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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Tuesday, May 28, 2013

श्रीमद्योगेन्द्रगोरक्षनाथ कैलास गमन वर्णन

श्रीनाथजी कुछ काल निवास करने के अनन्तर यहाँ कालीकोट से अभ्युन्थान कर बंगाल और बंगाल से आसामभुट्टानादि देशों में भ्रमण करते एवं जनों को योगिपदेश संस्कारों से संस्कृत करते हुए कतिपय वर्ष के उत्तर चीन साम्राज्यन्तर्गत पिलांग (पेनांग) नगर की सीमा में पहुँचे। यह स्थान बड़ा ही रमणीय और मनोहारी था। अतएव गोरक्षनाथजी ने कुछ काल यहाँ निवास करना उचित समझ कर इस विषय में अपने शिष्यों से परामर्श किया। शीघ्र ही हस्तसम्पुटी कर उनके शिष्यों ने अनुबूल सम्मति प्रकट की जिससे श्रीनाथजी यहीं विराजमान हो गये। यहाँ कुछ ही दिन के उत्तर आपने एक यथेष्ट पारिमाणिक गुहा निर्मापित कराई जिसमें अपने शिष्यों को समाधि के अलौकिक आनन्दानुभव को अनुभवित करने के लिये नियोजित किया जिनके शरीर की रक्षात्मक कार्यवाही का भार अपने-अपने ऊपर धारण कर उनको सर्व प्रकार से निशंक कर दिया था। श्रीनाथजी का हमेशा ही यह व्यवहार था कि वे अपने शिष्यों को यथोचित अनेक विद्या प्रदान के साथ-साथ असम्प्रज्ञात समाधि के अभ्यास में निपुण कर देते थे और तदनन्तर उसका चिरकाल तक अनुभव करने के लिये या तो अपने शिष्यों को यह आज्ञा दिया करते थे कि जाओ पृथक् भ्रमण करो और पारस्परिक सहवास से पारस्परिक शरीर रक्षा से रक्षित हो समाधिस्थ अवस्था को अनुभवित करो। अन्यथा अपने समीप रहने वाले शिष्यों को उस अवस्था में परिणत कर उनके शरीर की स्वयं कुछ सेवा और रक्षा किया करते थे। धन्य गुरुजी धन्य, समझ में नहीं आता है आपको कौनसी इतनी बड़ी अभिलाषा थी जिसके वशीभूत हुए आप सांसारिक लोगों को इस अतीव दुष्प्राप्य पदवी पर चढ़ाकर एक मामूली पुरुष की तरह उनके शरीर की रक्षा में अपने आपको बन्धित कर देते थे, जिससे आपको सर्व प्रकार के आस्वादन त्यागने पड़ते थे और स्व अण्डरक्षार्थ टिट्टिभी की तरह हर एक समय सचेत रहना पड़ता था। ठीक है इस निरिच्छ और निःस्वार्थ अपूर्व हितैषिता का ही यह फल है जो आपका प्रातःस्मरणीय पवित्र नाम तथा स्वच्छ यथ पृथिवी पर अमर हो गया है। परन्तु आपकी शिष्यों के प्रति निरीह अद्वितीय कल्याणप्रद, प्रीति के ऊपर दृष्टि डालने पर मुझे आधुनिक उन गुरुमहाशयों की अधःपातिनी शिष्य सम्बन्धिनी लोकनिन्द्य प्रीति का स्मरण हो आता है जो आपके चिरकालावधिक वृहत्प्रयत्न द्वारा प्रसारित धवल कीर्ति पंूज को मलीनत्वावच्छिन्न बनाने के लिये कटिबद्ध हो रही है। मैं, क्रोधावेश से चंचलित और लपलपाती हुई अपनी जिव्हा को, ऐसे पुरुषों के ऊपर अपशब्दों का प्रयोग करने से तो अवश्य, दन्तों के नीचे दबाकर निरोधित कर रहा हूँ। परं इनकी अनुचित प्रीति के अवलोकन से अनल्प दुःखाक्रान्त हृदय को उस व्यवहार से अवरूद्ध करने को निःसन्देह असमर्थ हूँ। अहो ! क्या ही दुःख का विषय है आजकल के दर्शनीयाकृति भूरी-भूरी बबरानों वाले छोटे-छोटे ही बालक ऐसे लोगों के हस्तगत हो जाते हैं जिनकी ये लोग निर्विकल्प हो आनन्दित हुए अपने चिन्ह से चिन्हित करने की बड़ी ही शीघ्रता किया करते हैं। बस क्या था ज्योंही दिन व्यतीत होने लगे त्यों ही गुरुजी की प्रीति बढ़ने लगी और आधुनिक योगसाधनीभूत विचित्र क्रियाओं का आरम्भ होने लगा। जैसे प्राचीन योगी उन यथार्थ क्रियाओं में शीघ्र निपुणता प्राप्त करते थे उसी प्रकार आधुनिक योगी भी तो होने चाहिये। अतएव ये भी कुछ ही दिन में आधुनिक क्रियाकुशल गुरुओं की कृपा से शीघ्र तमाखू, गांजा, चरस, भंग, अफीम इनसे एकाधी और भी अधिक क्रियाओं में कौशल्य प्राप्त करते हैं। जिसका फल यह होता है कि बालायु गोरक्षरूप दर्शनीयाकृति होनहार वे बालक थोडे+ ही दिन में निर्बल निस्तेज होकर अपने भविष्य को भ्रष्ट कर बैठते हैं और चरसादि से दग्ध मर्म स्थान हुए बाल्यावस्था में ही बूढ़ों की तरह खांसी से पीडि़त होकर मुठ्ठीभर खंखार फैंकने लगते हैं। अफसोस (अस्तु) गोरक्षनाथजी ने अपने शिष्यों को समाधिस्थ आनन्द में व्यलीन कर योगदीक्षाभिकांक्षी स्वसेवा में उपस्थित हुए अन्य पुरुषों को अपना शिष्यत्व स्वीकृतिपूर्वक अधिकारित्वानुकूल रहस्य समझाना आरम्भ किया और जब तक उनके ज्येष्ठ गुरुभाईयों का समाधि उद्घाटन समय पूर्ण हुआ तब तक उन्होंने अपनी क्रियाओं के परिज्ञान में अच्छी बुद्धिमत्ता प्रदर्शित की, अर्थात् द्वादश वर्ष पर्यन्त वे असम्प्रज्ञात समाधि के यथेष्ट अधिकारी बन गये। अतएव समाधिस्थ शिष्यों के जागरित होने पर गोरक्षनाथजी ने उनको एकाकी भ्रमण कर अपने उद्देश्य प्रचार की आज्ञा प्रदान की। उन्होंने शीघ्र ही आज्ञा को अंगीकृत कर गुरुजी की प्रणति पूर्वक एकाकी देशाटन के लिये प्रस्थान किया। उधर गोरक्षनाथजी ने भी अपने ज्येष्ठ शिष्यों को विदा कर तथा नूतन शिष्यों को साथ में ले वहाँ से गमन किया और चीन में भ्रमण कर तिब्बत में होते हुए कतिपय वर्ष में नयपाल (आधुनिक प्रसिद्धनैपाल) देश में पहुँचे। जिनके यहाँ पर्यन्त भ्रमण करने से कितने ही पुरुष शिष्य होने की अभिलाषा से उनके साथ हो गये थे। अतएव उन लोगों की आकांक्षा पूरी करने के अभिप्राय से श्रीनाथजी ने इस देशस्थ एक पर्वत के ऊपर निवास किया। (जिसका कालान्तर में गोरख पर्वत नाम प्रसिद्ध हुआ) (अस्तु) श्रीनाथजी ने अनुयायी पुरुषों को अपना शिष्य बनाकर क्रमानुकूल क्रियाओं में प्रवृत्त करते हुए ज्येष्ठ शिष्यों को समाधिस्थ किया। जिन्होंने निर्दिष्ट समय पर्यन्त क्रियाकौशल्य में स्वस्व बुद्धि के अनुकूल सन्तोषप्रद दक्षता दिखलाई। अतएव श्रीनाथजी उनकी आरे से निश्चित हो गये और आपने उनको सूचित किया कि अपने इस छोटे गुरुभाइयों को जिनको हमने असम्प्रज्ञात योग के अधिकारी बना दिया है तुम यथेष्ट समय पर्यन्त समाधि का अनुभव कराना तथा तत्कुशलता विषयक निश्चयकर तदनन्तर सब मिश्रित सम्मति हुए समस्त पर्वतीय देशों में योग का प्रचार करना। समग्र शिष्यों ने उनकी यह आज्ञा शिर झुकाकर स्वीकार ही नहीं की बल्कि तत्पालनार्थ वे प्रयत्नाभिमुख भी हो गये। उधर श्रीनाथजी परम प्रीतिपूर्वक सन्तोष एवं धैर्यान्वित स्निग्ध वाक्यों द्वारा अपने प्रिय शिष्यों को सन्तोषित और तत्कृत्य के लिये उत्साहित कर वहाँ से एकाकी विदा हुए और अपनी क्रियाप्रभावोत्थ शक्ति द्वारा लघुभारात्म कहो बहुत ही शीघ्रता के साथ कैलासस्थ श्री महादेवजी के समीप पहुँचे। जो उचित प्रणामात्मक आदेश-आदेश के अनन्तर श्रीमहादेवजी के द्वारा निर्दिष्टित आसन पर विराजमान हुए। तदनन्तर आगन्तुक सत्कारार्थ अवश्यम्भावी यथोपलब्ध प्राकरणिक वाक्यों द्वारा प्रसन्नमुख सर्वान्तर्यामी श्रीमहादेवजी ने प्रशिष्य से कुशलवार्ता पूर्वक पूछना आरम्भ किया कि कहिये हमारे उद्देश्य का कैसा प्रचार हो रहा है। लोग इस प्रचार में विश्वसित हुए इसके ग्रहणार्थ उत्कण्ठित होते हैं कि नहीं। उत्तर प्रदान में गोरक्षनाथजी ने कहा कि स्वामिन् ! भला कौन ऐसा पुरुष है जो आपकी जनहितार्थ प्रदानित वस्तु में उपेक्षाकर कल्पों पर्यन्त अल्पज्ञ पशु प्राययोनिस्थ अ असह्य विविध कष्टों को अनुभवित करने के लिये उद्यत हो। प्रत्युत आर्यवत्र्त में तो चतुर्थांश पुरुष ऐसे हैं जो इस विषय में पूर्णतया विश्वासी हो सांसारिक प्रपंचात्मक निस्सार व्यवहार को तिलांजलि दे अपने आपको इसकी प्राप्त्यर्थ प्रयत्नों में व्यलीन कर चुके हैं। जिनमें कितनेक पुरुषांे को अपने प्रयत्न में उत्तीर्णता प्राप्त हुई है और उसके प्रभाव से विशेष शक्तिशाली हो उन्होंने अपने मुष्य जन्म का यथार्थ उद्देश्य उपलब्ध किया है। साथ ही आपके उद्देश्य प्रचार में सहायक बन आपकी विशेष कृपा के पात्र हुए हैं इनके अतिरिक्त कितने ही पुरुष ऐसे हैं जो किसी कारण से सांसारिक जटिल जाल द्वारा दृढ़बन्धित हुए त्यक्तगृही तो नहीं हो सके हैं परं तद्वत् होने के लिये जीजान से यत्न करते रहते हैंं। और आशाबद्ध हुए अपने उमड़ते हुए हृदय को धैर्यान्वित किया करते हैं कि निःसन्देह एक दिन ऐसा आयेगा जिसमें कैलासनाथ हमें भी परिणामी संसार के अस्थिर मिथ्या व्यापार से विमुक्त कर चिरस्थिति जनक योगात्मक सच्चे कृत्य में नियुक्त कर देंगे क्यों कि लोगों को निश्चय हो गया है कि मनुष्य शरीर की प्राप्ति केवल अन्य योनियों में भी उपलब्ध विषयानन्द की योग्यता के लिये ही नहीं है किन्तु मनुष्य शरीरोपलब्धि का मुख्य प्रयोजन जो जन्म मरणात्मक पारम्पर्य दुःसह्य दुःख को निराकृत करना है तदर्थ ही है और इस अभिलषित कार्यसिद्धि के लिये योगरूप उपाय के अतिरिक्त अन्य दृष्ट उपाय प्रसिद्ध नहीं है। और यह बात भी नहीं है कि यह दशा केवल भारतीय लोगों की ही हो प्रत्युत भारत की इस आकाशव्यापी घूमने पाश्र्ववर्ती अन्यदेशीय लोगों पर भी अपना प्रभाव खूब डाला है। यही कारण है अभी हम चीन देश का भ्रमण समाप्त करके आ रहे हैं। हम जिस दिन से इस देश में प्रविष्ट हुए थे उस दिन से बहिर होने तक ऐसा कोई नगर हमारे मार्ग में नहीं आया जिसमें अनेक पुरुष योगोपदेश के अभिलाषी न हों और इसी उपकार से उपकृत हुए लोगों ने नगर से बाहर निकल हमारा यथोचित स्वागतभिनन्दन नहीं किया हो। यही कारण था इस देश में यथार्थ प्रचार न होने पर भी कतिपय लोगों ने साहस दिखलाया। तथा प्रपंच को किम्प्रयोजन समझकर हमारा शिष्यत्व ग्रहण करने के उद्देश्य से हमको विवशित किया। यह देख हमने भी उनकी प्रार्थना पर पूरा ध्यान देकर उनकी आशालता को हरित बनाते हुए उनको वांछित पद पर अभिषिक्त कर दियां जिनको पार्वत्यदेश में योगोपदेश का विस्तार करने के लिये आज्ञापित कर मैं अभी आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। यह सुन महादेवजी बड़े ही प्रसन्न हुए और स्वमत प्रचार विषयक प्राबल्य के सम्बन्ध में गोरक्षनाथजी की प्रशंसा करने लगे। तदनन्तर विनम्र भाव से अभ्यर्थना करते हुए श्रीनाथजी ने प्रत्युतर दिया कि ! भगवन् सर्व आपका ही प्रताप है आप जब-जब जिस प्रकार के कृत्य को विस्तृत करना चाहते हैं तब-तब मनुष्यों की तदनुकूल बुद्धि हो जाती है जिससे लोग शीघ्र ही उस कृत्य को आश्रित करते हैं और उसको अन्त तक पहुँचाने का प्रयत्न किया करते हैं। यदि इस वार्ता के विषय में कोई मनुष्य अभिमान करे कि मैंने अमुक कृत्य विस्तृत किया है तो समझना चाहिये कि निःसन्देह वह मनुष्य गलती पर चल रहा है। श्रीमहादेवजी ने गोरक्षनाथजी के इस कथन को चुप रहते हुए केवल हुंकारे द्वारा अनुमोदित किया और भ्रूभंगव्याज से उनको दक्षिण भाग में दृष्टिपात करने की आज्ञा दी। गोरक्षनाथजी ने श्रीमहादेवजी का अभिप्राय समझकर ज्यों ही दाक्षिणात्य दृष्टि धारण की त्योंही उनकी दृष्टि अकस्मात् उधर से स्वाभिमुख आते हुए स्वीयगुरु मत्स्येन्द्रनाथजी के ऊपर पड़ी। यह देख तत्काल ही उन्होंने खड़े होकर कतिपय पादक्रम द्वारा गुरुजी का स्वागत किया तथा आभ्यन्तरिक बाह्य दोनों प्रकार की आदेशात्मक नमस्कार से उनको सत्कृत किया। इस कृत्य से गोरक्षनाथजी को प्रत्युपकृत कर मत्स्येन्द्रनाथजी अग्रसर हुए और स्वगुरु श्री महादेवजी को नमस्कार कर तन्निर्दिष्ट आसन पर बिराजित हुए। श्री महादेवजी ने इनसे भी योग प्रचार के विषय में वार्तालाप किया जिसका उन्हें संतोषप्रद उत्तर मिला और उत्तर प्रदान के अनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी कहा कि स्वामिन् ! आपका मनोरथ चरितार्थ हुआ भारत कोने-कोने में आपके उद्देश्य का प्रवाह-प्रवाहित हो चुका है। अतः मेरी आन्तरिक इच्छा है कि आप मुझे अवकाश प्रदान कर दें जिससे मैं अभीष्ट कृत्य में संलग्न हो सकूँ। अपने उत्तरदायित्वानुकूल योगोपदेश विस्तार से अनृण हुए समझकर श्रीमहादेवजी ने निर्विकल्पता के साथ शीघ्र ही इनकी प्रार्थना को अंगीकार कर लिया और विज्ञापित किया कि जाइये आत्मानन्दन के गहन समुद्र में अपने मनीराम को व्यलीन कीजिये। मत्स्येन्द्रनाथजी गुरुजी की अनुकूल आज्ञा प्राप्त होने से अतीवानन्दित हुए और स्वीय आरम्भित कार्य से लब्धावकाश होकर गुरुजी के समीप ही रहने लगे जो कुछ समय निवासोत्तर युधिष्ठिर ’ सम्वत् 1936 में चिरकाल के लिये समाधिस्थ अवस्था में अवस्थित हो गये। उधर गोरक्षनाथजी ने हरियाणा तथा द्रुमिलनारायण सम्बन्धी अवतरण के विषय में श्री महोदवजी से परामर्श किया। जिसका उत्तर प्रदान करते हुए उन्होंने कहा कि उनके अवतरित होने में अभी विलम्ब है जो तुमसे भी अज्ञात नहीं है। हाँ यदि हमारे निश्चित उस समय से प्रथम उनकी कोई आवश्यकता जान पड़ती होय तो स्फुट करना उचित है। जिससे हम भी अवगतित हो जायें और उनका नियत समय न्यून करने का यत्न करें। गोरक्षनाथजी ने कहा कि नहीं स्वामिन ! शीघ्रता करने की आवश्यकता तो कोई दृष्टिगोचर नहीं है केवल उस समय उनको किसी न किसी उपाय द्वारा अपनी ओर आकर्षित करने के लिये मुझे सचेत रहना होगा। इसी अभिप्राय से प्रश्न द्वारा आप से निर्णय कर अपने आपको सावधान रखने की अभिलाषा की है। तदनु श्री महादेवजी ने कहा कि ठीक है परं वह समय तुमसे छिपा न रहेगा जैसा उचित समझो उसी उपाय को अवलम्बित करना। गोरक्षनाथजी ने श्रीमहोदवजी इस उक्ति को शिर नमन द्वारा समर्थनित किया और अपने प्रास्थानिक वृत्त से उन्हें प्रबोधित कर अन्तिम आदेश-आदेश आत्मक विनम्र प्राणाम की। यह देख श्रीमहादेवजी ने प्रश्न किया कि यहाँ से किस ओर जाने का विचार है। श्रीनाथजी ने प्रश्न हल करते हुए कहा कि यहाँ से एक बार तो बद्धरिकाश्रम में जाना होगा तदनुकूल विचार किया जायेगा। यह सुन महादेवजी ने कहा कि ठहरो हम भी चलेंगे। वहाँ ज्वालेन्द्रनाथ और उनका शिष्य कारिणपानाथ निवासकर अपने शिष्य प्रशिष्यों को षट्कर्मादि सर्व प्रकार की क्रियाओं से दीक्षित कर रहे हैं। जिनमें कतिपय कठोर तप में संलग्न हैं। अब उनका समय पूर्ण हो चुका है इसीलिये तपस्यावस्था से उनको विमुक्त करने के उद्देश्य से ज्वालेन्द्रनाथ ने हमारा आव्हान किया है। गोरक्षनाथजी ने यह श्रवण कर श्रीमहादेवजी की प्रास्थानिक तैयारी की प्रतीक्षा में स्वीय गमन को स्थगित किया। इधर महादेवजी ने अपने सज्जीकृत नन्दीश्वर को स्मृतिगत किया जो शीघ्र उपस्थित हो अवनत पृष्ठ हुआ श्रीमहादेवजी के सुगमारोहण में विशेष दक्ष हुआ। तदनन्तर दोनों महानुभाव कुछ ही काल में बदरिकाश्रम में पहुँचे। जहाँ अनेक शिष्य प्रशिष्यों के सहित ज्वालेन्द्रनाथजी विराजमान थे। ठीक इसी समय इनकी दृष्टि स्वाभिमुख आते हुए गोरक्षनाथ और स्वीय गुरु श्रीमहादेवजी के ऊपर पड़ी। तत्काल ही इन्होंने अपने आसन से उत्थित हो कुद पदक्रम अग्रसर होते हुए उनका स्वागतिक सत्कार किया तथा यथोचित आसन पर बैठाकर उनके आकस्मिक आगमन द्वारा दर्शनोत्सव के विषय में कृतज्ञता प्रकट की। इसके अनन्तर अपने युक्ति युक्त यथार्थ वाक्यों द्वारा ज्वालेन्द्रनाथजी को प्रत्युप कृत करते हुए श्रीमहादेवजी ने उन घोर कठिन तप निष्ठ स्वीय कृपापात्र योगियों का परिचय मांगा। वे ज्वालेन्द्रनाथजी की गुहा से कुछ ही दूरी पर अनुकूल स्थलवती कन्दरा में विराजमान थे। अतएव ज्वालेन्द्रनाथजी खड़े हुए और हस्तसम्पुटी कर उधर चलते हुओं ने अपने जनपुण्योपलब्ध अवलोकन द्वारा उनको पवित्र तथा उत्साहित करने के लिये उनकी अभ्यर्थना की। श्रीमहादेवजी तत्काल ही खड़े होकर ज्वालेन्द्रनाथजी के साथ तपस्वियों के समीप गये जो अपनी कठिनावस्था का परिचय दे रहे थे। इधर ज्यों ही तपस्वियों को यह अवगति हुई कि हमारे तप से प्रसादित हो जगदीश श्री महादेवजी हमको अपने पवित्र दर्शन से कृतार्थ एवं हमको तपस्यावस्था से विमुक्त करने के अभिप्राय से उपस्थित हुए हैं तब तो उनके आभ्यन्तरिक स्थान में वह आनन्द अंकुरित हुआ जिसका अनुभव या तो उन्हीं को हुआ होगा या श्रीमहादेवजी ही अन्तर्यामित्व स्वभाव से समझते होंगे। ठीक है साधारण पुरुष एक क्षुद्र कार्य में कुशलता प्राप्त करने पर जब अपने आपको धन्य समझ बैठता है और उसको इतना अधिक आनन्द होता है कि कुछ समय के लिये तो संसार मात्र को आनन्दमय देखता है। तब पाठक महानुभव ! विचारिये, इन पुण्यात्माओं का कौन कार्य था जिसमें इन्हें सफलता प्राप्त हुई। धन्य ऐसी माताओं को जिन्होंने अपने शुद्धाशय पवित्र और स्थान से ऐसे पुत्ररत्नों को उत्पन्न किया जिनके दर्शनार्थ स्वयं श्रीशम्भु आ उपस्थित हों। तथा जिनको तपश्चर्या से विमुक्त कर उनको और भी उच्चपदाभिगामी बनाने के अभिप्राय से धैर्यान्वित एवं उत्साहित करने के लिये स्वयं श्रीशम्भुमहाराज समीप आवें। (अस्तु) तपस्वियों की अवस्था देखकर श्रीमहादेवजी ने प्रकरण आरम्भ करते हुए कहा कि ज्वालेन्द्रनाथ ! अब इनके विषय में क्या समाचार है। ज्वालेन्द्रनाथजी ने विनम्र भाव से कह सुनाया कि भगवन् ! जो समाचार है सो ऐसा नहीं कि आप से अज्ञात हो और उसको हमारी अवश्य ही प्रकट करने की आवश्यकता हो। तदनु श्रीमहादेवजी ने कहा कि यह ठीक है हमें मालूम हुआ तुमने तपस्वियों की विमुक्ति लक्ष्यता से हमारा आव्हान किया है। परं हम तुमसे यह सम्मति मिश्रित करना चाहते हैं कि इनकी इस अवस्था विमुक्ति का कोई दिन तुमने निश्चित किया हुआ है वा हमारी ही इच्छा पर यह कार्य निर्भर है। ज्वालेन्द्रनाथजी ने प्रत्युत्तर दिया कि स्वामिन् ! हमने द्वादश वर्ष की अवधि अवश्य रखी है परं तिथि नियत नहीं करी कि अमुक तिथि में ही यह कार्य करना होगा। अतएव आपकी इच्छा हो उसी दिन यह कार्य कर सकते हैं। ऐसे कृत्य के लिये तिथि को न्यूनाधिक करने में कोई बाधा नहीं। यह सुन श्रीमहादेवजी ने गोरक्षनाथजी की ओर इशारा करते हुए कहा कि तुम भी अपनी अभिमति दो। उन्होंने हाथ हस्त जोड़ प्रकट किया किया कि भगवन् ! मेरी समझ में तो यह आता है अग्रिम दिन अरूणोदय से ही इस कृत्य की समाप्ति करनी चाहिये। गोरक्षनाथजी की यह उक्ति समर्थित हुई। श्रीमहादेवजी ने भी इसी अवसर में उनको विमुक्त करना समुचित समझा था। अतएव उस दिन तथास्तु प्रतिपादन कर श्रीमहादेवजी ज्वालेन्द्रनाथजी की गुहा पर वापिस लौटे। अनेक विषयक वार्तालाप करने पर उधर से सायंकाल उपस्थित हुआ। योगी लोग अपनी-अपनी क्रियाओं से लब्धावकाश हुए और सब ने सम्मिलित हो अतीवानन्दित होते हुए बड़ी श्रद्धा के साथ श्रीमहादेवजी की वन्दना की। जिसका सांकेतिक वाक्यों द्वारा उनको श्रीमहादेवजी ने प्रतिक्रियेय सत्कारात्मक फल समर्पित किया। तदनन्तर समस्त योगियों ने अपनी पारस्परिक यथोचित अभिवादनात्मिका क्रिया से अवकाश प्राप्त कर अपने-अपने आसनों पर ग्रहण किया। श्रीमहादेवजी के समीप केवल तीन व्यक्ति ज्वालेन्द्रनाथजी, गोरक्षनाथजी और कारिणपानाथजी ये विराजमान थी। योग्य प्राकरणिक विविध विषयक वार्तालाप करते-करते यह रात्री समाप्त हो चली। यह देख सभी महानुभव प्रातःकालिक नित्यक्रिया से निवृत्त हो पुनः श्रीमहादेवजी की सेवा में नियत हुए और इस सेवा से प्रत्युपकृति प्राप्त कर उन्होंने स्वकीय आभिवादनिक सत्कार से भी अवकाश ग्रहण किया। उधर उक्त कृत्य के करते कराते निर्दिष्ट समय भी आ पहुँचा। अतएव श्रीमहादेवजी ने प्रकृत कार्य के लिये ज्वालेन्द्रनाथादि को सूचित किया। जिससे वे सब सचेत हुए और महादेवजी के साथ ही तपस्वियों के समीप गये। वहाँ श्रीमहादेवजी ने स्वयं यह घोषित किया कि हे तपस्वियों ! अब इस दशा का त्याग करो, तुम पूर्ण अधिकारी हो। तुम्हारी इस प्रशंसनीय दृढ़ता एवं सहनशीलता से प्रसन्न हो हम तुम्हें बधाई देते हैं और वचन देते हैं कि तुम ज्वालेन्द्रनाथ और कारिणपानाथ के द्वारा अपनी अभीष्ट सिद्धि के प्राप्त करने में अवश्य समर्थ होंगे। यह सुन तपस्वियों ने स्वकीय आरम्भित क्रिया से मुक्ति उपलब्ध की और श्रीमहादेवजी के चरणाविन्द की शरण लेकर अपने और भी चातुर्य एवं महत्त्व का परिचय दिया। जिससे श्रीमहादेवजी की वृद्ध प्रसन्नता और भी प्रवृद्ध हुई और उनके आन्तरिक हृद्यस्थान में वह उत्कट प्रीति उत्पन्न हुई जिसको स्वीय हृदय में ही व्यलीन करने के लिये वे असमर्थ हुए। अतएव उन्होंने समस्त तपस्वियों को अपने ओर संदेश से सम्मिलित कर अपनी प्रवृद्ध प्रीति को सार्थक किया। तथापि इतने ही कृत्य से श्रीमहादेवजी की प्रवाहित प्रीति शान्त न हुई। इसीलिये उन्होंने योगि संघ को सम्बोधित कर कहा कि पृथिवी पर वे मनुष्य, साधारण एवं न्यून भाग्यशाली नहीं समझने चाहिये जो सांसारिक दुष्त्याज्य माया प्रपंच को किम्प्रयोजन निश्चित कर अनेक कष्टों का सामना करते हुए दृढ़ता एवं सहनशीलता तथा धीरता द्वारा मेरे स्वरूप को लक्ष्य बनाते हुए मेरी अनन्य कृपा के भाजन हो जाते हैं और जिनको मैं स्वयं अपने हस्तस्पर्श द्वारा उच्चपदाभिगामी बनाने के लिये बाध्य होता हूँ। ठीक आज यही दृश्य सम्मुख उपस्थित है। मनुष्यों को चाहिये इससे शिक्षा ग्रहण करें और जो मनुष्य, यह लोक ही दुःखमय है जिसका नाम ही मृत्युलोक है इसमें जन्मना और मरना प्रधान दुःख हैं जो नित्य होते रहते हैं जिनसे छुटकारा पाने की इच्छा करना आकाश को मुठ्ठी में बन्द करने की इच्छा करना है, ऐसा प्रचार कर स्वयं आलस्योपहत हुए दूसरे लोगों को भी आलसी बना डालने का यत्न करते हैं उनके शब्दोच्चारण की ध्वनि कभी श्रोत्रगत न होने देना। क्यों कि वे लोग अज्ञ हैं मूर्ख हैं। मैं ऐसे लोगों को सावधान करता हूँ कि वे अच्छी तरह समझ लें ईश्वर द्वेषी तथा अन्यायी नहीं है जिसने संसार को दुःखमय ही रचकर खड़ा किया हो और इसमें ऐसा उपाय नहीं रचा हो जिससे तुम तन्निष्ठ दुःख से मुक्ति न पास को और कल्पों पर्यन्त अनेक कष्टों का ही उपयोग किये जाओ। किन्तु वह बड़ा ही दयालु है उसने प्रथम तो तुमको ऐसा कोई उपदेश नहीं दिया जिसके अवलम्बन से तुम्हें दुःख भोगना पड़े ! तुम अपने अतथ्यामिभान से स्वयं दुःखी होते हो। द्वितीय वह दुःख भी तुम चाहो तो दूर हो सकता है जिसके परिहारार्थ उपाय ईश्वर ने सृष्टि सर्ग के साथ ही रचा है जिसका हम प्रचार कर रहे हैं। आज ही देखिये अनेक पुरुष दृष्टिगोचर हैं जो इस योगोपाय से सांसारिक प्रधान दुःख का तिरस्कार कर चुके हैं। श्रीमहादेवजी ने तपस्वियों के ऊपर इस प्रकार अपनी विशेष कृपा प्रकट कर पारस्परिक अभिवादन प्रत्यभिवादन के अनन्तर निज स्थान को प्रस्थान किया। उधर गोरक्षानाथजी ने भी तत्कृत्य से निवृत्त हो श्रीजान्हवीजी के तटस्थ हरद्वार क्षेत्र में गमन किया और वहाँ गुहा का निर्माण कर युधिष्ठिर सम्वत् 1989 में आप चिरकाल के लिये आत्मानन्द में व्यलीन हुए।
इति श्रीमद्योगेन्द्रगोरक्षनाथ कैलास गमन वर्णन ।

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