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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Tuesday, May 14, 2013

श्री रेवननाथोत्पत्तिवर्णन।


एक समय श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी विचरते हुए नर्मदा संगत रेवानदी के तटस्थ वुंधुल, नामक एक ग्राम की सीमा में पहुँचे। वहाँ रेवा के समीप ही एक बहुत अच्छा वन था जहाँ कई एक तालाब विमल जल से परिपूर्ण थे। अनेक प्रकार के वृक्षों की पंक्ति से बन अत्यन्त शोभायमान हो रहा था और ऐसा सघन था जिसमें निरन्तर गमन होना दुर्घट ही क्या असम्भव था। तथा अनेक प्रकार के व्याघ्र आदि हिंसक जीव भी उसमें अपना पूरा अधिकार किये हुए थे। अतएव मनुष्यों का आवागमन उसमें बहुत ही कम था। परन्तु मत्स्येन्द्रनाथजी तो इस प्रकार के हिंसक जीवों से उपस्थित होने वाले उत्पात की कुछ परवाह ही नहीं रखते थे इसी कारण से आपने उस ऐकान्तिक स्थान में ठहरकर कुछ दिन निवास करने का विचार किया और एक तालाब के तीर पर खडे हुए गहरी छाया वाले वटवृक्ष के नीचे स्वात्मा के निर्वाहानुकूल एक तृणमयी कुटिया निर्मित की जिसमें आप सुखपूर्वक अपना समय बिताने लगे। इसी प्रकार जब कई एक मास व्यतीत हो गये और प्रतिदिन फल-फूलों का आहार करने से जब आपका चित्त कुछ निर्विण्णतान्वित हुआ तब तो आपने एक दिन रोटी आदि का आहार करना चाहा। अतएव कुछ कोश के अरसे में स्थित वुंधुल नामक ग्राम को लक्ष्य ठहराकर उसकी तरफ चलना आरम्भ किया और कुछ ही देर में आप वहाँ आ पहुँचे तथा रोटी के लिये सुयोग्य गृहों के द्वार पर खडे+ होकर अलक्ष्य शब्द का उच्चारण करने लगे। यह सुनकर गृहिणियों ने बड़े प्रेम के साथ भोजन प्रदान किया। जिसको स्वात्मोदरपूर्ति के लिये पर्याप्त समझते हुए अधिक भोजन मांगना अनुपयुक्त जानकर आप पुनः स्वकीय कुटी को प्रस्थान कर गये। इसी प्रकार जब-जब कभी चित्त रोटी के लिये उत्सुक होता था आप तभी ग्राम से भिक्षा ले जाते थे। जब आपको इस वन में निवास करते हुए पूरा एक वर्ष हो गया और इस ग्राम में भी आप कई एक चक्र लगा चुके तब कतिपय मनुष्यों ने आपके विषय में सन्देह प्रकट किया। वे कहने लगे कि ये महात्मा कभी-कभी भिक्षार्थ ग्राम में आते हैं मालूम होता है कहीं रेवा के तटस्थ ऐकान्तिक स्थान में निवास करते होंगे। इनका आचरण बहुत ही अच्छा जान पड़ता है। ये अवश्य कोई महासिद्ध आनन्दी योगी हैं जो जीवन मुक्ति का पूरा सुख प्राप्त कर रहे हैं (अस्तु) अकस्मात् अगले दिन फिर श्री मत्स्येन्द्रनाथजी भिक्षार्थ वहीं आ निकले तत्काल ही उनको देखकर एक पुरुष ने, जो कि क्षत्रिय जाति का था, अपने आभ्यन्तरिक विचार से निश्चय किया कि ऐसे पूछंूगा तो महात्मा निप्परवाह होते हैं सम्भवतः मेरे को ठीक पता बतलावें वा नहीं। अतः आज इनके पीछे-पीछे चलकर गुप्त रीति से इनका निवासाश्रम देखना चाहिये। अनन्तर यथा शक्ति इनकी सेवा कर कुछ अपना अभीष्ट प्राप्त करके मुझे इस असार संसार के भोगों को सफल करने का सौभाग्य प्राप्त हो सकेगा। (अस्तु) जब श्री मत्स्येन्द्रनाथजी भिक्षा करके अपने आश्रय को चले तभी वह भक्त भी उनका अनुयायी हुआ और अत्यन्त कुशलता के साथ अपने आपको प्रकट न करता हुआ नाथजी के निवास का अवलोकन कर अपने गृह को लौट आया। वहाँ आते ही उसने आभ्यन्तरिक भाव से निश्चय किया कि आज से आरम्भ कर प्रतिदिन नियम से मैं महात्माजी की सेवा में उपस्थित हुआ करूँगा। अतएव सायंकाल होने पर एक ताम्रमय बर्तन को दूध से परिपूर्ण कर वह सश्रद्धा महात्माजी के उद्देश्य से उनके सम्मुख चला। यद्यपि वह वन अनेक प्रकार के व्याघ्रादि दुष्ट हिंसक जीवों से परिपूर्ण था तथापि उस सद्गृहस्थ महानुभाव की बहु दृढ़ भक्ति ने, वा उसकी अत्यन्त उत्कट फल प्राप्ति की इच्छा ने, उसका निर्मल हृदय इतना वज्रवत् कठिन कर डाला था कि उन हिंसक प्राणियों से सम्भवित आकस्मिक विघ्न की वह किंचित् भी परवाह न करता था (अस्तु) जब वह अकस्मात् पहुँचकर श्री मत्स्येन्द्रनाथजी के आगे दूध रखता हुआ उनके चरणों में गिरा और दूध स्वीकृत करने के लिये उनको सूचित करने लगा तब तो श्री मत्स्येन्द्रनाथजी सहसा बोल उठे कि अरे! तू कौन है इस प्रकार के हिंसक जीवों से पूरित वन में कैसे आया क्या कोई हिंसक जीव तेरे को मार्ग में उपलब्ध नहीं हुआ जिससे निर्विघ्न आ पहुँचा। इसका प्रत्युत्तर देता हुआ कृषक कहने लगा कि भगवन्! यहाँ से कुछ दूरी पर वुंधुल नामक एक ग्राम है उसी में यह दास निवास करता है और यथा शक्ति आपकी सेवा करना चाहता है। दुष्ट व्याघ्रादि जीवों से पूर्ण इस वन के मार्ग द्वारा निर्विघ्न आ पहुँचने का उत्तर यह है जब आप जैसे अद्वितीय महायोगेश्वरों की सेवार्थ ही उनकी शरण में प्राप्त होना है अतएव उस पुरुष के ऊपर जब उनकी पूर्ण कृपामयी दृष्टि है तो मेरा आनुमान है आरण्य हिंसक जीवों की तो कथा ही क्या है काल भी उस पुरुष के ऊपर अपना बलात्कार नहीं कर सकता है। तदनुकूल ही मेरे को भी समझ लेना चाहिये अर्थात् मेरे ऊपर भी आपकी कृपा दृष्टि है यही कारण है जिससे मेरा निर्विघ्न आगमन हुआ। अन्यथा ऐसा होना दुर्घट ही क्या असम्भव ही था (अस्तु) पश्चात् श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि अच्छा जो कुछ हुआ सो हुआ परन्तु फिर कभी ऐसे विपरीत समय इस वन में नहीं आना हम आज का दूध तो अपने व्यवहार में ले सकते हैं फिर कभी स्वीकृत नहीं करेंगे। क्योंकि इस समय हमने फल-फूलों का आहार करके ही कुछ दिन व्यतीत करने का निश्चय किया है इस पर भी कभी रोटी के लिये उत्कट इच्छा होती है तो ग्राम से भिक्षाकर यथा प्राप्त रोटी द्वारा अपने चित्त को सन्तुष्ट करते हैं। अतएव यदि दूध का भी कोई दिन उपभोग कर लिया तो प्रकृत निश्चय सविघ्न हो जायेगा। इसके अनन्तर कृषक ने बड़ी श्रद्धा के साथ महात्माजी के चरण ग्रहण किये और वह कहने लगा कि भगवन्! यह आप लोगों की आभ्यन्तरिक महती कृपा है जिस वशात् में इतना अवश्य निश्चय रखता हूँ कि आपको न तो कोई फल के आहार की आवश्यकता है न दूध और रोटी के आहार की ही आवश्यकता है तथापि आप ग्राम में जाकर अत्यन्त मामूली वस्तु दो रोटी के लिये प्रार्थना करते हो यह केवल अपने आपको छिपाकर सांसारिक मेरे जैसे अज्ञान रूपान्धकार से आच्छादित हुए जीवों के कृत्यों का निरीक्षण करते हो। यही नहीं निजभक्तों को किसी कुत्सित कृत्य में संलग्न देखते हो तो उसका उद्धार कर उसे सांसारिक इतिहास में अग्रणनीय बना डालते हो (अस्तु) यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी ने विचार किया कि यह तो बड़ा ही सुबोध तथा अधिकारी पुरुष मालूम होता है अतएव कुछ जिव्हा दबाकर मन्दवाणी से (अच्छा तेरी इच्छा) यह कहते हुओं ने अपने चित्त को अनुकूल सूचित किया। अर्थात् खुलकर आज्ञा ने देकर अपने आभ्यन्तरिक भाव से मन्दवाणी द्वारा मानों प्रतिदिन दूध स्वीकार करने की आज्ञा दे ही डाली। इसीलिये वह भक्त भी दूध को महात्माजी के समर्पण कर सानन्द स्वकीय गृह पर आ गया और फिर अग्रिम दिन भी उसने तद्वत् ही किया। इसी क्रम से सेवा करते-करते 2 बारह वर्ष पूरे हो चले। तब तो आभ्यन्तरिक रीति से श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने वहाँ से प्रस्थान करने का संकल्प कर यह भी निश्चय किया कि इस भक्त ने हमारी बहुत सेवा की है और हमारी सेवा के लिये अपने शरीर को तुच्छ समझकर इसने अपनी दृढ़ भक्ति द्वारा अपने ऊपर होने वाली कृपा का हमारे हृदय में अंकुर उत्पन्न कर डाला है। अतएव आज किसी प्रकार से वर को स्वीकृत करने के लिये उसको अवश्य विज्ञापित कर उसके अभीष्ट की सिद्धि करेंगे। (अस्तु) जब वह भक्त नियत समय पर दूध लेकर वहाँ आया तब श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने उससे कहा कि भक्तजी यहाँ निवास करते रहते हमारे आज पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये हैं अब हम चाहते हैं कि देशान्तर की शैर करें। इसीलिये निश्चय है हम यहाँ पर अब बहुत दिन नहीं ठहरेंगे अतएव तुमने बड़ी श्रद्धा के साथ जो हमारी सेवा की है उसके प्रत्युकारार्थ हमसे कोई अभीष्ट वर मांगो। जिससे हम भी बिना ही विलम्ब से उसकी पूर्ति कर सेवा को सार्थक्य करते हुए कृत कार्य हो जायेंगे। यह सुन कृषक ने अत्यन्त ही हर्ष के साथ आभ्यन्तरिक भाव से प्रसन्न होकर कहा कि भगवन््! आपकी महती कृपा के प्रताप से न तो मेरे गृह में उपभोग साधनी भूत किसी पदार्थ की न्यूनता है और न कोई शरीर में ऐसी व्याधि ही है जो दिन-रात्री मेरे को व्यतिथ करती हो। एवं न आपसे अधिक महात्मा वा देवता के दर्शन करने की ही मेरे को इच्छा है। किन्तु जिस बात की मुझे चिन्ता है तथा जिस बात का उद्देश्य लेकर मैं आपकी सेवा में प्रवृत्त हुआ हूँ उसकी पूर्ति करने के लिये आप प्रसन्न चित्त हो जायें। वह बात क्या है उसको मैं अब आपके समक्ष स्फुट ही कर देता हूँ इस अवस्था तक मैं कई एक विवाह कर चुका हूँ तो भी इस समय तक अपने अभीष्ट को प्राप्त न हो सका हूँ। अर्थात् मेरी पत्नी मुझे एक भी पुत्र का मुख न दिखलाकर स्वयं अगम लोक की यात्रा में तत्पर हो गई। तदनन्तर मैंने कुछ निराश होकर एक विवाह और भी कर ही डाला था। जिसका फल यह हुआ कि इस स्त्री के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ उसकी उत्पत्ति मात्र से मैं अत्यन्त सन्तोषित हुआ था और परमात्मा की कृपा के मुझे अपने ऊपर अच्छे लक्षण दीखने लगे थे। यही नहीं मैंने यहाँ तक विश्वास कर लिया था कि अब तक अपुत्र रहकर मैंने संसार के भोगों को अवश्य निष्फल कर डाला है परन्तु अब प्रेमपूर्वक पुत्र के हास्यमय लाड द्वारा उनको सफल करने का सौभाग्य प्राप्त होगा। परं हतभाग्य क्या करूँ अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ता है वह मेरा मनोरथ सिद्ध न हुआ। उत्पत्ति के अनन्तर कुछ ही दिन व्यतीत होने पर दुष्ट विक्राल काल ने शीघ्र ही मेरे एकमात्र उस पुत्र रत्न को अपने पंजों में दबा लिया। जिसके मरण को देख हमारे ऊपर घोर विपत्तियों का वज्रपात हुआ। उसको सहलेना सामान्य बात नहीं थी परन्तु उपायान्तराभाव से कब तक क्या किया जाता था आखिर रो पीटकर शान्त ही होना पड़ा (अस्तु) अब अधिक क्या कहूँ जो कह डाला है यह भी व्यर्थ ही है। क्यों कि आप स्वयं अन्तर्यामी है। अतएव कोई वृत्त आप से छिपा हुआ नहीं है जिसकी मुझे विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता हो। इस वास्ते अब मैं चाहता हूँ कि सर्व योग्य गुण सम्पन्न मातापितृभक्त पुत्र प्रदान के लिये ही आप मेरे ऊपर प्रसन्न हो जायें। भक्तजी के ऐसे करूणामय वाक्य सुनकर श्री मत्स्येन्द्रनाथजी का कोमल पवित्र हृदय दयामय होने पर भी अधिक दयाद्र्रीभूत हो गया। परन्तु जब दिव्य दृष्टि द्वारा देखा कि इसको पुत्र द्वारा यथेष्ट सुख प्राप्त होना असम्भव है क्योंकि ऐसा पुत्र कोई भी इसके निमित्त में नहीं है जो इसके गृह में रहकर अपने आत्मिक परिश्रम से इसको सुख दे सके। अतएव अन्त में अगत्या श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने स्फुट ही कहना पड़ा कि भक्तजी तुम्हारी इच्छा के अनुकूल इच्छा के अनुकूल पुत्र तुम्हारे निमित्त में नहीं है यही ईश्वराज्ञा है। अतः किसी अन्य वर की याचना करो जिससे हम शीघ्र ही उसको तुम्हारे लिये प्राप्त कर सकेंगे। इसके बाद कृषक ने कहा कि भगवन्! मैं अन्य किसी वस्तु का अभिलाषी नहीं हूँ केवल पुत्र प्राप्ति के लिये ही उत्कण्डित हूँ यदि आप आभ्यन्तरिक भाव से प्रसन्न हो गये हो तो उसी की प्राप्ति का यत्न करें। तब श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि भक्तजी हम सत्य कहते हैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुमको तुम्हारे गृह में रहता हुआ अपने शारीरिक प्रयत्न से सुख देने वाला पुत्र तुम्हारे निमित्त नहीं है। हां यदि थोड़े दिन के लिये सपुत्र बनना चाहते हो और फिर शीघ्र ही उसके वियोग होने पर उसके विषय में पुनः दुःख उठाना चाहते हो तो अवश्य हम ऐसे पुत्र की उपलब्धि कर सकते हैं। इसमें भी इतनी बात और ध्यान देने योग्य है हमारे सकाश से उपलब्ध होने वाला पुत्र न्यून अवस्था में ही अवश्य अपने वियोग द्वारा कुछ दिन के लिये तुमको व्यथित करेगा परन्तु वह विक्राल काल के पंजों में नहीं आवेगा। किन्तु सजीव ही किसी महात्मा की शरण लेकर वह वस्तु प्राप्त करेगा जिसके द्वारा स्वयं भवरूप सागर के पार होता हुआ तुमको भी पीछे न छोड़ेगा और संसार के इतिहास में तुम्हारे वृत्त को अमर कर डालेगा। इस वास्ते ऐसे पुत्र की अभिलाषा है तो कहिये-कहिये शीघ्र कहिये जिसको प्रदान कर हम अपने आपको कृतज्ञतान्वित करें। यह सुनते ही कृषक श्री मत्स्येन्द्रनाथजी के चरणों में गिरा और कहने लगा कि अच्छा-अच्छा बहुत अच्छा भगवन्! यदि आपकी ऐसी ही कृपा है तो और क्या चाहिये। हम लोग अधिक समय कृषी कार्य में संलग्न करते हैं अतएव प्रायता से हम लोग स्थूल बुद्धि वाले ही हुआ करते हैं यही कारण था मैंने इस बात का स्वप्न में भी कभी स्मरण नहीं किया था कि मेरा इतना बड़ा भाग्य है जो ऐसे प्रसिद्ध अद्वितीय महानुभाव का मेरे गृह में प्रादुर्भाव होना सम्भव है (अस्तु) इसके बाद श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने सहर्ष अपनी झोली से एक चुटकी विभूति निकालकर मन्त्र जापपूर्वक भक्तजी के अर्पण की। तथा कह सुनाया कि गृह में पहुँचते ही अभी इसको अपनी पत्नी को खिला देना भूलना नहीं। यदि प्रमत्ता से इसको कहीं अन्य जगह पर डाल देगा और अपनी स्त्री को न खिला सकेगा तो महान् अनर्थ हो जायेगा। तथा तेरे लिये ऐसा कर बैठना मंगल प्रद न होगा और लेने के देने पड़ जायेंगे। तब तो कृषक श्री मत्स्येन्द्रनाथजी के चरणों का स्पर्श करता हुआ सहसा बोल उठा कि नहीं-नहीं भगवन्! आप निस्सन्देह रहें ऐसा विपरीत अनर्थोत्पादक कृत्य कभी नहीं होगा। मैं अत्यन्त विश्वास के साथ कहता हूँ गृह पहुँचते ही आपकी आज्ञा पूरी करके अन्य कार्य में तत्पर रहूँगा। अनन्तर श्री मत्स्येन्द्रनाथजी बोले कि अच्छा अलक्ष्य पुरुष करे ऐसा ही हो। परन्तु अब गृह को जाइये समय कम रह गया है उधर से हमने भी आज ही यहाँ से प्रस्थान करने का निश्चय किया है। फिर भी कभी यथेष्ट समय पर आकर तुमको दर्शन देवेंगे तथा तुम्हारे पुत्र का उच्च भाग्य स्फुट करेंगे। (अस्तु) इतना वचन कहकर (अच्छा तुम्हारा कल्याण हो हम तो अब चलते हैं) इस प्रकार आशीर्वाद देते हुए श्री मत्स्येन्द्रनाथजी तो वहाँ से गमन कर गये और कृषक साल्हाद विभूति लेकर स्वगृह में पहुँचा और उसने जाते ही श्री मत्स्येन्द्रनाथजी की आज्ञानुसार उसे अपनी को खिला दिया। पश्चात् अपनी स्त्री को भी मत्स्येन्द्रनाथजी की प्रसन्नता के विषय में सूचित किया कि एक अद्वितीय महायोगेश्वर की हमारे ऊपर कृपा दृष्टि हुई है उन्होंने ही यह विभूति दी है जिसके प्रताप से हम अब अपुत्र न रहेंगे अवश्य निर्दिष्ट समय पर हमको ऐसे पुत्र की उपलब्धि होगी जिस वशात् इस संसार में हमारा नाम प्रसिद्ध और चिरस्थायी हो जायेगा। यह सुनकर कृषक पत्नी भी अतीवानन्दित हुई और उसने सहर्ष आकस्मिक होने वाली ईश्वर की दयालुता के विषय में असंख्य धन्यवाद दिये। अनन्तर विलक्षण पुत्रोत्पत्ति के आनन्दमय शुभ दिन की ओर निरन्तर दिन-रात टक-टकी लगाये रहते हुए पति-पत्नि का सानन्द कुछ समय व्यतीत हुआ। उन दोनों को प्रतिरात्री में अतीव अभिलाषी, चंचल गति, स्वकीय मन द्वारा पुत्र का खेलाना और प्रतिदिन शुभ लक्षण दीख पड़ने लगे। इसी हेतु से भक्त ने सश्रद्धा निश्चयात्मक समझ लिया कि अवश्य अब हमारा भाग्य पलटा खायेगा तथा महात्माजी के अमोघ वचन का पूरा परिचय लेकर हम इस ग्राम में ही नहीं किन्तु समस्त देश मात्र में अपने आपकी प्रसिद्धि तथा कीर्ति श्रवण करेंगे। (अस्तु) कतिपय दिन के पश्चात् उसकी पत्नी के उदर में श्री मत्स्येन्द्रनाथजी की अनिष्फल मन्त्र संशोधित विभूति के दुःसह्य प्रभाव से अन्तर्गत संकुचित स्थान को विस्तृत करने लगा तब तो उसने पति से साफ-साफ कह सुनाया कि भर्तः! बस आज से आप मुझे पुत्रवत्ती समझ लें। यदि अभी यह बात सविकल्प कही रह रही हो तो कुछ दिन और शान्त रहो फिर तो मेरी कोई आवश्यकता ही नहीं मेरा उदर स्वयं ही आपके निश्चय कराने के लिये प्रस्तुत हो जायेगा। यह सुनकर कृषक और भी निःसन्देह हो गया और उसकी यहाँ तक आशा की पूर्ति हो गई मानों पृथिवी भी इधर से उधर हो जाय परन्तु पुत्र न होगा ऐसा कभी नहीं हो सकता है। (अस्तु) कतिपय दिन के अनन्तर उसकी स्त्री का मुख अतीव कान्तिमय हो गया इसी क्रम में प्रतिदन उसके प्रत्येक अंग की शोभा कुछ विलक्षण जैसी ही होती दिखाई देती थी जिस वशात् थोडे ही दिनों में उसके अतीव मनोहर प्रबल स्वरूप ने स्वर्गस्थ रमणीय अप्सराओं के स्वरूप को पराजित कर सर्व साधारण के समक्ष अपनी विजय को सूचित किया। उसके अवलोकनान्नतर भक्तजी इस प्रकार के संकल्प विकल्पमय सागर में मग्न हो गये कि (अहो) जिसके उदर में सम्भव मात्र से मेरी पत्नी का ऐसा अद्वितीय असह्य स्वरूप हो गया तो नहीं कह सकते हमारा पुत्र इससे कितने अधिक रम्य सौन्दर्य वाला होगा। (अस्तु) इसी प्रकार कुछ दिन व्यतीत होने पर उसके प्रतापी पुत्र का उत्पत्ति समय भी अतीव निकट आ पहुँचा यह देख शीघ्र ही अन्य ग्राम निवासी सम्बन्धियों को उसने इस वृत्त से सूचित किया जिसके श्रवण मात्र से कितने ही इधर-उधर के ग्रामान्तरवासी स्त्री-पुरुषों ने उसके गृह को वहाँ आते ही संकुचित बना डाला। ठीक इसी अवसर में प्रिय दर्शन चमसनारायण के अवतारी उस लड़के का प्रादुर्भाव हुआ जिसका उदर से बाहर निःसरण होने से एक बार तो इतना अधिक प्रकाश हो गया कि कुछ क्षण के लिये माता उपमाताओं के नेत्र इस प्रकार त्यक्तव्यापार हो गये थे जैसे सुषुप्ति अवस्थागत होते हैं (अस्तु) तत्काल ही समस्त नगर में सूचना दे दी गई अतएव प्रत्येक अनुकूल गृहों में मधुर ध्वनिमय मंगलप्रद गीत गाये जाने लगे। उधर भक्तजी ने यथाशक्ति प्रसन्नचित्त होकर क्षुधार्त अनेक दीन पुरुषों को दान-पुण्य करना प्रारम्भ किया अतएव भक्तजी के उदार हृदय का परिचय लेते हुए बहुत से लोगों ने मुक्त कण्ठ से उसकी प्रशंसा करी और इस पुत्रोत्पत्ति से जायमान उत्सव को एक अद्वितीय उत्सव बतलाया (अस्तु) इस प्रकार सानन्द जब यह समारोह समाप्त हो गया तब ग्रामान्तर से आये हुए लोग अपने-अपने गृह को प्रस्थान कर गये। इधर कृषक ने अच्छे-अच्छे सुयोग्य विद्वान् ब्राह्मणों को बुलाकर उनके द्वारा स्वकीय पुत्र का यथोचित्त सर्व संस्कार कराया और रेवन नाम से अलंकृत किया। लड़का भी बड़ा सुशील योग्य गुण सम्पन्न और मनोरंजक था जिसके गुणों पर सच्चे हृदय से उसके माता-पिता बलिहारी ही नहीं अपने प्राण तक न्योछावर करने तक तैयार रहते थे (अस्तु) इसी प्रकार जब आनन्दमय समय व्यतीत होकर पूरे बारह वर्ष बीत चले तब स्वजाति के व्यापारानुकूल वह लड़का भी कुछ कृषी कृत्य में प्रवृत्त होने लगा। एक दिन वह एकाकी ही जाकर जब अपने क्षेत्र में कर्मरत हुआ तब कुछ ही देर के बाद उधर से अकस्मात् श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी भी वहाँ आ निकले और एक गहरी छायामय वृक्ष के नीचे उस लड़के के सम्मुख ही विराजमान हुए। क्योंकि श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी यह तो सम्यक् मालूम ही था कि यह वही चमसनारायण का अवतारी लड़का है और यही उनका वचन भी था कि हम फिर अनुकूल समय पर वापिस लौटेंगे अतएव ठीक समय पर वहाँ प्राप्त होकर श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने अपना वचन पूरा किया और उक्त लड़के को अब इस संसार के दुरय जटिलजाल से शीघ्र ही विमुक्त करना उचित समझा (अस्तु) श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी को सम्मुख बैठे देखकर सहसा लड़के रेवन के चित्त में विचार उत्पन्न हुआ कि कोई महात्मा बैठे हैं इस समय धर्म का बड़ा जोर है इसी हेतु से ये ग्राम तक न पहुँचकर यहीं विश्राम कर बैठे हैं अतः सम्भव है ये क्षुधार्त भी होंगे इनको रोटी के लिये पूछना चाहिये। इसके अनन्तर अपने वास्ते गृह से लाई हुई रोटियों को लेकर वह लड़का वृक्ष की छाया में स्थित महात्माजी के सम्मुख चला और वहाँ जाकर नम्रता युक्त नमस्कार पूर्वक कहने लगा महाराज! आप तो बड़े ही सुख का अनुभव कर रहे होंगे मेरी ओर देखो मैं कितना दुःखी हूँ नीचे से उष्ण भूमि अपना रंग दिखला रही है और ऊपर से सूर्य अधिकाधिक धूप द्वारा शरीर को सन्तप्त किये जा रहा है। यह सुन कर श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी अपने महन ही मन में मुस्कराने लगे और कहने लगे कि हाँ भाई ऐसी ही बात है यह किसी मनुष्याधीन बात नहीं है जो कि सूर्य को शान्त करने का प्रयास करे किन्तु यह ईश्वराधीन ही है उसी के प्रबल मनोरथ मात्रा से सूर्य प्रकाशमान है जो अपने स्वाभाविकोत्पन्न असह्य प्रताप द्वारा समस्त सृष्टि को उत्तप्त करें जा रहा है (अस्तु) पश्चात् लड़के ने कहा कि महाराज! आपको क्षुधा लगी होगी इसलिये मेरी इच्छा है आप एकार्ध रोटी का कलेवा करें धूप शान्त होने पर फिर ग्राम को पधारना और यथेष्ट भिक्षा करना। यद्यपि श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी उस लड़के के ऊपर प्रथमतः ही प्रसन्न थे तथापि इस प्रकार की उसकी नम्र प्रार्थना और श्रद्धा देखकर अतीवानन्दित हुए और अपने आगमन को तथा उसकी भक्ति को सार्थक करने के लिये आपने लड़के को एक मन्त्र बतला दिया जो कि अन्नपूर्णा के प्रसन्न होने का था और साथ-साथ यह भी दृढ़ समझा दिया कि इसका प्रतिदिन पाठ करना अन्य किसी पुरुषों को इससे परिचित न कर बैठना (अस्तु) इसी प्रकार की पारस्परिक वार्ता करते-करते उधर से सायंकाल होने को आया यह देख श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि अच्छा आये तो हैं ही चलो तुम्हारे पिता से भी मिल चलते हैं। यह सुनकर लड़के ने भी अपनी सम्मति दी और कहा कि धन्यभाग ऐसा करें तो अत्यन्त ही खुशी की बात है चलिये महाराज। तत्काल ही दोनों ग्राम को गये वहाँ जाते ही जब भक्तजी ने महात्माजी को देखा है वह उसी समय अत्यन्त नम्र होकर उनके चरणों में गिर पड़ा। तथा कहने लगा कि हे दीनबन्धों कृपानिधान आपने अकस्मात् बड़ी कृपा करी स्वयं ही गृह पर आकर अपने मंगलप्रद शुभसूचक पवित्र दर्शन से हम पापी जीवों को पवित्र किया है अतएव अब हमारे योग्य जो सेवा हो उसकी पूर्ति के लिये आप हमको सूचित करें जिसको यथासाध्य विधि से पूरी कर हम आपके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करें। तदनन्तर श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि इस समय हम तुम्हारे से कोई सेवा नहीं लेनी चाहते हैं किन्तु अब तो केवल हम अपने पूर्वोक्त वचन की पूर्ति करने के लिये ही यहाँ आये हैं। हाँ यदि कुछ दिन बीतने पर तुम्हारे योग्य कोई कार्य उपस्थित होगा तो हम अवश्य उसके लिये तुम को सूचित कर तुम्हारी वचनपटुता की परीक्षा लेंगे। इस समय किसी कार्य विशेष के वास्ते हम देशान्तर को जायेंगे इसीलिये अधिक निवास करना उचित नहीं समझते हैं अतः अब जाते हैं जगदीश करे तुम्हारा कल्याण हो, यह कहकर श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी तो वहाँ से प्रस्थान कर गये। उधर उसी दिन से रेवन ने समस्त कार्य का परित्याग कर श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी के प्रदान किये हुए मन्त्र का जप करना आरम्भ किया जिस वशात् अन्नपूर्णा प्रसन्न होकर रेवन के सम्मुख उपस्थित हुई तथा कहने लगी कि बेटा कह किस कार्य के लिये तूने मेरा आव्हान किया है। रेवन बोला मातः! जिस वृत्त का उद्देश्य लेकर मैंने आपका आव्हान किया है क्या वह वस्तुतः आपे से छिपा हुआ है। किन्तु जिस समग्र विश्वव्यापी शुभ यश से आप ध्वलित हुई सर्वमान्य बनी बैठी हैं और जिस अखण्ड यश से आप बाल से वृद्ध तक के हृदय में अपनी पूरी स्थिति जमायें हुए हैं तथा जिस दुष्प्राय अन्नवृद्धिरूप सिद्धि से आप अन्नपूर्णा कहलाती हैं उसी अद्वितीय कीर्तिप्रद सिद्धि का वचन प्रदान करने के लिये प्रसन्न होकर आप मेरे उत्कृष्ट भाग्य की सूचना दें। यह सुनकर अन्नपूर्णा माईने, अच्छा ऐसा ही होगा तू अब से आगे जी खोलकर अन्न सम्बन्धी व्यवहार करना उसमें कभी न्यूनता नहीं आवेगी, यह कहकर स्वकीय आश्रम को प्रस्थान किया। ठीक उसी दिन से बिना ही विशेष प्रयत्न के अन्न की वृद्धि होने लगी अतएव रेवन ने अपने पिता को समझा दिया कि दीन लोगों के लिये अन्न क्षेत्र प्रचलित करो उसमें जितना अन्न खर्च करना चाहो उतना ही करना कोठा कभी खाली नहीं होगा। अपने पुत्र का यह वचन सुनकर तथा श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी के आगमन का स्मरण कर भक्तजी को दृढ़ विश्वास हो गया कि ऐसा होना इसके लिये कोई बड़ी बात नहीं है श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी की कृपा से प्रेरित हुआ ही पुत्र ऐसा कह रहा है सम्भव है नाथजी, जो उनका अभी आगमन हुआ था तब इसको अन्न सिद्धि विषयक कोई मन्त्र बतला गये होंगे (अस्तु) उसने स्वपुत्र के कथन मात्र से अनेक उपयोगी जगह पर अन्न क्षेत्र प्रचलित किये जिनके द्वारा प्रेममय भोजन प्राप्त कर अनेक दीन लोगों का सुखमयकाल व्यतीत होने लगा अतएव क्षेत्र द्वारा अन्न पाने वाले मनुष्यों की मुक्तकण्ठोच्चरित वाणी से उन दोनों पिता-पुत्र का प्रतिदिन यश गाया जाने लगा। यही नहीं इस वृत्त की ध्वनि ने, देशान्तरों तक भी विस्तृत होकर, उनकी स्वच्छ कीर्ति को हर एक मनुष्य के हृदय में स्थापित किया। (अस्तु) इस प्रकार जब उनके सानन्द कीर्तिमय कुछ दिन बीत गये तब एक दिन उसी नगर में कहीं से विचरते हुए श्रीगोरक्षनाथजी भी आ पहुँचे और नगर के बाह्य स्थल में एक सुन्दर तालाब के ऊपर उन्होंने अपना आसन स्थिर किया और ज्यों ही भोजन का समय आया त्यों ही आप अपना भिक्षापात्र धारण कर भिक्षा के लिये नगर में पहुँचे। बस क्या था आप ज्यों ही नगर के दरवाजे पर गये त्यों ही लोगों ने आपको सूचित करना आरम्भ किया कि रेवन का क्षेत्र खुला हुआ है महाराज! आप वहाँ जावें जैसी आपकी इच्छा होगी वैसा ही भोजन मिलेगा। गोरक्षनाथजी से भी यह वृत्त छिपा नहीं था तथापि आप लोगों से पूछने लगे कि कौन रेवन है और उसको इस परोपकार के लिये किसने उत्साहित किया है जिसने इस प्रकार यहाँ के एवं देशान्तर के आने वाले गरीब मनुष्यों के वास्ते इतना अनुकूल आराम कर रखा है। यह सुन लोगों ने कहा कि रेवन एक क्षत्रिय का बालक है उसने किसी महात्मा के द्वारा उपलब्ध हुए मन्त्र से अन्नपूर्णा को प्रसन्न किया है अतएव उसी की प्रेममयी अखिल कृपा के सकाश से रेवन इस कृत्य में कुशल जान पड़ता है बल्कि ऐसा ही श्रोत परम्परा से हम लोगों ने निश्चयात्मक समझा है। इसके अतिरिक्त जो कुछ यथार्थवृत्त है उसको आप ही जानते होंगे क्यों कि आप महात्मा हैं आप जैसे महायोगेश्वरों को सृष्टि मात्र का वृत्त हस्तामलक की सदृश प्रत्यक्ष रहता है (अस्तु) लोगों की साथ इस प्रकार वार्तालाप होने पर भी गोरक्षनाथजी रेवन के क्षेत्र मेें न जाकर अन्य भक्त लोगों के गृह से भिक्षा ले वापिस ही लौट आये और अपने आसन पर बैठते ही आपने ऐसा मन्त्र पढ़ा जिसके वश हुए नाना प्रकार के पक्षी और पशु, तथा मनुष्य भी वहाँ पर आ उपस्थित हुए तत्काल ही गोरक्षनाथजी ने अपने बटुवे से विभूति की चुटकी निकाली और मन्त्र का जाप करने के अनन्तर कुबरे का उद्देश्य ठहराकर वह आकाश की ओर फेंक दी जिसका फल यह हुआ कि जो प्राणी जिस प्रकार का आहारी था वैसा ही आहार सबके आगे परोसा गया। यह देख सब जीव अपने-अपने उदर की पूर्ति करने लगे और वहाँ एक प्रकार का बड़ा ही उत्सव जैसा हो गया। बस क्या था कतिपय क्षण में यह वृत्तान्त समग्र नगर में प्रसृत हुआ तत्काल ही इस वृत्त के दर्शनार्थ आने वाले मनुष्यों का लारा लग गया। यह देख रेवन ने पूछा कि आज आप लोग सब एकत्रित होकर कहाँ जा रहे हैं। प्रत्युत्तर में कई एक लोगों ने कहा कि क्या तुमको मालूम नहीं है जो कि सिद्ध ही क्या अद्वितीय योगेश्वर यहाँ आये हैं और तुमने तो दीन लोगों के लिये ही अन्नक्षेत्र खोला है उन्होंने सब प्राणियों के लिये जिसका जैसा आहार है वैसा ही प्रदान करना आरम्भ किया है (अस्तु) यह सुन रेवन कुछ विस्मित सा हुआ आभ्यन्तरिक भाव से विचार करने लगा कि सम्भवतः ऐसा ही होगा क्योंकि महात्माओं की गति अपार है तथापि चलकर देखना तो चाहिये। तदनन्तर उसने भी यथेष्ट पूजार्थ सामग्री लेकर महात्माजी के दर्शन करने के वास्ते प्रस्थान किया। जब कतिपय क्षण में वह घटनास्थल में पहुँचा तो देखता क्या है यथार्थ वही वार्ता है जैसी लोगों के मुख से श्रवण की थी (अस्तु) पहुँचते ही पूजा सामग्री प्रदानपूर्वक उसने बड़े ही नम्र भाव से प्रेम के साथ गोरक्षनाथजी को प्रणाम की। पश्चात् गोरक्षनाथजी ने भी कुशल वार्तापूर्वक समस्त वृत्तान्त पूछा और कहा कि हमने सुना है तुमने बहुत मन्त्र प्राप्त किये हैं जिनके द्वारा अन्नपूर्णा को प्रसन्न कर अटूट अन्नक्षेत्र प्रचलित किया है। रेवन ने उत्तर देते हुए कहा कि महाराज! मैं किस योग्य हूँ यह सब आप लोगों का ही प्रताप है जिससे मैं इस कृत्य मेंे सफलता प्राप्त करने के लिये समर्थ हुआ हूँ। गोरक्षनाथजी ने कहा कि यह तो ठीक है तथापि मन्त्र दीक्षार्थ किसी महात्मा को तुमने अवश्य गुरु धारण किया होगा अतएव हम चाहते हैं तुम उस महात्मा के नाम से परिचित कर दो। रेवन ने हस्तसम्पुटी कर नम्र भाव से कहा कि महाराज! आपका कहना यथार्थ है मन्त्र दीक्षा के लिये अवश्य ही गुरु धारण करने की आवश्यकता है और मैने भी ऐसा ही किया है परन्तु जिस महानुभाव के सकाश से मैंने मन्त्र दीक्षा ली है उसके शुभाक्षरान्वित नाम से मैं भी अपरिचित हूँ। हाँ इतना अवश्य है जिस वेष से आप सुशोभित हैं इसी वेष से वे सुशोभित थे। तथा अभी कुछ ही वर्ष व्यतीत हुए हैं यहाँ आकर उक्त महात्माजी ने अपने पवित्र दर्शन द्वारा ग्राामनिवासी इन लोगों को भी पवित्र किया था। यह सुनते ही गोरक्षनाथजी सर्व वृत्तान्त जानते हुए भी फिर उससे पूछने लगे कि तुमसे कह गये हों वे महात्मा यहाँ कब वापिस आवेंगे। रेवन ने कहा महाराज! मुझ से उन महात्माओं ने इस विषय में भी कुछ नहीं कहा जिसको मैं आपके समक्ष प्रकट करूँ। हाँ उनकी अब शीघ्र ही लौटने की आवश्यकता है यदि आपको भ्रमण करते हुए किसी देश में मिल जायें तो अवश्य उनको इधर आकर दर्शन देने के लिये सूचित करना क्यों कि मुझे भी इस असार रूप संार के व्यवहार से ग्लानि आती है अतएव मैं उनका शिष्य बनूँगा जिससे इस संसार में प्राप्त किये मनुष्य शरीर का कुछ फल प्राप्त कर सकूँगा। अथवा मेरी मत्यनुसार उन महात्माओं में और आप में मुझे कोई विशेषता नहीं दीख पड़ती है अतः आप ही मुझे अपना शिष्य बना ले तो बड़े ही सौभाग्य की वार्ता होगी। यह सुन गोरक्षनाथजी बोले कि नहीं हम तो अपना शिष्य नहीं बना सकते हैं किन्तु तुमको पूर्ण वैराग्य का अनुभव हो चुका हो तथा उनका शिष्यत्व ग्रहण करने में तुम अपना कल्याण समझते हो तो हम उनको अधिक क्या आज ही रात्री के समय बुला सकते हैं। यह सुनकर रेवन अतीव प्रफुल्लित चित्त हुआ श्री गोरक्षनाथजी के चरणों में गिरा और उसने कहा कि भगवन्! यदि ऐसा हो सकता है तो इससे उत्तम और क्या है यह बड़े ही आनन्द की बात है आप अवश्य ऐसा ही करें ताकि मुझे इस दास को भी इस असार संसार रूप सागर से पार होने का अवसर प्राप्त हो जाय तदनन्तर गोरक्षनाथजी ने अपने गुरु मत्सयेन्द्रनाथजी का उद्देश्य कर नाद की ध्वनि की जिससे अपनी योगसिद्धि के प्रभाव से तत्काल ही मत्स्येन्द्रनाथ वहाँ आ उपस्थित हुए। उधर इस वृत्त की सूचना रेवन के पिता को भी दे दी गई। वह प्रथम ही श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी के द्वारा सूचित किया हुआ था अतएव इस विषय में कुछ भी शोक न कर उसने तत्काल ही आज्ञा दी कि महाराज! आप मालिक हैं आपके कृत्य पर हमें पूरा विश्वास है आप जो भी कृत्य करना अभीष्ट समझेंगे वह निःसन्देह हमारे कल्याणार्थ ही होगा। इसके बाद उन लोगों को जो उस समय उपस्थित थे आशीर्वाद प्रदान कर गोरक्षनाथजी तो देशान्तर में भ्रमण करने के लिये प्रस्थान कर गये और मत्स्येन्द्रनाथजी अपने युक्ति युक्त वचनों द्वारा रेवन की माता को, जो इस वृत्त को सुनकर कि पुत्र योगी होता है खिन्नचित्त हो गई थी, अच्छी प्रकार सन्तोषित कर स्वयं भी रेवन को साथ ले बदरिकाश्रम में पहुँचे। वहीं रेवन को भी स्वकीय कुण्डलादि चिन्हान्वित कर उसमें अपना शिष्यत्व आरोपित किया और बारह वर्ष की निर्दिष्ट अवधि पर्यन्त अतिघोर तप कराकर उसको अपने आपे की की सब कुंजी बतला दी। जिससे अपने उद्देश्य को समझता हुआ वह उसकी सिद्धि के लिये समर्थ होकर मुख्य ब्रह्मानन्दरूप अमृत को पान करता हुआ इस असार रूप संसार समुद्र से पार होने के सौभाग्य को प्राप्त हुआ। जिसके शुभाक्षरान्वित रेवननाथ, इस नाम से कुछ दिन पीछे समस्त भारत में ही क्या अन्य चीनादि देशों में भी वृद्ध से बाल तक कोई भी पुरुष अपरिचित न रहा था। (अस्तु) श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने रेवन को स्वशिष्य बना कर रेवननाथ, नाम से प्रसिद्ध करने के अनन्तर उसको अपनी समस्त विद्याओं में भी निपुण किया, अतएव जब श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने यह सोच लिया कि रेवननाथ अब एक अतुल शक्ति वाला हम जैसा ही महायोगेश्वर बना गया है तब स्वयं एकाकी देशान्तर की रम्मत के लिये प्रस्थान कर रेवननाथजी को भी एकाकी भ्रमण करने के लिये सूचित किया।
इति श्री रेवननाथोत्पत्तिवर्णन।

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