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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Monday, May 6, 2013

मत्स्येन्द्रनाथजी गोरक्षनाथ मिलाप वर्णन


श्री मत्स्येन्द्रनाथजी अयोध्यापुरी से प्रस्थान कर शनैः-शनैः विचरते-विचरते अपने समीप में आये सांसारिक दुःखान्वित पुरुषों को योग क्रिया के उपदेश द्वारा दुःखत्रय से विमुक्त करते हुए बंगदेश में पहुँचे। उधर से गोरक्षनाथजी भी भ्रमण करते तथा योगोपदेश रूप दुष्प्राप्य अद्वितीय औषधि द्वारा निजभक्तों को इस असार संसार में होने वाले आध्यात्मिकादि कष्टों से रहित करते हुए उसी बंगला देश में आ निकले। परन्तु एक ही देश में इधर-उधर भ्रमण करने पर भी कुछ ही अन्तर रह जाने से अधिक समय तक उनका सम्मेलन नहीं हुआ। अन्त में एक दिन कनकगिरि, नामक ग्राम में दोनों गुरु शिष्यों का मिलाप हुआ। वहाँ जब गोरक्षनाथ ने मत्स्येन्द्रनाथजी को देखा है उसी समय अपने गुरुजी का दर्शन कर वे इतने प्रसन्न हुए हैं उनकी प्रसन्नता का अनुभव, या तो ईश्वर को है वा, वे ही जानते होंगे। मैं इस विषय में कुछ न सकता हूँ। तथापि अतीव प्रेम से हुए अश्रुपात ने अवश्य यह सूचित किया कि उस समय गोरक्षनाथजी की प्रसन्नता कोई अद्वितीय ही थी। (अस्तु) उधर से समस्त सुगुणान्वित गुरुभक्त अपने परमस्नेही शिष्य को देखकर मत्स्येन्द्रनाथजी की भी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। यही नहीं उन्होंने सप्रीति गोद से लगाकर अतीव रसमयी वाणी से उनका कुशल वृत्तान्त पूछा। तब गोरक्षनाथजी ने कोमल वचनों द्वारा गुरुक्त वाक्यों का उत्तर देते हुए कहा कि स्वामिन्, आपकी महत्ती कृपानुसार मैंने कुशलता से भ्रमण किया है। कहीं किसी समय भी किसी प्रकार का दुःख अनुभावित नहीं करना पड़ा है। इसी प्रकार की वार्तालाप करते-करते भोजन का समय समीप आ पहुँचा। यह देख मत्स्येन्द्रनाथजी ने गोरक्षनाथजी को भिक्षा लाने के लिये सूचित किया। तत्काल ही गुरुजी की आज्ञा मिलने पर गोरक्षनाथजी समीपस्थ कनकगिरि नामक नगर में भोजन के लेने के वास्ते पहुँचे। यह नगर ब्राह्मण लोगों का था। अतएव एक ब्राह्मण के द्वार पर जाकर आपने अलक्ष्य शब्द का उच्चारण किया। उसे सुनते ही एक माई बाहर निकली और एक योगी को द्वार पर खड़ा देख सप्रीति हस्तसम्पुटी किये हुए कहने लगी महाराज! आप कृपाकर यहीं बैठकर भोजन कर लें। यह सुनकर गोरक्षनाथजी ने कहा कि मातः ! आप सत्य कहती हैं परन्तु मेरे गुरु महाराज बाहर आसन पर विराजमान हैं। उनको प्रथम भोजन करा कर पीछे मैं भोजन करूँगा। यही शिष्य का धर्म है गुरु के भोजन किये बिना प्रथम ही शिष्य को भोजन करना उचित नहीं। अतः वहाँ ले जाने के लिये भोजन दे सकती हैं तो दें। यह सुन गोरक्षनाथजी के सौन्दर्य से प्रथमतः ही प्रसन्नता पूर्वक मोहान्वित हुई ब्राह्मणी, देखो परमात्मा की क्या ही विचित्र गति है उसने इसको भी कैसी अपूर्व सुन्दरता दी है, यह विचार करती हुई गोरक्षनाथजी से कहने लगी कि अच्छा महाराज वहीं ले जाओ। परन्तु कृपाकर प्रथम यह तो बतलाओ तुम्हारा नाम क्या है और आप किसके शिष्य हैं। गोरक्षनाथजी ने प्रत्युत्तर में कहा कि मेरा नाम गोरक्षनाथ है और योगिराज श्री मत्स्येन्द्रनाथजी का शिष्य हूँ। तदनन्तर अत्यन्त भक्ति के साथ, बड़े आदि नाना शाक युक्त सप्रेम भोजन लाकर हस्त जोड़े हुए ब्राह्मणी कहने लगी लीजिये महाराज भोजन वहीं ले जाइये। फिर भी कभी दर्शन देना और भोजन ले जाना आपका ही घर है। गोरक्षनाथजी ने भिक्षापात्र पूर्ण करा कर ब्राह्मणी को आशीर्वाद दिया और शीघ्र ही गुरुजी के समीप आकर तथा भिक्षापात्र गुरुजी के आगे रख हस्तसम्पुटी कर कहा स्वामिन्! भोजन कीजिये। एक ही माई ऐसी श्रद्धा वाली मिली जिसने अपने घर से ही पात्र पूर्ण कर डाला। मत्स्येन्द्रनाथजी प्रसन्नतापूर्वक पात्र ग्रहण कर भोजन करने लगे। तथा भोजन के अतीव स्वादिष्ट होने से उसके, विशेष कर के, बडों के विषय में बहुत ही प्रशंसा करने लगे। अर्थात् भोजन करते हुए कुछ सिर को हिलाते जायें और बडे बहुत स्वादिष्ट हैं - बहुत स्वादिष्ट हैं, यह कहते जायें। तब तो गोरक्षनाथजी ने सोचा कि गुरुजी खुलकर नहीं कहते हैं कि बडे और चाहिये परन्तु बार-बार की प्रशंसा से अनुमान होता है गुरु महाराज तृप्त नहीं हुए हैं। अन्ततः गोरक्षनाथजी को कहना ही पड़ा कि गुरु महाराज आज्ञा हो तो और बडे लाऊँ। तब मत्स्येन्द्रनाथजी ने मन्दवाणी से मुस्कराते हुए कहा कि अच्छा। यह सुन गोरक्षनाथजी भिक्षापात्र हस्त में लेकर फिर नगर में गये और ब्राह्मण के गृह पर पहुँचकर ब्राह्मणी से कहने लगे मातः, गुरुजी की अभी तृप्ति नहीं हुई इसलिये कुछ बडे+ और प्रदान करो। यह सुनते ही ब्राह्मणी ने कहा महाराज मैने प्रथम ही कहा था कि फिर भी कभी आना और भोजन ले जाना यह गृह आप लोग महात्माओं का ही है। तथापि आप गुरुजी के बहाने से बड़े मांगते हुए कुछ असत्य जैसा वचन कहते दीख पड़ते हो। यह मेरे मन का रोचनीय नहीं होता है। क्योंकि मैने अभी आपका भिक्षापात्र पूर्ण किया था जिससे आपके गुरुजी तो अवश्य तृप्त हुए ही होंगे किन्तु तुमने भी भोजन अवश्य किया होगा। तथापि बड़े अतीव स्वादिष्ट होने के कारण तुम्हारा और भी खाने का चित्त किया है इसीलिये पुनः भिक्षा करने आये हो। तब गोरक्षनाथजी ने उत्तर देते हुए कहा कि मातः, मैं सत्य कहता हूँ यह केवल गुरुजी के लिये ही मांग रहा हूँ न कि अपने लिये। मेरा तो नियम ही यह है गुरुजी के तृप्त होने पर भोजन किया करता हूँ। ब्राह्मणी कहने लगी कि यह बात तो वास्तविक ही है ऐसा तो होना ही चाहिये परन्तु आपकी सत्यता में क्या प्रमाण है कि ठीक आप अपने कथनानुकूल ही किया करते हैं। तब गोरक्षनाथजी ने कहा कि जो मेरे वचन विषयक सत्यता की परीक्षा करनी चाहती हो तथा मेरी गुरुभक्ति देखनी चाहती हो तो जिस प्रकार कहो उसी प्रकार उसका परिचय देकर मैं अपने वचन को सत्यतान्वित एवं प्रामाणिक कर सकता हूँ। इसके उत्तर में ब्राह्मणी ने कहा कि अच्छा यदि यही बात है तो तुम गुरुजी के लिये बड़ों को प्राप्त होंगे मैं अभी लाती हूँ परं जब तक मैं लाऊँ तब तक बड़ों के बदले में तुम अपना एक नेत्र निकाल कर रखना। तत्काल ही यह कहकर ब्राह्मणी तो बड़े लेने के लिये गृह में प्रविष्ट हुई। उधर गोरक्षनाथजी ने अपना एक नेत्र निकालकर अपने हस्त में रख लिया। ज्यों ही बड़े लेकर ब्राह्मणी गृह से बाहर आई और उसने गोरक्षनाथजी के नेत्र से रूधिर निकलता हुआ देखा त्यों ही ब्राह्मणी अतीव विस्मित हुई अपने आपको धिक्कार देती हुई कहने लगी कि हाय, मुझे क्या मालूम था ये सचमुच ही ऐसा कर डालेंगे। अहो मैंने यह क्या अकस्मात् अनर्थ कर डाला। तत्काल ही यह कोलाहल सुनकर और भी इधर-उधर के अनेक स्त्री-पुरुष आ एकत्रित हुए और उस वृत्तान्त को जानकर ब्राह्मणी को बार-बार धिक्कार देने लगे कि देखों एक बड़ों के ऊपर ही इस दुष्टा ने अद्वितीय रूपावान् कैसे दिव्य योगी को व्यंगित किया है। क्या इस दुष्टा को ज्ञात नहीं था कि यह साधारण व्यक्ति नहीं है। इसका अपने सत्य के विषय में ऐसा कर डालना क्या बड़ी बात है। यह सनुकर ब्राह्मणी अत्यन्त ही लज्जित हुई हस्तसम्पुटी करके कहने लगी हे महात्मन्, मैं अज्ञात थी इसी हेतु से आपको मैंने अपने वचन द्वारा इतना असह्य कष्ट दिया है। परन्तु अब मेरे ऊपर क्षमा प्रदान करो मैं अपने दुष्कृत्य पर स्वयं ही पश्चाताप करूँगी। यह सुन गोरक्षनाथजी ने जल से नेत्र का रूधिर धो डाला और एक वस्त्र नेत्र के ऊपर लगाकर बड़ों का पात्र पूर्ण करा आप गुरुजी के समीप आये। तब तो मत्स्येन्द्रनाथजी की दृष्टि, जो कि गोरक्षनाथजी एक हस्त द्वारा वस्त्र से नेत्र को आच्छादित कर रहे थे, उधर पड़ी। देखते ही पूछा कि बेटा यह अकस्मात् क्या हुआ अभी तो यहाँ से सकुशल गया ही था। कह-कह सत्य कह क्या वृतान्त है। गोरक्षनाथजी ने कहा कि आप प्रसन्नतापूर्वक भोजन करो मैं पीछे से बतलाऊँगा। मत्स्येन्द्रनाथजी कहने लगे कि नहीं-नहीं जब तक तू सत्य बात बतला नहीं देगा तब तक मैं एक ग्रास भी न खाऊँगा। तब तो गोरक्षनाथजी ने अगत्या कहना ही पड़ा कि आपके लिये जो, ये बडे+ लाया हँू इनके बदले में बड़े देने वाली माई ने गुरुभक्ति देखने के वास्ते मेरे नेत्र देने के लिये प्रार्थना की थी। मैने तत्काल यह अपना नेत्र निकालकर उसके अर्पण किया परन्तु ब्राह्मणी इस वृत्त को देखकर सविस्मय मूच्र्छित जैसी हो गई और फिर यह नेत्र लेना तो दूर रहा, स्वयं अपने आपको धिक्कार देती हुई हाय-हाय देखो मैंने अकस्मात् कैसा अनर्थ कर डाला, यह कहती हुई रोदन करने लगी। और फिर इस विषय में अपनी अत्यन्त प्रमत्ता स्वीकृत कर उसने मेरे से क्षमा करने के लिये प्रार्थना की। तथा पर्याप्त बड़ों से पात्र पूर्ण किया। मैं भी उस पर क्षमा प्रदान कर सानन्द आपके समीप आ पहुँचा। बस यही वृत्त है जो आपके चरणारविन्द में कह चुका हूँ। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी अत्यन्त ही विस्मित हुए आभ्यन्तरिक भाव से कहने लगे कि अहो यह हमारा शिष्य कैसा दृढ़ विश्वासी और गुरुभक्त है। ऐसा अन्य कोई भी आज पर्यन्त हमने देखा तथा सुना नहीं है। यद्यपि तपकरण काल में हमारी आज्ञानुसार छली देवता तथा अप्सराओं का प्रयत्न निष्फल कर इसने गुरुभक्ति विषय का अच्छा परिचय दिया था। परन्तु इस दृष्टान्त से इसने अपने विषय में हमारी प्रीति का मानों प्रवाह चला दिया है। अतः अब हमको उचित है कि इससे कुछ भी गुप्त न रखें। तदनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी ने नेत्र को उसी स्थान में पूर्ववत् स्थापित कर विभूति लगा दी। जिस वशात् नेत्र तादृश ही हो गया। और वे प्रसन्नतापूर्वक सस्नेह उनसे कहने लगे कि बेटा हम तेरे ऊपर अतीव सन्तुष्ट हैं। क्यों कि तू अश्रुतपूर्व पुरुष है। तेरी गुरुभक्ति ने हमारे हृदय को अच्छी तरह वशीभूत कर डाला है। अतः बेटा हम यथार्थ कहते हैं तू बड़ा प्रतापी तथा यशस्वी होगा। यह कहने का प्रयोजन नहीं कि इसी लोक में तेरी ख्याति होगी किन्तु तीनों लोक में तेरी कीर्ति का ढोल बजेगा और बड़े-बड़े देव गण तेरी वन्दना करेंगे। यह कहकर आपने गारेक्षनाथजी का हस्त पकड़ उनको अपने गोद में बैठा लिया और कहा कि बेटा जितनी विद्या मेरे मेरे समीप अब है यह समस्त हम तेरे को प्रदान करते हैं। जिस वशात् संसार में कोई तेरे को किसी भी विषय में पराजित नहीं कर सकेगा। और तू जीवन मुक्त होकर विचरेगा। यही नहीं सर्व सिद्ध समाज में अग्रगणनीय तथा योगि समाज का प्रथमाचार्य तू ही सर्व के सम्मत होगा। अर्थात् इस सम्प्रदाय का प्रवत्र्तक माना जायेगा एवं अपनी इच्छा मात्र से ही जो करना सोचेगा सोई कर भी सकेगा। यह सुन गोरक्षनाथजी गुरुजी के चरणों में गिरे और वद्धांजलि हुए कहने लगे स्वामिन्, आपकी महती कृपा है तो मेरे को इस संसार में कौन वस्तु असाध्य है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि संसार में जो कोई वस्तु कठिन है तो एकमात्र यही है कि गुरु को प्रसन्न करना। जब मेरा सौभाग्य प्राप्त हुआ कि गुरु प्रसन्न हुए तो बस फिर तो असाध्य शब्द ही निराश्रय हुआ हृदय से प्रस्थान कर जाता है, गोरक्षनाथजी की इस प्रकार सादर कोमल वाणी सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी और भी प्रसन्न हुए और अन्यत्र भ्रमण के लिये वहाँ से प्रस्थानित हुए।
इति मत्स्येन्द्रनाथजी गोरक्षनाथ मिलाप वर्णन

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