Featured Post

जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Saturday, May 4, 2013

श्रीमत्स्येन्द्रनाथ चामुण्डा युद्धवर्णन

श्री मत्स्येन्द्रनाथजी गदातीर्थ से गमन करने के अनन्तर जनों को योगात्मक अद्वितीय औषध का मर्म समझाते हुए कुछ काल में श्री द्वारकापुरी में पहुँचे। वहाँ जब नगरी में यह सूचना विस्तृत हुई कि श्री मत्स्येन्द्रनाथ योगी आज यहाँ पधारे हैं तब तो बहुत मनुष्य दर्शन करने के लिये आये। तथा जिसकी जैसी शक्ति थी उसके अनुसार सभी लोग भेंट-पूजा लाकर मत्स्येन्द्रनाथजी के अर्पण करने लगे। कितने ही पुरुष जो असार संसार के विविध दुःखों से आकुल हो मत्स्येन्द्रनाथजी की विशेष सेवा में तत्पर हो गये थे वे आपके द्वारा उन विविध दुःखों की विनाशक योगरूप असाधारण औषध का तत्त्व समझकर सदा के लिये सुखी बन गये। कुछ समय तक इस कार्य को पूरा कर श्री मत्स्येन्द्रनाथजी यहाँ से भी देशान्तर भ्रमण के लिये प्रस्थानित हो गये और कच्छ, सिन्धु आदि कई एक देशों का उल्लंघन कर आप कतिपय मास में, अनेक प्रकार के पुष्पों की सुगन्ध से सुगन्धित, नाना फल संयुक्त वृक्षों की माला से अच्छादित, असंख्य जल-झरनों वाले, अति शोभायमान, श्रीमहादेवी हिंगलाज के पर्वत में पहुँचे। यहाँ प्रत्येक स्थान में देवियों का बड़ा ही प्राधान्य था और एक सुशोभित स्थान में श्री हिंगलाज देवी का अति रमणीय सिंहासन बिराजमान था। जिसमें सहस्त्रों तो क्या लक्षों का सुवर्ण लगा हुआ था। ठीक इसी के ऊपर षोडश कलाओं से सुशोभित श्री महादेवी हिंगलाज बिराजमान थी। जिसके चार भुआ और सिर पर स्वर्णमय मुकुट शोभा पा रहा था। जिस वशात् सुन्दर रूपवती जगद्रक्षिका श्री महादेवी जी का रूप और भी दिव्यतर दीख पड़ता था। ऐसी ही दशा में बिराजमान हुई, ऋद्धि सिद्धि की दात्री, सन्तहितकारिणी पवित्र दृष्टि वाली, श्री हिंगलाज देवी तीनों लोक चैदह भुवन की रक्षा करती थी। जिसकी सेवा के लिये अनेक देवियाँ हर एक समय पर उपस्थित रहती थी और द्वार पर अष्ट भैरव सदा नियुक्त रहते थे। इसी महादेवी हिंगलाज जी के दर्शन के निमित्त मत्स्येन्द्रनाथजी वहाँ पहुँचे और ज्यों ही पर्वत के ऊपर चढ़ने लगे त्यों ही भैरव की दृष्टि आपके ऊपर पड़ी। उसने देखते ही आपको ऊपर जोने के लिये निषिद्ध कर दिया। साथ ही पूछा कि तुम कौन हो तुम्हारा नाम क्या है किस कारण से यहाँ आये हो। आपने उत्तर दिया कि हम योगी हैं मत्स्येन्द्रनाथ हमारा नाम है। श्रीमहादेवी हिंगलाज जी के दर्शनार्थ यहाँ आये हैं। यह सुन भैरव ने कहा कि खैर कुछ हो परं ऊपर जाने नहीं पाओगे। आपने कहा कि क्यों यह क्या कारण है हम ऊपर क्यों नहीं जा सकते हैं। उसने कहा कि पर्व के अतिरिक्त समय में किसी भी मनुष्य को, खास करके पापी को महादेवी के दर्शन करने का न तो कोई अधिकार है और न ऐसे मनुष्य को ऊपर जाने के लिये देवी की आज्ञा ही है। अतएव मुझे यह जानने का पूरा प्रमाण मिल जाय कि आप वैसे मनुष्य नहीं है और श्रद्धा के साथ महादेवी के दर्शन निमित्त ही यहाँ आये हैं तो मैं ऊपर जाने के विषय में कोई आपत्ति नहीं करूँगा। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी के मुख से ’ आभिमानिक वचन निकला और वह यह था कि आपने कहा कि हम स्वयं तो पापी नहीं परन्तु पापियों के इस दुःखमय असार संसार रूप समुद्र के पार होने के लिये नौका रूप हैं। अतएव श्री महादेवी के दर्शन करने से हम को रोक रखना उचित नहीं होगा। भैरव ने कहा कि यह सब ठीक है परं मैं आपके, कि हम पापियों के पार होने के लिये नौका रूप हैं, इस कथन पर सन्तोष नहीं कर सकता हूँ और शंका करता हूँ कि आप ऊपर जाने के अयोग्य मालूम होते हैं। आपके इस कथन ने आपकी श्रेष्ठता पर आघात पहुँचा कर ही मेरे उक्त निश्चय में सहायता दी है। कारण कि ऐसे पुरुष को कया आवश्यकता पड़ी जो देवी के दर्शनार्थ यहाँ आता। यदि आता भी तो अपने मुख से अपनी ऐसी कीर्ति का कभी वर्णन नहीं करता। अतः ऐसा कहकर तुमने यह प्रकट कर दिया कि तुम कोई छली पुरुष हो। अपने महत्त्व की डींग हांककर हमारी आँखों में धूलि डालना चाहते हो। परं यहाँ क्या छùता चल सकती है। अतः जाओ वापिस लौट जाओ जो कुछ यहाँ तक आ गये हो सो माफ किया जाता है। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि अहो क्या ही आश्चर्य की बात है यदि तुम्हारे पूछने ने अनुरोध से हम अपना याथाथ्र्य न बतलाते तो हमारा ऊपर जाना रोका जाता और बतलाया तो भी रोका जाता है। बल्कि रोका ही नहीं हमको छलियों की उपाधि से विभूषित किया जाता है। तदनु आपने निश्चय किया कि इसको हम अपनी वास्तविक स्थिति का और कैसे निश्चय करावें। हम अपने विषय में श्रेष्ठता और सत्यता सूचित करने के लिये जितने ही वाक्यों का प्रयोग करेंगे यह हमको उतना ही झूठा और छली समझेगा। अन्ततः आपने कहना पड़ा कि खैर जो भी कुछ हो हम छली हैं देवी के दर्शन करने के अयोग्य हैं बल्कि सब दोषों के भण्डार हैं और पापियों के भी पापी हैं परं यह बतलाइये किसी भी प्रकार ऊपर जाने दोगे कि नहीं। भैरव ने प्रतिज्ञात्मक कहा कि नहीं तुम ऊपर नहीं जा सकोगे कारण कि हमने तुम्हारे आप्तत्व को जैसा है वैसा समझ लिया है। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी ने आन्तरिक भाव से स्मरण किया कि अहो ठीक कहा है सत्यता से कार्य में विलम्ब ही होता है। परं करें क्या दूसरा उपाय दृष्टिगोचर नहीं है। अतएव आपने उसको सचेत किया कि अये भैरव तू अकेला है। यदि मैं ऊपर जाना चाहूँगा तो तेरे लिये मेरा रोका जाना असम्भव हो जायेगा। परं इस घटना से पूर्व मैं यही प्रार्थना कर लेना उचित समझता हूँ कि तुम मेरे मार्ग में कण्टकस्वरूप न बनों और मुझे निर्विघ्न जाने देकर श्रीमहादेवी के दर्शनों का लाभ उठाने दो। भैरव ने कहा कि तुम्हारा मुझे कण्टक बतलाना अपनी घृष्टता का दिखलाना है। कोई चोर चोरी करने के लिये घर में घुसे तो उसका विरोध करने वाला रक्षक कण्टक कैसे कहा जा सकता है। जब वह सेवकता और रक्षकता से नियुक्त किया जा चुका है तो क्या उसका यह कत्र्तव्य नहीं है कि जिस पर उसका विश्वास न हो उसको स्वामी के घर में जहाँ तक हो सके प्रविष्ट न होने दें, ठीक यही मेरा भी है। इतना होने पर भी मैं तो अब तक यही सोच रहा था कि तुम जहाँ तक आगे बढ़ आये हो इस पर कुछ न कहूँ और क्षमाप्रदान कर शान्ति के साथ वापिस लौटा दूँ परं उलटा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत के अनुसार तुम तो अकेला समझकर मेरे ऊपर ही कृपा कर रहे हो। अतः तुम अवश्य दण्ड के भागी हो। अब मैं तुम्हें तुम्हारे असली आपे में लाकर छोडूँगा। तुम होशियार हो जाओ। यह सुनते-सुनते मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि अये भैरव, तुम सत्य समझो हम जितना कुछ कर सकते हैं उतना ही निकपटता से कह डालते हैं। हमारे शुद्ध हृदय से निकलने वाले शद्धों का तुम जो भी कुछ अर्थ लगाओ, लगा सकते हो। रह गई हमको दण्डित करने की बात, हम फिर सत्य कह डालते हैं तुम्हारे अकेले के द्वारा तो यह कार्य दूर रहा तुम आठों भैरव मिलकर आओ तो भी हम दण्डित नहीं हो सकते हैं। बस क्या था इससे भैरव के शरीर में प्रज्वलित हुई अग्नि को और भी घृत मिल गया। जिसकी उष्णता से विवश हो भैरव युद्ध करने के लिये शीघ्र तैयार हो गया। यह देख मत्स्येन्द्रनाथजी ने अपनी झोली पर हस्त डाला और उससे एक चुटकी विभूति निकालकर उसे रूद्रशक्ति मन्त्र के जापपूर्वक अपने मस्तक पर धारण कर लिया। जिसके अमोघ प्रभाव से आप महातेजस्वी हुए युद्ध के लिये खड़े हो गये। ठीक इसी समय भैरव ने प्रथम आप के ऊपर अपने साधारण अस्त्रों का प्रहार किया। जो मन्त्र शक्ति से निषिद्ध हुए मत्स्येन्द्रनाथ जी तक पहुँच भी न सके। उनका व्यर्थ परिश्रम देखकर उसने और भी कतिपय अस्त्र छोडे। परं मत्स्येन्द्रनाथजी अपने स्थान पर तादवस्थ ही डटे खडे रहे। किसी भी अस्त्र-शस्त्र के समीप न आने से आपका बाल तक बांका न हुआ। तत्काल ही किसी के द्वारा सूचना मिलने पर प्रधान द्वार पर विद्यमान रहने वाले अवशेष सात भैरव भी घटनास्थल में आ पहुँचे और बड़ी तड़क-भड़क के साथ मार लो-मार लो, पकड़ लो-पकड़ लो आदि अनेक प्रकार के भयंकर शद्धों की घोषणा करते हुए अत्यन्त समीप आकर अपने-अपने वातास्त्र-कामास्त्र-ब्रह्मास्त्र-रुद्रास्त्र- दानवास्त्र-कृतान्तास्त्र-इन सातों अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। उधर मत्स्येन्द्रनाथजी भी अचेत नहीं खड़े थे। अतएव आपने प्रत्येक अस्त्र का प्रतिद्वन्द्वी मन्त्र पढ़कर कुछ विभूति उधर प्रक्षिप्त की। जिसके अमोघ प्रभाव से सातों अस्त्र निष्कार्य हो गये। जिनका फिर प्रहार करना व्यर्थ समझा गया। तदनु मत्स्येन्द्रनाथजी ने एक चुटकी भस्मी और फेंकी। जिस वशात् अष्ट भैरवों के शरीर की समस्त शक्ति क्षीण जैसी हो गई। ऐसा होने पर वे मूच्र्छित हो महादुःखी हुए और त्राहि-त्राहि हा कष्ट शद्धों की कारूणेय घोषणा करने लगे। इसी अवसर पर इस घटना के द्रष्टा किसी अनुचर ने महादेवी हिंगलाजजी के सम्मुख उपस्थित हो यह समग्र वृत्तान्त कह सुनाया और कहा कि एक ऐसा मनुष्य आया है जैसा हमने कभी आज पर्यन्त न देखा न सुना है। जिसके द्वारा महाबली अष्ट भैरवों को भी मूच्र्छावत् अपरिमित कष्ट का अनुभव करना पड़ा है। अतः आपने उनकी जहाँ तक हो सके शीघ्रता के साथ सहायता करनी चाहिये। विलम्ब होने पर न जानें वे किस दशा में परिणत हो जायेंगे। यह सुन महादेवी ने, ऐसा कर दिखलाना मनुष्य का कार्य नहीं है, यह कहकर अपने मुख पर उदासीनता धारण की और वह अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्पात्मक समुद्र में गोते खाने लगी। परन्तु अन्त में कुछ सावधान हो उसने चामुण्डा देवी को बुलाया तथा समझाया कि अपने पर्वत पर कोई मनुष्य आया है जो जान पड़ता है कोई तान्त्रिक होगा। जिसने अष्ट भैरवों को भी सुना जाता है मूच्र्छित कर डाला है। अतः तुम जाकर उनकी सहायता करो और देखो ऐसा कैसा मनुष्य है। हिंगलाज देवी की आज्ञा प्राप्त कर अनेक गण अनेक देवी और योगिनियों के सहित चामुण्डा बड़े धूमधाम से तैयार हो युद्धस्थल में आई। और मूच्र्छित अष्ट भैरवों को देखने के अनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी को देखते ही अत्यन्त क्रुद्ध हो उठी। तथा अधैर्य के साथ सहसा कह उठी कि अये छùवेषी तुमने किस कारण से भैरवों को इतना कष्ट दिया है। क्या तुमने हमारे पराक्रम की ओर कुछ भी दृष्टि नहीं डाली। हम उसी महादेवी हिंगलाज की अनुयायिनी हैं जो तीनों लोक चैदह भुभन की रक्षा करने वाली है। इतना होने पर भी तुमने अष्ट भैरवों को जकड़ी भूत बनाकर न केवल हमारा तिरस्कार किया है। बल्कि जगद्रक्षिका भगवती हिंगलाज देवी का तिरस्कार किया है। अच्छा जो भी कुछ हो तुम्हारी इस लापरवाही का तुम्हें अभी नतीजा मिल जायेगा तुम कुछ क्षण ठहरो। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथजी को सचेत करती हुई चामुण्डा ने अपने चारों हस्तों में शस्त्र धारण किये। यह देख मत्स्येन्द्रनाथजी ने विनम्र भाव से सूचना दी कि भगवती, हिंगलाज का तो मैं दास हूँ इसीलिये सुदूर देश से चलकर बड़ी श्रद्धा के साथ उनके दर्शन करने के लिये यहाँ आया हूँ। परं इसका यह अर्थक भी नहीं हो सकता कि जहाँ मैं हिंगलाज जी का दास हूँ वहाँ अष्ट भैरवों का वा आपका तथा किसी अन्य का द्वेषी हूँ। जिससे भैरवों क साथ वा आपके साथ मुझे कुछ विवाद करना पड़े। किन्तु मैं तो किसी से द्वेष करना वा उसे कष्ट देना अपने मन से भी नहीं चाहता हूँ। इतना होने पर भी मेरे द्वारा जो भैरवों को कष्ट पहुँच रहा है इस विषय में आप सहज से ही अनुमान कर सकती हैं कि इन भैरवों का ही कोई असाधारण अपराध है न कि हमारा। तथापि क्या करें जब इन्होंने हमारा निरोध ही नहीं किया बल्कि हमको पापी आदि अनुचित शब्दों से भी अलंकृत कार्य करना ही पड़ा। इस कथन से देवी का प्रबद्र्धित क्रोध कुछ शान्त हुआ सही परं तो भी वह अपने सज्जीकृत शस्त्र को प्रयोगित किये बिना न रही। ठीक उस अवसर पर जबकि चामुण्डा ने शस्त्र को प्रहृत किया तब मत्स्येन्द्रनाथजी ने भी बड़ी चतुराई के साथ स्थान का परिवर्तन कर उसके वार को व्यर्थ किया। इसी प्रकार अन्य सहायकों का भी, जो कि चामुण्डा के साथ ही सहसा टूट पड़े थे, प्रहार निष्फल किया। यह देख कुछ हतोत्साह हुई समस्त देवी और योगिनी मारलो-मारलो, पकड़लो-पकड़लो के अनेक थोथे शब्द करने लगी। तथा अन्य अनेक असाधारण अस्त्रों का प्रयोग करने लगी। इतना होने पर भी उनके प्रत्येक अस्त्र का उत्तर देते हुए मत्स्येन्द्रनाथजी अपने प्राकृतिक शान्त स्वभाव से एक स्थान में डटे खडे रहे। चामुण्डा ने अपने पक्ष के समस्त अस्त्रों को किम्प्रयोजन जानकर फिर शस्त्र से धावा किया। परं मत्स्येन्द्रनाथजी इस बार भी स्फूर्ति  के साथ स्थान बदल कर अन्यत्र जा खड़े हुए और उनके शास्त्रिक प्रहार से सर्वथा निःसंग ही रहे। अब तो अब तो देवियों का उत्साह बिल्कुल शिथिल हो गया। वे व्यर्थ परिश्रम हुई एक दूसरी की ओर देखने लगी। तथा आत्यन्तिक आश्चर्य सूचक शब्दों उद्घाटन करने लगी। इतना होने पर भी उनके आश्चर्य की अभी समाप्ति नहीं होने पाई। कारण कि मत्स्येन्द्रनाथजी औन्मादिक मन्त्र के जापपूर्वक कुछ विभूति उनकी ओर फेंक दी। जिसके अनिवार्य प्रभाव से समस्त देवी और योगिनी उन्मत्त हो गई। जिन्होंने अपने-अपने शस्त्र पृथिवी पर रख कर वस्त्र भी दूर फेंक दिये। जो वायु द्वारा शीघ्र उड़ा दिये गये और वे स्वयं नग्न हो मत्स्येन्द्रनाथजी के कुछ ही दूरी पर असाधारण नृत्य करने लगी। इसी प्रकार करते-करते बहुत देर हो गई। वे नाच-कूद कर अत्यन्त श्रमित हो गई। तब तो मत्स्येन्द्रनाथजी ने कुछ विभूति फिर उधर फेंक दी। जिससे उनकी उन्मत्ता दूर हुई और वे एक दूसरी की ओर देखकर हंसने लगी। तथा कहने लगी कि अहो यह क्या माया हुई कहाँ तो हम बड़े जोर सोर के साथ युद्ध करने के लिये यहाँ आई थी कहाँ हमारी दशा हो गई कि वस्त्र शून्य हो नृत्य करने लगी। अस्तु! उक्त प्रकार परामर्श कर अत्यन्त लज्जित हुई देवियाँ शीघ्र दौड़कर हिंगलाज के समीप गई। उसने जब कि दूर ही से शिरोमणि चामुण्डा आदि देवियों को वस्त्र विरहित देखा तब तो महशोक प्रकट किया। तथा अत्यन्त समीप आने पर उसने उनसे पूछा कि अये तुम्हारी यह क्या दशा और कैसे हुई। उन्होंने समग्र वृत्तान्त जो कि उनके साथ बीत चुका था कह सुनाया। ओर कहा कि आज पर्यन्त ऐसा पुरुष कभी न देखा और सुना था। जो युद्ध विद्याओं में इतना प्रवीण हो। जिसने अष्ट भैरवों की ही नहीं हमारी यह हास्यास्पद तथा लज्जाप्रद दशा कर डाली है। हिंगलाज देवी ने फिर पूछा कि वह किस प्रकार का पुरुष है तथा उसका चिन्ह क्या है। उन्होंने बतलाया कि सिर पर जटा गले में शेली कक्ष में छोटी सी झोली आदि चिन्हों से चिन्हित वह भस्मांगी पुरुष है। जिसका स्वभाव निर्मल और चेहरा असह्य तेजस्वी दीख पड़ता है। यह सुनते ही महादेवी हिंगलाज ने प्रसन्न मुख से कहा कि वह तो मेरा पुत्र है। भैरवों ने अन्याय किया जो उसको ऊपर आने से रोक रखा। चलो हम चलकर अपने पुत्र को समझा देती हैं। इस कथन की सत्यता देखने के लिये समस्त देवी तैयार हो हिंगलाज माता के साथ फिर घटनास्थल को लौटी। ये ज्यों ही उस स्थान के समीप पहुँची त्यों ही मत्स्येन्द्रनाथजी की दृष्टि इधर पड़ी। तत्काल ही षोड़शकला युक्त जगज्जननी भगवती महादेवी हिंगलाज को सम्मुख आते देख मत्स्येन्द्रनाथजी ने अपना आसन छोड़ दिया और कतिपय कदम आगे चलकर माता का स्वागत करने के अनन्तर आपने उसके चरणों का आश्रय ग्रहण किया। तथा विविध प्रकार से स्तुति भी करी। आपके इस सद्व्यवहार से सत्कृत हो अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक हिंगलाज जी ने आपको अपने गोद में बैठा लिया। एवं अनेक प्रैतिक चेष्टाओं का उंगारकर उसने आपकी हार्दिक वार्ता पूछी। आपने हिंगलाज के गोद में बैठाने के समय जैसे ही मन मोहनी बालरूप धारण किया था ठीक उसी के अनुकूल अत्यन्त मधुर वाणी से उत्तर प्रदान किया। जिससे प्रसन्न भी महादेवी और प्रसन्न हुई और मत्स्येन्द्रनाथजी से कहने लगी कि अये पुत्र इन भैरवों ने तुम्हारे साथ जो भी कुछ सभ्या-सभ्य बर्ताव किया हो उस पर क्ष्मा प्रदान करो। तथा इन भैरवों को अब तादवस्थ्य सचेत कर दो। क्योंकि क्यों कि ये अब अपने प्रामत्तिम कृत्य का पर्याप्त फल पा चुके हैं। माताजी की यह उचित वाणी सुनकर आप परम हर्षित हुए। तथा उसके कथनानुसार आपने अपनी झोली से कुछ भस्मी उद्धृत कर भैरवों की तरफ प्रक्षिप्त की। जिससे तत्काल ही सावधान हो समस्त भैरव अत्यन्त स्नेह के साथ आपकी तथा आपके प्रबल साहस की प्रशंसा करने लगे। उनके इस निष्कपट प्रवचन पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने कृतज्ञता प्रकट की और अपने विषय में भी आपने उनसे क्षमा करने की प्रार्थना की। प्रार्थना समाप्त होते ही भगवती हिंगलाज ने मत्स्येन्द्रनाथजी से कहा कि पुत्र में तुम्हारे ऊपर महान प्रसन्नता प्रकट करती हूँ और तुम्हें सूचित करती हँू कि मेरे से तुम किस अभिष्ठ वर की याचना करो। मत्स्येन्द्रनाथजी ने हस्त सम्पुटी कर अभ्यर्थना करी कि मातः जब आपने मुझे अपना पुत्र स्वीकार किया है तब यह कहना असंगत नहीं कि आपकी मेरे ऊपर असाधारण कृपा है। फिर इसके अतिरिक्त अन्य आपके समीप कौन वस्तु है जो इसके महत्त्व को न्यून करने वाली हो। बल्कि सच पूछे तो मुझे आवश्यकता ही इस बात की थी कि मैं आपकी कृपा का पात्र बन जाऊँ। आज वह दिन भी ईश्वरीय इच्छा से उपस्थित हो चुका जिसमें मेरा अभिष्ट पूर्ण हुआ। यह सुन देवी ने कहा कि यह ठीक है तथापि मैंने तुमको पुत्रत्वेन स्वीकार किया है और इसीलिये मेरी तुम्हारे ऊपर पूर्ण कृपा है इसी बात का सूचक एक मन्त्रात्मक अस्त्र में तुम्हें प्रदान करना चाहती हूँ। जिसके प्रहृत करने पर परिपन्थी अवश्य तुम्हारे वश गत हो जायेेगा। मत्स्येन्द्रनाथजी ने अत्यन्त श्रद्धा के साथ उसे ग्रहणकर देवी के चरणों में सिर झुकाया और उससे प्रस्थान करने की आज्ञा मांगी। श्री हिंगलाज जी ने कहा कि पुत्र आया हु आ स्थान भी तो देखता जाय। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी माताजी के साथ मन्दिर में गये तथा कुछ दिन सानन्दनिवास करने के अनन्तर वहाँ से प्रस्थानित हुए।
इति श्रीमत्स्येन्द्रनाथ चामुण्डा युद्धवर्णन ।

1 comment:

  1. original dakshinavarti shankh is the sacred Hindu object that opens towards the right side. This shankh is considered the brother of Devi Laxmi. There is a strong belief if one place dakshinavarti shankh at home Goddess Lakshmi permanently resides there.

    ReplyDelete