Featured Post

जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Wednesday, May 29, 2013

श्री ज्वालेन्द्रनाथ हिंगलाज समागम वर्णन

उक्त कृत्य को समाप्त कर श्री महादेवजी के कैलास चले जाने पर ज्वालेन्द्रनाथजी के तथा कारिणपानाथजी के उन शिष्यों का, जो योगसाधनी भूत विविध क्रिया काठिन्य से कुछ शिथिल प्रयत्न तथा मन्दोत्साहान्वित हो गये थे, अत्यन्त ही उत्साह बढ़ गया और उन्होंने अपने-अपने आनन्दाच्छादित आभ्यन्तरिक शुद्धान्तःकरण में दृढ़ निश्चय लिया कि हम प्राणान्त पर्यन्त स्वकीय आरम्भित क्रियाओं की समाप्ति देखने का प्रयत्न करेंगे और अब की सदृश फिर कभी हतोत्साह न होंगे। अतः अन्तर्यामी क्षमा कीजिये। वस्तुतः पाठक ! इनकी यह दशा ज्वालेन्द्रनाथजी से भी छिपी नहीं थी उन्हों को इनकी इस शिथिलावस्था का कुछ परिज्ञान प्रथमतः ही हो चुका था। अतएव उन्होंने श्री महादेवजी के दर्शन द्वारा इनको उत्साहित करने का विचार स्थिर करना पड़ा। इसीलिये उन्होंने इनकी ओर से निश्चित हो अपने उन शिष्यों के ऊपर दृष्टिपात की जिनको महाकठिन तपश्चर्यावस्था से श्री महादेवजी के द्वारा मुक्त करा कर विशेष सत्कृत किया था और उन्हों के द्वारा इनके पूर्ण अधिकारित्व को सूचित करा कर अभीष्ट सिद्धि के सफल होने का भी विश्वास दिखलाया था। अतः जो कहा गया उसको करना अवश्य ही था। इसीलिये उन्होंने अपने शिष्यों को साबर विद्यादि अनेक विद्याओं के दानपूर्वक कामास्त्रादि विविध अस्त्रों की भी दीक्षा प्रदान की और अवसर प्राप्त होने पर परिपन्थी के अस्त्र को किम्प्रयोजन बनाने के लिये अमुक के ऊपर अमुक अस्त्र का प्रयोग करना होगा, इस प्रकार समग्र अस्त्रों के परिचालनात्मक उपयोग का परिज्ञान करा दिया। तदनु जब ज्वालेन्द्रनाथजी को यह निश्चय हो गया कि हमारे शिष्य, जो योगांगात्मक साधनों में पहले ही उत्तीर्ण हो चुके थे, इस कृत्य में कुशलतोपहित हो गये हैं तब तो उन्होंने उनको केवल अवशिष्ट असम्प्रज्ञात समाधिका भेद बतला कर उसके द्वारा अपने आपको अमर बनाते हुए संसार में अपनी विमल एवं अक्षुण्ण कीर्ति के स्थापित करने का मार्ग प्रदर्शित किया। जिसमें ये महानुभाव कुछ ही दिन में तदवस्थास्थ मर्म के अनुभवकत्र्ता बन गये और अपने हृदय में स्वयं यह अनुभव करने लगे कि निःसन्देह हम लोगों का पूर्वजन्मकृत कर्म शुभ चरित्रान्वित था जिसके प्रभाव से हम इस महापवित्र कृत्य में संलग्न हुए और सौभाग्यवश प्राप्त, अमोघप्रयत्न, समस्त विद्या भण्डार, दयालु व्यक्ति को हमें गुरु बनाने का अवसर मिला। जिस पूर्ण हितैषी एवं पुण्यात्मा के श्लांघनीय प्रयत्न से आज हमको इस जन्मनिष्ठ बाजी के जीतने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। (अस्तु) ज्वालेन्द्रनाथजी ने अपने शिष्यों को पूर्ण योगवित् बनाकर उनमें से कुछ शिष्यों को अपने समीप रखना स्वीकृत करते हुए अवशिष्टों को अज्ञापित किया कि अब तुम लोग पृथक् भ्रमण करो और अनुकूल स्थान में निवास करते हुए पारस्परिक देह रक्षा से रक्षित हो सामधिक उपाय द्वारा अपने आपको चिरस्थायी बनाने हुए गृहीत योग प्रचार द्वारा जनोद्धारात्मक उपकार संचयकर जनहितैषिता के पात्र बनों। यह सुन समस्त शिष्य उनके चरणों में गिरे और पुनः नमस्कार रूप आदेश-आदेश शब्दोच्चारण कर तथास्तु। इस प्रकार आज्ञा अंगीकृति की सूचना देते हुए वहाँ से प्रस्थानित हो गये। उधर इनके चले जाने पर कारिणपानाथजी से तथा उनके शिष्यों से पौनःपुनिक अभिवादन द्वारा अभिवन्दित हुए अपने उन पाँच शिष्यों के सहित ज्वालेन्द्रनाथजी भी देशाटन के लिये वहाँ से गमन कर गये। जो कभी योजन कभी न्यूनाधिक के क्रम से हिमालय पर्वत की शीतल अधित्यका के ऊपर विचरण करते हुए इस देशीय पुरुषों मेंं स्वीय उद्देश्य के प्रचार को अनुभवित करने लगे। जहाँ यह अनुभव किया कि अमुक स्थान में योग का महत्त्व जाने वाले लोगों की संख्या संतोषजनक नहीं है वहाँ कुछ दिन के लिये आप स्वयं निवास करते थे। तथा अनेक प्रकार के चमत्कारों द्वारा निस्सार संसार के अस्थायी स्वाप्निक प्रपंच की ओर से लोगों के हृदयस्थान में उपरामता स्थापित कर उनके मनीराम को अपने उद्देश्य के संग्रहणार्थ विवश करते थे और उनकी अभीष्ट सिद्धि की पूत्र्यर्थ किसी सुयोग्य योगी को नियतकर स्वयं पुनः अग्रिम मार्ग का अनुसरण करते थे। इसी प्रकार इतस्ततः भ्रमण करते एव योगोपयोग को स्फुट करते हुए वे कतिपय मास के अनन्तर चन्द्रभागा नाम की नदी के तट पर पहुँचे। यहाँ जलाश्रम अनुकूल समझकर उन्होंने विश्रामार्थ आसन स्थिर किया। इस स्थल में कुछ दूर तक इधर-उधर कोई ग्राम नहीं था। अतएव इस पार्वत्य जंगल में सिंह हस्ती आदि आरण्यजीवों का बड़ा ही साम्राज्य था। जो इन लोगों के आसनाधिष्ठित स्थल में भी अनेक जीव आते और समीप होकर चले जाते थे। परं ऐसा कोई साहस नहीं करता था जिससे सुखपूर्वक आसनासीन हुए इन महानुभवों के ध्यान मंे कुछ बाधा उपस्थित हो। यह देख ज्वालेन्द्रनाथजी के एक शिष्य को स्वाचरित अहिंसात्मक यम का स्मरण हो आया। अतएव वह आन्तरिक भावानुकूल प्रसन्न मुख से कुछ मुस्कराता हुआ सोचने लगा कि अहो, क्या ही विचित्र वृत्त है अहिंसाव्रत आचर्तां पुरुष के हृदय से प्राणिद्वेषात्मकभाव बहिरभूत हो जाना आसम्भाविक तथा विशेष आश्चर्योत्पादक बात नहीं। परं तदाचरित मनुष्य के समीपस्थ अन्य ग्राम्यारण्यादि तामस जीवों के आभ्यन्तरिक स्थान में भी पारस्परिक जिघांसाभाव नहीं दीख पड़ता है यह और भी अद्भूत वृत्तान्त है। देखिये किस प्रकार हस्ती व्याघ्रादि ....... पशु हमारे पृष्टाग्र देश से विहरण कर इस बात की पुष्टि कर रहे हैं। तथा किस प्रकार हस्ती गवय सिंहादि जीव मिश्रित हो कौटुम्बिक बुद्धि से विचरते हैं एवं किस प्रकार ये इतस्ततः भ्रमण करने वाले व्याघ्र, निशंकता पूर्वक आसीन इस मृग पंक्ति के ऊपर नहीं गिरते है। इति। इस प्रकार के मानसिक विचारास्पद हुए शिष्य की ओर ज्वालेन्द्रनाथजी ने ज्यों ही दृष्टिपात किया तब तो उन्होंने अपने शिष्य के मुख को प्रसन्न और मन्द मुस्कराते हुए देखा। ठीक इसी अवसर पर उन्होंने ............ कहा कि पुत्र ! क्या समाचार है स्पष्टीकर बतलाना। शिष्य ने कहा स्वामिन् ! अन्तर्यामित्व कारण से ऐसा सम्भव नहीं कि प्राकृतिक वृत्त आपसे अननुभवित हो। जिसके लिये मुझे अवश्य ही उसको स्फुट करने का यत्न करना पड़े। इसके अनन्तर शिष्य के वचन रचना चातुर्य से अन्तर्यामित्व कथन द्वारा स्वकीय प्रश्न प्रत्युत्तर के मार्ग को अवरूद्ध हुआ समझकर ज्वालेन्द्रनाथजी ने अपने आन्तरिक वृत्तिविषयक उपाय से तन्निष्ठ तथा भाव को अवगत किया। तथा कहा कि अये ! सुलक्षण ! तुझे चाहिये कि तू उस परम पिता दयालु ईश्वर का अनेक गुणानुबाद करे और उसकी महती दया से अनुगृहीत हुआ उसको अनेक धन्यवादात्मक शब्दों से पौनः पुनिक सत्कार दे। जिसकी अपरिमेय श्लांघनीय हितैषिता एंव कृपा से आज तुझे इस स्वप्नवत् वृत्तान्त के श्रवण करने का नहीं खुद अनुभव करने का सु अवसर उपलब्ध हुआ है। सम्भव है कि कुछ काल पहले तुमने इस कृत्य में अश्रद्धा प्रकाशित की हो और इस व्यवहार को मनघडन्त एवं बाल्यकथा प्रतिपादित किया हो। परं अब प्रत्यक्ष देख तुम्हारी वह अश्रधेय कपोलकल्पना कहाँ तक सच्च निकली। प्रत्युत वह अतथ्य और ............... कल्पना थी जिसके विषय में तुम्हें स्वयं आन्तरिक प्रायश्चित करना पड़ा होगा, तदनु शिष्य ने कहा कि भगवन्! यह सच्च है आपका शुभाश्रय प्राप्त करने से पहले मेरी यही दशा थी। मेरी क्या अहिंसाचरण विमुख प्रत्येक मनुष्य की ऐसी ही दशा हुआ करती है। वह सिंह के, यदि कहीं ऐकान्तिक जगह पर मिल जाय तो अवलोकन मात्र से इतना भयभीत होता है कि वहाँ से अपसरित होने के लिये उसके पैर भी अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। जिससे वह हतोत्साह हुआ परावत की सदृश निमीलित नेत्र होकर वहीं गिर जाता है। ठीक उस कालिकदशास्य मुझे भी ऐसी ही अवस्था में परिणत हुआ समझा जा सकता है। परन्तु अब कृपा है आपकी जो आपके कथनानुसार मैं अपनी उस दशा का स्वयं पश्चाताप कर रहा हँू और अपने आपको धिक्कृत करता हुआ अन्य पुरुषों को भी धिक्कार देता हूँ जो उस कालिक मेरी तरह इस प्रत्यक्ष दृष्ट अहिंसात्मक यम के महत्त्व में विश्वसित नहीं होते हैं। यह सुन ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि मनुष्य को चाहिये हर एक समय अपना यह विश्वास रखे कि आत्मा और आत्मसहवासी गुणों का आत्मा ही साक्षी हुआ करता है। अतएव द्वेषगुणानिःशस्ण शुद्धान्तःकरण प्राणी की ओर से तद्दृष्टिपात विषय के सम्मुखीभूत प्राणी को कभी भय प्राप्त नहीं होता है। इसीलिये वह स्वयं भी उसको क्लेशित करने की चेष्टा नहीं करता है और तो क्या प्रसिद्ध बात विड़ाल ही ले लीजिये उसके चित्त में सिंह के द्वेष का भाव नहीं है और न कभी वह सिंह की हिंसा ही करनी चाहता है। यही कारण है न तो सिंह उससे भीत होता है और न स्वयं उसकी हिंसा ही करता है। इसी से अहिंसा का तत्त्वविचारणा योगय है और यहाँ इतना ध्यान रखने की और भी आवश्यकता है कि जैसे मनुष्य अन्य नागरिक अपरिचित मनुष्य के प्रति अहिंसा का भाव रखता हुआ भी उसके साथ परिचित की सदृश प्रैतिक आलिंगनादि कृत्य नहीं कर सकता है इसी प्रकार अहिंसा से शुद्धान्तःकरण मनुष्य, अति समीप विहरणित होने वाले व्याघ्रादि से अतिरस्कृत हुआ भी अकस्मात् उनसे आलिंगनादि प्रीत्यात्मक व्यवहार नहीं कर सकता है। ऐसा कर बैठने पर बहुत सम्भव नहीं कि परस्पर में अविकृति भाव ही स्थित रहे। जब इस आकस्मिक कृत्य से प्रमत्त एवं ठगादि की आशंका से सजातीय मनुष्य भी एक बार तो अवश्य चैंक पड़ता है तब विजातीय सिंहादि आरण्य पशुओं के विषय में कौन क्या कहे। हाँ इतना अवश्य सम्भव है कि कुछ कालिक सहवास से, प्रिय भाषण और क्षुधा पिपासा निवृत्त्यर्थ सामग्री प्रदान द्वारा जैसे मनुष्य के साथ वह आलिंगादि व्यवहार देखा जाता है तैसे सिंहादि के साथ भी हो जाता है। (अस्तु) इस प्रकार के अनेक प्राकरणिक वार्तालाप के द्वारा उन्होंने सुखपूर्वक उस रात्री को व्यतीत किया और प्रातःकालिक नित्य कृत्य से अवकाशित हो वे प्रातिदैनिक गमन क्रिया में तत्पर हुए। जो स्वकीयोद्देश प्रचार का निरीक्षण करते हुए कुछ दिन में काश्मीर देश में पहुँचे। इस देश में एक सुदीर्घ जलाशय उनकी दृष्टिगोचर हुआ। जिसके समीपस्थ देश में कुछ ही पूरी पर गहनिनाथ तथा नागनाथजी अपने-अपने शिष्यों को दीक्षा प्रदान कर रहे थे। अतएव उनकी यह सूचना उद्घटित होने पर ज्वालेन्द्रनाथजी भी अपने अनुयायी शिष्यों के सहित वहीं जा उपस्थित हुए। यह देख निवसित गहनिनाथ और नागनाथजी तथा उनके शिष्यों ने बड़े उत्साह और हर्ष के साथ कुछ पादक्रम अग्रसर हो प्रदादागुरु एवं दादागुरू ज्वालेन्द्रनाथजी को आदेश-आदेश शब्दपूर्वक पौनःपुनिक प्रणाम से सत्कृत किया। और अतीव सम्मान सूचितकर उनको आसनासीन करते हुए उनके आकस्मिक पवित्र दर्शन प्रदानित करने के विषय में श्लावा प्रकट कर अपना सौभाग्य स्फुट किया। तदनु संशोधितार्थ रूचिकर पदूक्तिरचनात्मक प्रतिवाक्यों ज्वालेन्द्रनाथजी ने उनको प्रत्युप कृत कर पं्रशसित बनाते हुए कर्तव्यपालना में हर्ष प्रकट किया और अपने शिष्यों को उद दिन यहीं विश्वास करने की आज्ञा प्रदान की। जिससे उन्होंने गहनिनाथजी के निर्देशानुसार गुरुजी के आसन की प्रतिष्ठापूर्वक स्वीय आसनों की स्थिति निश्चित कर तत्काल गुरुजी की आज्ञा को चरितार्थ किया। तदनन्तर कुछ क्षण के ऊतर भोजनादि से निवृत्त होने पर ज्वालेन्द्रनाथजी के गहनिनाथ तथा नागनाथजी के द्वारा दीक्षित योगियों की क्रिया के निरीक्षण करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई और उन्होंने यह बात उक्त दोनों महानुभावों के सम्मुख प्रकट भी कर दी। यह सुन उनको बड़ा ही हर्ष हुआ और तत्काल ही स्वकीय द्रक्ष्यमाणक्रियोत्तीर्ण शिष्यों को समीप बुलाकर ज्वालेन्द्रनाथजी की अभिलाषा से उनको सूचित किया। वे शीघ्र तैयार हो गये और उन्होंने हस्त सम्पुटी कर दिदृक्षित क्रिया के प्रकट करने की प्रार्थना की। ज्वालेन्द्रनाथजी को प्रथम जलीय क्रियाओं की दिदृक्षा थी इसलिये वे समीपस्थ माहाहद के तीर पर गये और अभिलषित क्रियोद्घाटन की आज्ञा दी। जिनमें वे तत्काल व्यग्र हुए और अनुकूल रीति से परीक्षोत्तीर्ण हो ज्वालेन्द्रनाथजी के अमोघ आशीर्वाद के पात्र बनें। इस प्रकार क्रिया प्रदर्शनी तथा तदीय प्रसन्नता विषयक आशीर्वाद वाक्य प्रयोजित होते हुए यह दिन बड़े ही आनन्द और उत्साह के साथ प्रचलित हुआ उधर रात्री आई। सान्ध्यकर्म के अनन्तर भोजनादि से लब्धावकाश होकर समस्त योगी अपने-अपने आसनों पर विराजमान हुए। केवल ज्वालेन्द्रनाथजी तथा गहनिनाथ और नागनाथजी ये तीनों महानुभाव एकत्रित बैठे हुए थे। जो अपने उद्देश्य विस्तार विषयक अनेक गुप्त वार्तायें कर रहे थे। इत्यादि प्रकृत प्रास्ताविक वार्तालाप द्वारा उनकी वह रात्री समाप्त होने को आई। यह देख गहनिनाथजी ने कहा महाराज ! आप यहाँ से कहाँ जाने का विचार कर रहे हैं। ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा तुम्हारा क्या अभिप्राय है जिसके लिये पूछने की आवश्यकता पड़ी। प्रत्युत्तरार्थ गहनिनाथजी बोले कि हमारा अभिप्राय यहाँ से कैलासस्थ श्री महादेवजी की शरण में जाकर उनसे अवकाश मांगने का है। अतः इन योग साधनीभूत क्रियानियोजित शिष्यों को, जो कुद शिथिल हैं सम्यक् रीति से क्रिया कुशल बनाने के अनन्तर जायेंगे। आप इस विषय में क्या अभिमति रखते हैं। ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि ठीक है यदि आप लोगों ने उचित रीति से पूरा कर दिखलाया है। जिसको श्री महादेवजी भी अच्छी तरह जानते हैं। इसीलिये वे निर्विकल्पता के साथ तुम्हारे मनोरथ को स्वीकार करेंगे। इसके अतिरिक्त हमारे सम्बन्ध में तो यह बात है हम अभी नहीं चल सकते हैं श्री महादेवजी की आज्ञानुसार भविष्यमाण गोपीचन्द्र को, जो द्रुमिलनारायण का अवतारी होगा, हमने दीक्षित करना पडे+गा। अतएव हम यहीं किसी जगह पर समाधिस्थ हो अपनी अभीष्ट सिद्धि को सफल करेंगे। इसके अनन्तर ज्वालेन्द्रनाथजी अपने शिष्यों को पृथक् परामर्श देने पर स्वयं सहर्ष बड़े आदर उत्साह के साथ वहाँ से विदा हुए। जो ...लेमान पर्वत की उपत्यकाल में इधर-उधर विचरते हुए कतिपय मास में भगवती हिंगलाजाधिष्ठित पार्वत्य आधित्यका पर पहुँचे। वहाँ जाने पर उन्हों के श्रीहिंगलाज देवी के दर्शन करने की इच्छा अंकुरित हुई। अतः वे लक्ष्याभिमुख हो उधर अग्रसर होकर उस प्राथमिक घाटी पर जा प्राप्त हुए जहाँ भैरव प्रहरी रहते थे। ठीक इसी समय उधर भैरवों ने भी इन दोनों महानुभावों को अपने सम्मुख आते देखकर दूर से ही आगे आने से निरोध किया। तथा यह भी स्पष्ट कह सुनाया कि नियत समय से अतिरिक्त ऊपर जाने के लिये देवी की आज्ञा नहीं है। इधर ज्वालेन्द्रनाथजी को अपने कर्तव्य विश्वास था। इसीलिये वे उनके वचन की उपेक्षा कर आगे बढ़ते ही चले गये। यह देख भैरवों को सहसा यह ख्याल हुआ कि मालूम होता है ये कोई असाधारण पुरुष हैं। अन्यथा निरोध करने पर भी निशंक हो इनका आगे बढ़ना असम्भव था। तदनु कुछ क्षण में ये भी उनके समीप जा खड़े हुए। एवं भैरवों से कहने लगे कि हमारे देवीजी के उपस्थित न करो। यह सुन भैरवों ने उत्तर दया कि जब हमको आज्ञा ही नहीं है तो जाने को कैसे कहें। बल्कि संसार में जब यह प्रसिद्ध है कि समयातिरिक्त कोई भी मनुष्य हो नहीं जाने पाता है तब तुमको स्वयं यह सोचना था कि इस इच्छा से इस समय यहाँ न आते। ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि देवी की उक्त आज्ञा मनुष्य मात्र के लिये नहीं है। अतएव नियत काल से आगे पीछे भी कोई एक पुरुष ऊपर जाकर देवी के दर्शन करने में सफल हुए हैं और हम भी होंगे। नाथजी के इस वचन को श्रवण कर वे कुछ शंकान्वित हुए पूछने लगे कि आपका क्या नाम है। ज्वालेन्द्रनाथजी ने उत्तर प्रदान किया कि मेरा नाम ज्वालेन्द्रनाथ है और मत्स्येन्द्रनाथ  का जो यहाँ आकर तुम्हारे द्वारा अवरूद्ध हो देवी के दर्शन करने में असमर्थ हुआ था, गुरुभाई हूँ। इन्होंने मत्स्येन्द्रनाथजी का नाम भैरवों को पूर्बीय घटना का स्मरण कराने और उनका गुरुभाई होने से अपने आपको भी उतना ही शक्तिशाली सूचित करने के अभिप्राय से लिया था। और उनको असमर्थ कथन कर तार्किक वाक्य द्वारा भैरवों को चिड़ाना था। क्योंकि ये मत्स्येन्द्रनाथजी का नाम सुनते ही उनके अतीत वृत्त स्मृतिगत हुआ। जिससे तत्क्षण ही उनकी लालाटिक कान्ति मन्द हो गई। तथा उन्होंने निश्चय कर लिया कि यह अवश्य अप्रतिहत गति है। अतएव इसको रोक रखना उचित नहीं। परं यह दूसरा कौन और इसका क्या नाम है यह भी निश्चय कर लेना चाहिये। इसी अभिप्राय से उन्होंने ज्वालेन्द्रनाथजी से प्रश्न कर समीपस्थ उनके शिष्य का परिचय मांगा। उन्होंने उत्तर दिया कि तुम्हें विशेष निर्णय से क्या प्रयोजन यह भी एक रमताराम है। यह सुनकर भैरवों ने विचार किया कि ज्वालेन्द्रनाथ का आश्रय ले ऊपर जाने की इच्छा से यह भी कोई मार्ग में पीछे लग लिया है। इसीलिये उन्होंने ज्वालेन्द्रनाथजी से कहा कि अच्छा आप तो जाइये परं इसको नहीं जाने देंगे। यह श्रवण कर नाथजी कुछ मुस्कराते हुए, इसकी यह और तुम जानों हमें तो अपने कार्य से प्रयोजन है, यह कह वहाँ से प्रस्थानित हो कुछ दूर आगे एक शिला पर बैठ उनके कुतूहल की परीक्षा करने लगे। गुरुजी के आभ्यन्तरिक मनोरथ का अवगमन कर तब तक उनका शिष्य वहीं खड़ा रहा। जिसे आगे बढ़ने से द्वारपालभैरव बार-बार निरोधित कर रहे थे और वह उनसे जाने देने की बार-बार प्रार्थना कर रहा था। परन्तु इन नीचे की मीठी वार्ताओं से कोई प्रयोजन सिद्धि न देखी गई। अतएव उसने एकाएक अन्त में गुरुप्रदत्त विद्याओं से काम लेने का दृढ़ संकल्प कर प्रथम सम्भतः मैं अपने को ज्वालेन्द्रनाथजी का शिष्य प्रकट कर दूँ तो सहज में ही झगड़ा तय हो जायेगा, यह सोचकर उनसे कहा कि मैं भी इन्हीं का शिष्य हूँ। ऐसी दशा में केवल मुझे ही रोक रखकर उनसे वियोगित करना आप लोगों को उचित नहीं है। इसके उत्तर में भैरवों ने कहा कि ज्वालेन्द्रनाथ का शिष्य है तो कुछ पराक्रम और चमत्कार दिखला। जिससे तेरा मार्ग निष्कण्टक हो और निरोध में असमर्थ होने के कारण हमको भी बुराई का मुख न देखना पड़े। यह सुन उसने सोच लिया कि अनायास से कार्य सिद्धि नहीं है। इसीलिये उसने महिमा सिद्धि के प्रभाव से अपने शरीर को तेजस्वी एवं दीर्घस्थूलाकार बनाया और गदा हस्त में लेकर वह भैरवों की ओर झपटा। उधर वे प्रथमतः ही तैयार थे। कुछ इसके शीघ्र पारिवर्तनिक शरीराकार को देखकर और भी सचेत हो गये। युद्धाग्नि प्रज्वलित हो उठी। पारस्परिक प्रहार शब्द एवं हुंकार से सुखासीन वन्यजीव त्रस्त हुए इधर-उधर भागने लगे। ठीक समय पर आ प्राप्त होेने वाले अष्ट भैरवों को अपनी अधिक संख्या का अभिमान था परं उनका वह अभिमान झूठा निकला और बहुत देर तक युद्ध होते रहने पर भी वे उसको साध्य न बना सके। एवं उसको भी अपने बल और कष्ट सहन दृढ़ता का विश्वास होने से यह अंधकार हो गया था कि मैं इन्हें अब ठीक बना देता हूँ। परं वैसा न हुआ किन्तु यह निश्चय हो गया कि इस कृत्य से पालापार न होगा। अतएव उसने गादेय युद्ध का परित्याग कर मान्त्रिक आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया। जिसकी शेष सहस्र जिव्हाओं की तरह लपलपाती हुई आग्नेयलटाओं से पर्वत दग्ध होने लगा। यह देख तत्काल ही भैरवों ने वार्षिक अस्त्र द्वारा उसका उत्तर देकर दंदह्यमान पर्वत को शान्त किया। इसी प्रकार उसके अनेक अस्त्रों का उत्तर होने पर जब उसने यह समझ लिया कि ऐसे भी साध्य सिद्धि नहीं है। तब तो उसने अपनी भस्म पेटिका का आश्रय ग्रहण किया और उससे कुछ भस्म निकालकर अष्ट भैरवों को लक्ष्य बनाते हुए उधर प्रक्षिप्त किया। बस क्या था इस अन्तिमास्त्र का सहन करना उनके लिये असह्य हुआ। अतएव वे मूच्र्छित हो पृथिवी पर गिर पड़े और उनके मुख से रूधिर प्रवाहित हो निकला। उधर इस वृत्त की सूचना देवी के भवन में भी हो चुकी थी। इसीलिये अनेक वीर तथा सहायक देवियाँ घटनास्थल मंे आ पहुँची। जो हस्त में नाना शस्त्र धारण किये हुए और मारलो-मारलो पकड़लो जाने न पावे इत्यादि शब्द करती हुई आगे बढ़ी। यह देख उसने कुछ विभूति फिर निकाली और समन्त्र उधर फेंक दी। जिसके अमोघ प्रहार से देवियों की वह दशा हुई कि वे प्रमत्त हो पारस्परिक युद्ध करने लगी और कुछ ही क्षणों में पारस्परिक प्रहार से क्षत हो भूमि पर गिर पड़ी। यहाँ तक कि उनमें से एक भी ऐसी न बची कि वापिस लौटकर इस बात की सूचना श्री हिंगलाज देवी को जा देती। उधर अधिक समय व्यतीत होने पर जब किसी प्रकार की खबर लौटकर न गई तब तो हिंगलाज को स्वयं यह विचार हुआ कि सम्भवतः कुछ अनिष्ट उपस्थित हुआ है अन्यथा इतना समय लगने का कोई काम नहीं था। अतएव कुद सहचारिणियों सहित श्री हिंगलाजमाई स्वयं सिंहासन परित्याग कर घटनास्थल की ओर प्रस्थानित हुई। जो कुछ क्षणों में ही वहाँ पहुँची और उसने आगे शिलापर बैठे हुए ज्वालेन्द्रनाथजी को देखा। इनके अवलोकन से देवी ने सोचा था कि विघ्नोपस्थितिकत्र्ता यही है। परं उसका यह विश्वास अतथ्य निकला। क्योंकि उसी अवसर में ज्वालेन्द्रनाथजी को देवी के देखते ही निश्चय हो गया था कि हिंगलाज माता यही है। अतएव उन्होंने उठकर कुछ पदक्रम आगे बढ़ाते हुए श्री जी की प्रणाम की। यह देख देवी ने उनका परिचय पूछा। ’ आपने आपको जानती हुई भी हिंगलाज देवी को अपने नाम से परिचित करने के अनन्तर कहा कि मैं श्री महादेवजी का शिष्य तथा मत्स्येन्द्रनाथ का गुरुभाई हूँ। यह सुन देवी ने उनको यह कहते हुए कि मत्स्येन्द्रनाथ को मैंने अपना पुत्र स्वीकार किया था अतः तू भी मेरा पुत्र ही है, अपनी छाती से सम्मिलित किया तथा साथ ही यह भी कह सुनाया कि पुत्र प्रकृत घटना का निमित्त कारण तू ही है क्या। यदि यही बात हो तो इसका अपहरण कर भवन में चल। जितने दिन की इच्छा हो आनन्द के साथ निवास कर। भैरवों को चाहिये था मनुष्य का उचित रीति से परिचय कर विवादरम्भ करते। यह सुन उन्होंने कहा कि नहीं मातः! इस झगड़े का का कारण मैं नहीं हूँ। इसीलिये मेरी तरफ से भैरवों को कोई दोष नहीं है। क्यांे कि उन्होंने मेरा परिचय लेते ही भवन में जाने की आज्ञा प्रदान कर दी थी। परं मेरा शिष्य है जो उधर बैठा हुआ है। उसको भैरवों ने नहीं आने दिया इसी कारण से वह कुपित हुआ और उसने भैरव तथा इन देवियों की दुर्दशा की है।  यह सुनने ही हिंगलाजदेवी ने कहा कि वह कहाँ बैठा है उसको बुलाकर समझाओ और इन मूच्र्छित भैरव तथा देवियों को सचेत कराओ। ज्वालेन्द्रनाथजी ने शीघ्र अपने शिष्य को बुलाया। उसने शीघ्र अपने शिष्य को बुलाया। उसने शीघ्र आकर प्रथम गुरु और फिर श्रीहिंगलाजजी के चरणों में गिरकर प्रणाम की। जिसको देवी ने शीघ्र उठाकर अपनी गोद में लिया और मूच्र्छितों को ठीक करने का परामर्श दिया। उसने भी प्रसन्न हो शीघ्र देवी की आज्ञा पालित की और उनके कष्ट पर कृतज्ञता प्रकट कर अपने विषय में क्षमा करने की प्रार्थना की। इसके अनन्तर सब एकत्रित हो प्रसन्नता के साथ भवन में गये। वहाँ कुछ दिन के दर्शन प्रसन्न होने पर ज्वालेन्द्रनाथजी ने श्री हिंगलाज देवी की आज्ञानुसार उसी पर्वत में एक सुमनोहर गुहा तैयार कराकर उसमें स्वशरीरक्षा का भार शिष्य के ऊपर छोड़ युधिष्ठिर सम्वत् 2058 में चिरकाल के लिये समाधिस्थ दशा का अनुभव करना आरम्भ किया।
इति श्री ज्वालेन्द्रनाथ हिंगलाज समागम वर्णन ।

No comments:

Post a Comment