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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Friday, May 17, 2013

श्री मत्स्येन्द्रनाथ त्रिविक्रमराज शरीर प्रवेश करण वर्णन ।


एक बार अपरिमित पुण्योपलब्ध पवित्र वस्तु योगरूप अद्वितीय औषध द्वारा जनों को दुःखत्रय से विमुक्त करणार्थ देशाटन करते हुए श्री मत्स्येन्द्रनाथजी का और श्री गोरक्षनाथजी का किसी नगर में शुभ समागम हो गया और सानन्द अनेक नम्र प्रणामादेश के अनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी ने एकत्रित रहते हुए कुछ दिन भ्रमण करेंगे, यह आज्ञा प्रदान की। गोरक्षनाथजी ने गुरुजी की आज्ञा को स्वीकृत करते हुए हर्ष प्रकट किया। तदनु साथ-साथ देशाटन करते हुए आप कुछ काल के अनन्तर राजधानी प्रयाग में जा निकले। जहाँ त्रिविक्रम नाम का राजा राज्य करता था। जो प्रजा को पुत्रवत् समझकर अपने आपको शास्त्रोक्त राजनैतिक विषय में प्रसिद्ध कर चुका था। अतएव उसकी प्रजा भी उसे अपना प्राणप्रिय हृदयनाथ समझती थी। परन्तु जिस दिन उक्त दोनों महानुभावों ने नगर में प्रवेश किया दैवयोग वशात् उसी दिन राजा ऐहलौकिक यात्रा समाप्त कर धर्मराज का अतिथि हो चुका था। इसी कारण से नगर में घोर कोलाहल और शोक का स्वराज्य दिखलाई दे रहा था। तथा नगर का बाजार बन्द होने के साथ-साथ अन्य दैनिक अनेक व्यापार बन्द थे और कहीं भी चार मनुष्य खड़े हुए आनन्द क्रीड़ा में संलग्न नहीं दीख पड़ते थे। ठीक ऐसी ही दशा में नगर में प्रविष्ट होते ही आप लोगों ने नगरवासियों से इस बात का मर्म जानना चाहा। जब लोगों ने उक्त घटना का उनको अच्छी तरह परिचय दिया तब दोनों महानुभाव राजप्रासाद की ओर अग्रसर हुए। वहाँ जाने पर देखा तो प्रासाद में राणियों का अतिकरूणामय हृदय विदारक क्रन्दन हो रहा है जिसको सुनकर पत्थर हृदय भी करूणा से द्रवीभूत हो जाता था। अतएव उस दुःखा क्रान्तराणियों के रोदन ने श्री गोरक्षनाथ के हृदय पर बड़ा ही प्रभाव डाला जिससे दयाद्र्रीभूत हुए उन्होंने गुरुजी से अनुरोध किया कि स्वामिन! आप इन, राज मृत्यु दुःखरूप वज्रपाताक्रान्त प्राणियों की रक्षा करें। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी बोले कि दुःख-सुख तो सबके छाया की तरह साथ ही लगा रहता है। अतः कहीं कभी दुःख अनुभव करना पड़ता है तो कहीं कभी सुख का भी अवसर आता ही है। फिर केवल दुःख को देखकर ही मनुष्य को सहसा अधीर हो जाना उचित नहीं है। इस पर भी खैर पथ्यभंगतादि से जायमान शारीरिक अन्य दुःखों की तो निवृत्ति भी हो सकती है। जिसके लिये अनेक ऋषि महर्षियों ने स्वनिर्मित ग्रन्थों में विविध औषधों का उद्घाटन किया है। परन्तु मृत्युरूप दुःख ऐसा नहीं जिसके ऊपर उनमें की कोई औषधि आक्रमण कर उसका परिहार कर सके। क्योंकि मृत्यु केवल ईश्वरीय आज्ञानुसार ही हुआ करता है। अतएव वह आज्ञा कोई अवरूद्ध नहीं कर सकता है। यह सुनकर कुछ हंसते हुए गोरक्षनाथजी ने कहा कि स्वामिन्! आपका कहना सत्य है पर आपका कथन केवल उन पुरुषों के विषय में है जो स्वयं इस दुःख से नहीं मुक्त हुए हों न कि अपने ऊपर। अतः मुझे विश्वास है कि आप चाहें तो वैसा भी कर सकते हैं। बल्कि आप तो कर ही सकते हैं यदि मुझे आज्ञा हो तो मैं कर दिखला सकता हूँ। परन्तु आपके समक्ष मेरा ऐसा करना अनुचित और सूर्य को प्रदीप दिखलाने के तुल्य है। मत्स्येन्द्रनाथजी ने उक्त बात इसीलिये कही थी कि देखें हमारे शिष्य का हमारे में कहाँ तक विश्वास है। अतः गोरक्षनाथजी की उपरोक्त वाणी को सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी विश्वसित और प्रसन्न हो गये। इसीलिये हंसते हुए कहने लगे कि अच्छा तू बोल फिर क्या चाहता है इसको सजीव करें वा और कुछ। तब गोरक्षनाथजी ने प्रसन्न चित्त से कहा कि क्या आप नहीं जानते हैं इस राजा के कोई पुत्र भी नहीं है। इसीलिये राजकर्मचारी आमात्य लोग घोर संकट में हैं कि किसे राजसिंहासन पर बैठाना चाहिये। तथा इसी कारण से राणियों के मर्मभेदी क्रन्दन से प्रासाद गूंजारित हो रहा है। जिसने मुझे अत्यन्त क्लेशित कर डाला है। अतएव मैं चाहता हूँ कि आप राजा के इस मृतक शव में प्रविष्ट होकर इन लोगों का दुःख दूर करें और पुत्र प्राप्ति के अनन्तर राज्यकार्य ठीक संचालित कर पश्चात् इसी कलेवर में लौट आवें। इससे आपका अत्यन्त उपकार होगा। क्योंकि आपका तो देश में भ्रमण ही इस उपकारार्थ है। यह सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी ने तथास्तु कहते हुए इस कृत्य के अनुकूल कोई ऐकान्तिक शुभस्थान की अन्वेषणा करने के लिये वहाँ से प्रस्थान किया और कतिपय क्षण में आप नगर से बाह्यस्थल एक महादेवजी के मन्दिर में गये जो राजकीय मन्दिर था जिसमें प्रति अवसर पर राजा और उसका अन्तःपुर भी दर्शन करने के लिये आता था। बस उक्त कृत्य के योग्य उन्होंने इसी स्थान को यथोचित समझा, क्योंकि उसमें एक दुर्भेद्यगुहा भी थी। अतएव श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने श्री गोरक्षनाथजी से कहा कि इस द्वादश वर्ष पर्यन्त की अवधि रखते हैं। अतः उस अवधि तक हमारे इस शरीर की गुप्त रक्षार्थ यह गुहा विशेष उपयोगी होगी। इसी में हमारे शव को रखना कभी इसका परिवर्तन न करना। बल्कि शरीर को उचित रीति से संशोधित कर इस गुहा का द्वार बन्द कर देना। परन्तु प्रथम आवश्यकता इस बात की है कि मन्दिर का पूजारी जो यह एक ब्राह्मण है इसको बुलाकर इस गोप्य रहस्य से सावधान कर दिया जाना चाहिये। क्योंकि इस रहस्य ज्ञाता तुम से अन्य किसी को इसकी जानकारी हुई तो कुछ अनर्थ उपस्थित होने की आशंका है। गुरुजी के ये वाक्य सुनकर गोरक्षनाथजी ने उस ब्राह्मण पूजारी को ऐकान्तिक स्थलस्थ मत्स्येन्द्रनाथजी के समीप ला उपस्थित किया। जिससे उन्होंने ब्राह्मण को स्वकीय मतानुकूल कर स्वचिन्तित वृत्त से अवगत किया। यहाँ तक कि उसको भयानक वचनों द्वारा यह भी भीति दिखला दी गई कि तुम्हारे सम्बन्ध से यदि यह बात स्फुट हो गई तो यह हमारा शिष्य गोरक्षनाथ बहुत ही अद्भुत शक्ति रखता है तुमको सकुटुम्ब भस्मीभूत कर डालेगा। यह सुन ब्राह्मण में इतना साहस कहाँ था कि वह इस कार्य में अपनी उपेक्षा प्रकट करता। अतः उसने इस कृत्य को गुप्त रखने का पूरा नियम कर उन्हों को विश्वास दिलाया कि मैं कभी ऐसा उद्योग करने को प्रस्तुत नहीं होऊँगा जिसके द्वारा आपके इस शुभ कार्य में कोई किसी तरह की बाधा उपस्थित हो सके हाँ अवश्यम्भावी आकस्मिक दैवघटना के विषय में मैं क्या कह सकता हूँ। ब्राह्मण की इस प्रतिज्ञा पर विश्वसित होकर उन्होंने अपना कार्य आरम्भ किया। अर्थात् श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने उक्त गुहा में प्रविष्ट होकर समाधिस्थ अवस्था की शरण ली और उस शरीर से पृथक् हो मृतक राजा त्रिविक्रम के देह में प्रवेश किया। बस क्या था तत्काल ही राजा साहिब खड़े हो गये और देखने लगे तो उसका कल्पित विमान श्मशान भूमि में रखा हुआ है। जिसके दग्धकरणार्थ एक सुयोग्य चिता तैयार की जा रही है और उसके चैंतरफ अनेक राजकर्मचारी शोकाक्रान्त हुए नीची ग्रीवा किये बैठे हैं। तथा कुछ ही दूरी पर स्थित राजा का अन्तःपुर अपने करूणामय मर्मभेदी क्रन्दन से और भी लोगों के दुःखान्वित हृदयों को अधीर कर रहा है। यह देख राजा सब वृत्तान्त को जानते हुए भी, जनता को जिससे कोई सन्देह न हो जाय, इसलिये पूछ उठे कि ‘अहो’ यह क्या बात है। आप समस्त लोग यहाँ क्यों आये हैं और मुझे क्यों यहाँ श्मशान में ला कर डाला है। तथा ये राणियाँ क्यों विलाप कर रही हैं। यह अनहोनी अपूर्व विचित्र घटना देखकर प्रथम तो लोग कुछ विस्मित हुए। परन्तु शीघ्रता के साथ उस आश्चर्यता को छोड़ प्रसन्न मुख हुए राजा के प्रश्नों का प्रत्युत्तर देने के लिये प्रस्तुत हो गये और उन्होंने कहा कि महाराज! आप स्वर्गवास कर गये थे इसलिये, तथा आपके कोई पुत्र नहीं हुआ था अतः इस विशेष चिन्ता से दुःखी हुए कि अब हम लोग अपना शिरताज किसको बनावेंगे, रोदन करते हुए आपके इस नश्वर शरीर का अग्नि संस्कार करने के निमित्त यहाँ लाये थे। परन्तु हम लोगों का बड़ा ही सौभाग्य है जो आपने फिर हमारे दुःखाक्रान्त अश्रुप्लवित नेत्रों को शुष्क करते हुए शोकाग्नि से दग्ध हृदयों को सुशान्त किया। इस वृत्त के श्रवण करने पर राजा ने नगर में चलने की आज्ञा दी जिससे एक और सुन्दर विमान तैयार किया गया और बड़े उत्सव से राजा की असवारी निकाली गई। नगर में अनेक प्रकार के नृत्य गायन होने लगे और क्षुधार्तों को तथा योग्य व्यक्तियों को विविध प्रकार के अन्नादि दान दिये गये। बहुत क्या प्रत्येक गली और घर में आनन्द मनाया गया एवं सैनिक लोगों को तथा अन्य राजकर्मचारियों को यथोचित पुरस्कार भी दिये गये। तदनन्तर राजा ने एक सभा कर यज्ञ करना निश्चय किया। जो उपस्थित सदस्यों ने सर्वथा उचित कार्य बतलाकर अंगीकृत किया और उसके साधन एकत्रित करने की आज्ञा के विषय में प्रार्थना की, राजा ने आज्ञा दे दी। अतः शीघ्रता से राजकीय लोग सामग्री संचित करने लगे। जिससे कुछ दिनों में ही यज्ञ का आरम्भ हुआ और सकुशल समाप्त भी हो गया। जिसके समाप्त होने पर्यन्त राजा को एक पुत्र भी उपलब्ध हुआ जिससे और भी आनन्दोत्सव मनाया गया और प्रतिदिन राजकार्य बड़ी ही कुशलता के साथ संचालित होने लगा। उधर गोरक्षनाथजी ने गुरुजी की आज्ञानुसार मत्स्येन्द्रनाथजी के शरीर को निश्चत औषधों से संस्कृत कर गुहाकार बन्द कराने के अनन्तर कुछ दिन वहाँ पर निवास किया। परन्तु जब यह विश्वास हो गया कि अवश्य यहाँ कोई बाधा नहीं दिख पड़ती है तब वे अब यहाँ इतने दिन व्यर्थ व्यतीत करने से क्या साध्य है इसलिये अवधि से पहले तो देशाटन कर किसी मुमुक्षु को संसारानल से शान्त करके अपने इस चिन्ह धारण के उत्तरदायित्व को हल करना कहीं उचित है, यह विचार कर भ्रमण के लिये देशान्तर को चले गये। जिन्होंने गोदावरी नहीं के तटस्थ स्थल में भ्रमण करते-करते धामा नगर के माणिक नाम के पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करते हुए, जिसका आगे वर्णन आवेगा, अन्य मुमुक्षु जनों को भी सांसारिक विपज्जाल से विमुक्त किया। इसी प्रकार एकादश वर्ष व्यतीत हो गये। उधर इस अवधि तक महाराजा त्रिविक्रम का भी राजकार्यक्रम अत्यन्त ही कुशलता के साथ अतिक्रमित हुआ। परन्तु इसी अवसर पर एक आकस्मिक दुर्घटना उपस्थित हुई वह यह थी कि उक्त गुप्त वृत्तान्त की एक ब्राह्मणी को जो पूजारी ब्राह्मण की पत्नी थी, मालूम हो गई और वह जब कभी राजप्रासाद में कोई उत्सव होता था उस समय प्रधान राणी के संघ में क्रीडार्थ भी जाया आया करती थी। अतः एक दिन ऐसा ही कोई उत्सव उपस्थित हुआ जिसमें अपने प्रचलित नियमानुसार वह ब्राह्मणी भी प्रधान राणी के प्रासाद में पहुँची और विविध नृत्य गायन खेलकूद के समय जब राणी अत्यन्त विव्हल हो रही थी उस समय राणी को इस प्रकार आनन्द में निमग्न देखकर उसे उक्त वृत्तान्त का स्मरण आ गया। तथा वह अपने चित्त में कल्पनायें करने लगी कि अहो, मत्स्येन्द्रनाथजी की अवधि में केवल एक वर्ष के अनुमान अवशिष्ट रहा है अतः हमारी राजराणी को अब यह आनन्द अधिक दिन अनुभवित करना न होगा। बल्कि अधिक क्या वह इस दुःखद वृत्त को आगे के लिये गुप्त रखने को अशक्य हो गई और प्रेमज दुःखग्रस्त त्रलनेत्र हुई अधीरता से कह उठी कि हे राणी! कुछ दिन इस सांसारिक सुख का अनुभव और कर ले अब यह अधिक दिन तेरे हस्तगत न रहेगा, जीवन पर्यन्त के लिये इसका तुझ से वियोग होने वाला है। यह सुनकर राणी का सब आनन्द न जानें कहाँ का कहाँ चला गया वह श्वेतमुख हुई विस्मय के साथ बोली कि सहचारिणि! आज तुमने अकस्मात् यह क्या कह डाला तुम कुछ सचेत हो वा नहीं। कहो क्रीडानन्द में मग्न हो अज्ञात ता से ऐसा विपरीत भाषण कर रही हो वा अप्रमत्तता के साथ जानकारी से, बतलाओ-बतलाओ क्या बात है। प्रत्युत्तर में एक बार तो ब्राह्मणी कुछ भीति ग्रस्त हुई जिव्हा संकुचित करने लगी और उक्त कथन को उसने इधर-उधर की वार्ताओं में मिश्रित करना चाहा। परन्तु राणी को उसका निर्णय किये बिना शान्ति कहाँ हो सकती थी अतएव उसके सत्यता के विषय में अनेक बार अनुरोध करने पर ब्राह्मणी ने विवश होकर जैसा का तैसा ही समस्त वृत्तान्त बतला दिया जिसके श्रवण मात्र से राणी मूच्र्छित हो गई। परं विविध औषधोपचार के अनन्तर जब वह लब्धसजा हुई तो उसने उस ब्राह्मणी के सहित सब सहचारिणी तथा दासियों की एक गुप्त मण्डली तैयार की और सबके सम्मुख कह सुनाया कि इस बात की, जिसका कि हम निश्चय करेंगी, किसी द्वारा भी राजा को वा अन्यराज कर्मचारी को सूचना हो गई तो उसका कुटुम्ब पाशबद्ध किया जायेगा अतः चिन्तित मन्त्र की बड़ी सावधानी से रक्षा करना। हम मत्स्येन्द्रनाथजी योगी का शरीर जो अमुक मन्दिर की गुहा में रखा हुआ है जिसे रक्षित कर वह हमारे पतिराजा के मृतक देह में प्रविष्ट हुआ है उस शरीर को वहाँ से निकालकर गुप्त रीति द्वारा किसी ऐसी जगह पर प्रक्षिप्त करावेंगे जिससे वह शरीर योग्य न रहे और यह उसमें फिर प्रवेश न कर सके। राणी का यह प्रस्ताव सबने शिरनमन पूर्वक स्वीकृत कर लिया। तदनन्तर राणी ने स्वमतानुकूल दी राजकर्मचारियों को इस कृत्य के लिये आज्ञा दी जिन्होंने बड़े ही तिरोभाव से इस कार्य को पूरा किया। अर्थात् श्री मत्स्येन्द्रनाथजी के गुहास्थ शरीर को बहिर निकालकर खण्डशः कर डालने के बाद जब वे उसको किसी ऐकान्तिक गुप्त स्थान में छिपाने के वास्ते उद्यत हुए तब आकशवाणी हुई कि हे कैलासनाथ! आपके मन्दिर में अनर्थ हुआ है आप मत्स्येन्द्रनाथ के शरीर की रक्षा करो। इसके अनन्तर मन्दिर से यह आवाज आई कि शान्त हो धीर धरो रक्षा की जाती है। बस जहाँ यह यह कथन समाप्त हुआ उधर से श्रीमहादेवजी द्वारा प्रेरित हुई चतुर्भुजा भगवती चामुण्डा प्रकट हो गई जो श्रीमहादेवजी की आज्ञानुसार मत्स्येन्द्रनाथजी के शव को कैलास में ले गई और उसने वीरभद्र से महादेवजी की आज्ञा को कह सुनाया कि यह वस्तु तुमको बड़ी सावधानी के साथ रक्षित रखनी होगी क्योंकि यह उनके पुत्र और शिष्य मत्स्येन्द्रनाथ का शरीर है। यह वृत्त जानकर वीरभद्र अत्यन्त प्रसन्न हुआ और साभिमान कहने लगा कि अहो, शत्रु अनायास से ही मारा गया जिसे अपनी शक्ति का अत्यन्त अहंकार था और जिसने मुझे भी पराजित किया था। अतः अब तो सहज में ही झगड़ा पार हुआ और कोई ऐसा है ही नहीं जो इस शरीर को मुझ से बलपूर्वक छीन लेगा। इत्यादि वाक्यों द्वारा अपना आनन्द प्रमोद प्रकट कर वीरभद्र ने देवी को विदा किया। उधर देवी ने भी वीरभद्र के उक्ताभिमानगर्भित समस्त वचन श्रीमहादेवजी के सम्मुख कथन कर स्वस्थान का मार्ग लिया। ठीक इसी अवसर पर एक दिन देशाटन करते हुए गोरक्षनाथजी ने विचार किया कि निर्दिष्ट समय समीप आ पहुँचा है अतः प्रयाग चलकर गुरुजी के गुहास्थ शरीर को देखें उसका क्या हाल है। तदनु जब भ्रमण करते-करते कुछ दिन में आप वहाँ आ उपस्थित हुए हैं तब ब्राह्मण ने हस्तसम्पुटी कर बड़े ही नम्र वचनों से उनको सूचित किया कि ऐसा-ऐसा वृत्तान्त गुजरा है आपकी इच्छा है जो चाहे सो करें हमको कृपा दृष्टि में रखें या क्रोधज शाप से भस्मीभूत कर दें। परं मैं यह कहे बिना नहीं रहूँगा कि मैंने आपकी आज्ञा पालन करने में कोई त्रुटि नहीं रखी है तो भी जो कुछ दुःखदवृत्त हो चुका है वह केवल देव घटना समझनी चाहिये। यह सुन गोरक्षनाथजी एक बार तो अत्यन्त ही क्रोधित हुए और कहने लगे कि अच्छा तुम्हारा दोष नहीं है तो राणी को सहित सहचारियों के भस्मात् करूँगा। परं फिर विचार किया कि नहीं राणी हमारी माता है उसने गुरुजी को अत्यन्तानन्द दिया है अतः वह ऐसे कृत्य का आखेट करने के योग्य नहीं है। इसके अनन्तर स्वयं समाधिस्थ हुए ध्यानपूर्वक आप गुरुजी के शरीर को देखने लगे तो उन्हें मालूम हुआ कि वह कैलासस्थ वीरभद्र के अधीनस्थ है। यह जान ऐसा विचार कर, कि गुरुजी के शरीर को लाकर फिर मन्त्रोपचारद्वार वैसा ही बना लूँगा, उन्होंने वहाँ से कैलास को प्रस्थान किया और प्रथम महादेवजी की सेवा में उपस्थित हो आदेशात्मक प्रणाम के अनन्तर प्रकृत प्रस्ताव भी किया। यह सुनते ही महादेवजी ने शरीर को ले जाने की आज्ञा दी परन्तु साथ ही चामुण्डा सूचित अहंकारपूर्ण वीरभद्र के वचनों को भी सुना डाला और उन्होंने इशारे द्वारा आपको समझा दिया कि सम्भवतः पूर्व वृत्त स्मरण कर वह शरीर प्रदान करने में कुछ टालमटोल करेगा अतः उसे इसका उचित फल प्रदान कर जतला देना कि ऐसे साभिमान व्यर्थ वाक्य कहने से ऐसा ही पुरस्कार मिला करता है। महादेवजी के इस आदेश को प्राप्तकर गोरक्षनाथजी उस स्थान में गये जहाँ मत्स्येन्द्रनाथजी खण्डकृत शव रखा था और अपने सहायक गणों के सहित वीरभद्र उसकी रक्षा के लिये विराजमान था। कुछ क्षण में ही आपने वहाँ उपस्थित हो आदेश-आदेश की ध्वनि की और अपना अभिप्राय वीरभद्र से कहा। यह सुन उसके रक्तनेत्र हो गये और उसने स्पष्ट कह दिया मैं मत्स्येन्द्रनाथ के देह को नहीं दूँगा। क्यों कि इसने मेरा तिरस्कार किया था। यह सुनकर गोरक्षनाथजी ने उत्तर दिया कि यह तो ठीक है इन्होंने अवश्य तुम को युद्ध में पराजित कर तुम्हारा तिरस्कार किया था यह मुझ से छिपा नहीं है। परन्तु इस कृत्य से तुम, मैं अपना बदला चुका रहा हूँ, यह समझते हो तो तुम्हारी भूल है। कारण कि शरीर को न देने से वीरभद्र ने अपना बदला चुकाया यह तो कोई भी कहने को प्रस्तुत नहीं होगा। प्रत्युत इसमें तुम्हारी हानि है अतः आवश्यकता इसी बात की है कि इस विषय में आप हस्तक्षेप न करें यह देह मृत्तिका की तुल्य जड़ है। इसके ऊपर अधिकार कर वैर निर्यातित करना आपका अपने को हास्यास्पद बनाना है। गोरक्षनाथजी के इस कथन पर उसने कुछ ध्यान नहीं दिया। देता भी कैसे वह जानता ही था कि मत्स्येन्द्रनाथ को संजीवनी विद्या आती थी वही उसने अपने शिष्य गोरक्षनाथ को शिखला रखी है। अतः उसके द्वारा यह मत्स्येन्द्रनाथ को फिर सजीव कर डालेगा जिससे एक तिरस्कार मूर्ति प्रबल शत्रु संसार हो गया हुआ फिर सम्मुख छाती पर आ खड़ा होगा। तदनन्तर गोरक्षनाथजी ने लक्षणों से जान लिया कि यह स्वमतानुकूल होना दुष्कर है। अतएव स्थिति जटिलरूप धारण करने वाली है। तब तो उन्हों को अधिक वादविवाद करना रूचिकर न समझकर स्पष्ट कहना पड़ा कि या तो शरीर समर्पित कर दो नहीं तो समझ लो जब तो पराजय में ही गुजर गई थी अब के बार शारीरिक कष्ट भी उठाना पड़ेगा। यह सुन वीरभद्र ने इस बात का अभिमत किया कि अच्छा ऐसा होने दीजिये तभी आपको शरीर मिल सकेगा अन्यथा नहीं। परन्तु यह न समझना कि मत्स्येन्द्रनाथ ने इसको पराजित किया तो मैं भी कर लूंगा। अतः कुछ सोच विचार कर कार्यारम्भ करना। क्योंकि हम अधिक संख्यक हैं तुम एक व्यक्ति मात्र हो और परापर शक्ति का निरीक्षण कर किसी के साथ बैमनस्य करना ही बुद्धिमत्ता है। इसके प्रत्युत्तरार्थ गोरक्षनाथजी ने कहा कि मुझे दुःख है जो कुछ तुमने कहा उन बातों को मैं तो अपने हृदय में स्थान दे रहा हूँ परन्तु कहने वाले तुम नहीं दे रहे हो। ऐसा न होता तो कहिये आपको ही मेरी शक्ति का क्या निश्चय है कि मैं कितना शक्तिशाली हूँ तथा इस बात का आपको क्या निश्चय है कि युद्ध में मैं ही पराजित हूँगा। यह सुन वीरभद्र ने खुले शब्दों में कह डाला कि जो हो हमारा निश्चय सत्य हो वा असत्य हो हम अपने चिन्तित मनोरथ की रक्षा अवश्य करेंगे। अतः आपकी कामना युद्ध के लिये हो तो कीजिये। इस स्पष्ट घोषणा के अनन्तर युद्धारम्भ हुआ जिसमें गोरक्षनाथजी ने कुछ विभूति मन्त्रोपचार के सााि वीरभद्र के गणों को लक्ष्यकर प्रक्षिप्त की। जिसके द्वारा समस्त सहचारी मूच्र्छित हुए और वीरभद्र एकाकी खड़ा रह गया। ठीक उसी अवसर में गोरक्षनाथजी ने उच्च स्वार से वीरभद्र को ललकारा तथा कहा कि आप जो अपने सहायकों की ओर देख अपनी शक्ति को अधिक मान बैठे थे वह शक्ति बेकार है। जिसके द्वारा आपको कोई सहायता नहीं मिल सकती है। अतः अब हम दोनों ही स्वपक्ष में एक व्यक्ति मात्र हैं जिससे यह सहज में ही मालूम हो सकेगा कि कौन अधिक शक्ति वाला है और किसकी जय-पराजय हुई। आइये आगे इस्त बढ़ाइये अपने अमोघ से अमोघ शस्त्र को व्यवहत कीजिये। यह देख एक बार तो वीरभद्र कुछ श्ंाकित मन हुआ। परं फिर, यद्यपि गणों से जान पड़ता है कि फिर मुझे ही पराजित होकर लज्जित होना पड़ेगा तथापि आरम्भ में ही ऐसा मानकर हताश होना बुद्धिमता नहीं है, यह विचार कर शीघ्र युद्ध के लिये ताल ठोककर खड़ा हो गया। उधर गोरक्षनाथजी भी तैयार खड़े थे जिन्होंने आज्ञा दी कि प्रथम मल्ल युद्ध करना चाहिये। अनन्तर जब इसमें सफलता प्राप्त न हो तो और विधि से करना। अर्थात् तुम्हारी इच्छा पर ही निर्भर है तुम चाहो जैसा युद्ध कर सकते हो। तुम कोई भी प्रकार अवशिष्ट न छोड़ना। ठीक ठीक तद्नुसार ही मल्ल युद्ध होना आरम्भ हुआ। जिसे कतिपय दिन बीत गये परं वीरभद्र का मनोरथ सफलीभूत न होने पाया। अन्त को स्वानुकूल आस्त्रिक युद्ध होने लगा। जिसमें वीरभद्र ने प्रथम अपने वायवीय अस्त्र को प्रहृत किया। जिसके उत्तर में गोरक्षनाथजी ने वायु शमनास्त्र छोड़ा जिस द्वारा वह उत्पात शान्त हुआ जो वीरभद्र के उक्तास्त्र से हुआ था। अर्थात् उसके वायवीयास्त्र बड़े-बड़े वृक्ष तथा पर्वत की शिलायें उखड़-उखड़ कर अनेक छोटे-छोटे कन्दरास्थ वृक्षों को नष्ट-भ्रष्ट कर रही थी। जिसके इस आकस्मिक घोर कष्ट से आरण्य जीव त्रस्त हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे, अब उसकी शान्ति हुई। तदनन्तर वीरभद्र ने आग्नेयास्त्र छोड़ा, जिसके प्रकोप से समस्त प्राणी खिन्नचित्त हो उठे और तृण वृक्षा दि भस्म होने लगे। इसके ऊपर गोरक्षनाथजी ने वर्षास्त्र प्रक्षिप्त किया, जिससे सन्त प्तस्थवर जंगम को शान्ति मिली। इस अस्त्र को भी वे काम देखकर वीरभद्र ने नागास्त्र छोड़ा। जिससे अनेक सर्प विद्युतवत् जिव्हाओं को लपलपाते हुए गोरक्षनाथजी के सम्मुख इस प्रकार प्रभावित हो रहे हो थे मानों एक बार ही ग्रासकर जायेंगे। यह देख गोरक्षनाथजी ने गरूड़ास्त्र छोड़ा। जिससे समस्त सर्प समूह को इस प्रकार संकुचित किया जैसे कूर्म अपने प्रसारित अंगों को कर लेता है। इसी क्रम से जो-जो अस्त्र वीरभद्र ने छोड़े उन-उन का गोरक्षनाथजी ने बड़ी कुशलता के साथ प्रत्युत्तर दिया अतएव जब विवश होकर उसे कुछ भी उपायान्तर नहीं स्मृत हुआ तब तो उसने महादेवजी की शरण में जाना चाहा। परन्तु यह गोरक्षनाथजी ने भी समझ लिया और महादेवजी के इशारे के अनुसार वह कार्य करना भी उचित समझा। अतएव उन्होंने समन्त्र कुछ विभूति उसको लक्ष्यकर प्रक्षिप्त की जिससे उसकी भी उसके सहायकों जैसी दशा हुई। तदनन्तर यह समाचार श्रीमहादेवजी के पास पहुँचा जिसका श्रवणकर वीरभद्र को सन्तोषित करने के लिये तथा उनका विवाद निवारण करने के लिये श्रीमहादेवजी वहाँ आये और गोरक्षनाथजी की अद्भुत शक्ति के विषय की प्रशंसा करने लगे। एवं उन्होंने उनके द्वारा वीरभद्र और उसके सहायकों को सचेत कराया। तथा वीरभद्र की प्रशंसा भी की। एवं इस बात पर उन्होंने विशेष जोर दिया कि प्रत्येक समय प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का स्मरण करना चाहिये कि कभी अहंकार का कोई शब्द न कहे। यद्यपि यह सत्य है कि तुम गोरक्षनाथ से किसी प्रकार न्यून कोटि में नहीं हो तो भी तुम्हारा पराजय क्यों हुआ इसका क्या कारण है वह यही है कि तुमने अभिमान किया अहंकार किया कि अब अन्य कौन ऐसा है जो मुझ से बलपूर्वक् शरीर को छीन ले जाय। अतः उसी का फल स्वरूप यह पराजय है, इस प्रकार कहकर मत्स्येन्द्रनाथजी का शरीर दिला दिया। जिससे महादेवजी को आदेशात्मक नमस्कार कर गोरक्षनाथजी गुरुजी के शरीर को लेकर प्रयागराज में आये और मन्त्र तथा औषधोपचार द्वारा आपने शरीर को ठीक किया। इतने में द्वादश वर्ष की निर्दिष्ट अवधि भी आ पहुँची। तत्काल ही राजा ने प्रकट रूप से उस वार्ता को घोषणा कर दी। जिससे बड़ा ही विस्मयान्वित कोलाहल तथा उत्सव उपस्थित हुआ और मत्स्येन्द्रनाथजी के उक्त शरीर में प्रवेश करते ही राजकीय शरीर मृतक हो गया उसका बड़े ही आनन्द के साथ शास्त्रोक्त विधि से अग्निसंस्कार तथा उसकी अन्तिम क्रिया भी की गई और एकादशवर्षीय राजकुमार, जिसका नाम धर्मराय था, राज सिंहासनाभिषिक्त किया गया। जिसको शिर झुकाकर प्रजा ने सहर्ष स्वीकृत किया जिसने राजनैतिक ज्ञान और प्रजा वत्सलता में पिता को भी न्यून कर डाला था।
इति श्री मत्स्येन्द्रनाथ त्रिविक्रमराज शरीर प्रवेश करण वर्णन ।

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