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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Thursday, May 30, 2013

श्री कारिणपानाथ समाधि वर्णन

इधर श्रीज्वालेन्द्रनाथजी के गमन कर जाने पर बदरिकाश्रमस्थ कारिणपानाथजी ने भी वहाँ से प्रस्थान करने का विचार स्थिर किया। इसीलिये वे अपने शिष्यों को दीक्षित करने में विशेषदत्त चित हुए और कुछ ही दिन में गुरुजी की तरह उन्होंने भी शिष्यों को शीघ्र क्रिया कुशलतोपहित बना दिया। तदनन्तर शिष्यों को परीक्षित कर उनकी क्रिया त्रुटि विषयक अभाव का उन्हें पूर्ण निश्चय हो गया तब तो उन्होंने वहाँ से निर्विकल्प हो प्रस्थान किया और कुछ दिन में भ्रमण करते हुए आपज हरिद्वार क्षेत्र सप्तस्त्रोत पर आ पहुँचे। यहाँ कुछ समय निवासकर कारिणपानाथजी ने अपनी उत्पत्ति विषयक वृत्तान्त से अपने शिष्यों को प्रवोधित किया। यह सुन उनके शिष्य आपका पुतला हस्ती के कर्ण में कैसे अंकुरित हुआ। किस प्रकार इसकी पालना हुई। तथा आप उससे बहिर कैसे निकले और निकलने के अनन्तर भी उस समय स्वयं रक्षित नहीं हो सकते थे। अतः किस प्रकार आपकी रक्षापूर्वक घोषणा हुई इत्यादि सन्दिग्ध और आश्चर्योत्पादक वार्ता के स्पष्ट कह सुनाने के लिये विशेष आग्रह करने लगे। इसी वास्ते कारिणपानाथजी ने शिष्यों की विनम्र विशेष प्रार्थना से विवश हो अन्ततः वृत्तान्त को विशेष स्फुट करना उचित समझकर उनको उस समाचार से अवगतित करने के अभिप्राय से कहना आरम्भ किया कि अये शिष्यों ! तुम अपने आन्तरिक स्थान में यह दृढ़ निश्चय धारण कर लो ईश्वरीय नियम ऐसा ही नहीं है कि मानुषजातीय स्त्री के गर्भद्वारा ही मनुष्य की उत्पत्ति सम्भव है। एवं तत्तत् जाति के जीव के उसी-उसी जातीय स्त्री के सकाश से शरीरोत्पत्ति हुआ करती है किन्तु इस क्रम के व्यतीरेक से भी प्रकृत बात सम्भव है। इसी बात की पुष्टि के लिये तथा जो मनुष्य ऐसा स्वीकार नहीं करतेे हैं उनके मुख पर चपेट लगाकर उनको उनकी प्रमत्ता से विमुक्त करने के लिये ही अतीत काल में समुद्र तटस्थ दाक्षिणात्य कदरी स्थान में गोरक्षनाथजी ने अगणित जनसमूह के सम्मुख स्वीय योग प्रभाव द्वारा अनेक स्त्री-पुरुषों सहित कतिपय छोटे-छोटे गृह तैयार किये थे। जिनमें वे मनुष्य सुखपूर्वक निवास करते हुए दीखपड़ते थे। यही कारण मेरे विषय में समझना चाहिये। इसी योगरूप अमोद्योपाय द्वारा मेरा शारीरिक पुतला भी स्त्रीगर्भस्थान के विरहित स्थल में सम्पन्न हुआ। जिसके रक्षण एवं पोषणात्मक भार को जिन्होंने आन्तर्धानिक रीति से अपने ऊपर धारण कर रखा था वे इसी योगात्मक वस्तु विज्ञान से जायमान अपरिमित शक्ति के भण्डार श्रीमहादेवजी हैं। उन्हीं की यह अगम्य और विचित्र गति थी कि अत्यन्त आपत्तिजनक स्थान में भी मेरा शरीर सर्वथा निर्विघ्न ही रहा और योग्य दशा में प्राप्त होने पर गुरुजी की इधर कृपा दृष्टि हुई जिन्होंने मुझे बहिर निकाल कर सर्व प्रकार से सम्पालित किया। जिससे आज उस दीर्घकाल के अति क्रमित होने पर मैं तुम्हारे सम्मुख इसी स्थलीय अतीत घटना के स्मृतिगत कराने का सौभाग्य प्राप्त कर सका हूँ। यह सुन उनके शिष्यों ने ईश्वर की अलक्ष्य गति के विषय में अनेक प्राकरणिक वार्ताओं का उद्घाटन करते हुए गुरुजी के स्फुट कथनार्थ कृतज्ञता प्रकट कर कहा कि स्वामिन्! सत्य है जो कृत्य उसे चिकीर्षित है उसके सम्पन्न करने में उसको कोई कठिनता नहीं। यही कारण है लोक प्रसिद्ध असम्भव वृत्त सम्भावित हो इस विषय में सन्दिग्ध हृदयों को निःसन्देह बनाता हुआ स्वनिमित्त विवाद का विच्छेद कर रहा है। जिस पर भी विशेष हर्ष का विषय यह है कि इस वृत्त का उदाहरण आप हुए। जिनके अविच्छिद्य अमोद्य प्रयत्न द्वारा हम जैसे क्षुद्र प्राणियों को अपने ऐह लोकागमन के वास्तविक प्रयोजन को सफलीभूत बनाने का अवसर मिला। इत्यादि पारस्परिक गौष्ठिक वार्तालाप के पश्चात् कारिणपानाथजी ने प्रातिवाचनिक वाक्य प्रयोग से अपने शिष्यों के रूचिकर वागव्यवहार को समर्थित कर वहाँ से प्रस्थान किया और आप समीपस्थ एक ऊँचे पर्वत पर, जिस पर कि सूर्यकुण्ड विद्यमान है, चढे+। यहाँ एक दिन के निवास करने पर कारिणपानाथजी के सहसा एक विचार उत्पन्न हुआ कि इस पर्वत के ऊपर चढ़ने में जितना विलम्ब और बल खर्च हुआ है उतना ही उतरने में भी होगा। इसलिये यहाँ से विचित्र रीतिद्वारा चलना चाहिये अतएव उन्होंने शिष्यों को नीचे उतर निर्दिष्ट स्थान पर खड़े हो जाने का परामर्श देकर वे जब तक वहाँ पहुँचे अपनी स्थिति उसी जगह पर रखी। तदनु ठीक यह निश्चय हो गया कि वे वहाँ जा पहुँचे हैं तब तो स्वयं भी शरीराकाशसंयमज प्रभाव द्वारा आकाश मार्ग से क्षणों में उनके समीप आ गये। (यह चमत्कार कारिणपानाथजी ने बिना किसी प्रयोजन के नहीं दिखाया था। तथा उपस्थित द्र....जनसंघ को इससे विशेष विस्मित नहीं होना पड़ा। कारण कि आकस्मिक अदृष्ट चमत्कार ही विस्मयत्व का उत्पादक होता है। परं आज वह अवसर नहीं था। भारत के कोने-कोने में प्रत्याहित ऐसे चमत्कार प्रकटित होते रहते थे।) (अस्तु) वहाँ से कारिणपानाथजी ने अपने शिष्य को समीप रखना अंगीकार कर अन्य सबको कहा कि तुम लोग यह अच्छी तरह से जानते हो योग साधनीभूत ऐसी कोई क्रिया अवशिष्ट नहीं जिसका मैंने तुम्हारे यथार्थ तत्त्व न समझा दिया हो। प्रत्युत तुम्हारा आन्तरिक हृदय ही इस बात की सत्यता में साक्षीभूत हुआ विश्वसित होगा कि हाँ यदि हम अपने प्रयत्न में शिथिल न हुए तो जहाँ तब बढ़ना चाहें ऊँचे बढ़ने की कुंजी पा चुके हैं। साथ ही उस विद्यात्मक अमोघ शस्त्र को भी प्राप्त हो चुके हैं जिसके प्रबल प्रवाह से मन्दोत्साहान्वित हुआ कोई भी प्राणी हमारा तिरस्कार करने का उद्योग नहीं करेगा। अतएव मैं अब तुम लोगों को आज्ञापित करता हूँ कि पृथक् होकर भ्रमण करते रहो। अपने गुणों को, जो मैंने तुम्हारे को प्रदान किये हैं, जन हितार्थ विस्तृत कर अपने उत्तदायित्व से मुक्ति पाओ। साथ ही अनुकूल स्थानिक निवास द्वारा पारस्परिक रक्षा से रक्षित हो आयु वृद्धि के लिये समाधिज उपाय को अवलम्बित करते रहो। इस आज्ञा के श्रवण करते-करते उन्होंने अपने आन्तरिक भाव से, धन्यभाग्य आज हम भी इस पुण्योपलब्ध कृत्य में नियुक्त किये जा रहे हैं, यह धारणा स्मृतिगत कर हर्ष प्रकट किया। तथा तत्काल ही वे गुरुजी के चरणों में नमस्कारपूर्वक आज्ञा स्वीकृति सूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए वहाँ से प्रस्थानित हुए। इधर कारिणपानाथजी भी एक शिष्यानुयायी हुए श्रीगंगाजी के पाश्र्ववर्ती प्रदेशों में भ्रमण करने लगे जो कतिपय वर्षों में अपने अमृतायमान सार्थक प्रिय शब्दों द्वारा लोगों को योग का तत्त्व अवगतित करने में प्रोत्साहित करते हुए युधिष्ठिर सम्वत् 2114 में श्री प्रयागराज में पहुँचे। यहाँ बौद्ध और अबौद्ध लोगों का स्व-स्व धर्मोंत्कर्षता विषय में वाद-विवाद हो रहा था। जिसमें अबौद्ध अर्थात् वैदिक धर्मानुयायी सनातनी लोगों की ओर से एक बाल ब्रह्मचारी विवादनायक थे। जिसकी अपूर्व विद्वत्ता से विमोहित प्रजा ने उसको निमन्त्रित कर आहुत कर रखा था और उसके स्वागतोपक्ष्य में एक महान भोज्य भण्डार भी तैयार किया गया था। ठीक इसी योज्यादान कालिक अवसर में सशिष्य कारिणपानाथजी को भी प्रजानुरोध से जन संघ में सम्मिलित होना पड़ा। परन्तु इन्होंने भोजन करने के लिये भोजन स्थान में जाने से पहले लोगों से यह नियम दृढ़ कर लिया था कि हम भोजन करने को जाएंगे तो हमारे भी तुम लोगों को आना होगा। प्रस्ताव समस्त जनसम्मत हुआ था। अतएव अग्रिम दिन उपस्थित होने पर कारिणपानाथजी ने भण्डार की तैयारी में दत्तचित हो अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि जाओ नगर में जितनी खाद्य वस्तु तैयार हो उनमें से कुछ-कुछ अंश खरीद कर लिवा लाओ। गुरुजी की यह आज्ञा सुनते ही उनका शिष्य कुछ मनुष्यों को साथ ले नागरिक बाजार में गया और सब तरह के पक पदार्थों का थोड़ा-थोड़ा भाग लेकर गुरूजी की सेवा में उपस्थित हुआ। यह देख कारिणपानाथजी ने समस्त पदार्थों को एक अलक्ष्य जगह पर रखवा दिया। तदनु कुछ क्षणों में भोजन वेला हो जाने पर निमन्त्रित जन समूह को निर्दिष्ट जगह पर पंक्तिबद्ध हो जब तदादान के के लिये प्रतिपालना करने लगा तब कारिणपानाथजी ने पूर्व निश्चित भोजन वितरणकत्र्ता पुरुषों को आज्ञापित किया कि भोजनालय से जनाभीष्ट भोजन निःसारित कर वितरण करो। उनकी यह आज्ञा शीघ्र पालित की गई। अतएव कुछ क्षण में अभिलषित भोजन से जन समुदाय ने क्षुधा की सुशान्त बनाते हुए स्व स्व विश्राम को लक्ष्य कर वहाँ से प्रस्थान किया। तथा स्वकीय अभिलाषानुकूल भोजनोपलब्धि के विषय में विविध प्रकार से उन्होंने कारिणपानाथजी की प्रशंसा की। (अस्तु) भोजनानन्तर कुछ देर आराम करने पर सभा समय उपस्थित हुआ। अपने-अपने आराम स्थान से बहिर निकल लोगसभा स्थान में आने लगे। उधर इस कुतूहल में मिश्रित होने के लिये करिणपानाथजी को भी विवश किया गया था। अतएव शिष्य के सहित वे भी वहाँ आ विराजे। इस समय तक उभय पाक्षिक लोगों से सभास्थान परिपूर्ण हो चुका था। इसीलिये क्रमशः उभय पाक्षिक महानुभाव खड़े हो - खड़े हो स्वीय धर्मोंत्कर्षता विषयक प्रमाण पंक्ति को विस्तृत करने लगे। जिसके विस्तार हुए अन्तिम निर्णय स्वीकरण में एक प्रहर के अनुमान समय अतिक्रमित हुआ। आज के निश्चयानुसार उक्त ब्रह्मचारीजी को प्रजा ने हार्दिक धन्यवाद दिया क्यों कि आपकी अपरिमित विद्वत्ता की सूचक मुखारविन्द से बहिरभूत होने वाली संशोधितार्थ पटूक्तियों ने वुद्वानुयायियों को हतोत्साह कर प्रजाजन रंजन को प्रवृद्ध बना दिया था। यही नहीं उस बालब्रह्मचारी महानुभाव की अस्खलित गीर्वग्वाणी पटुता से जायमान विशेषाल्हाद से आल्हादित हो कारिणपानाथजी को भी उन्हें, आपका कथन सांगतिक है इसीलिये भगवान् आदिनाथ आपके मन्तव्य की वृद्धि में सहायक हो हम यही चाहते हैं, यह शब्दोच्चारण करना पड़ा। (अस्तु) इसके अनन्तर सभा विसर्जित हुई। सभ्यलोग अपने-अपने स्थानों पर गये। इधर कारिणपानाथजी भी सादर सभ्यजनो-पदारादि से सत्कृत हो देशान्तर को लक्ष्य ठहराकर वहाँ से चल ही दिये थे। जो इतस्ततः अनेक देशों को तय करते हुए कतिपय वर्ष के अनन्तर ब्रह्मगिरि पर्वत पर पहुँचे। यहाँ चर्पटनाथ और रेवननाथजी अपने-अपने शिष्यों को योग शिक्षा में प्रोत्साहित कर रहे थे। अतएव पारस्परिक दृष्टि सम्पातानन्तर हर्ष प्रकटता पूर्वक आदेश-आदेश मांगल्य शब्द की ध्वनि करते हुए एक ने दूसरे का आनन्द कुशल पूछा और एक-दूसरे से सत्कृत हो आसनासीन हुए स्वोद्देश प्रचार विषय में विविध वार्तान्तिक कथाओं का उद्घाटन करने लगे। जिनके प्रश्नोत्तर करते कराते दिन व्यतीत हो गया। उक्त महानुभावों ने भी दिन को आशिष दे आगन्तुक रात्री देवी का स्वागत किया और वे अपने नित्य सायंकालिक कृत्य से लब्धावकाश हो फिर आसनाधिष्ठित होकर औपस्कात्र्त वाक्य रचना में तत्पर हुए। वहाँ निवसित दोनों योग वीरों ने कारिणपानाथजी से पूछा कि आप कब तक और इस कार्य में भाग लेते रहेंगे। उन्होंने उत्तर दिया कि अभी मैं इस विषय में कुछ नहीं कह सकत हूँ। हाँ इतना तो मुझे अवश्य मालूम है कि इस कृत्य से अवकाशित होने में मुझे विलम्ब होगा। क्यों कि गुरुजी ने कुछ समय हुआ मेरे को सूचित किया था कि हमारी सम्मति प्रकट हुए बिना इस विषय में अभिलाषा न करना। यह सुन चर्पटनाथजी ने कहा कि हम दोनों तो इस आरम्भित कार्य को अर्थात् इन क्रिया नियोजित शिष्यों को दीक्षित करते ही श्री महादेवजी की शरण में जाकर अवकाश मांगने का विचार कर रहे हैं। कारिणपानाथजी ने तथास्तु कहते हुए सम्मति प्रकट की, कि अच्छा है ऐसा ही करो। जब भारत के कोने-कोने में योगी विचरते हुए इस कार्य को सीमान्त पर्यन्त पहुँचाने का यत्न कर रहे हैं तो क्या आवश्यकता है आप निष्प्रयोजन भ्रमण से अपना अमूल्य समय नष्ट करें। मैं जिन-जिन देशों में अब भ्रमण करता हुआ आ रहा हूँ उन देशस्थ कोई प्रान्त ऐसा नहीं देखा गया जिसमें योगी अपना कार्यक्रम संचालित न कर रहे हों। इसीलिये मैं तो यही सामाधिक दशा में तत्पर होने का विचार कर रहा हूँ। इत्यादि पारस्परिक मनोभाव सूचनात्मक वाग्व्यवहार के पश्चात् कुछ आराम करने पर रात्री व्यतीत हुई। दिन का आगमन हुआ। कारिणपानाथजी वही अपने शिष्य को, तू प्रतिदिन वा रात्री में जो अनुकूल अवसर जान पड़े, प्रहर चार प्रहर पर्यन्त सामाधिक अभ्यास से अभ्यसित हो अपने कल्याण के मार्ग को स्वच्छ करता हुआ हमारे शरीर को रक्षित रखना, यह आज्ञा देकर युधिष्ठिर सं. 2119 मंे चिरकाल के लिये समाधिस्थ हो गये।
इति श्री कारिणपानाथ समाधि वर्णन ।

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