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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Wednesday, May 8, 2013

श्री गहनिनाथोत्पति वर्णन


तदनन्तर श्री मत्स्येन्द्रनाथजी वहाँ से प्रस्थान कर चन्द्रगिरि ग्राम में आये। वहाँ ग्राम की कुछ दूरी पर एक स्वच्छ तालाब था उसके ऊपर एक वृक्ष के नीचे आपने अपना आसन स्थिर किया। तथा वहाँ एक मास निवास कर गोरक्षनाथजी को अपनी अवशिष्ट सर्व क्रियाओं में निपुण किया। साथ ही, वातास्त्र, जलदास्त्र, कामास्त्र, वाताकर्षणास्त्र, पर्वतास्त्र, वज्रास्त्र, नागास्त्र, ब्रह्मास्त्र, रुद्रास्त्र, बिरक्तास्त्र, दानवास्त्र, देवास्त्र, कालास्त्र, कार्तिकास्त्र, सर्पास्त्र, विभक्तास्त्र, मोहनास्त्र, मायास्त्र, आग्नेयास्त्र, धूम्रास्त्र, इत्यादि आस्त्रिक विद्या में भी सकुशल किया। इसी हेतु से वहाँ मत्स्येन्द्रनाथजी की बहुत ख्याति हो गई। कितने ही सज्जनभक्त प्रतिदिन वहाँ आकर योग क्रियाओं का अभ्यास किया करते थे। क्योंकि उनका अवतार ही परोपकार के लिये हुआ था। अतएव वे यह नियम नहीं रखते थे कि सांसारिक पुरुष को योगसाधनीभूत क्रियायें न सिखलायें और जो सचमुच ही हस्त में भिक्षा पात्र धारण कर पृष्ठानुयायी हो जाय उसी ही को सिखलाये। किन्तु जो इन क्रियाओं का अत्यन्त जिज्ञासु हुआ सप्रीति इनके सीखने में प्रवल उत्साहित होकर उनके शरण आता था उसी को योग क्रियाओं का कुछ मर्म शिला देते थे। क्यों कि उनकी, अनधिकारी बहुत मनुष्यों को बाना दे कर अपना वेष बढ़ायें, यह वार्ता स्वप्न में भी रूचिकर नहीं थी। (अस्तु) इसी प्रकार जनों को योगोपदेश करते-करते एक मास व्यतीत हुआ। एक दिन का वृतान्त है नगर के छोटे-छोटे अनेक बालक अपना खेल कूद करते हुए उसी तालाब पर आये और उन्होंने वृक्ष के नीचे बैठे उक्त महात्माओं को देखा। तत्काल उनके समीप आ गये और आदेश-आदेश कर उक्त योगेन्द्रों के चैतरफ बैठ गये। महात्माजी भी बालकों के साथ सप्रेम वार्तालाप करने लगे। ऐसा करने से बालकों का महात्माओं के साथ अच्छा परिचय हो गया। इसी क्रम से वे बालक प्रतिदिन आकर क्रीडारत हुए अपना समय व्यतीत किया करते थे। एक दिन मत्स्येन्द्रनाथजी शौचार्थ भ्रमण करते हुए कुछ दूरी पर वन में चले गये। आसन पर केवल एकाकी गोरक्षनाथजी ही बैठे हुए थे। ठीक उसी समय बालक भी वहाँ आ उपस्थित हुए और अपने खेल के लिये तालाब से आद्र्र मृत्तिका निकाल कर उसके उष्ट्र, अश्व, मनुष्य बनाने लगे। परन्तु किसी-किसी ने तो कुछ तादृश प्रतिमा निर्मित की। अधिकों से अनेक बार उनका अनुकरण कर ने पर भी जब तादृश मूर्ति न बनी तब तो व्यर्थ प्रयत्न समझकर उन्होंने वह कृत्य छोड़ दिया। इसी प्रकार कुछ क्षण खेल कर उन लड़कों ने परस्पर में कहा कि अहो ठीक है चलो मृत्तिका ले चलें। महात्माजी से मूर्ति बना देने की प्रार्थना करेंगे। तत्काल ही जिन्हों से मूर्ति न बनी थी उन सब लड़कों का एकमता हो गया और मृत्तिका लेकर वे गोरक्षनाथजी के समीप वृक्ष के नीचे जहाँ उनका आसन था वहाँ उपस्थित हुए। और सविनय चरणों में सिर झुकाकर आदेश-आदेश के अनन्तर गोरक्षनाथजी के चरण पकड़े हुए कहने लगे महाराज, गुरुजी, इस मृत्तिका का एक मनुष्य बना दो। यह सुन गोरक्षनाथजी उनको बहुत समझाया कि यह खेल अच्छा नहीं है कोई अन्य खेल किया करो। परन्तु बालत्व भाव से उनको यह वार्ता रूचिकर न हुई और बार-बार कोमल वाणी द्वारा कहते ही रहे कि मनुष्य बनादो-बनादो। तब तो बालकों का दृढ़ पे्रम देखकर गोरक्षनाथजी को उनके विषय में दया आ गई और कहा कि अच्छा हम आज अवश्य बनाकर रख देंगे। रात्री को शुष्क हो जायेगा फिर कल के दिन तुम ले जाना। अब सायंकाल होने को आया है अतः अपने-अपने गृह पर चले जाओ। यह सुन बालक तो अपने गृह पर चले गये। उधर गोरक्षनाथजी ने उस मृत्तिका का मनुष्याकार पुतला बनाकर रख दिया। समग्र रात्री रखा रहने से वह पुतला शुष्क हो गया। इधर मत्स्येन्द्रनाथजी ने गोरक्षनाथजी से कहा कि बेटा प्रातःकाल हो गया है शौच स्नानादि से शीघ्र निवृत्त हो कर आजा। आसन पर रहना, पश्चात् हम जायेंगे। तत्काल ही गुरु आज्ञानुसार शौचादि से निवृत्त होकर जब गोरक्षनाथजी आसन पर आ बैठे तो मत्स्येन्द्रनाथजी सानन्द घूमते हुए अतीव मनोहर वन वृक्षमाला को देखते-देखते हुए कुछ दूरी पर चले गये। ठीक इसी अवसर पर गोरक्षनाथजी अद्वितीय बैठे हुए थे। तत्काल ही उक्त लड़के भी क्रिड़ारत हुए वहीं आ गये और गोरक्षनाथजी से कहने लगे कि हे महाराज हमारा मनुष्य दीजिये। यह सुन गोरक्षनाथजी ने उत्तर दिया कि हाँ अभी देते हैं कुछ क्षण शान्ति करो। इसके अनन्तर आपने आसन पर बैठ गुरु ध्यानपूर्वक संजीवन मन्त्र पाठ किया। जिसके समाप्त होते ही मृत्तिका निर्मित मार्तिक पुतले में दैवगत्यनुसार करभाजन नारायण के सूक्ष्म शरीर का संचार हो गया। तत्काल ही वह पुतला सचमुच बालकों की सदृश रोने लगा। यह देख अब लड़के भयभीत होने लगे और आभ्यन्तरिक भाव से कहने लगे कि यह अकस्मात् क्या हुआ। बहुत क्या कहें उस समय लड़के बहुत विस्मित हुए भागने की राह देख रहे थे। अन्ततः उन से वहाँ पर अधिक समय तक न रहा गया और वे भूत रे भूत-भूत कहकर ग्राम की ओर हस्त बजाते हुए भाग गये। यह देख ग्रामीण लोगों ने पूछा कि अरे लड़कों क्यों भागते हो क्या बात है ? तब फिर लड़कों ने पूर्ववत् ही कहा कि भूत रे भूत-भूत। लोगों ने कहा भूत कहाँ है ? हमको बतलाओ। लड़के कहने लगे कि वह जो तालाब पर महात्मा बैठा है उसके पास है। लागों को भी कुछ आश्चर्य जैसा वृत्त मालूम हुआ। अतएव चलो चलकर देखेंगे, यह कहकर कतिपय मनुष्य वहाँ गये और उन्होंने देखा कि एक बच्चा अपने पैरों के अंगुष्ठों को चुम्बता हुआ अपने मधुर-मधुर रोदन की ध्वनि सुना रहा है। यह देख लोग अतीव विस्मित हुए आभ्यन्तरिक भाव से विचार कर रहे थे कि यह क्या विचित्र घटना हुई। इस महात्मा ने मृत्तिका का मनुष्य कैसे बना डाला अथवा ठीक है ईश्वर की दुर्विज्ञेय माया है। उसी की कृपान्वित हो बड़े-बड़े पुरुष जीवन मुक्ति का आनन्द लेते हुए और हम जैसे इस असार संसार के अन्यथा झगड़ों में व्यग्रचित्त हुए विषय भोग के कीटों को अपनी अद्भुत शक्ति तथा कृपालुता का परिचय देते हुए विरक्त भाव से विचरते रहते हैं। तादृश ही ये महात्मा है। हमारा धन्य भाग्य है जो आज हमको ऐसे योगेश्वरों का दर्शन प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार जिस समय संकल्प विकल्प के सागर में निमग्न हुए लोग गोरक्षनाथजी के समीप विद्यमान थे। ठीक उसी समय उधर से सानन्द शौच स्नानादि क्रिया से निवृत्त होकर मत्स्येन्द्रनाथजी भी आ पहुँचे और उन्होंने ज्यों ही दूर से अनेक मनुष्यों को वहाँ पर खड़े हुए देखा तो आप आभ्यन्तरिक रीति से कुछ शंकित हुए, परन्तु आपको वास्तविक समाचार अभी निश्चयात्मक ज्ञात नहीं हुआ था। तब आप ठीक आसन पर आ गये और आपने उक्त बालक को वहीं रोता हुआ देखा तब तो सोच लिया कि ठीक मनुष्यों के संघीभूत होने का यही एकामात्र हेतु था। अनन्तर आप गोरक्षनाथजी से पूछने लगे कि बेटा यह बालक कहाँ से आया है और किसका है। महात्मा जी ने प्रत्युत्तर में समस्त पूर्व वृत्तान्त गुरुजी के चरणारविन्द में नम्रतापूर्वक कह सुनाया। सुनते ही मत्स्येन्द्रनाथजी अतीव प्रसन्न हुए और उन उपस्थित लोगों के समक्ष गोरक्षनाथजी की प्रशंसा करने लगे कि यह हमारा शिष्य बड़ा ही पहुँचा हुआ है। फिर आपने गोरक्षनाथजी से कहा कि बेटा तू जानता ही है हमारी एक स्थान में स्थिति नहीं है। आज यहाँ तो कल वहाँ हैं। अतः ऐसी दशा में हमारे द्वारा इस बच्चे की पालना होनी कठिन तो क्या असम्भव ही है। अतएव इसको किसी सुलक्षणा उत्तमकुलजास्त्री की सेवा में अर्पण कर देना ही अब सर्वथा उचित है। सम्भव है ऐसी कुलिना स्त्री ही इसका सस्नेह पोषण कर इसके भविष्य में सहायता दे सकेगी। इसके अनन्तर सबालक दोनों गुरु शिष्य ग्राम में गये और प्रत्येक मनुष्य से इस बात की जाँच करने लगे कि हम एक बालक देंगे कोई कुलीन स्त्री वाला गृह बतलाओ। यह सुन लोगों ने मधुसूदन नामक एक ब्राह्मण बतलाया। जिसकी पत्नी का नाम गंगा था। वही बड़ी ही शील स्वभाव शुभगुणान्वित पतिव्रता स्त्री थी। ठीक लोगों से विज्ञापित हुए दोनों महानुभाव गृह पूछते-पूछते उसी ब्राह्मण के द्वार पर पहुँचे और उस वृत्तान्त से ब्राह्मण को सूचित करने लगे। मधुसूदन भी उक्त महात्माओं को देखते ही दोनों के चरणों में गिरा। तथा उसने कहा कि भगवन् ! आज आप लोगों का बड़ा अनुग्रह हुआ स्वयं ही गृह पर आकर मुझ दास को अपने पवित्र दश्रन से कृतार्थ किया। अब मैं चाहता हूँ मेरे योग्य जो कुछ सेवा हो आप उसको शीघ्र ही स्फुट कर दें। जिसको बिना ही विलम्ब से अपनी शक्ति के अनुसार पूरी करने के लिये तैयार हो जाऊँ। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी अतीव प्रसन्न हुए तथा कहने लगे कि हमारे समीप यह एक बालक है इसको सादर ग्रहण करके उचित रीति से पालपोष कर इसका भविष्य सुधारो। क्योंकि हम अच्छी तरह जानते हैं तुम एक बड़े सदाचार निष्ठ पुरुष हो। इसी हेतु से हम बालक को अन्य किसी के अर्पण न करके तुम्हारे ही समीप लाये हैं। क्यों कि इस कार्य को पूरा करने के लिये तुम्ही योग्य जान पड़ते हो। इसके बाद ब्राह्मण बोला कि भगवन् ! प्रथम यह बतलाइये यह अत्यन्त छोटा बालक आप लोगों के समीप कहाँ से आया है। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी तो प्रत्युत्तर देना ही चाहते थे परन्तु उनसे भी प्रथम पाश्र्ववर्ती वे लोग, जो आदि से उस वृत्तान्त को अच्छी तरह जान चुके थे, कहने के लिये अग्रसर हुए और उन्होंने ब्राह्मण को समस्त समाचार विदित कराया कि ये बड़े ही शक्ति वाले महात्मा हैं। हमने तो आप पर्यन्त ऐसे पहुँचे हुए महात्मा कहीं भी नहीं देखे हैं। अतः जान पड़ता है ये अवश्य कोई न कोई अवतारी पुरुष हैं। तब तो मधुसूदन ब्राह्मण और भी प्रसन्न चित्त हुआ। तथा ईश्वर की अलक्ष्य विचित्र गति के विषय में सानन्द असंख्य धन्यवाद देता हुआ कहने लगा कि अच्छा महाराज हम अपने प्राणों की तुल्य सस्नेह विधिपूर्वक इसकी पालना करेंगे। क्यों कि आप लोग महात्माओं की कृपा से अन्य सम्पत्ति तो मेरे समीप पर्याप्त थी। किन्तु कोई पुत्र ही ऐसा हमारे निमित्त में अब तक नहीं हुआ था जो कि इस सम्पत्ति का उपभोग करे। ऐसी दशा में यह अकस्मात् जो आप लोगों ने अपनी महती दयालुता का परिचय दिया है यह बड़ा ही महत्त्व का है। यही नहीं आज आप लोगों ने एक होनहार बालक को मेरे लिये प्रदान कर संसार के इतिहास में मेरे नाम को सदा के वास्ते अमर कर दिया है। और पुत्र के मुख दर्शन द्वारा सांसारिक भोगविलास के सफल करने का सौभाग्य प्राप्त कर दिखलाया है। अतः इसे उपकार के लिये आप लोगों को अनेकानेक सधन्यवाद नमस्कार है। यह सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी ने बालक को उसके अर्पण किया और कहा कि मधुसूदन! यह बात तो ठीक है इस बालक के द्वारा जगत् के इतिहास में तेरा नाम चिरस्थायी रहेगा। किन्तु सम्पत्ति विषयक सांसारिक उपभोग विषय में कुछ तेरा भ्रम है। क्योंकि हम अब इस बात को स्फुट ही कर देते हैं तू इधर ध्यान देकर सुने। यह बालक करभाजन नारायण का अवतार है, इसीलिये सांसारिक भोग विलास में यह कभी संलग्न नहीं होगा और विरक्त भाव से समय व्यतीत करता हुआ किसी दिन तुमको ही नहीं असंख्य पुरुषों को अपनी शक्ति तथा महिमा का परिचय देगा और इस मेरे शिष्य गोरक्षनाथ से शिक्षा ग्रहण करेगा। उस समय बड़े-बड़े महेशादि देवता भी तुम्हारे गृह पर स्वयं उपस्थित होते हुए तुमको अपने पवित्र दर्शन द्वारा कृतार्थ करेंगे। बस क्या था मत्स्येन्द्रनाथजी की ऐसी असंभाव्य जैसी वाणी सुनकर मधुसूदन एक बार तो संकल्प-विकल्प के सागर में मग्न हो गया। परन्तु जब उसने पूर्व प्रत्यक्ष घटना का स्मरण किया तब तो वह विश्वासित हुआ महात्माओं के चरणों में गिरा तथा कहने लगा कि भगवन्, बालक को दीजिये आपकी आज्ञानुकूल सर्व कार्य ठीक होगा। अब इसके विषय में अन्य कोई विशेष वार्ता कहनी हो तो कहें। तदनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी ने बालक को ब्राह्मण के अर्पण किया और तुम तन, मन, धन से सस्नेह इसकी सब प्रकार से पालना करते रहना, यह कह साशीर्वाद वचनों द्वारा उसको सन्तुष्ट कर देशान्तर को प्रस्थान किया। इधर जब विधिवत् महात्माओं की विदा कर चुके तब ब्राह्मण-ब्राह्मणी लड़के की सुन्दरता के विषय में मोहित हुए पारस्परिक अनेक वार्तायें करते हुए अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और बार-बार मुख चुम्बन कर लड़के को कभी ब्राह्मणी आपनी गोद में उठाती थी कभी ब्राह्मण अपनी गोद में उठाता था। यही नहीं इस कृत्य से वे अपने आपको अतीव धन्य मानते हुए इस प्रकार के अभिमान में लीन थे कि आज समस्त पृथिवी पर हमारे जैसा कृत कृत्य मनुष्य कोई भी नहीं है। इसी प्रकार लालना करते-करते कतिपय वर्ष व्यतीत हो गये और लड़के का बड़े-बड़े पण्डित लोगों द्वारा शास्त्रोक्त विधि से संस्कार करा गया और वह विद्याध्ययन करने केलिये एक सुयोग्य विद्वान् के अर्पण किया गया। लड़का बड़ा ही सुशील मातापितृभक्त तथा गुरुभक्त था और वृद्ध पुरुषों के सम्मुख प्रतिदिन नम्री भूत होकर रहने वाला था। यही नहीं उसका स्वाभाविक ही यह व्यवहार था कि प्रति दिवस योग्य वृद्ध पुरुषों में बैठकर कोई न कोई एक अच्छी शिक्षा अवश्य प्राप्त करना तथा निजग्राम आगत विरक्तिभाव महात्माओं की यथा साध्य सेवा कर उनसे आशीर्वाद ग्रहण करना। एवं शिव मन्दिरादि देवालयों में भी यथा समय उपस्थित होता हुआ वह लड़का अपनी दृढ़ श्रद्धापूर्वक भक्ति द्वारा अपने होनहारत्व को सूचित करता था। इसी प्रकार करते-करते बारह वर्ष पूरे होने को आये। ठीक उसी समय उधर मत्स्येन्द्रनाथजी ने गोरक्षनाथजी को चन्द्रगिरि ग्राम में जाकर उक्त लड़के को निज शिक्षा देते हुए अपना शिष्य बनाने के लिये सूचित किया। तत्काल ही गुरु आज्ञा प्राप्त कर गोरक्षनाथजी एकाकी उक्त ग्राम में आये और आपने उसी तलाव पर अपना आसन किया। उधर ग्राम निवासी लोगों को नाथजी के आ पहुँचने की सूचना मिली। तत्काल ही नगर के अनेक स्त्री-पुरुष गोरक्षनाथजी के दर्शन करने को आये। और यथाशक्ति भेंट-पूजा उनके अर्पण करने लगे। एवं जब उक्त लड़के ने भी यह सूचना मिली कि वे ही महात्मा आ पहुँचे हैं। तब तो वह अतीव प्रसन्नचित्त हुआ विद्यालय से तत्काल ही स्वकीय गृह में आया। उधर मधुसूदन तथा ब्राह्मणी प्रथमतः ही वहाँ जाने के वास्ते तैयार हो रहे थे। केवल लड़के के ही पाठशाला से आ जाने की बाट देख रहे थे। ठीक उसी समय गृह पर लड़के का आना हुआ। तत्काल ही अनेक प्रकार की भेंट-पूजा लेकर सपुत्र ब्राह्मण-ब्राह्मणी भी महात्माजी की सेवामें उपस्थित हुए। वहाँ जिस समय लड़के ने गोरक्षनाथजी को सम्मुख बैठा देखा तब तो अत्यन्त ही शीघ्रता से अग्रेसर होकर वह अपने माता-पिता से पहले ही गोरक्षनाथजी के चरणों में गिर गया। यह देख गोरक्षनाथजी ने बालक को सस्नेह अपनी गोद में बैठा लिया और कहा किसकी बेटा कार्य में संलग्न है और कैसे अपना समय व्यतीत कर हरा है। जिस विशेष कार्य के लिये तेरा अवतार हुआ है उसका भी कुछ स्मरण है वा नहीं। यह सुन प्रत्युत्तर में लड़के ने कहा कि भगवन्! मेरा इस विषय में जो कुछ कहना है सो व्यर्थ है। क्यों कि जिस विषयक्त मुझे चिन्ता है वह आपसे छिपी नहीं है। यद्यपि उपस्थित इन माता-पिताओं की आज्ञानुसार प्रतिदिन अध्ययनशाला में जाकर मैं कुछ लौकिक विद्या प्राप्त करता हूँ तथापि आपके आगमन होने वाले आज के दिवस के प्राप्त होने की अधिक उत्कण्ठा रखता था। ठीक अब वह इच्छा भी ईश्वर ने पूर्ण की आपके आगमन का यह दिवस भी प्राप्त हुआ। अब आपकी आज्ञा पर ही मेरा भविष्य निर्भर है। यह सुन उपस्थित पुरुष बड़े ही विस्मित हुए और निश्चय करने लगे कि ठीक है यह लड़का अवश्य कोई अवतारी पुरुष मालूत होता है। अस्तु, इसके बाद गोरक्षनाथजी ने मधुसूदन से कहा कि अब इस लड़के को मुझे दे दो। क्यों कि बारह वर्ष की मर्यादा, जो कि हमने इसके तुमको देने के समय करी थी, वह पूरी हो गई है। तब मधुसूदन ब्राह्मण ने कहा कि महाराज, अभी तो यह विद्या पढ़ रहा है जब कुछ विद्या ग्रहण कर विद्वान हो जायेगा तब ले जाना। हमारी तो यही सम्मति है आगे आपकी इच्छा रही जैसा अभीष्ट हो वैसा ही करें। गोरक्षनाथजी ने कहा कि अब तक की तुम लोग भ्रम में पड़े हो। यह लड़का केवल तुम्हारी आज्ञा को शिरोधार्य समझता हुआ तुमको प्रसन्न रखने के लिये ही प्रतिदिन पाठशाला में जाता है और तुम लोगों को विद्या पढ़ता मालूम होता है। यथार्थ में यह विद्या नहीं पढ़ता है यह स्वयं विद्वानों का विद्वान है। इस वार्ता को हम प्रथम ही स्फुट कर चुके हैं। परन्तु आप लोग गार्हस्थ कार्यों में व्यग्र रहते हैं। उस वार्ता को क्यों स्मरण रखते थे। यदि ऐसा न होता तो कभी इसके तादृश होने में तुम कुछ भी सन्देह न करते हुए इस को विद्या भण्डार समझते। तब तो मधुसूदन गोरक्षनाथजी के चरणों में गिरकर अपनी प्रमत्ता के विषय में क्षमा करने की प्रार्थना करता हुआ कहने लगा लीजिये भगवन्! आपका ही लड़का है आप जानते ही हैं हम लोग सांसारिक विषय भोगों के कीट हैं। अतः क्षमा प्रदान करें। इसी प्रकार के वार्तालाप होते हुए सायंकाल आ पहुँचा। प्रातः होते ही गोरक्षनाथजी ने महादेवादि देवताओं का स्मरण किया। तत्काल ही स्वकीय-स्वकीय वाहनों पर आरूढ़ होकर अनेक देवता वहाँ पर उपस्थित हुए। उसी समय सर्व देवताओं की आज्ञानुसार गोरक्षनाथजी ने उस लड़के को निजकुण्डलादि समस्त चिन्हान्वित कर, गहनिनाथ नाम से, प्रसिद्ध किया और एक महोत्सव रचा जिसमें लोगों को नाना प्रकार के भोज्य भी दिये गये थे। इस प्रकार जब कतिपय दिन तक उत्सव होकर समाप्त हुआ तब आगत समस्त देवताओं ने गहनिनाथजी के लिये अपना-अपना आशीर्वाद प्रदान किया और अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर वे स्वकीय स्थानों मो गये। उधर गहनिनाथजी को लेकर गोरक्षनाथजी बदरिकाश्रम में गये और बारह वर्ष की अवधि रखकर उससे भी अपने जैसा कठिन तप कराया और स्वकीय अनेक विद्याओं में निपुण कर जनों को योगापदेश प्रदानार्थ एकाकी भ्रमण की आज्ञा ने स्वयं सानन्द देशाटन के लिये प्रस्थानित हुए कैलास में पहुँचे।
इति श्री गहनिनाथोत्पति वर्णन ।

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