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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Tuesday, May 28, 2013

श्री मद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ कालिका युद्ध वर्णन

पूर्वोक्त महोत्सव की समाप्ति के पश्चात् गोरक्षनाथजी ने कुछ समय तक वहाँ स्थिति रखकर तत्कृत्य स्मृति सूचक एक स्थान का निर्माण कराया और उसके प्रबन्धार्थ अपने एक शिष्य को नियतकर स्वयं देशाटन के लिये वहाँ से प्रस्थानित हुए। जो कुछ काल में भ्रमण करते तथा अपने अलौकिक वस्तु प्राप्ति सूचक ओजस्वी योगोपदेश से लोगों को तज्जिज्ञाषु बनाते हुए कुछ काल में सौराष्ट्र देश में पहुँचे। यहाँ तक के भ्रमण में कई एक मनुष्य उनको ऐसे मिले जो योग मर्म जिज्ञासान्वित हुए उनके शिष्य बनने के लिए अधीर चित्त हो रहे थे। अतएव उन लोगों की अभिलाषा पूर्ण करने के अभिप्राय से गोरक्षनाथजी ने तत्कृत्यानुकूल ऐकान्तिक निरपाय स्थान की अन्वेषणा में विशेष दृष्टि दी। तदनु कतिपय दिन में इधर-उधर भ्रमण से एक स्थल उनकी इच्छानुकूल मिला जो समुद्र से लगभग एक योजन की दूरी पर पृथ्वी समतल पहाड़ मय है जहाँ ऊपर के प्रदेश से एक स्वच्छ तथा मधुर जलवाहिनी छोटी सी नदी प्रवाहित होती है। ठीक इसी के तीर पर श्री नाथजी ने विश्राम किया जहाँ एक गुहा भी निर्मित की जिसमें स्वचिन्हित शिष्यों को यथाधिकारी क्रम से तदनुक्रमारम्भ क्रियाओं से दीक्षित करने का आपको अनुकूल सुभीता मिला। अर्थात् मन्दाधिकारी शिष्यों को प्रथम अहिंसादियमों का मर्म समझा कर उनमें दृढ़तापूर्वक निपुणता प्राप्त करने के लिये आपने उनको प्रबोधित किया। तदनु शौचादि नियमों के पूर्णतया पालनार्थ आज्ञा प्रदान की। इसके अनन्तर पùासन भद्रासनादि आसनों से उनको दीक्षित किया। तत्पश्चात् प्रणायाम एवं प्रत्याहार की विधि शिखलाई जिनके उत्तर वे धारणा, ध्यान समाधिरूप मार्ग द्वारा असम्प्रज्ञात समाधि के अधिकारी हुए। इनसे अतिरिक्त मन्द समाहित चित्त मध्यम अधिकारी शिष्यों को प्रथम अविद्यास्मितादि क्लेशों के तिरस्कारार्थ एवं समाधि सिद्धि के वास्ते चित्त की प्रसन्नता के अविरोधी शास्त्रोक्त उपवासादिरूप तप तथा मोक्षशास्त्राध्ययन अथवा प्रणवजपात्मक स्वाध्याय और परमात्मा में समस्त कर्मों का अर्पण करण रूप प्रणिधान नामक क्रियाओं में कुशलता प्राप्त करवाई। तद्भिन्न समाहित चित्त अर्थात् उत्तमाधिकारी शिष्यों को केवल अभ्यास वैरागय से वृत्तिनिरोध के द्वारा असम्प्रज्ञात समाधि का अधिकारी बनाया। जिसमें उन्होंने गुरुजी की अपूर्व हितैषिता से जायमान गुरुदीक्षात्मक प्रयत्न से और स्वकीय कुशाग्र बुद्धि के प्रभाव से शीघ्र ही निपुणता प्राप्त की। अर्थात् अभीष्ट समय पर्यन्त समाधि लगाने की सामथ्र्य को उपलब्ध किया। अतएव गोरक्षनाथजी ने उनको समाधि विषय में परीक्षितकर स्वाधीनस्थ यथोचित विविध विद्याओं से भी दीक्षित किया। जिससे ये महानुभाव अपरिमित शक्तिशाली हुए श्रीनाथजी के उद्देश्य का विस्तार करने और देश में अपनी निर्मल अक्षुण्ण कीर्ति को स्थापित कर अपने आपको अमर बनाने में समर्थ हो सके। इन महानुभवों में धुरन्धरनाथजी की, जिसका वृतान्त आगे आयेगा, विशेष प्रसिद्धि है। (अस्तु) इस कार्य को समाप्त कर प्रत्युपकारार्थ पौनः पुनिक शिष्यों से वन्दित हुए श्रीनाथजी सौराष्ट्र देशस्थ इस स्थल से (आधुनिक प्रसिद्ध नाम गोरखमढ़ी) से फिर देशाटन के लिये प्रस्थानित हुए और कुछ दिन में गिरनार पवर्त पर पहुँचे। यहाँ आपने कतिपय दिन दत्तात्रेय के साथ विविध परामर्श करने पर अपने कुछ शिष्यों को पृथक् विचरण कर स्वोद्देश प्रचारार्थ सूचित किया। तत्काल ही आज्ञा को नतशिर से अंगीकृत कर वे लोग अपने रास्ते लगे। इधर गोरक्षनाथजी भी व्यर्थवार्ताओं द्वारा समय बीताने से प्रयोजन नहीं था अतएव अपने अवशिष्ट शिष्यों को साथ लेकर वे भी गिरनार से नीचे अवतरित हुए पूर्व दिशा के सम्मुख चले। जो कतिपय वर्ष के अनन्तर गुजरात मध्य प्रदेशादि देशों में विचरित हुए बंगदेशस्थ कालीकोट (आधुनिक प्रसिद्ध नाम कलकत्ता) नामक नगर में जा उपस्थित हुए। बहुत दिनों के इस दीर्घ गमन से उनके शिष्यों को निर्विण्णता प्राप्त हो गई थी। अतएव उनके कुछ काल वहाँ पर निवासकरण विषय के प्रस्ताव को स्वीकृत कर श्री नाथजी ने वहाँ विश्राम किया (यही स्थान आजकल गोरखवंशी नाम से प्रसिद्ध है)। (अस्तु) कुछ दिन के निवास करने पर इस नगर में एक मेला आरम्भ हुआ जिसका उद्देश्य जिस देवी के नाम से इस नगर का नाम पड़ा है, उस देवी की पूजा करना और उसको बलि प्रदान करना था। अतः इस कृत्य में उत्कण्ठा रखने वाले अपरिमित नरनारी उधर जा रहे थे। यह देख श्रीनाथजी के शिष्यों को भी इस कौतुक के दर्शनार्थ अत्युत्कट इच्छा ने बाध्य किया जिसके विवश हो उन्होंने गुरुजी से प्रार्थना करी कि स्वामिन्! हम लोग भी देवी का दर्शन करना चाहते हैं। यह सुन प्रथम तो श्रीनाथजी ने इस विषय में अपनी असम्मति प्रकट की और कहा कि सांसारिक लोगों में मिश्रित हो ऐसे उत्सवों में जाना हमारे लिये उचित नहीं। परन्तु जब इस मुँह तोड़ प्रत्युत्तर से अपने शिष्यों को आभ्यन्तरिक भाव से कुछ असन्तुष्ट देखा तब तो उनको किसी कारण से दैवगतिवश प्राप्त नासमझी के फल की उपलब्धि होेने के लिये जाने की आज्ञा दे दी। तत्काल ही गुरुजी की आज्ञा श्रवण कर गोरक्षनाथजी के शिष्य कालिकादेवी के मन्दिर में वद्वदृष्टि हुए वहाँ से प्रस्थानित हुए। परन्तु कुछ देर के बाद जब मन्दिर के बाह्य द्वार पर पहुँचे तब तो द्वारपालकों ने जो देवी की आज्ञानुसार पूजासामग्री और बलि से रिक्त हस्त पुरुषों को भीतर जाने से रोकते थे, उनको मन्दिर में प्रविष्ट होने से रोका। यह देख उनको बड़ा ही आश्चर्य हुआ। तथा द्वारपालकों को समझाने के अभिप्राय से उन्होंने कहा कि यह बलि प्रदानादि कृत्य तो सांसारिक लोगों का है न कि हम लोगों का। क्योंकि न तो सांसारिक लोगों जैसी हम को काई पुत्र द्रव्यादि की उत्कट अभिलाषा है और न उसके अभाव में हम देवी की सांसारिक लोगों जैसी गौणभाव से पूजा करना तथा उसके बलि अर्पित करना उचित समझते हैं। यही कारण है हम लोग अन्य पुरुष गृहीत उपकरणों से रिक्त है। वस्तुतः है भी ठीक हम विरक्त लोग हैं। हमारे समीप वस्त्रादि भी नहीं जिनसे शीतोणता का निवारण कर सकें। फिर पूजा सामग्री और बलि क्रय के लिये टके कहाँ से आते। जिन द्वारा सामग्री खरीद कर देवी की पूजा करने में तत्पर होते। हाँ हो सकता है कि हम मानसिक पूजाद्वारा जो सर्वोत्तम समझी जाती है, देवी को सत्कृत कर देंगे और कर भी चुके हैं। क्योंकि जो आपने से उत्कृष्ट जानकर जिसके दर्शन की अभिलाषा करता है वह उसकी मानसिक पूजा प्रथमतः ही कर बैठता है। ठीक यही वृत्त हमारा भी समझना चाहिए। अतः आप लोगों को उचित है कि हमको मन्दिर में प्रविष्ट होने से न रोकें। जिससे हम देवी का दर्शन कर अपने आसन पर जायें। यह सुन द्वारपालों ने कहा कि आप लोग जो कुछ कह रहे हैं सब ठीक है जिसके लिये हम कोई आपत्ति करने की अपनी इच्छा नहीं रखते हैं परं करें क्या देवी की आज्ञा ही ऐसी है कि बिना पूजा सामग्री और बलि किसी पुरुष को मन्दिर में न घुसने दो। हाँ हो सकता है कि आप लोग कोई ऐसा चमत्कार दिखलावें जिससे देवी हमारे ऊपर कुपित न हो और आपलोग अप्रतिहत गति हुए मन्दिर में प्रवेश कर सके। पाठक ध्यान रखिये अब से पहले यदि इनको अपनी विद्या प्रयोग के द्वारा द्वारपालों को उचित दण्ड देकर मन्दिर में प्रवेश करना अभीष्ट होता तो कभी के इस कृत्य में उत्तीर्ण हुए होते। परन्तु इन लोगों ने सोचा था कि सहसा ऐसा कर बैठना योग्य नहीं है क्योंकि विद्या प्रयोग की आवश्यकता वहीं हुआ करती है जहाँ अन्य उपायों से कार्यसिद्धि न हो सकत हो। (अस्तु) उपायान्तराभाव से और द्वारापालों के स्वयं उस कृत्य के कर दिखलाने के लिये बाध्य करने से आखिर उन्हों में से एक ने अपनी भस्मपेटिका का आश्रय लिया और उससे कुछ भस्मी निकाल मन्त्र सहित द्वारपालों की ओर प्रक्षिप्त की। तत्काल ही वे पाषाणप्रतिमा में परिणत हुए। यह देख मेले में बहुत कोलाहल और कौतुक उपस्थित हुआ। कितने ही पुरुष योगियों की अगम्य गति के विषय में अनेक प्रकरणों का उद्घाटन कर रहे थे कितनेक लोग उनको मन्दिर में प्रविष्ट होने से निरोध करने के विषय में द्वारपालों को निन्दा कर रहे थे और इस कुतहूत के देखने के लिये उत्सुक थे कि ये योगी देवी के सम्मुख जायेंगे तब कैसा कया समाचार उपस्थित होगा। ठीक इसी अवसर में द्वारियों को ठिकाने लगाकर ये महानुभाव भी मन्दिर में पहुँच देवी के अभिमुख हुए। उधर कालिका अपनी प्रचारित आज्ञा के विरूद्ध उनको रिक्तहस्त निश्चयीकृत कर महा कोपान्वित हुई और साक्षात् युद्ध कर उनको उचित दण्ड देने की अभिलाषा से प्रकट हो प्रतिमा से पृथक हो गई। अतः उसके भयावह विकट रूपावलोकन से योगियों ने समझ लिया कि वार्ता सहज में तय होने वाली नहीं है। अवश्य अपने आज्ञाप्रचार रक्षण के लिये यह कठिन उपाय का अवलम्बन करेगी। उनके इस परामर्श करने के समय ही उधर से देवी ने ललकारना आरम्भ किया और घोषित कर दिया कि सचेत हो जाओ आज्ञा भंग करने का फल अभी दिया जायेगा। यह सुन एक सम्मति कर योगियों ने यह निश्चय किया कि यद्यपि हम लोग ऐसे महात्मा के शिष्य हैं जिनको त्रिलोकी में कोई तिरस्कृत नहीं कर सकता है ठीक उसकी अपरिमित विविध विद्याओं के संचार हम लोगों में संचरित है जिस द्वारा देवी का प्रहार निष्फल कर सकते हैं। तथापि हमको उचित नहीं की जिसकी एक बार अपने हृदय से नमस्कार अर्थात् पूजा कर ली हो फिर उसी को द्वेषस्थान बनाकर उसके सम्मुख खड़े हो उसको अस्त्र प्रहार का लक्ष्य बनावें। अतएव जो कुछ उचित समझे इसे करने दो हमको वह सहर्ष सहन करना चाहिये। क्यों कि हमारा ऐहिकागमन इसके दर्शनार्थ ही था सो पूर्ण हुआ। योगियों को इस प्रकार के विचार से शिथिल हो तद्वत् निश्चेष्ट खड़े देखकर देवी ने भी समझ लिया कि यद्यपि मालूम होता है इन लोगों का ऐहागमन अपनी विद्या के अभिमान तथा हठ से नहीं है प्रत्युत भक्ति से ही है। तथापि अपने नियम की पालना करनी आवश्यकीया है इसीलिये इनको कुछ दण्ड अवश्य देना होगा। यह स्थिर कर देवी ने उनका परिचय पूछा। प्रत्युत्तर में उन्होंने अपना समस्त समाचार वर्णित किया और यह भी बतलाया कि हम प्रसिद्ध योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के शिष्य हैं जो यहीं विराजमान है। यह श्रवण कर देवी ने प्रथम तो उन द्वारा द्वारपालों को वर्तमान में अवस्था से विमुक्त करवाया। तदनु बनको बंदी कर कहा कि अच्छा तुम्हारे गुरुजी यहीं विराज रहे हैं तो वे स्वयं मुक्त कराकर ले जायेंगे। अतः जब तक वे नहीं आवें तब तक तुम लोगों को यहीं रहना पड़ेगा। यह आज्ञा प्रचारित कर देवी फिर प्रतिमा में व्यलीन हो गई। उधर इस आज्ञा के सुनते ही योगी निराश हो गये उनके कोई ऐसा उपाय दृष्टिगोचर न आया जिसके द्वारा इस लज्जास्पद कृत्य से मुक्ति पा सके। क्योंकि इस विषय में वे प्रथम ही वचन बद्ध हो चुके थे जैसा देवी करेगी सब सहनीय होगा। अतः बलपूर्वक निकल जाने का भी ढंग हसत से जाता रहा। अहो दैवगति अगम्य है हमने अपने ही हस्त से पैरों में कुठाराघात किया। इत्यादि विचार कर विवश हो वे वहीं बैठ गये और पारस्परिक अनेक प्रकार की वार्तायें करने लगे। उनमें एक ने कहा कि गुरुजी असम्मति प्रकट होने पर भी हम लोगों में यहाँ आने को उत्साह अपने शरीर से निकालकर बहिर न किया जिसका यथार्थ मर्म समझकर गुरुजी ने बाह्यभाव से यहाँ आने की आज्ञा दी इसीलिये हमको इस दशा का अनुभव करना पड़ा है। इससे सबके गुरुजी के कथन का स्मरण हो आया तथा सब ने निश्चय कर लिया कि निःसन्देह यही कारण है। (अस्तु) इतने शक्तिशाली होकर भी स्वयं बन्दी हो जाना और अपने घोर प्रयत्न द्वारा इनको अपरिमित शक्ति वाले बनाकर भी गुरुजी का ही इनको मुक्त कराने के लिए फिर प्रयत्न करने में बाध्य होना इनके वास्ते कम लज्जा की वार्ता नहीं थी अतएव लज्जा से नतशिर किये इनको बैठा ही रहना पड़ा। उधर गोरक्षनाथजी ने भी इस वृतान्त की घोषणा को श्रवण किया परन्तु उन्होंने सम्भवतः कालिका इस कृत्य से उत्साहित हो गई होगी इसलिये हमारे से भी कुछ संघर्ष करना चाहिये जिससे झगड़ा अन्त तक बढ़ जायेगा और एकत्रित जनसमूह को गहरे कष्ट का सामना करना पडे+गा। ठीक इसी उद्देश्य से तथा शिष्यों को अपने कृत्य का उचित फल भी तब तक ठीक मिल जायेगा। इस उद्देश्य से उस दिन मौनत्व का आश्रय लेकर मेला भंग होने वाले अग्रिम दिन की प्रतीज्ञा की। सहज-सहज कर दिनकर देवता अपनी डिवटी पूर्णकर अस्ता चल का अतिथि बना उधर रात्री देवी ने अपने शुभागमन की घोषणा की जो जैसे-तैसे कर यह भी प्रथानित हुई। मानों अपना बधना बोरिया बान्धकर अस्ताचल में ही जा घुसी। इधर फिर सूर्य का अगमन आरम्भ हुआ सहज-सहज प्रवृद्ध प्रकाश से प्रबोधित हुए लोग अपने-अपने कार्य में लवलीन हुए। यह देख गोरक्षनाथजी भी अपने आसन से ऊठकर कालिका मन्दिर के अभिमुख चले। कुछ क्षण के अनन्तर जब मन्दिर में पहुँचे। तब तो देवी ने आते देखकर निश्चय किया कि ठीय ये ही गोरक्षनाथ उन बन्दी योगियों के गुरु हैं। अतः प्रकट हो वह कहने लगी कि क्या आप लोगों को ज्ञात नहीं है बलिभेंट न प्रदान करने वाले को मन्दिर में प्रविष्ट होने की आज्ञा नहीं है और इसी नियम को उपेक्षित करने वाले कुछ योगियों को मैंने अपने यहाँ बन्दी कर रखा है। तुम आज और आज्ञा भंग कर बैठे। बोलो तुम को कया दण्ड दिया जाय। यह सुन गोरक्षनाथजी ने कहा कि देवी ! क्षमा कीजिये दण्ड तो यही बहुत है जो तुमने हमारे शिष्यों को बन्दी कर उनको लज्जित किया है जिससे हमको भी लज्जा हो सकती है। बस क्या था इतने श्रवण मात्र से कालिका सचमुच कालिका बन गई और अत्यन्त क्रुद्ध होकर कह उठी कि शिष्यों के द्वारा ही क्या लज्जित हुए हो खुद तुम्हारे ऊपर आपत्ति आनेवाली है, तैयार हो जाओ। यह कहने के साथ-साथ ही देवी ने उनके ऊपर खड्ग को प्रहृत किया। श्रीनाथजी ने देवी को सम्मुख आते देख प्रथम ही अपना शरीर वज्रवत् कठिन स्पर्श वाला बना लिया था अतएव उसका खड्ग प्रहार निष्फल रहा। इसके अनन्तर एक-एक उसने अपने हस्तगृहीत समस्त शस्त्रों को प्रहृत किया। परन्तु समग्र किम्प्रयोजन ही रहे। जिससे देवी कुछ शंकित और विस्मयान्वित हुई। ठीक इसी अवसर पर देवी को और भी साश्चर्य करने के लिये गोरक्षनाथजी ने उसको सम्बोधित कर कहा कि कुछ उठा न रखना जहाँ तक प्रयत्न कर सकती है करना। सब मनुष्यों को एक दृष्टि से देख उनके यथोचित सत्कारासत्कार का विचार न कर एक यष्टिका से आगे धरने का आज तुझे भी अवश्य फल मिलेगा। यह सुन गोरक्षनाथजी के कटु प्रत्युत्तर का फल देने के वास्ते देवी ने हस्तसंगृहीत शस्त्रों का आश्रय छोड़ कर मन्त्रात्मक अस्त्रों को आश्रित किया। उधर श्रीनाथजी भी ऐसे न थे जो देवी द्वारा प्रयोगित हुए अस्त्रों के संचालनात्मक तथा निरोधात्मक परिज्ञान से शून्य हों अतएव उन्होंने देवी के प्रथम प्रहृत आग्नेयास्त्र, मोहनास्त्र, कामास्त्रादि प्रत्येक अस्त्र को प्रशान्त कर दिया। जिससे उसको पराजित हो लज्जित होना पड़ा। तथा गोरक्षनाथजी से क्षमा करने की प्रार्थना करनी पड़ी। उन्होंने ठहरो क्षमा करते हैं, यह कह कर अपनी भस्म पेटिका में हस्त डालकर में हस्त डाला और उससे एक चुटकी भस्मी निकालकर देवी को लक्ष्य स्थान बनाते हुए उधर फैंक दिया। जिसके प्रभाव से देवी प्रमत्त होकर पुतली की तरह नृत्य करने लगी और अन्त में मूच्र्छित हो भूमि पर गिर पड़ी। यह देख गोरक्षनाथजी ने उसको शीघ्र ही सूचित कर दिया और कहा कि हमको जो फल देना था सो दिया गया कि और अवशिष्ट रहा है। यह सुनकर देवी ने लज्जा से नीचा सिर किये हुए श्री नाथजी से कहा कि महाराज ! बस अन्त हो गया अब क्षमा कीजिये इससे अधिक और आप क्या चाहते हैं। इसके बाद गोरक्षनाथजी ने कहा कि या तो अपने सब प्रकार के प्रयत्न द्वारा हम से वलि ग्रहण करो नहीं तो आज से नियम करो कि मैं किसी योगी से वलि के लिये निरोध नहीं करूँगी। यह सुन विवश हो देवी को गोरक्षनाथजी के कथनानुसार नियम करना पड़ा। परन्तु खेद है उस दीर्घकाल के अतीत होने पर जिव्हास्वादन के वशीभूत योगिबेषधारी ठगिया एवं प्रपंची लोग योगि सम्प्रदाय में प्रविष्ट हो स्वयं उस कृत्य के सम्पादन में तथा उसके प्रचार में लवलीन हो गये। (अस्तु) नियम के स्वीकृत होने पर गोरक्षनाथजी प्रसन्न हुए सहर्ष मुस्कराते हुए देवी से अपने प्रस्थानार्थ आज्ञा मांगने लगे। देवी ने सानन्द प्रणाम कर जाने की आज्ञा दी। जिससे अपने शिष्यों को साथ लेकर श्रीनाथजी अपने आसन पर जा विराजे।
इति श्री मद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ कालिका युद्ध वर्णन 

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