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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Friday, May 31, 2013

श्रीचर्पटनाथ रेवननाथ कैलास गमन वर्णन

ब्रह्म गिरिनामक पर्वतपर निवसित चर्पटनाथ तथा रेवननाथजी ने कुछ दिन मे व्यतीत होने पर अपने-अपने शिष्यों को पूर्णतया योगवित् बना दिया और उनको सम्मुख बैठाकर समझाया कि जिस कार्य के लिये हम लोग अपने उत्तरदायित्व से अनृण हो चुके हैं। अतएव हम इस कार्य लब्धावकाश होने के वास्ते कैलास्थ श्रीमहादेवजी की सेवा में उपस्थित होंगे। जिससे सम्भव है कि फिर हमारा तुम्हारा समागम बहुत काल तक नहीं होगा। इस वास्ते तुम लोगों को हम यह अन्तिम सूचना देते हैं। तुमको उचित है कि संसार में निशंक होकर विचरण करते हुए श्री शिव महाराज के इस योग मार्ग को विस्तृत करने में यथेष्ट शक्ति लगाओ और प्राप्तावर कालिक सामाधिक अभ्यास द्वारा अपने जीवनोद्देश की सफलता के लिये भी यत्न करते रहो। बस इन, स्वकीय कल्याणार्थ समाधिस्थानन्द का अनुभव करना, तथा परोपकारार्थ जनों को योग का मर्म समझना, रूप दो कार्यों से अतिरिक्त सांसारिक किसी झगड़े से सम्बन्ध न रखना। यदि हमारे बचपन पर ध्यान न देकर उक्त वात से सम्बन्धित होंगे तो समझ लो संसार सागर से पारंगत होने की कुंजी जो, हमने तुम्हारे हस्त में प्रदान कर दी है यह तुम्हारे हस्त से जाती रहेगी। जिसका फिर प्राप्त होना उतने ही कष्टों का अनुभव करने के अनन्तर हो सकता है जितने कि तुम स्वयं अनुभवित कर चुके हो। इतना होने पर ही अग्रिम जन्म में आधुनिक अवसर जैसा अनुकूल अवसर प्राप्त हो कि नहीं यह बड़ा भारी सन्देहात्मक विषय है। अतः हमारे वचन और हमको तुम सदा सन्निहित समझना कभी अपने आन्तरिक स्थान से दूर न कर बैठना। मनुष्य का विचार न करना ही, कि मेेरे ऊपर भी कोई वा नहीं, अनर्थ का उत्पादक है। संसार में ऐसे अधिक लोग देखने में आते हैं कि स्वामिसान्निध्य से पारतन्त्रिक हुए कुछ आचरण दिखलाते हैं और स्वातन्त्रिक होने पर कुछ का कुछ ही कर दिखलाया करते हैं। परन्तु यह सोचना चाहिये कि ऐसे कौन पुरुष है और उनकी गणना किन्हों में की जा सकती है। वे हैं अधम पुरुषार्थी लोग जो स्वार्थ वशीभूत हुए स्वार्थ सिद्धि के अवसर की प्रतिपालना में किसी कारणिक घात को लक्ष्य ठहराकर सेव्य की सेवा में उपस्थित होते हैं और उसकी अनुपस्थिति में उसका कुछ ध्यान न रखते हुए स्वार्थघात की ही अन्वेषणा किया करते हैं। ऐसे लोगों की गणना नींच लोगों में की जा सकती है। वे अपने आन्तर्घानिक प्रत्येक कार्य करते हुए यह सोचा करते हैं कि हमारे अमुक कृत्य को कौन देखता हैं। हम अत्यन्त ही चतुरता और रेखदेख के साथ यह कार्य किया करते हैं। परन्तु वे मूढ़ बुद्धि यह नहीं सोचते कि हमने जिसका विशेष डर मानना चाहिये। वही ईश्वर व्यापकत्वानुरोध से हमारे समस्त कृत्यों को देख रहा है। एक दिन ऐसा अवश्य आने वाला है जिसमें उसके सिंहासन के सम्मुख खड़े हो हमको अपने कृत्यों का हिसाब समझना होगा (अस्तु) परं हमको तो पूरा विश्वास है कि हमारे वचन को स्मृतिगत रखते हुए आप लोग ऐसे पुरुषों की उपाधि धारण न करके अपने आपको उक्त वृत्त का उदाहरण स्थल न बना देंगे। इत्यादि औपदेशिक वचन प्रदानानन्तर जब ये दोनों महानुभाव शान्त हो गये तब बड़ी कृतज्ञता के साथ इनके चरणों में मस्तक लगाकर शिष्य वर्ग ने प्रणामात्मक आदेश-आदेश किया। इसी अवसर में प्रत्यभिवाद वाक्यों को प्रयोगित करते हुए इन्होंने ज्यों ही अपने शिष्यों के मुखारविन्द की ओर दृष्टि डाली त्यों ही एकाएक उनके नेत्रों को असोढ़प्रवाह प्रेमाश्रुओं से परिपूर्ण देखा। कारण यह था कि समझदार होने तक अपने प्रिय पुत्र के साथ माता जो-जो हार्दिक व्यवहार करती है वह किसी से छिपी नहीं है। उसी से उपकृत होकर जो पुत्र माता के प्रति अपरिमेय भक्ति रखता है तथा उसके वियोग होने पर कट्टर से कट्टर हृदय मनुष्य भी पूर्वोपकार का स्मरण करते ही अश्रु तो अवश्य डाल देता है। अतएव हम उक्त दोनों महानुभावों को भी माता की तुलना से युक्त कर सकते हैं। इन्होंने प्रत्येक क्रिया प्रदान काल में शिष्यों को जो अपूर्व प्रेम दिखलाया था वह माता से किसी प्रकार भी कम नहीं था। बल्कि माता अनेक कष्टों को भोगने के लिये ही केवल पुत्र की जन्मदात्री है और वे महानुभाव उनके उन कष्टों का उच्छेद करने के लिये दीक्षा प्रदान करते हैं। जिस समय गुरु अपने शिष्य को बस्तिकर्म का आरम्भ करने में नियुक्त करता है तब उस स्थिति की क्या बालक जैसी दशा नहीं होती है और उस समय गुरु उसकी बड़ी चतुरता के साथ आसन पर स्थापित कर दूध मातादि तात्कालिक अनुकूल भोजन तैयार रखता हुआ क्या उसके समर्पण नहीं कर सकता है। किन्तु यह क्या उसके समर्पण नहीं करता है। किन्तु यह क्या यहाँ तक कि माता की तरह गुरु को शिष्यों का जो उक्तादि क्रियाओं में तत्पर होते हैं, मैला तक उठाना पड़ता है। ठीक इत्यादि कर्म को सम्पादित करते हुए इन महानुभावों ने अपने अपूर्व प्रेम का परिचय दिया था। अतएव अकस्मात् ऐसे सच्चे गुरुओं से वियोग होने पर शब्द श्रवण कर सहसा इनके शिष्यों का अश्रुपात हुआ। परन्तु इन्होंने धैर्यान्वित वाक्यों द्वारा उनको शीघ्र सन्तोषित कर दिया और देशाटन के लिये आज्ञापित कर विदा भी कर दिया। तदनु जब शिप्यलोग प्रस्थानित हो गये तब इन महानुभावों को भी अपना निश्चित मनोरथ अवश्य सफल करना था। इसीलिये आप लोग भी वहाँ से अभ्युत्थानित हुए और सौराष्ट्र देश के अन्तर्गत स्थान में, जहाँ गोरक्षनाथजी ने गुहा निर्मित कर कुछ काल ध्यानानन्द लिया था, आये। यहाँ मीननाथजी कुछ समय से निवसित हो अपने शिष्यों को योग शिक्षा प्रदान कर रहे थे उनसे शुभ समागम हुआ। सामागमिक नमस्कारानन्तर चर्पटनाथजी ने कहा कि बहुकालिक अवधि रखकर श्रीनाथजी आदि महानुभाव समाधिनिष्ठ हो गये हैं यह वृत्त आप लोगों से छिपा नहीं है। उधर गहनिनाथ नागनाथजी सम्भव है अपना कार्य समाप्त कर श्री महादेवजी की शरण में जा ही पहुँचे होंगे। इधर हम दोनों वहीं जाने का उद्देश्य ठहराकर आप लोगों को सचेत करने के लिये इधर आये हैं। अतएव हम लोगों की अनुपस्थिति में भी हम श्री महादेवजी के इस उद्देश्य प्रचार की आज जैसी वृद्धि देखने की आशा करते हैं और विश्वास रखते हैं कि इस कार्य को सीमापर्यन्त पहुँचाने के लिये आप लोग प्राणापण से यत्न करेंगे। यह सुन मीननाथजी ने कहा कि यह संसार परिवर्तनशील है। अतः ईश्वरेच्छानुकूल पारिवात्र्तनिक वायुवेग को प्रशान्त करने के लिये तो हम लोग अपने में इतना समथ्र्य नहीं रखते हैं परं आप लोगों के कथनानुसार योगोपदेश प्रचार वृद्धि के लिये जहाँ तक हम से कुछ बन पड़ेगा उठा न रखेंगे। इस वास्ते हमारी ओर से निशंक हुए विश्वसित हो आपलोग अपने जीवन चरित्र को पवित्र बनाये। मीननाथजी इस कथन से प्रसन्न हो ये दोनों महानुभाव वहाँ से चल पड़े और समुद्र तटस्थ रैवतक पर्वत पर, जहाँ धुरन्धरनाथजी विराजमान हुए शिष्यों को दीक्षित कर रहे थे, पहुँचे। प्रारम्भिक आदेश-आदेश के अनन्तर पारस्परिक कुशल वार्ता विषय का प्रश्न उपस्थित हुआ। जिसमें उभय पक्ष की ओर से संतोष प्रकट हुआ। इसके बाद चर्पटनाथजी ने धुरन्धरनाथजी को भी मीननाथजी तरह समझाया कि आप लोगों को अप्रमत्ता के साथ कार्य निर्वाहन करना होगा और यह दिखलाना होगा कि हमने अपने आत्मीय व्यवहार में एवं योग प्रचार विषय के कार्य में अपनी उपस्थिति में कोई शिथिलता न आने दी है। प्रत्युत्तरार्थ धुरन्धरनाथजी ने कहा कि इस विषय में आप लोग निःसन्देह रहे। जिन पवित्र आत्मा आदीशजी की महती कृपा से हमको अपना जीवनोद्देश सफल करने का अवसर प्राप्त हुआ है भला उनके कार्य विस्तार में हम शिथिल कैसे हो सकते हैं। प्रत्युत आप लोगों की अनुपस्थिति में तो हमको और भी उत्साहित एवं सचेत रहना पड़ेगा। यह सुनकर दोनों आनन्दित हुए और कतिपय सार्थक प्रिय वाक्यों द्वारा धुरन्धरनाथजी के शिष्यों को जो, विविध क्रियाओं में यत्नशील थे, प्रोत्साहित एवं प्रफुल्लित चित्त कर वहाँ से विदा हुए। जो कतिपय दिन में मार्गागत अनेक प्रदेशतय करते हुए निमिषारण्य में पहुँचे। यहाँ इन महानुभावों के भ्राता, जिन का नाम हरिनारायण और द्रुभिलनारायण था, कुछ समय से निवासकर आत्मानन्द का अनुभव करते हुए कालयापनद्वारा उस समय की प्रतिपालना में तत्पर थे जिनमें श्रीमहादेवजी की आज्ञानुसार उन्हें भी योग प्रचार के लिये अपने स्वरूप का परिवर्तन करना होगा। अतएव चारों भ्राताओं के आज बहुत काल के अनन्तर एकत्रित होने से जब एककी दृष्टि दूसरे के ऊपर पड़ी तब एक-दूसरे की ओर झपटकर औरस मिलाप करने लगा। यह दशा बड़ी ही विचित्र और निर्वचनीय थी। योगी के समाधिस्थ आनन्द का स्वरूप वर्णन करने के लिये यदि कोई पुरुष अपने आप में सामथ्र्य रखता हो तो हमारे श्रद्धास्पद इस भ्रातृ चतुष्टय के आधुनिक आनन्द का वर्णन कर सकता है अन्यथा नहीं। इसके अतिरिक्त आप लोगों का आनन्द कोई सांसारिक अज्ञानी लोगों जैसा मोहजनित नहीं था। किन्तु इस बात से जनित था कि आगन्तुक नाथजियों ने सोचा हमारे भ्राताओं ने भी अनेक कठिन तपश्चर्यावस्थाओं को पार करते हुए अपने आप में वह शक्ति प्राप्त की जिस वशात् आज इस दीर्घकाल के व्यतीत होने तक भी अपने आपको अक्षुण्ण बनायें रखकर श्रीमहादेवजी को यह दिखला दिया कि हम आपकी कृपा के पूर्ण अधिकारी हैं। उधर नारायणों ने विचार किया कि हम लोग धन्य हैं जिनके भ्राता ऐसे हैं उन्होंने अनेक तपश्चर्यावस्थाओं को तय करते हुए वह शक्ति उपलब्ध की जिस वशात् श्री महादेवजी की आज्ञा के पालन करने में सफल हो सके। (अस्तु) कुछ दिन अपने भ्राताओं के साथ सानन्द सहवास कर उक्त दोनों महानुभाव श्री महादेवजी की सेवा में उपस्थित हुए। वहाँ विनम्र प्रणामात्मक आदेश-आदेश के अनन्तर श्रीमहादेवजी ने उनकी कुशल वार्ता पूछी और स्वकीय आगमन प्रयोजन को स्फुट करने के लिये उनको उत्साहित किया। यह सुनकर हस्तसम्पुटी करते हुए दोनों महानुभावों ने उत्तर दिया कि भगवन्! जो प्रयोजन है वह ऐसा नहीं कि आपसे अज्ञात हो। हाँ यदि उसके विषय में आपकी कुछ और आज्ञा हो तो सूचित करने की कृपा करें। इसके बाद कुछ मुस्कराते हुए श्रीमहादेवजी ने कहा कि नहीं और कुछ आज्ञा नहीं, खैर तुम लोग अपने अभीष्ट कार्य में तत्पर हो जाओ। श्रीमहादेवजी की यह आज्ञा सुन चर्पटनाथजी तथा रेवनानाथजी अतीवानन्दित हुए समीपस्थ गहनिनाथजी तथा नागनाथजी से मिले और कुछ दिन के अनन्तर समाधिस्थानन्द में व्यलीन हो गये।
इति श्रीचर्पटनाथ रेवननाथ कैलास गमन वर्णन ।

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