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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Friday, May 3, 2013

श्री मत्स्येन्द्रनाथ वीरभद्र युद्ध वर्णन

श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने जन्म-जन्मान्तरों के पापनाशक, अतिपवित्र सर्वतीर्थों में मान्य, श्रीगदातीर्थ में जाकर स्नान किया और उसी क्षेत्र में विराजमान श्री हरहरेश्वर महादेवजी का दर्शन किया। इसी प्रकार स्नान दर्शनादि करते हुए आपके कतिपय दिन व्यतीत हो गये। एक दिन अकस्मात् कहीं से आ निकलने वाले वीरभद्र से आपका मिलाप हुआ। उसे देखते ही आपने प्रथम प्रमाण करते हुए आदीश-आदीश शद्ध की घोषणा की और बड़े आदर सम्मान के साथ उसे अपना आसन प्रदान कर विनम्र भाव से उसकी कुशल वार्ता पूछी। इसी प्रकार अभिवादन प्रत्यभिवादन करते कराते आप लोगों का कुछ ही काल व्यतीत हुआ था, इतने ही में वीरभद्र कह उठा कि अये महानुभाव अन्य बात तो सब ठीक है आपके सत्कार और विनम्र भाव पर मैं आपको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ परं प्रथम यह बतलाने की कृपा कीजिये कि आपका ’ परिचय क्या है। यह सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी ने उत्तर दिया कि यदि आप केवल मेरे नाम से परिचित होना चाहते हों तो मेरा नाम मत्स्येन्द्रनाथ है। तदतिरिक्त संक्षेप से समस्त परिचय परिचय लेना चाहों। तो वह यह है कि मैं आपका छोटा ’ भ्राता हूँ। यह सुन वीरभद्र की भ्रूकुटी कुछ ऊपर को चढ़ गई। अतएव उसने कहा कि आपने निःसन्देह यह असत्य भाषण किया है। यदि आप मेरे भ्राता होते तो मुझ जैसे ही तो होते तथा मुझ जैसा पराक्रम और पौरुष भी रखते। इनका अभाव सूचित करते हुए भी आप मेरे भ्राता बनने का दावा रखते हैं तो इसका तो यही अर्थ हो सकता है जैसा कि किसी का अपने उद्देश्य से किसी उच्च कुल का नाम लेकर अपना गौरव बढ़ाना होता है। इस पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि पराक्रम और पौरुष कोई ऐसी वस्तु नहीं जो वस्त्रादि की तरह प्रत्यक्षतया शरीर पर धारण की जाती हों जिनको देखकर आप निश्चय कर लें कि हाँ इसके पास पराक्रम और पौरुष दोनों विद्यमान हैं। किन्तु वे तो क्रिया के पूर्व अप्रत्यक्ष रहते हैं। अतः उनके प्रत्यक्ष करने के लिये प्राप्तावसरिक क्रिया की अत्यन्तावश्यकता है। यह सुनकर कुछ देर तो वीरभद्र चकित सा हो मत्स्येन्द्रनाथजी के मुख की ओर देखत रहा तथा यह विचार करता रहा कि इसको किसका इशारा है  स्वयं निर्बल जैसा दीप पड़ता हुआ भी अपना पराक्रम प्रत्यक्ष दिखलाने के अभिप्राय से मुझे युद्धात्मक क्रिया आरम्भ करने के लिये बाध्य कर रहा है। अन्त में उसने कहा कि यह ठीक है पाराक्रमिक क्रिया के बिना किसी का पराक्रम प्रत्यक्ष नहीं होता है। परं मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या आपका पराक्रम भी इसी ढंग से अर्थात् युद्धात्मक क्रिया से ही प्रत्यक्ष होगा। मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि न तो मैं इस बात के लिये उत्कण्ठित हूँ और न मैंने यह इस अभिप्राय से कहा है कि आप मेरे साथ युद्ध करके मेरा पराक्रम देखें। किन्तु मैंने तो जो सत्य बात थी वही आपके अभिमुख कही है। इसका आप जैसा चाहें वैसा अर्थ लगा सकते हैं। वीरभद्र ने कहा कि खैर जो भी कुछ हो परन्तु पुरुष अपने आपकी जिस किसी भी कोटी में गणना करता हो उसके अनुकूल गुण प्राप्त करना ही उसे सर्वथा उचित है। अतः यदि आपने मेरा भ्रातृत्व ग्रहण किया है तो आपको चाहिये कि पौरषादि में मेरी समता प्राप्त कर लें। मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि आप मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं अतएव मुझे लज्जा आती है मैं जो पराक्रम प्राप्त कर चुका हूँ वह आपके सम्मुख नहीं दिखा सकता हूँ। कारण कि मेरे ऐसा करने से, आपके इस मन्तव्य में जैसा कि आप मुझे समझ बैठे हैं, धोखा उपस्थित होगा। जिसके द्वारा आपको ीाी अपने मन्तव्य पर पश्चाताप करना पड़ेगा। वीरभद्र ने कहा कि यदि यह बात है तो आप निःसन्देह रहैं अन्त में क्या होगा यह तो ईश्वर ही जानें परं इस समय आपके पराक्रम को देखने से मुझे जितनी प्रसन्नता होगी उतना धोखा कभी नहीं हो सकता है। मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि अच्छा फिर यह बतलाइये किस ढंग से आप मेरे पराक्रम की परीक्षा करेंगे। उसने कहा कि प्रािम मल्लयुद्ध से ही होनी चाहिये। अन्त में जैसा अवसर प्राप्त होगा उसके अनुकूल विचार किया जायेगा। यह बात मत्स्येन्द्रनाथजी को भी स्वीकृत हुई और दोनों महानुभावों का मल्लयुद्ध होना आरम्भ हुआ। युद्ध करते-करते बहुत देर हो गई दोनों में से कोई भी पराजित न हुआ। आखिर मत्स्येन्द्रनाथजी यह सोचकर, कि बड़ा भाई प्रसन्न हो जायेगा, जानकर नीचे गिर गये। उनका यह मनोभाव वीरभद्र से भी छिपा न रहा। अतएव इस व्यवहार से वह अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। उसने सोचा कि मत्स्येन्द्रनाथजी ने स्वयं पराजित हो मेरा अपमान किया है। कारण कि इसका यह अर्थ निश्चित हो सकता है कि मत्स्येन्द्रनाथ के पराजित करने में वीरभद्र असमर्थ था उसका मान रखने के अभिप्राय से मत्स्येन्द्रनाथ स्वयं पराजित हो गया। (यथार्थ में बात थी भी ऐसी ही। ईश्वर की अलक्ष्य गति के अनुसार, या यों कहिये कि इन महानुभावों ने अपना अतथ्य मनोमालान्य दिखलाकर सांसारिक लोगों को किसी प्रकार की शिक्षा देनी थी। खैर जो भी कुछ हो दोनों महानुभावों का आस्त्रिक युद्ध होना आरम्भ हुआ। वीरभद्र ने साधारण पुरुष की तरह प्रतीत होने वाले अपने छोटे भाई मत्स्येन्द्रनाथजी से प्राप्त हुए तिरस्कार का निवारण करने के लिये मल्लयुद्ध का परित्याग कर नागास्त्र का आश्रय ग्रहण किया। जिसके छोड़ते ही लपलपाती हुई जिव्हाओं वाले अनेक सर्प प्रकट हो मत्स्येन्द्रनाथजी की और दौड़े। यह देख मत्स्येन्द्रनाथजी ने उसके ऊपर समन्त्र गारुड़ास्त्र का प्रयोग किया। जिसने समस्त सर्पों का उपसंहार कर उसे बेकार कर डाला। यह देख वीरभद्र कुछ चकित सा हो गया और उसने फिर रुद्रास्त्र से प्रहार किया। उसके ऊपर मत्स्येन्द्रनाथजी ने अस्त्रास्त्र का प्रयोग किया। जिसने वीरभद्र के बाण को व्यर्थीभूत बना दिया। इसी प्रकार उसने जितने बाणों का प्रयोगित किया उन सबका मत्स्येन्द्रनाथजी ने न केवल निवारण ही किया बल्कि उनके सकाश से अपने आपका बाल तक भी बांका न होने दिया। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथजी को निर्बाध देखकर वीरभद्र ने युद्ध करना छोड़ दिया और अपने मन ही मन यह विचार करने लगा कि अहो क्या ही विचित्र घटना है मैंने कैसे-कैसे विक्राल अस्त्र छोड़े परं वे मत्स्येन्द्रनाथ को कुछ भी बाधित न कर सके। नहीं जानते यह कैसा पुरुष है मुझे तो इसको भ्राता कहने में ही घृणा दिखाई देती थी यह तो वह निकला जिसको हम ज्येष्ठ भाई कहें तो भी अनुचित नहीं हो सकता है। तदनु वह शान्त पुरुष की तरह हंसकर मत्स्येन्द्रनाथजी को धन्यवाद देने लगा। तथा कहने लगा कि भ्रातः बस परीक्षा हो चुकी आपका मेरा भ्रातृत्व सम्बन्ध बतलाना जहाँ मुझे नासिका संकुचित करने के लिये बाध्य करता था वहाँ अब मैं आपको अपना भ्राता समझने में अपना महान् गौरव निश्चित करता हूँ। यदि किसी प्रकार मेरी प्रमत्ता सूचित हुई हो तो क्षमा कीजिये। यद्यपि वीरभद्र ने इस तरह ऊपरीभाव से मत्स्येन्द्रनाथजी को प्रसन्न चित्त बना दिया। परं इस कृत्य से उसके आन्तरिक मर्म में गहरा आघात पहुँचा था। कारण कि जब वह आज तक किसी से भी तिरस्कृत नहीं हुआ था और उसने अनेक देव, दानव, किन्नर गन्धर्वों को निस्तेज बना डाला था। तब अपना मान मर्दन करने वाले मत्स्येन्द्रनाथजी के साथ वह अपनी आभ्यन्तरिक सहानुमति कैसे रख सकता था। खैर जो भी कुछ हो आभ्यन्तरिक हो वा बाह्य वीरभद्र की प्रसन्नता से मत्स्येन्द्रनाथजी भी अती वानन्दित हुए और वीरभद्र की विनम्र वाणी पर कृतज्ञता प्रकट करने लगे। (मेरे हृद्य पाठक इन्द्र, सम्भव है आप इस बात पर अरूचि प्रकट करते होंगे कि जब योगियों के लिये मोक्ष का साधन ज्ञान और ज्ञान का साधक निरन्तर सामाधिक अवस्था है, तब उसमें निरन्तर प्रवृत्ति न रखते हुए स्वकीय सिद्धियों के प्रयोग द्वारा किसी को नीचा ऊँचा दिखाने से क्या साध्य है अर्थात् ऐसा करना निष्प्रयोजन है। अतएव मत्स्येन्द्रनाथजी के, न केवल योगी हो कर बल्कि योगि समाज के प्रथम पुरुष होकर भी, ऐसा कर दिखलाने में कोई तत्त्वता प्रतीत नहीं होती है। परन्तु आपको इस परामर्श के पूर्व भद्रकाली के कथन पर ध्यान रखते हुए उसके मन्तव्य पर विश्वास करना चाहिये जैसा कि उसने बतलाया है कि आपका अपने कल्याण के लिये अनपेक्षित भी सिद्धि चमत्कार, मुमुक्षुजनों को अपनी ओर आकर्षित करने में सहायक और इसी हेतु से अपेक्षित तथा अव्यर्थ है। इसके अतिरिक्त सिद्धियों के प्रयोग में मत्स्येन्द्रनाथजी का और भी आश्य छिपा हुआ है और वह यह है कि आप इस बात को संसार में खूब प्रकट कर देना उचित समझते थे कि योग में निपुणता प्राप्त करना न केवल मोक्ष के अधिकारियों को ही लाभ पहुँचा सकता है, बल्कि जो मनुष्य संसार में अपना उत्कर्ष चाहते हैं, वा राष्ट्र निर्माण करना चाहते हैं, और सार्वभौम बनना चाहते हैं उनके लिये भी असाधारण लाभ पहुँचा सकता है। वे मनुष्य जो कार्य, लक्षों सैनिकों से कतिपय वर्षों तक पूरा नहीं कर सकते हैं, वही कार्य इस कुछ काल के प्रयत्न से साध्य योग के प्रभाव द्वारा बात की बात में सिद्ध कर सकते हैं। इसके विषय मे ंउदाहरण की अन्वेषणार्थ कहीं दूर जाने की आवश्यकता ही नहीं है। जिस वीरभद्र ने बड़े-बड़े योधाओं का अभिमान खण्डित कर दक्ष का यज्ञ ध्वंसित कर डाला था उसी वीरभद्र की मत्स्येन्द्रनाथ जी के सम्मुख एक भी बात ऐश न गई। अस्तु) जो भी कुछ हो असल बात तो यह है आज कल के हम लोग उनके अभिप्राय को समझ नहीं पाते हैं और अनभिप्राय को उनका समझ कर अपने आपको भूल के मार्ग पर चलाते हुए भी प्रसन्नता प्रकट करते हैं। और यदि कोई महानुभाव उसको सचमुच भूल समझकर उस पर स्वयं न चलता हुआ हमको ज्यों-ज्यों चेतावनी देता है और उस भूल के मार्ग पर चलने से करने का प्रयास करता है त्यों-त्यों हम अधिकाधिक उसकी पुष्टि कर उसी को ग्रहण कियें जाते हैं अस्तु)। श्री मत्स्येन्द्रनाथजी वीरभद्र से सत्कृत हो देशान्तर पर्यटन के लिये प्रस्तुत हुए।
इत्ति श्री मत्स्येन्द्रनाथ वीरभद्र युद्ध वर्णन ।

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