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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Friday, May 17, 2013

श्रीचर्पटनाथजी तीर्थयात्रा वर्णन


एक समय चर्पटनाथजी सानन्द बदरिकाश्रम में निवास कर रहे थे। उधर से नारद मुनि भी उसी जगह पर आ निकले। क्यों कि चर्पटनाथजी का और नारदजी का प्रथमतः ही परस्पर में अतिगाढ़ स्नेह था। अतएव वे दोनों अधिक समय एकत्र रहते हुए तीर्थयात्रा किया करते थे। (अस्तु) परस्पर में नमस्कार करने के पश्चात् नारदजी ने कहा कि चर्पटनाथजी चलिये इस बार समस्त पृथिवी की परिक्रमा कर पीछे पाताल लोक के तीर्थों की यात्रा करेंगे। नारदजी का यह प्रस्ताव चर्पटनाथजी ने स्वीकृत किया और दोनों महानुभाव वहाँ से गमन कर गये। एवं चारों दिशाओं के समुद्रों और तीर्थों के स्नानकर वे कतिपय मास में फिर बदरिकाश्रम में आये। वहाँ पर कुछ दिन निवास कर दोनों ही ने पाताल लोक की यात्रा के लिये प्रस्थान किया और कतिपय दिन में बलिराजा के नगर में पहुँचकर उन्होंने अपने आगमन की सूचना दी। बलिराजा ने भी सहर्ष उनका यथोचित स्वागतपूर्वक अच्छा आदर सम्मान किया और नगर में जो-जो दर्शनीय वस्तुएँ थी उनको सब का दर्शन कराया। तथा बावन भगवान् के दर्शन पूर्वक बलिराजा ने उनको वहाँ से विदा किया। इसके अनन्तर दोनों महानुभाव समस्त पाताल लोक में भ्रमणकर तथा समग्र तीर्थों का स्नान करते हुए सत्य लोक के तीर्थों को लक्ष्य ठहराकर वहाँ से सत्यलोक को प्रस्थान कर गये। आप ज्यों ही सत्यलोक में पहुँचे त्यों ही वहाँ सहसा ब्रह्माजी से उनका मिलाप हुआ। तत्काल ही ब्रह्माजी ने चर्पटनाथजी का यथा विधि स्वागत कराया और वे उन्हें अपने सिंहासन वाले प्रासाद में ले गये। वहाँ चर्पटनाथजी का हस्त पकड़कर ब्रह्माजी ने उनको अपने निकट ही आसन पर बैठा लिया और कुशल वार्ता पूछने के अनन्तर सत्यलोक में किये आगमन का निमित्त भी पूछा। ब्रह्माजी के प्रत्युत्तर में चर्पटनाथजी ने कहा कि हमारे आगमन का निमित्त आपके लोकस्थ तीर्थों का स्नान तथा आपका दर्शन ही समझना चाहिये। यह सुन ब्रह्माजी ने कहा कि बड़े ही सौभाग्य की बात है जो आपका इस हेतु आगमन हुआ है। आप न्यून से न्यून पर्व पर्यन्त यहाँ पर निवास करें। आपको किसी भी वस्तु के लिये प्रतिकूलता उपस्थित न होगी और पर्व के आगमन काल में मैं स्वयं आपके साथ चलकर क्रमशः सर्व तीर्थों का स्नान करा दूँगा। ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर नारदजी ने विचार किया कि अब तो चर्पटनाथजी को कुछ दिन अवश्य यहाँ पर निवास करना ही पड़ेगा। अतः मैं तब तक यहाँ ठकर कर क्या करूँगा। तत्काल ही परस्पर में नमस्कार कर नारदजी वहाँ से प्रस्थान कर गये और कतिपय दिन में वीणा बजाते हुए अमरापुरी में इन्द्र की सभा में पहुँचे। नारदजी ज्यों ही इन्द्र की दृष्टि का विषय हुए त्यों ही इन्द्र सहसा बोल उठा कि आवो नारदजी लड़ाई कराने वाले। नारदजी इन्द्र का ऐसा वचन सुनकर कुछ खिन्न चित्त हुए और क्रोध को स्फुट न करके उन्होंने इन्द्र को सूचित किया कि कुछ दिन के व्यतीत होने पर इस वाक्य का फल दृष्टिगोचर होगा। हम तुम्हारी नगरी में केवल दर्शनार्थ ही आये थे। उसके ऊपर यथोचित स्वागत न करके ऐसे वाक्य का प्रहार करना क्या तुम्हारे लिये सभ्यता सूचक था। अच्छा जो हुआ सो हुआ तुम अवश्य इस अनुचित भाषण के फल को प्राप्त होंगे। हम ऐसा ही यत्न करके दिखलाते हैं तुम सचेत रहना। हमारा कोई दोष नहीं है हम प्रथम ही सूचित कर चुके हैं। यह कहकर नारदजी फिर चर्पटनाथजी के समीप सत्यलोक में आ गये। उधर इन्द्र ने नारदजी के वचन पर कोई विशेष दृष्टि न दी और प्रमत्ता के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ज्ञ में दत्तचित्त हुआ। उसके कुछ ही दिन व्यतीत होने मिले थे ठीक उन्हीं दिनों में नारदजी भी अपने वाक्य की सिद्धि के लिये, जो कि इन्द्र के प्रति कह आये थे, यत्न कर चर्पटनाथजी को अमरापुरी में लाने को उत्साहित हो रहे थे। फल यह हुआ कि नारदजी की अनेक नम्र प्रार्थना सुनकर बार-बार न चलने का हठ करने पर भी चिरकाल से बने अपने मित्र नारद के वचन वशगत होकर चर्पटनाथजी को अमरापुरी में जाने के लिये उत्कण्ठित होना ही पड़ा। अतएव कतिपय दिन में चर्पटनाथजी के सहित नारदजी अमरापुरीस्थ इन्द्र के बाग में पहुँचे। वहाँ नाना प्रकार के कुसुमों की सुगन्ध से सुगन्धित हुए उस बाग की अत्यन्त शोभा को देखकर चर्पटनाथजी अतीवान्दित हुए और कहने लगे कि नारदजी देखो कैसा अद्वितीय बाग है अत्यन्त क्लेशित भी पुरुष इसमें आकर इसके दर्शनमात्र से ही एक बार तो अवश्य प्रफुल्लित चित्त हो सकता है। देखो-देखो नारदजी इसमें कितने प्रकार के पुष्प और कितने प्रकार के कैसे-कैसे सुन्दर फल लगे हुए हैं तथा कितने प्रकार के एक से एक विचित्र पक्षी परस्पर में अपनी-अपनी मधुर वाणी की ध्वनि कर रहे हैं जिसको सुनकर कौन पुरुष ऐसा है जिसका शोकाक्रान्त भी हृदय एक बार आनन्दग्रस्त न होगा। यह सुन कुछ क्षण तो नारदजी मौनता का परिचय देते रहे परन्तु जब चर्पटनाथजी फलों की प्रशंसा करते ही चले गये तब नारदजी ने कहा कि महाराज! ऐसा क्या करते हो जो-जो फल सुन्दर और मधुर दीख पड़ते हैं सोई तोड़-तोड़ कर खावो, मैं भी खाता हूँ। बस क्या था इस प्रकार इशारा मिलने पर चर्पटनाथजी यथारूचि कुछ फल खाये। उधर नारदजी ने भी घाट न गुजारी उन्होंने खाये थोड़े और तोड़-तोड़ कर नीचे बहुत डाल दिये। क्योंकि जैसे भी हो नारदजी ने तो युद्ध का अवसर ही प्राप्त करना था। (अस्तु) इस प्रकार फल खा पी कर दोनों फिर कुछ कुसुम लेकर ब्रह्माजी के समीप आ गये और वे पुष्प ब्रह्माजी के अर्पण किये। यह देखकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए तथा पूछने लगे कि अत्यन्त ही शोभायमान और सुगन्ध से परिपूर्ण ये पुष्प कहाँ से लाये हो। प्रत्युत्तर में नारद तथा चर्पटनाथजी ने कहा कि अमरापुरीस्थ इन्द्र के नन्दन नाम के बाग से लाये हैं। उत्तर श्रवण कर ब्रह्माजी ने कुछ मन्दता से कहा कि अच्छा किया हमको भी यही विश्वास होता था कि अमरापुरी में ही ऐसे पुष्प होते हैं तथापि पूछ लेना ही उचित समझा अतएव हमारा अनुमान भी ठीक निकला। (अस्तु) अग्रिम दिन फिर चर्पटनाथजी को साथ लेकर नारदजी वहीं पहुँचे और पूर्व दिवस का अनुकरण कर वापिस लौट आये। यह देखकर बाग के रक्षकों में बड़ी खलबली मच गई और साश्चर्य हुए वे अत्यन्त गौरता के साथ बाग की रक्षा में तत्पर हुए। तथा परस्पर में एक-दूसरे को चेतावनी देने लगा कि अप्रमत्ता से रहना कोई अन्य पुरुष बाग में आकर फल-फूलों का विध्वंस कर चला जाता है। अतः उसको पकड़ कर इन्द्रजी के यहाँ पहुँचा देंगे। जिससे उसको यथोचित दण्ड मिलने पर हम कृत कृत्य हो जायेंगे। ऐसा विचार कर बाग रक्षक लोग बाग के चैंओर सावधान होकर बैठ गये। उधर से नारदजी और चर्पटनाथजी भी निर्दिष्ट समय पर आ पहुँचे और अकस्मात् बाग में घुसते ही फलफूल तोड़ने के लिये कटिबद्ध हुए। ये दोनों महानुभाव ज्यों ही उन बाग रक्षकों की दृष्टिगोचर हुए त्यों ही वे लोग दौड़कर आये और सहसा उन दोनों की ओर टूट पड़े तथा कहने लगे कि अरे दुष्ट अपराधियों! बतलाओ तुम कहाँ रहते हो। धिक्कार है तुमको जो ऐसा कर्म करते हो प्रतिदिन चोरी कर अपना उदर पूर्ण करते हो। अच्छा कुछ क्षण शान्ति करो प्रति दिवस ही फल-फूल तोड़कर गुप्तरूप से भाग जाते थे आज वह सब दिन का खाया-पिया निकाला जायेगा। क्या तुमने अब तक हमारे स्वामी इन्द्र का नाम नहीं श्रवण किया था जो उसी के बाग में आकर चोरी कर्म में दत्तचित्त हुए हो। यह सुनकर नारदजी तो बड़ी फुरती के साथ वहाँ से निकल कर कुछ दूरी पर जा खड़े हुए और चर्पटनाथजी वहीं खड़े हुए उनकी सब बातों का श्रवण करते रहे। परन्तु नारदजी के चले जाने की चर्पटनाथजी को खबर नहीं थी क्योंकि नारदजी पीछे खड़े थे बाग रक्षकों को आते देख चुपचाप पीछे से सरक गये थे। अतएव ज्यों ही चर्पटनाथजी ने पीछे को देखा तो नारदजी दृष्टि में नहीं आये। तब तो चर्पटनाथजी ने समझ लिया कि नारदजी सम्भवतः युद्ध के भय से ही चुपचाप प्रस्थानित हुए हैं तथापि इससे किंचिद् भी विचलित न होते हुए चर्पटनाथजी धैर्य के साथ स्वीय स्थान पर स्थित रहे। तथा आराम रक्षकों से कहने लगे कि हमने आप लोगों का कोई ऐसा अपराध नहीं किया है जिसके लिये आपका हमारे ऊपर ऐसे अपशब्दों का प्रयोग करना संगत हो सके। हाँ कुछ पुष्प ब्रह्माजी की सेवा में समर्पण करने के लिये अवश्य हमने तोड़े हैं उनके विषय में यदि अपराधी बतलाओ तो बतलाइये परन्तु हम इस बात को स्वीकृत करने के लिये सहमत नहीं है क्योंकि पुष्पों का उपयोग ही देवता तथा महान् पुरुषों की पूजा के लिये होता है तदनुकूल ही ब्रह्माजी के प्रसन्नार्थ हमने कुछ पुष्प तोड़ ही लिये तो कोई अन्याय की बात नहीं। अतएव कोई तिरस्कृति सूचक शब्द कहने की आवश्यकता नहीं है। यह सुनकर बाग रक्षकों से रहा न गया क्यों कि इन्द्र के सेवक ही जो ठहरे। अतः बडे+ जोश में आकर एक साथ बोल उठे कि अहो! देखो यह मात्र्यलौकिक मनुष्य कैसा धृष्ट है प्रतिदिन फल-फूल नष्टकर अपराधी हुआ भी अपराध के विषय में कुछ कहने सुनने को तिरस्कार समझता है। अच्छा कुछ क्षण ठहर तुझे इसका प्रतिफल देंगे यह कहते हुए सबने अपने-अपने शस्त्र उठाये और प्रहार करने के लिये अभिमुख हुए। यह देख चर्पटनाथजी ने भी अपनी भस्म पेटी का आश्रय लेना पड़ा तथा उसमें से कुछ विभूति निकाल समन्त्र उधर प्रक्षिप्त की जिधर से वे अभिमानी शीघ्रता से प्रहार करने के अभिप्राय से सम्मुखी भूत हुए थे। बस क्या था विभूति छोड़ना ही था उससे सबके सब क्षण मात्र में जकड़ीभूत हो गये जिन्हें अपने आपकी कुछ भी स्मृति न रही और उनके मुख से रूधिर की धारा प्रवाहित हो निकली। इसी अवसर पर और भी बागरक्षक, जो उन्हों में सम्मिलित न हो सके थे, आये और इनकी ऐसी दुर्दश देखकर इन्द्र के द्वार पर पहुँचे। तथा समग्र वृत्तान्त जो कुछ बाग में हो चुका था उन्होंने इन्द्र को सुनाया। एवं साथ-साथ चर्पटनाथजी की विचित्र शक्ति का भी उल्लेख किया जिसे श्रवण कर इन्द्र ने उपेक्षा के साथ कहा कि अमुक नेता को सूचना दो कि कोई उत्पाती बाग में आया है जिसने बाग रक्षकों को व्यथित किया है अतः कुछ सैनिकों के सहित जाकर उसे यहाँ ले आवो जिससे वह उचित दण्ड से दण्डित होगा। यह आज्ञा मिलने पर इन्द्र का कोई सेवक घटनास्थल में आ पहुँचा। तब तक चर्पटनाथजी भी यह सोचकर, कि देखें ये लोग क्या-क्या प्रयत्न करते हैं, कौतुक देखने के लिये वहीं पर शान्त स्वभाव से स्थित थे। उन्हें देखकर इन्द्र सेवक ने अपने योद्धाओं को आज्ञा दी कि पकड़ो-पकड़ो देखो कभी कहीं भाग न जाय। यह सुनते ही पकड़ो-पकड़ो मारो-मारो करते हुए सैनिक लोग उधर चर्पटनाथजी के बन्धनार्थ प्रभावित हुए। परन्तु विविध मानवी-लीला दिखलाने वाले चर्पटनाथजी क्या मूकों की तरह खड़े थे उन्होंने भी फिर अपनी भस्म पेटीका से कुछ विभूति निकालकर लक्ष्य सम्मुखी भूत कर रखी थी अतएव वह उनकी ओर फेंक दी जिससे वे भी पूर्ववत् पृथिवी पर प्रसृत हुए अपने आपका विस्मरण कर गये और उनके मुख से रूधिर प्रवाहित हुआ। तदनन्तर कुछ समय बीतने पर इनके जय-पराजय की अन्वेषणार्थ इन्द्र ने अपने दूत प्रेषित किये। उन्होंने जाकर देखा कि सब लोग अचेत पड़े हुए हैं यहाँ तक कि दूसरे को अपना वृत्तान्त सुनाने के लिये भी समर्थ नहीं है यह दशा देखकर वे लोग लौटकर इन्द्र के पास गये और उन्होंने सब दृष्ट समाचार का वर्णन किया। यह सुन इन्द्र बड़ा ही कुपित हुआ तथा उसने अपनी एक बड़ी सेना प्रेषित की और आज्ञा दी कि जावो उसे शीघ्र बान्धकर लाओ। यदि कुछ क्रूरता दिखलावे तो वहीं मार डालो। इन्द्र की यह आज्ञा मिलते ही उसकी प्रबल सेना बड़े ओजस्वी शब्द करती हुई बाग में, जहाँ चर्पटनाथजी विराजमान थे वहाँ पहुँची और उसने चक्राकार व्यह बनाकर इस अभिप्राय से, कभी यह भाग न जाय, चैंतरर्फका मार्ग अवरूद्ध किया और इधर-उधर से वह अपने-अपने शस्त्रों की घोर वर्षा करने लगी। इतना होने पर चर्पटनाथजी उस शस्त्रवृष्टि से किंचित् भी विचलित न हुए और आपने कुछ क्षण के पश्चात् फिर पेटीका से कुछ भस्म निकाल कर सेना की ओर प्रक्षिप्त की जिसके द्वारा सेना की वही गति हुई जो प्राथमिक की हो चुकी थी। यह वृत्तान्त सुन इन्द्र और भी क्रोधान्वित हुआ और स्वयं युद्ध करने के लिये उद्यत हुए उसने बड़े-बड़े वीर योद्धाओं की एक महती सेना सजाकर युद्धार्थ रणभूमि बाग में चलने के लिये बाजा बजवा दिया। बस क्या था कुछ क्षण में विविधायुध धारी योद्धागण सज्जीकृत हुए हुंकार शब्दान्वित इन्द्र के आगे पीछे चलने पर सहमत हो गये। वे कुछ क्षणानन्तर जब बाग में पहुँचे तो इन्द्र ने चर्पटनाथजी को सम्मुख खड़े देखा और देखते ही सैनिकों को प्रहार करने की आज्ञा दी। यह सुन योद्धालोग नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वृष्टि करने लगे। यह देख चर्पटनाथजी ने इन्द्र को सूचित किया कि आप अपने योद्धाओं को शान्त करो। इनके व्यर्थ क्रोध से कुछ साध्य नहीं है प्रत्युत इनको स्वयं अपनी हानि उठानी पड़ेगी क्योंकि इनके प्रहार से हमारा बाल तक बांका न होगा और हमको अपनी मन्त्र शक्ति से कार्य लेना पड़ा तो निःसन्देह इन विचारों को क्लेशित होना पड़ेगा अतः हम चाहते हैं कि आप स्वयं युद्ध कर जय-पराजय का निश्चात्मक फल अनुभव कर लें। यह सुन इन्द्र ने तथास्तु कह उन सब योद्धओं को एक स्थल में खड़े रहकर स्वकीय जय-पराजय की प्रतिपालना करने का आदेश दिया। तथा जब समस्त सैनिक लोग निर्दिष्ट जगह पर जा स्थित हुए तब इन्द्र ने चर्पटनाथजी के साथ युद्ध करना आरम्भ किया और प्रथम चर्पटनाथजी को लक्ष्य कर इन्द्र ने आग्नेयास्त्र प्रक्षिप्त किया यह देख चर्पटनाथजी ने वर्षास्त्र छोड़ा जिस वशात् इन्द्र का अस्त्र शीतल हो गया और चर्पटनाथजी को किंचित् भी क्लेशित न कर सका। इसके अनन्तर इन्द्र ने नागास्त्र छोड़ा जिसका चर्पटनाथजी ने गरूड़ास्त्र से प्रतिरोध किया। इसी प्रकार जब इन्द्र अपने समस्त अस्त्रों का प्रतिरोध देखकर हतोत्साह हो गया तब लज्जा वशात् उसे कोई ऐसा उपाय न दीख पड़ा जिसका अवलम्बन कर अपना मुख उज्जवल कर सके। अन्ततः कुछ विचारास्पद होकर वह सेना को व्यूह भंगकर स्वीयस्थान पर चले जाने की आज्ञा देता हुए स्वयं कैलासस्थ श्रीमहादेवजी की सेवा में उपस्थित हुआ और प्रार्थना करने लगा कि भगवन्! जब-जब अमरापुरी पर विपद आई है आपने उसका भली प्रकार निवारण किया है अतः आपके अतिरिक्त और कोई मुझे अभीष्ट नहीं जिसके सम्मुख अपना कष्ट गायन कर सकूँ अतएव आप शीघ्र चलकर मेरा मुख उज्ज्वल करें। यह सुन श्रीदीनबन्धु आशुतोष महादेवजी ने साश्चर्य इन्द्र से पूछा कि देवराज! क्या बात है कैसे अधरी हुए जान पड़ते हो वह कारण तो बतलाओ क्या है जिससे तुम्हारी ऐसी अनुचित दशा हुई अथवा असुरगणों ने ही आक्रमण कर अमरापुरी ध्वंसित कर डाली क्या। महादेवजी के इस प्रत्युत्तर में इन्द्र ने कहा कि हमें दैत्य लोगों के युद्ध में कभी इतना आश्चर्यान्वित और क्लेशित होना नहीं पड़ा था जितना आधुनिक युद्ध में होना पड़ा है। क्यों कि जितनी युद्धोपयोगी सामग्री हम रखते हैं दैत्यों के अधिकृत भी उससे न्यून नहीं है अतः समकोटि के युद्ध में पराजय होने से योद्धा उतना लज्जास्पद नहीं हो सकता है जितना अल्पकोटि के युद्ध में पराजय होने से होता है। जिससे मेरा युद्ध हुआ है वह व्यक्तिमात्र है इस पर भी मात्र्यलौकिक मनुष्य जान पड़ता है जिसने कतिपय वीरों को मूच्र्छित और ऐसा अचेत कर डाला है जो पत्थर प्रतिमा की तरह भूमि पर प्रसृत हैं जिनके मुख से शब्द भी नहीं निकलता है। यह सुन श्रीमहादेवजी इन्द्र के साथ अमरापुरी को प्रस्थानित होने के लिये सहमत हो गये। जो कुछ ही अवसर में वहाँ पहुँचे और इन्द्र तथा अनेक देवताओं के सहित घटनास्थल बाग की ओर अग्रसर हुए। जब कुछ क्षण के पश्चात् बाग में गये तो आपने अग्रिमस्थलस्थ सम्मुखस्थित चर्पटनाथजी को देखा। उधर चर्पटनाथजी की दृष्टि जब सहसा महादेवजी के ऊपर पड़ी तो उन्होंने महादेवजी के चरणों में मानसिक नमस्कार कर इन्द्र को लक्ष्य करते हुए समन्त्र विभूति प्रक्षिप्त की जिससे इन्द्र की भी वही दशा हो गई। अर्थात् उसे अपने शरीर का कुछ भी भान नहीं रहा कि मैं कौन हूँ और कहाँ पर पड़ा हूँ। यह देख समस्त देवता लोग विस्मित हुए चर्पटनाथजी के विषय में अनेक प्रकार के प्रवाद करने लगे। परन्तु श्रीमहादेवजी ने चर्पटनाथजी को देखकर जान लिया था कि यह मत्स्येन्द्रनाथ का शिष्य चर्पटनाथ हमारा प्रशिष्य है। अतएव आप कुछ दूरी पर स्थित हुए देवता लोगों को अपने प्रशिष्य की विद्याओं का दिक्दर्शन करा रहे थे। श्रीमहादेवजी के इस अभिप्राय को चर्पटनाथजी भी समझ गये और उन्होंने एक चुटकी विभूति की फिर छोड़ी जिसके साथ औन्मादिक मन्त्र की योजना की गई थी इसी से समग्र देवता अपने-अपने वस्त्राभरण उतार-उतार कर लज्जारहित हुए पारस्परिक गायन और नृत्य करने लगे। यह देख नगर में बड़ा ही कोलाहल मच गया और उन्मत्त लोगों के गृहस्थ स्त्री बालक अतीव दुःखान्वित हुए। इसके अनन्तर श्रीमहादेवजी ने चर्पटनाथजी की ओर इशारा किया जिससे वे शीघ्रता के साथ आकर उनके चरणों में गिर पड़े तथा सहर्ष अतीव प्रेम के साथ नम्रतायुक्त बड़े ही सुकोमल शब्दों से महादेवजी की स्तुति करने लगे। यह देख प्रसन्न होकर श्रीमहादेवजी ने चर्पटनाथजी को अत्यन्त प्रेममयी वाणी से सत्कृत किया और आभ्यन्तरिक भाव से आनन्दित हुए चर्पटनाथजी को, तुमने मत्स्येन्द्रनाथजी का उपदेश चरितार्थ कर अपने आपको त्रैलौक्य प्रसिद्ध कर डाला, यह कहते हुए धन्यवाद दिया। तथा इन्द्र आदि देवताओं को सचेत करने की आज्ञा दी। चर्पटनाथजी ने श्रीमहादेवजी की आज्ञा को शिरोधार्य समझकर फिर अपनी भस्म पेटिका से विभूति निकाली और समन्त्र प्रक्षिप्त की जिससे इन्द्र तथा उसके सहकारियों की मूच्र्छावस्था अपहृत हुई। तदनन्तर श्रीमहादेवजी ने इन्द्र को चर्पटनाथजी का परिचय सुनाया और कहा कि आप अपने चित्त में कोई क्षोभ न करें चर्पटनाथजी ने तुम्हें पराजित करने की अनुचित आकांक्षा से यह चमत्कार नहीं दिखलाया है किन्तु इसलिये कि यह योगी है, योग विद्या में इसने असीम कुशलता प्राप्त की है तथा सावर विद्या का मर्म अच्छी तरह अन्वेषित किया है। अतः संसार के मोहान्धकार ग्रस्त और आलस्योपहत पुरुषोें को यह निश्चयात्मक ज्ञात हो जाय कि अल्पज्ञ होता हुआ भी मनुष्य यदि कुछ पुरुषार्थ करे तो वह कहाँ तक अग्रसर होने के लिये समर्थ हो सकता है अर्थात् अपनी प्रतिष्ठा और गौरवगरिमा सीमा कहाँ तक विस्तृत कर सकता है, यह सुनकर इन्द्र ने चर्पटनाथजी का हस्तग्रहण कर उनको अपनी छाती से लगाया और अतीवानन्द के साथ पारस्परिक मिलाप कर दोनों ही सहर्ष श्रीमहादेवजी की प्रशंसा करने लगे एवं अन्य देवता लोग भी श्रीमहादेवजी की स्तुति करते हुए अपने उस दुःख से निवृत्त होने के विषय में हर्षध्वनि करने पर उद्यत हुए और महादेवजी की आज्ञा को प्राप्त होकर निज-निज स्थानों को प्रस्थानित हो गये केवल देवराज इन्द्र ही वहाँ विराजमान रहा। जब समस्त देवता चले गये तो इन्द्र ने चर्पटनाथजी की फिर कुछ प्रशंसा की और कहा कि क्यों न हो जब आप देवों के देव महादेवजी के प्रशिष्य हैं तो ऐसा होना आपके लिये स्वाभाविक ही है अतः मैं चाहता हूँ कि जो मेरा तथा मेरे सेवकों का इस विषय में अपराध है उसको आप क्षमित कर दें। यह सुनकर चर्पटनाथजी ने कुछ हंसते हुए इन्द्र को विश्वासित किया कि निःसन्देह हमारा अभिप्राय जो श्रीमहादेवजी ने बतलाया है वही है इसमें आपका वा अन्य किसी का कोई अपराध नहीं। हाँ यदि हो सकता है तो वह भी हमारा ही है हमने नारदजी के कहने से बल्कि यह अनुचित किया कि ब्रह्मपुरी में विविध प्रकार के पुष्प होने पर भी आपकी वाटिका के पुष्प लुंचित किये। अनन्तर श्रीमहादेवजी ने देवराज को निज स्थान पर जाने की आज्ञा दी और जब पारस्परिक नमस्कार के पश्चात् इन्द्र प्रस्थानित हो गया तो स्वयं चर्पटनाथजी को अभीष्ट स्थान पर जाने का परामर्श देते हुए कैलास पर जाकर विराजमान हुए। उधर चर्पटनाथजी फिर सत्यलोकस्थ ब्रह्मपुरी में लौटकर गये और कुछ दिन में पार्विक समय समीप आ गया तो ब्रह्माजी की आज्ञानुसार तीर्थयात्रा के लिये ब्रह्माजी के साथ प्रस्थानित हुए। इधर नारदजी ने विचार किया कि सत्यलोक के तीर्थों की यात्रा में चर्पटनाथजी के सम्भवतः कतिपय दिन अवश्य लगेंगे अतः मेरा जब तक यहाँ व्यर्थ समय बीताना उचित नहीं है इसीलिये वे वहाँ से गमन कर गये और बैकुण्ठादि लोकों के भ्रमण करते हुए एक बार फिर सुरलोकस्थ अमरापुरी इन्द्र की नगरी में जा उपस्थित हुए। ठीक उसी अवसर पर इन्द्र ने, जो कि सभा के मध्यम भाग में एक रत्नकिरण भूषित उच्च सिंहासन पर विराजमान था उससे, उठकर नारदजी का सादर स्वागत किया और अन्योन्य अभिवादननान्तर किसी प्रसंग वशात् इन्द्र के मुख से यह शब्द उच्चरित हुआ कि अबके हमको कुछ विपद् उठानी पड़ी थी। तब हंसकर नारदजी ने कहा कि सम्भवतः कोई लड़ाई कराने वाला आ गया होगा। यह सुन इन्द्र कुछ लज्जित हुआ तथा कहने लगा कि बाबा क्षमा कीजिये हमने तो पारस्परिक हास्याह्लाद के उद्देश्य से ऐसा कह डाला था सो भी भविष्य में ऐसा नहीं होगा। इसके प्रत्युत्तरार्थ नारदजी ने कहा कि हमको भी उसी आपके उद्देश्य से ऐसा करना पड़ा है वस्तुतः हमारा वा चर्पटनाथजी का कोई द्वेष तो आपके साथ हो ही नहीं सकता है। ऐसा हो तो मात्र्यलौकिक मूढ़ लोगों और हमारे आप में विशेषता ही क्या हो सकती है अतः आप जानते ही हैं श्रीमहादेवजी के कथनानुसार हमारे जो चरित्र हैं अज्ञ लोगों की शिक्षार्थ हुआ करते हैं। एवं यदि चर्पटनाथजी जैसे अद्भुत शक्तिशाली द्वेषाभिलाषा से किसी के साथ झगड़ा उपस्थित कर अपनी विद्या नष्ट करें तो उस विद्या की प्राप्ति में उनका असीम क्लेश उठाना व्यर्थ ही हो जाय। इस प्रकार देवराज को आश्वासन देकर नारदजी पुनः ब्रह्मपुरी में गये और जब ब्र्रह्माजी के साथ तीर्थयात्रा से निवृत्त हो चर्पटनाथजी भी आ पहुँचे तब अन्य अभीष्ट तीर्थों की यात्रा करते हुए मात्र्यलौकिक यात्रा को लक्ष्य ठहराकर दोनों ही महानुभाव ब्रह्माजी की आज्ञानुसार वहाँ से प्रस्थानित हो गये और कुछ दिन में फिर बदरिकाश्रम में आकर निवास करने लगे।
इति श्रीचर्पटनाथजी तीर्थयात्रा वर्णन।

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