चम्पावती के राजप्रासाद में पहुँचे। यहाँ बहिर भीतर जाने आने वाले कितने ही ऐसे पुरुष थे जिन्होंने राजकीय ठाठ से आपको एक बार देखा हुआ था। और उनको यह बात भी मालूम थी कि गोपीचन्द योगी हो चुका है। तथापि वे इस दूसरे रूप से आपका परिचय न पा सके। उन्हों का मन्तव्य था कि गोपीचन्द राजा है यदि वह योगी भी हो गया तो किसी अनूँठे ढंग से ही रहता होगा। न कि भिक्षुओं की तरह। अतएव इससे आपको अपनी इच्छा के अनुसार प्रासाद का प्रथम द्वार उल्लंघित करने का सुभीता तो मिला परन्तु अन्तःपुर की खास डोढी तक नहीं जाने पाये। द्वारी पुरुषों ने आपको उसी जगह खड़े रह कर याचनेय घोषणा करने की आज्ञा दी। जो अन्तःपुर में प्रविष्ट हो राणियों के श्रोतगत हुई। यह सुन कर रीत्यनुसार दासी भोजन के कर महल से नीचे आई। परं गोपीचन्दनाथजी ने उसकी भिक्षा को अस्वीकृत करते हुए कहा कि मैं तेरे हस्त की नहीं महाराणी के हस्त की भिक्षा ग्रहण कर सकता हूँ। उसने उत्तर दिया कि जब हम इस काम के करने वाली उपस्थित हैं जो इसी उद्देश्य से रखी हुई हैं और उसका वेतन खाती हैं तब उसको कौन जरूरत पड़ी जो वह स्वयं हमारे इस काम को करने के लिये तैयार होगी। इस वास्ते लो भिक्षा लो और अपने रास्ते लगो। आपने कहा कि उसको नीचे आने और भिक्षा देने की जरूरत नहीं है तो हमको तुम्हारे हस्त की लेने से भी कोई जरूरत नहीं है। यह सुन वह देखती रह गई। आप भिक्षा लिये बिना ही अपने आसन स्थान में आ विराजे। इसके अनन्तर अन्तिम दिन आया। और वही अवसर उपस्थित हुआ। आप फिर भिक्षार्थ नगर में गये। और अन्य जगह पर भोजन करने के बाद प्रासाद में पहुँचे। तथा उसी जगह पर स्थित हो आपने अलक्ष्य शब्दोच्चारण किया। जिसको श्रवण कर वही दासी भिक्षा ले नीचे उतरी। एवं आपके समर्पण करने को अग्रसर हुई। तत्काल ही फिर आपने कहा कि मैं महाराणी के अतिरिक्त किसी के हस्त की भिक्षा ग्रहण नहीं करूँगा। यदि वह आ कर भिक्षा प्रदान करे तो ठीक नहीं तो हम कल की तरह वापिस लौट जायेंगे। बांदी ने कहा कि महाराज ! खैर कल तो मैं इस बात को नहीं कहना चाहती थी परन्तु आज अवश्य कहूँगी कि आप मुझे यथार्थ नहीं कृत्रिम और योगी नाम को कहीं न कहीं कलंकित करने वाले योगी मालूम होते हैं। आपका मुख्योद्देश यदि क्षुधा पूर्ति के लिये भोजन लेने का है तो कोई भी दे उसमें आपको इतनी आपत्ति क्यों करनी चाहिये। प्रत्युत सादर ग्रहण कर अपने हार्दिक आशीर्वाद से दाता का उत्साह बढ़ाना चाहिये। इसके अतिरिक्त यदि भिक्षा के बहाने से राणी के विषय में ही किसी अनुचित व्यवहार के अनुष्ठान करने का उद्देश्य हो तो मेरे अनुमान में रत्ती भी झूठ नहीं है। तुम अवश्य जैसे मैंने बतलाये हो वैसे ही हो। भला कोई तुमसे पूछे कि राणी से तुम्हारा क्या प्रयोजन है और वहाँ यहाँ कैसे आ सकती है तो तुम क्या उत्तर दे सकते हो। यदि दे सकते हो और कोई खास कार्य है तो वह मुझसे ही कहो मैं उसके सम्मुख जा कहूँगी। जिससे तुमको यथार्थ उत्तर मिल जायेगा। यदि ऐसा कोई कार्य नहीं है और उसके न होने से कुछ उत्तर भी न दे सकोगे तो उसका फल यह होगा कि तुम्हें छùवेषी असभ्य मनुष्य समझ कर राजपुरुष कारागार में ठूँस देंगे। यह सुन गोपीचन्दनाथजी ने कहा कि खैर जो कुछ हो सो होता रहे हम भिक्षा तो उसी के हस्त की लेंगे। यदि वह आये तो बतलाओ नहीं तो हम जाते हैं। बांदी अच्छा जाओ यह कहती हुई महल पर चढ़ गई। इधर आप अपने आसन पर आ गये। परन्तु आपके इस दो दिन के खेलने दासी के चित्त में कुछ विचारणा उत्पन्न कर दी। इसीलिये उसने स्थिर किया कि इस विषय में कोई गूढ़ रहस्य छिपा हुआ जान पड़ता है। क्यों कि उस योगी के इस व्यवहार से तो मेरा अनुमान ठीक हो सकता है कि वह कोई वंचक होगा। परन्तु उसके शारीरिक समस्त दृश्यों से कोई असाधारण मनुष्य लक्षित होने से मेरा अनुमान अपने आप खण्डित हो जाता है। खैर जो भी कुछ हो मैं महारानीजी को इस वृत्तान्त से परिचित करूँगी। इस निश्चय के अनुसार सायंकाल के समय जब कि वह महाराणी चम्पावती की विशेष सेवा में उपस्थित हुई तब उसने दोनों दिनों का समाचार उससे कहा। दासी के ये अमृतायमान अक्षर सुनते ही चम्पावती ने सहसा चकित सी होकर कहा अये ! कभी भाई ही आ गया हो। देखना यह बात खूब याद रखना कि कल जब वह योगी आवे तब उसे प्रथम मुझ को दिखलाना। जब वह मेरे ही हस्त से भिक्षा लेना स्वीकार करता है तो अवश्य कुछ न कुछ विशेष बात है। इस पर दासी ने कहा कि उसकी शारीरिक कान्ति से तो मुझे ऐसा दीख पड़ता है कि शायद आपका ही अनुमान सच्चा निकलेगा। यदि वह अच्छे वस्त्र और आभूषणों से सज्जित हो जाय तो कहना ही क्या है, भस्मी रमायें ही इतना सुन्दर मालूम होता है जितने वस्त्रालंकार के सहित हमारे महाराजा भी नहीं हैं। यह सुन चम्पावती के अनुमान की और भी पुष्टि हो गई। वह अपने आभ्यन्तरिक भाव से ईश्वर को अनेक धन्यवाद देती हुई उससे, भगवन् ! ऐसी कृपा करना कि वह मेरा भाइ्र गोपीचन्द ही निकलें, ऐसी प्रार्थना करने लगी। तथा इतनी गौ दान करूँगी, इतना अमुक द्रव्य अमुक जगह पर लगाऊँगी, इतना अमुक जगह पुण्य करूँगी, इत्यादि संकल्प कर इच्छापूर्ति होने पर इस बात का स्मारक कोई चिन्ह स्थापित करने लगी। इस प्रकार कल्पित मोद-प्रमोद से उसने रात्री व्यतीत की। उधर धीरे-धीरे वह अवसर भी समीप आ गया, चम्पावती दासी के निर्देशानुसार गवाक्ष में बैठी हुई टकटकी लगाकर योगीजी के आने की प्रतीक्षा करने लगी। ठीक इसी समय अलक्ष्य शब्द का उच्चारण कर आप प्रासाद के आगण में आ कर खड़े हुए। उधर से चम्पावती की मृगनेत्री दृष्टि आपके ऊपर पड़ी। बस दृष्टि का पड़ना ही था उसने शीघ्र आज्ञा दी कि दासी जाओ प्रहरे वालों को इस वृत्तान्त से अवधानित कर उसे यहाँ बुला लाओ, वह मेरा प्रिय भ्राता गोपीचन्द ही है। बहुत अन्याय किया उस दिन से ही मुझे नहीं बतलाया। आज तीन रोज व्यतीत हो गये। वह क्षुधा से अत्यन्त बाधित हो गया होगा। अये भाई ! सहस्रों मनुष्य तेरी सेवा में उपस्थित रहते थे आज तेरी यह दशा तीन-तीन दिन भूखा ही रहता है। वह इत्यादि अनेक शब्दों का उद्घाटन करती हुई तड़फती रही। उधर दासी तत्काल नीचे उतर द्वारी पुरुषों को विज्ञापित कर गोपीचन्दनाथजी को अपनी साथ ले ऊपर पहुँची। आपको सम्मुख आते देखकर चम्पावती के लिये आज समस्त संसार, जो जलमय और शून्य दिखाई देता था, मंगलमय और सत्य प्रतीत होने लगा। जिसके दर्शनाभाव में वह अपने प्राणों को विसर्जित करने वाली थी आज उसे सम्मुख पाकर उसके मोहाग्नि विदग्ध हृदय को कुछ शान्ति प्राप्त करने का अवसर मिला। यह वह समय था जिसमें उसने अपने आपके विषय का, मैं क्या हूँ और कहाँ क्या कर रही हूँ, इत्यादि परिज्ञान विस्मृत कर दिया था। तथा वह आत्यन्तिक रोमांच दशानिष्ठ हुई दीन की तरह चेष्टा कर आपके गले से अवलम्बित हुई। चम्पावती का यह दृश्य बड़ा ही हृदय विदारक था। संसार के इतिहास में वास्तविक पुत्र प्रेम दिखलाकर जिस प्रकार मैनावती ने यशस्वी उच्चासन प्राप्त किया उसी प्रकार भ्रातृ प्रेम में चम्पावती का भी प्रथमासन समझना चाहिये। इस समय गोपीचन्दनाथजी के साथ मिलाप करते हुए उसने जो हृदय भेदी दृश्य उपस्थित किया है उसको सम्यक्तया प्रस्फुट कर मैं अपने प्रिय पाठकों का मर्म दुःखी करना नहीं चाहता हूँ। केवल इतना ही कहकर शान्त होता हूँ कि इसका भ्रातृप्रेम अत्यन्त श्लांघनीय और अद्वितीय था। इसमें यदि प्रमाण की आवश्यकता हो तो वह यही हो सकता है कि भ्रातृदर्शनाभाव मेें इसने अपने प्राण तक त्यागने का संकल्प कर लिया था। कर ही नहीं लिया था बल्कि उसको इस श्रीमती ने पूरा भी कर दिखलाया। जो कुछ ही देर में आप लोगों की दृष्टिगोचर होगा। ऐसा भ्रातृप्रेम आज पर्यन्त किसी अन्य ने भी किया हो यह भारतीय किसी इतिहास में नहीं पाया और सुना जाता है। रामायणादि से सूचित होता है कि रामचन्द्रजी के वियोग में भरत ने अपने आपको अत्यन्त क्लेश में डाल दिया था। और अपने शरीर को व्यर्थ तक बतलाया था। परं वह अपने प्राण खोने तक उद्यत हुआ हो वा खो बैठा हो ऐसा नहीं हुआ। (अस्तु) बहुत दिनों के अन्तरवरूद्ध प्रेमाश्रुओं के बहिर निकलने पर चम्पावती को कुछ कहने सुनने का साहस प्राप्त हुआ। उसने मोहाभिभूत विचार से कहा कि भ्रातः ! ये प्रवृद्ध शिरकेश, जो तुमको सुशोभित नहीं करते हैं कुछ कम कराकर स्नान करो। और अच्छे वस्त्र धारण करो। जिससे तुम्हारी आकृति राजकीय वास्तविक स्वरूप में परिणत हो। यह सुन आप कुछ मुस्करायें। एवं कहने लगे कि अब तो मेरा यही वास्तविक स्वरूप है। यदि मैं इसका परिवर्तन कर डालूँ तो संसार में वर्ण संकरता के दोष से लिप्त हो सकता हूँ। इसलिये यह स्वरूप तो मुझे सर्वथा रूचिकर होने के साथ-साथ यावज्जीवन धारण करने योग्य है। इसके हेतु से यदि बाह्य दृष्टि द्वारा मैं शोभित नहीं होता हूँ तो आन्तरिक दृष्टि द्वारा अवश्य शोभा पाऊँगा। चम्पावती ने सादर मुखावलोकन करती हुई ने कहा कि भाई यह विचार तुमको किसने सिखला दिया। भला हस्त में प्राप्त हुए मोदक को परे फैंककर अन्य के मिलने की आशा रखने वाले मनुष्य को संसार में कौन पुरुष सुबुद्धि बतलाने का साहस करेगा। प्रत्युत समस्त पुरुष उसे मन्दबुद्धि वा बुद्धिशून्य कहने को अग्रसर होंगे। ठीक यही दशा तुम्हारे मन्तव्य की है। तुम ईश्वरीय महती अनुकूल कृपा से उपलब्ध स्वर्गोपम खाद्यधार्य पदार्थों को अनंगीकार कर भस्मी आदि आभूषणों के द्वारा भी उच्च स्थान प्राप्त करने के भ्रम में पड़ गये हो। खैर मान लिया कि कोई मनुष्य सांसारिक अन्यथासिद्ध झगड़ों में विशेष समय व्यतीत न कर ईश्वरीयाराधन से अपने आपको अधिक पवित्र एवं गौरवशाली बनाना चाहता है तो क्या वह असभ्य खाने पहरने के द्वारा शीघ्र तथा अवश्य अपनी इस इच्छा की पूर्ति देख सकेगा, नहीं। प्रत्युत मेरी समझ में तो वह दयानिधान भगवान् के दिये हुए उत्तम पदार्थों में घृणाकर इस लोक में उपालभ्य हुआ पारलौकिक ईश्वरीय दरबार में अपने तिस्कृत होने का उपाय कर रहा है। और ईश्वर को प्रसादित करने के बदले असंतुष्ट कर रहा है। जबकि कोई भी मनुष्य अकिंचन हो बनोवासी हो गया तब उसके समीप ऐसी सामग्री ही क्या रह गई जिसके द्वारा वह प्रथम अपने चित्त को प्रसादित कर ईश्वर के प्रसन्न होने का सौभाग्य देख सकै। तुम ही सोचो और विचार करके देखो राजत्व प्राप्ति काल में तुम अपनी इच्छानुसार अनेक गौ तथा प्रभूत द्रव्य दान करते थे जिससे अनेक मनुष्यों की आत्मायें सन्तुष्ट होती थी। और सम्भव था कि इसी कृत्य से तुम जीवनभर में एक असाधारण गौरव गरीमा से युक्त हो जाते। क्यांे कि वही परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है। इनके प्रसन्न करने से उसकी प्रसन्नता अवशिष्ट नहीं रह जाती है। अतएव तुम्हारा भगवान् के चरणाविन्द से यदि अधिक प्रेम हो गया है। और अपनी राजधानी मंे नहीं रहना चाहते हो तो यहाँ रहो। ईश्वर की प्रसन्नतार्थ चाहो जितना दान पुण्य करो। अच्छे वस्त्राभूषण धारण कर शरीर को सुख दो। आपने कहा कि बहिन चम्पावति ! तू भूल रही है। अच्छा होता यदि तू माताजी के सकाश से कुछ वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लेती तो, जिससे तुझे सांसारिक व्यवहार विषय का अच्छा परिचय हो जाता। और साथ ही यह भी मालूम हो जाता कि ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये किन-किन सामग्रियों की आवश्यकता है। तुझे तो इतना ही मालूम और रूचिकर है कि दान, पुण्य से ईश्वर सन्तुष्ट होता है। परन्तु यथार्थ में यह बात नहीं है। कारण कि इससे मनुष्य का ऐहलौकिक उत्कर्ष बढ़ता है। यदि वह छोटा राजा हुआ तो विशेष दान-पुण्य से अग्रिम जन्म में कुछ बड़ा हो जायेगा। बड़ा होने पर भी अधिक दान किया तो मण्डलेश्वर बन जायेगा। इतना होने पर भी लम्बा चैड़ा हस्त फैंका तो स्वर्गवासी हो जायेगा बस अन्त आ गया। इससे आगे तो कहीं जाने की जगह ही नहीं है। बल्कि कुछ काल में वह पुण्य जब भोग द्वारा शान्त हो जायेगा तब क्रमशः वापिस ही लौटना पडेगा। जिससे अपने स्वर्गीय भोगों को हस्त से जाते देख उसको अकथीनय दुःख उठाना पडे+गा। बस दान पुण्य से होने वाली ईश्वरीय प्रसन्नता का यही मूल्य है। मैं नहीं चाहता कि मैं ईश्वर को ऐसे ढंग से प्रसन्न करूँ जिसकी प्रसन्नता का यही मूल्य है। मैं नहीं चाहता कि मैं ईश्वर को ऐसे ढंग से प्रसन्न करूँ जिसकी प्रसन्नता कुछ दिन आगे पीछे ऐसी ही दुःखदायिनी बनी रहै। किन्तु मैं इसी ढंग से, जिसका कि अवलम्बन कर चुका और कर रहा हूँ, उसको प्रसन्न करना समुचित समझता हूँ। इसके अतिरिक्त दान-पुण्य से होने वाली ईश्वरीय प्रसन्नता का लोगों को जो अभिमान होता है वह भ्रमात्मक है। यथार्थ में वह प्रसन्नता कहलाने योग्य नहीं है। कारण कि यह भी एक ईश्वरीय नियम है जो मनुष्य जिसे वस्तु का ’ दान करता है उसकी वह वस्तु अथवा उसके अनुकूल अन्य वस्तु द्विगुणी चतुर्गुणी हो उस मनुष्य को उसी वा अग्रिम जन्म में वापिस आकर प्राप्त होती है। जिससे वह मनुष्य सांसारिक दृष्टि से विशेष सत्कार पाता है। उसको प्रभूत धन, द्रव्य का स्वामी समझ कर भाग्यशाली बतलाते हुए लोग यह भी कह डालते हैं कि इसके ऊपर ईश्वर प्रसन्न है। परं ध्यान रखना ऐसा कहने वाले भूल करते हैं। ईश्वर की प्रसन्नता मनुष्यों की तरह कुछ काल में क्या से क्या हो जाने वाली अथवा किम्प्रयोजन नहीं है। जिसको लोग ईश्वरीय प्रसन्नता का पात्र बतालते हैं वह सदा लक्ष्मी का भाग नहीं करता है। क्यों कि इसका तो नाम ही चंचला है। सर्वदा एकत्र स्थित नहीं करती है। फिर क्यों ऐसा क्यों हुआ।  ईश्वर के प्रसन्न होने पर भी उस मनुष्य की यह दशा हुई तो इस प्रसन्नता को मनुष्यों जैसी और निष्फल मानना पड़ेगा। जो सर्वथा अनुचित है। अतएव उसे इस निष्फलत्व दोष से मुक्त करने के लिये यही स्वीकार करना चाहिये कि उक्त कृत्यों से ईश्वर मनुष्य के ऊपर प्रसन्न नहीं होता है। तो फिर किस ढंग से मनुष्य के ऊपर वह प्रसन्न होता है और उसकी वह प्रसन्नता कैसी होती है यदि यह पूछना चाहो तो मैं यह उत्तर दे सकता हूँ कि जिस ढंग को मैंने अवलम्बित किया है इससे होता है। अर्थात् जो मनुष्य मेरी तरह सर्व त्यागी होकर सांसारिक भोग्य विषयों की ओर से इन्द्रियों का निरोध करता हुआ गुरु द्वारा उपलब्ध की विधि के अनुसार समाधिनिष्ट हो उसमें और अपने में अभेद उपस्थित करना चाहता है उस मनुष्य पर ईश्वर प्रसन्न होता है। और प्रसन्न होता हुआ उसको अन्य कुछ न दे अपना स्वरूप ही प्रदान करता है। जिसको प्राप्त हो मनुष्य संज्ञक जीवात्मा उसमें इस प्रकार लीन हो जाता है जिस प्रकार जल में लवण हुआ करता है। बस यही ईश्वर की यथार्थ प्रसन्नता है। जिसके प्राप्त होने पर फिर कभी मनुष्य नामक जीवात्मा को सांसारिक दुर्दशा नहीं देखनी पड़ती है। रह गई तुम्हारी मेरे अकिंचन होकर वनोवासी होने की बात, यह तुम्हारा कहना झूठ नहीं मैं अवश्य बन पर्वनवासी हूँ। और मुझे रहना भी वैसी ही जगह रूचिकर है। क्यों कि मेरा कार्य ही ऐसा है जो ऐसे ऐकान्तिक स्थान की अपेक्षा रखता है। परं मुझे अकिंचन समझना सत्य नहीं है। हाँ इतना अवश्य है कि बाह्य दृष्टि से लोगों को मैं अकिंचन अर्थात् निर्धन मालूम हेाता हूँगा। तथापि वे आभ्यन्तरिक दृष्टि से देखें वा मुझे ही कोई पूछै तो मैं कभी अपने को निर्धन नहीं बतला सकता हूँ। क्यों कि उन द्रष्टा लोगों के पास तो शायद लौकिक ही धन की आवश्यकता हो और इस विषय में मुझे परीक्षित करना चाहता हो तो हमारा अनुयायी बने। और देखे कि मेरे कथन में सत्यता की कितनी मात्रायें हैं। इसके अतिरिक्त यदि लौकिक धन की आवश्यकता हो तो अभी मैं दे सकता हूँ तुम्हें चाहिये तो मांगो और निश्चय करो कि मैं तुम्हारे मन्तव्य के अनुकूल दरिद्री बन गया अथवा सब कुछ भरपूर बन गया हूँ। यह सुन चम्पावती आभयन्तरिक भाव से अत्यन्त प्रसन्न हुई। और मनन करने लगी कि भाई सचमुच यदि इस पद पर पहुँच चुका है तो यह कहने का प्रयोजन नहीं कि इसने राज्यपाठ का परित्याग करके योग मार्ग का अवलम्बन करने में प्रमत्ता की है। प्रत्युत वह कार्य किया है जिससे यह दोनों लोकों में सत्कार की दृष्टि से देखा जायेगा। तथापि मुझे चाहिये कि मैं इसकी सिद्धि का परिचय लूँ। जिससे दो वार्ताओं का लाभ होगा। प्रथम मेरे सन्दिग्ध चित्त को निश्चयता प्राप्त होगी। द्वितीय सिद्धि प्रत्यक्ष होने पर लोगों में विस्तृत होने वाली इसकी कीर्ति के साथ-साथ मैं भी गौरव गरीमा से वंचित न रहूँगी। इसी विचारपूर्वक उसने कहा कि अच्छा भाई यदि यही बात है तो खैर मैं तुम्हारा अलौकिक धन तो नहीं देख सकती हूँ परन्तु लौकिक दिखलाओ तुम्हारे पास कहाँ और कितना धन है। क्यों कि मैं तो इसी बात से अधिक दुःखी रहती हूँ कि जिस मेरे भाई के सहस्रों मनुष्य सेवा करने वाले हर एक समय सम्मुख खड़े रहते थे। जिसके अपरिमित धन, द्रव्य हस्तगत था, आज उसकी यह दशा, उतने सेवक तो दूर रहे पास में पैसा तक खाने के नहीं। अतएव तुम्हारा धन देखने से मेरी यह दुःखदायक झूठी कल्पना दूर हो जायेगी। जिससे मेरा चित्त धैर्यावलम्बन कर फिर कभी मुझे इस भ्रम मूलक दुःख में नियुक्त न करेगा। आपने चम्पावती के कथन की समाप्ति होते ही गुरुपलब्ध मन्त्र के जापपर्वूक कुछ भस्म संशोधित की। और चम्पावती से कहा कि जितने धन की जरूरत हो उतनी ही इष्ट का वा पाषाणखण्ड मंगाओ। उसने शीघ्र अभिलषित परिमाण का पत्थर मंगाकर आपके समर्पण किया। इधर आप भस्म संधान किये तैयार खड़े ही थे। उसको विलम्ब से उसके ऊपर प्रयोगित किया। बस क्या था पत्थर का असह्य दीप्तिमान सुवर्ण बन गया। यह दिखलाने के साथ ही आपने कहा कि बहिन चम्पावती, तुम समझ लो बस यही धन हमारे पास है। और थोड़ा नहीं बहुत है। जिसका हम चाहें तो प्रतिदिन अमित दान कर सकते हैं। परं हमको तो इसमें अपना कोई खास लाभ नहीं दीख पड़ता है। यदि यह धन प्रदान कर किसी को धनाढ्य बना दें तो वह अधिक इन्द्रियारामी हो अनर्थ करने पर उतर पड़ेगा। जिससे उसकी और दाता मेरी दोनों की ही हानि सम्मुख खड़ी दिखलाई देती है। इस वास्ते इस धन के होने पर भी हमारे पास इसके व्यय करने की कोई विधि नहीं है। रह गई अपने शरीर की बात। इसके लिये हमको पैसे तक की आवश्यकता नहीं केवल दो रोटी चाहती हैं, वे ही जहाँ जाता हूँ तैयार मिलती हैं। अतः लौकिक धन के किम्प्रयोजन होने से मुझे अलौकिक धन से ही अधिक प्रयोजन है, जिसमें कुछ निपुणता प्राप्त कर चुकने पर भी अभी और परिश्रम करना है। यह सुन तथा सुवर्ण देख चम्पावती की आभ्यन्तरिक प्रसन्नता और भी उन्नत हो गई। और गदगद हो उसने कहा अच्छा भाइ्र सब वार्तायें पीछे देखी जायेंगी भोजन तैयार हो गया प्रथम उसे ग्रहण कर लो। आपने भोजन किया और उससे निवृत्त हो बैठे ही थे। इतने ही में राजा साहिब ने आपके आगमन से परिचित हो बुलाने के लिये जो अपने खास मनुष्य को भेजा था उसने उपस्थित हो आपकी अभ्यर्थना करते हुए कहा कि भगवन्! महाराजा साहिब के प्रासाद में अपनी चरणरज मुक्त करने की कृपा कीजिये। यह सुन आप उसके साथ वहाँ गये। आगे आपके स्वागतार्थ उसने उचित कृत्य का अनुष्ठान किया हुआ था। अतः आपको हाथों हाथ उठाकर सादर सिंहासन पर विराजित करते हुए राजा ने कहा कि महाराज ! कई एक सूचनाओं के निष्फल होने से मेरा चित्त खिन्न हो गया था। परन्तु यह विश्वास नहीं हुआ था कि आप नहीं आयेंगे। क्यों कि मेरा यह निश्चय है कि महात्माओं का हृदय इतना कठोर नहीं होता है जो किसी उद्देश्य से अपने विषय में उत्पन्न होने वाली किसी की अत्युत्कण्ठता पर धूलि डाल दें। आपके इधर कृपा दृष्टि पतन से ठीक हुआ कि मेरा यह निश्चय यथार्थ निकला। आपने कहा कि यह सत्य है आराध्य को कुछ आगे पीछे आराधक की आवाज को अवश्य सुनना पड़ता है। तथापि आराधक को चाहिये कि वह योग्य कार्य के लिये आराध्य का आव्हान करे। आपके और चम्पावती के द्वारा मेरा बुलाया जाना किसी पारमार्थिक उद्देश्य से नहीं मोह निमित्तक है। ऐसे आज्ञानिक आव्हान से उभय पक्ष में हानि की सम्भावना है। स्त्री जाति का हृदय प्रायः अधीर होने के कारण मैं चम्पावती को दोष देना नहीं चाहता हूँ तथापि आपको उचित था स्वयं उसका अनुकरण न करते हुए उसको किसी न किसी विचार से धैर्यान्वित कर देते। जिससे मेरा यह समय और किसी शुभकार्य में व्यतीत होता। राजा ने कहा कि महाराज ! मैं आपके कथन को सत्य समझता हुआ उसमें श्रद्धा प्रकट करता हूँ। तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि मैंने उसके समझाने में कोई बात उठा रखी हो। मैंने तो यहाँ तक कह सुनाया था कि माता के लिये पुत्र से अन्य संसार में कोई भी वस्तु प्रिय नहीं होती है। अतः जब उसकी माताजी ने ही उसको उधर प्रेरित किया हैतो उसके लिये कोई खतरे की बात नहीं है। वह अवश्य किसी कीर्ति विस्तारक मार्ग की प्राप्ति करेगा। इसलिये तुमको विशेष चिन्ता नहीं करनी चाहिये। परं मेरे इस कथन का उसके ऊपर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। और वह अपनी रटना में निरन्तर लगी ही रही। जिसका फल स्वरूप आपको अपना कार्य छोड़ आज यहाँ स्वयं उपस्थित होना पड़ा है। यों तो आपके कथनानुसार मोहपाश मैं भी खुला नहीं हूँ। सांसारिक सम्बन्धाकूल आप में इतना मोह रखता हूँ जितना कि मुझे रखना चाहिये तथापि वह ऐसा नहीं कि आपके अभीष्ट प्रद मार्ग में कुछ विघ्न उपस्थित करें। क्यों कि मैं जहाँ इतना मोह रखता हूँ वहाँ साथ में यह निश्चय भी रखता हूँ कि कोई भी मनुष्य हो जिसका चित्त सांसारिक व्यवहार से घृणित होकर योग की ओर उत्कण्ठित हो गया हो वह मनुष्य उस पद पर पहुँचने वाला है जिसके आगे राज्यसाम्राज्य एक तुच्छ वस्तु प्रतीत होते हैं। फिर ऐसे स्थान में जाते हुए मनुष्य के मार्ग में विघ्न डालकर कौन ऐसा पुरुष है जो अनर्थकारी हुआ भी अपनी मन्दबुद्धि एवं अदूरदर्शिता का परिचय देगा। किन्तु कभी नहीं। बस यही विचारकर मोहपाशबद्ध हुआ भी मैं स्वयं तो आपके आव्हान का कारण नहीं बना परं उसके असाधारण दुःख से विवश हो मुझे सूचना भेजनी पड़ी। इत्यादि अनेक प्रकार की पारस्परिक वार्तायें करने के अनन्तर आप राजा के महल से प्रस्थानित हो फिर चम्पावती के पास गये। और उसको अपने आसन पर जाने के विषय में सूचित किया। अधिक क्या आपने अपने प्रासाद में ही निवास करने के लिये चम्पावती ने अत्यन्त बाध्य किया ! तथापि उसकी आशा पूर्ण न हुई। और आप अपने आसन पर जो कि नगर से कुछ दूरी पर था, चले गये। इसी प्रकार प्रतिदिन आते और भोजन करने के पश्चात् कुछ देर के वार्तालाप से चम्पावती के चित्त को धैर्यान्वित करके आसन पर चले जाते थे। कुछ दिन के अनन्तर आपने यहाँ से अन्यत्र चलना चाहा और इस वृत्त से चम्पावती को सूचित किया। अधिक क्या उसने आपके वहीं रखने के लिये महाप्रयत्न किया। तथा कहा कि भाई जब तुम्हारे में इतनी योग्यता प्राप्त हो गई तो अब देश प्रदेश वन पर्वतों में फिरने से क्या फायदा है। यहीं रहो और जिस प्रकार का कोई अनुष्ठान करना हो करो। ऐसा करने से तुम्हारे अभीष्ट कृत्य में कुछ भी बाधा न पड़ेगी। और मुझे तुम्हारे दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त रहेगा। परं आप उसकी इस उक्ति की उपेक्षा कर प्रस्थान करने का निश्चय कर ही बैठे। अब तो चम्पावती के पैरों के नीचे की भूमि निकलने लगी। अधिक क्या उससे गोपीचन्दनाथजी का वियोग सहा नहीं गया। और अनेक श्वास प्रश्वास लेने के अनन्तर एक दीर्घ श्वास ले अश्रुपात के साथ-साथ उसने अपने प्राणवायु को शरीर से बहिर किया। यह सूचना बड़ी शीघ्रता के साथ राजप्रासाद में पहुँची। जिस श्रवण कर राजा का वायु कण्ठका कण्ठ में ही रह गया। तथा अत्यन्त क्लेशित हुआ सोचने लगा कि बड़ा ही अनर्थ हुआ। सत्य कहा है भावी समीप से नहीं जाती है। हमको जिस बात का महा भय था आखिर वही होकर रहा। इत्यादि अनेक दैन्य वाक्यों को स्मृत कर वह महात्माजी के पास आया। तथा चम्पावती का समस्त समाचार उसने आपको सुनाया। यह सुनकर आपका भी चित्त खिन्न हो उठा। और कहा कि देखो ईश्वर की कैसी विचित्र गति है। मुझे वहाँ बुलाया किसलिये गया था और हो बैठा क्या। खैर जो भी कुछ हो विशेष चिन्ता का विषय नहीं है। इस प्रकार राजा को कुछ धैर्य देते हुए आप महल में गये। और संजीवनी विद्या के प्रभाव से चम्पावती को तादवस्थ्य बनाकर उसे अनेक विधि से समझाया। परं उसने आपके समस्त प्रयत्न की उपेक्षा कर स्त्री हठ का अच्छा परिचय दिया। और आपके चले जाने पर जीवित रहने से मरना ही पसन्द किया। अन्ततः विवश हो आपने उसको एक विधि शिखलाई। तथा कहा कि जब कभी तुम हमारे दर्शन की इच्छा करोगी और इस विधि का अनुष्ठान करोगी तभी हम उपस्थित हो जायेंगे। खैर वह भी इस रीति से किसी प्रकार सन्तुष्ट हो गई जिससे उपस्थित जनता के सत्कार पर आशीर्वाद प्रयुक्त कर आप वहाँ से प्रस्थानित हुए।

इति श्री गोपीचन्दनाथ चम्पावती मिलापवर्णन ।

Wednesday, June 26, 2013

श्री भर्तृनाथ उज्जयिन्यागमन वर्णन

आपको विदित किया जाता है कि उज्जयिनी के महाराज श्री भर्तृजी के योगी हो जाने पर यथार्थ राजा विक्रम ने फिर अपने राज्यभार को स्वकीय बाहुबल पर धारण किया। वह महानुभाव बड़ा ही चतुर एवं तेजस्वी पुरुष था। उसने अपने दिनों दिन के अत्यन्त नैतिक एवं पाराक्रमिक कार्यों द्वारा प्रजा को बहुत रंजित कर डाला था। उसकी आन्तरिक अभिमति थी कि संसार में या तो विरक्त हो केवल भगवदाराधन से ही समय व्यतीत करना चाहिये। अन्यथा, इसके भोगों की ओर ही यदि मनुष्य झुकना चाहें तो वह ऐसा प्रयत्न करें जिससे ऐसे भोग अवशिष्ट न रह जायें जो उसकी उपलब्धि से बहिर हों। और उनमें लालायित उस मनुष्य की, द्विविधा में दोनों गये माया मिली न राम, वाली कहावत चरितार्थ हो। ठीक इसी अभिमत के अनुकूल उसने भारत सम्राट् बनने की अभिलाषा से हस्त में खड्ग धारण कर अनेक राजा महाराजाओं को अपने चरणों की ओर झुला लिया। जिन्होंने समय का परिवर्तन देख अगत्या यह बात स्वीकार एवं उद्घोषित करनी पड़ी कि अवश्य महाराजा विक्रम हमारे शिर के मुकुट एवं भारत के सम्राट् हैं। अब तो विक्रम अपने आपको कृतकृत्य समझता हुआ फूला न समाया। तथा विजय लक्ष्मी के साथ क्रीड़ा करता हुआ अपने अदृष्ट के सानुकूल होने का निश्चय करने लगा। और उज्जयिनी से सुदूरवर्ती पराजित पराजित प्रदेशों का बड़ी शीघ्रता एवं योग्यता के साथ अनुकूल प्रबन्ध करने के कारण अपनी अपूर्व राजनैतिक पताका परिचय दे वापिस लौट आया। परं इतना होने पर भी उसकी आशा लता पूर्णतया हरित न हुई। वह और भी यशरूपी जलीय दान के द्वारा अपना अधिक उत्कर्ष देखना चाहता था। अतएव विवश हो विक्रम ने अपनी आशा की पूत्त्र्यर्थ एक सभा की स्थापना कर उसमें महायज्ञ रचने की घोषणा की। जिसमें उपस्थित समस्त सभ्य पुरुषों की स्वीकृति प्रकट हुई और तदनुकूल समग्र सामग्री भी संचित होने लगी। कुछ ही दिन में सब प्रबन्ध ठीक हो गया। यह प्रबन्ध जैसा और जिस रीति से हुआ था वह सर्वथा वर्णन करने योग्य है। परं मैं उसका विस्तार कर पाठकों का अधिक समय खर्च कराना समुचित नहीं समझता हूँ। कारण कि इस बात को आप स्वयं विचार सकते हैं जब कि महाराजा विक्रम मण्डलेश्वर के स्थान को प्राप्त हो चुके थे तब ऐसी कौन वस्तु थी जो यज्ञ की साधक होती हुई उसको उपलब्ध न होती। अतएव वह जितने महत्पद पर पहुँच चुका था उतना ही बड़ा और प्रशंसनीय उसका प्रबन्ध थी। जिसके ऊपर सम्यक् दृष्टि डालते हुए हम साभिमान यह कह सकते हैं कि आर्यवर्त में वह अपनी अन्तिम अवधि स्थापित कर गया है। तदनन्तर यज्ञार्थ होने वाले वैसे प्रबन्ध का आज पर्यन्त भी भारत को मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। और न यही कह सकते हैं कि भविष्य में कभी होगा। (अस्तु) यज्ञ प्रबन्ध के साथ-साथ विक्रम ने अपनी उचित सहायता के लिये भर्तृनाथजी का बुलाना निश्चित कर उनके निवासार्थ एक पाषाण गुहा का निर्माण कराया। इत्यादि आवश्यकीय समस्त कार्य सम्पूर्ण होने पर उसने इधर स्वाधीनस्थ समग्र राजाओं को निमन्त्रित किया तो उधर भर्तृनाथजी के समीप इस वृत्तान्त सन्देश के सहित अपना एक वाहक भेजा। यह सूचना पहुँचते ही जब अनेक राजा लोग अपने-अपने विचित्र साज से सज्जित हो उज्जयिनी में आ आकर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे तब ऐसे ही अवसर पर इधर से भर्तृनाथजी भी आ पहुँचे। परं आपका आगमन अप्रसिद्ध था। और वह आपकी इच्छा से ही हुआ था। सन्देश वाहक मनुष्य के समीप पहुँचने पर उसके साथ आना आपने अस्वीकृत किया। एवं उसके पीछे आना भी उचित न समझा। प्रत्युत उसको, तुम चले हम अवश्य वहाँ उपस्थित होंगे, यह आज्ञा प्रदान कर किसी उपाय से उससे बहुत पहले आ गये। इधर किसी सभा के परामर्श से विक्रम ने आपको नहीं बुलाया था। इसी हेतु से विक्रम और सन्देश वाहक के अतिरिक्त लोगों को आपके आगमन का परिचय नहीं था। यही कारण हुआ नगर में प्रविष्ट होने पर आपके वेष की अनुकूलता के अतिरिक्त किसी ने अनंूठे ढंग से आपके साथ स्वागतिक व्यवहार नहीं किया। यह देख आप बड़े प्रसन्न हुए। और विरक्ति ठाठ के अनुकूल हस्त मंे पात्र लिये अप्रतिहत गति से राज प्रासाद में पहुँचे। तथा प्रथम विक्रम की माता और अपनी उपमाता के द्वार पर प्राप्त हो आपने अलक्ष्य पुरुष के नाम की ध्वनि की। यह सुन वह अपने गार्हस्थ्य धर्मानुसार अतिथि सत्कार के लिये स्वोचित भिक्षा ले स्वयं सम्मुख हुई। और भर्तृनाथजी के समस्त दृश्य देखकर शंकित हुई अपने हृदय में अनेक संकल्प-विकल्प उठाने लगी। और वह चाहती थी कि मैं इस बात का निर्णय कर, यदि सचमुच यह भर्तृ निकला तो आज फिर बहुत दिन के बाद इसे अपने औरसिक स्पर्श से स्पर्शित कर कुछ प्रेम की मात्राओं को, जो मेरे हृदयागार में उदय हो चुकी है, चरितार्थ करूँगी। परन्तु यह उसकी अभिलाषा मन की मन में ही रह गई। क्यों कि आपने बड़ी शीघ्रता के साथ भिक्षा में से कुछ प्रयोजनीय वस्तु उठाकर वहाँ से प्रस्थान किया। एवं यज्ञोपलक्ष्य में आई हुई भगिनी मैनावती के द्वार पर प्राप्त हो फिर उसी शब्द की घोषणा की। वह भी उसी प्रकार भिक्षा के सहित स्वयं उपस्थित हुई। और जब कि वह कुछ कदम की दूरी पर थी उसने वहीं से भर्तृनाथजी का मुखावलोकन कर अनुमान किया कि मालूम होता है यह मेरा भाई भर्तृ है। इसी उपलक्ष्य में भाई विक्रम के निमन्त्रण से अथवा अपनी इच्छा से इधर आ निकला है। अतएव उसने इस अनुमान के निश्चयार्थ भिक्षा समर्पण करते-करते पूछा कि महाराज ! आपका नाम क्या है। क्यों कि इस अवसर पर मेरे हृदय में एक बड़ा भारी सन्देह उत्पन्न हुआ है। वह आपके शुभाक्षरान्वित नाम के श्रवण मात्र से हल हो सकेगा। इसलिये कृपा करें और अवश्य बतलावें। यह सुन उसे चक्र में डालने के लिये आपने कहा कि तुम जिस अभिप्राय से मेरा नाम पूछती हो उसको मैं समझ गया हूँ। भर्तृनामक यहाँ का राजा जो योगी हो गया है वह हमारा ही गुरुभाई बना है। जो शारीरिक दृश्य में कुछ-कुछ मेरी समता रखता है। मालूम होता है हमको देखकर आपके उसकी स्मृति होने के कारण कुछ मोह जागरित हुआ है। और इस अनुमान से, कि सम्भव है यह वही हो, आपने मेरा नाम पूछकर उसका निर्णय करना चाहा है परं सन्तोष कीजिये न तो कोई हमारा कभी नाम पूछता है। और न गृहस्थ के लिये साधु का नाम पूछना उचित है। यही कारण है हमको अपने नाम बतलाने का अभ्यास नहीं है। हम अपने आपको जिस प्रकार योगी समझते आ रहे हैं उसी प्रकार सांसारिक लोग भी हमको योगी शब्द से व्यवहृत करते चले आते हैं हाँ इतना अवश्य है उसके उद्देश्य से जो आपके हृदय में मोह की धारा प्रवाहित हो गई हैं ये व्यर्थ न होगी आज ही सायंकाल तक अथवा कल अवश्य वह भी यहाँ आने वाला है इस बात का मुझे निश्चयात्मक परिचय है, यह कहते ही आप यहाँ से अग्रसर हुए। और अपनी परित्यक्त राणियों के द्वार पर स्थित हो आपने अपने अलक्ष्य शब्द को उनके श्रोतों तक पहुँचाया। वे श्रीमती अपने प्रसाद के समीप से आते जाते योगियों के विषय में सदा यह अभिलाषा रखती थी कि यह महानुभाव भिक्षार्थ हमारे महल में आयें तो हम इसको उचित भोजन से सत्कृत कर पति के विषय की कुछ बातें पूछेंगी कि आपको मालूम हो आजकल वे कहाँ किस दशा मंे और क्या किया करते हैं। परं क्षुधा पूत्त्र्यर्थ दो रोटी के लिये कौन योगी ऐसा था जो राजमहल में जाता। यही कारण था आज पर्यन्त उनकी उक्त अभिलाषा कभी पूरी न हुई थी। आज अकस्मात् महल में आये योगी की आवाज श्रोत्रगत हुई। अतएव अत्यन्त उत्सुकता के साथ समस्त राणी योग्य पदार्थों से अपना-अपना पात्र सम्पूरित कर आपकी ओर दौड़ पड़ी। दौड़ ही नहीं पड़ी बल्कि जिसका समाचार पूछने के लिये उत्कण्ठित थी उसी का लक्षण देख रौमांचिक दशा में प्रविष्ट हुई। तथा अनवरत दृष्टि से आपकी तरफ अवलोकन करती हुई मुख से शब्दोच्चारण न कर सकी। और इस अभिप्राय से, कि यह शीघ्र न चला जाय, आपके चैं तरफ खड़ी हो गई। यह देखने के साथ-साथ आपके हृदयात्मक सरोवर में इस प्रकार की कल्पनात्मक तरंगायें उठने लगी कि अति सामीप्य व्यवहार कारण से मनुष्य का परिचय जितना उसकी स्त्री को हो जाता है उतना उसके अन्य सम्बन्धियों को होना दुष्कर है। अतएव जिस कारण से ये ऐसा व्यवहार कर रही हैं इससे मालूम होता है इन्होंने मेरा परिचय पा लिया है। इतने ही में राणी यह स्थिर कर, कि निश्चय कर लेना उचित है, ऐसा न हो कभी अन्त में धोखा निकलने के कारण हमें लज्जित होना पड़े, आप से प्रार्थना करने लगी कि महात्माजी ! जो यहाँ के महाराजा योगी हो गये हैं आप उनके परिचित हैं। यदि है तो क्या आप उनके विषय की कोई खुश-खबरी सुनाने की कृपा करेंगे। यह श्रवण करने के साथ-साथ ही नाथजी का चित्त ठिकाने आया। और उन्होंने निश्चय कर लिया कि खैर जो समझ लिया था वैसी बात तो नहीं है। परं सम्भव है अधिक वार्तालाप से यह रहस्य खुल जाय। इसीलिये आपने उनको शीघ्रता के साथ, हाँ मैं उनको बुला भेजा है, इस कारण से वे आज कल में यहीं आने वाले हैं, यह उत्तर प्रदान कर वहाँ से प्रस्थान किया। इधर आपके दर्शन पिपासु राणियों के नेत्र तथा चित्त पूर्ण रीति से सन्तुष्टतान्वित न हुए। राणियों की अन्तरिच्छा तो यहाँ तक थी कि महात्माजी यहीं बैठ कर भोजन करें तो सौभाग्य की बात है। ऐसा करने से हमको कुछ देर इनके दर्शन और पति के सुख समाचार पूछने का अवसर मिल सकेगा। परन्तु भिक्षा में से कुछ अंश ग्रहण कर आपके शीघ्र गमन करने से उनकी यह अभिलाषात्मक तरंग उनके हृदयात्मक सरोवर में ही विलीन हो गई। और कुछ क्षण के लिये उनके अत्यन्त निराशा उत्पन्न हुई। एवं वे एकत्रित हुई परस्पर में अनेक भावों का उद्धार कर एक दूसरी को कहने लगी भगिनि ! मुझे तो ऐसा विश्वास होता है हमारे स्वामी आप ही थे। यदि ईश्वरीय सानुकूल इच्छा से मेरा यह विश्वास सत्य निकला तो यह कहने का प्रयोजन नहीं कि हम हतभागिनी हैं। क्यों कि इनके मुख कमल की असह्य कान्ति से यह सहज में ही जाना जा सकता है कि योग के विषय में इन्होंने असाधारण कुशलता प्राप्त की है। जिससे ये चाहेंगे और सांसारिक चक्र में न पड़कर अपने मार्ग में अग्रसर होने का कुछ भी प्रयत्न करेंगे तो संसार में अपनी अक्षुण्ण कीर्ति स्थापित कर सकंेगे। अतएव जिनका पति इस पद पर पहुँच चुका हो उन स्त्रियों के लिये यह कम सौभाग्य की बात नहीं हैं। यह सुन दूसरी उत्तर देती थी कि हाँ बहिन यदि ऐसा हो तो हम ईश्वर के महान् अनुग्रह पर कृतज्ञता प्रकट कर अपने आप को धन्य समझ सकती हैं। परं सन्देह यह है कि जिनके मर्मस्थान में पिंगला ने इतना बड़ा आघात पहुँचा दिया था कि उसे सहन न कर उन्होंने अपने प्राणों तक के त्यागने का संकल्प कर छोड़ा था, वे उस आघात का विस्मरण कर योग क्रियाओं में दत्तचित्त हो जायें ऐसा सम्भव कहाँ। बल्कि सम्भव है वे अब तक कहीं न कहीं उसी वियोग से इस लोक की यात्रा समाप्त कर बैठे होंगे। इसके प्रत्युत्तर में फिर प्राथमिक कहती थी कि हाँ यह अवश्य है पिंगला का वियोग उनके लिये साधारण नहीं था। और सम्भव था कि कुछ दिन में हमारे देखते-देखते वे अपने नश्वर शरीर की अन्तिम दशा उपस्थित कर बैठते। परं उनको महात्मा गोरक्षनाथ जैसी योग मूर्ति का संसर्ग प्राप्त हुआ यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है। साथ ही हमको यह विश्वास भी है कि उन्होंने उस दशा का परित्याग कर अवश्य कुछ न कुछ औत्कर्षिक वृत्तान्त का आश्रय लिया होगा। कारण कि गोरक्षनाथजी कोई साधारण योगी नहीं हैं। सुना जाता है विश्व संहर्ता भगवान् महादेवजी की कलाओं का ही पंूच स्वरूप हैं। अतएव उनका प्रयोगित किया हुआ उपदेश कभी निष्फल नहीं हो सकता है। मान लो कि उस वियोग से उन्होंने अपने प्राण विसर्जित कर भी दिये हो तो भी उनका मरना निश्चित नहीं करना चाहिये। जबकि पति महाराज को जीवित रहते हुओं को उन्होंने अपना आश्रय दिया है तब यह सम्भव नहीं कि वे उन्हें इस कलंककारी मृत्यु से मरने देकर अपने संसर्ग एवं उपदेश की किम्प्रयोजनता देखते रहें। तथा संसार में विस्तृत होने वाली स्वकीय अपकीर्ति का किंचित् भी विचार न करें। अतः उन्होंने अपनी संजीवनी विद्या के प्रताप से उनको फिर तादृश अवस्था में स्थापित किया होगा। ऐसा करना न तो उनके लिये कोई असाध्य बात है और न इसमें हमकों कुछ सन्देह ही होता है। जिन्होंने एक की आवश्यकता में अनेक पिंगलाओं को रचकर सम्मुख खड़ा कर दिया था उनके लिये उस एक व्यक्ति का सजीव करना बड़ी बात नहीं है। इतना होने पर भी जो यथार्थ बात है वह इस यज्ञोपलक्ष्य में प्रकट हो जायेगी। यदि वे सचमुच सजीव हैं और इन महात्माजी के कथनानुसार महाराजा साहिब ने उनके आव्हानार्थ सूचना भेजी है तो प्रथम तो वे अवश्य यहाँ आ ही जायेंगे। दूसरे न भी आये और सजीव होंगे अथवा स्वर्गवासी ही हो गये होंगे तो सुदूरवर्ती प्रत्येक प्रान्तों से आने वाले इस वृत्तान्त के परिचित किसी न किसी मनुष्य के द्वारा यह पता अवश्य मिल जायेगा कि उन्होंने कहाँ और कब शरीर छोड़ा। ठीक इसी समय जब कि राणी परस्पर में अपनी-अपनी इत्यादि कल्पानायें कर रही थी तब शिप्रा पर पहुँचने के अनन्तर भर्तृनाथजी की अपने आगमन की भेजी हुई सूचना राजप्रासाद में व्याप्त होने के कारण इनके श्रोतों तक भी पहुँची। यह श्रवण करते ही इनके आनन्द ने अपनी सीमा का भंंग किया। और ये उनकी पूजा के लिये उचित सामग्री मंगा-मंगा कर संचित करने लगी। इधर महाराजा विक्रम ने उनके स्वागत और नगर कीर्तन कराने के लिये पूरा प्रबन्ध कर दिया। नगर में बड़ी धूमधाम मच गई। समस्त नागरिक लोग यथाशक्ति अपने-अपने स्थानों को सजाने लगे। लोगों के चित्त में आपके आगमन से आज उतना ही उत्साह दिखाई देता था जितना कि आपका सिंह के द्वारा मारे जाना सुनने के अनन्तर आपके प्रत्यक्ष देखने से हुआ था। अस्तु महाराजा विक्रम बड़े समारोह से अपने प्रधान पुरुषों के सहित आपको लेने के लिये स्वयं शिप्रा पर पहुँचे। और स्वोचित रीत्यनुसार आभिवादनिक कृत्य के द्वारा आपको सत्कृत कर कुछ क्षण के लिये बैठ गये। आज बहुत वर्षों के अनन्तर एक-दूसरे को निरन्तर दृष्टि से देखते हुए अपने-अपने उद्भूत प्रेम की मात्राओं को सार्थक करने लगे। सब लोग सन्नाटा मारे बैठे तथा खड़े हुए थे। राजकीय मर्यादा से कोई चूं तक न करता था। समस्त लोग हस्तसम्पुटी कर छाती पर धारण किये हुए आज बहुत दिन के बाद योगी के चिन्ह से विभूषित अपने भूत पूर्व राजा साहिब की वन्दना कर रहे थे। जिन्हों में कई एक मनुष्य ऐसे भी थे आपका प्रेम उनके हृदय में न समाकर बहिर निकल आया था। जिसके विवश हो उन्हों का अश्रुपात हो गया। परन्तु महाराजा विक्रम का शासन सर्वथा उचित होने से उनका इसमें भी प्रेम कर न था। अतएव वे यह सोचकर, कि कभी महाराज हमारी ओर अवलोकन कर अश्रुपात से यह विपरीत अनुमान कर बैठें कि भर्तृजी का शासन हमारे से अधिक अच्छा होगा जिसके सुख का स्मरण कर इनका हृदय उझल आया है, अश्रुओं को प्रथम तो नयनान्तर ही स्तब्ध कर लेते थे। दूसरे भीतर न ठहर कर बहिर भी आ गई तो उनको अविलम्ब से ही पोंच्छ लेते थे। उधर विक्रम से आलाप करते हुए सम्मुखीन भर्तृनाथजी कभी-कभी उनकी ओर दृष्टि प्रक्षिप्त कर मानों उनके प्रेम को स्वीकृत करते हुए उन्हें धैर्यावलम्बन करने का परामर्श दे रहे थे। ऐसी ही दशा में कुछ देर की गोष्ठी से अपने प्राथमिक मिलाप को सार्थक कर महाराजा विक्रम ने आपको स्वागत पूत्त्र्यर्थ नगर में चलने के लिये सूचित किया। आपने कहा कि मैं नगर मंे प्रविष्ट हो उचित कृत्य का अनुष्ठान कर थोड़ी ही देर हुई अभी यहाँ आया हूँ। अतः मेरे पुनर नागरिक भ्रमण की आवश्यकता नहीं है। विक्रम ने प्रत्युत्तर दिया कि महाराज आपने अपनी इच्छानुसार जो कुछ किया सो ठीक हुआ। और वह आपके आनेक पश्चात् किसी ढंग से हमको भी विदित हो गया था। परन्तु आपको ऐसा उचित नहीं कि आप अपनी ही इच्छा पूर्ति पर अधिक ध्यान दें। आपके उस आन्तर्धानिक ढंग से होने वाले नागरिक भ्रमण से आपकी ही इच्छा पूर्ति न हुई न कि नागरिक लोगों की। जो आपको अपना हृदयनाथ समझकर आज बहुत दिनों के बाद फिर उसी मार्ग से गमन करते हुए देख पुष्प वर्षा के द्वारा अपने प्रेम को सार्थक करना चाहते हैं। यह सुन आपने, अच्छा यदि मेरे गमन द्वारा लोगों का समारोह चरितार्थ होता है तो चलिये, यह कहते हुए अपना प्रस्थान किया। और विविध वाद्य-ध्वनि के साथ महाराजा साहिब आपको नगर में ले गये। वहाँ जो कुछ उचित एवं सम्भव था सोई व्यवहार आपके साथ किया गया। आपके अनुरोधानुसार राजप्रासाद में प्रवेश न कर आप उसके नीचे से जाने वाले मार्ग से ही निकाले गये। इस समय महलों के झरोखों से राणियों के द्वारा होने वाली पुष्प एवं मांगलिक विविध वस्तुओं की वर्षा से यह अनुमान होता था मानों समस्त राणी पैंगलेय वियोग काल में राजा के ऊपर होने वाली अपनी घृणा के विषय में अनल्प पश्चात्ताप प्रकट कर उसे फिर अपने हृदय से स्वीकार कर रही हैं। अथवा यदि ऐसा करना कलंककारी और कल्याण मार्ग से भ्रंशित करने वाला समझें तो योग कलाओं में असाधारण स्थान प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित कर रही हैं। (अस्तु) इस नगर कीर्तन के अनन्तर आप स्वोद्देशनिर्मित गुहा पर गये। यहाँ कुछ देर के बाद आपकी उपमाता और राणी आपके दर्शन करने के लिये आई। यद्यपि आप इस माता के और से पुत्र नहीं थे और विक्रम ने अपने धार्मिक भ्राता स्वीकार किये थे तथापि श्रीमती ने विक्रम के कथनानुसार आपको विक्रम के तुल्य किम्बा उससे भी अधिक प्रिय समझ कर पुत्र की आज्ञा अनिष्फल की थी। यही कारण था इस श्रीमती ने विक्रम के ईश्वराधन में अधिक समय व्यतीत करने की इच्छा से नर्मदा निवासी हो जाने पर आपको निरंकुश राज्य करते देख कर भी कोई आपत्ति न की। और पैंगलेय वियोग से दुर्दशा ग्रसित हो जब आप नगर से चले आये थे तब विक्रम जैसे सर्वथोचित प्रभावशाली पुत्र के समीप होने पर भी आपके हसत से निकल जाने का जितना शोक इस श्रीमती को हुआ था उतना शायद ही अन्य किसी को हुआ होगा। इसी प्रकार आपके आगमन पर भी समझना चाहिये। अर्थात् आपका नगरागमन श्रवण कर जितनी यह रौमांचिक दशा में प्राप्त हुई थी उतना शायद ही कोई हुआ हो। यही कारण था यह ज्यों ही आपके समीप पहुँची और इसकी दृष्टि ज्यों ही आपके मुख कमल पर पड़ी त्यों ही इसने आत्यन्तिक मोहान्धकार मेंे प्रवेश कर अन्य किसी को उपस्थित न देखने के कारण लज्जा से रहित हो सहसा हस्त प्रसृत कर आपकी जिघृज्ञा की। तथा उसको पूरा भी किया। और अधिक देर पर्यन्त मिलनी भंग न कर ऐसा हृदय विदारक दृश्य उपस्थित किया जिसका वर्णन करना सर्वथा असम्भव है। इससे विमुक्त होने के लिये आपके अनेक बार इच्छा प्रकट कर चुकने पर भी यह आपको छोड़ती नहीं थी। बल्कि प्रवाहित अश्रुधारा से आपके शरीर को प्लावित करती हुई आपको और भी दृढ़ता से ग्रहण कर इस भाव को सूचित करती थी कि माता के अत्यन्त हार्दिक प्रेम का पात्र औरस जात ही पुत्र हो सकता है सर्वथा ऐसा नियम नहीं है सुयोग्य चाहे कल्पित भी हो उसके विषय में माता का अधिकार है वह उसके ऊपर अपने आप तक को न्यौछावर कर सकती है। तदनु बहुत देर में आपने अपने स्पार्शिक मिलाप से माताजी के प्रवृद्ध प्रेमाग्नि की लटाओं में जल वर्षाया। जिससे उसको स्वास्थ्य की उपलब्धि हुई। और वह आपकी ग्रहणता का भंग कर आज पर्यन्त किन-किन कठिनताओं से समय व्यतीत किया इत्यादि समस्त समाचार पूछने लगी। आपने कहा कि मताः ! मैंने जिन-जिन विषम मार्गों को आज तक उल्लंघित किया है उनमें अधिक ऐसे हैं जिनकी कठिनतायें सर्वथा अकथनीय हैं। तथापि योगेन्द्र गोरक्षनाथजी जैसे सुयोग्य गुरु के चरण प्रसाद से प्रसादित हुए मुझ को वे कठिनातायें कुछ भी बाधित न कर सकी। इसलिये मैं अपने गौरव के साथ कह सकता हूँ कि मेरा समस्त अद्यावधिक समय सानुकूलता के सहित व्यतीत हुआ है। अतः मेरी कठिनताओं को लक्ष्य ठहरा कर आपको अधिक शोकान्वित नहीं होना चाहिये। एवं न भविष्य का उद्देश्य लेकर ही ऐसा करने की कोई आवश्यकता है। कारण कि मेरे लिये जितनी आपत्तियों का सम्भवथा वे सब किम्प्रयोजन हो चुकी हैं। और मैं उस अवस्था में पहुँच गया हूँ जिसमें उन आपत्तियों का मुख तक न देखकर आनन्द के साथ अपने गम्य स्थान को प्राप्त कर सकूँगा। यह सुन माता के मोह सन्तप्त हृदय में पूर्ण शीतलता पहुँची। जिसने कुछ पीछे को हटकर राणियों के लिये अवसर उपस्थित किया। वे अग्रसर हुई और उचित प्रणति आदि व्यवहार से आपको सत्कृत कर अपनी श्वश्रु की ओर इशारा करती हुई आपसे कहने लगी कि आप भिक्षार्थ महलों में गये परं एक साधारण भिक्षु की तरह वापिस लौट आये। इससे हमको अत्यन्त पश्चाताप हो रहा है। अच्छा होता आप हम सबकी आँखों में धूलि न डालते और हम आपका अपनी इच्छानुसार उचित सत्कार करती। इससे हम पश्चाताप से विमुक्त तो रहती ही परं अपनी कर्तव्यता का पालन भी कर सकती। मान लिया कि हमारी स्त्री जाति का हृदय बहुत कोमल होता है जो अत्यन्त प्रयत्न करने पर भी सीमा भंग किये बिना नहीं रहता है। तथापि हम इस दर्जे तक तो नहीं पहुँचती कि आपके वेष की दूषणता का कुछ भी ध्यान न रख आपको महल में ही रखने का कोई विशेष उपाय करती। जिससे आपको अपने मार्ग की भ्रष्टता देखने के कारण अधिक खेदित होना पड़ता। हम तो महाराज ! अपने अदृष्ट के ऐसे ही होने का अनुमान कर हृदय को सन्तोष देती हुई अपने कर्तव्य पथ पर चल रही हैं। और निश्चय रखती हैं कि अब तो यही पथ हमारे लिये कल्याणदाता होगा। इस पर भी भगवान् की सानुकूल कृपा से इधर हम अपने पातिव्रत्य की रक्षा कर सकें तो उधर आप भी अपने औद्देशिक स्थान की यदि उपलब्धि कर सकें तो आत्यन्तिक गौरव की बात है। बल्कि सच पूछें तो हमको दिन-रात इसी बात का स्मरण रहता है कि भगवन् ! जो हुआ सो हो गया परं इन स्वार्गोपम भोगों को भोगते हुए हमारे स्वामी को आपने जो अपने हस्त से ग्रहण किया है तो उनको अपने यथार्थ अक्षय स्थान में ही पहुँचा देना। ऐसा न हो कभी अधुरे मार्ग में ही छोड़ दें जिससे वे इधर के रहैं न उधर के। यह सुन आपने कहा कि तुम्हारा यह मन्तव्य और इसकी पूर्ति के लिये ईश्वर से प्रार्थना करना निःसन्देह प्रशंसनीय कार्य है। इस पर तथा विशेष करके तुम्हारे पातिव्रत्य धर्म की पालना पर अत्यन्त हर्ष प्रकट करता हुआ मैं तुम्हें हार्दिक धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता हूँ। परन्तु ध्यान रखना मार्ग तुम्हारा भी अत्यन्त कठिन है। पिंगला इस मार्ग से उत्तीर्ण हो संसार में अपनी अक्षय कीर्ति का विस्तार कर गई है। तुम्हारा इस मार्ग से पार होना अभी अवशिष्ट है। मैं अपने अदृष्ट की अनुकूलता से और अद्वितीय गुरु गोरक्षनाथजी के अमोघ उपदेश से शीघ्र ही योगवित् हो जाने के कारण अपने विषय में कुछ भी सन्देह न रखता हुआ तुम्हारे विषय मंे इसी बात का ध्यान रखा करता हूँ तथा ईश्वर से अभ्यर्थना किया करता हूँ कि भगवन् ! मेरे ऊपर कृपा करने के साथ-साथ कभी-कभी उनकी ओर भी अपनी कृपा दृष्टि का प्रक्षेपण किये जाना। जिससे वे अपने दुःसाध्य मार्ग को सुसाध्य बनाती हुई निर्वाधता के साथ अपने गन्तव्य स्थान में पहुँच सकें। अतएव तुमको उचित है कि अपने कर्तव्य पथ से एक पद भी पीछै न हटो। ऐसा हुआ तो समझ लो किसी अदृष्ट के प्रतिकूल होने से तो तुम्हें यह दण्ड मिला कि राजगृह में जन्म लेने पर एवं राज्योचित अन्य समस्त भोग प्राप्त होने पर भी तुम इस सांसारिक प्रधान सुख से वंचित रही। और इस जन्म में यदि कर्तव्य पथ से विचलित हो बैठी तो ये राजकीय उपभोग भी हस्त से जाते रहेंगे। आपके इस कथन पर अत्यन्त श्रद्धा प्रकट करती हुई राणियों ने शिर झुकाया। तथा प्रतिज्ञा करी कि महाराज ! ईश्वरीय इच्छा क्या है यह तो हम नहीं जान सकती हैं। परं स्वकीय हृदयागार में पूर्ण दृढ़ता के साथ यह निश्चय अवश्य रखती है और रखेंगी कि प्राणान्त तक अपने धर्म की रक्षा करेंगी। तदनन्तर मैनावती का नम्बर आया। वह यद्यपि आपका मुखावलोकन करते ही समझ गई थी कि यह वही महलों मंे जाने वाला मेरा भाई भर्तृ है। जिससे अपने आपको गुप्त रखते हुए भर्तृ से अन्य सूचित किया था। तथापि उसने यह सोचकर, कि खैर कोई बात होगी योगियों की आभ्यन्तरिक लीलाओं का रहस्य समझना बड़ा ही दुष्कर है, इस विषय में कुछ नहीं कहा सुना। केवल श्रद्धेय सामग्री आपके समर्पण करने के अनन्तर उसने आपके योगवित् हो जाने के विषय में महान् हर्ष सूचित किया। एवं कहा कि महाराज ! यह बात आप से और किसी से छिपी नहीं है कि स्त्री के लिये प्राय-पैत्रिक और श्वशुर्य इन दोनों ही घरों के मंगल की कामना उपस्थित रहती है। इनमें से एक भी अमंगलग्रस्त हुआ तो दूसरे का महामंगल भी किम्प्रयोजन रहता है। परं मैं धन्य हूँ संसार में मेरे जैसी सौभाग्यवती आज कोई ही स्त्री होगी मुझ को परम् पिता ईश्वर के कृपा कटाक्ष से ऐसी जगह जन्म मिला है आगे पीछे जिधर देखती हूँ उधर मंगल ही मंगल दिखाई देता है। इतना होने पर भी यह अपरिमित सौभाग्य की बात है कि यह मंगल भी वैवाहिक मंगल की तरह कुछ ही दिन में शान्त होने वाला नहीं प्रत्युत चिरस्थायी अर्थात् प्रलय पर्यन्त रहने वाला है। यद्यपि कुछ मनुष्य ऐसे हैं जो इस बात का वास्तविक रहस्य न समझकर मेरे ऊपर आप तक का दूषण आरोपित करते हुए कह डालते हैं कि गोपीचन्द को ही क्या भर्तृ को भी इसी ने उधर उत्साहित कर साम्राज्य भोगों से वंचित किया है। अतः इस को दोनों गृहों का नाशकारिणी समझना चाहिये। परन्तु मैं जब इस बात की ओर दृष्टि डालती हूँ कि खैर आपके उन भोगों से वंचित रहने में मेरी अनुमति कारण हो वा तुम्हारी इच्छा अथवा तुम्हारा अदृष्ट ही इस कार्य योग्य हो जो भी कुछ हो, आप योगेन्द्र पद पर तो पहुँचे ही गये, तब तो उन लोगों का कथन मुझे किंचित् भी व्यथित नहीं कर सकता है। प्रत्युत जो लोग इस बात को बार-बार कहते हुए अधिक अग्रसर होते हैं मुझे उनकी अदूरदर्शिता एवं मन्द बुद्धि का अच्छा परिचय मिल जाता है। यह सुन आपने कहा कि हाँ यह अवश्य है संसार में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो तुम्हारे मन्तव्य के और योग के महत्त्व विषयक परिज्ञान से शून्य हैं। यही कारण है अपनी नितान्त इन्द्रिय परायणता का परिचय देते हुए लोग वर्षाभू जीवों की तरह थोड़े ही वर्षों में अनेक बार पृथिवी में लीन हो जाते और प्रकट होते हुए दीख पड़ते हैं। ऐसे मनुष्यों के द्वारा होने वाली निन्दा वा स्तुति व्यर्थ और कुछ काल में नष्ट हो जाने वाली है। उससे मनुष्य की कोई वास्तविक हानि वा उन्नति नहीं हो सकती है। अतएव यह ठीक है तुमको ऐसे लोगों के कुछ कहने सुनने से कुछ भी खिन्न न होना चाहिये। तुमने जो कार्य किया वह यह कहने का प्रयोजन नहीं कि अपने स्वार्थानुष्ठान के लिये किया तो प्रत्युत परोपकार के लिये ही किया है। और मनुष्य समाज के लिये यह आदर्श सम्मुख रख छोड़ा है कि पुत्र में वा किसी भी कौटुम्बी आदि मनुष्य में माता आदि का अधिक मोह हो तो वह मेरे जैसा हो जिससे मोह पात्र को बार-बार धूलि में न मिलना पड़े। तुम्हारे इस हृदय से प्रशंसा करने योग्य कृत्य से मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ। इसका मुझे भी बड़ा भारी गौरव है और रहेगा। मैं साभिमान यह कहने को तैयार हूँ कि इस कार्य में प्रवृत्त होकर पुत्र को ईश्वराधन में नियुक्त करती हुई तुमने ही मन्दालसा के बाद उसके स्थान को ग्रहण किया है। इस पर मैनावती ने कृतज्ञता प्रकट कर अन्य लोगों को मिलने पर अवसर दिया। यह मिलाप हुआ। दो दिन आनन्द के साथ व्यतीत हुए। आपने एक अनुष्ठान किया। जिसमें आन्नपौर्णेय मन्त्र से संशोधित जल थोड़ा-थोड़ा उन प्रत्येक प्रान्तों में होने वाले भण्डारों की जगह वर्षाने के लिये आपने आज्ञा दी जिन्हों से उज्जयिनी से दूर होने के कारण अधिक लोग यहाँ नहीं आ सकते थे। इधर यज्ञस्थान में तो आप स्वयं ही बिराजमान थे। फिर क्या त्रुटि रह सकती थी। अतएव अब महायज्ञ आरम्भ हुआ इसकी समाप्ति भी हो चली। अन्तिम दिन तक सर्वत्र नाना भोजन के भण्डार प्रचलित रहे। आवश्यकता से अधिक वितरण करने पर भी भोजन में कहीं न्यूनता न आई। साम्राज्य भर में असाधारण एवं प्रशंसनीय दान पुण्य हुए। और प्रजा तथा अधीनस्थ राजाओं की ओर से महाराजा विक्रम आज से आदित्य उपाधि से विभूषित हुए। एवं इस महा गौरव सूचक पवित्र दिवस का स्मारक आपके नाम से सम्बत्सर भी प्रचलित किया गया। इस प्रकार युधिष्ठिर सम्वत् 3044 में यह कार्य पूर्ण कराकर विक्रमादित्य के असाधारण सत्कार से सत्कृत हुए भर्तृनाथजी यहाँ से देशान्तर के लिये प्रस्थान कर गये।
इति श्री भर्तृनाथ उज्जयिन्यागमन वर्णन 

Sunday, June 23, 2013

श्री ज्वालेन्द्रनाथ कूप निस्सरण वर्णन।

पाठक ! मैनावती का यह अनुमान ठीक था कि वे लोग ज्वालेन्द्रनाथजी को कूप में डालने के अनन्तर अपने मन में अपूर्व मोद बढ़ा रहे थे। परन्तु मैनावती के द्वारा ज्वालेन्द्रनाथजी के शिष्य कारिणपानाथ का स्मरण होने से, विशेष करके उसके उत्तेजित स्वभाव का परिचय मिलने से, उनके छक्के छूट गये। और अपने हार्दिक मोद-प्रमोद का परित्याग कर वे इस बात का निश्चय करने लगे कि अवश्य इस विषय में उपस्थित होने वाली आपदाओं से हम लोग नहीं बच सकते हैं। यही कारण था वे अपने कुत्सित कार्य से लज्जित एवं शोकाकुल हुए सभा में नीचे को ग्रीवा नमन किये बैठे रहे। और मैनावती के सम्मुख न देख कर कुछ भी उत्तर न दे सके। प्रत्युत क्षमाप्रार्थी हुए मैनावती से ही अनुकूल उपाय पूछने को बाध्य हुए। तथा कहने लगे कि शीघ्र ही किसी उपाय को अवलम्बित नहीं किया जायेगा तो यह हमको भी निश्चय है कारिणपानाथ गुरुजी के विषय में होने वाले इस कृत्य को कभी न सह सकेगा। एवं सूचना मिलते ही हमको अपनी महान् अनिष्ट कारिणी तिर्यग् दृष्टि का लक्ष्य बनायेगा। ठीक हुआ भी यही। मैनावती के अगुप्तभाव से सभा में प्रकृत वृत्तान्त के उद्घोषित करने से एक दो ही दिन में यह समाचार सुदूर देश तक विस्तृत हो गया। जो कतिपय शिष्यों के सहित देशाटन करते हुए कारिणपानाथजी ने भी सुन पाया। उन्होंने तत्काल ही इस वृत्तान्त का निश्चयात्मक परिचय लेने के लिये अपना एक शिष्य उधर प्रेषित किया। वह शीघ्रता के साथ राजधानी में प्राप्त हुआ। और सम्मुखागत लोगों से उक्त घटना की सत्यासत्यता का प्रमाण मांगने के साथ-साथ उस कूप में प्रदर्शित करने का भी आग्रह करने लगा। लोगों ने उसका तेजस्वी एवं उग्ररूप देखकर आभ्यन्तरिक भाव से भयाकुल हो यथार्थ मर्म का उद्घाटन किया। तथा कूप को दिखलाने के लिये एक मनुष्य उसके साथ भेज दिया। योगी ने उस नवीन अवरूद्ध किये हुए कूप के देखने से, विशेष करके राजा के कठोर दण्ड की सम्भावना होने पर भी लोगों के उसकी उपेक्षा कर साफ-साफ कह डालने से, निश्चय कर लिया कि यह बात असत्य नहीं। राजा ने अवश्य इस अनुचित ही क्या महान् अनुचित कृत्य का अनुष्ठान किया है। जिसके अपराध में वह अल्पदण्ड का भागी नहीं हो सकता है। ठीक इसी समय जब कि आप कूप के ऊपर खड़े हुए अपने हृदयात्मक समुद्र में विविध भावात्मक तरंगों को तरंगित कर रहे थे तब यह सूचना राज प्राशाद में भी पहुँच गई कि प्रकृत वृत्तान्त के निरीक्षणार्थ एक योगी यहाँ आया है जो कि कारिणपानाथजी का भेजा हुआ है। यह सुन गोपीचन्द के विशेष करके उन प्रधान राजपुरुषों के, जिन्होंने उक्त कृत्य कर डालने का परामर्श दिया था, पैरों के नीचे की भूमि निकलने लगी। और उनके लिये समस्त संसार जलमय दीखने लगा। अन्ततः अपने चित्त को कुछ अवधानित कर सामर्पाणिक सामग्री के सहित वे लोग योगी की सेवा में उपस्थित हुए। तथा अपने कारूणिक विनम्र वाक्यों द्वारा अपराध क्षमा करने की अभ्यर्थना करने लगे। यह देख अपने राक्तिक नेत्रों की तिर्यगवलोकना के द्वारा उनके हृदयागार में और भी भय स्थापित कर पूजा सामग्री को अस्वीकार करता हुआ गुरुजी की आज्ञानुसार केवल वृत्तान्त की सत्यसत्यता का निर्णय करने के अनन्तर वह वहाँ से प्रस्थानित हुआ। इससे उन लोगों का भयाग्नि विदग्ध हृदय और भी भस्मीभूत हो गया। और बिना ही व्याधि के शरीर की चैष्टिक शक्ति क्षीण हो गई। मानों उनके प्राण ही शेष रह गये। एक दूसरे की ओर निहारता हुआ अपने उझलते हुए हृदय को अत्यन्त कठिनता के साथ रोक रहा था। उनके अश्रुओं के बिन्दु अपने प्रवल वेग द्वारा नेत्रों से बहिर होने का साहस करने पर भी पारस्परिक लज्जा के कारण भीतर ही रह जाते थे। खैर ज्यों त्यों कर वे लोग वापिस लौटे। और एक बार अपने कथन की उपेक्षा देखकर भी वे फिर मैनावती की शरण में पहुँचे। एवं शीघ्र ही आपदाओं का पहाड़ शिर पर गिरने वाला है यह कहकर उससे बचने का उपाय पूछने लगे। उसने प्रथम तो उनको खूब डाट दिखलाई। परं पुत्र गोपीचन्द को अत्यन्त खिन्न देखकर उसके हृदय में कारूणिक संचार संचरित हुआ ऐसी प्रेरणा करने लगा मानों वह यह कह रहा है कि बस अन्त हो गया अब इन्हें धैर्य देने की अत्यन्त आवश्यकता है। अतएव उसने यह कहकर कि, अच्छा तुम लोग अपने चित्त को खास्थ्यान्वित करो मैं कोई उपाय सोचूंगी, उनको वहाँ से विदा किया। और स्वयं विज्ञापित विधि के अनुसार उसने श्रीमद्योगेन्द्र गोरक्षनाथजी का आव्हान किया। तत्काल ही उन्होंने आकाशिक आगमन से उपस्थित हो अपने प्रदत्त वचन की रक्षा की। और स्वकीय आव्हान निमित्त का परिचय मांगा। मैनावती ने उचित रीति से आपका स्वागतिक सत्कार कर उत्तर में कहा कि भगवन् ! यद्यपि आव्हान कारण ऐसा नहीं कि आप से अविदित हो तथापि आपके प्रश्न की सार्थकतार्थ समासतया मैं इतना ही कह देना पर्याप्त समझती हूँ कि बहुत समय से इसी कुटिका में निवास करने वाले महात्मा ज्वालेन्द्रनाथजी गोपीचन्द ने कूए में डलुवा दिये हैं। और इस वृत्त की सूचना उनके शिष्य कारिणपानाथ को भी मिल चुकी है। वह शीघ्र ही यहाँ आने वाला है। जो इस अपराध में न जानें कैसी अनिष्टकारिका दशा उपस्थित करेगा। अतएव उसकी तिर्यग् दृष्टि से और अनर्थ से विमुक्ति पाने का उपाय बतलाने के हेतु से आपको आहूत किया गया है। इसके उत्तर में पूज्यपादजी ने कहा कि यद्यपि समस्या बड़ी जटिल है जो कारिणपानाथ के लिये सर्वथा असह्या है तथापि जहाँ तक भी हो सकेगा हम इसको हल करने का प्रगाढ़ प्रयत्न करेंगे तू स्वयं स्वस्थ हुई गोपीचन्द आदि को स्वाथ्य प्राप्त करने का साहस देगा। यह सुन मैनावती अतीव प्रसन्न हुई। और आपके लिये सर्व प्रयोजनीय वस्तुओं का ठीक प्रबन्ध कर अपने प्रासाद में आ गई। वहाँ आने पर उसने गोपीचन्द को अपने समीप बुलाया। और श्रीनाथजी के आगमन का तथा उनके अमृतायमान वचन का समस्त समाचार उसे सुनाया। अब तो वह प्रसादित मुख से बोल उठा मातः धन्य है धन्य है आशा है आपके कृपा कटाक्ष से पवित्र हुए हम लोगों को अब उस सम्भावनेय अनिष्ट का मुख न देखना पड़ेगा। इस पर मैनावती ने कहा कि अनिष्ट का मुख नहीं देखना पड़ेगा इतना ही नहीं यदि तू अब भी कुछ समझेगा और मेरी शुभ अभिमति की ओर कुछ दृष्टिडा लेगा तो सब कुछ बन सकता है। अन्यथा एक इसी आपदा से छुटकारा मिल गया हो क्या है। तेरे अल्प जीवन में इतनी आपत्तियाँ आयेंगी तुझे किसी न किसी दिन अवश्य धूलि में मिश्रित कर डालेंगी। इस वास्ते तू जा गुरु गोरक्षनाथजी को क्षमा करने की अभ्यर्थना कर आन्तरिक स्पष्ट भाव से विज्ञापित कर दे कि भगवन् ! संसार में इस अनर्थ से उत्पन्न होने वाले कलंक से मुझे मुक्त कर दो तो मैं आपका वा जिसकी आप आज्ञा दें उसी का शिष्य बन जाऊँगा। अर्थात् उसने सोचा कि कुछ क्षण पहले तो वह अवसर प्राप्त था जिसमें मुझे अपना सर्वनाश होने की आशंका थी। बल्कि आशंका थी यही नहीं श्रीनाथजी न आते तो होता भी वैसा ही। और अब फिर वह अवसर आ प्राप्त हुआ जिसमें मुझे नष्ट होने से बचने का ही नहीं प्रत्युत चिरकाल के लिये अपनी अक्षुण्ण कीर्ति स्थापित करने का सौभाग्य मिल रहा है। फिर इन किंचित्काल के भोगों का जिघृक्षु हुआ अमूल्य अवसर को हस्त से निकाल दूँ तो मेरा ऐसा करना अनुचित ही नहीं बल्कि मेरी मूर्खता का उत्पादक होगा। इसी मन्तव्य को स्थिर करने के साथ-साथ उसने माता के परामर्श पर कृतज्ञता प्रकट की और चरणों में मस्तक लगाने के अनन्तर जननी का शुभाशीर्वाद ले अपने सहचारियों के सहित आराम में पहुँचकर स्वोचित रीत्यनुसार श्रीनाथजी की बन्दना की। प्रत्यभिवादनार्थ सान्तोषिक वचनों का प्रयोग करने के पश्चात् आपने कहा कि भावी प्रबल है। जिसका वेग अवरूद्ध करना कठिन ही नहीं सर्वथा असम्भव है। अतः जो कुछ हो चुका वह कृत्य यद्यपि संसार में महा कलंक का चिन्ह है तथापि इस विषय में तुम्हें विशेष खिन्न होने की आवश्यकता नहीं। कारण कि हमारे में और हमोर द्वारा निर्दिष्ट होने वाली विधि में पूरा-पूरा विश्वास रखेगा तो इस कलंक से मुक्त ही नहीं होगा बल्कि संसार में अपने शुभ्र यश को चिरकाल के लिये विस्तृत कर सकेगा। पूज्य पाद जी के इस कथन पर शिर नमन कर गोपीचन्द ने स्फुट रीति से सूचित किया कि आपका जो निर्देश जिस अनुष्ठान के लिये मुझे प्राप्त होगा मैं उसके करने में केवल उत्सुक ही नहीं हूँगा प्रत्युत प्राण रहते तक उसके पूरा करने का प्रयत्न करूँगा। यदि मैं अपने इस वचन से वापिस लौटूँ तो अलक्ष्य पुरुष के न्यायालय में महादोषी के दण्ड का भागी हूँ। यह सुन कुछ मुस्कराते और आन्तरिक भाव से प्रसन्न हुए श्री नाथजी ने पूरा विश्वास देने की अभिलाषा से उसको यह आज्ञा दी कि यदि यही बात है तो तेरा कार्य सिद्ध हुआ यही समझना चाहिये। तुम जाओ एक काम करो, व्यापारी का वेष बनाकर, इधर आते हुए कारिणपानाथ को मार्ग में निमन्त्रित कर सर्वोत्तम भोजन प्रदान के द्वारा उसे सत्कृत करो। भोजनान्त में वह तुम्हें आशीर्वाद देगा और अवश्य देगा। इसके विषय में कोई सन्देह न रखना चाहिये। ऐसा होने पर फिर उसका कोप तुम्हारी कुछ भी हानि न कर सकेगा। जाओ-जाओ अब इस कार्य को विलम्बित करना ठीक नहीं है, विलम्ब हुआ तो सम्भव है वह तुम्हारे पहुँचने से पहले ही इधर आ निकले। जिससे हमारा चिन्तित निर्देश निष्फल हो जाय। गोपीचन्द आपकी इस आज्ञा को शिरोधार्य समझ कर वहाँ से प्रस्थानित हुआ। और बणजारे का चिन्ह बनाने की अभिलाषा से राजकीय समझ कर वहाँ से प्रस्थानित हुआ। और बणजारे का चिन्ह बनाने की अभिलाषा से राजकीय पुरुषों को सूचित करते हुए उसने कहा कि कतिपय वैल एकत्रित कर उनमें विविध प्रकार के भोजन की सामग्री भर लो। उन्होंने बड़ी शीघ्रता के साथ सब प्रबन्ध ठीक कर राजा की आज्ञा को सफल किया। यह देख गोपीचन्द ने राजकीय चिन्ह उतारकर अपने साथियों के सहित बणजारे के रूप में प्रवेश करने के अनन्तर वहाँ से जिस मार्ग होकर कारिणपानाथजी का शिष्य गया था उसी मार्ग से प्रस्थान किया। कुछ विश्रामों के अनन्तर किसी नगर की सीमान्तर्गत सौभाग्यवश उसको कारिणपानाथजी के विश्रामित होने की सूचना मिल गई। बस उसने अपना पड़ाव उसी जगह पर डाल दिया। और अपने चतुर अनुजीवियों को उचित भेंट-पूजा देकर यह समझा दिया कि तुम लोग जाओ और इस बात का निश्चय करो नाथजी सचमुच ही वहाँ ठहरे हुए हैं क्या, यदि यह बात सत्य होय तो यह सामग्री उपायन रूप से उनके समर्पण कर कह देना कि भगवन् ! हमारे नायक ने हमको आपकी चरण सेवा में इस अभिप्राय से प्रेषित किया है उसकी आन्तरिक अभिलाषा है कि मैं कुछ वाणिज्य अंश को महात्माओं की सेवा में प्रयोगित कर दूँ। जिससे मेरा गार्हस्थ्य कर्तव्य हल हो जाने पर भी मेरे वाणिज्य में पवित्रता आ जाने की सम्भावना है। राजा की इस आज्ञा को शिरोधार्य मानकर वे लोग जब वहाँ पहुँचे तब सचमुच ही कारिणपानाथजी को विश्राम किये हुए देखा। इससे वे प्रसन्न हुए नाथजी के अतिसमीप पहुँचे। एवं समर्पणा समर्पित कर उन्होंने स्वामी की प्रार्थना को स्वकीय मुख द्वारा घोषित किया। भाग्यवश नाथजी ने अविलम्ब के साथ उन्हें आशीर्वाद प्रदान कर मस्तक से स्पर्श करने के अनन्तर शीघ्र वापिस लौटे हुए गोपीचन्द के पास आये। तथा नाथजी के अंगीकारात्मक अमृतायमान वचन को उद्घोषित करने के साथ-साथ उन्होंने परम हर्ष प्रकट करते हुए उससे कहा कि महाराज ! बड़ा ही हर्ष का विषय है हमको जाते ही वे लक्षण दिखाई दिये जिन्हों से आपकी कार्या सिद्धि में किंचित् भी सन्देह न रहा। महात्माजी ने अपनी उपलब्धि से हमको आनन्दित कर देने पर भी इस बात से परमानन्दित किया कि हमारी प्रार्थना पर पूरा ध्यान देते हुए आपका निमन्त्रण स्वीकृत किया। अतएव अब विलम्ब करना उचित नहीं भोजन सामग्री शीघ्र भेज दी जाय। इस शुभ सन्देश से राजा के हर्ष की सीमा न रही। इसीलिये उसने अविलम्ब के साथ पर्याप्त सामग्री उधर भेज दी। अधिक क्या भोजन तैयार हो गया। और कारिणपानाथजी की आज्ञानुसार पंक्ति के समय गोपीचन्द स्वयं वहाँ पर उपस्थित हुआ। एवं पंक्ति में सम्मिलित हो योगियों के हस्त का प्रसाद ग्रहण करने पर भी भोजनान्त में जब कारिणपानाथजी ने आशीर्वाद प्रदान कर उसके शिर पर हस्त रख दिया तब तो वह कृतज्ञता प्रकट कर वहाँ से विदा हुआ अपने विश्रामस्थान में आया। तथा भृत्यों को यह आज्ञा प्रदान कर, कि अवशिष्ट सामग्री मार्ग में आने वाले ग्रामों के उन लोगों को, जो बुभुक्षित हों, वितीर्ण कर देना, स्वयं कुछ सहायकों के सहित वहाँ से गमन कर शीघ्र राजधानी में पहुँचा। और तादृश शुभ समाचार गोरक्षनाथजी के सम्मुख वर्णित करते हुए उसने कहा कि भगवन् ! ठीक कार्य वैसा ही हुआ जैसा कि आपने प्रथमतः ही सूचित किया था। यह सुन श्रीनाथजी ने कार्य पूरा करने के विषय में उसे धन्यवाद दे प्रशंसित किया। इस पर कृतज्ञता प्रकट करने के साथ-साथ यह कहता हुआ, कि भगवन् ! सब आपकी ही परम कृपा का यह फल है, आपके चरणों में मस्तक लगाकर गोपीचन्द अपने प्रासाद में गया। और कार्य पूर्णता के उपलक्ष्य में भी कुछ दान पुण्य करने की आज्ञा प्रचारित करता हुआ कारिणपानाथजी के आगमन की प्रतिपालना करने लगा। उधर से अग्रिम दिन शिष्य मण्डली के सहित कारिणपानाथजी भी राजधानी की सीमा में आ पहुँचे। और वहीं से अपने आगमन की सफलतार्थ नगर के ऊपर कुछ आपत्ति डालने के लिये मान्त्रिकास्त्र का प्रयोग करने लगे। इस कृत्य के करते-करते वे नगर के अति निकट आ पहुँचे। परं नगर का अभी तक बाल भी बांका न हुआ। यह देख कारिणपानाथजी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने सोचा कि आजयपर्यन्त ऐसा अवसर कहीं भी प्राप्त नहीं हुआ था जिसमें हमारा प्रयत्न निष्फल गया हो। आज और यहाँ क्या कारण है जो ऐसा हुआ, सम्भव है गोपीचन्द की माता मैनावती ही गुरुजी की दीक्षा से इस दर्जे तक पहुँची हो जिसने मेरा अस्त्र किम्प्रयोजन बना दिया है। अथवा गोरक्षनाथजी नगर के रक्षक बन यहाँ निवास कर रहे होंगे। अन्ततः आपने जब ध्यानावस्थित होकर देखा तब तो श्रीनाथजी के विषय मे आपका अनुमान ठीक होने पर आपने जब ध्यानावस्थित होकर देखा तब तो श्रीनाथजी के विषय में आपका अनुमान ठीक होने पर आपने उस गुप्त रहस्य को जाना जो श्रीनाथजी के परामर्शानुसार गोपीचन्द ने आपका आशीर्वाद ग्रहण किया था। यह देख आपने इस समस्त समाचार को अपने शिष्यों के सम्मुख प्रकट किया था। और यह निश्चय कर कि जब श्रीनाथजी की ही ऐसी इच्छा है तब उसके विपरीत कृत्य का अनुष्ठान करना हमारे लिये उचित नहीं है, अपने प्रयोग को स्थगित किया। तथा अपने शिष्यों से कहा कि चलो कूप पर चलकर उसे साफ करेंगे। और देखेंगे कि अब तक गुरुजी का शरीर कौन दशा तक पहुँचा है। कारिणपानाथजी के कतिपय नवीन शिष्य, जो अब तक आप लोग योगेन्द्रों की आन्तरिक लीलाओं के रहस्य को नहीं समझने लगे थे, श्रीनाथजी के उक्त व्यवहार में अरूचि उत्पन्न कर गोपीचन्द के ऊपर अधिक क्रोधित हुए उसे दण्डित ही करना चाहते थे। अतएव गुरुजी की आज्ञा सुन उन्होंने स्पष्ट भाव से कहा कि स्वामिन् ! जब यहाँ आ ही गये हैं तो हमारे लिये वह कूप दूर नहीं है। और न उसका मार्जन करना ही कोई बड़ी बात है। जब आपकी आज्ञा होगी तब यह तो क्या ऐसे-ऐसे अनेक कूपों का शोधन कर डालेंगे। परन्तु प्रथम हमको इस बात के लिये आज्ञापित करो कि हम गोपीचन्द के प्रासाद पर जाकर उसे कुछ उचित दण्ड दें। और उसे बतला दें कि राजत्व अभिमान से ऐसे अनुचित कृत्य कर बैठने का कैसा नतीजा हुआ करता है। उनके ये गर्वपूर्ण एवं विचार शून्य वचन कारिणपानाथजी के रूचिकर न हुए। क्यों कि जो कार्य गुरू से न हुआ हो शिष्य के लिये उसके करने का ठेका उठाना सचमुच गुरुजी का अपमान करना है। दूसरे जिसके प्रतिपालक स्वयं श्रीनाथजी हैं उसका ये क्या अनिष्ट कर सकते थे। इसी हेतु से उनकी बुद्धि ठिकाने लाने के अभिप्राय से आपने कुछ नासिका संकुचित कर उनसे कहा कि अच्छा प्रथम बाग में चलते हैं। वहाँ श्रीनाथजी का इस विषय में कुछ परामर्श लेंगे। और फिर जैसा अवसर देखेंगे वैसा करेंगे। यह कह जब आप उधर प्रस्थानित हुए तब उनको भी पीछे चलना ही पड़ा। कुछ देर में वहाँ पहुँचे। तथा पारस्परिक आदेश-आदेश शब्दोच्चारण के सहित अभिवादन प्रत्यभिवादनात्मक सत्कार से सत्कृत हो यथा स्थान पर बैठ गये। आगमन हेतुक प्रस्ताव की उपस्थिति हुई। ठीक इसी समय जब कि दोनों महानुभाव इसी विषय का मिथःआलाप कर रहे थे तब उन लोगों ने फिर ऐसे कई एक वाक्य कह डाले जिन्हों से श्रीनाथजी को उनके प्रथमोक्त गार्विक वाक्यों का भी पता मिल गया। परं उस समय आप चुप रहे और आन्तरिक रीति से, इनके भीतर क्या भरा हुआ है जिससे उसका ठीक-ठीक परिचय मिल सके कोई ऐसा उपाय करना चाहिये, इस बात का निश्चय करने लगे। इतने ही में विविध उपायन तथा भोजन सामग्री लेकर राजा साहिब भी आ पहुँचे। उसकी यह सामग्री यद्यपि प्रथम तो कारिणपानाथजी ने अस्वीकृत की परं अन्त में भी नाथजी के अनुरोधानुसार ग्रहण कर ली। और कूप के समीप ही विश्राम करने का निश्चय कर सब सहायता के सहित वे वहाँ पहुँचे। भण्डार चेतन कर दिया गया। इधर से भोजन तैयार हुआ तो उधर से सायंकाल उपस्थित हुआ। कारिणपानाथजी ने सशिष्य सान्ध्य विधि समाप्त कर कूपस्थ स्वकीय गुरुजी के तथा श्रीनाथजी के उद्देश्य से आदेश-आदेश शब्दोद्घोषित किया। और श्रीनाथजी की आज्ञानुसार उनका भोजन उनकी कुटी पर ही प्रेषित कर योगियों को पंक्तिबद्ध हो जाने की आज्ञा के साथ-साथ यह आज्ञा भी प्रदान की कि इधर से निवृत्त हो भोजन लेकर नगर के चैं तरफ चक्र लगा देगा। जिससे कि आज के दिन नगर में कोई क्षुधात्र्त न रहे। उन्होंने वैसा ही किया और पक्क पदार्थों के पात्र सम्पूरित कर नगर के सर्वतः परिक्रमा लगतो हुए भोजन वितरण करना आरम्भ कर दिया। ठीक इसी समय जब कि वे, है 3 कोई बुभुक्षित मनुष्य 3 जो हमारा भोजन ग्रहण करे, यह घोषणा करते हुए फिर रहे थे तब श्रीनाथजी रूपान्तर में परिणत हो एक वृक्ष के नीचे जा बैठे। और उच्च स्वर से कहने लगे कि अये ! पुण्यात्माओं मुझ गरीब की ओर भी कुछ कृपा दृष्टि करना। कई दिन से अनाशनिक हूँ। जिससे सम्भव था आज मेरे प्राण पक्षी हो जाते। परं आपकी आशापाश ने ही उन्हें बन्धित कर रखा है। यह सुन वे शीघ्र उधर लौटे। और कहने लगे कि ले भोजन कहों में लेगा। उन्होंने अपना एक छोटा सा पात्र उनकी ओर बढ़ाया तथा कहा कि इसमें जो कुछ डालना हो डाल दो। परं मैं अत्यन्त भूखा हूँ यह कह ही चुका हूँ। इसलिये इस पात्र को पूर्ण कर देना। यह सुन कर उन्होंने क्रमशः सब चीज को कि उनके समीप थी कुछ-कुछ कर पात्र में छोड़ी। परं उनका कहीं पता न लगा कि वे कहाँ गई। अधिक क्या उन्होंने जितना भोजन उनके पास था सब पात्र में डाल दिया। इतने पर भी जब वह पूर्ण न हुआ तब उन्होंने एक योगी भोजन लाने और इस बात को गुरुजी के सम्मुख वर्णित करने के लिये वापिस भेजा। वह विश्राम में आया और उक्त घटना का सब समाचार कारिणपानाथजी को कह सुनाया। आपने कहा कि सम्भव है श्रीनाथजी ही उधर चले गये होंगे। अतः अमुक योगी जाय और देख आये कि वे अपनी कुटी पर हैं वा नहीं। यह सुन निर्दिष्ट योगी गया जिसको श्रीनाथजी अपनी कुटी में बैठे मिले। उसने शीघ्र लौट उनकी उपस्थिति का समाचार दिया। इस पर कुछ शंकित हो कारिणपानाथजी ध्यान निष्ठ हुए उस व्यक्ति के याथाथ्र्य को देखने लगे। जिससे आपको मालूम हो गया कि यह सब श्रीनाथजी की ही लीला है। एवं उनकी आन्तरिक अभिलाषा है कि जनों को कुछ चमत्कार दिखला कर अपना ऐहागमन सार्थक करें। इसी कारण कुछ भोजन के साथ आप स्वयं उधर चले। यह देख दर्शनार्थ आगत जनता भी, देखें इस विषय में क्या होगा, इस विचार के आश्रित हो आपके पीछे चल पड़ी। कुछ क्षण के अनन्तर आप घटनास्थल पर पहुँचे और दरिद्र रूप में परिणत श्रीनाथजी को आभ्यन्तरिक रीति से नमस्कार कर उनके पात्र में भोजन डालने लगे। जन समाज के देखते-देखते अर्ध प्रहर व्यतीत हो चला। न तो लेने वाले का पात्र पूर्ण हुआ और न देने वाले का पात्र ही रिक्त हुआ। यह देख उपस्थित लोग बड़े ही विचार चक्र में पड़े। एवं विस्मित मुख से परस्पर में कह उठे कि देखो यह अत्यन्त ही आश्चर्य की बात है। समझ में नहीं आता कि इस ग्राहक के पात्र में डाला हुआ इतना भोजन कहाँ गया। तथा दाता के पात्र में इतना भोजन कहाँ से आ गया। इस प्रकार जब लोगों की स्थिति विस्मयान्वित हो गई। तब श्रीनाथजी ने अपने वास्तविक रूप का आश्रय लिया। इससे लोगों की दशा और भी साश्चर्या हुई। और कारिणपानाथजी के अनुकरणार्थ सब वे भी श्रीनाथजी के चरणाविन्द की प्रणति में तत्पर हुए इस प्रकार बड़ा आनन्दोत्सवसा उपस्थित हुआ। दोनों महानुभावों की कीर्ति का गायन करते एवं योग विषय की अनेक गाथाओं का उद्घाटन करते-करते अपने-अपने घर को गये। उधर लोगों की प्रणामात्मक सत्कृति से सत्कृत हुए आचार्यजी भी अपनी कुटी में पहुँचे। इधर अपना कार्य सम्पूर्ण कर शिष्यों के सहित कारिणपानाथजी नगर की परिक्रमा करते हुए अपने आसन पर आये। परन्तु इस खेल ने आपके पूर्वोक्त नवीन शिष्यों के आन्तरिक स्थान में कुछ गड़बड़ी फैला दी। अतएव वे आपसे यह पूछने के लिये बाध्य हुए कि स्वामिन् ! हम सुनते हैं इन आचार्य जियों के गुरु श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी गृहस्थी थे। यदि यह बात सत्य है तो हम यह पूछना चाहते हैं उन गृहस्थी के सकाश से ये इतने शक्तिशाली कैसे हो गये। यह सुन कारिणपानाथजी समझ गये कि ये लोग अभी तक मत्स्येन्द्रनाथजी की और श्रीनाथजी की शक्ति शालिता से अनभिज्ञ हैं। इसीलिये आपने कहा कि यह पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे गृहस्थी हो गये थे तो विषयानन्द की लालसा से नहीं प्रत्युत परोपकार के लिये ही हुए थे। यही कारण था उस कृत्य से उनकी शक्तिशालिता में कुछ भी न्यूनता न आई। बल्कि सच पूछो तो इसी का नाम उपकारता है जिससे कर्ता की शक्ति नष्ट न हो। इसके विपरीत संसार में ऐसे भी अनेक पुरुष हैं जो यह मानते हैं कि किसी भी छोटे-मोटे परोपकार के लिये मनुष्य के प्राण तक के जाने की सम्भावना हो तो उसको इस बात की कुछ भी परवाह न करनी चाहिये। परं मेरी समझ में ऐसा मानने और करने वाले भूलते ही नहीं अत्यन्त भूल करते हैं। और वे उपकार के बदले में अनुपकार कर बैठते हैं। कारण कि कोई ऐसा एक बड़ा उपकार आ उपस्थित हुआ जिसमें प्रवृतिकर्ता की सर्व शक्ति क्षीण हो गई, तो इससे क्या हुआ। इस उपकृति के औद्देशिक एकाध मनुष्य को ही वह रंजित कर सका। इससे अन्य जो उसके द्वारा अनेक छोटे-छोटे उपकार होने वाले थे जिन्हों से अनेक पुरुषों की आत्मायें रंजित होने वाली थी उनकी ओर तो मानों उसने ताला लगा दिया। कहो ऐसा उपकार वास्तविक उपकार की उपाधि कैसे पा सकता है। अतएव मनुष्य को चाहिये कि शक्तिनाशक बड़े उपकार को नमस्कार करे। और शक्तिसाध्य उससे छोटे-छोटे अनेक उपकार कर उस जितना और अनुकूलता हो तो उससे भी अधिक गौरव स्थान को प्राप्त करे। श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी का अपने परापक्रम को तादवस्थ्य रखते हुए उस उपकार के करने का यही अभिप्राय था। अतः तुम यह न सोचो कि वे गृहस्थी थे और इसीलिये उनकी शक्ति भी नष्ट हो गई होगी। इसके अतिरिक्त यदि अब भी तुम्हारा चित्त उलझन में ही पड़ा रह गया हो तो तुम्हें यह सोचना चाहिये उनके राजत्व ग्रहण करने से बहुत काल पूर्व श्रीनाथजी उनके शिष्य हुए थे। जिन्होंने गुरुजी की समस्त अलौकिक विद्याओं को ग्रहण किया। फिर उनके महाशक्तिशाली होने में क्या सन्देह हो सकता है। बल्कि कितनी ही बातों में, जिन्हों में हमारा अभी पहुँचना बाकी है, ये पहुँच चुके हैं। यही कारण इनके महत्त्व का भी समझना चाहिये। जिससे गुरुजी के एवं स्वगुरुजी के विद्यमान रहते हुए भी इन्होंने जगत् गुरु और आचार्य की उपाधि प्राप्त की है। यह सुन उनका मन सन्तोषित हुआ। और श्रीनाथजी के प्रति उनके हृदय में कुछ श्रद्धा का बीज अंकुरित हुआ। उक्त प्रकार की वार्तायें करते-कराते अर्धरात्री हो गई। यह देख इधर अपने-अपने आसन पर स्थित हो ये लोग निद्रात्मक महान् आनन्दाराम में पहुँचे। उधर श्रीनाथजी कूप के ऊपर पहुँचे। और इस अभिप्राय से कि हमारे से अतिरिक्त इस कूप को कोई भी रिक्त न कर सकें, एक मन्त्र का प्रयोग कर वापिस लौट आये। तदनु प्रातःकाल हुआ। निर्दिष्ट समय पर राजा की ओर से मजूर दल के आ पहुँचने के साथ-साथ कारिणपानाथजी भी सशिष्य नित्यकृत्य से निवृत्त हो तैयार हुए कूप पर गये। और शिष्यों को यह आज्ञा देकर कि आज कम से कम सायंकाल तक कूप को अवश्य साफ करा लेना, अपने आसन पर ही आ गये। यही बात उनके शिष्यों ने मजूरों को सुनाते हुए कहा कि तुम लोगों को बड़ी चतुरता के साथ कार्य करना चाहिये। क्यों कि आज ही इसको पूरा करना है। यदि कशर रही तो गुरुजी असन्तुष्ट होंगे। इस कथन पर श्रद्धा रखते हुए विचारे मजूरों ने प्रयत्न करने में कूछ उठा न रखा। तथापि सायंकाल समीप आने तक कूए के साफ होने का ढंग न दिखाई दिया। यह देख योगी भी शारीरिक परिश्रम करने लगे। परं सूर्य अस्त पर्यन्त उनकी अभिलाषा पूरी न हुई। इससे वे लोग कुछ हर्षक्षयी हुए। और गुरुजी के समीप आकर कहने लगे कि स्वामिन् ! विचारे मजूरों ने तथा हमने भी अत्यन्त प्रयत्न किया तो भी कूआ सन्तोषप्रद साफ नहीं हुआ है सम्भव है कल अर्ध दिन में ठीक हो जायेगा। कारिणपानाथजी ने कहा कि तुम लोग कहते थे हम आपकी आज्ञा होगी उसी समय यह क्या अनेक कूप रिक्त कर देंगे। तुमसे तो और तुमसे ही क्या इतने मजूरों से भी समस्त दिन परिश्रम करते रहने पर यह एक ही कूआ साफ न हुआ। इससे अपनी गर्वभरी वाणी का स्मरण कर वे लोग नतानन किये हुए बोले कि खैर भगवन् ! जो कुछ हुआ सो तो हो गया कल यह कार्य अवश्य ठीक हो सकेगा। यह सुन कारिणपानाथजी चुप हो गये। रात्री बीत गई। फिर प्रातःकाल आया। वे लोग मजूरों के सहित बड़े जोर से परिणत हुए। और सायंकाल तक लगे रहे। परं फिर भी इच्छापूर्ति से वंचित ही रहे। अब तो उनकी विस्मयता एवं लज्जा का ठिकाना न रहा। वे आभ्यन्तरिक भाव से सोचने लगे कि गुरुजी के सम्मुख कैसे जायें और अपना मुख दिखलायें। अन्ततः निराश्रय हो वे आसन पर आये। और अपनी स्थिति का सब समाचार गुरुजी को सुनाने लगे। उसी समय कारिणपानाथजी समझ गये कि अवश्य कोई विशेष कारण है। अतएव उन्होंने आज शिष्यों को और कुछ न कहते हुए केवल इतना ही कहकर कि अच्छा थोड़ा बहुत बाकी रह गया वह कल ठीक हो जायेगा, सन्तोषित किया। और स्वयं उस विशेष कारण के परिचयार्थ ध्यान मग्न हुए। ऐसा करने पर फिर आपके श्रीनाथजी का खेल दृष्टिगोचर हुआ। परं जानकर भी आपने उसे प्रकट नहीं किया। एवं प्रातःकाल होते ही शिष्यों को फिर उसी कार्य के लिये उत्साहित किया। वे गये और दिनभर घोर प्रयत्न करते रहे। परं वह कूप कुछ ही अधस्तात् हुआ। अब तो उनकी बुद्धि और भी ठिकाने आ गई। तथा उनको भी यह पक्का विश्वास हो गया कि बात ऐसी ही गोलमाल नहीं है अवश्य कुछ न कुछ कारण है। जिससे कूप का रिक्ता होना दुष्कर ही नहीं असम्भव हो गया है। आखिर वे लज्जित हुए फिर गुरुजी के पास आये। और कहने लगे कि महाराज ! हमको तो यह जान पड़ता है कि कूए में किसी ने कुछ प्रयोग कर दिया है। यही कारण है एक दिन का कार्य तीन दिन करने पर भी पूरा न हुआ। और न होने का कोई लक्षण ही दिखाई देता है। अतः आप देखें और बतलावें क्या है किसने किया है। यह सुन कारिणपानाथजी ने कहा कि यह और कुछ नहीं तुम्हारे आहंकारिक वचनों का फल है। जो आचार्य जी ने उपस्थित किया है। अतएव तुम लोग उनकी कुटी पर जाओ। और उनके क्षमाप्रार्थी बनों। ऐसा करने पर ही गुरुजी के निकालने का सुभीता होगा। अन्यथा नहीं। गुरुजी की आज्ञानुसार वे शीघ्र बाग में गये। और गोरक्षनाथजी के चरणों में गिरे। आपने प्रत्यभिवादानन्तर पूछा कि क्या ज्वालेन्द्रनाथजी निकल आये। उत्तरार्थ उन्होंने संकुचित मुख से कहा कि भगवन् ! अभी कहाँ जब आपकी कृपा दृष्टि कार्य करेगी तब निकलेंगे। हम कौन विचारे हैं जो उनको निकाल सके। इस पर कुछ हंसते हुए आपने कहा कि हमने तो अपने गुरुजी को संसार सागर मंे गिरे हुओं को निकाल लिया था। क्या तुम लोग उनको कूप से नहीं निकाल सकते हो। इस पर वे कुछ भी उत्तर न देकर स्तब्ध नेत्र हुए बैठे रहे। आपने फिर कहा कि अच्छा यदि यही बात है और यह कार्य हमारे ऊपर ही निर्भर है तो कल हम ही करेंगे। परं तुम जाओ और गुरुजी को सुना दो कि कल मध्यान्ह में हमारी रसोई होगी। और भोजन निवृत्ति के अनन्तर ज्वालेन्द्रनाथजी को निकाला जायेगा। यह सुन आपके चरणों का स्पर्श कर वे लोग अपने आसन पर आये। एंव श्रीनाथजी की हास्यमयी आदि सब बातों की सूचना गुरुजी को देते हुए कुछ उत्साह प्रकट करने लगे। इधर श्रीनाथजी ने यही सूचना नगर में भी भेज दी। तथा प्रत्यक्षता से कह सुनाया कि कल मनोवांच्छित भोजन होगा। जिसकी ग्रहण करने की अभिलाषा हो वह मध्यान्ह से कुछ पहले कारिणपानाथजी के विश्राम स्थल में उपस्थित हो जाय। बस क्या था प्रातःकाल होने तक यह सूचना नगर भर में विस्तृत हो गई। और बाजार, गली, घरों में बैठे हुए उत्साहित लोग इसी विषय की वार्ता करने लगे। होते-होते मध्यान्ह आगमन के लक्षण भी दीख पड़ने लगे। नागरिक अनेक भोक्ता तथा कितने ही कुतूहल द्रष्टा लोग उधर दौड़ पड़े। अधिक क्या इतने मनुष्य एकत्रित हो गये जिसे साधारण मेला कह सकते हैं। कुछ ही क्षण में निर्दिष्ट अवसर उपस्थित हो गया। यह देख आचार्य जी ने योगियों समेत सब लोगों को पंक्तिबद्ध हो जाने की आज्ञा प्रचारित की। उन लोगों ने पंक्ति लगाई। और उनके आगे दो-दो पत्र भी रख दिये गये। श्रीनाथजी तथा कारिणपानाथजी आप दोनों महानुभाव पंक्ति मध्य में विचरते हुए उसका निरीक्षण करने लगे। यह कार्य कुछ क्षण में समाप्त हो गया। श्रीनाथजी ने उच्च स्वर से घोषणा कर दी कि जिस मनुष्य की जिस पदार्थ के खाने की रूचि हो वह उसी की कल्पना करे। वही पदार्थ उसके पत्र में उतना ही आ जायेगा जितने से उसकी तृप्ति हो सकेगी। यह सुन समस्त पंक्तिबद्ध लोगों ने स्वकीय इच्छा के अनुसार भोजन की स्मृति की। और वे उसी को प्राप्त हो गये। परं कारिणपानाथजी के एक शिष्य ने, जो उक्त नवीनों में से था, सोचा कि यदि आचार्यजी अपने कथनानुसार मनोऽभिलषित वस्तु प्राप्त कर देंगे तो यह कम आश्चर्य की बात नहीं। अतएव मैं सर्प की कल्पना करूँगा देखें वह आता है वा नहीं। बस पत्र का उठाना ही था एक भंयकर चेष्टा करता हुआ कृष्ण सर्प उसकी दृष्टि गोचर हुआ। जिसको देखकर वह सहसा पीछे हटा। उधर वह सर्प भी चकित सा होकर इधर-उधर दौड़ता हुआ समीपस्थ गृहस्थ लोगों की पंक्ति में जा घुसा। वे लोग भय के मारे पंक्ति भंग करने लगे। जिससे खासा कोलाहल मच गया। यह देख कारिणपानाथजी शीघ्र उपस्थित हुए। तथा मन्त्र प्रयोग से सर्प को जकड़ीभूत बनाकर लोगों के चित्त को स्वस्थ करते हुए कहने लगे बस घबराओ नहीं हमने उसको निश्चेष्ट कर दिया है। अब उसका कोई भय न करो। और आनन्द से भोजन पाओ। ऐसा होने से पंक्ति पूर्ववत् सुशोभित हुई। उधर उस शिष्य को लेकर आप पंक्ति बहिर आये। और कहने लगे कि अरे दुष्टाशय ! तूने क्यों मेरा नाम कलंकित किया। क्या यह समय इस कृत्य योग्य था। एक तो तूने भोजन के अवसर में अनुचित वस्तु की कल्पना कर श्रीनाथजी की शक्ति का निरीक्षण करते हुए उनमें अपनी अविश्वासता प्रकट की। दूसरे जो अवसर आनन्द के सहित भोजन के भोग लगाने का था उसी समय लोगों में विघ्न उपस्थित किया। तेरे इस अनधिकारित्व सूचक कृत्य पर हम क्षमा नहीं कर सकते हैं। अतएव तू आज से योग भ्रष्ट हुआ और तेरे ऊपर जो हमारा शिष्यत्व का अभिमान था वह हमने आज से उठा लिया। तू जा और कहीं जा। हमारे साथ तेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहा। यह सुन वह गुरुजी की ओर से निराश हुआ गोरक्षनाथजी की ओर अग्रसर हुआ। एवं उनके चरणों का स्पर्श कर बोला कि भगवन् ! क्षमा कीजिये भावी वश से ऐसा हो गया है। इसके उत्तरार्थ उन्होंने कहा कि यह सत्य है भावी वश से ऐसा हुआ है। परन्तु भावी समीप से नहीं जा सकती है। अतएव तूने यह भी भावी वश से ही हुआ समझ लेना चाहिये कि तू आज से योगिता का पात्र न रहेगा। और इसी सर्प के सकाश से अपनी जीवनचर्या पूरी करेगा। उस विचारे के गुरुजी का कथन सुनते ही होश ठिकाने आ गये थे। एक मात्र आप ही उसका आश्रय स्थान थे। और उसने आशा भी की थी कि सम्भव है आचार्य जी मुझे क्षन्तव्य समझेंगे। जिससे गुरुजी को भी उनके अनुकूल होना पड़ेगा। ऐसा होने से मैं फिर अपने उसी पद पर पहुँच सकूँगा। परं हतभाग्य उसकी सम्भावना के प्रतिकूल ही फल दृष्टिगोचर हुआ। वह आचार्यजी का शापमय वचन सुनते ही मूच्र्छित सा हो गया। उसके लिये समस्त संसार जलमय प्रतीत होने लगा। जो गुरु अपनी प्रेममयी दृष्टि से पवित्र कर उसे सम्मुख बैठाते थे एवं शिर के ऊपर हस्त स्पर्श कर उसका मोद बढ़ाते थे। आज वे गुरु उसे सौ क्रोश दूरी पर दीखने लगे। इससे मारे शोक के उसका हृदय उझल पड़ा। अतएव उसने करूणाक्रन्दन करते हुए अपनी महा दीन दशा उपस्थित की। जिसका प्रभाव कारिणपानाथजी के हृदय पर पड़े बिना न रहा। इसी कारण से वे विवश हो गय। और उन्होंने उसका हस्तग्रहण कर उसे अपने औरसिक स्पर्श से सन्तोषित किया। तथा कहा कि पुत्रक ! अब इस विषय में तुझे अधिक क्लेशित नहीं होना चाहिये। मनुष्य कुछ अपने शरीर पर गुजरता है वह अपना ही किया समझना चाहिये न कि उसको निष्कारण किसी अन्य का आरोपित किया समझ कर अपनी आत्माओं को अधिक कष्ट देना। अब तेरे लिये जो आचार्यजी ने आज्ञा प्रदान की है इससे अतिरिक्त कल्याणप्रद मार्ग नहीं है। अतएव इनका इस भावी सानुकूल आज्ञा का पालन करता हुआ अपने आपको फिर पात्र बनाने का प्रयत्न कर, जिससे हम तुझे ग्राह्य समझ कर फिर इसी अवस्था में नियुक्त कर लेंगे। गुरुजी के इस व्यवहार से उसके तरंगित हृदय की झाल कुछ मन्द हुई और उसने कहा कि अच्छा महाराज ! यदि यही बात है और यह मेरे किसी पूर्व जन्माचरित निकृष्ट कृत्य का फल है तो इसे भी भोग के द्वारा हल करना ही है। परन्तु श्रीनाथजी की आज्ञानुसार यह कैसे हो सकेगा कि मैं सर्प के द्वारा अपना जीवन निर्वाहन करूँ। कारण कि यह तो हस्त स्पर्श करते समय आज ही मेरा काम तुमाम समाप्त कर देगा मेरा जीवना और उसका निर्वाह करना तो दूर रहा। यह सुन कारिणपानाथजी ने कहा कि ले, ये मन्त्र हम तुझे देते हैं जिन्हों से तू अपनी इच्छानुसार सर्प को चेष्टित अचेष्टित आदि चाहे जिस दशा में प्राप्त कर सकेगा। और उसकी दुश्चेष्टा से तेरा बाल बांका न होगा। गुरुजी की आज्ञानुसार वह मन्त्र और सर्प का ग्रहण कर वहाँ से चलता ’ बना। उसका यह आकस्मिक निर्वासन देख बहुतरे लोगों के हृदय भर आये। अधिक क्या उसके गुरुभाई, जो स्वयं गुरुजी की चरणच्छाया में बैठे हुए पंक्ति भ्रष्ट मृग की तरह उसकी ओर निहार रहे थे, अत्यन्त दुःखी हुए। परं उपायान्तराभाव से उन्होंने अपने उझलते हुए हृदय को किसी प्रकार धैर्यान्वित किया। तदनु पंक्ति विषयक सब कार्य समाप्त हो गया। ज्वालेन्द्रनाथजी की निष्काशनार्थ श्रीनाथजी धूमधाम के साथ साथ कूँए पर पहुँचे। और उन्होंने सृष्टि रचनात्मक विधि का अनुष्ठान कर एक प्रयोग उपस्थित किया। जिसके अमोघ फल प्रभाव से कूप में प्रक्षिप्त किये हुए तृण आदि की शलभ (टिड्डी) बन कर आकाश में व्याप्त हुई। और बात की बात में कूप का मार्जन हो गया। ज्वालेन्द्रनाथजी की तादृश आसनस्थ प्रतिमा का प्रत्यक्ष दर्शन होने लगा। यह देख आपने गोपीचन्द को सम्बोधित करते हुए कहा कि दो पुतले, जो कि तुलना और ऊँच-नीच में तुम्हारे शरीर के सम हों, तैयार करा कर शीघ्र ले आओ। उसने तत्काल अपने भृत्यों को सूचित किया। वे बड़ी स्फुर्ति के साथ राजा के कृत्रिम शारीरिक पुतलों को तैयार कराकर ले आये। जो गोपीचन्द ने अपने आप ग्रहण कर श्रीनाथजी के समर्पण किये। उनको ग्रहण करते हुए आपने गोपीचन्द को सचेत किया कि तुम अपने चित्त को उद्धेगित न करना। और हमारे कृत्य में पूरा विश्वास रखना। यदि चित्त में कुछ भी खिन्नता हुई तो समझ लो करा-कराया समस्त प्रयत्न मिट्टी में मिल जायेगा तथा उसका इतना घोर अनिष्ट फल उत्पन्न होगा तुम्हारे साथ ये दर्शक लोग भी आपत्ति के समुद्र में पड़ जायेंगे। जिससे बहिर निकलना दुष्कर ही नहीं सर्वथा असम्भव हो जायेगा। गोपीचन्द ने आपकी इस चेतावनी को शिर नमन द्वारा स्वीकृत करते हुए कहा कि भगवन् मैं कह चुका हूँ और कह ही नहीं चुका सर्वदा कथन का स्मरण रखता हूँ कि प्राण रहते आपकी आज्ञा से एक कदम भी पीछे न हटूँगा। श्रीनाथजी ने उसके इस कथन पर हर्ष प्रकट कर एक प्रतिमा कूए के किनारे पर रखी। तथा स्वयं उसको पीछे से पकड़ कर ठहरा रखते हुए अपने शरीर की रक्षार्थ मन्त्र जाप करने लगे। इधर मन्त्र पूरा हुआ। उधर अपने पीठ पीछे खडे हुए गोपीचन्द से आपने कहा कि तुम यहीं खड़े ज्वालेन्द्रनाथजी को बहिर निकलने के लिये पुकारो हम इस पुतले की छाया कूप मंे डालेंगे यह देख वे इस बात को पूछेंगे किय ह शब्द और छाया किसकी है तब तुम न बोलना हम स्वयं उत्तर दे देंगे। यह आज्ञा मिलते ही उसने घोषणा की कि स्वामिन्, बहिर आने की कृपा करो। उधर गोपीचन्द के शब्दोच्चारण के साथ-साथ श्रीनाथजी ने प्रतिमा को कुछ कूए की और अवनत किया। तत्काल ही प्रतिध्वनि हुई किय यह शब्द किसकी है। गोपीचन्द चुप रहा। गोरक्षनाथजी ने उत्तर दिया आपके शिष्य गोपीचन्द की है। इस वाणी के ऊपर कूप से आवाज आई कि अरे अपराधिन् ! भस्म हो जाय। तत्काल उक्त प्रतिमा की भस्म ढेरी हो गई। ठीक इसी क्रम से दूसरी प्रतिमा का समाचार हुआ समझना चाहिये। अब तृतीय बारी आई। जिसमें श्रीनाथजी ने गोपीचन्द को स्वयं कूप पर खड़ा होने की आज्ञा दी। और साथ ही यह भी कह सुनाया कि अब के उत्तर भी तुम्ही को देना होगा। यह सुन वह शीघ्र अग्रसर हुआ। और कूप के ऊपर खड़ा होकर पूर्वोक्त प्रार्थना करने लगा। ज्वालेन्द्रनाथजी ने फिर पूछा कि अरे जिसने मेरे दो बचन निष्फल कर डाले ऐसा तू आवाज देने वाला कौन है, क्या सचमुच गोपीचन्द है। उसने विनम्र वाक्य से प्रत्युत्तर दिया कि हाँ गुरुजी मैं आपका चरण सेवक गोपीचन्द ही हूँ। यह सुन वे, अये पुत्र ले हम तो निकल आते हैं परं तू भस्म न हुआ तो अमर ही हो जाय, इस वाक्य की अमृतायमान ध्वनि करते हुए कूप से बहिर आये। अब तो उपस्थित जनता के आनन्द की सीमा न रही। उसके प्रसन्न सुख से उच्चरित होने वाले जय शब्द ने वह स्थल गंूजारित कर दिया। तदनन्तर गोपीचन्द ने अपने राज्य को अधिकारियों के अधीनस्थ कर गोरक्षनाथजी के परामर्श से ज्वालेन्द्रनाथजी की शरण ले अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। और श्री महादेवजी की आज्ञा पालन करने के लिये प्रथम सोपान पर पदार्पण किया। उधर ज्वालेन्द्रनाथजी अपनी विविध विचित्र क्रीडाओं से जन समाज को विस्मित करते हुए बहुत समय से इस बात की ताक में बैठे ही थे। अब वह अवसर उपस्थित हुआ जिसमें उनका वार सफल हो गया। अतएव आप गोपीचन्द को लेकर कुछ दिन के अनन्तर पवित्र और निरत्यय स्थान बदरिकाश्रम में पहुँचे।
इति श्री ज्वालेन्द्रनाथ कूप निस्सरण वर्णन।

Thursday, June 20, 2013

श्रीज्वालेन्द्रनाथ कूप पतन वर्णन

आप उक्त अध्याय में भृर्तनाथजी की धर्म बहिन मैनावती के नाम से परिचित हो चुके हैं। यही श्रीमती स्वकीय श्वशुरालनिष्ठ महात्मा ज्वालेन्द्रनाथजी के अमोघ सत्संग से सांसारिक व्यवहार विषयक उपराम तोपहित होती हुई भी भर्तृ सम्बन्धी इस अतीत वृत्तान्त से उस दर्जे तक पहुँची जिसमें समस्त संसार स्वाप्निक पदार्थ प्रतीत होने लगा। इसी कारण से स्वर्गीय पति के अनन्तर कुछ वर्ष से एक विस्तृत साम्राज्य की स्वामिनी होने पर भी राज्योपभोग उसे किंचित् भी रंजित न कर सकते थे। और वह स्वकीय कल्याण प्रद मार्ग को स्वच्छ बनाने के लिये अधिक समय ईश्वराराधन में दत्तचित्त रहती थी। यहाँ तक कि इस परिणामी संसार के अस्थायी पदार्थों में निःसारता का अवगन कर जिस प्रकार वह अपने आपको चिरस्थायी बनाने का प्रयत्न कर रही थी उसी प्रकार अपने कुटुम्ब के भी स्थायी होने की अभिलाषा करती थी। भर्तृ सम्बन्धी घटना के उपलक्ष्य में पिता के यहाँ आई हुई मैनावती जब अपनी राजधानी में पहुँची तब उसने अपने हृद्य पुत्र गोपीचन्द को, जो कि अठ्ठारह वर्ष की अवस्था में प्रविष्ट हो चुका था और कुछ ही दिन से राज्यासन पर अभिषिक्त हुआ था, इस संसार सागर से उत्तीर्ण बनाने का संकल्प किया। ठीक उसी रोज, जब कि माता के शुभागमन पर उचित उत्सव प्रकट पर मातुल का समाचार पूछने के लिये गोपीचन्द माता के चरणाविन्द की सेवा में उपस्थित हुआ, तब उसके द्रुमिल नारायण का अवतार होने के कारण दिव्याकृतिमान् होने पर भी राज्य ऐश्वर्य से प्रवृद्ध शरीर सौन्दर्य को देख मैनावती प्रथम तो कुछ स्नेह युक्त हुई। एवं विचार करने लगी कि मेरा पुत्र जैसा कि राजा होना चाहिये ठीक उससे एक कदम भी पीछे न हटकर सर्वथा अनुकूल है। फिर क्या इन भाग्योपलब्ध राज्योपभोगों की ओर से इसको वैरागी बनाकर भिक्षु दशा में नियुक्त कर देना मेरे लिये उचित कार्य है। कभी नहीं परन्तु कुछ देर के मननोत्तर वह स्नेह ही उसके प्राथमिक मन्तव्य की पुष्टि करने वाला हुआ। उसने निश्चय किया कि मेरे पुत्र का यह शारीरिक सौन्दर्य, जिसकी समता को हमारे राज्यभर में ही नहीं संसार मात्र में भी कोई प्राप्त नहीं कर सकता है, कुछ काल में प ृथिवी में मिल जायेगा। जिसका होना न होना समान समझा जाकर इसकी जन्मदात्री होने के कारण अद्वितीय पुत्र उत्पन्न करने का जो, मुझे आज महान् गौरव प्राप्त है, यह सर्वथा लुप्त हो जायेगा। इसलिये अच्छा होय दि भगवान् मेरी मनोऽभिवांछा के अनुकूल ऐसा अवसर उपस्थित कर दें कि मेरा पुत्र योगी हो उस अवस्था में प्रविष्ट हो सके जिसमें उक्त शोचनीय दशा की उपलब्धि न हो। ऐसा होने से मेरा वह स्वच्छ यश, जो आज प्रत्येक मनुष्य के मुख से उद्घोषित हो रहा है, चिरतादवस्थ्य बना रहेगा। ठीक इसी विषयक विचारणानुसार उसने उस दिन को उल्लंघित कर फिर किसी दिन गोपीचन्द्र का चित्त निर्णीत विषय की ओर आकर्षित करने के लिये उसको अपने प्रासाद में बुला भेजा। वह सूचना मिलते ही शीघ्रता के साथ पूज्य माता की चरणच्छाया में उपस्थित हो विनम्र वाक्य प्रार्थना पूर्वक स्वकीय आव्हान निमित्त को पूछने लगा। मैनावती के जहाँ इतनी चिन्ता थी कि उसके लिये एक-एक दिन भारी हो रहा था और वह सोचती थी कि गोपीचन्द मेरे आदेश को आज स्वीकार करता अब ही स्वीकार कर ले। वहाँ उसे यह भी सन्देह था कि सम्भव है पुत्र अपनी चढ़ती अवस्था के कारण, विशेष करके पाश्र्ववर्ती इन्द्रियास्वादन लोलुप लोगों के, मेरे अभिमत से विपरीत पट्टी पढ़ाने के कारण ऐसे प्रस्ताव को स्वीकृत नहीं करेगा। अतएव उसने आत्यन्तिक खेद सूचक अश्रुपात पूर्वक बड़ी कठिनता के साथ प्राकृतिक प्रस्ताव आरम्भ करने वाला वाक्य अपने मुख से निकाला। जिसके श्रवण करने के साथ-साथ ही गोपीचन्द की भ्रूकुटी टेढ़ी हो गई। परं वह अपूर्व बुद्धिमती थी। कुछ ही देर में अपने वाक्य रचनात्मक कौशल्य द्वारा उसका चेहरा साफ कर देने पर भी उसने उसको विशेष प्रबोधित बनाने का यत्न किया। एवं कहा कि पुत्र ! तुझे दोष नहीं इस समय तेरी अवस्था ही ऐसी है। परं याद रखना मैं जो कुछ कह रही हूँ वह इस समय तो अवश्य तुझे प्रतिकूल प्रतीत होगा। तथापि तेरे भविष्य को अनुकूल बनाकर वह अवस्था प्राप्त कर देगा जिसमें प्रविष्ट होने पर तुझे स्वयं यह मालूम हो जायेगा कि मैं निःसन्देह उस समय इस कृत्य से नासिका संकुचित कर असाधारण भूल कर रहा था। मैं प्रमत्ता नहीं हो गई हूँ जो तुझे ऐसी विषय दशा में परिणत कर निष्प्रयोजन महाकष्ट में डालती हूँ। किन्तु मैंने सौ बार इस विषय में परामर्श कर तुझे सावधान कर देना अपना असाधारण कर्तव्य समझा है। मैंने जिस समय इस नगरी में पदार्पण किया था उस समय तेरे पितामह राज्यासन पर विराजमान थे जो सर्व कार्यकुशल होने के साथ-साथ अतीव रूपवान् थे। जिसकी प्रजाहितैषिता से उपकृत हुए प्रजाजन अनल्प प्रशंसा करते थे। परं खेद है कुछ ही दिन में मेरे देखते-देखते उसका शरीर सौन्दर्य, तथा उसकी वह असाधारण कीर्ति, जो प्रत्येक मनुष्य के मुखारविन्द से उच्चरित होती थी, सब मिट्टी में मिल गई। जिसका आज कोई नाम तक लेता हुआ नहीं सुना जाता है। तदनन्तर तेरे पिता सिंहासनासीन हुए। उनका गौरव चरित्र भी अपने पिता से किसी प्रकार न्यून कोटि का नहीं था। परं कुछ दिन के बाद मेरे देखते-देखते कालचक्र ने उनको भी अपने गाल में डाल लिया। जिनका वह समस्त गौरव, जिसके विषय में वे फूले न समाते थे, आज न होने की समान हो गया। ठीक यही दशा कुछ दिन में तेरी भी हो जायेगी। फिर कहिये ऐसे राज्योपभोगों से, जिनका गौरव जलीय बुलबुले की तरह कुछ ही काल प्रत्यक्ष दिखलाई देकर सर्वदा लीन हो जाता है, क्या वास्तविक लाभ हो सकता है। अतएव तुझे उचित है कि इन अस्थायी राज्योपभोगों में विषवत् निरीह होकर अपनी गौरव गरीमा को चिरस्थायिनी बनाने के लिये योगेन्द्र ज्वालेन्द्रनाथजी का शिष्यत्व ग्रहण कर ले। ऐसा होने से मैं जो आज तेरे विद्यमान होने पर भी अपने आपको वन्ध्या की तुल्य मान रही हूँ पुत्रवती हो जाऊँगी। यह सुनकर गोपीचन्द्र का हृदय उमड़ आया। और इसीलिये वह उठा कि मातः ! थोड़े ही दिन से राजकार्यों का परिचय होने पर भी मैंने कोई ऐसा नियम प्रचलित नहीं किया जो प्रजा के लिये प्रतिकूल हो। और प्रजाजन उससे दुःखित हो मेरे विषय में घृणा करते हों। प्रत्युत मेरे कार्यक्रम को देखकर हमारी प्रजा इतनी सन्तुष्ट हुई है कि अपने मुक्त कण्ठ से मेरी प्रशंसा करने के साथ-साथ आपको असंख्य धन्यवाद देती है। और कहती है कि गोपीचन्द में जो अपूर्व राजनीति प्रविष्ट हुई है उसका कारण उसके गुण नहीं बल्कि उसकी माता के गुण हैं। कारण कि उस श्रीमती ने अपने पति के स्वर्गवास होेने के अनन्तर राजनैतिक विषय में जो असीम चतुरता दिखलाई थी उसी का संचार गोपीचन्द में संचरित है। जिसका प्रमाण स्वरूप गोपीचन्द के तादृश प्रजावत्सलतादि अनेक गुण आज हमारी दृष्टि गोचर हैं। अतएव इससे यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि असंख्य धन्यवादास्पद उस श्रीमती ने पुत्र को स्वयं दीक्षित किया है। इसी हेतु से उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय उतन ही थोड़ी है। देखिये मातः ! जिसके राज्य कार्य कौशल्य से प्रसन्न हुई प्रजा मेरी ही नहीं आपकी भी अपूर्व राजनैतिक पटुता का यहाँ तक गायन कर रही है, और जिसमें कोई आभ्यन्तरिक ऐसा दुर्गुण प्रविष्ट हो गया हो जिससे समय पाकर राज्य की अथवा कुटुम्ब की अप्रतिष्ठा होने की सम्भावना होती हो उसे आज ही परित्यक्तर वह आपकी कृपा का पात्र बनने को तैयार है, ऐसा पुत्र जब में आपकी चरणच्छाया में विद्यमान हूँ तब मेरी समझ में यह नहीं आता कि आपका वन्ध्या बनने का अभिप्राय है। रह गई कुछ काल में पिता आदि की तरह मेरे मरणों की बात, यह तो चक्र अनादिकाल से चला ही आता है। यदि आज ही मैं यह सोचकर, कि मुझे कुछ दिन में मरना है, इन उपभोगों को, जो बड़े भाग्य से प्राप्त हुए हैं, त्याग कर फिकर में बैठ जाऊँ तो मेरा कुछ समय पर्यन्त सजीव रहकर जो महान् आनन्द भोगना है यह भी हस्त से जाता रहे। और जब मरने की अपेक्षा आज ही मरे सदृश हो जाऊँ। इस वास्ते मुझे उचित है जितने आनन्द का जब तक अनुभव कर सकूँ उतने ही सन्तुष्ट हो ईश्वर की महती कृपा पर कृतज्ञता प्रकट करूँ। जो कि प्राचीन काल से हमारे पूर्व पुरुष की क्या सृष्टि मात्र के पुरुष करते चले आ रहे हैं और आगे करेंगे। इसके अनन्तर मैनावती ने कहा कि पुत्र सांसारिक लोगों के अभिमत से जो तेरा मत सम्बन्ध रखता है इसी कारण से मैं तुझे अब तक अपने सच्चे पुत्र के स्थान में नहीं मान रही हूँ। कारण कि यों तो संसार में सहस्रों नहीं लक्षों अथवा करोड़ों स्त्रियें प्रतिदिन पुत्र उत्पन्न करती हैं। जो कुछ सुख और अधिक दुःख के भण्डार बन थोड़े ही दिन में कुत्ते आदि पशु की मौत मर जाते हैं। जिनके मरण की देश में तो क्या ग्राम की ग्राम तक जान नहीं पड़ती है ऐसे उन पुत्रों का जन्म देने वाली स्त्री भी यदि अपने आपको पुत्रवती कहलाने का अभिमान रखती हों तो रखें। परं मैं उनको पुत्रवती कहने के लिये तैयार नहीं हूँ। मेरे मन्तव्य के अनुसार तो वही स्त्री पुत्रवती है जिसके पुत्र ने किसी असाधारण उचित कृत्य का अनुष्ठान कर संसार के इतिहास का परिवर्तन करने के कारण अपने आपको अमर बनाते हुए जननी को भी अमर बना डाला हो। और वह इसी हेतु से संसार के चिर प्रचलित इतिहास में अन्य स्त्रियों के लिये प्रमाण भूत हो गई हो। ठीक इसी मेरे मन्तव्य को सार्थकता प्राप्त करने के उद्योग में लगने दृढ़ निश्चय कर प्रकृत प्रस्ताव को स्वीकृत कर ले तो मैं आज ही से तुझे अपना सच्चा पुत्र समझकर अपने आपको पुत्रवती मानने का दावा रखने लगूंगी। अन्यथा नहीं। क्यांे कि तूने सावधानता के साथ राज्य ऐश्वर्य भोगते हुए अपनी समुन्नति सूचक कुछ ऐसा भी कोई कार्य कर डाला कि जिससे तू प्रजा की तरफ से और भी इससे अधिक सत्कार का पात्र बन जायेगा। और प्रजाजन मुक्त कण्ठ से तुझे सुना-सुना कर तेरी प्रशंसा करने लगेंगे। परन्तु कब तक जब तक कि तू सजीव रहेगा और उनको इसी प्रकार रंजित किये जायेगा। मरने के बाद तो आज जिस प्रकार तेरे पिता आदि का यश जैसा नगर की नाट्यशालाओं में वर्णित होता होगा वैसा तेरा भी हो जायेगा। सच पूछिये तो जैसे आज उनका होना न होने की समान दीख पड़ता है यही दशा तेरी भी होगी। फिर इस किंचित्कालिक अल्प यश को, जो तेरे राज्य मात्र में ही प्रतीत होता है, देखकर पुत्रवती के अभिमान पूर्वक मैं अपने आपको धन्य कैसे समझ सकती हूँ कभी नहीं, अतएव तुझे योग्य है कि तू उक्त योगिराज का शिष्य बन मेरे अभीष्ट की पूर्ति करे। यह सुन गोपीचन्द ने कहा कि मातः ! मुझे जिस कृत्य में प्रविष्ट करने का आप अनुरोध कर रही हैं उसके विषय में यद्यपि मैंने स्वयं तो ऐसा निश्चय प्राप्त नहीं किया है कि उसका अवलम्बन करने से मुझे अवश्य कोई असाधारण लाभ होगा। तथापि आप मेरी पूज्य माता हैं। आपके लिये संसार में अधिक से अधिक कोई प्रिय वस्तु है तो वह मैं ही हो सकता हूँ। अतएव केवल इसी आनुमानिक विचार पर विश्वास कर कि आप जिस कार्य में मुझे प्रेरित करती हैं वह अवश्य ऐसा होगा जो मेरे कलयाण का हेतु बन जायेगा। और उसकी वास्तविकता का अनेक बार के मनन द्वारा आपने निश्चय भी प्राप्त किया होगा। ऐसी दशा में मुझे यह उचित नहीं कि मैं आपके परामर्श में किंचित् भी ध्यान न दूँ। अतः मैं उक्त विचार के आधार से आपके अभिमत का अनुगामी होता हुआ भी केवल नीति की रक्षा के लिये इष्टजनों की सम्मति प्राप्त करूँगा। एवं परिषद् निर्णय के अनन्तर आपको इस विषय की निश्चयात्मक सूचना से सूचित करूँगा। इस कथन के उत्तर माता का हार्दिक आशीर्वाद लेकर गोपीचन्द अपने निवास भवन में गया। और आमात्यजनों के परामर्शानुसार एक सभा का निर्माण कर उसमें माता के मन्तव्य को प्रकटित किया। जिसको श्रवण कर उपस्थित लोग चकित हो गये। उनके ललाट में यह बात नहीं समाई कि माताजी का यथार्थ अभिप्राय क्या है। आखिर बहुत देर के पश्चात् यह प्रस्ताव पास कर, कि सब महानुभाव अपने-अपने भवन पर जाकर इस रहस्य का तत्त्व निश्रित कर कल की सभा में प्रकट कर दें, उस दिन की सभा विसर्जित की गई। और प्रधान पुरुष स्वकीय स्थानों पर पहुँच आन्तरिक दृष्टि से उक्त वृत्तान्त का मर्म देखने लगे। परं हाय कौन जानता था कि उन सबके दिमाक में एक ऐसी बात अपना अड्डा जमा लेगी कि जिसके अनुसार वे लोग मैंनावती के मन्तव्य से विपरीत अर्थ लगा बैठेंगे जिससे कि महान अनर्थ उपस्थित हो जायेगा। खेद के साथ लिखना पड़ता है कि अग्रिम दिन वाली सभा में अधिकांश लोगों ने आन्तर्धानिक भाव से राजा को विज्ञापित किया कि हमको तो ऐसा अनुभव होता है माताजी साहिब इस ज्वालेन्द्रनाथ योगी के साथ जो कि बहुत काल से राजकीय आराम में निवास करता है, पे्रम पाश से बन्धित हो गई है। तदनुकूल उसकी आभ्यन्तरिक यह इच्छा जान पड़ती है, कि पुत्र को योगी बनाकर राज्य से बहिर निकाल दूँ और ज्वालेन्द्रनाथ के साथ निर्भयता से राज्य करती हुई मनमानी क्रीड़ाओं का अनुभव करूँ। क्यों कि हम बहुत दिन से इसके पारस्परिक प्रगाढ़ प्रेम को लक्षित कर चुके हैं, प्रतिदिन सन्ध्या के समय जब कि लोगों का अधिक गमनागमन बन्ध हो जाता है वह अपनी उन सहचारिणियों के साथ जो उसके ही जैसे आचरण करने वाली हैं ज्वालेन्द्रनाथ के समीप जाया करती है। यह देखते हुए भी हमने, इस बात को सोच कर कि कभी यह रहस्य स्वयं प्रकट होगा, आज तक प्रत्यक्ष रूप से उद्घोषित नहीं किया था। सुतरां वह अवसर भी आ उपस्थित हुआ। जिसमें इतने दिन के बाद उस गुप्त रहस्य का पड़दा फट गया। किसी ने ठीक कहा है अनर्थ का घट सदा परिपूर्ण नहीं रहता है। पाठक ! आप समझ सकते हैं भावी कभी समीप से नहीं जाती है। अतएव उनकी इस विपरीत उक्ति से गोपीचन्द के चित्त में परिवर्तन हो गया। जिससे अतीव खिन्न दशा मंे परिणत हुआ वह पूछने लगा कि सम्भव है माताजी ने इसी अनुचित कृत्य का अनुष्ठान कर हमें कलंकित करने का उद्योग किया है परं क्या इस बात की सत्यता विषयक आप लोगों के पास कोई प्रमाण है। जिससे मुझे भी ऐसा दृढ़ विश्वास हो जाय। उत्तर में उन्होेंने कहा कि प्रमाणों में प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने किसी अन्य की दाल नहीं गलती है। आप हमारे निर्देशानुसार बाग में चलिये। और इसी प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुकूल उसे स्वयं योगी के समीप जाती हुई देखिये। इस कथन के आधार पर गोपीचन्द ने उस दिन की भी सभा का विसर्जन किया। और सायंकालिक निर्णीत चरित्र के अवलोकनार्थ उस अवसर की प्रतीक्षा में चित्त लगाया। शोकाग्नि विदग्ध हृदय गोपीचन्द का वह दिन बड़े कष्ट से व्यतीत हुआ। इतने ही में इधर से निर्दिष्ट समय के अनुसार विज्ञापक महानुभाव भी धीरे-धीरे एकत्रित हो गये। उधर मैनावती का प्रत्याहिक नियम था ही जो प्रथम उचित रीति द्वारा ज्वालेन्द्रनाथजी को परीक्षित बनाकर उसके पूर्ण योगेन्द्र होने का दृढ़ निश्चय प्राप्त करती हुई केवल अपना ही नहीं बल्कि कुलगुरु समझ कर सेवा करने जाती थी। अतएव जब कि नियमित सामग्री ले वह गुरुजी के समीप पहुँची तब वायु सेवन के बहाने से राजासाहिब के सहित ये लोग भी उधर जा निकले। और इन्होंने माताजी को योगी के समीप बैठी हुई देख गोपीचन्द को सूचित किया कि महाराज ! लो अपनी आँखों देख लो। भला वह बात नहीं है तो रात्री होने पर स्त्री का इसके पास जाने का क्या काम है। यह देख गोपीचन्द के हृदय में सहसा अग्नि प्रज्वलित हो उठा। परं वह उस समय महा दुःखी हो मौनता धारण किये हुए वापिस लौट आया। और इस कलंक के आच्छादित करने के लिये किस उपाय का अवलम्बन करना होगा इस विषय में उन पाश्र्ववर्ती लोगों की सम्मति लेने लगा। अनेक विचारा विचार के अनन्तर कुत्सित हृदय लोगों ने निश्चय कर उसको राय दी कि अन्य अनुकूल उपायान्तराभाव से यही एक सुकर उपाय हमारी बुद्धिगत होता है कि जिस किसी रीति से इस योगी को गुप्त कर दिया जाय। कारण कि इस अनर्थ रूपी रोग की जड़ यही है। ऐसा होने पर न तो माताजी को इसका संसर्ग प्राप्त हो सकेगा और न यह अनर्थ होगो। इस पर गोपीचन्द ने कहा कि यह ठीक है परं योगी के लुप्त करने का भी तो कोई सुभीता अन्वेषित करना चाहिये। क्यों कि यह कार्य बढ़ा ही जटिल है। यदि उसे अपने राज्य से निकल जाने की सूचना दी जाय तो वह इसका हेतु पूछेगा। जिसके बतलाने पर सम्भव है कि वह कुपित हो जाय। और शाप वा किसी मन्त्र का प्रयोग कर बैठे। जिससे हमको लेने के देने पड़ जायेंगे। इसके अतिरिक्त यदि माताजी को उसके पास जाने से अवरूद्ध किया जाय तो वह रोकने का हेतु पूछेगी। जिसके स्फुट करने से वह स्वयं क्रुद्ध हुई इस वृत्त को योगी के सम्मुख कह डालेगी। इससे फिर उसके कोप द्वारा उक्त अनिष्ट उत्पन्न होने की सम्भावना है। इस पर भी स्वार्थ सिद्धि के लिये हम अधिक कठोर बनना चाहें और नाथजी के प्राण अपहरण करने की अभिलाषा करंे तो यह कभी सम्भव नहीं हो सकता है। अज्ञानान्ध हुए हम प्रहार भी कर बैठें तो उसका बाल तक बांका न होगा। प्रत्युत वह हम ही को मिट्टी में मिला देगा। ऐसी दशा में समझ नहीं पड़ती कि उसको कैसे गुप्त किया जायेगा। मन्त्रियों ने कहा कि निःसन्देह आपका कथन सत्य है यदि उसकी सावधानता में हम कुछ उपद्रव कर बैठेंगे तो अवश्य हमें आपकी कथित आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। परं हम चाहते हैं कि उसके साथ जो भी बर्ताव किया जाय वह तब किया जाय जब कि उसने समाधि में प्रवेश किया हो। और कुछ काल के लिये वह अपने आपको विस्मृत कर बैठा हो। ठीक इसी निश्चय को प्रधानता मिली। जिसके अनुसार उन्होंने अपना एक गुप्तचर नियत कर उसे यह समझा दिया कि जब कभी ज्वालेन्द्रनाथ योगी समाधि निष्ठ हो तब हमको शीघ्र सूचना देना। वह आज्ञा प्राप्त कर इसी बात की ताक में रहने लगा। दैवगत्यनुकूल एक दिन ऐसा भी आ पहुँचा जिसमें वे ब्रह्मरूपता प्रापक सामाधिक अवस्था में परिणत हुए। यह देख निरीक्षक ने शीघ्र उपस्थित हो राजा साहिब को विज्ञापित किया। उसने उसी समय प्रधान पुरुष को आज्ञा दी कि अवसर आ पहुँचा है तुम जाओ और अपनी इच्छा के अनुकूल उसी कृत्य का अनुष्ठान करो जिससे हमारी कार्य सिद्धि हो जाय। मन्त्री इस प्रेरणा से प्रेरित हो कुछ अनुयायियों के सहित घटना स्थान में पहुँचा। और जो कुछ लोग नाथजी की सम्भवित सेवा के लिये वहाँ पर नियत थे उन्हें अपने-अपने गृह पर जाने का परामर्श देने लगा। वे विचारे क्या करते। आखिर तो नौकर और उसी के नियुक्त किये हुए थे। अतः वे लोग अधिक विचार न करके इस बात का यथार्थ रहस्य अनुभव किये बिना ही कुछ शंकित हुए अपने घर चले गये। उधर उसने युक्तिपूर्वक नाथजी को उठवा कर एक कूप में, जो कि कुछ काल से अवाहित होने के कारण जल रहित था, डलवा दिया। उसमें कितने ही ईंट पत्थर पड़े हुए थे अतएव उसका अभिप्राय था कि इसमें गिरते ही नाथजी के समस्त अंगप्रत्यंग खण्डशः हो जायेंगे। जिससे उसका जीवात्मा इस शरीर का परित्याग कर पक्षी का रूप धारण करेगा। परं ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था उस दुष्ट की अभिलाषा पूर्ण न हुई। इनकी यह पाप बुद्धि नाथजी से भी अविदित न थी। आपको इस आज्ञानिक कृत्य के रहस्य का मर्म प्रथमतः ही मालूम हो गया था अतः जिस समय उन्होंने आपको कुटी से बहिर निकाला उसी समय शरीर के साथ वायु का स्पर्श होने के कारण आप जागरित हो चुके भी यह विचार कर, कि देखें ये दुष्ट मेरे साथ किस अनुष्ठान का व्यवहार करते हैं, अचेत जैसी अवस्था में स्थित रहे। और जब उन्होंने आपको कूप में प्रक्षिप्त किया तब आपने उदान वायु का निरोध कर शरीर को पृथिवी पर न गिरने देकर कुछ हस्त ऊपर ही ठहरा लिया। यह देख वे लोग आश्चर्यात्मक समुद्र में निमग्न हुए। परं अभी उनकी विनाशकारिणी दुष्ट बुद्धि के कृत्य का अवसान नहीं हुआ था। इसी कारण से उन्होंने यह सोचकर, कि कोई ऐसी वस्तु हो इसके नीचे गिराने और इसे आघात पहुँचाने में सहायक हो, एक गुरुतर भार वाली पाषाण शिला अन्वेषित तथा आहृत कर आपके ऊपर छोड़ी। हत भाग्य इस पर भी उनकी आशलता हरित न हुई। आपके ऊपर को हस्त उठाने से जब वह शिला आप तक न पहुँच कर शिर के कुछ ऊपर ही स्तब्ध हो गई, तब तो उनके अंकुरित आश्चर्य का कोई पारावार न रहा। उनका हृदय घबड़ा उठा, मारे भय के समस्त अंगप्रत्यंग कम्पायमान हुए। आखिर किसी प्रकार बड़ी कठिनता का सामना कर वे गोपीचन्द के समीप गये। और उसको इस अनिष्ट सम्भव के विस्मापक समाचार से सूचित किया। जिसका श्रवण कर वह भी घबड़ा उठा। परं विनाश काले विपरीत बुद्धि काली कहावत के अनुसार उसने इस अनिष्टोत्पत्ति की कुछ भी परवाह न करके यह आज्ञा प्रदान कर दी कि जाओ ऊपर से काष्ठ घासादि डलवा कर कूप को सम्पूरित करवा दो। इससे वायुबन्ध होने के कारण तथा घास की उष्णता के कारण से वह अपने प्राणों से हस्त धो बैठेगा। यह सुन राजा की आज्ञा भंग न कर सकने के कारण आभ्यन्तरिक भाव से डरते कम्पते वे फिर वापिस लौटे ! और उन्होंने कुछ मनुष्यों को और बुला कर वृक्ष शाखाओं तथा तृण भारों से नाथजी को आच्छादित कर समीप स्थल में वर्तमान अश्वशालीय कूडे के ढेर से कुछ लीद उठवा कर ऊपर कुटुवा दी। तदनु फिर राजा के समीप आकर अपनी कार्य पूर्णता के विषय में प्रसन्नता प्रकट करने लगे। मूर्खों ने यह विचार तो कहाँ करना था कि जो ऐसी ही गुहा में, जहाँ वायु प्रविष्ट नहीं होता है, बैठकर 500-500 वर्ष पर्यन्त तक की समाधी लगाते हैं उनका इस दशा में नियुक्त कर देने से क्या अनिष्ट हो सकता है। (अस्तु) उन लोगों ने मोद-प्रमोद के साथ इसी विषय की अनेक वार्ता करते कराते आनन्द से वह दिन व्यतीत किया। उधर सन्ध्या होते ही नित्य नियमानुसार मैनावती बाग में पहुँची। परं आज वहाँ क्या था। न तो कोई नोकर था, जो उसके आगमन पर उचित कार्य में भाग लेकर अपनी उपस्थित सूचित करते थे, दीख पड़ते हैं। न कुटी के अभ्यन्तर जाकर देखा तो गुरुजी ही दीख पड़े। इससे उसी समय उसका हृदय पकड़ा गया। और निश्चय किया कि अवश्य कुछ न कुछ दाल में काला है। इतना होने पर भी उसके यह विश्वास तो स्वप्न में भी नहीं था कि ऐसा अनर्थ हो जायेगा। परं वापिस लौटकर उसने वहाँ रहने वाले नौकरों के घर सूचना भेज उनको बुलाकर जब वहाँ से घर आ जाने का कारण एवं गुरुजी के कहाँ चले जाने का समाचार पूछा और उसके उत्तर में उन्होंने जब ज्वालेन्द्रनाथजी की उपस्थिति में कुछ सहचरों के साथ मन्त्री ने वहाँ पहुँचकर इच्छा न होने पर भी अपने को हठात् घर भेज देने का समाचार प्रकट किया, तब तो उसकी शंका और भी बढ़ गई। और वह अनुमान करने लगी कि मैंने गोपीचन्द को जो योगेन्द्रजी का शिष्य बनने के लिये कुछ कहा सुना था मालूम होता है उसी के विषय में अरूचि प्रकट कर उसने इस बिरक्ति ठाठ का विचार कर चुपचाप यहाँ से चले गये हैं। शुकर है वे चुपचाप प्रस्थान करते हुए इनके अनुचित व्यवहार पर कुछ भी हर्ष क्षय न हुए। यदि किंचित् भी क्रुद्ध होकर इनकी ओर टेढ़ी दृष्टि करते तो इन्हें संसार में अपने आपकी रक्षा के लिये कहीं भी जगह न प्राप्त होती। एवं जिस शुद्ध अभिलाषा से मैंने गोपीचन्द को अपने कल्याणप्रद मार्ग को स्वच्छ बनाने का परामर्श दिया था मुझे अपनी आँखों ही उसका विपरीत फल देखना पड़ता। मैनावती ने इस प्रकार कुछ खेद प्रकट कर केवल इतना ही निश्चित किया कि गोपीचन्द का अश्रद्धेय व्यवहार देखकर गुरुजी राजधानी से कहीं अन्यत्र चले गये हैं। परन्तु वह उसके महान् अनर्थकारी कृत्य को अभी तक भी न जान सकी थी। और न कोई ऐसा हो जाने की उसे सम्भावना ही थी। अतएव उसने गुरुजी कहाँ गये हैं इस बात का पूरा परिचय लेने के लिये अपने किसी गुप्तचर को अवधानित किया। मन्त्री लोगों ने यद्यपि यह कार्य आत्यन्तिक गुप्त रीति से किया था। और जो लोग कूप के भरने में सहायक थे उनको, उन्होंने कूप के बन्ध करने का कारण कहीं ज्वालेन्द्रनाथ का छिपाना सूचित कर दिया तो प्राणदण्ड दिया जायेगा, यहाँ तक का भय सुना के परिपक्व कर डाला था। तथापि इसने अपने बुद्धिचातुर्य के प्रभाव से शीघ्र ही यथार्थ तत्त्व का अवगमन कर मैनावती के सम्मुख वर्णित किया। बस क्या था उसने ज्यों ही पूज्यपादजी का पुत्र के द्वारा कूप में पतन होना श्रवण किया त्यों ही ऊपर का श्वास ऊपर और नीचे का नीचे रह गया। वह मूच्र्छित हो शरीर की असावधानता के कारण सिंहासन से नीचे गिरना ही चाहती थी तत्काल ही समीपस्थ दासी ने उसको रक्षित कर शीतादि अनुकूल उपचार के लिये अन्य दासी को आहूत किया। वह शीघ्र स्वास्थ्यप्रद ओषधि ले आई। जिसका प्रयोग करने से कुछ क्षणों के अनन्तर माताजी साहिब लब्धसंज्ञा हुई। उसको इतना दुःख हुआ था मानों किसी ने उसका मर्मस्थान पकड़कर खण्डशः कर डाला हो। यही कारण था वह सचेत होेने पर भी कितनी ही देर तक कुछ न कह सकी। अन्ततः एक दीर्घ श्वांस लेकर उसने ईश्वर की अगम्य गति के सूचक दो-चार शब्दों का उद्घाटन करते हुए कहा कि मनुष्य इसीलिये अल्पज्ञ समझे जाते हैं। ये ईश्वर की वास्तविक अभिलाषा क्या है इस बात को नहीं जान सकते हैं। ये अपनी बुद्धि के अनुसार निश्चय कर करते हैं कुछ और ईश्वरेच्छानुसार हो बैठता है कुछ ! ठीक यही दशा मेरी भी हो गई। हाय मैं क्या यह जानती थी कि कल्याण के विपरीत पुत्र नरक के मार्ग में प्रविष्ट हो जायेगा। हाय मैं अब क्या करूँ और कहाँ चली जाऊँ। नहीं जानती इस अनर्थ का कब क्या फल होगा। सम्भव है अभी तक योगेन्द्रजी की समाधि ही न खुली हो। जब वे उस दशा में जागरित होंगे और अपने साथ इन महान् अनुचित व्यवहार का बर्ताव देखेंगे तब नहीं जानती पुत्र के विषय में कैसा अवसर उपस्थित करेंगे। इस तरह शोकाग्नि विदग्ध हृदय से बहुत विलाप करने के अनन्तर उसने एक सभा करने की आज्ञा दी। जिसका शीघ्र ही प्रबन्ध होने के कारण उसमें उपस्थित होने वाले गोपीचन्द तथा उसके तत्कृत्य परामर्शक सहचारियों को उसने अपने क्रोधावेश वशात् कुछ क्षण के लिये आन्तःपुरिक लोकमर्यादा की परवाह न करके खूब ही तर्जना दी। आप सदाचारिणी एवं ईश्वर में दृढ़ निष्ठा वाली होने पर भी एक महायोगेन्द्र जी की अमोघ सेवा शुश्रुषा के प्रभाव से विलक्षण प्रतिभावाली बन चुकी थी। अतएव आपके तेजस्वी मुखारविन्द से उद्घोषित होने वाले युक्तियुक्त वाक्यों की निरन्तर प्रणालिका ने उनकी ग्रीवा नीचे को कर दी। यह देख उसको उनके पापमय कृत्य का खूब ही परिचय मिल गया। और गोपीचन्द की ओर निर्देश कर उसने फिर कहना आरम्भ किया कि संसार में स्वार्थी लोगों की बुद्धि से प्रायः ऐसे ही कार्य अधिक सम्पादित हुए दीख पड़ते हैं जैसा कि आज हमारे यहाँ हो गया। परं अधिकारी पुरुष को उचित है वह अपने श्रोतों को ही प्रधानता न देकर अपनी सूक्ष्म बुद्धि से भी कुछ कार्य ले। और जहाँ तक शक्यता हो प्रकृत वृत्तान्त की सत्यासत्यता का पूरा परिचय ले। खेद के साथ कहना पड़ता है और उसके विषय में मुझे अत्यन्त दुःख है जो तुझे स्वयं स्वकीय बुद्धि का कुछ भी व्यय न करके इन स्वार्थी लोगों के परामर्शानुसार मेरे मन्तव्य से विपरीत अर्थ में विश्वसित हो इस अनर्थ के करने में अवतरित होने का अवसर मिला। शोक, शोक, शोक, क्या तुझे इतना विचार नहीं हुआ कि ऐसे महान् योगेन्द्र इस सांसारिक पाश से बद्ध नहीं होते हैं जैसा कि मैंने निश्चय कर छोड़ा है। यदि वे सचमुच ही तेरे निश्चय के अनुसार अपने पथ से विचलित हो बैठे होते तो उनकी वह अलौकिक शक्ति, जिसने तेरे पितामह आदि को और तुझे तथा तेरे अनुयायियों को भी चकित कर डाला है, अभी तक कभी की नष्ट हो गई होती। और वे सांसारिक साधारण लोगों की तरह कुछ ही काल पर्यन्त इस लोक की यात्रा समाप्त कर परेत राज के द्वार पर पहुँचे होते। परं ऐसा नहीं दीख पड़ता है। ये असंख्य वर्ष से इस लोक में विद्यमान रहते हुए भी भविष्य में इसी प्रकार अक्षुण्ण रहेंगे। क्यों कि योगेन्द्र का मरण बड़ा ही दुष्कर है। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं यहीं देख लीजिये तेरे प्रदादा-दादा और पिता कहाँ गये। वे तो कुछ काल तक अपने आहंकारिक कृत्य का अनुष्ठान कर धूलि में मिल गये। और ये महाराज अभी तक जैसे के तैसे ही बैठे हैं। बल्कि सच पूछे तो सांसारिक भोगों की आरे से मेरे उपरामता उत्पन्न होने में इसी विचार से सहायता दी है। मैंने सोचा था कि जब से इन योगेन्द्रजी का हमारे नगर में आना सुना जाता है उस समय के अनन्तर आज तक मरणोत्पत्ति की परम्परा से पीढ़ी की पीढ़ी गुजर गई परं ये महात्माजी आनन्द के साथ समय व्यतीत करते हुए अभी तक वैसे ही विराजमान हैं। जब योग में इतनी शक्ति है कि मनुष्य को असंख्य बार पशु-पक्षी की मौत से नहीं मरणा पड़ता है तो इसी का अवलम्बन क्यों न किया जाय। यही कारण था मैंने, मेरे पुत्र की यह अद्वितीय छबिली शान उसके पिता आदि की तरह धूलि में न मिल सके तो सौभाग्य है, यह दृढ़ विचार कर तुझे उधर ध्यान देने के लिये उत्साहित किया था। परं हाय तूने मेरे समस्त शुभ मनोरथों पर खाक डाल दी। और उलटा एक ऐसा काम कर बैठा जिससे हमारा कहीं भी ठिकाना न रहेगा। क्या तूने और तेरे इन सहचारियों ने यह समझ लिया कि महात्माजीका अन्त हो गया अब उससे हमको कुछ भय नहीं। याद रखना प्रथम तो ये ही नहीं मर सकते और चाहें तो सूक्ष्म शरीर बनाकर अभी बहिर निकल सकते हैं। परं तुम्हारी दुष्टता को देख रहे हैं कि वह कब तक इनके हृदय में अपना केन्द्र रखती है। द्वितीय मान लिया जाय कि ये अपनी दयालुता के कारण वा किसी अन्य कारण से तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट न करेंगे। तो भी तुम उससे वंचित नहीं रह सकते हो। कारण कि इनका शिष्य कारिणपानाथ शक्तिशालिता में इनके तुल्य होता हुआ भी एक बड़े उत्तेजित स्वभाव का योगी है। वह तुम्हारे इस कृत्य को अवश्य सुन पायेगा। और तुमको ही क्या सम्भव है नगर मात्र को खतरे में डालकर तुम्हारे इस दुष्ट चरित्र की निर्यातना करेगा। ऐसी दशा में कहो तुम लोगों ने अविचार से इतने बड़े अनर्थ में हस्त डालकर उससे उत्पन्न होने वाले महान् अनिष्ट से अपने आपको बचाने के लिये कोई उपाय भी सोचा है क्या। बोलो-बोलो और सोचा हो तो ऊपर को हस्त उठाओ। यह सुनकर भी जब किसी ने हस्त न उठाया तब तो उसको और भी दुःख हुआ। और उसने कहा कि अच्छा यदि यही बात है तो तुम लोग अपने कर्तव्य का फल भोगना। मैं अपनी आँखों से तुम लोगों का अनिष्ट देखकर अपने शुभ मनोरथ का विपरीत फल नहीं देखना चाहती हूँ। अतएव मैं आज ही नगरान्तर के लिये यहाँ से प्रस्थान करती हूँ। मैनावती के ये दुःख भरे वाक्य सुनकर गोपीचन्द का तथा अन्य कई एक लोगों को अश्रुपात हो गया। और महा कष्टाक्रान्त हृदय से कुछ भी उत्तर न दे कर वे कितनी देर पर्यन्त पाषाण प्रतिमा की सदृश स्तब्ध दृष्टि से उसके मुख की ओर निहारते रहे। तथा कुछ क्षण के अनन्तर सभा विसर्जन करने की सूचना देकर जब मैनावती सभास्थल से चलने लगी तब गोपीचन्द ने अपने सहचारियों के सहित माता के चरणों का आश्रय लिया। और अपने अनुचित कृत्य पर अनल्प पश्चाताप करने के अनन्तर उससे अन्यत्र न जाने का अनुरोध करने के साथ-साथ आगमिष्यमाण अनिष्ट के परिहारानुकूल सम्भवित उपाय के बतलाने का आग्रह किया। यह सुन क्रोधावेश से नासिका संकुचित किये हुए उसकी प्रार्थना में उपेक्षा प्रकट कर वह अपने प्रासाद में चली गई। उधर सभा विसर्जित कर समस्त सभ्य लोग अपने-अपने स्थान पर गये। और इस विषय में न जानें क्या होगा इस प्रकार की महाचिन्ता से आक्रान्त हुए प्रत्याहित ऐसो आराम से वंचित रहे। 
इति श्रीज्वालेन्द्रनाथ कूप पतन वर्णन ।