Featured Post

जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Friday, May 10, 2013

श्रीकारिणपानाथोत्पत्ति वर्णन


एक समय किसी विशेष कार्य के लिये कितने ही देवता लोग एकत्रित होकर कृत नाना श्रृंगार अति रूपवती अपनी-अपनी स्त्रियों के सहित श्रीगंगाजी के तट पर पहुँचे। जिन्हों में श्री ब्रह्माजी भी आकर सम्मिलित हुए थे। उधर श्री सरस्वती जी ने विचार किया कि समस्त देवताओं की स्त्रियें नाना प्रकार के श्रृंगार करके गई हैं अतः मैं उनसे अधिक मनमोहनी श्रृंगार कर वहाँ जाऊँगी कहीं अच्छा है। अनन्तर सरस्वतीजी ने अपना श्रृंगार करना आरम्भ किया। जिसका निरूपण होना दुष्कर है। अतः इस विषय में मैं कुछ न लिखूंगा। सरस्वतीजी ने कैसा रूप धारण किया होगा इसका उसकी प्रभुता से ही आप लोग अनुमान कर सकते हैं। (अस्तु) जब सरस्वती, जिस जगह पर देवता लोग एकत्रित हो रहे थे, वहाँ आई तत्काल ही श्रीब्रह्माजी की दृष्टि उसके ऊपर पड़ी। देखते ही वे कामातुर हो उठे, उन्होंने बड़ी सावधानी के साथ काम को शान्त करने के लिये यत्न किया तथापि काम की इतनी प्रवलता उतन्न हो गई थी जिसका शान्त करना असाध्य हो गया और शरीर के बहिर निकलकर उसने ब्रह्माजी को अपने बल का पूरी तरह से परिचय दिया। यह देखकर ब्रह्माजी अत्यन्त ही विस्मित हुए और उन्होंने वीर्य को लेकर श्रीगंगाजी के प्रवाह में छोड़ दिया। आगे एक जंगली मस्त हस्ती श्री गंगाजी में पड़ास्नान कर रहा था दैव योग से वह उसके कर्म में जा कर स्थित हो गया और कतिपय दिनों में वही वीर्य मनुष्याकार हो कर सचमुच बालक बन गया। जिससे प्रबुद्ध नारायण ने अपने सूक्ष्म शरीर को प्रतिष्ट किया। ठीक उसी समय श्री मत्स्येन्द्रनाथ ज्वालेन्द्रनाथजी दैवगत्या श्री महोदव जी से मिलने के लिये कैलास में गये। वहाँ पारस्परिक आदेश-आदेश के अनन्तर श्री महादेव जी ने प्रस्ताव उपस्थित करते हुए कहा कि प्रबद्ध नारायण का अवतार भी हो चुका है। यह सुन उक्त महात्माओं ने पूछा कि भगवन! कहिये कहाँ और किस प्रकार से हुआ है। प्रत्युत्तर में श्री महादेवजी ने कहा कि किसी विशेष कार्यार्थ देवता लोग गंगाजी के तटस्थ सप्तस्त्रोत के समीपस्थ स्थल में एकत्रित हुए थे। जिन्हों की अंगनायें भी साथ में थी। इसी अवसर पर अन्यस्त्रियों की देखा-देखी सरस्वती ने सर्व से अधिक मनमोहनी रूप धारण किया था। जिसके दर्शन मात्र से ब्रह्माजी काम करके अतीव खिन्न चित्त हो गये थे और उन्होंने बड़ी सावधानी के साथ काम के रोकने के लिये प्रयत्न भी किया था। परन्तु काम अन्तः स्थिति न करके सहसा शरीर से बाहर निकल आया। विवश होकर ब्रह्माजी ने वीर्य को गंगाजी में डाल दिया था। वही वीर्य बहता हुआ आगे धारा में लेटे हुए एक जंगली हस्ती के कर्ण में स्थित हो गया। उसी का कतिपय दिनों में मनुष्याकार पुतला तैयार हुआ और प्रबुद्ध नारायणजी ने उसमें अपना जीवात्मा प्रविष्ट किया है। तब मस्तयेन्द्रनाथजी ने कहा कि भगवन्! उसको जिस विधि से हो सके उसी विधि से अब शीघ्र ही निकाल लेना उचित है। क्योंकि नहीं जानते हैं कब कर्ण से उसका पात हो जाय। यदि अकस्मात् किसी अरक्ष्य स्थान में पात हो गया तो महान् अनर्थ उपस्थित हो जायेगा। क्योंकि यह वह अवस्था है जिसमें एक बार तो सर्व ही को परतन्त्र होना पड़ता है। यह सुनते ही श्रीमहादेवजी ने उन्हों का प्रस्ताव स्वीकृत किया और दोनों महात्माओं के साथ ही वे वहाँ से प्रस्थान कर हरिद्वार के समीपस्थ वन में आ पहुँचे। वहाँ उन्होंने वन में उस हस्ती को अन्वेषित किया। तथा उन दोनों महात्माओं को आज्ञा दी कि इसी के कर्ण में प्रबुद्ध नारायण स्थित है जाओ आप लोग निःसन्देह होकर निकाल लो। परन्तु यह सुन ज्यों ही वे दोनों महात्मा हस्ती की तरफ अग्रसर हुए और मस्तयेन्द्रनाथजी के इसारे से जब ज्वालेन्द्रनाथजी ने बालक को निकालना चाहा त्यों ही वह मस्त हस्ती सहसा उनकी और झपटा। ज्वालेन्द्रनाथजी ने बड़ी चतुराई के साथ अनेक बार उसका प्रहार निष्फल किया और निश्चयात्मक यह समझ लिया कि यह इस प्रकार वंशगत होना सहज नहीं है। तब उन्होंने मस्तयेन्द्रनाथजी से कहा महाराज! यह तो बड़ा ही चंचल मालूम होता है अतः अवश्य किसी मन्त्रादिका आश्रय लेना चाहिये। मस्तयेन्द्रनाथजी बोले अच्छा कुछ क्षण शान्ति करो हम इसकी चंचलता सब निकालते हैं। हम सोचते थे ऐसे ही बिना परिश्रम किये कार्यासिद्धि हो जायेगी काहें के लिये इस बिचारे को जकड़ीभूत कर कष्टान्वित किया, परन्तु क्या करें उपायान्तर के अभाव से अब अवश्य ऐसा करना ही पड़ेगा। अनन्तर उन्होंने अपनी झोली से एक चुटकी विभूति और मोहनी मन्त्र के साथ उसको हस्ती को ओर फेंक दिया। तत्काल ही हस्ती ऐसा मोहित हो गया जिससे सब चंचलता उसके शरीर को तिलांजलि देकर प्रस्थान कर चली। ऐसा होने पर हस्ती निश्चेष्ट जैसा होकर एक जगह स्थित हो गया। ठीक उसी समय श्रीमहादेवजी ने ज्वालेन्द्रनाथजी को कुछ दूरी से पुकार कर कहा कि अब तुम ऊँचे स्वर से आवाज दो। जिससे वह बालक कुछ सावधान हो जाय। यह सुन ज्वालेन्द्रनाथजी ने ऊध्र्व स्वर से पुकार कि प्रबुद्ध नारायण के अवतारी सावधान होकर बाहर बाहर निकलो, अब वह समय आ पहुँचा है जिसमें तुमने अपने उद्देश्य की पूर्ति करनी है। इस प्रकार आवाज को सुनकर ज्यों बालक कुछ बाहर आया त्यों ही ज्वालेन्द्रनाथजी ने उसको अपने हस्तों में पकड़कर कर्ण से बाहर निकाला। ठीक उसी समय जब ज्वालेन्द्रनाथजी बालक को श्रीमहादेवजी के तथा मस्तयेन्द्रनाथजी के समीप लाये तब तो अवश्य एक बार उसने श्रीमहादेवजी तथा उक्त दोनों महात्माओं को सनीति नमस्कार किया। परन्तु पश्चात् प्रकृति देवी के नियमानुसार वह उस बाल्यावस्था के अनुकूल ही अज्ञातावस्थास्थ बालकवत् अज्ञात हो गया। यह देख श्रीमहादेवजी आज्ञा देते हुए कहने लगे कि ज्वालेन्द्रनाथ ! इस बालक को तुम अपने समीप रखना और इसकी सर्व प्रकार से रक्षा करते हुए इसको अपनी विद्या में निपुण होने के लिये दीक्षा दानपूर्वक अपने सर्व चिन्हों से चिन्हित कर देना। देखना यह बड़ा ही प्रतापी होगा। समस्त जगत में तुम्हारी कीर्ति का अच्छा विस्तार करेगा। यह सुन ज्वालेन्द्रनाथजी जब महादेवजी की आज्ञानुसार उसको अपने ही समीप रखना स्वीकृत किया तब श्रीमहादेवजी और मस्तयेन्द्रनाथजी दोनों कैलास को गमन कर गये। उधर ज्वालेन्द्रनाथजी भी हरिद्वार से नीचे के प्रान्तों में भ्रमण के लिये प्रस्थान कर गये। और कतिपय वर्षों तक निजभक्तों योगक्रियारूप परमौषध द्वारा नाना कष्टों से विमुक्त करते हुए इतस्ततः भ्रमण करते रहे। एवं सर्व प्रकार से दत्तचित्त हुए बालक का विधिपूर्वक पालन-पोषण भी करते रहे। जब आपने समझ लिया कि बालक अच्छा समझदार हो गया है तब उसको कुण्डलादि से युक्त कर उसे अपने यथार्थ वेष में सम्मिलित किया और गुरुमन्त्रदानपूर्वक उसमें अपना शिष्यत्व आरोपित किया। तथा कहा कि बेटा तू करि के कर्ण से प्रकट हुआ है अतः हम तेरा नाम, कारिणपानाथ, रखते हैं। आज से लेकर इसी नाम से तेरी जगत् में प्रसिद्धि होगी। ऐसा होने पर प्रत्युपकारार्थ कारिणपानाथजी ने अपने गुरुजी की सहर्ष कोमल वाणी द्वारा स्तुति की और आप उनके चरणों में गिर गये। ज्वालेन्द्रनाथजी ने समस्त गुण सम्पन्न सुयोग्य शिष्य जानकर अपनी अनेक विद्यायें उनको प्रदान की। अनन्तर जब अपने घर की कई एक विद्याओं में उन्होंने निपुणता प्राप्त करी ली तब ज्वालेन्द्रनाथजी उनको बदरिकाश्रम में ले गये। वहाँ जाने पर भी कितनी ही विद्या उनको प्रदान की। पश्चात् एक दिन शुभ बार तथा नक्षत्रादि देखकर आप उनको तप में तत्पर करने के लये प्रयत्न करने लगे। अर्थात् आपने अपने कृत्य की तुल्य ही एक लोहे की कील भूमि में आरोपित कर श्री गणेशजी के ध्यानपूर्वक उस पर आरूढ़ होने की उनको आज्ञा दी तथा सप्रेम अतीव कोमल वाणी द्वारा उनको धैयान्वित करते हुए बड़ी सावधानी से सर्वोन्द्रियगत चाश्चल्य को दूर भगाकर शरीर को निश्चल करने के लिये सूचित किया। उन्होंने गुरु आज्ञा को शिरोधार्य समझ कर ज्वालेन्द्रनाथजी को अपने विषय में निःसन्देह रहने के लिये कहा, तथा अत्यन्त दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ चित्त में धीरता धारण कर महाघोर तप करने के लिये गुरुनिर्दिष्ट कीलिका के ऊपर समस्त कलेवर का भार स्थापित किया। इसी प्रकार जब ठीक बारह वर्ष व्यतीत हो गये तब ज्वालेन्द्रनाथजी ने उनको तप सम्बन्धी बेदनारूप कष्ट से मुक्त किया। उस समय कारिणपानाथजी का शरीर अत्यन्त ही कृष होकर लकड़ी की सदृश दीख पड़ता था। परन्तु आसन मुक्ति के अनन्तर दिनों दिन पुष्ट होने से कतिपय दिनों में पूर्ववत् ही दृष्टतान्वित हो गया। अतएव कितने ही दिन वहाँ निवास कर उन्होंने स्वकीय गुरु श्री ज्वालेन्द्रनाथजी से और भी कुछ विद्या प्राप्त की। जिसके सकाश से उन्होंने अपने आपको एक पूरा महायोगेश्वर बना लिया। इसी हेतु से ज्वालेन्द्रनाथजी को पूरा विश्वास हो गया कि यह बड़ा ही गुरुभक्त तथा उत्साही और मुमुक्षु पुरुष है। अतः उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि हम किसी दिन इसको अपनी शक्ति का परिचय देंगे। बल्कि ऐसा विचार कर इस वार्ता को उन्होंने अपने हृदय में ही स्थित रखा। अनन्तर एक दिन प्रसन्न होते हुए आप कारिणपानाथजी से कह उठे कि अभी तुम हमारी शक्ति से अनभिज्ञ हो अतः हम आज तुमको अपनी शक्ति का परिचय देते हैं तुम सावधानी के साथ देखना विस्मत न होना। इधर इस प्रकार सप्रेम गुरु वाक्य को सुनते ही अत्यन्त प्रसन्न मुख होकर अपने मन ही मन में कारिणपानाथजी यह मोद बढ़ा रहे थे कि मैं धन्य हूँ, धन्य हूँ अतीव धन्य हूँ प्रथम तो यह अच्छा सौभाग्य मिला है कि ऐसे पहुँचे हुए गुरु प्राप्त हुए। द्वितीय यह और भी अत्यन्त आनन्द की वार्ता है कि इन्हों की मेरे ऊपर पूरी कृपा की दृष्टि है। उधर ज्वालेन्द्रनाथजी ने बिना ही विलम्ब के अपनी झोली से एक चुटकी विभूति निकाली और वातमन्त्र के जाप सहित उसको आकाश की ओर फेंक दिया। बस क्या था तत्काल ही बड़े वेग के साथ वायु चलने लगा। अधिक क्या वृक्ष भी समूल उखड़-उखड़ कर भूमि पर गिरने लगे। इसी प्रकार कुछ समय तक वायु के चलते रहने पर धूलि से आकाश आच्छादित हो गया। जिस वशात् सहसा पृथिवी पर घोर अन्धकार छा गया। उधर वायु के प्रबल वेगपूर्वक चलने से जो वृक्षोत्पाटन हो रहा था उनके नीचे गिरने के साथ-साथ छोटे-मोटे पर्वतों पर पत्थर भी उनकी साथ ही नीचे गिरते थे। जिन्हों के पारस्परिक संघर्षण से ऐसा घोर शुद्ध होता था मानों सचमुच प्रलयकाल ही आरम्भ हो गया हो। अनन्तर ज्वालेन्द्रनाथजी ने द्वितीय चुटकी और निकाली जिसके फेंक देने से शीघ्र ही वायु वेग दूर हुआ। इसी प्रकार तृतीय चुटकी फिर तैयार कर उसे आकर्षण मन्त्र के जाप सहित देवताओं को लक्ष्य करके फेंक दिया। जिस वशात् स्वर्गवासी देवतालोग अपने-अपने विमानों पर आरूढ़ होकर तत्काल ही ज्वालेन्द्रनाथजी के समीप आ प्राप्त हुए। तथा कहने लगे कहिये हम लोगों को किस प्रयोजन के लिये स्मृत किया है। प्रत्युत्तर में ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि हमने अपने शिष्य कारिणपानाथ को आप लोगों के दर्शन कराने के लिये ही बुलाया है अतः अब लोगों को उचित है अपने सहर्ष पवित्र दर्शन के साथ-साथ ही हार्दिक आर्शीवाद प्रदान से इसको कृत कृत्य करें। यह सुन सर्व इन्द्रादि देवता प्रसन्न हुए और साल्हाद एक साथ ही कह उठे कि हम लोग कारिणपानाथजी के ऊपर अत्यन्त प्रसन्न है। इसीलिये आभ्यन्तरिक भाव से सविनय निवेदन करते हैं ईश्वर अपनी अमोघ कृपा करे जिससे यह कारिणपानाथ ज्वालेन्द्रनाथजी में दृढ़ भक्ति रखता हुआ संसार में महती प्रतिष्ठा को प्राप्त हो। इसके अनन्तर अपने-अपने विमानों पर बैठकर सर्व देवता लोग तो निज स्थानों को प्रस्थान कर गये। उधर कारिणपानाथ महाल्हादान्वित हुए ज्वालेन्द्रनाथजी के चरणों में गिर और अनेक प्रकार से उनकी स्तुति करते हुए कहने लगे कि स्वामिन्! आपको बार-बार धन्यवाद हैं जिनके द्वारा मुझ कीट को बड़े-बड़े देवताओं के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एवं देवतओं के दर्शन द्वारा तथा आशीर्वाद द्वारा इस अतथ्य संसार के घोर दुःखों से मुक्त होकर मुझे अपने जीवन के सफल करने का अवसर उपलब्ध हुआ है। अतएव इस उपकार के ऊपर मैं आपका सदा कृतज्ञ रहूँगा। यह सुनकर ज्वालेन्द्रनाथजी अपने सुलक्षण गुरुभक्त शिष्य पर और भी अधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने, वे देवता जो कि अपने वाक्य की उपेक्षा कर कारिणपानाािजी को बिना ही वरदान तथा आशीर्वाद प्रदान किये प्रमत्ता से अपने विमानों पर सवार हो अपने आश्रम को चले जाते रहे थे, शीघ्रता से विभूति निकालकर समन्त्र उनकी तरफ फेंक दी। जिस वशात् अन्य देवता, जो कि वरदान दे गये थे वे तो तादृश ही गमन करते रहे परन्तु जो लापरवाही से चले गये थे उनके विमान वहीं ठहर गये। देवताओं के अनेक प्रकार के यत्न करने पर भी विमान आगे न चलकर वापिस ज्वालेन्द्रनाथजी के समीप ही आकर पृथिवी पर उतर पड़े। इसके बाद आपने एक चुटकी और भी उनकी ओर फेंकी। यह मोहन मन्त्र के साथ फेंकी गई थी अतएव वे देवता और उनकी स्त्रियें अपने-अपने वस्त्रों को दूर फेंककर परस्पर में नृत्य करने लगे। इसी तरह नृत्य करते-करते कुछ समय व्यतीत हुआ और उधर वे सर्व नाच कूदकर शिथिल हो गये। तब ज्वालेन्द्रनाथजी ने कारिणपानाथजी को आज्ञा दी कि सबके वस्त्र उठा लाओ। तत्काल ही उन्होंने गुरु के वचन को पूरा किया। अनन्तर एक चुटकी और भी फेंकी गई जिससे देवता लोग प्रबुद्ध हो गये और परस्पर में एक-दूसरे को नग्न देखकर विस्मित से हुए बड़े ही लज्जित हुए। अन्ततः जब यह निश्चय कर लिया कि अवश्य यह इन ज्वालेन्द्रनाथजी की ही प्रेरित माया है। तब तो वे सब ही मिलकर सलज्जा आगे बढ़ते हुए ज्वालेन्द्रनाथजी के समीप में उपस्थित हुए तथा कहने लगे कि हे योगिन्! क्षमा कीजिए यदि हम लोगों से कोई अपराध हो गया हो तो। क्योंकि उसकी निवृत्ति के लिये जैसी आपकी आज्ञा होगी जिसके अनुकूल ही हम कार्य करने को उत्सुक हैं। एवं आपकी योगसिद्धि देखकर आपके ऊपर हम लोग अतीव प्रसन्न चित्त हैं। अतएव हम लोगों के साध्यानुकूल कोई वर मांगों। जहाँ तक हो सकेगा आपके वचन को अवश्य सफल किया जायेगा। यह सुन ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि क्या आप लोगों को अब तक मालूम नहीं हुआ है यह जो कारिणपानाथ मेरा शिष्य है यह प्रबद्ध नारायण का अवतारी है इसी को वरदान देने के लिये ही तो आप लोगों को यहाँ बुलाया गया था। मेरा तो खास कोई कार्य नहीं था। परन्तु इस विषय में आप लोग कुछ भी दृष्टि न देकर जैसे आये थे वैसे ही वापिस लौट गये इसीलिये हमने आप लोगों को इस कृत्य से व्यथित करना पड़ा है। अब भी यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो बहुत ठीक है इस मेरे शिष्य को ऐसा वरदान दो जिससे योगक्रिया में अच्छी निपुणता प्राप्त कर इस संसार में विख्यात कीर्ति हो जाय। इसके अनन्तर ज्वालेन्द्रनाथजी के कथनानुसार कारिणपानाथजी को वर प्रदान कर सब देवता लोग अपने-अपने आश्रम को प्रस्थान कर गये। उधर ज्वालेन्द्रनाथजी अपने शिष्य के सहित बदरिकाश्रम के प्रधान-प्रधान स्थानों में भ्रमण करने लगे। इसी प्रकार कतिपय दिनों में मार्तण्ड पर्वत पर भी पहुँचे। वहाँ जिस नागवृक्ष के नीचे बैठकर एक अनुष्ठान द्वारा मत्स्येन्द्रनाथजी ने देवताओं को प्रसन्न किया था वह पवित्र जगह भी कारिणपानाथजी को दिखलाई। एवं सूर्यकुण्डादि के दर्शन कराकर उनका और भी हर्ष बढ़ाया। और एकाकी भ्रमण कर जनों को योगोपदेश करते रहने की आज्ञा देकर स्वयं भी उसी कार्यार्थ पृथक् चले गये।
इति श्रीकारिणपानाथोत्पत्ति वर्णन ।

No comments:

Post a Comment