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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Saturday, May 11, 2013

श्री नागनाथोत्पत्तिवर्णन


पूवोक्त प्रकार से एक समय श्री ब्रह्माजी अपनी मण्डली के सहित रेवा नदी के पट पर भी आकर विराजमान हुए थे। इस अवसर पर भी उनके साथ स्वमण्डली के अनेक गण्यमान्य देवता पधारे थे, जो कि नाना भूषणों से भूषित अतीव मोहनी रूपवती अंगनाओं के सहित ही आये थे, ठीक इसी अवसर पर स्वदिव्याभूषणाभूषित श्री सरस्वती भी आ प्राप्त हुई थी, जिसके अवलोकनानन्तर स्मरपीडि़त ब्रह्माजी का मनोवांछित सहसा बहिर निर्गत होकर ब्रह्माजी के शरीर को व्यथित करता हुआ रचनात्मक कार्य में सहायक बना था। क्योंकि प्रकृति पुरुष संयाग द्वारा सर्गोत्पत्ति है के कतिपय, योग सांख्य शास्त्रावलम्बी, आचार्यों ने इस वार्ता को सर्व के समक्ष घोषित किया है। तदनुकूल ही ब्रह्माजी इस प्रकारी की चेष्ठा किया करते हैं। जब वे अपने अमोघ वीर्य द्वारा किसी महापुरुष की रचना करने की अभिलाषा करते हैं तभी उनकी आज्ञानुसार देवताओं का ऐकान्तिक स्थान में जाना, तथा सरस्वती का, अद्वितीय रूप धारणकर उनके सम्मुख होना, आदि का साहस प्रापत होता है। अतएव ब्रह्माजी के विषय में कोई क्षुद्रबुद्धि पुरुष यदि यह कहने को तैयार हो जाय कि ब्रह्माजी ऐसे कृत्य को मनोरंजनार्थ समझकर ही इसमें प्रवृत्त रहते थे तो वे बड़े ही विषयी और निर्लज थे, तो यह वार्ता संगत नहीं हो सकती है। क्योंकि ब्रह्माजी सृष्टि के जनक हैं यह तो सबका ही अभिमत है। किन्तु साथ में यह भी अवश्य स्वीकृत करना पड़ेगा कि स्वसाध्य वस्तु में पुरुष कभी इतना आसक्त नहीं होता है जितना हमारे कथन मात्र से पाठकों ने ब्रह्माजी को समझ लिया होगा। अतः सिद्ध हुआ ब्रह्माजी का यह कृत्य सर्गोद्देश से (अस्तु) शरीर से बहिर निर्गत हुआ वह वीर्य ब्रह्माजी ने रेवा नदी के तटस्थ स्थल में ही स्थापित कर दिया। जिसमें से कुछ मात्राआंे का तो आहार रूप से तक्षक की कन्या भक्षण कर गई। जिस वशात् कतिपय दिनों में ब्रह्माजी के अनिष्फल वीर्य ने अपनी स्थिति जमा लेने की सूचना उक्त कन्या को दी। यह देख तक्षक कन्या अपने मन ही मन में अतीव व्यथित हुई। परन्तु क्या किया जाता था वह स्वेच्छानुसार उत्सुकता से किया हुआ कार्य नहीं था किन्तु आकस्मिक दैव घटनानुकूल ईश्वर प्रेरित ही था। अतः देखूँ इसका क्या परिणाम होता है यह विचार कर अन्ततः उसने ईश्वर पर ही भरोसा रखकर शान्ति का अवलम्बन किया और वह कुटुम्बी पितादि के समक्ष अपना अंग बड़ी चतुराई के साथ छिपाये रखती हुई सलज्जाकाल व्यतीत करने लगी। कुछ दिन के बाद उसका प्रसव समय भी निकट आ पहुँचा। यह समस्त वृत्त रेवा के तटस्थ स्थल में रहने वाले एक आस्तिक्य नाम के ऋषि को मालूम था और उसको यहाँ तक भी विदित हो गया था कि इस कन्या के उदर से आविर्हाेत्र नारायण प्रकट होने वाले हैं। अतएव उसने इधर-उधर से कई एक ऋषियों को बुला भेजा। एवं उनके आने पर सब एकत्रित होकर वे कन्या के समीप गये। वहाँ ज्यों ही कन्या की दृष्टि स्वगृहागत ऋषियों के चरणों में बड़ी प्रीति के साथ नमस्कार की। यह देख ऋषि लोग अतीव प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे है पुत्रि! जिसका तीनों लोकों में यश विस्मृत होता तथा जो आविहोंत्र नारायण का अवतारी कहलावेगा और जिस वशात् तुम्हारा नाम भी संसार के इतिहास में चिरस्थायी हो जायेगा, इस प्रकार का एक लड़का तुम्हारे गर्भ से एक दो ही दिन के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाला है। अतः तुम उसको नदी के तटस्थ जो यह एक वट का पेड़ खड़ा है अवश्य इसके बिवर में रख देना। यह सुन वह कन्या अतीव प्रसन्न हुई और वह प्रत्युत्तर में ऋषियों को कहने लगी कि अच्छा मुनि श्रेष्ठों आप लोग निःसन्देह रहें मैं अवश्य ऐसा ही करूँगी। यह भी ठीक हुआ जो आप लोगों ने मेरे को भी इस वृत्त से सूचित किया है। यदि यह वार्ता यर्थार्थ निकली कि अवश्य मेरे उदर से बहिर भूत होने वाले अविर्होत्र नारायण हैं तो यह कहने का प्रयोजन नहीं कि आज मेरे से अधिक धन्य तथा भाग्यवती कोई अन्य स्त्री भी होगी। किन्तु उस समय तो मैं अपने आपको ही धन्य समझूँगी (अस्तु) यह सुनते ही ऋषिलोग स्वाश्रम को चले गये। उधर दो ही दिन के बाद तक्षक कन्या क गर्भ से एक बालक प्रकट हुआ। तत्काल ही ऋषियों के कथनानुसार बच्चे को वट के छिद्र में रखकर वह तो सानन्द वापिस अपने गृह को प्रस्थान कर गई। उधर से दैवयोगवशात् एक सदाचारनिष्ठ गरीब ब्राह्मण वट के पत्र लेने के उद्देश्य से अकस्मात् उसी वृक्ष के नीचे आ निकला। ज्यों ही उसने दत्तचित्त होकर नीचे से ऊपर पत्रों की ओर दृष्टि दी त्यों ही एक अतीव छोटे बालक के रोदन की ध्वनि उसके श्रोत्रगत हुई। तत्काल ही उसने वट के ऊपर चढ़कर देखा तो सचमुच ही एक छोटा बालक उसकी दृष्टि में आया। तब तो ब्राह्मण बड़ा ही विस्मित हुआ, और ईश्वर की अलक्ष्य गति के विषय में अनेक धन्यवाद प्रदान करता हुआ बालक की मनमोहनी छबी को देख अतीव प्रसन्न हुआ। अनन्त साल्हाद वह उस बालक को अपने गृह पर ले गया ठीक उसी समय आकाशवाणी हुई कि हे अथर्ववेदिन्! (तनमन से इस बालक की पालना करना) यह सुनकर कौशिक ब्राह्मण इधर-उधर देखने लगा, परन्तु अन्ततः जब कोई पुरुष भी उसकी दृष्टिगोचर न हुआ तो उसने अनुमान किया कि अवश्य यह कोई महापुरुष है, जिसने बाल रूप से प्रकट होकर कोई विशेष कार्य सम्पादित करना है। अतः इसकी रक्षा की अधिक आवश्यकता है। इसीलिए यह वाणी भी मनुष्यवाणी नहीं किन्तु आकाशस्थ अदृष्ट देव वाणी ही जान पड़ती है (अस्तु) इस प्रकार के संकल्प विकल्पों के सहि ब्राह्मण स्वकीय गृह में जा ही पहुँचा और उस बालक को अपनी सुरा देवी नाम स्त्री के समर्पित किया। सुरादेवी बालक को देखकर महान् आनन्दित होकर ही शान्त न हुई किन्तु कतिपय क्षण के लिये तो मानों शरीर की समस्त चेष्टा से शून्य हुई मूच्र्छित ही हो गई थी। अनन्तर जब उसको अपने आपकी खबर हुई, तब तो वह सहसा बोल उठी कि महाराज! कहो तो सही यह बालक कहाँ से लाये हो तथा यह किसका बालक है, वह धन्य है जो इसकी माता है। ब्राह्मण बोला कि प्रिये! ईश्वर ने तेरे को ही इसकी माता बनने का सौभाग्य प्राप्त किया है। अतः तन मन से इसका पालन करो। जिससे बड़ा होने पर यह संसार के इतिहास में हम दोनों के नाम को चिरस्थायी करेगा। क्योंकि यह कोई अवतारी महापुरुष है मैंने इसी रूप में वट बिवर में पड़ा हुआ उपलब्ध हुआ है और जब मैं इसको उठाकर यहाँ लाने के लिये तैयार हुआ था उस समय आकाशवाणी भी हुई थी। जिसमें, इस बालक की अच्छी तरह पालना करना, यह चेतावनी थी। यह सुन ब्राह्मणी प्रसन्न हुई भी और अत्यन्त प्रसन्न हुई। मानों उसके पिपासार्दित मुख से अमृत का सेचन हो गया हो (अस्तु) इसके बाद ब्राह्मण ने पुत्र मिलने की सूचना अपने पाश्र्ववासियों को दी। तत्काल ही पड़ौसिन स्त्रियें आई और लड़के के मोहनी स्वरूप से मोहित हुई सहर्ष अनेक प्रकार के मंगलमय गीत गाने लगी। ठीक इसी दिन के आरम्भ से कौशिक की दरिद्रता ने उसके गृह सहर्ष अनेक प्रकार के मंगलमय गीत गाने लगी। ठीक इसी दिन के आरम्भ से कौशिक की दरिद्रता ने उसके गृह से प्रस्थान करने के लिये अपने बधने बोरिये बान्ध लिये। अतएव प्रतिदिन ब्राह्मण कौशिक जी के गृह में इधर-धर से लक्ष्मी का प्रवाह बढ़ने लगा। ऐसा होने से कौशिक ब्राह्मण कुछ ही दिन पीछे काशीपुरी में आया और एक अच्छी बड़ी पक्की हवेली खरीद कर उसमें निवास करने लगा। इस समय पर्यन्त लड़का भी अच्छा जानकार हो गया था निज जाति के अनुकूल सर्व संस्कार भी हो चुका था केवल विवाह ही अवशिष्ट रहा था। देसी दशा में लड़का अपने सहकारियों के साथ खेल में रत रहकर ही समय व्यतीत करता था। एक दिन वह बहुत लड़कों को साथ लेकर श्रीगंगाजी की रेती में गया, वहाँ जाकर उसने बटके पत्र तोड़ सब लड़कों के आगे पत्तल बनाकर रख दी, तथा लड़कों से कहा कि जिसको जैसा रूचिकर हो वैसा ही खाने के लिये मांगो। यह सुन किसी ने लड्डू, किसी ने जलेबी इत्यादि अनेक प्रकार के पक्वान मांगे। तादृश ही पत्तलों में परोसे जाने पर लड़के बड़े ही विस्मित हुए, परन्तु बालावस्थास्थ होने से बालकों के वह आश्चर्यता बहुत देर तक न रही, वे कुछ ही क्षण के बाद प्रसन्न होते हुए लड्डू, जलेबी खाने लगे। ठीक इसी अवसर पर श्रीगोरक्षनाथजी भी देशान्तर से भ्रमण करते हुए वही घटनास्थल में आ पहुँचे और ज्यों ही आपकी दृष्टि लड़कों के ऊपर पड़ी तो आप भी उन एकत्रित लड़कों का कौतुक देखने लगे। इतने ही में एक लड़का बोल उठा कि ये महाराज, साधुजी पधारे हैं इनको भी भोजन करा दो। यह सुन तत्काल ही एक लड़का बड़ी शीघ्रता से उधर जाकर गोरक्षनाथजी के चरणों में गिर गया और उसने कहा कि महराज! आप भी बैठिये यहाँ अनेक प्रकार के भोजन तैयार हैं जैसी आपकी इच्छा हो वैसे ही मिलेंगे। इस प्रकार बालकों का कुतूहल और उनकी प्रेमभक्ति देखकर आभ्यन्तरिक भाव से मुस्कराते हुए गोरक्षनाथजी भी पंक्ति में जा बैठे, तत्काल ही पत्तल परोसने पर कौशिक पुत्र ने हस्तसम्पुटी कर कहा कि भगवन्! जैसा आपको अभीष्ट हो वैसा अपने मन से माँगों और पत्तल पर भोजन आ जाने पर जीमना आरम्भ करो। गोरक्षनाथजी को निश्चय था कि यह लड़का आविर्होत्र नारायण का अवतारी है अतः ऐसे पुरुष के लिये ऐसा होना क्या बड़ी बात है। अनन्तर गोरक्षनाथजी ने उस लड़के के कथनानुसार भोजन की मनोयाचना कर कुछ भोजन किया। पश्चात् उस कौशिक पुत्र के सिर पर हस्तधर कर आशीर्वाद देते हुए आप देशान्तर में चले गये। इधर यह लड़का प्रतिदिन ऐसा ही करता रहा कि सब लड़कों को एकत्रित कर श्री गंगाजी की रेती में जा कर खेलाना और सर्वको मनोऽभीष्ट भोजन कराना। ऐसा करते रहने पर उन लड़कों ने अपने माता-पिताओं को भी इस वृत्त से सूचित किया। यह सुन उन्होंने कौशिक ब्राह्मण से कहा कि तू अपने लड़के को इतने रुपये क्यों देता है। वह व्यर्थ ही इतना खर्च अपने सिर पर उठाता है। प्रतिदिन मिठाई खरीदकर बहुत लड़कों को खिलाया करता है। इस वास्ते उसकी खबरदारी रखना चाहिये सम्भवतः वह गृह से चुरा कर ही ले जाता होगा और यह भी बात है कि इस कृत्य से दो बड़ी हानि होती हैं तुम्हारा द्रव्य खर्च होना और हमारे लड़कों की आदत खराब होनी। ये ऐसे चटोरे हो जायेंगे किसी दिन इधर से लड्डू, पेडे आदि न मिलने पर गृह की किसी वस्तु को उठाकर हलवाई की दुकान पर पहुँचेंगे। यह सुनकर कौशिक बोला आप लोग क्या कह रहे हैं मैं कभी एक पैसे तक भी इसको नहीं देता हूँ रुपये तो बड़ी वार्ता है। अतः ऐसी दशा में आप लोगों का यह कथन संगत नहीं है। इसके अनन्तर वे लोग चुप हो गये क्यों कि उन लोगों को इस वृत्त का साक्षात्कार नहीं था। केवल अपने लड़कों के कहने से ही कौशिक को इतना कहना पड़ा था। अतएव उन्होंने सेाचा कि शायद यह बात झूठी ही हो बालकों का तो स्वभाव होता है उनको झूठ आदि से कोई घृणा नहीं होती है। इसलिये आज इस बात का निश्चय करना चाहिये। ठीक जिस समय लड़के निर्दिष्ट समयानुसार खेल के लिये क्रीडास्थल में गये। उसी समय कौशिक को भी साथ लेकर कतिपय मनुष्य वहाँ पहुँचे। ठीक उसी अवसर पर लड़के भोजन जीम रहे थे देखते ही सब लोग बड़े विस्मित हुए। अन्ततः समय पर आ प्राप्त हुए देखकर कौशिक पुत्र को कहना ही पड़ा कि आप लोग भी पंक्ति बद्ध हो जायें और अभीष्ट भोजन का चिन्तन कर जीमना आरम्भ कर दें, उन्होंने वैसा ही किया और जब भोजन करने के अनन्तर आचमन, कर चुके तब उन लोगों ने, जो कि कौशिक के निश्चय कराने के लिये उसको साथ लाये थे, कौशिक से कहा कि कहिये अब तो हमारी बात को निश्चात्मक मानोंगे वा नहीं। क्यों कि तुम अब हमारे कहने से ही विज्ञापित नहीं हो किन्तु स्वयं दृष्टचित्र में स्वात्मरोचक भोजन से उदर पूर्ति कर निःसन्देह हो चुके हो। इसके बाद ठीक है आप लोग सत्य कहते थे, यह कहकर कौशिक ने अतीव प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्र को गोद में उठा लिया और सिर के ऊपर हस्त धर के वह उसे सप्रीति पुचकारने लगा। इसी प्रकार अन्य समीप उपस्थित पुरुषों ने भी श्रद्धा की दृष्टि से सम्मानित बनाते हुए उस लड़के को असंख्य धन्यवाद दिया और कहा कि हे कोशिक! तेरे गृह में अवश्य यह कोई अवतारी पुरुष प्रकट हुआ है इसमें कोई सन्देहजनक बात नहीं है। अतः आज इस संसार में तुम्हारे जैसा भाग्यशाली अन्य कौन पुरुष है जिसको स्वगृह में ही प्रतिदिन ऐसे महापुरुष के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा। (अस्तु) अनन्तर वे सब लोग नगरी में आये। अब तो यह बात कतिपय क्षण के बाद समस्त काशीपुरी में प्रसृत हो गई। अतएव जिस गली जिस कूचे में देखते थे उसी में उस लड़के की सिद्धिविषयक बातें श्रवण होती थी। यह देख लड़के ने अपने पिता को निःसन्देह कर एक क्षेत्र खुला दिया। जिससे अनेक दीन लोग मनोवांच्छित भोजन खाते हुए अपना जीवन सफल करते थे। इस वृत्त की ध्वनि ग्रामान्तरों में भी पहुँची। एक दिन अन्य ग्रामों में विचरते हुए श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने उसकी महिमा सुनी और काशीपुरी में आकर पुरुषों द्वारा अपनी आने की सूचना उसको दी। जब उसको यह समाचार मिला, कि एक बड़े तेजस्वी अद्वितीय योगी नगरी में आये हैं जो कि अपना मत्स्येन्द्रनाथयति नाम बतलाते हैं उन्होंने हमारे द्वारा तुम्हारा आव्हान किया है इस लिये तुमको शीघ्र ही उनकी सेवा में उपस्थित होना उचित है, तब तो वह लड़का बिना ही विलम्ब के वहाँ पहुँचा और मत्स्येन्द्रनाथजी की अत्यन्त नम्रतायुक्त यथोचित स्तुति करने के अनन्तर कहने लगा भगवन्! कुछ सेवा आदि की आज्ञा दीजिये जिस वशात् आपकी शुश्रुषा में संलग्न हुए हम लोगों का यह आज का दिन सफल हो जाय। हम पापी निर्वुद्धि मलीन अन्तःकरण वाले मनुष्य हैं, नाना प्रकार के अयोग्य कर्मों में व्यग्र रहते हैं इसीलिए आप जैसे नगरी में प्राप्त हुए महात्माओं की कुछ सेवा नहीं बन पड़ती है। तथापि आज मुझे पूरा विश्वास है आप हम लोगों से अपने शरीर सम्बन्धी सेवा लेकर हमको अवश्य कृतार्थ करेंगे। यह सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि हम तुम्हारे ऊपर अतीव प्रसन्न हैं। जैसी इस समय तुम्हारी वृत्ति है इसको छोड़ बैठकर तुम संसार के अन्यथा चक्र में न पड़ जाना। किन्तु जब तक शरीर में प्राणों का संचार विद्यमान है तब तक इसी का अवलम्बी रहना। अवश्य दयानिधि जगदीश तुम्हारी आवाज को श्रवण कर तुम्हारा कल्याण ही क्या समस्त संसार में तुम्हारा यश विस्तृत कर तुमको संसार के इतिहास में अग्रगणनीय तथा अमर बना देगा। यह जो कुछ हम कर रहें है सो अन्यथा नहीं समझना। किन्तु हमारे इन वाक्यों को अपने निर्मल हृदय में स्थापित कर छोड़ना। कभी समय प्रापत होने पर अवश्य इनकी सत्यता प्रमाणित होगी। परन्तु अब और कुछ सेवा न लेकर हम तुम्हारे से इतनी ही सेवा ले के स्वात्मा को सन्तुष्ट करना चाहते हैं कि तुम यह बतलाओ जिस वशात् इस नगरी में तुमने इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त की है वह सिद्धि किससे प्राप्त की है। अर्थात् इसकी दीक्षा के लिये तुमने कौन गुरु धारण किया था। लड़का बोला कि भगवन्! मेरी दश वर्ष से भी कुछ कम ही अवस्था थी उस समय एक महात्मा यहाँ हमारे नगर में आकर विराजमान हुए थे। जिन्होंने केवल मेरे साथ ही एक दिन वार्तालाप किया था और एक मन्त्र भी सम्भवतः उन्होंने अवश्य देकर मेरे भाग्य की लता बढ़ाई थी। यद्यपि बाल भाव से वह इस समय विस्मृत हो गया है। तथापि उनके अमोघ आशीर्वाद द्वारा मनोवांच्छा मात्र से मेरी अनेक आकांक्षित सिद्धि प्रकट होने लगी। इसीलिये मैं अपने साथी लड़कों को नगरी से बाहर ले जाकर प्रतिदिन लड्डू, पेडे आदि का भोजन कराता था। एक दिन फिर अकस्मात् वे ही महात्मा हमारे क्रीड़ास्थल में आ निकले। ठीक उसी समय ससत्कार मनस्कारादि के अन्तर हमने उनको सप्रेम भोजन कराया। उनकी यथोचित स्तुति भी की। यह देखकर उन्होंने इस समय भी मुझको साल्हाद आशीर्वाद दिया जिसका फल यह हुआ मेरी और भी अधिक मनोरथ सिद्धि होने लगी। इसी हेतु से मैंने भी अपने ऊपर उनकी पूर्ण कृपा का अनुमान कर सर्व साधारण के लिये अभीष्ट भोजन प्रदान करने के वास्ते एक वृहत् अन्नक्षेत्र खोलकर इसके द्वारा प्रतिदिन असंख्य दीन लोगों को यथेष्ट भोजन प्रदान करना आरम्भ किया। परन्तु अब मुझे उन महात्माओं का नाम स्मरण नहीं है। हाँ यदि किसी जगह पर कभी वे सम्मुख हो जायें तो मैं उनकी मूर्ति को देखकर अवश्य बतला सकता हूँ कि ये वे ही महात्मा हैं। तदनन्तर महात्मा मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि उन महात्माओं का आकार क्या था, अर्थात् वे किस वेष में थे। लड़के ने कहा कि उनका आकार ठीक आपके आकार में मिलता था। अर्थात् जो वेष आपका है यही उनका भी था। यह सुनते ही मत्स्येन्द्रनाथजी सहसा बोल उठे कि वह तो हमारा शिष्य गोरक्षनाथ है। तब लड़का बोला कि ठीक यही बात है तो आप कृपा करें उनको कहीं से बुला दें। मैं उनका शिष्य बनूँगा और यदि ऐसा न करें तो अपना ही शिष्य बना लें। मत्स्येन्द्रनाथजी कहा कि नहीं हम तो अपना शिष्य नहीं बना सकते हैं किन्तु उसी को बुला देंगे। परन्तु सायंकाल होने को आया है अब तुम अपने गृह पर जाओ यदि तुमने सांसारिक व्यवहार में अपना अमंगल दीख पड़ा हो। अतएव गोरक्षनाथ का शिष्यत्व ग्रहण करना निश्चय कर लिया हो तो हम रात्री के समय उसको अवश्य बुला लेंगे तुम प्रातःकाल फिर हमारे पास आना। यह सुन लड़का अपने गृह को चला गया। उधर रात्री आने पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने अपने शिष्य गोरक्षनाथजी का उद्देश्य ठहराकर नाद बजाया। जिस वशात् तत्काल ही गोरक्षनाथजी गुरुजी के सेवा में उपस्थित हुए। यह देख आपने समग्र वृत्तान्त सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुए। उधर प्रातःकाल होते ही वह लड़का भी आ पहुँचा और वह देखते ही सप्रीति गोरक्षनाथजी के चरणों में गिरा तथा उसने कहा कि आप मुझे अपना शिष्य बनाकर अपने वेष में मिलाओ मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है अब आपका साथ नहीं छोडूँगा और जब तक आप मुझे अपना शिष्य करना स्वीकार न कर लेंगे तब तक भोजन भी नहीं करूँगा। इस प्रकार जब गोरक्षनाथजी ने यह निश्चयात्मक समझ लिया कि ठीक यह ऐसा ही करेगा तब तो आपने उसके माता-पिता को यह सूचना दी कि तुम्हारा पुत्र हमारे वेष में सम्मिलित होना चाहता है। अतः इस विषय में जो कुछ कहना चाहते हो तो कहो। यह सुनते ही उस लड़के की माता सहसा बोल उठी (हाय-हाय) महाराज, ऐसा क्या अनर्थ करते हो हमारे तो यह एक ही पुत्र है। जिसके समस्त सुयोग्य गुणों के ऊपर हम ही नहीं नगर मात्र के लोग बलिहारी हैं। अतः इस अद्वितीय पुत्र को अपने वेष में मिलाकर हमारे वंश को समूल उखाड़ देना आपको किसी प्रकार भी उचित नहीं हैं! यह सुन गोरक्षनाथजी ने कहा कि जो कुछ तुम कहती हो सो ठीक है तथापि इस विषय में तुमने किंश्चित भी सोच विचार नहीं करना चाहिये। क्यों कि यह तो तुमको मालूम ही है कि यह लड़का तुम्हारे उदर से प्रकट नहीं हुआ है। किन्तु वट वृक्ष के बिवर से प्राप्त हुआ है। ऐसी दशा में भला विचार किया जाय कि क्या यह मनुष्य का चरित्र है। किन्तु कहना पड़ेगा यह अवश्य कोई दैविक ही घटना है। तथापि मोहन्धकार में मग्न होकर तुम्हारा इसको अपना पुत्र मान बैठना तथा इसके विषय में शोक उत्पन्न करना सर्वथा अनुचित है। हाँ आकाशवाणी के अनुसार तुमने जो सप्रीति तन-मन से इसकी पालना की है उसके लिये अवश्य तुम स्वर्गस्थ ऊँचे आसन के अधिकारी हो। इसके बाद कौशिक की ओर इशारा कर आप कहने लगे कि यह लड़का आविर्होत्र नारायण का अवतारी है जिस उद्देश्य अवलम्बन कर यह अवतरित हुआ है उस उद्देश्य सिद्धि का समय निकट आ पहुँचा है यह अवश्य वैसा करेगा इसमें यदि तुम इसको अपनी ओर से उत्साहित करोगे तो और भी अच्छा होगा जिससे तुम्हारा नाम संसार के इतिहास में चिरस्थायी हो जायेगा। अन्ततः कौशिक ने समझ लिया कि ठीक है यह अब अधिक दिन हमारे गृह पर नहीं रहेगा इसे अभी आज्ञा दे देना उचित है। ऐसे महात्मा की शिक्षा प्राप्त कर यह अवश्य अपना तथा हम दोनों का कल्याण करने के लिये समर्थ होगा। क्योंकि हमने इन महात्माओं की महिमा सुन रखी है। ये अपने ढंग के एक अद्वितीय ही हैं। यह विचार कर उसने अपने लड़के को योगी होने की आज्ञा दे दी और कहा कि बेटा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक तन-मन से इन महात्माओं की सेवा में तत्पर रहना। तथा फिर कभी वापिस आकर उस स्वरूप में भी हमें अवश्य दर्शन देकर मोहाग्नि से दग्ध हुई हमारी त्वचा में अपना प्रेमरूपी अमृत सींचना। इस प्रकार पिता की आज्ञा मिलने पर लड़का आभ्यन्तरिक रीति से अतीव प्रसन्न हुआ और माता-पिता के चरणों में सीस लगाकर उपस्थित अन्य साथी लड़कों को तथा वृद्ध जन समूह को सिर झुकाकर नमस्कार करता हुआ महात्माओं के साथ चल पड़ा। शनै-शनै देशान्तर की रम्मत करने हुए तीनों महानुभाव कतिपय मास के बाद बदरिकाश्रम में पहुँचे। वहाँ कुछ दिन ही निवास करके गोरक्षनाथजी ने एक दिन अच्छा मंगलप्रद वाद देख उक्त लड़के को स्वकीय वेष में सम्मिलित कर नागनाथ, नाम से प्रसिद्ध किया। अनन्तर जब वह कुण्डलादि चिन्हान्वित हुआ कुछ योग क्रियाओं में निपुण हो चुका। तथा अनेक सिद्धिमय मन्त्र विद्या का अच्छी तरह ग्रहण कर चुका। तब पूरा मुमुक्षु जानकर महात्माजी ने उसको तप करने के लिये उत्साहित किया। अर्थात् बारह वर्ष की अवधि नियतकर उसको तप करने के लिये खड़ा किया और समयानुकूल आहारादि प्रदान कर आपने-अपने शिष्य से वह घोर तप कराया जिस तप के प्रभाव से उसने ऐहलौकिक जन्म-मरण रूप परम्परा के घोर दुःख का नाशकर ब्रह्मानन्दरूप दुष्प्राप्य वस्तु को प्राप्त किया।
इति श्री नागनाथोत्पत्तिवर्णन ।

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