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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Monday, May 13, 2013

श्रीचर्पटनाथोत्पत्ति वर्णन ।

रेवा नदी के तटस्थ स्थल में ब्रह्माजी ने अपने स्खलित वीर्य को जो रेती में स्थापित किया था उसमें से कुछ मात्राओं को तो तक्षक की कन्या खा गई थी। इस वृत्तान्त को हम पहले ही लिख चुके हैं। परन्तु अवशिष्ट वीर्य जो कि रेती में प्रविष्ट हो जाने से तक्षकी की कन्या के खाने से वंचित रह गया था वही श्रीब्रह्माजी का अनिष्फल वीर्य समय प्राप्त कर बालू के अन्तर्गत ही मनुष्य बालकाकार में हो गया। कतिपय दिन में जब वह पुतला ठीक एक बालक के समान हुआ तभी उसमें पिप्पायन नारायण ने अपना सूक्ष्म शरीर प्रविष्ट किया। अतएव उस पुतले से श्रोत्रप्रिय मधुर रोदन की कुछ ध्वनि होने लगी। उसी समय कुशा लेने के लिये आया हुआ सत्य शम्मी नामक वेद पाठी ब्राह्मण दैव योग से उसी स्थल में आ निकला। अकस्मात् बालक की वह मधुर रोदन ध्वनि उसके श्रोत्रेन्द्रिय गत हुई। तत्काल ही ब्राह्मण इधर-उधर देखने लगा तो कोई पुरुष उसकी दृष्टि गोचर न हुआ। अन्ततः रोदन ध्वनि का उद्देश्य ठहराकर वह कुछ ही पद आगे चला था देखता क्या है एक वालूमय छोटे से पूंजम से ही किसी बालक के रोदन का निस्सरण होता है। वह वालूपूंज घटाकार हो गया था। उसके ऊपर तो अवश्य कुछ रेती प्रस्तृत थी परन्तु उसका अन्तर्गत दल कुछ कठिन हो गया था। जिससे उसके भीतर बुम्बी जैसी जगह विद्यमान थी उसमें से एक छिद्र ऊपर को निकला हुआ था। ठीक उसी छिद्र से बहिरभूत हुई बालक की रोदन ध्वनि ब्राह्मण को सुनाई दी (अस्तु) इस विचित्र घटना को देखकर ब्राह्मण कुछ साश्चर्य हुआ कतिपय क्षण तो, इसमें बालक अवश्य है किंचित् भी सन्देह नहीं परन्तु इस रेती के अन्र्गत कैसे हुआ, इस प्रकार के विचार रूपी समुद्र में गोते खाता रहा। अन्ततः जब उसने ईश्वर की अलक्ष्य गति का स्मरण किया तब तो सर्व संकल्प विकल्पों को त्याग कर वह उस बालक को निकालने को उत्सुक हुआ और ऊपर की कुछ शुष्क रेती हटाकर आद्र्र रेती के घटाकार पूंज का हस्त से भेदन करके उसने ज्यों ही बालक निकाला त्यों हि बालक के असह्य स्वरूप को देखकर सत्य शर्मा के नेत्र खुले रहने के लिये इन्कार कर गये। ठीक उसी अवसर पर आकाशस्थ विमानारूढ़ देवता लोगों ने सहर्ष उस बालक के ऊपर पुष्पों की वर्षा की। अनन्तर जब ब्राह्मण के नेत्र खुले तब तो और भी अधिक विस्मित हुआ वह विचार करने लगा कि (अहो) विधाता की महिमा दुर्विज्ञेय है। इतनी ही क्षणों में ये नाना प्रकार के अति सुगन्धित इतने अधिक पुष्प कहाँ से और कैसे आये हैं। अथवा ठीक है हमने कारण सोच लिया यह अवश्य कोई अद्वितीय महापुरुष इस ढंग से प्रकट हुआ है। जिसके समस्त जगत् में विस्तृत होने वाले भावी यश के आधिक्य की तथा इसके महत्त्व की सूचना देवता लोगों ने पुष्प वर्षा के द्वारा दी है। इत्यादि संकल्प-विकल्प करता हुआ ब्राह्मण अन्ततः बालक को अपने गृह पर ले गया। वहाँ जाकर स्वकीय पत्नी चन्द्रिका, ब्राह्मणी को दिया। ब्राह्मणी लड़के को सहर्ष स्वीकार करती हुई अतीवानन्दित हुई। तथा ब्राह्मण की मुखोच्चरित वाणी से बालक के ’ उत्पत्ति ढंग को सुनकर बड़ी ही आश्चर्ययुक्त हुई। परन्तु कतिपय क्षण के बाद वह अपने चित्त में आप ही समाधान करने लगी कि ठीक है ईश्वर की कृपा के सम्मुख कौन वस्तु असाध्य है! अर्थात् कोई नहीं है। देखिये हम सांसारिक व्यवहार में दिन-रात्री लवलीन हुए वृ+द्धावस्था के आक्रमण से आक्रान्त होने वाले हैं तथापि हम दोनों को इस अवस्था तक भी पुत्र का मुख देखने का अवसर न मिला था। परन्तु अब भी अच्छा हुआ इस उपान्त्यावस्था में ईश्वर ने अपनी महती कृपालुता का परिचय दिया। जिससे पुत्र का मुख देखकर हमारा ऐहलौकिक भोग सफल हुआ (अस्तु) इस वृत्तान्त की सूचना नगर के सर्व लोगों के श्रोत्रगोचर हुई। तत्काल कितने ही लोग इधर-उधर से बालक को देखने को आये। कतिपय क्षणों में सत्य शर्मा ब्राह्मण का गृह दर्शन करने के लिये आये हुए मनुष्यों से परिपूर्ण हो गया और ऐसी भीड़ हुई मनुष्यों का अन्दर से बाहर, बाहर से अन्दर प्रविष्ट होना निकलना कठिन हो गया था। एवं सैंकड़ों मनुष्य बालक के दर्शनार्थ आते थे तथा सैंकड़ों दर्शन करके आश्चर्ययुक्त अनेक वार्तायें करते हुए अद्वितीय पुत्र रत्न की प्राप्ति के विषय में सत्य शर्मा जी को असंख्य धन्यवाद देते हुए अपने-अपने गृह को जाते थे। साथ ही बालक के इस विलक्षण ढंग से प्रकट होने से तथा उसका अद्वितीय रूप देखने से लोगों को यह भी निश्चय हो चुका था कि यह बालक अवश्य कोई विशेष शक्तिशाली महापुरुष है। (अस्तु) जब शनैः-शनैः अपने मनमोहनी दिव्य रूप द्वारा ब्राह्मण-ब्राह्मणी को रंजित करता हुआ बालक पंचवर्षीय अवधि में प्रविष्ट हुआ। तब सत्य शर्मा ने स्वजाति के अनुकूल शोस्त्रोक्त विधि द्वारा उसका अखिल संस्कार कराया।  अनन्तर उसके कुछ वर्ष के बाद ही विवाह करने की चिन्ता उपस्थित हुई और जिस किसी विधि से शीघ्र ही इस कार्य को कर देना उचित समझ कर वह प्रयत्नशील हुआ। उधर से एक दिन अकस्मात् ही नारदमुनि भी सत्य शर्मा के गृह पर आ निकले और बालक को देख बड़े ही प्रसन्न हुए। अन्त में उन्होंने विचार किया कि ठीक चर्पटनाथ, नाम से प्रसिद्ध होने वाले ये, पिप्पलायन, नारायण के अवतारी हैं। तब तो नारदजी बिना ही विलम्ब के कैलास में पहुँचे वहाँ श्री महादेवजी, मत्स्येन्द्रनाथजी, गोरक्षनाथजी ये तीनों महानुभाव एकत्रित ही मिल गये। पारस्परिक प्रणाम के अनन्तर श्री महादेवजी ने नारदजी से कुशल वार्ता पूछने के पश्चात् यह भी पूछा कि नारदजी कहिये आप अभी कहाँ से आ रहे हैं। यह सुन नारदजी आभ्यन्तरिक भाव से अतीवानन्दित हुए अपने मन ही मन में विचार करने लगे कि आहा लक्षण तो बहुत ही शुभ जान पड़ते हैं। मेरे लिये प्रस्ताव उपस्थित करने की कोई आवश्यकता न रही, त्रिलोकी के नाम स्वयं मेरे अभीष्ट वृत्त को सुनना चाहते हैं (अस्तु) बाद में श्री महादेवजी के प्रश्न का प्रत्युत्तर देते हुए नारदजी ने कहा कि भगवन्! मैं नीचे के प्रान्तों में भ्रमण करने गया था अतएव एक दिन रेवानदी के तटस्थ एक नगर में जा पहुँचा। ठीक उसी नगर में पिप्पलायन नारायण का प्रादुर्भाव हुआ है। जब मैंने उसके समीप जाकर ठीक यह वृत्त निश्चात्मक जान लिया तभी उसकी सूचना दे देनी योग्य समझकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। अब आपके अधीन है जैसा अभीष्ट समझें वैसा करें। मैं अपना कर्तव्य पूरा कर चुका हूँ। यह सुनकर श्री महादेवजी सर्व वृत्तान्त को जानते हुए भी नारदजी के उत्साह को बढ़ाने के वास्ते सहसा बोल उठे कि वाह-वाह नारद जी बहुत अच्छा हुआ तुमने बड़े ही अनुकूल समय पर सूचना देकर हमको सूचित किया है। मालूम हुआ ठीक जैसी तुम्हारी महिमा सुनी जाती थी तुम तादृश ही उपकारी पुरुष हो। परन्तु इसके साथ-साथ यह कार्य भी हम तुम्हारे ही शरीर से सिद्ध होने की आशा करते हैं जिस किसी भी ढंग से होस के उस लड़के को तुम यहाँ ला प्राप्त करो। श्री महादेवजी की इस आज्ञा को (तथास्तु) इस प्रकार स्वीकृत करते हुए नारदजी तीनों महात्माओं को प्रणाम कर अतीव हर्षित हुए उक्त नगर में पहुँचे। तथा अपनी योग क्रिया के प्रभाव से बालक स्वरूप बनाकर सत्य शर्मा के गृह पर गये और सत्य शर्मा से कहने लगे कि हे विद्वन्! मैं विद्यार्थी हूँ आपकी महती विद्वत्ता का श्रवण कर आपकी सेवा में प्राप्त हुआ हूँ। अतः मुझे आशा है आप मेरी प्रार्थना को स्वीकृत करते हुए मेरे लिये कुछ विद्या प्रदान कर अवश्य मेरे इस अभिलाषान्वित दूर से हुए आगमन को सफल करेंगे। इस प्रकार नारद के नम्रतायुक्त अतिकोमल वाक्यों को सुनकर सत्य शर्मा जी चकित हो गये और आभ्यन्तरिक रीति से विचारने लगे कि अहो, इस लड़के की अभी बहुत कम अवस्था है तथापि यह किस प्रकार बड़े मनुष्यों की सदृश बात करता है। अतः यह अवश्य विद्या का अधिकारी है। थोड़े ही प्रयत्न से विद्या प्राप्त कर अपनी विलक्षण बुद्धि का चमत्कार दिखलाया हुआ मेरे नाम को प्रसिद्ध करेगा। तदनन्तर सहर्ष उस बालक के प्रस्ताव को स्वीकृत करते हुए सत्य शर्मा जी ने उसका हस्त पकड़ कर अपनी ओर खींचा। तथा गोदी में बैठाकर बड़े ही प्रेम के सहित उससे पूछा कि बेटा तू किस जाति का और कौनसे ग्राम में रहने वाला है। क्या तेरे पिताजी विद्वान् नहीं थे, जिन्होंने ऐसी बाल्यावस्था में ही तेरे को अपने गृह से निकाल कर बाहर कर दिया है। यह सुन प्रत्युत्तर में बालरूप नारदजी ने कहा कि महाराज मैं उज्जयिनी नगरी का रहने वाला हूँ और ब्राह्मण का लड़का हूँ। अब से भी दो वर्ष पहले ही मेरे माता-पिता स्वर्गलोक को पधार गये थे, उस समय से ही मेरे भाग्य ने मेरी दुर्दशा करनी आरम्भ की है। जिस वशात् हर एक समय दुःखग्रस्त रहता हूँ। यद्यपि माता-पिता के स्वर्गलोक गमनानन्तर मेरे चाचा, आदि पड़ौसियों ने मेरे पालन-पोषण के विषय में कुछ दृष्टि दी थी तथापि वह पर्याप्त नहीं थी। वस्तुतः यह तो प्रसिद्ध बात है जिसको समस्त संसार ही जानता है कि पुत्र की पालना के लिये निज माता-पिता की अपेक्षा प्रथम है। उनके अभाव में तो बच्चे की अदृष्ट ही रक्षा करता है। न कि ऊपर के प्रेम वाले चाचा, ताऊ, आदि। यह सुनते ही सत्य शर्मा जी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनके हृदय में दया का प्रवाह प्रारम्भ हुआ। जिस वशात् उन्होंने शीघ्र ही आज्ञा दी कि अच्छा बेटा तू मेरा धर्म का पुत्र रहा। अतः यही मेरे गृह पर सानन्द निवास कर तेरा द्वितीय भ्राता यह चर्पट भी तेरे साथ ही रहेगा। तुम दोनों ही हमरे सकाश से विद्याध्ययन करना। इस प्रकार बालक को संतोष देकर सत्य शर्मा ने अपनी ब्राह्मणी से कहा कि ब्राह्मणी! यह लड़का है जो कि मैंने पुत्रत्वेन स्वीकार कर लिया है। अतः तेरा कर्तव्य है कि तू चर्पट को इससे किंचित् भी विशेष दृष्टि से न देखें। किन्तु एक दृष्टि से देखती ह ुई अर्थात् दोनों को ही अपने उदर से बहिरभूत हुए मानती हुई मेरी आज्ञा को शिरोधार्य समझ कर इसका अवश्य विद्या विषयक उत्साह बढ़ाना। सत्यशर्मा के इस कथन को ब्राह्मणी ने बड़ी ही श्रद्धा के साथ अंगीकार किया और वह ठीक उसी कथन के अनुकूल दोनों लड़कों की लालनादि करने लगी। उधर सत्यशर्माजी ने दोनों लड़कों को विद्याभ्यास के लिये उत्कण्ठित किया। तत्काल ही दोनों महानुभाव विद्याध्ययन में तत्पर हुए। (अस्तु) इसी प्रकार विद्याध्ययन करते-करते कुछ ही समय व्यतीत हुआ था। एक दिन सत्यशर्मा के किसी यजमान ने आकर सत्यशर्मा को निमन्त्रण दिया तथा कहा कि आप प्रातःकाल हमारे गृह पर पधारकर अवश्य भोजन करना। सत्यशर्मा ने भी उस निमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि अवश्य ऐसा ही होगा। यदि किसी कारणान्तर से मैं न भी आ सका तो अपने इन दोनों लड़कों को अवश्य भेजूँगा। इसके लिये आप निःसन्देह होकर अपने गृह को जाइये। तदनन्तर यजमान के वहाँ से प्रस्थान करने के कुछ ही देर पीछे सत्यशर्माजी को किसी पत्र वाहक द्वारा एक पत्र प्राप्त हुआ। जो कि विद्वज्जन सभा की ओर से प्रेषित किया हुआ था और उस पत्र द्वारा सभानिष्ट विद्वान् लोगों ने सत्यशर्माजी से अवश्य आने के लिये प्रार्थना की थी। अतएव सत्यशर्माजी ने सभा में जाना ही उचित समझा और प्रातःकाल होने पर अपने दोनों पुत्रों को समझा दिया कि जो यजमान कल निमन्त्रण दे गया था तुम दोनों उसके गृह पर जाकर अवश्य भोजन कर आना, कोई संकोच न करना। वह हमारा प्राचीन और बहुत श्रद्धालु यजमान है और यजमान मेरे विषय में यदि कुछ पूछताछ करे तो तुम कह देना कि पिताजी सभा में गये हैं। (अस्तु) सत्यशर्माजी तो सभा के लिये प्रस्थान कर गये। उधर बालरूप नारद अपने कार्य के लिये अवसर देख ही रहे थे। अतएव उन्होंने सोचा कि सम्भवतः चर्पट को यहाँ से निकालने के लिये आज का यही अवसर उपयोगी होगा। इसके बाद कुछ देर में वे दोनों यजमान के गृृह पर गये वहाँ जाने पर यजमान ने उन दोनों ब्राह्मण पुत्रों का अच्छा सत्कार किया और विधिपूर्वक उनका पूजन कर भोजन कराया। परन्तु भोजन पश्चात् जब दक्षणा देकर उनको विदा करने लगा तब तो दक्षणा थोड़ी देखकर नारदजी ने चर्पट से कहा कि यजमान इतना धनाढ्य होकर क्या दक्षणा देता है जिसके ग्रहण करने से भी लज्जा आती है। बस क्या था यह सुनते ही चर्पट बिगड़ उठा और उसने कहा कि हे यजमान! यह अपनी दक्षणा लीजिये हम इतनी कम दक्षणा नहीं लेंगे। यदि देनी है तो अच्छी पूर्ण दक्षणा दो। तब तो यजमान कुछ क्रोधान्वित हुआ कहने लगा कि आपके पिता को मैं अनेक बार दक्षणा दे चुका हूँ परन्तु उस महानुभाव ने आजपर्यन्त कभी दक्षणा के लिये अप्रसन्नता प्रकट नहीं की है। आपने तो प्रथम दिन ही झगड़ा आरम्भ कर डाला। यह फैसला तो यजमान की इच्छा पर ही निर्भर है उसकी इच्छानुसार चाहे वह बहुत दक्षणा दे चाहे न्यून दे। परन्तु उसके कृत्य में घाट बाध कहना वा करना आप लोगों को किसी प्रकार भी लांघनीय नहीं है। अतः इस समय मैं इतनी ही दक्षणा देना उचित समझता हूँ यदि स्वीकार कर आशीर्वाद प्रदान करें तो बड़ी खुशी की वार्ता है अन्यथा आपकी इच्छा रही इस विषय में हमको कोई शोक नहीं। क्योंकि हम अपना कर्तव्य पालन कर चुके हैं (अस्तु) इसके बाद यजमान की कुछ लापरवाही की वार्ता सुनकर चर्पट खिन्नचित्त होकर आभ्यन्तरिक भाव से विचारने लगा कि यह श्रद्धालु यजमान होता तो अवश्य यदि अधिक दक्षणा नहीं देता तो नम्रतायुक्त वाक्यों द्वारा इतनी कम इस दक्षणा से ही हमको सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता। परन्तु यह कहता है इच्छा हो तो ग्रहण करो नहीं तो इस विषय में हमको कुश शोक नहीं, तो ऐसी सत्काररहित इसकी दक्षणा को हम लेना ही नहीं चाहते हैं। पश्चात् सहसा बोल उठा कि ले उठा हम तेरी दक्षणा के अभिलाषी नहीं है। यह दक्षणा किसी अन्य ऐसे दरिद्र को देना जिसको कभी स्वप्न में भी पैसा प्राप्त न होता हो और जिसके गृह में खाने के लिये अन्न तक न समय पर प्राप्त होता हो। यह सुनकर यजमान ने दक्षणा को वापिस उठा लिया। चर्पट कोरमचन्द हुआ अपने गृह को चला गया। जब सायंकाल हुआ तब उधार सभा से सत्यशर्माजी भी गृह पर आ पहुँचे और वस्त्रादि को बदलकर स्नान सन्ध्यादि से निवृत्त हुए। उसी समय किसी कार्यान्तर वशात् चर्पट कहीं गृह से बाहिर गया हुआ था और अकेला बालरूप नारद ही वहाँ पर उपस्थित था। उसी से सत्यशर्माजी ने पूछा कि बेटा उक्त यजमान के यहाँ भोजन करने गये थे। नारदजी ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि हाँ पिताजी गये थे। यजमान ने जिस समय हम वहाँ पहुँचे हैं उसी समय बड़ी श्रद्धा के साथ हमारी आरती उतार कर पश्चात् हमें सप्रेम भोजन कराया और भोजनान्तर यथाशक्ति दक्षणा भी हमारे अर्पण की परन्तु मेरे भ्राता चर्पट ने दक्षणा वापिस फेंक दी और कहा हम इतनी हम दक्षणा नहीं लेंगे यदि दे तो पूरी दक्षणा दे नहीं तो अपनी यह भी उठा ले। यह सुनकर यजमान कुछ आभ्यन्तरिक भाव से खिन्नचित्त हुआ कहने लगा कि तू कहाँ से दरिद्री उत्पन्न हुआ जो प्रथम दिन ही झगड़ा करने लगा। कोई अन्य पुरुष इस वृत्त को सुनेगा तो क्या तुम्हारी स्तुति करेगा किन्तु अवश्य यही कहने के लिये उत्सुक होगा कि यह कृत्य ब्राह्मणत्व के नष्ट-भ्रष्ट करने वाला है, अतएव दक्षणा के लिये यजमान से कुछ कह डालना सर्वथा अनुचित है, यह वार्ता अवश्य आप लोगों को प्रत्येक समय अपने हृदय में स्थापित रखनी उचित है। आपके पिता अवश्य योग्य व्यक्ति हैं उन्होंने आज पर्यन्त अनेक बार मेरे सकाश से दक्षणा ग्रहण करने पर भी अब तक कोई ऐसा शब्द नहीं कहा है जिससे कुछ लोभता प्रतीत होती है। (अस्तु) यजमान के इतने कहने पर भी चर्पट ने कोई विचार नहीं किया। दक्षणा वापिस फेंक कर गृह पर आ गया, जिससे यजमान बहुत ही कुपित हुआ। यदि यजमान ने इस वृत्त को किसी अन्य पुरुष के श्रोत्रगोचर कर डाला होगा तो सम्भवतः इससे आपकी बहुत निन्दा होगी। बस क्या था सत्यशर्माजी ने जहाँ इतना सुना तत्काल ही क्रोधवशात् उनके नेत्र लाल हो गये और वे सहसा उसको गाली देते हुए कहने लगे कि (अच्छा) क्या सचमुच ही ऐसा हुआ है। नारद ने कहा कि हाँ पिताजी मैं सत्य कहता हूँ। यदि इस विषय में आपको कुछ भी सन्देह हो तो आप यजमानजी के गृह से इस वृत्तान्त की सूचना मंगा ले झूठ निकले तो अवश्य मैं दण्डनीय होऊँगा। यह सुनकर सत्यशर्माजी निश्चात्मक समझ गये कि अवश्य यह वृत्त ठीक है। अनन्तर कह उठे कि आज उसे गृह पर आने दे मैं उसकी अच्छी तरह खबर लूँगा। ठीक जिस समय सत्यशर्माजी चर्पट को कूटना अवश्य समझकर लाल-पीले हुए उसके गृह आने की प्रतीक्षा कर रहे थे उसी अवसर पर अकस्मात् वह भी कहीं से आ ही पहुँचा। बस क्या था उसको वार्ता करने का अवसर भी न दे कर सत्यशर्माजी ने उसको कूटना आरम्भ किया और इतना कूटा कि चर्पट एक बार तो अपने आपको भी भूल गया था परन्तु जब सत्यशर्माजी शान्त हो गये तब तो चर्पट कुछ होश में हुआ गृह से बाहर निकल गया और नगर के बाह्यस्थलस्थ तालाब के ऊपर एक मन्दिर था उसमें पहुँचा। तथा वहाँ बैठकर बहुत ही रोदन करने लगा। उधर बालरूप नारद भी आभ्यन्तरिक नमस्कार कर सत्यशर्माजी से कहने लगा कि पिताजी मैं भ्राता को बुलाकर लाता हूँ वह कहीं बाहर चला गया है। यह सुन क्रोधान्वित हुए सत्यशर्मा ने तो कोई उत्तर नहीं दिया था। परन्तु नारद ने प्रत्युत्तर की परवाह न करके वहाँ से प्रस्थान कर ही दिया। क्योंकि श्रीमहादेवजी की प्रबल आज्ञा के अनुसार नारद चर्पट को अब शीघ्र ही कैलास में ले जाना उचित समझता था अतएव पिताजी की सहर्ष पूरी आज्ञा न होने पर भी नारद ने वहाँ से प्रस्थान कर ही दिया। अन्ततः चर्पट की अन्वेषणा करता हुआ जब ठीक उसी मन्दिर में पहुँचा तब तो वह भी उससे मिल गया। तत्काल ही नारद ने कहा कि अहो बड़े खेद की बात है हमने तो आजपर्यन्त कोई भी ऐसा पुरुष किसी को ताड़ना करता नहीं देखा है जैसा आज आपका पिता देखा है। देखिये इतने बड़े पद को प्राप्त होकर भी अर्थात् इतना अधिक विद्वान् होकर भी इतना अधिक क्रोध रखता है यह सर्वथा अनुचित तो है ही किन्तु उसकी अपकीर्ति भी कराने वाला है। अतः ऐसे पुरुष के समीप रहना उचित नहीं है न जानें किस समय क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हुआ क्या वस्तु उठा मारे जिससे व्यर्थ ही प्राण जोखम में पड़ जाये और इस संसार में हुए जन्म का कुछ भी फल प्राप्त न करते हुए हम अपने अमूल्य जीवन को खो बैठें। नारद का यह वाक्य सुनकर चर्पट को गृह की ओर से और भी अधिक ग्लानि प्राप्त हो गई। अतएव वह सहसा बोल उठा कि भाई तो कहिये और क्या करना उचित है। यदि पिताजी के समीप न रहना सोचकर मैं किसी देशान्तर में ही प्रस्थान करना उचित समझूं तो क्या तेरी भी इसमें सम्मति है। नारद यह प्रथमतः ही चाहता था इसीलिये उसने कहा कि (हो) बड़ी खुशी के साथ चल मैं एक ऐसी अच्छी पाठशाला भेदी हूँ जिसमें जाकर दोनों सुख के साथ विद्याध्ययन कर सकेंगे और जब अच्छे विद्वान हो जायेंगे उस अवस्था में कोई मार कूटाई का भय भी नहीं रहेगा। तत्काल ही यह बात चर्पट ने निश्चयात्मक समझकर नारद के साथ प्रस्थान किया। इस प्रकार वे दोनों कतिपय दिनों में कैलासाश्रम में जा पहुँचे वहाँ श्रीमहादेवादि तीनों महानुभाव उनकी प्रथमतः ही बाट देख रहे थे ठीक इसी अवसर पर इन दोनों ने उन्हों की यथा विधि नमस्कार करी। यह देख श्रीमहादेवजी ने सहर्ष नारद से पूछा कि कहो कुशलता सहित तो रहे। बालरूप धारणपूर्वक ब्राह्मण के गृह पर कतिपय दिन निवास करने से किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव तो नहीं करना पड़ा है। नारद ने अपना बालरूप यहीं आकर बदला था अतएव बालरूप विषय में किये श्रीमहादेवजी के प्रस्ताव का प्रत्युत्तर देते हुए नारद ने कहा कि आपकी महती कृपा जिस पुरुष के ऊपर अपनी छाया रखती है उसको फिर कष्ट कहाँ अर्थात् उस पुरुष को कालत्रय में भी कोई दुःख आक्रान्त नहीं कर सकता है। इसके अनन्तर नारद के अपना बालरूप हटाकर निजपूर्वरूप धारण करने से कुछ विस्मित हुए चर्पट के ऊपर श्रीमहादेवजी ने अपना दृष्टिपात किया और उसको हस्त पकड़कर उसे सप्रेम अपने घुटनों पर बैठा लिया तथा कहा कि प्रधान अवस्था ग्रहण की है। बस क्या था कुछ तो तीनों महानुभावों के दर्शन मात्र से पहले ही उसका निर्मलान्तःकरण हो चुका था। फिर भी श्रीमहादेवजी के इस वाक्य ने मानों उसके हृदय में निजोद्देश्य का पूर्ण विकाश कर डाला। अतएव अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा स्वकीय उद्देश्य का स्मरण करके वह तदनुकूल ही नम्रतायुक्त हस्तसम्पुटी किये हुए श्रीमहादेवजी के वाक्य का प्रत्युत्तर प्रदान करता हुआ कहने लगा कि भगवन्! प्रकृति देवी के नियम को आप अच्छी तरह जानते ही हैं इसके विषय में मेरा आपके समक्ष कुछ भी निरूपण करना व्यर्थ है। अर्थात् प्रकृति के इस नियम को एकबार तो अवश्य सब ही को अंगीकृत करना पड़ता है कि बाल्यावस्था में अनभिज्ञता सूचित कर तदनुकूल ही चेष्टा भी करना। ठीक यही वृत्त मेरा भी था परन्तु आपकी महती कृपा का पात्र बनकर जब मैं आपके पवित्र नेत्रों का विषय हुआ तभी से अवश्य मैं अपने मुख्योद्देश्य को समझ गया अब आप लोगों की सेवा में उपस्थित हूँ जो आज्ञा प्रदान करेंगे मैं सश्रद्धा अवश्य उसको शिरोधार्य समझ कर अपने कर्तव्य का पालन करूँगा। यह सुन श्रीमहादेवजी ने श्री मत्स्येन्द्रनाथजी की ओर इशारा करते हुए कहा कि इन महात्माओं का शिष्यत्व स्वीकृत कर इनसे दीक्षा ग्रहण करना उचित है। क्योंकि ये हमारे ही शिष्य हैं और नाना प्रकार की विद्याओं में इतने निपुण हैं जितना अन्य कोई भी इस समय दृष्टिगोचर नहीं है। अतएव देखना भूलना नहीं तू हमारी आज्ञा पर दृढ़ विश्वासी हुआ इनकी सश्रद्धा तन-मन से सेवा करता हुआ अवश्य इनसे शिक्षा प्राप्त कर अपने इस संसार में प्राप्त हुए जन्म के मुख्योद्देश्य को प्राप्त कर संसार में अपने यश को चिरस्थायी कर डालना। इसके अनन्तर जब श्रीमहादेवजी की आज्ञानुसार वे बदरिकाश्रम को गमन कर गये तब वहाँ जाकर श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने चर्पट को अपने घुटनों पर बैठा लिया और सस्नेह मधुर-मधुर वाणी द्वारा आप उससे बाते करने लगे और उसे कहा कि बेटा तू पिप्पलायन नारायण का अवतार है तथा मैं कवि नारायण का अवतार हूँ अतः पूर्ववृत्तान्त का स्मरण करके देख तेरा इस जन्म धारण करने का लक्ष्य क्या है तथा अब तेरी किसी अवस्था में प्रवृत्त होने की आवश्यकता है। चर्पट ने कहा कि भगवन्! आपकी कृपा दृष्टि से मैं अपने लक्ष्य को अच्छी तरह जान चुका हूँ इसके विषय में आप कोई चिन्ता न करें। परन्तु अब जो अवश्य कर्तव्य कृत्य है उसका आरम्भ करें अर्थात् जिससे मैं अपने उद्देश्य की सिद्धि में समर्थ हो सकूँ तिसके अनुकूल सस्नेह मेरे को कुछ मन्त्र विद्या प्रदान कर अपने रूप में प्रविष्ट करें। तदनन्तर श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने चर्पट को अपने गृह की कुछ विद्या शिखलाई और उसे अपना शिष्य बनाकर कतिपय दिनों के बाद उसको बड़े ही घोर तप में नियत कर दिया। जिसने गोरक्षनाथजी की तुल्य अपने शरीर को शुष्क कर डाला था। (अस्तु) जब इसी प्रकार घोर तप करते-करते पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये तब श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने उसको तप से विमुक्त कर और भी अनेक विद्याओं में निपुण किया। जिससे उस महानुभाव चर्पटनाथजी में वह शक्ति प्रविष्ट हो गई कि समस्त देश में जितने इनसे पीछे महात्मा प्रकट हुए उनमें से कोई भी इनकी यथार्थ समता को प्राप्त न कर सका। अतएव इनके राधवनाथ, बालनाथ, तोटकनाथ, जाम्बुनाथ, नित्यनाथ, सारेन्द्रनााि, काकुत्सनाथ, भैरवनाथ ये अष्ट महासिद्ध योगी शिष्य प्रसिद्ध हुए। जिन्होंने इस चर्पटनाथजी की कृपा से योग क्रिया में अत्यन्त कुशलता प्राप्त कर संसार में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की।
इति श्रीचर्पटनाथोत्पत्ति वर्णन ।

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