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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Wednesday, May 22, 2013

जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य था। अतएव वे देशाटन करते एवं जनों को अधःपाती कुत्सित कृत्यों से निर्विण्ण कराते हुए कतिपय दिनों में गुरुजी के चरणारविन्द की सेवा के लिये उपस्थित हुए। उधर निर्दिष्ट समय पर पाश्र्ववर्ती हुआ देख मत्स्येन्द्रनाथजी अपने शिष्य की प्रशंसा करते हुए कहने लगे कि गोरक्षनाथ ! तुमने अपने अवश्यम्भावी योग्य गुणों तथा भक्ति द्वारा हमारे महत्त्वात्मक अहंकार हो तिरस्कृत कर डाला है। अतएव पात्रगुण प्रकर्षता से आरोप करता के गुणमान्द्योपहित हो जाते हैं तुमने इस किम्बदन्ति प्रवाद को वास्तविक कर दिखलाकर इसको मिथ्यात्मक प्रतिपादित करने वालों को सचेत होने का अवसर प्रदान किया है। यह सुन कुछ मुस्कराते हुए गोरक्षनाथजी बोले कि स्वामिन्! यह सब आपकी ही अतीव हितोपहित स्वात्म प्रयोजन शून्य स्वाभाविक महती उच्चाभिलाषा का फल है। क्यांेकि आप गुरु हैं और सच्चे गुरु हैं आपको अपने लिये किसी भी बात की आवश्यकता नहीं अतः जो कुछ करते धरते हो सब हम लोगों के अनागत, कण्टकाच्छादित दुर्गमन, मार्ग को स्वच्छ करने के लिये ही किया करते हो। वस्तुतः होना भी ऐसा ही चाहिये कोई भी शिक्षक अपने शिष्य को निजकर्तव्य में अधिक निपुण वा अपने से भी प्रबल देखना चाहता हो तो कुछ दिन के स्वार्थ से उस विचार के मार्ग को दूषित न करें। अर्थात् निःस्वार्थान्वित हुआ उसमें प्रथम उन्नता भिलाषित्व आरोपित कर उसके गौरवगरीमारूढ़ सीमा तक धावा करने में अपने से जो कुछ साहाय्य बन सके उसको उठा न रखना चाहिये। परं इसके विपरीत स्वार्थान्ध गुरु, उस पर भी नरकोत्पादक कुत्सित स्वार्थान्ध गुरु वा यदि यह मुझसे कुछ अधिक क्रिया कुशल हुआ तो फिर मैं अप्रतिष्ठित हो जाऊँगा, ऐसे असम्भ विचार वाला गुरु, कभी अपने शिष्य को स्वकर्म चातुर्यान्वित नहीं कर सकता है। बल्कि ऐसा विचार करने वाले गुरु मेरी समझ में तो भूल रहे ही नहीं अत्यन्त भूल रहे हैं। क्यों कि शिष्य का प्रभावशाली न होना गुरु की न्यून शक्ति तथा मन्द बुद्धि का का सूचक है। अतएव उक्त विचार ग्रस्त गुरु शब्द प्रयोग के योग्य नहीं हो सकते हैं। परन्तु आप वैसे नहीं है जो मुझे अपने सदृश बनाने में कुछ दृष्ट स्वार्थ हुए हों। फिर क्यों ऐसा हो जो आपकी आज्ञा की उपेक्षा करने के लिये मैं उत्सुक हो सकूँ। प्रत्युत मैं तो आपको अपना सर्वस्व समझता हूँ यदि आप चाहें तो इस विषय में मुझे कभी परिक्षित कर सकते हैं। इत्यादि वचन सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी और भी प्रसन्नचित्त हुए और समाधिस्थ होने के लिये स्वात्मरोचक क्रियोपयोगी निरपाय स्थान की अन्वेषणा का उद्देश्य कर वहाँ से प्रस्थानित हुए। बंगाल से भ्रमण करते-करते शनैः-शनैः बड़े दीर्घ मार्ग को पार कर जब उक्त दोनों महानुभाव कतिपय दिनों में गिरनार नामक पर्वत पर पहुँचे तब सर्व क्रियापयोगी स्वेच्छानुकूल स्थान देखकर मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि बस यहीं समाधिस्थ होंगे। प्रत्युत्तरार्थ गोरक्षनाथजी ने तदनुकूल सम्मति प्रकट की और गुरुजी की आज्ञानुसार एक गुहा अन्वेषित कर उसको गुरुजी ने सम्मुख सूचित किया। जिसका अवलोकन करने के अनन्तर उसको मत्स्येन्द्रनाथजी ने स्वीकृत करते हुए अपना आनन्द भवन बना लिया और अपने सच्चे विश्वासित शिष्य गोरक्षनाथजी को सचेत किया कि इस स्थान की उपेक्षा कर स्थानान्तर को न जाना। सम्भवतः ऐसा करने पर फिर प्रयागवाली घटना उपस्थित हो जाय। यह सुनकर गोरक्षनाथजी ने गुरुजी को विश्वास दिलाया कि आप आनन्द के साथ अपना कार्य संचालित करें मैं कभी इस शरीर को विकृत न होने दूँगा। परन्तु कृपया आप यह बतलावें कि कितने दिन की अवधिनियत की है जिससे अवधि की पूर्ति के समय औषधोपचार द्वारा मैं शरीर को अनुकूल रखूँगा। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी ने आज्ञा दी कि बहुत दिन नहीं केवल सात वर्ष की अवधि है। अतः आज से सातवें वर्ष हम समाधि का उद्घाटन करेंगे तुम प्राथमिक औषाधोपचारानन्तर गुहा का द्वार अवरूद्ध कर देना और उस समय द्वार खोल पुनः औषधप्रयोग के बाद शरीर को रक्षित रखना। इतना कह वे तो आसनारूढ़ हो गये। उधर गोरक्षनाथजी ने जब उचित समझा तब गुरुजी की अभिलाषानुसार शरीर को साध्य कर गुहा का द्वार बन्द कर डाला। परन्तु मत्स्येन्द्रनाथजी के प्राण तथा मन अभी जल मिश्रित लवण की तरह आत्मा में समरस न होने पाये थे इतने में एक दुर्जेय आकस्मिक और अघटित घटना सम्मुख आ खड़ी हुई। वह यह थी कि त्रियादेश अपरनाम (सिंहलद्वीप) आधुनिक (सीलोन) देश की राणी ने, जो कि किसी कारणवशात् पति के चिरकाल रोगाक्रान्त रहने से युवावस्थास्थ कामाधिक्य प्रसंगगत हुई अपने जीवन तथा ऐहलौकिक क्रीडाप्रसंगोत्थित विविधानन्द विरहित मनुष्य शरीर को अजागलस्तनवत् निरर्थक समझती थी, हनुमानजी का आराधन किया। तदनु जब तिरोधानी अनुष्ठान समाप्त हुआ तो उचित समय देख हनुमानजी उपस्थित हुए और उन्होंने प्रत्युकपकारार्थ राणी को वर आदान करने की आज्ञा दी। यह देख राणी ने साष्टांग प्रणाम पूर्वक हस्तसम्पुटी कर कहा कि भगवन्! आप जानते हैं कि ऐहलौकिक धनजन की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह सब कुछ तो आपकी कृपा दृष्टि से स्वतः ही उपलब्ध है। अतः मुझे जिस असोढ़ विरहतोपहित दुरुपलब्ध वस्तु की अभिवांछा है वह पूर्ण कीजिये। जो आपसे भी अनवगत नहीं है। राणी की यह प्रार्थना श्रवण कर महावीरजी ने कहा कि फिर भी तुम अपने मुख द्वारा याचना प्रकट करो तुमने किस उद्देश्य मेरा आराधन किया है। प्रत्युत्तर में राणी ने स्पष्ट ही कह सुनाया कि आप जानते हैं मेरा पति बहुत समय से रूजाधिष्ठित है। जिसकी अब नीरोग होकर फिर तादवस्थ होने की कोई सम्भावना नहीं है और इधर मेरी अभी युवावस्था है जिसके प्रबल प्रवाह का निरोध करना मेरे लिए दुर्बार तो क्या सर्वथा असम्भावी है। अतएव इसी त्रुटि की पूत्र्यर्थ आपका अनुष्ठान आरम्भित किया था जिसके फलस्वरूप आपने अपनी महती कृपा से मुझे दर्शन देकर मेरी आशा की पूर्ति होने के लक्षण सूचित किये। अब निर्विकल्प और निशंक हुए आप मेरे शिर के ताज होकर मेरी आशालता को, जो शुष्क हो चुकी थी, एक बार फिर हरी-भरी कर डालें। यह सुन यति वरजी अपने मन में बड़े ही विस्मित हुए विचार करने लगे कि अहो! विधाता कैसे विचित्र घटना उपस्थित करता है। मैं यति होने के कारण इस वैग्रहिक शरीर से राणी की आशा कभी पूर्ण नहीं कर सकता हूँ। एवं स्वकीयोद्देश प्रयुक्तभक्ति फल से राणी को भी वंचित नहीं रख सकता हूँ। ऐसी दशा में कौन उपाय उपयुक्त है जिसके द्वारा मुझे इन दो समस्याओं से छुटकारा मिले, इत्यादि प्रकार विविध विचारा विचार के अनन्तर उसने एक उपाय निश्चित किया और वह यह था कि उसने सोचा इस इस कार्य को यदि किसी प्रकार बाग्बद्ध हो जायें तो मत्स्येन्द्रनाथ पूर्ण कर सकते हैं और ऐसा होने पर दो वार्ताओं की उपलब्धि होगी। प्रथम तो उनके द्वारा मैं राणी की भक्ति से अनृण हो जाऊँगा, द्वितीय वे मेरे पुरातन तिरस्कर्ता हैं अतः इस कृत्य से उनको लूप्तशक्ति कर अपना अनुभवित अभिभव निर्यातित कर सकूँगा। अर्थात् पूर्वज युद्ध से जायमान वैर का बदला चुका लेने में समर्थ हूँगा। (अस्तु) पूर्वोक्त निश्चय कर उसने राणी से कहा कि तुम विचार करो संसार मात्र में मुझे आ बाल वृद्ध सभी यति समझते हैं। वस्तुतः है भी ऐसा ही मैं कभी इस दशा में संलग्न नहीं हुआ हूँ। अतः मेरे लिये अपने इस भौतिक देह से तुम्हारा यह कृत्य सफल कर तुम्हारी शुष्क आशा बल्ली को हरित करना दुष्कर है। इस वास्ते तुमने मेरे को ही यदि अपना पति बनाने के लिये लक्ष्य ठहरा लिया हो तो तुमको उसका त्याग करना उचित है। परं इतना ध्यान रखना होगा लक्ष्य स्थानीभूत मुझ से दृष्टि लेने का यह अर्थ नहीं है कि तुम मुझे अपना श्रद्धास्थान बनाकर भी उसके फल से विरहित हुई फिर भी स्मरानलदग्धमर्मज दुःख से दुःखी ही रहोगी। किन्तु इस असोढ़ व्याधि के सान्त्वनार्थ मैं अपने से भी सर्वांशोत्कृष्ट व्यक्ति को तुम्हारे समीप ला सकता हूँ। जिसको अंगीकृत कर अपने अभीष्ट की सिद्धि का लाभ उठा ऐहलौकिक विविध विलासोत्थ सुख का अनुभव करना इसके बाद हनुमान जी की अभिमति का समर्थन कर राणी ने तदुक्त व्यक्ति का परिचय मांगा। हनुमान जी ने मत्स्येन्द्रनाथजी का समस्त वृत्तान्त कह सुनाया जिसके श्रवण मात्र से राणी प्रसन्न हो प्रार्थनाभिमुख हुई कह उठी अच्छा भगवन्! जैसे आपकी अभिमति हो वैसा ही करें। क्यों कि मैंने तो योग्य पति की प्राप्ति के लिये ही अनुष्ठानानुष्ठित किया है। इसके फलप्रदानार्थ आप जिस किसी विधि से भी कृतकार्य हों सो करते रहें वही मुझे भी सम्मत है। राणी यह सम्मति प्राप्त होने पर हनुमानजी ने मत्स्येन्द्रनाथजी को स्मृतिस्थान बनाकर उनके आव्हानार्थ अभ्यर्थना की। जिस विघ्नरूपिणी डाकिनी ने सम्मुख उपस्थित हो नाथजी के आत्माराम को स्वरूप में विलीन न होेने दिया। मत्स्येन्द्रनाथजी पौनःपुनिकवृत्ति निरोध द्वारा चित्त को सम्बोधित करते थे तथापि वे उस कृत्य में सफलीभूत न हुए। इस प्रकारी की आकस्मिक घटना ग्रस्त हो मत्स्येन्द्रनाथजी ने शनैः-शनैः प्राणवायु का संचार करना आरम्भ किया और क्रमशः जब वायु संचरण पूरा हुआ तब उक्त घटना के विज्ञानार्थ फिर ध्यानावस्थित हुए आप देखने लगे तो अपने आपको सिंहलद्वीपस्थ हनुमान द्वारा आहूत किया दिखलाई दिया। तत्काल ही उन्होंने स्वकीय चिन्तित कृत्य का त्याग कर हनुमानजी की अभिलाषाओं को सफल करने का संकल्प किया और शरीरान्तर धारणकर जब हनुमान के पास जा उपस्थित हुए तब उससे अपने बुलाने का कारण पूछा। प्रत्युत्तर में हनुमानजी ने समस्त वृत्तान्त जो कुछ व्यतीत हो चुका था निवेदित किया। तथा आपको यह कार्य करना होगा इस बात की विशेष प्रार्थना की कि तुम्हारी क्या इच्छा है किस रीति से यह कार्य करना चाहिये। हनुमानजी ने कहा कि इस कृत्य के अनुकूल उपाय की अन्वेषणा करने में आपसे निपुण अन्य कौन होगा। जिस समय मत्स्येन्द्रनाथजी तथा हनुमानजी की यह पारस्परिक वार्तायें हो रही थी ठीक उसी समय दैवगत्या एक और ही सुभीता उपस्थित हुआ। उन्हें सूचना मिली कि राजा साहिब ऐह लौकिक यात्रा समाप्त कर चले। यह खबर सुनते ही मत्स्येन्द्रनाथजी ने हनुमान जी को समझा दिया हम राजा के शरीर में प्रविष्ट होकर राणी की अभीष्ट सिद्धि की पूर्ति करेंगे। परन्तु तुम यह भेद राणी को न देना और जाओ जाकर राणी को समझा दो कि मत्स्येन्द्रनाथ ने, जिसका मैंने तुम्हारे सम्मुख प्रस्ताव किया था, यह आज्ञा दी है कि हम राणी के पति को नीरोग कर देंगे वह अपनी वांछा पूरी कर सकेगी। यह आज्ञा प्राप्त कर हनुमानजी नगरस्थ स्वभक्तिरता राणी के समीप गये और मत्स्येन्द्रनाथजी की सूचना उसको सुनाने लगे। यह श्रवण करते ही प्रत्युत्तर में उसने कहा कि भगवन्! क्या आपको मालूम नहीं है राजप्रासाद में ये पताकादि राजकीय चिन्ह उतारकर शोकान्वित दर्शनाप्रिय चिन्ह धारण किये जा रहे इसका क्या कारण है। यही है हमारे पति राजाजी, जो दीर्घकाल से रोगाक्रान्त थे, आज स्वर्गवास कर गये। अतएव मैंने भी अपने आभूषणवस्त्रादि परिवर्तन कर ऐसा शोक सूचक चिन्ह धारण कर रखा है जो आपके सम्मुख ही है। एवं साथ-साथ मैंने इस राजा के साथ विवाह करने के पश्चात अब तक सांसारिक सुख का अनुभव नहीं किया है इस महादुःख से विशेष यह दुःख है कि हमारे कोई पुत्र भी नहीं जिसको सिंहासनासीन कर राजा के पद की पूर्ति की जाये। ऐसी अवस्था में आज राजा साहिब ने हमें भोगशून्य व्यर्थ सांसारिक झगड़े में धक्का देकर अनाथ बना डाला है। अतः उसको नीरोग करने का आपका प्रस्ताव वांछित तथा अप्रासंगिक है। राणी के वाक्य की पूर्ति होने पर राणी को सन्तोषित करते हुए एवं राजा की मृत्यु के विषय में अपने को अज्ञात वृत्त जैसे सूचित करते हुए हनुमानजी राजा की मृत्यु पर कुछ आश्चर्य प्रकट कर पुनः स्मृतिगत हो कहने लगे अच्छा भगवन इच्छानुकूल जो कुछ हुआ सो हो इससे भी तुमको खिन्नाभिलाषा नहीं होना चाहिये। क्यों कि मत्स्येन्द्रनाथजी को संजीवनी विद्या आती है। अतः वे राजा साहिब को फिर सजीव कर तुम्हारे अनुकूल कर सकते हैं। यह सुन राणी प्रसन्न हो विविध प्रार्थना करती हुई बोली भगवन्! ऐसा ही कीजिये इस उपकार से उपकृत हुई मैं सदा आपकी कृतज्ञ रहूँगी। तदनन्तर हनुमानजी ने राणी की स्वीकृती का समाचार मत्स्येन्द्रनाथजी को सुना दिया। उस वृत्त के श्रवण करते ही उन्होंने शीघ्रता के साथ अपना मायावी शरीर छोड़कर प्रासादस्थ मृतक राजा के शरीर में प्रवेश किया। जिससे राजा साहिब सजीव हो उठे और राजकीय पुरुषों ने शोक त्यागपूर्वक महान् आनन्द प्रकट कर राजा के मरण वृत्तान्त के कुछ ही क्षणों बाद सजीव होने की घोषणा कर दी। तत्काल ही मृत्युशोक सूचनार्थ प्रासादों से उतारे जाने वाले पतादि चिन्हों को फिर तदीयस्थानों पर सज्जीकृत कर दिया गया एवं नगर में विविध आनन्दोत्सव होने लगे। उधर कतिपय दिन व्यतीत होने पर शनैः-शनैः राजासाहिब को नीरोग होते तथा दिव्य दर्शनाकृति शरीर वाले होते देखकर राणी को अपनी आशालता के हरित और प्रफुल्लित होने का स्वप्न दिखाई देने लगा। अधिक क्या थोड़े दिनों में ही राजा का शरीर बिल्कुल रूजारहित होकर ऐसा सौन्दर्यान्वित हुआ जिसका अवलोकन कर हनुमान तथा मत्स्येन्द्रनाथजी को नम्रतायुक्त बार-बार नमस्कार करती हुई राणी अपने आपको धन्य मानने लगी। एवं मन में यह विचार कर कि अब तक जैसे मैं सांसारिक क्रीड़ात्मकानन्द से वियोगिनी थी वैसे ही ईश्वर कृपा से सहयोगिनी भी हो गई, चित्त को सन्तोषित करने लगी। ठीक इसी क्रम से सानन्द समय व्यतीत होने पर प्रथम तृतीय वर्ष में एक-एक पुत्र का मुख देखने का उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन पुत्र रत्नों का नाम परशुराम तथा मीनराम था। जिन्होंने अपने लावण्य एवं रूप सौन्दर्य द्वारा अपनी माता के पूर्वानुभवित कष्टों को आच्छादित कर बिल्कुल भूला ही दिया। तदनन्तर उसके कोई अन्य पुत्र नहीं हुआ और उसका आनन्दान्वित काल यापित होता रहा। कुछ दिन बीतने के अनन्तर राणी ने अपने गुणाधिक्यवलात् मत्स्येन्द्रनाथजी को इस प्रकार विमोहित किया कि उन्होंने दैवगति के अनुसार विवश हो अपना गुप्त रहस्य प्रकट कर दिया और अपने विलासकाल को चिरस्थायी तथा अक्षुण्ण बनाने के लिये हनुमान् से परामर्श कर स्पष्ट शब्दों में यह कह सुनाया कि हम इतने मोहान्धकार में बद्ध हो गये हैं जिसके कभी त्यागार्थ हमारी रूचि नहीं होती है और उधर से हमें अपने शिष्य गोरक्षनाािजी की भी आशंका है। उसको इस कृत्य की जानकारी हो गई तो वह हमको यहाँ से अवश्य ले जायेगा। क्योंकि वह बड़ा ही गुरुभक्त तथा शक्तिशाली पुरुष है। यह सुन हनुमानजी ने कहा कि आप इस बात का सन्देह न करें मैं कोई उपाय सोचकर इस बात का सब ठीक प्रबन्ध कर दूँगा जिससे कभी ऐसा न होगा कि गोरक्षनाथ आपके ऐहलौकिक विलासोत्थमहानन्द को खण्डित करने के लिये समर्थ हो सके। मत्स्येन्द्रनाथजी को विश्वास था कि गोरक्षनाथ की गति विधि को अवरूद्ध करने का उपाय दृष्टिगोचर नहीं है इसीलिये आप बाले उठे कि आपका कथन ठीक है परं मुझे स्पष्ट बतलाओ कौनसा वह उपाय है जिस द्वारा गोरक्षनाथ का निवारण हो सकता है। हनुमानजी ने कहा कि और क्या उपाय होगा मैं स्वयं इस कार्य के लिये कटिबद्ध हूँगा। अर्थात् राजकीय सीमा पर पहरा रखकर नाथपन्थी मात्र को राज्य के भीतर नहीं घुसने दूँगा। महावीर की इस ओजस्विनी प्रतिज्ञा से कुछ सन्तोषित हो मत्स्येन्द्रनाथजी ने विचार किया कि अच्छा जब अवसर आयेगा तब देखा जायेगा अभी इस विषय में शंकित हो विलास को विघ्नित नहीं करना चाहिये। इसीलिये आप हनुमानजी को यह आज्ञा देकर, कि आप अपने चिन्तित उपाय में संलग्न हो जायें, स्वयं निशंक होकर राजकार्य संचालन करने लगे। इसी प्रकार आनन्द और उत्साह के साथ राज करते-करते जब उनके सात वर्ष पूरे होने को आये तब उधर गोरक्षनाथजी ने गुरुजी के शरीर को पूर्वपरीक्षित औषधों के द्वारा संस्कृत कर तैयार रखा एवं आप इस बात के लिये उत्कण्ठित थे कि गुरुजी अब समाधि का उद्घाटन करेंगे। परन्तु ऐसा न हुआ क्यों कि जिसकी सात वर्ष पर्यन्त की अवधि रखी थी गुरुजी उस समाधि में नहीं थे। इसीलिये शनैः-शनैः वह समय, जो मत्स्येन्द्रनाथजी के समाधि खोलने का था, सम्पूर्ण बीत गया। समाधिस्थ होने वाले पुरातन योगियों की पारस्परिक एक ऐसी अभिसन्धि थी कि निर्दिष्ट समय पर यदि योगी समाधि का उद्घाटन करे तो शरीर रक्षक को यह समझना चाहिये कि समाधिष्ठाता ने द्विगुणा समय और संकल्पित कर डाला है। अतएव तदनुकूल गोरक्षनाथजी ने भी बिना किसी विकल्प के उस बात को समझकर फिर गुरुजी के शरीर को तादृश कर दिया और गुरुजी के जागरित होने पर आनन्दान्वित वार्तालाप द्वारा होने वाले आधुनिक मनोऽभिनन्दन को यहाँ से हटाकर सप्त में वर्ष में नियुक्त किया। परन्तु जब क्रमशः सातमा वर्ष भी बीत गया और गुरुजी ने समाधि को न खोला। तब तो गोरक्षनाथजी को बड़ा ही विस्मित होना पड़ा। इसीलिये ध्यानावस्थित हो आप देखने लगे तो गुरुजी को उस दशा में देखा जिसके अवलोकन मात्र से उनका आश्चर्य और भी बढ़ गया। परन्तु संसार में आपको कोई भी उपाय अगम्य नहीं था अतः अधिक खिन्नचित्त न होकर आप गुरुजी को समाधिस्थ शरीर में लाने का दृढ़ संकल्प करते हुए स्वकीय चिरकाल सहवासी समीस्थ महात्मा दत्तात्रेयजी की गुहा पर गये और उनसे इस विषय में परामर्श कर आपने यह प्रार्थना की जब तक मैं लौट कर आऊँ तब तक आपको गुरुजी के शरीर की रक्षार्थ अप्रमत्ता से रहना होगा। यह सनुकर दत्तात्रेय जी ने आपको विश्वासित कर प्रस्थान करने की सम्मति दी। तत्काल ही सिंहलद्वीपस्थ गुरुजी को लक्ष्य ठहराकर गोरक्षनाथजी वहाँ से प्रस्थानित हुए। परन्तु जब गुरु अधिष्ठित राज्य के समीप पहुँचे तो उनको मालूम हुआ कि राज्य सीमा पर हनुमानजी का पहरा है जो नाथपन्थी मात्र को राज्यान्तर्गत होने से रोकता है। अतः उन्होंने हनुमान के साथ व्यर्थ झगड़ा उपस्थित करना उचित न समझकर गार्हस्थ्य बालक का स्वरूप धारण करके राज्य के भीतर जाने का निश्चय करते हुए आगे को पद बढ़ाया और जब कुछ दूरी पर मार्ग चलते हुए आगे को दृष्टि डाली तोे उनकी दृष्टि सहसा एक रथ पर पड़ी। जिसमें कलिंगानामक एक वेश्या सवार थी। जिसकी अनेक सहचारिणी रथ के आगे पीछे विविध मनोरंजक रागालाप करती चल रही थी और कुछ दूर आगे चलने पर जब सूर्य अस्त हुआ तो रात्री यापनार्थ वह एक वृक्ष समूहावरर्णित सरोवर के ऊपर विश्रामित हो चुकी थी। ठीक उसी अवसर पर बालरूप योगेन्द्रजी वहीं जा उपस्थित हुए और उक्त गणिका से कहने लगे कि तुम कहाँ जा रही हो। प्रत्युत्तरार्थ वेश्या ने कहा कि हम मत्स्येन्द्रनाथजी की राजधानी में जा रही है। वह बड़ा ही विलासी और दानी राजा है अतः अपने नृत्यचातुर्य से उसको प्रसादित कर उससे कुछ द्रव्य प्राप्त करेंगी क्योंकि हमारा यही व्यवहार है। यह सुन बालरूप गोरक्षनाथजी ने कहा कि मुझे भी अपने साथ ले चलो अवसर पड़ने पर मैं किसी कार्य विशेष में तुम्हारी सहायता के लिये तैयार रहूँगा। तदनु प्रत्युत्तर में कलिंगा ने कहा कि तुम हमारे साथ नहीं चल सकते क्योंकि प्रथम तो हम वेश्या हैं गायन और नृत्य करने में चतुर हैं जिसके द्वारा धनाढ्य और राजा महाराजा लोगों को प्रसन्न कर अपनी आजीविका चलाना ही हमारा मुख्य व्यापार है। अतः जो इस बात में हमारी तरह कुशल हो वही हमारी मण्डली में शोभा पा सकता है। दूसरे इतना होने पर भी या तो इतने गुणवाली स्त्री हो और यदि पुरुष हो तो स्त्री रूप बनाने में निपुण हो वही पुरुष हमारी सहायता करने में समर्थ हो सकता है। क्योंकि हम समस्त स्त्री हैं यहीं समझकर राजा लोग हमें अपने रणवासादि पुरुषागम्य स्थान में नृत्यादि कर दिखलाने की निर्विकल्प आज्ञा देते हैं। यदि उनको यह निश्चय हो जाय कि इनमें पुरुष भी प्रविष्ट है तो वे लोग कभी हमें ऐसा न करने दें। इसका उत्तर देते हुए गोरक्षनाथजी ने कहा कि तुम निशंक रहो मैं दोनों बातों में अर्थात् बाजा बजाने तथा स्त्री रूप धारण करने में बड़ा ही निपुण हूँ। तुम यदि चाहो तो अपने निश्चयार्थ मेरी परिक्षा ले सकती हो। जिसके लिये मैं उत्सुक और तैयार हूँ। यह सुन कलिंगा ने कहा कि अच्छा यदि यही बात है तो स्त्री रूप बनाकर तबले की कुछ ताल सुनाओ जिससे तुम्हारे वचन की सत्यतता का अभी निर्णय हो जायेगा। कलिंगा ने यह आज्ञा दे विश्राम ही लिया था ठीक उसी अवसर में शीघ्रता के साथ उन्होंने स्त्री वेष धारण कर तबले के थापी लगाई। जिससे ऐसी ध्वनि निकलती थी मानों समस्त बाजाओं सहित इसके भीतर ही गन्धर्व लोग नृत्यामोद कर रहे हों। आज से पहले ऐसा बजाना तो दूर रहा कलिंगा ने कभी तबले की ऐसी ध्वनि भी नहीं सुनी थी। अतएव कलिंगा स्वकीय समस्त सहचारिणियों के सहित तबले की अश्रुतपूर्व मनोरंजक ध्वनि से कुछ प्रसन्न और अधिक विस्मय ग्रस्त हुई इस प्रकार के विचाराविचार रूप समुद्र में निमग्न हुई कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं है जिसके हस्तथाप सचांचल्य चातुर्ये से जामान अलौकिक, ध्वनि ने अपूर्व स्त्री रूपावलोकन मात्र से बढ़े हुए हमारे आश्चर्य को और भी पारावार शून्य कर डाला है। अतः जान पड़ता है मनुष्य वेषी यह कोई देवता है। परन्तु जब गोरक्षनाथजी के कहने से वे सन्तोषित हुई तो उन्होंने अपना सब विकल्पात्मक मनोभ्रम त्याग दिया और गोरक्षनाथजी को साथ ले जाने में उनको कोई आपत्ति की बात नहीं जान पड़ी। प्रत्युत वे इस बात को अधिक आनन्दित हुई कि इसके अश्रुतपूर्व बाजे द्वारा हमारी और भी अमित प्रतिष्ठा बढ़ेगी। अनन्तर कुछ ही दिन बीतने पर वे मत्स्येन्द्रनाथजी की राजधानी में जा उपस्थित हुई तो उन्होंने सदा की तरह अपने आगमन की राजप्रासाद में सूचना भेजी! जिसके श्रवण करते ही राजा की ओर से नृत्यालय सज्जीकृत किया गया और एक दिन शुभमुहूर्त जान पड़ने पर कुछ दान पुण्यपूर्वक नृत्य आरम्भित किया गया। जिसके दर्शनार्थ उच्चश्रेणी के सभी राजकर्मचारी लोग आये थे। उधर कंचनमय, मणिमरीचिखचित, एक उच्च सिंहासन पर मत्स्येन्द्रनाथजी बिराजमान थे। जिनके वामपाश्र्व में सूक्ष्म वस्त्राच्छादित द्वार वाले एक बरावंडे में उनकी राजमहिषी शोभा पा रही थी जो नृत्यानन्द की विशेष अभिलाषिणी थी। इधर नृत्य भी साधारण न था क्योंकि नत्र्तकी वेश्या इतनी चतुर थी जिन्होंने समस्त दर्शकों का चित्त आकर्षित कर डाला था। अतएव प्रशंसा एवं बार-बार धन्यवाद के अनन्तर दिन व्यतीत हुआ और रात्री के नृत्यार्थ वेश्याओं को निमन्त्रित किया गया। परं इस दिन के नृत्यालय में छùवेषी बालरूप गोरक्षनाथजी नहीं गये थे। उन्होंने अपने कार्य की सिद्धि के लिये रात्री का ही अवसर विशेष उपयोगी समझा था। उधर कलिंगा ने भी उनके दिन में जाने का विशेष आग्रह न किया क्योंकि उसके चित्त में कुछ शंका थी कि सम्भवतः कोई चतुर मनुष्य इस भेद को समझ ले कि यह स्त्री सदृश अंगाकारी नहीं है। अतः रात्री के नृत्योत्सव में सम्मिलित होने के लिये कलिंगा की सम्मत्यनुसार गोरक्षनाथजी भी अपना स्त्री वेष धारण कर तैयार हो गये और समय पर नत्र्तकियों के साथ नृत्यालय में पहुँचे। जहाँ प्रकाश का विशेष प्रबन्ध था और दिन की सदृश समग्र दर्शकजन अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए कलिंका के नृत्य चातुर्य की प्रतीक्षा कर रहे थे। ऐसी ही दशा में नृत्य आरम्भ हुआ जिसमें प्राथमिक नत्र्तकी के कुछ क्षण गाने और नृत्य करने के अनन्तर कलिंगा खड़ी हुई। जो रूपलावण्य से अधिक चित्ताकर्षण एवं विमोहन करने वाली होने पर भी अपने चपलांग चंचलतोपहित नृत्य कौशल्य से मनुष्यों को चेतना शून्य पत्थर मूर्तिवत् बना डालती थी। अतएव समस्त दर्शक जन, नेत्र निमीलनोन्मीलन शून्य हुए, लगातार टकटकी लगाकर कलिंगा की नृत्य निपुणता देखने लगे। ठीक इसी अवसर पर गोरक्षनाथजी ने जब यह समझ लिया कि नृत्योत्थरसात्मकानन्द में लोग विव्हल हो गये हैं उधर मत्स्येन्द्रनाथजी भी पौनःपुनिक वाह-वाह शब्द द्वारा कलिंगा के उत्साह को प्रबृद्ध बना रहे हैं, तब अपने मन्त्र द्वारा तबली स्त्री के उदर में पीड़ा का संचार किया। जिससे तबली वेश्या खड़ी रहकर नृत्य में तबलवाद्य ध्वनि की सहायता देने में समर्थ न हो सकी। यह देख तत्काल ही कलिंगा ने उसको बैठ जाने और बालवेषी गोरक्षनाथजी को तबलयुगल बजाने का इशारा दिया। बड़ी शीघ्रता से यह आज्ञा पालित हुई और गोरक्षनाथजी तबलध्वनि करने लगे। जिस ध्वनि के नृत्य में मिश्रित होते ही उसकी इतनी शोभा बढ़ गई मानों नृत्यकत्र्री साक्षात् स्वर्गीयगणिका आ गई हैं। इसीलिये नृत्य रसात्मकानन्द से आनन्दित हुए दर्शक लोग कलिंगा को वि...... पुस्कार समर्पण करने लगे। कतिपय लोगों ने अपने-अपने आभूषण उतार कर उसे प्रदान किये यहाँ तक कि मत्स्येन्द्रनाथजी ने भी अपने शारीरिक कतिपय आभूषण उधर प्रक्षिप्त किये और उनकी मुख्य राणी ने अपना ग्रैवयेहार कलिंगा के गले में डाला। इस प्रकार कलिंगा की वह आजीविका पूरी हुई समझ कर, जिसकी गोरक्षनाथजी के सम्बन्ध से प्राप्त होने की उसने कल्पना की थी, गोरक्षनाथजी अपने कर्तार्थ यही अवसर अधिक उपयोगी समझा। अतएव अपना-अपना पुस्कार समर्पितकर जब दर्शक लोग पूर्ववत् निज स्थान पर बैठ गये तब उन्होंने तबले के ऊपर विचित्र थाप लगानी शुरू की। जिसमें से प्राथमिक वह ध्वनि निकली जिसके श्रवण मात्र से श्रोताओं को इतना अधिक आनन्द हुआ कि सुषुप्तिकालवत् उनको अपने शरीर का भी स्मरण न रहा कि हम कौन और कहाँ हैं। ठीक इसी समय गोरक्षनाथजी ने अपनी विमोहनी थाप की परिवृत्ति की और तबले से (गुरुजी! जागो गोरक्ष आ गया) की ध्वनि निस्सरित होने लगी। बस क्या था ज्यों ही यह अश्रुतपूर्व शब्द मत्स्येन्द्रनाथजी के श्रोतगत हुआ त्यों ही उनकी नृत्य रसात्मकानन्दी निद्रा भंग हो गई। तत्काल ही उन्होंने नृत्य बन्द करने की आज्ञा दी और कलिंगा से स्त्रीरूप तबली गोरक्षनाथजी का परिचय पूछने के लिये मत्स्येन्द्रनाथजी ज्यों ही उद्यत हुए इतने ही में गोरक्षनाथजी ने अपनी कृत्रिम माया का परिवर्तन कर वास्तविक रूप धारण करते हुए गुरुजी को आदेश-आदेश शब्दान्वित नमस्कार से सत्कृत किया। यह देखकर दर्शक लोग अदृष्ट पूर्व आकस्मिक घटनोस्थ महान् आश्चर्यात्मक समुद्र में निमग्न हुए। परं करते क्या उन्होंने आभ्यन्तरिक भाव तो ये अवश्य थे कि मत्स्येन्द्रनाथजी दद्वत् हमारे राजा बने रहें क्योंकि मत्स्येन्द्रनाथजी ने जिस प्रशंसनीय नीति से राज्य किया था उससे राज्य की इतनी अधिक श्री वृद्धि एवं प्रजा की प्रसन्नता बढ़ गई थी कि जिससे उपकृत हुए लोग कभी मत्स्येन्द्रनाथजी को अपने हस्त से जाने देना नहीं चाहते थे। परं गोरक्षनाथजी के महातेजस्वी अद्भुत चमत्कारशाली दिव्यरूप का अवलोकन करने से उनका कुछ कहने सुनने और करने का सब साहस जाता रहा। तथापि उन्होंने मत्स्येन्द्रनाथजी के निर्देशानुसार शीघ्रता से यह समाचार सीमान्त प्रदेशस्थ रक्षक हुनमानजी के समीप भेजा जिसके श्रवण करते ही विविध बलप्रदर्शक चरित्रों का उद्घाटन कर वह गोरक्षनाथजी के अभिमुख आ डटा और उसने युद्ध करने की घोषणा प्रकट की। यह देख गोरक्षनाथजी ने उसको गुप्तरीति से सूचित किया कि यह युद्ध न्याय संगत नहीं समझना चाहिये। क्योंकि मैं जब अपने गुरुजी को, जो किसी कारण वशीभूत हुए विस्मृत निज दशा हो गये हैं, इस सांसारिक मिथ्याजाल गुम्फित अतिगहन गत्र्त से उद्घृत कर रहा हूँ तब तुम्हारा बीच में कूदकर हमारे प्रयत्न को निष्फल कर डालने की चेष्टा करना सर्वथा अयोग्य है। इसका प्रत्युत्तर देते हुए हनुमान ने कहा कि आप ठीक कह रहे हैं परं आप अपने ऊपर ही घटाइये जैसी अपने धर्म की पालनार्थ आपको चिन्ता है वैसी मुझे भी तो होनी चाहिये। क्योंकि मैं भी मत्स्येन्द्रनाथजी को आपकी रक्षार्थ नियत रहूँगा, ऐसा वचन दे चुका हूँ। अतः या तो आप बिना ही कुछ संकल्प विकल्प किये चुपचाप राज्य सीमा से बाहर हो जायें या युद्ध करना उचित समझें तो तैयार हो जायें। अन्यतम बात के बिना कुछ साध्य नहीं है। साध्यान्तर उपाय दृष्टि पथारोही न देखकर गोरक्षनाथजी ने कहा कि अच्छा यदि यही बात है तो तुम अपने अमोघ एवं अन्यत्र निश्चित शस्त्र या अस्त्र को हमारे ऊपर प्रहृत करो उसने हमको यदि कुछ भी क्लेशित किया तो तुम्हारा हमारे साथ युद्ध करना अवश्यम्भावी तथा उचित होगा। अन्यथा तुमको युद्ध का हठ त्यागकर अभीष्ट स्थल में जाना होगा। यह सुन हनुमान कुछ शंकित हुआ और उसने अपने मन में विचार किया कि है तो ठीक बात, शस्त्रास्त्र का वार करके तो देख लूँ, क्योंकि इनके कथनानुसार यदि प्रहार निष्फल हो रहा तो युद्ध ही कैसे हो सकता है। तदनु हनुमान ने क्रमशः अपने अनेक शस्त्रास्त्र गोरक्षनाथजी को लक्ष्य स्थान बनाकर प्रक्षिप्त किये जिनका वज्रस्तम्भवत् एक जगह पर निश्चित भाव से स्थित हुए गोरक्षनाथजी के ऊपर किंचित् भी प्रभाव न पड़ा। यहाँ तक कि गोरक्षनाथजी के मन्त्र पढ़ने पर हनुमान का अन्तिम अस्त्र चल ही न सका। यह देख हनुमान निश्चयात्मक समझ गया कि जिसने मुझे पराजित किया था आखिर यह भी उसी का शिष्य है। उसी इस मत्स्येन्द्रनाथजी की अलौकिक विद्या से यह दीक्षित है। फिर इसके साथ मेरा युद्ध कैसे हो सकता था। तथापि मैंने जहाँ तक सम्भव हो सका अपने संकल्प की रक्षा की। अतः मेरे लिये कोई निन्दात्मक बात नहीं, इत्यादि विचार कर हनुमान अपने पौरष पर्यन्त मत्स्येन्द्रनाथजी की रक्षणात्मक आज्ञा का पालन करता हुआ एवं अपरिमित शक्ति के सम्मुख अकृतकार्य होने पर अपनी असमर्थता दिखलाता हुआ स्वयं निर्दोष सिद्ध हो मत्स्येन्द्रनाथजी की आज्ञानुसार अभीष्ट स्थान पर चला गया। उधर मत्स्येन्द्रनाथजी गोरक्षनाथजी के सहित अपने निज निवास भवन में गये और आभ्यन्तरिक प्रेममयी विविध पारस्परिक वार्ताओं के अनन्तर जब गोरक्षनाथजी ने उनको चलने के लिये सूचित किया तब मत्स्येन्द्रनाथजी ने इस विषय का कोई प्रत्युत्तर न देकर प्रस्ताव को इधर-उधर की वार्ताओं में मिश्रित कर दिया और अपने पाश्र्ववती भृत्यों को इशारे से समझाया कि रणवास में सूचना दो राणी वह उपाय करें जिससे गोरक्षनाथ भी विमोहित हो जाय और मुझे न ले जाकर स्वयं भी यहीं रहने के लिये बाध्य हो जाये। मत्स्येन्द्रनाथजी की यह गुप्त आज्ञा शीघ्र अन्तःपुर में भेजी गई। उधर राज राणी प्रथमतः ही इस वृत्त से शंकित हुई उपाय अन्वेषणा में तत्पर थी। परं वह यद्यपि यह अच्छी तरह समझ गई थी कि गोरक्षनाथ कोई साधारण योगी नहीं है जो अनायास से ही छù साध्य हो जाय। तथापि उसने अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा उचित समझा सो किया और गोरक्षनाथजी के भोजन का प्रबन्ध एक ऐसे स्थान में किया गया जहाँ स्त्री समुदाय निशंक होकर अभीष्ट शब्दों का प्रयोग कर सके। तदनु रात्री देवी ने अपना कार्य समाप्त कर स्वयं गमन करते हुए दिन के आगमन की सूचना दी। प्रथम अरूणोदय हुआ, उसकी विचित्र किरणों ने प्रासाद की उच्च-उच्च भित्तियों पर अपना बिम्ब डालकर उनकी प्रवृद्ध रंगबिरंगी शोभा को और भी उन्नत बना दिया अनन्तर कुछ क्षणों में सूर्य देव की कृपा हुई, जिसने अपना प्रकाश प्रज्वलित किया। यह देख अभिराम आरामों में बैठे हुए विविध जातीय पक्षिगण आहारार्थ इतस्ततः उड्डीयमान होने लगे। उधर नागरिक लोग भी अपने नित्यकृत्यार्थ गृह से बहिर भूत हुए स्व-स्व कर्म में लीन होने लगे। परं मत्स्येन्द्रनाथजी के अन्तःपुर में आज समस्त दासी वृन्द के सहित राजराणी पùनी का रात्री से सूर्य प्रकाश होने तक, यही परामर्श होता रहा कि किस विधि से गोरक्षनाथजी को अपने हस्तगत किया जाय। अन्ततः विशेष उपयोगी उपाय दृष्टिगोचर न होने से विचार को अधुरा छोड़कर वह स्नानादि क्रिया से निवृत्त हुई। तदनु भोजन भी तैयार हो गया जिसमें किसी प्रकार की भी त्रुटि न रखी गई थी प्रत्युत यह सोचकर कि गोरक्षनाथ ने कभी ऐसा भोजन न खाया होगा, जहाँ तक बनाना सम्भव हो सका बनाया था। एवं जिस प्रासाद में गोरक्षनाथजी को भोजन कराना निश्चय किया गया था उसको ऐसा सजाया गया कि मानों उसकी अतीव मनमोहनी सजावट का यह प्रथम ही अवसर था। ठीक उसी में भोजन करने के लिये निमन्त्रण भेजकर गोरक्षनाथजी को आहूत किया गया वे आये। जिनके आगमन से प्रथमतः ही स्वर्णमय सिंहासन सज्जीकृत किया हुआ था। उस पर उनको बैठाया और विविध रसान्वित भोजन से सुशोभित कांचन थाल उनके आगे स्थापित हुआ। जिसमें से गोरक्षनाथजी ने भोजन करना आरम्भ किया राजराणी पùनी स्वयं व्यंजन वायु करने के लिये उद्युत हुई जो विविध प्रकार के आभूषणों से भूषित थी। एवं उसकी अन्य सहचारिणी जो, कोई भोजन बनाती और कोई परोसने का कार्य कर रही थी, वे भी पùनी की तरह अपना अद्वितीय श्रंृगार कर गोरक्षनाथजी के मोहित होने का भार अपने ही ऊपर आरोपित करने की अभिवाच्छा रखती थी और इधर-उधर समीप से निकलती हुई उन शब्दों का उच्चारण करती थी जिनके श्रवण मात्र से मनुष्य का प्राकृतिक स्वभाव पलट कर शीघ्र उस दशा में परिवर्तित हो सकता है जिसके लिये वे यत्न कर रही थी। परं हमारे श्रद्धास्पद् पूज्यपादजी ऐसे साधारण व्यक्ति नहीं थे जो उनके इस मायावी जटिल जाल में अवरूद्ध हो घोर कलंक का टीका अपने मस्तक पर धारण करते। अतएव उनके मोहनास्त्र से गोरक्षनाथजी किंचित् भी विचलित न होते हुए अपने प्राकृतिक स्वभाव से ही भोजन करते रहे। विचलित होते भी कैसे इनके आगे उनका तुच्छ श्रृंगार तथा रूप दिखलाना ऐसा था जैसा सूर्य के सम्मुख दीपक दीखलाना क्योंकि इनके तपस्या काल में इनको मोहित करने की इच्छा वाली अमर अप्सराओं का जहाँ विफल मनोरथ हो गया वहाँ इन बराकियों की क्या दाल गले थी। अतएव अपने कृत्य को निष्फल देखकर वे बिचारी निराश हो गई। उधर गोरक्षनाथजी भी उनके आभ्यन्तरिक पश्चाताप को समझ गये थे। इसीलिये उन्होंने उनके उत्साह को अधिक मन्द करने के लिये अपना इतना तेजस्वी तथा दिव्यदर्शन रूप बनाया जिसके आगे प्रासाद और उन स्त्रियों की शोभा तुच्छ सी दीखने लगी। यह देख अपनी सहचारिणियों के सहित पारस्परिक मुखावलोकन करने से लज्जित हुई राजराणी पùनी, जब भोजनानन्तर गोरक्षनाथजी दूसरे आसन पर विराजमान हुए तब उनके चरणों में गिरी और मत्स्येन्द्रनाथजी को न ले जाने के लिये उसने सनति अभ्यर्थना की। यह सुनते हुए गोरक्षनाथजी ने उसको समझाया कि मातः! अधिक एवं असम्भावी लोभ करना उचित नहीं है। एक दिन वह था जिस दिन तुम राजा के रोगाक्रान्त रहने से सांसारिक व्यवहार से अनभिज्ञ हुई अपने मनुष्य जन्म को निष्प्रयोजन समझती थी और रोगी राजा के स्वर्गारोहणानन्तर उसके स्थान की पूर्ति करने के लिये कोई भी पुरुष, जो तुमको अभीष्ट जान पड़ता हो, नहीं था। परन्तु आज वह बात नहीं है, आज वह अवसर है जिसमें तुम्हारी उन दोनों त्रुटियों की पूर्ति हो चुकी है। अतएव तुमको अब इस विषय में प्रसन्नता प्रकट कर प्रत्युत ऐसी ही सम्मति देनी चाहिये जिससे गुरुजी चलने के लिये शीघ्र तैयार हो जायें। इसके विपरीत यदि तुम यह चाहती हो कि सांसारिक विलास से अभी रूचि शान्त नहीं हुई है इसीलिये और अधिक अभिलाषा है उसकी पूर्ति हो जायेगी तब देखा जायेगा। तो मैं कहूँगा कि यह निःसन्देह तुम्हारी भूल है क्योंकि यदि प्रवृद्ध अग्निलटा में घृत डालने से अग्नि कभी मन्द हुआ हो तो विलासाभिलाषा भी मन्द हो सकती है। परं वास्तविक में ऐसी बात नहीं है। न तो कभी अग्नि मन्द होता और न कभी विषयवासना ही मन्द होती है। गोरक्षनाथजी के इस विधि से समझाने से अथवा उपायान्तराभाव से विवश हुई राणी ने सन्तोषित हो धैर्यावलम्बन कर गोरक्षनाथजी के कथन का समर्थन किया और विविध पूजा वन्दना के अनन्तर आपके आगमन एवं अलग्य दर्शन से अपना अहोभाग्य प्रकट कर मत्स्येन्द्रनाथजी के निवास भवन में जाने के लिये आज्ञा दी। अतः गोरक्षनाथजी गुरुजी के समीप पहुँचे और उन्हें प्रस्थान करने को कहने लगे। मत्स्येन्द्रनाथजी के गोरक्षनाथजी गुरुजी का वह वचन स्मृतिगत था जो एक बार उन्होंने कहा था कि मैं आपका सच्चा शिष्य हूँ आप चाहें तो कभी परीक्षा कर सकते हैं अतएव यह देखने के लिये कि गोरक्षनाथ कितना दृढ़ गुरूभक्त और प्रतिज्ञापालक है, चलने के नाम से नासिका संकुचित कर वे एकदम नट गये। एवं कहने लगे कि इस प्रकार के स्वर्गोपम भोग त्याग कर और कहाँ जाना तथा क्या करना है। क्योंकि संसार के सभी लोग यह चाहते हैं कि हम राजा बन जायें जिससे नाना प्रकार के भोग कर अपने जीवन को सार्थक करें। फिर वही राजपना और नाना प्रकार के भोग जब हमको अनायास से ही प्राप्त है तो उनको छोड़ बैठना कहाँ की बुद्धिमत्ता है। गुरुजी के इस प्रकार शीघ्रता के साथ बिना ही कुछ सोच विचार किये नटने से गोरक्षनाथजी समझ गये कि गुरुजी मेरी दृढ़ता की परीक्षा करते हैं अन्यथा कुछ युक्ति युक्त वाक्यों का प्रयोग अवश्य करते। अतः प्रत्युत्तरार्थ उन्होंने कहा कि आप सत्य कह रहे हैं सभी सांसारिक लोग राजपाट तथा तज्जायमान भोगों की अभिलाषा करते हैं परं योगिजनों को उनमें भी आप जैसों को जो जन्म-मरण शब्द वाक्य संसार में नहीं गिने जाते, जिनको सांसारिक बनना हास्यास्पद एवं लज्जास्पद बनना है, उनको तो ऐसी अभिलाषा नहीं करनी चाहिये। दूसरी बात यह भी है कि ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आप जैसे शक्तिशाली महात्माओं को अप्राप्त हो। फिर प्राप्त वस्तु की इच्छा करना सर्वथा अनुचित एवं निन्दनीय है। अतएव आपने जो कुछ मनन किया है उसको मैं अच्छी तरह समझता हूँ आपको न तो कोई वस्तु अप्राप्त है और न किसी की अभिलाषा ही है। केवल एक वही बात है जिसकी आपने अनेक बार परीक्षा की है और अब भी कर रहे हैं। परन्तु क्या इतना समझता हुआ मैं पथच्युत होने वाला हूँ कभी नहीं। यदि किसी प्रासंगिक निमित्त से आप और कुछ विलम्ब करेंगे तदपि आपको चलना तो अवश्य ही होगा इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। मत्स्येन्द्रनाथजी यह सुन (जो मेरे मन में सोई दादा के पत्रे में) वाली कहावत के अनुसार मुस्कराते हुए कहने लगे कि खैर किसी प्रकार मैं चलूँ भी तो एक और कारण ऐसा है जिस वशात् मेरा चलना असम्भावी है। गोरक्षनाथजी ने पूछा कि आप निशंक हो स्पष्ट बतलावें जहाँ तक सम्भव होगा उसकी सिद्धि के लिये प्रयत्न किया जायेगा। उत्तरार्थ मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि यह छोटा लड़का जो मीनाराम है, इसमें मेरा अत्यन्त मोह है। जिसको मैं अपने हृदय से भी प्रिय समझता हूँ और कभी अपने नेत्रों से दूर नहीं होने देता हूँ। यदि इसको साथ ले चले तो मेरा चलना हो सकता है अन्यथा नहीं और यदि इसके बिना मुझे चलना ही पड़ा तो मेरा अन्यत्र रहना भी दुष्कर है अर्थात् फिर वापिस लौटना पड़ेगा। मत्स्येन्द्रनाथजी ने सोचा था कि माता को पुत्र जितना प्रिय होता है इस बात को वहीं जान सकती हैं जो अकुलटा एवं पुत्रवती माता हैं। अतएव पुत्र को, फिर मीनराम जैसे पुत्ररत्न को, जिसको छाती से दूर करना मेरे को भी कठिन नहीं असम्भव है अपने हस्त से छोड़ने के लिये राणी कभी सहमत नहीं होगी। दूसरे एक ही बार पति पुत्र को तिलांजलि देने के लिये राणी समर्थ नहीं। अतः देखें इस विषय में हमारा शिष्य क्या करता है। उधर गोरक्षनाथजी को भी अपने कर्तव्य एवं विद्या तथा शक्ति का पूरा विश्वास था कि हम कठिन से कठिन कार्य को सिद्ध कर सकते हैं। अतएव गुरुजी के अटपटे वाक्य पर अधिक सोच विचार न कर उन्होंने भी मीनराम को अपने समीप बुला भेजा। यह आज्ञा पाते ही शीघ्रता के साथ वह उनकी सेवा में उपस्थित हुआ और गोरक्षनाथजी के प्रस्ताव उपस्थित करने पर उनके प्रस्ताव का समर्थन करता हुआ कहने लगा कि महाराज! मैं नहीं समझता कि मेरा इतना बड़ा भाग्य है जो मैं कभी उस अलौकिक आनन्द का अनुभव कर सकूँगा जिसका अनुभव कर आप लोग अजरामर हुए अनेक प्राणियों के कल्याणार्थ देशाटन करते हुए अपनी अक्षुण्ण कीर्ति का विस्तार कर रहे हैं। परं मेरा अदृष्ट अनुकूल है इसीलिये यदि आपकी भी मेरे ऊपर अपरिमित कृपा है तो मैं आपके हस्त का पात्र हूँ आप चाहें जहाँ ले जायें और रखें। सुबोध बालक मीनराम की उक्ति से गोरक्षनाथजी बड़े ही प्रसन्न हुए और उसकी आरे से निश्चित होकर राणी के समीप पहुँचे। परं जब गोरक्षनाथजी ने मीनराम के बिना गुरुजी का चलना असम्भव बतला कर उसके मांगने की प्रार्थना की तब तो राणी एक बार ही मूच्र्छित हो पृथिवी पर गिर पड़ी। यद्यपि उपायाभाव से विविश हो या यों कहिये कि स्वगुरुजी का ले जाना युक्तियुक्त एवं न्याय संगत समझ कर किसी प्रकार उनके जाने पर राणी ऊपरी भाव से सहमत हो गई थी तथापि उसके हृदय में वह एक आभ्यन्तरिक गहरी चोट थी। इतना होने पर भी फिर भला वह पुत्र का वियोग कैसे सह सकती थी। खैर किसी प्रकार विविध शीतलौषधोचार से कुछ क्षण में राणी ससंज्ञा हुई गोरक्षनाथजी को कहने लगी महाराज! यह क्या अनर्थ करने लगे। क्या आपकी मुझे अत्यन्त ही शोक समुद्र में डालने की इच्छा है। यद्यपि यों तो आप अप्रतिहतेच्छा हैं इसीलिये जो चाहें सोई कर एवं करवा सकते हैं तथापि इतनी बड़ी आकस्मिक वेदना सहने में मेरा हृदय समर्थ नहीं है। अतएव आपको उचित तो यह था कि राजा को भी न ले जाते इस पर भी आपका लड़के मीनराम को हमारे उरलस्थान से दूर करना मानों हमारे मर्मस्थान में कुठाराघात करना है। गोरक्षनाथजी ने मीनराम के नाम से अत्यन्त शोकातुर हो मोह से विव्हल हुई राणी को देखकर उससे कहा कि मातः! कुछ ध्यान दो जिसके नाम से तुम इतनी मोहान्धकारात्मक कूप में पड़कर निश्चेष्ट जैसी हो गई हो वह मीनराम कुछ दिन पहले कहाँ था। क्या तुमको यह भी भान था कि वह उस जगह अथवा उस जाति वा उस कुटुम्ब में है और हमारे घर जन्म पाकर हमारा पुत्र बनने वाला है और क्या तुम उसके तुम्हारे घर आने से पहले भी उसमें कुछ प्रीति एवं मोह रखती थी। यदि नहीं तो कहो अब ऐसा क्यों करती हो। वायु वेग वश से अनेक वृक्षपत्र एवं तृण उड़ा करते हैं जब आगे किसी वृक्षादि का उनको आश्रय मिल जाता है तब उसी के आश्रित हो कोई दिन विश्रामित होते हैं। तथापि उनका पारस्परिक अज्ञानमय मोह नहीं होता है। ठीक इसी प्रकार अपने-अपने कर्म वेग वश से इधर-उधर घूमते हुए प्राणी जब किसी का आश्रय पाकर कुछ दिन विश्रामित हो जायें तो उनमें अपने चित्त को तुम्हारी तरह बाँध रखना उचित नहीं। ऐसा करना वैसा ही है जैसा कोई दिन के लिये धरोहर रखी हुई किसी की वस्तु में चित्त को पाशबद्ध कर डालना। यदि गुरुजी के मोहाच्छादित होने का प्रश्न चित्त मेंं लाती हो तो वह तुम्हारी अज्ञानता का विचार समझना चाहिये। क्योंकि इस बात को तुम नहीं जान सकती हो मैं जानता हूँ गुरुजी न तो कभी इस विषय में मोहित हुए और न कभी होने वाले हैं। किन्तु उनका अभिप्राय है गुरुभक्ति विषय में मेरी परीक्षा करना। अतः तुमको इस विषय में सूक्ष्म दृष्टि देनी चाहिये और अपना प्रास्तविक हठ त्याग कर हमारे कार्य की सहायतार्थ प्रयत्न करना चाहिये। दूसरी बात, जिसके ऊपर तुमको विशेष ध्यान रखना चाहिये, यह है कि तुम हमारा परिचय समझो हम कौन हैं और किस कार्यार्थ संसार में भ्रमण करते हैं। क्या तुमने जैसा कह डाला कि आप क्या अनर्थ करते हो वस्तुतः हमने अनर्थ ही किया है क्या, यदि अनर्थ करते तो तुमसे इतनी प्रार्थना करने की कोई आवश्यकता नहीं थी अब तक अपना कार्य कर कभी के चम्पत हुए होते। परन्तु हम चाहते हैं कि तुम हमारा यथार्थ स्वरूप जान जाओ और यह निश्चय कर लो कि जैसा तुम कह बैठी हो हम वैसे नहीं हैं। प्रत्युत तुम जैसे भक्तिशील प्राणियों की आत्र्तवाणी से आकृष्ट हुए उनको सर्वांश सम्पन्न बनाकर यथेष्ट फल भाजन कर डालते हैं। क्या तुम प्रयागराज की घटना से परिचित नहीं हो मैंने एक समय स्वयं गुरुजी से निरोध कर उन दुःखियों को दुःख हरण करवाया था जो तुमसे भी अधिक दुःखी थे। मैं वही गोरक्षनाथ और मेरे गुरु वे ये ही मत्स्येन्द्रनाथ हैं जिन्होंने तुम्हारी प्रार्थना पर मुग्ध होकर तुम्हें सर्व सम्पन्न किया है। अर्थात् तुम जो ऐहलौकिक भोगविलास शून्य निजजीवन को व्यर्थ समझ बैठी थी उस त्रुटि को दूर किया और राज्य कार्य संचालन के लिये परशुराम पुत्र दिया है। तथा योगक्रिया में अपरिमित कुशलता प्राप्त कर सांसारिक मिथ्या जटिलजाल सम्पूरित कूप से स्वयं उद्धृत हो अन्य अनेक प्राणियों के कल्याणार्थ तथा तुम्हारे कुल की अक्षुण्ण कीर्ति का विस्तार करने के लिये यह मीनराम पुत्र दिया है। यह सुनकर राणी को गुरु-शिष्यों की लोक हितैषिता एवं अद्भुत अलौकिक समस्त घटनाओं का स्मरण हो आया। इसीलिये उसने अपने मन में पश्चाताप किया कि मैंने निःसन्देह भूल की है मुझे जो कुछ प्राप्त है सब इन्हीं का प्रदान किया हुआ है और जैसे इसके प्रदान की शक्ति इनमें वर्तमान है वैसे ही आदान की भी है अतएव उस पर मेरा कुछ अधिकार नहीं। यदि है भी तो वह उसी पर है जिसको ये स्वयं मेरे अधीनस्थ करें। इत्यादि विचारानन्तर उसने गोरक्षनाथजी से क्षमा करने को कहा और मीनराम को ले जाने की सम्मति दे दी। यह कार्य समाप्त कर गोरक्षनाथजी गुरुजी के समीप आये और राणी की सम्मति को निवेदित कर चलने की तैयारी के लिये प्रार्थना करने लगे। यह समाचार पाकर मत्स्येन्द्रनाथजी आभ्यन्तरिक भाव से प्रसन्न हुए कहने लगे कि चलें तो ठीक परं हम तो वह क्रिया भी भूल गये जिस द्वारा उस गुहास्थ शरीर में प्रविष्ट होते। गोरक्षनाथजी ने कहा कि खैर कोई परवाह की बात नहीं आप चलें तो सही वह भी सब याद आ जायेगी। मैं स्वयं इसका प्रबन्ध कर लूँगा। इस प्रकार सर्व ओर से निरूत्तर हो मत्स्येन्द्रनाथजी ने चलने की आज्ञा दी। शीघ्र ही एक महोत्सव उपस्थित हुआ बड़े पुत्र परशुराम को राज्यतिलक दे विविध मंगलान्वित वाद्य ध्वनि के साथ उन्होंने लोगों को आशीर्वाद देते हुए वहाँ से प्रस्थान किया और कतिपय दिनों में स्वराज्य सीमा पार कर पृष्ठागामी उन लोगों को, जो सत्कारार्थ स्वराज्य सीमा तक उनकी विविध शुश्रुषा करते आये थे, वापिस लौटने की आज्ञा दी। परं वे लोग मत्स्येन्द्रनाथजी को बहुत चाहते थे। अतः सदा के लिये उनसे वियोगी हुए देख अपने प्रेमसंपूरित उमड़ते हुए हृदय को न रोक सके। इसीलिये उन लोगों ने उस दिन की रात्री में और उसी स्थान में ठहरने का अनुरोध किया। मत्स्येन्द्रनाथजी ने उनकी अन्तिम अभ्यर्थना स्वीकृत की। तत्काल ही तम्बु वगैरह तन गये। भोजन तैयार होने लगा (दादाजी का आज यह अन्तिम बादशाही ठाठ था) उधर से बिति अपनी डिबटी पूर्ण कर अस्ताचल का अतिथि हुआ। इधर से रात्री देवी ने अपनी डिबटी पर खड़ी हो लोगों को सूचित किया कि खबरदार हो जाओ अब इधर-उधर घूमने की कोई जरूरत नहीं है समग्र दिन के इधर-उधर भ्रमण से श्रान्त हो गये होंगे। अतः अब पड़कर सो रहो जिससे थकावट दूर हो जाय। रात्री की इस तर्जना से भयभीत हुए लोगों ने अपना-अपना समस्त कार्यक्रम छोड़कर गृह की शरण ली। कृषक लोग जंगल से घर आये तो उधर नगर निवासी दुकानदार लोग अपनी-अपनी दुकान बन्द कर घर में घुसे और कुछ खा पी कर सोने के लिये निद्रा देवी का आव्हान करने लगे। ठीक यही तृत्तान्त दादाजी के लश्कर का भी था। इसको भी लगातार कतिपय दिन मार्ग तय करते-करते थकावट ने तंग कर रखा था। अतएव जब भोजन तैयार होने पर सबको समर्पित किया गया और उसके अनन्तर सोने की आज्ञा मिली तब वे समस्त लोग, जिनके हृदय में मत्स्येन्द्रनाथजी के जाने का कुछ भी हर्ष शोक न था, पडकर सो रहे। परं मत्स्येन्द्रनाथजी और उनके नीतिमर्मज्ञ वृद्ध सहचारी न सोये। उनकी समग्र रात्री विविध वार्तालाप करते व्यतीत हुई। उधर गोरक्षनाथजी भी एक पृथक् कमरे में लेटे हुए उनकी समस्त रात्री में होने वाली गुप्त गूह को सुनते रहे अतः उनको भी निद्रा देवी की गोद से वियोगी होना पड़ा। खैर जिस किसी प्रकार रात्री ने अपने गमन की घोषणा की, प्रातःकाल हुआ, सूर्य भगवान् ने अपने तीक्ष्ण रश्मियों द्वारा लोगों को सचेत कर अपने कार्य में संलग्न होने की सूचना दी, उधर पक्षी वृन्द भी निज आवास छोड़कर आहारार्थ वन क्षेत्रों में जाने लगे। इधर मत्स्येन्द्रनाथजी का अनुयायी सैन्यदल वापिस लौटने के लिये उनकी आज्ञा की प्रतिज्ञा कर रहा था। बड़ा ही दुःखद समय उपस्थित था। मत्स्येन्द्रनाथजी के वृद्ध मन्त्री जो, उनकी अलौकिक विचित्र नीति पर मुग्ध हुए उनको परम प्रेमास्पद मानते थे, वे अश्रुपूरित नेत्र हुए अपनी प्रेमज विव्हल अवस्था से दादाजी के चिर वियोगी होने वाले हृदय को और भी द्रवीभूत बना रहे थे। परं करते क्या व्याध हस्तगत हएु पुत्र की ओर स्तब्ध नेत्रों से जैसे मृगी देखा करती हैं वे केवल इसी प्रकार देखने लगे और इतने मोहावृत्त हुए कि उनके मुख से एक बार तो शब्दोचारण करना भी दुष्कर हो गया था। क्योंकि वे समझते थे कि संसार में प्रायः ऐसा देखा जाता है अत्यन्त नीतिकुशल राजा का एवं अत्यन्त विद्वान् (पण्डित) का पुत्र तादृश नहीं हुआ करता है। अतः उन्हों को सन्देह था सिंहासनासीन परशुराम कभी कुमार्गी निकल जाय और हमारा अनुभूत नैतिकानन्द मिट्टी में मिल जाय। खैर किसी प्रकार पारस्परिक प्रास्थानिक मिलाप प्रारम्भ हुआ और मिलते समय उन्होंने मत्स्येन्द्रनाथजी से अनुरोध किया कि स्वामिन्! कुछ धन-दौलत तो ले जाते जिससे साधु-संतों को भोज्य देकर उन्हें अपने आगमन से खुशी करते। यह बात सुन मत्स्येन्द्रनाथजी ने गोरक्षनाथजी से कहा है तो ठीक बात, क्यों भई तेरी समझ में क्या आता है। प्रत्युत्तरार्थ गोरक्षनाथजी ने कहा कि क्यों बोझा खैंचा आगे बहुतेरे माया के पर्वत खड़े हैं आपको चाहिये जितना धन ले लेना। यह सुन उन्होंने कहा कि वे पर्वत माया के तुमने बनाये होंगे। उत्तर मिला कि हां, प्रश्न हुआ कि यह पर्वत जो सामने दीख रहा है इसको भी धनमय बना दे तो क्या हर्ज है। उत्तर देते हुए गोरक्षनाथजी ने कहा कि हर्ज की कोई बात नहीं इस पर्वत की शिला मंगवा कर देखो स्वर्ण मयी हैं या नहीं ! शीघ्र शिला मंगाई गई। लाने वाले ने कहा समग्र पहाड़ स्वर्णमय जान पड़ता है। यह देख मत्स्येन्द्रनाथजी मुस्कराये और समस्त लोग गोरक्षनाथजी के चरणों में गिरे। तथा मत्स्येन्द्रनाथजी जी को कहने लगे कि कुबेर कोश आपके समीप है अतः आपको फिर इस विषय की कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिये। तदनन्तर पारस्परिक नमस्कार और आशीर्वाद होने पर प्रस्थान करते हुए गोरक्षनाथजी ने उस शिला एवं पर्वत को फिर दद्वत् कर डाला। इस प्रकार सांसारिक लोगों को अपने चरित्रों से विस्मित करते तथा मुमुक्षजनों के चित्त में सांसारिक अतथ्य व्यापार की ओर से अधिक उपरामता स्थापित करते हुए आप कुछ दिनों में गिरनार में पहुँचे जहाँ मत्स्येन्द्रनाथजी का गुहास्थ शरीर दत्तात्रेयजी की रक्षा में स्थित तथा उस दिन दत्तात्रेयजी से विविध वार्तालाप होने पर अग्रिम दिन मत्स्येन्द्रनाथजी ने राजा का देह त्याग कर अपने पूर्व शरीर में प्रवेश किया।
इति श्री मत्स्येन्द्रनाथ समाधि विघ्न वर्णन ।
# (गुरुजी! जागो गोरक्ष आ गया)
ना कोई बारू, ना कोई बँदर, चेत मछँदर
आप तरावो आप समँदर, चेत मछँदर
निरखे तु वो तो है निँदर, चेत मछँदर चेत !
धूनी धाखे है अँदर, चेत मछँदर
कामरूपिणी देखे दुनिया देखे रूप अपार
सुपना जग लागे अति प्यारा चेत मछँदर !
सूने शिखर के आगे आगे शिखर आपनो,
छोड छटकते काल कँदर, चेत मछँदर !
साँस अरु उसाँस चला कर देखो आगे,
अहालक आया जगँदर, चेत मछँदर !
देख दीखावा, सब है, धूर की ढेरी,
ढलता सूरज, ढलता चँदा, चेत मछँदर !
चढो चाखडी, पवन पाँवडी,जय गिरनारी,
क्या है मेरु, क्या है मँदर, चेत मछँदर !
गोरख आया ! आँगन आँगन अलख जगाया, गोरख आया!
जागो हे जननी के जाये, गोरख आया !
भीतर आके धूम मचाया, गोरख आया !
आदशबाद मृदँग बजाया, गोरख आया !
जटाजूट जागी झटकाया, गोरख आया !
नजर सधी अरु, बिखरी माया, गोरख आया !
नाभि कँवरकी खुली पाँखुरी, धीरे, धीरे,
भोर भई, भैरव सूर गाया, गोरख आया !
एक घरी मेँ रुकी साँस ते अटक्य चरखो,
करम धरमकी सिमटी काया, गोरख आया !
गगन घटामेँ एक कडाको, बिजुरी हुलसी,
घिर आयी गिरनारी छाया, गोरख आया !
लगी लै, लैलीन हुए, सब खो गई खलकत,
बिन माँगे मुक्ताफल पाया, गोरख आया !
बिनु गुरु पन्थ न पाईए भूलै से जो भेँट,
जोगी सिध्ध होइ तब, जब गोरख से हौँ भेँट।

3 comments:

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