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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Friday, May 31, 2013

श्रीचर्पटनाथ रेवननाथ कैलास गमन वर्णन

ब्रह्म गिरिनामक पर्वतपर निवसित चर्पटनाथ तथा रेवननाथजी ने कुछ दिन मे व्यतीत होने पर अपने-अपने शिष्यों को पूर्णतया योगवित् बना दिया और उनको सम्मुख बैठाकर समझाया कि जिस कार्य के लिये हम लोग अपने उत्तरदायित्व से अनृण हो चुके हैं। अतएव हम इस कार्य लब्धावकाश होने के वास्ते कैलास्थ श्रीमहादेवजी की सेवा में उपस्थित होंगे। जिससे सम्भव है कि फिर हमारा तुम्हारा समागम बहुत काल तक नहीं होगा। इस वास्ते तुम लोगों को हम यह अन्तिम सूचना देते हैं। तुमको उचित है कि संसार में निशंक होकर विचरण करते हुए श्री शिव महाराज के इस योग मार्ग को विस्तृत करने में यथेष्ट शक्ति लगाओ और प्राप्तावर कालिक सामाधिक अभ्यास द्वारा अपने जीवनोद्देश की सफलता के लिये भी यत्न करते रहो। बस इन, स्वकीय कल्याणार्थ समाधिस्थानन्द का अनुभव करना, तथा परोपकारार्थ जनों को योग का मर्म समझना, रूप दो कार्यों से अतिरिक्त सांसारिक किसी झगड़े से सम्बन्ध न रखना। यदि हमारे बचपन पर ध्यान न देकर उक्त वात से सम्बन्धित होंगे तो समझ लो संसार सागर से पारंगत होने की कुंजी जो, हमने तुम्हारे हस्त में प्रदान कर दी है यह तुम्हारे हस्त से जाती रहेगी। जिसका फिर प्राप्त होना उतने ही कष्टों का अनुभव करने के अनन्तर हो सकता है जितने कि तुम स्वयं अनुभवित कर चुके हो। इतना होने पर ही अग्रिम जन्म में आधुनिक अवसर जैसा अनुकूल अवसर प्राप्त हो कि नहीं यह बड़ा भारी सन्देहात्मक विषय है। अतः हमारे वचन और हमको तुम सदा सन्निहित समझना कभी अपने आन्तरिक स्थान से दूर न कर बैठना। मनुष्य का विचार न करना ही, कि मेेरे ऊपर भी कोई वा नहीं, अनर्थ का उत्पादक है। संसार में ऐसे अधिक लोग देखने में आते हैं कि स्वामिसान्निध्य से पारतन्त्रिक हुए कुछ आचरण दिखलाते हैं और स्वातन्त्रिक होने पर कुछ का कुछ ही कर दिखलाया करते हैं। परन्तु यह सोचना चाहिये कि ऐसे कौन पुरुष है और उनकी गणना किन्हों में की जा सकती है। वे हैं अधम पुरुषार्थी लोग जो स्वार्थ वशीभूत हुए स्वार्थ सिद्धि के अवसर की प्रतिपालना में किसी कारणिक घात को लक्ष्य ठहराकर सेव्य की सेवा में उपस्थित होते हैं और उसकी अनुपस्थिति में उसका कुछ ध्यान न रखते हुए स्वार्थघात की ही अन्वेषणा किया करते हैं। ऐसे लोगों की गणना नींच लोगों में की जा सकती है। वे अपने आन्तर्घानिक प्रत्येक कार्य करते हुए यह सोचा करते हैं कि हमारे अमुक कृत्य को कौन देखता हैं। हम अत्यन्त ही चतुरता और रेखदेख के साथ यह कार्य किया करते हैं। परन्तु वे मूढ़ बुद्धि यह नहीं सोचते कि हमने जिसका विशेष डर मानना चाहिये। वही ईश्वर व्यापकत्वानुरोध से हमारे समस्त कृत्यों को देख रहा है। एक दिन ऐसा अवश्य आने वाला है जिसमें उसके सिंहासन के सम्मुख खड़े हो हमको अपने कृत्यों का हिसाब समझना होगा (अस्तु) परं हमको तो पूरा विश्वास है कि हमारे वचन को स्मृतिगत रखते हुए आप लोग ऐसे पुरुषों की उपाधि धारण न करके अपने आपको उक्त वृत्त का उदाहरण स्थल न बना देंगे। इत्यादि औपदेशिक वचन प्रदानानन्तर जब ये दोनों महानुभाव शान्त हो गये तब बड़ी कृतज्ञता के साथ इनके चरणों में मस्तक लगाकर शिष्य वर्ग ने प्रणामात्मक आदेश-आदेश किया। इसी अवसर में प्रत्यभिवाद वाक्यों को प्रयोगित करते हुए इन्होंने ज्यों ही अपने शिष्यों के मुखारविन्द की ओर दृष्टि डाली त्यों ही एकाएक उनके नेत्रों को असोढ़प्रवाह प्रेमाश्रुओं से परिपूर्ण देखा। कारण यह था कि समझदार होने तक अपने प्रिय पुत्र के साथ माता जो-जो हार्दिक व्यवहार करती है वह किसी से छिपी नहीं है। उसी से उपकृत होकर जो पुत्र माता के प्रति अपरिमेय भक्ति रखता है तथा उसके वियोग होने पर कट्टर से कट्टर हृदय मनुष्य भी पूर्वोपकार का स्मरण करते ही अश्रु तो अवश्य डाल देता है। अतएव हम उक्त दोनों महानुभावों को भी माता की तुलना से युक्त कर सकते हैं। इन्होंने प्रत्येक क्रिया प्रदान काल में शिष्यों को जो अपूर्व प्रेम दिखलाया था वह माता से किसी प्रकार भी कम नहीं था। बल्कि माता अनेक कष्टों को भोगने के लिये ही केवल पुत्र की जन्मदात्री है और वे महानुभाव उनके उन कष्टों का उच्छेद करने के लिये दीक्षा प्रदान करते हैं। जिस समय गुरु अपने शिष्य को बस्तिकर्म का आरम्भ करने में नियुक्त करता है तब उस स्थिति की क्या बालक जैसी दशा नहीं होती है और उस समय गुरु उसकी बड़ी चतुरता के साथ आसन पर स्थापित कर दूध मातादि तात्कालिक अनुकूल भोजन तैयार रखता हुआ क्या उसके समर्पण नहीं कर सकता है। किन्तु यह क्या उसके समर्पण नहीं करता है। किन्तु यह क्या यहाँ तक कि माता की तरह गुरु को शिष्यों का जो उक्तादि क्रियाओं में तत्पर होते हैं, मैला तक उठाना पड़ता है। ठीक इत्यादि कर्म को सम्पादित करते हुए इन महानुभावों ने अपने अपूर्व प्रेम का परिचय दिया था। अतएव अकस्मात् ऐसे सच्चे गुरुओं से वियोग होने पर शब्द श्रवण कर सहसा इनके शिष्यों का अश्रुपात हुआ। परन्तु इन्होंने धैर्यान्वित वाक्यों द्वारा उनको शीघ्र सन्तोषित कर दिया और देशाटन के लिये आज्ञापित कर विदा भी कर दिया। तदनु जब शिप्यलोग प्रस्थानित हो गये तब इन महानुभावों को भी अपना निश्चित मनोरथ अवश्य सफल करना था। इसीलिये आप लोग भी वहाँ से अभ्युत्थानित हुए और सौराष्ट्र देश के अन्तर्गत स्थान में, जहाँ गोरक्षनाथजी ने गुहा निर्मित कर कुछ काल ध्यानानन्द लिया था, आये। यहाँ मीननाथजी कुछ समय से निवसित हो अपने शिष्यों को योग शिक्षा प्रदान कर रहे थे उनसे शुभ समागम हुआ। सामागमिक नमस्कारानन्तर चर्पटनाथजी ने कहा कि बहुकालिक अवधि रखकर श्रीनाथजी आदि महानुभाव समाधिनिष्ठ हो गये हैं यह वृत्त आप लोगों से छिपा नहीं है। उधर गहनिनाथ नागनाथजी सम्भव है अपना कार्य समाप्त कर श्री महादेवजी की शरण में जा ही पहुँचे होंगे। इधर हम दोनों वहीं जाने का उद्देश्य ठहराकर आप लोगों को सचेत करने के लिये इधर आये हैं। अतएव हम लोगों की अनुपस्थिति में भी हम श्री महादेवजी के इस उद्देश्य प्रचार की आज जैसी वृद्धि देखने की आशा करते हैं और विश्वास रखते हैं कि इस कार्य को सीमापर्यन्त पहुँचाने के लिये आप लोग प्राणापण से यत्न करेंगे। यह सुन मीननाथजी ने कहा कि यह संसार परिवर्तनशील है। अतः ईश्वरेच्छानुकूल पारिवात्र्तनिक वायुवेग को प्रशान्त करने के लिये तो हम लोग अपने में इतना समथ्र्य नहीं रखते हैं परं आप लोगों के कथनानुसार योगोपदेश प्रचार वृद्धि के लिये जहाँ तक हम से कुछ बन पड़ेगा उठा न रखेंगे। इस वास्ते हमारी ओर से निशंक हुए विश्वसित हो आपलोग अपने जीवन चरित्र को पवित्र बनाये। मीननाथजी इस कथन से प्रसन्न हो ये दोनों महानुभाव वहाँ से चल पड़े और समुद्र तटस्थ रैवतक पर्वत पर, जहाँ धुरन्धरनाथजी विराजमान हुए शिष्यों को दीक्षित कर रहे थे, पहुँचे। प्रारम्भिक आदेश-आदेश के अनन्तर पारस्परिक कुशल वार्ता विषय का प्रश्न उपस्थित हुआ। जिसमें उभय पक्ष की ओर से संतोष प्रकट हुआ। इसके बाद चर्पटनाथजी ने धुरन्धरनाथजी को भी मीननाथजी तरह समझाया कि आप लोगों को अप्रमत्ता के साथ कार्य निर्वाहन करना होगा और यह दिखलाना होगा कि हमने अपने आत्मीय व्यवहार में एवं योग प्रचार विषय के कार्य में अपनी उपस्थिति में कोई शिथिलता न आने दी है। प्रत्युत्तरार्थ धुरन्धरनाथजी ने कहा कि इस विषय में आप लोग निःसन्देह रहे। जिन पवित्र आत्मा आदीशजी की महती कृपा से हमको अपना जीवनोद्देश सफल करने का अवसर प्राप्त हुआ है भला उनके कार्य विस्तार में हम शिथिल कैसे हो सकते हैं। प्रत्युत आप लोगों की अनुपस्थिति में तो हमको और भी उत्साहित एवं सचेत रहना पड़ेगा। यह सुनकर दोनों आनन्दित हुए और कतिपय सार्थक प्रिय वाक्यों द्वारा धुरन्धरनाथजी के शिष्यों को जो, विविध क्रियाओं में यत्नशील थे, प्रोत्साहित एवं प्रफुल्लित चित्त कर वहाँ से विदा हुए। जो कतिपय दिन में मार्गागत अनेक प्रदेशतय करते हुए निमिषारण्य में पहुँचे। यहाँ इन महानुभावों के भ्राता, जिन का नाम हरिनारायण और द्रुभिलनारायण था, कुछ समय से निवासकर आत्मानन्द का अनुभव करते हुए कालयापनद्वारा उस समय की प्रतिपालना में तत्पर थे जिनमें श्रीमहादेवजी की आज्ञानुसार उन्हें भी योग प्रचार के लिये अपने स्वरूप का परिवर्तन करना होगा। अतएव चारों भ्राताओं के आज बहुत काल के अनन्तर एकत्रित होने से जब एककी दृष्टि दूसरे के ऊपर पड़ी तब एक-दूसरे की ओर झपटकर औरस मिलाप करने लगा। यह दशा बड़ी ही विचित्र और निर्वचनीय थी। योगी के समाधिस्थ आनन्द का स्वरूप वर्णन करने के लिये यदि कोई पुरुष अपने आप में सामथ्र्य रखता हो तो हमारे श्रद्धास्पद इस भ्रातृ चतुष्टय के आधुनिक आनन्द का वर्णन कर सकता है अन्यथा नहीं। इसके अतिरिक्त आप लोगों का आनन्द कोई सांसारिक अज्ञानी लोगों जैसा मोहजनित नहीं था। किन्तु इस बात से जनित था कि आगन्तुक नाथजियों ने सोचा हमारे भ्राताओं ने भी अनेक कठिन तपश्चर्यावस्थाओं को पार करते हुए अपने आप में वह शक्ति प्राप्त की जिस वशात् आज इस दीर्घकाल के व्यतीत होने तक भी अपने आपको अक्षुण्ण बनायें रखकर श्रीमहादेवजी को यह दिखला दिया कि हम आपकी कृपा के पूर्ण अधिकारी हैं। उधर नारायणों ने विचार किया कि हम लोग धन्य हैं जिनके भ्राता ऐसे हैं उन्होंने अनेक तपश्चर्यावस्थाओं को तय करते हुए वह शक्ति उपलब्ध की जिस वशात् श्री महादेवजी की आज्ञा के पालन करने में सफल हो सके। (अस्तु) कुछ दिन अपने भ्राताओं के साथ सानन्द सहवास कर उक्त दोनों महानुभाव श्री महादेवजी की सेवा में उपस्थित हुए। वहाँ विनम्र प्रणामात्मक आदेश-आदेश के अनन्तर श्रीमहादेवजी ने उनकी कुशल वार्ता पूछी और स्वकीय आगमन प्रयोजन को स्फुट करने के लिये उनको उत्साहित किया। यह सुनकर हस्तसम्पुटी करते हुए दोनों महानुभावों ने उत्तर दिया कि भगवन्! जो प्रयोजन है वह ऐसा नहीं कि आपसे अज्ञात हो। हाँ यदि उसके विषय में आपकी कुछ और आज्ञा हो तो सूचित करने की कृपा करें। इसके बाद कुछ मुस्कराते हुए श्रीमहादेवजी ने कहा कि नहीं और कुछ आज्ञा नहीं, खैर तुम लोग अपने अभीष्ट कार्य में तत्पर हो जाओ। श्रीमहादेवजी की यह आज्ञा सुन चर्पटनाथजी तथा रेवनानाथजी अतीवानन्दित हुए समीपस्थ गहनिनाथजी तथा नागनाथजी से मिले और कुछ दिन के अनन्तर समाधिस्थानन्द में व्यलीन हो गये।
इति श्रीचर्पटनाथ रेवननाथ कैलास गमन वर्णन ।

Thursday, May 30, 2013

श्री कारिणपानाथ समाधि वर्णन

इधर श्रीज्वालेन्द्रनाथजी के गमन कर जाने पर बदरिकाश्रमस्थ कारिणपानाथजी ने भी वहाँ से प्रस्थान करने का विचार स्थिर किया। इसीलिये वे अपने शिष्यों को दीक्षित करने में विशेषदत्त चित हुए और कुछ ही दिन में गुरुजी की तरह उन्होंने भी शिष्यों को शीघ्र क्रिया कुशलतोपहित बना दिया। तदनन्तर शिष्यों को परीक्षित कर उनकी क्रिया त्रुटि विषयक अभाव का उन्हें पूर्ण निश्चय हो गया तब तो उन्होंने वहाँ से निर्विकल्प हो प्रस्थान किया और कुछ दिन में भ्रमण करते हुए आपज हरिद्वार क्षेत्र सप्तस्त्रोत पर आ पहुँचे। यहाँ कुछ समय निवासकर कारिणपानाथजी ने अपनी उत्पत्ति विषयक वृत्तान्त से अपने शिष्यों को प्रवोधित किया। यह सुन उनके शिष्य आपका पुतला हस्ती के कर्ण में कैसे अंकुरित हुआ। किस प्रकार इसकी पालना हुई। तथा आप उससे बहिर कैसे निकले और निकलने के अनन्तर भी उस समय स्वयं रक्षित नहीं हो सकते थे। अतः किस प्रकार आपकी रक्षापूर्वक घोषणा हुई इत्यादि सन्दिग्ध और आश्चर्योत्पादक वार्ता के स्पष्ट कह सुनाने के लिये विशेष आग्रह करने लगे। इसी वास्ते कारिणपानाथजी ने शिष्यों की विनम्र विशेष प्रार्थना से विवश हो अन्ततः वृत्तान्त को विशेष स्फुट करना उचित समझकर उनको उस समाचार से अवगतित करने के अभिप्राय से कहना आरम्भ किया कि अये शिष्यों ! तुम अपने आन्तरिक स्थान में यह दृढ़ निश्चय धारण कर लो ईश्वरीय नियम ऐसा ही नहीं है कि मानुषजातीय स्त्री के गर्भद्वारा ही मनुष्य की उत्पत्ति सम्भव है। एवं तत्तत् जाति के जीव के उसी-उसी जातीय स्त्री के सकाश से शरीरोत्पत्ति हुआ करती है किन्तु इस क्रम के व्यतीरेक से भी प्रकृत बात सम्भव है। इसी बात की पुष्टि के लिये तथा जो मनुष्य ऐसा स्वीकार नहीं करतेे हैं उनके मुख पर चपेट लगाकर उनको उनकी प्रमत्ता से विमुक्त करने के लिये ही अतीत काल में समुद्र तटस्थ दाक्षिणात्य कदरी स्थान में गोरक्षनाथजी ने अगणित जनसमूह के सम्मुख स्वीय योग प्रभाव द्वारा अनेक स्त्री-पुरुषों सहित कतिपय छोटे-छोटे गृह तैयार किये थे। जिनमें वे मनुष्य सुखपूर्वक निवास करते हुए दीखपड़ते थे। यही कारण मेरे विषय में समझना चाहिये। इसी योगरूप अमोद्योपाय द्वारा मेरा शारीरिक पुतला भी स्त्रीगर्भस्थान के विरहित स्थल में सम्पन्न हुआ। जिसके रक्षण एवं पोषणात्मक भार को जिन्होंने आन्तर्धानिक रीति से अपने ऊपर धारण कर रखा था वे इसी योगात्मक वस्तु विज्ञान से जायमान अपरिमित शक्ति के भण्डार श्रीमहादेवजी हैं। उन्हीं की यह अगम्य और विचित्र गति थी कि अत्यन्त आपत्तिजनक स्थान में भी मेरा शरीर सर्वथा निर्विघ्न ही रहा और योग्य दशा में प्राप्त होने पर गुरुजी की इधर कृपा दृष्टि हुई जिन्होंने मुझे बहिर निकाल कर सर्व प्रकार से सम्पालित किया। जिससे आज उस दीर्घकाल के अति क्रमित होने पर मैं तुम्हारे सम्मुख इसी स्थलीय अतीत घटना के स्मृतिगत कराने का सौभाग्य प्राप्त कर सका हूँ। यह सुन उनके शिष्यों ने ईश्वर की अलक्ष्य गति के विषय में अनेक प्राकरणिक वार्ताओं का उद्घाटन करते हुए गुरुजी के स्फुट कथनार्थ कृतज्ञता प्रकट कर कहा कि स्वामिन्! सत्य है जो कृत्य उसे चिकीर्षित है उसके सम्पन्न करने में उसको कोई कठिनता नहीं। यही कारण है लोक प्रसिद्ध असम्भव वृत्त सम्भावित हो इस विषय में सन्दिग्ध हृदयों को निःसन्देह बनाता हुआ स्वनिमित्त विवाद का विच्छेद कर रहा है। जिस पर भी विशेष हर्ष का विषय यह है कि इस वृत्त का उदाहरण आप हुए। जिनके अविच्छिद्य अमोद्य प्रयत्न द्वारा हम जैसे क्षुद्र प्राणियों को अपने ऐह लोकागमन के वास्तविक प्रयोजन को सफलीभूत बनाने का अवसर मिला। इत्यादि पारस्परिक गौष्ठिक वार्तालाप के पश्चात् कारिणपानाथजी ने प्रातिवाचनिक वाक्य प्रयोग से अपने शिष्यों के रूचिकर वागव्यवहार को समर्थित कर वहाँ से प्रस्थान किया और आप समीपस्थ एक ऊँचे पर्वत पर, जिस पर कि सूर्यकुण्ड विद्यमान है, चढे+। यहाँ एक दिन के निवास करने पर कारिणपानाथजी के सहसा एक विचार उत्पन्न हुआ कि इस पर्वत के ऊपर चढ़ने में जितना विलम्ब और बल खर्च हुआ है उतना ही उतरने में भी होगा। इसलिये यहाँ से विचित्र रीतिद्वारा चलना चाहिये अतएव उन्होंने शिष्यों को नीचे उतर निर्दिष्ट स्थान पर खड़े हो जाने का परामर्श देकर वे जब तक वहाँ पहुँचे अपनी स्थिति उसी जगह पर रखी। तदनु ठीक यह निश्चय हो गया कि वे वहाँ जा पहुँचे हैं तब तो स्वयं भी शरीराकाशसंयमज प्रभाव द्वारा आकाश मार्ग से क्षणों में उनके समीप आ गये। (यह चमत्कार कारिणपानाथजी ने बिना किसी प्रयोजन के नहीं दिखाया था। तथा उपस्थित द्र....जनसंघ को इससे विशेष विस्मित नहीं होना पड़ा। कारण कि आकस्मिक अदृष्ट चमत्कार ही विस्मयत्व का उत्पादक होता है। परं आज वह अवसर नहीं था। भारत के कोने-कोने में प्रत्याहित ऐसे चमत्कार प्रकटित होते रहते थे।) (अस्तु) वहाँ से कारिणपानाथजी ने अपने शिष्य को समीप रखना अंगीकार कर अन्य सबको कहा कि तुम लोग यह अच्छी तरह से जानते हो योग साधनीभूत ऐसी कोई क्रिया अवशिष्ट नहीं जिसका मैंने तुम्हारे यथार्थ तत्त्व न समझा दिया हो। प्रत्युत तुम्हारा आन्तरिक हृदय ही इस बात की सत्यता में साक्षीभूत हुआ विश्वसित होगा कि हाँ यदि हम अपने प्रयत्न में शिथिल न हुए तो जहाँ तब बढ़ना चाहें ऊँचे बढ़ने की कुंजी पा चुके हैं। साथ ही उस विद्यात्मक अमोघ शस्त्र को भी प्राप्त हो चुके हैं जिसके प्रबल प्रवाह से मन्दोत्साहान्वित हुआ कोई भी प्राणी हमारा तिरस्कार करने का उद्योग नहीं करेगा। अतएव मैं अब तुम लोगों को आज्ञापित करता हूँ कि पृथक् होकर भ्रमण करते रहो। अपने गुणों को, जो मैंने तुम्हारे को प्रदान किये हैं, जन हितार्थ विस्तृत कर अपने उत्तदायित्व से मुक्ति पाओ। साथ ही अनुकूल स्थानिक निवास द्वारा पारस्परिक रक्षा से रक्षित हो आयु वृद्धि के लिये समाधिज उपाय को अवलम्बित करते रहो। इस आज्ञा के श्रवण करते-करते उन्होंने अपने आन्तरिक भाव से, धन्यभाग्य आज हम भी इस पुण्योपलब्ध कृत्य में नियुक्त किये जा रहे हैं, यह धारणा स्मृतिगत कर हर्ष प्रकट किया। तथा तत्काल ही वे गुरुजी के चरणों में नमस्कारपूर्वक आज्ञा स्वीकृति सूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए वहाँ से प्रस्थानित हुए। इधर कारिणपानाथजी भी एक शिष्यानुयायी हुए श्रीगंगाजी के पाश्र्ववर्ती प्रदेशों में भ्रमण करने लगे जो कतिपय वर्षों में अपने अमृतायमान सार्थक प्रिय शब्दों द्वारा लोगों को योग का तत्त्व अवगतित करने में प्रोत्साहित करते हुए युधिष्ठिर सम्वत् 2114 में श्री प्रयागराज में पहुँचे। यहाँ बौद्ध और अबौद्ध लोगों का स्व-स्व धर्मोंत्कर्षता विषय में वाद-विवाद हो रहा था। जिसमें अबौद्ध अर्थात् वैदिक धर्मानुयायी सनातनी लोगों की ओर से एक बाल ब्रह्मचारी विवादनायक थे। जिसकी अपूर्व विद्वत्ता से विमोहित प्रजा ने उसको निमन्त्रित कर आहुत कर रखा था और उसके स्वागतोपक्ष्य में एक महान भोज्य भण्डार भी तैयार किया गया था। ठीक इसी योज्यादान कालिक अवसर में सशिष्य कारिणपानाथजी को भी प्रजानुरोध से जन संघ में सम्मिलित होना पड़ा। परन्तु इन्होंने भोजन करने के लिये भोजन स्थान में जाने से पहले लोगों से यह नियम दृढ़ कर लिया था कि हम भोजन करने को जाएंगे तो हमारे भी तुम लोगों को आना होगा। प्रस्ताव समस्त जनसम्मत हुआ था। अतएव अग्रिम दिन उपस्थित होने पर कारिणपानाथजी ने भण्डार की तैयारी में दत्तचित हो अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि जाओ नगर में जितनी खाद्य वस्तु तैयार हो उनमें से कुछ-कुछ अंश खरीद कर लिवा लाओ। गुरुजी की यह आज्ञा सुनते ही उनका शिष्य कुछ मनुष्यों को साथ ले नागरिक बाजार में गया और सब तरह के पक पदार्थों का थोड़ा-थोड़ा भाग लेकर गुरूजी की सेवा में उपस्थित हुआ। यह देख कारिणपानाथजी ने समस्त पदार्थों को एक अलक्ष्य जगह पर रखवा दिया। तदनु कुछ क्षणों में भोजन वेला हो जाने पर निमन्त्रित जन समूह को निर्दिष्ट जगह पर पंक्तिबद्ध हो जब तदादान के के लिये प्रतिपालना करने लगा तब कारिणपानाथजी ने पूर्व निश्चित भोजन वितरणकत्र्ता पुरुषों को आज्ञापित किया कि भोजनालय से जनाभीष्ट भोजन निःसारित कर वितरण करो। उनकी यह आज्ञा शीघ्र पालित की गई। अतएव कुछ क्षण में अभिलषित भोजन से जन समुदाय ने क्षुधा की सुशान्त बनाते हुए स्व स्व विश्राम को लक्ष्य कर वहाँ से प्रस्थान किया। तथा स्वकीय अभिलाषानुकूल भोजनोपलब्धि के विषय में विविध प्रकार से उन्होंने कारिणपानाथजी की प्रशंसा की। (अस्तु) भोजनानन्तर कुछ देर आराम करने पर सभा समय उपस्थित हुआ। अपने-अपने आराम स्थान से बहिर निकल लोगसभा स्थान में आने लगे। उधर इस कुतूहल में मिश्रित होने के लिये करिणपानाथजी को भी विवश किया गया था। अतएव शिष्य के सहित वे भी वहाँ आ विराजे। इस समय तक उभय पाक्षिक लोगों से सभास्थान परिपूर्ण हो चुका था। इसीलिये क्रमशः उभय पाक्षिक महानुभाव खड़े हो - खड़े हो स्वीय धर्मोंत्कर्षता विषयक प्रमाण पंक्ति को विस्तृत करने लगे। जिसके विस्तार हुए अन्तिम निर्णय स्वीकरण में एक प्रहर के अनुमान समय अतिक्रमित हुआ। आज के निश्चयानुसार उक्त ब्रह्मचारीजी को प्रजा ने हार्दिक धन्यवाद दिया क्यों कि आपकी अपरिमित विद्वत्ता की सूचक मुखारविन्द से बहिरभूत होने वाली संशोधितार्थ पटूक्तियों ने वुद्वानुयायियों को हतोत्साह कर प्रजाजन रंजन को प्रवृद्ध बना दिया था। यही नहीं उस बालब्रह्मचारी महानुभाव की अस्खलित गीर्वग्वाणी पटुता से जायमान विशेषाल्हाद से आल्हादित हो कारिणपानाथजी को भी उन्हें, आपका कथन सांगतिक है इसीलिये भगवान् आदिनाथ आपके मन्तव्य की वृद्धि में सहायक हो हम यही चाहते हैं, यह शब्दोच्चारण करना पड़ा। (अस्तु) इसके अनन्तर सभा विसर्जित हुई। सभ्यलोग अपने-अपने स्थानों पर गये। इधर कारिणपानाथजी भी सादर सभ्यजनो-पदारादि से सत्कृत हो देशान्तर को लक्ष्य ठहराकर वहाँ से चल ही दिये थे। जो इतस्ततः अनेक देशों को तय करते हुए कतिपय वर्ष के अनन्तर ब्रह्मगिरि पर्वत पर पहुँचे। यहाँ चर्पटनाथ और रेवननाथजी अपने-अपने शिष्यों को योग शिक्षा में प्रोत्साहित कर रहे थे। अतएव पारस्परिक दृष्टि सम्पातानन्तर हर्ष प्रकटता पूर्वक आदेश-आदेश मांगल्य शब्द की ध्वनि करते हुए एक ने दूसरे का आनन्द कुशल पूछा और एक-दूसरे से सत्कृत हो आसनासीन हुए स्वोद्देश प्रचार विषय में विविध वार्तान्तिक कथाओं का उद्घाटन करने लगे। जिनके प्रश्नोत्तर करते कराते दिन व्यतीत हो गया। उक्त महानुभावों ने भी दिन को आशिष दे आगन्तुक रात्री देवी का स्वागत किया और वे अपने नित्य सायंकालिक कृत्य से लब्धावकाश हो फिर आसनाधिष्ठित होकर औपस्कात्र्त वाक्य रचना में तत्पर हुए। वहाँ निवसित दोनों योग वीरों ने कारिणपानाथजी से पूछा कि आप कब तक और इस कार्य में भाग लेते रहेंगे। उन्होंने उत्तर दिया कि अभी मैं इस विषय में कुछ नहीं कह सकत हूँ। हाँ इतना तो मुझे अवश्य मालूम है कि इस कृत्य से अवकाशित होने में मुझे विलम्ब होगा। क्यों कि गुरुजी ने कुछ समय हुआ मेरे को सूचित किया था कि हमारी सम्मति प्रकट हुए बिना इस विषय में अभिलाषा न करना। यह सुन चर्पटनाथजी ने कहा कि हम दोनों तो इस आरम्भित कार्य को अर्थात् इन क्रिया नियोजित शिष्यों को दीक्षित करते ही श्री महादेवजी की शरण में जाकर अवकाश मांगने का विचार कर रहे हैं। कारिणपानाथजी ने तथास्तु कहते हुए सम्मति प्रकट की, कि अच्छा है ऐसा ही करो। जब भारत के कोने-कोने में योगी विचरते हुए इस कार्य को सीमान्त पर्यन्त पहुँचाने का यत्न कर रहे हैं तो क्या आवश्यकता है आप निष्प्रयोजन भ्रमण से अपना अमूल्य समय नष्ट करें। मैं जिन-जिन देशों में अब भ्रमण करता हुआ आ रहा हूँ उन देशस्थ कोई प्रान्त ऐसा नहीं देखा गया जिसमें योगी अपना कार्यक्रम संचालित न कर रहे हों। इसीलिये मैं तो यही सामाधिक दशा में तत्पर होने का विचार कर रहा हूँ। इत्यादि पारस्परिक मनोभाव सूचनात्मक वाग्व्यवहार के पश्चात् कुछ आराम करने पर रात्री व्यतीत हुई। दिन का आगमन हुआ। कारिणपानाथजी वही अपने शिष्य को, तू प्रतिदिन वा रात्री में जो अनुकूल अवसर जान पड़े, प्रहर चार प्रहर पर्यन्त सामाधिक अभ्यास से अभ्यसित हो अपने कल्याण के मार्ग को स्वच्छ करता हुआ हमारे शरीर को रक्षित रखना, यह आज्ञा देकर युधिष्ठिर सं. 2119 मंे चिरकाल के लिये समाधिस्थ हो गये।
इति श्री कारिणपानाथ समाधि वर्णन ।

Wednesday, May 29, 2013

श्री ज्वालेन्द्रनाथ हिंगलाज समागम वर्णन

उक्त कृत्य को समाप्त कर श्री महादेवजी के कैलास चले जाने पर ज्वालेन्द्रनाथजी के तथा कारिणपानाथजी के उन शिष्यों का, जो योगसाधनी भूत विविध क्रिया काठिन्य से कुछ शिथिल प्रयत्न तथा मन्दोत्साहान्वित हो गये थे, अत्यन्त ही उत्साह बढ़ गया और उन्होंने अपने-अपने आनन्दाच्छादित आभ्यन्तरिक शुद्धान्तःकरण में दृढ़ निश्चय लिया कि हम प्राणान्त पर्यन्त स्वकीय आरम्भित क्रियाओं की समाप्ति देखने का प्रयत्न करेंगे और अब की सदृश फिर कभी हतोत्साह न होंगे। अतः अन्तर्यामी क्षमा कीजिये। वस्तुतः पाठक ! इनकी यह दशा ज्वालेन्द्रनाथजी से भी छिपी नहीं थी उन्हों को इनकी इस शिथिलावस्था का कुछ परिज्ञान प्रथमतः ही हो चुका था। अतएव उन्होंने श्री महादेवजी के दर्शन द्वारा इनको उत्साहित करने का विचार स्थिर करना पड़ा। इसीलिये उन्होंने इनकी ओर से निश्चित हो अपने उन शिष्यों के ऊपर दृष्टिपात की जिनको महाकठिन तपश्चर्यावस्था से श्री महादेवजी के द्वारा मुक्त करा कर विशेष सत्कृत किया था और उन्हों के द्वारा इनके पूर्ण अधिकारित्व को सूचित करा कर अभीष्ट सिद्धि के सफल होने का भी विश्वास दिखलाया था। अतः जो कहा गया उसको करना अवश्य ही था। इसीलिये उन्होंने अपने शिष्यों को साबर विद्यादि अनेक विद्याओं के दानपूर्वक कामास्त्रादि विविध अस्त्रों की भी दीक्षा प्रदान की और अवसर प्राप्त होने पर परिपन्थी के अस्त्र को किम्प्रयोजन बनाने के लिये अमुक के ऊपर अमुक अस्त्र का प्रयोग करना होगा, इस प्रकार समग्र अस्त्रों के परिचालनात्मक उपयोग का परिज्ञान करा दिया। तदनु जब ज्वालेन्द्रनाथजी को यह निश्चय हो गया कि हमारे शिष्य, जो योगांगात्मक साधनों में पहले ही उत्तीर्ण हो चुके थे, इस कृत्य में कुशलतोपहित हो गये हैं तब तो उन्होंने उनको केवल अवशिष्ट असम्प्रज्ञात समाधिका भेद बतला कर उसके द्वारा अपने आपको अमर बनाते हुए संसार में अपनी विमल एवं अक्षुण्ण कीर्ति के स्थापित करने का मार्ग प्रदर्शित किया। जिसमें ये महानुभाव कुछ ही दिन में तदवस्थास्थ मर्म के अनुभवकत्र्ता बन गये और अपने हृदय में स्वयं यह अनुभव करने लगे कि निःसन्देह हम लोगों का पूर्वजन्मकृत कर्म शुभ चरित्रान्वित था जिसके प्रभाव से हम इस महापवित्र कृत्य में संलग्न हुए और सौभाग्यवश प्राप्त, अमोघप्रयत्न, समस्त विद्या भण्डार, दयालु व्यक्ति को हमें गुरु बनाने का अवसर मिला। जिस पूर्ण हितैषी एवं पुण्यात्मा के श्लांघनीय प्रयत्न से आज हमको इस जन्मनिष्ठ बाजी के जीतने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। (अस्तु) ज्वालेन्द्रनाथजी ने अपने शिष्यों को पूर्ण योगवित् बनाकर उनमें से कुछ शिष्यों को अपने समीप रखना स्वीकृत करते हुए अवशिष्टों को अज्ञापित किया कि अब तुम लोग पृथक् भ्रमण करो और अनुकूल स्थान में निवास करते हुए पारस्परिक देह रक्षा से रक्षित हो सामधिक उपाय द्वारा अपने आपको चिरस्थायी बनाने हुए गृहीत योग प्रचार द्वारा जनोद्धारात्मक उपकार संचयकर जनहितैषिता के पात्र बनों। यह सुन समस्त शिष्य उनके चरणों में गिरे और पुनः नमस्कार रूप आदेश-आदेश शब्दोच्चारण कर तथास्तु। इस प्रकार आज्ञा अंगीकृति की सूचना देते हुए वहाँ से प्रस्थानित हो गये। उधर इनके चले जाने पर कारिणपानाथजी से तथा उनके शिष्यों से पौनःपुनिक अभिवादन द्वारा अभिवन्दित हुए अपने उन पाँच शिष्यों के सहित ज्वालेन्द्रनाथजी भी देशाटन के लिये वहाँ से गमन कर गये। जो कभी योजन कभी न्यूनाधिक के क्रम से हिमालय पर्वत की शीतल अधित्यका के ऊपर विचरण करते हुए इस देशीय पुरुषों मेंं स्वीय उद्देश्य के प्रचार को अनुभवित करने लगे। जहाँ यह अनुभव किया कि अमुक स्थान में योग का महत्त्व जाने वाले लोगों की संख्या संतोषजनक नहीं है वहाँ कुछ दिन के लिये आप स्वयं निवास करते थे। तथा अनेक प्रकार के चमत्कारों द्वारा निस्सार संसार के अस्थायी स्वाप्निक प्रपंच की ओर से लोगों के हृदयस्थान में उपरामता स्थापित कर उनके मनीराम को अपने उद्देश्य के संग्रहणार्थ विवश करते थे और उनकी अभीष्ट सिद्धि की पूत्र्यर्थ किसी सुयोग्य योगी को नियतकर स्वयं पुनः अग्रिम मार्ग का अनुसरण करते थे। इसी प्रकार इतस्ततः भ्रमण करते एव योगोपयोग को स्फुट करते हुए वे कतिपय मास के अनन्तर चन्द्रभागा नाम की नदी के तट पर पहुँचे। यहाँ जलाश्रम अनुकूल समझकर उन्होंने विश्रामार्थ आसन स्थिर किया। इस स्थल में कुछ दूर तक इधर-उधर कोई ग्राम नहीं था। अतएव इस पार्वत्य जंगल में सिंह हस्ती आदि आरण्यजीवों का बड़ा ही साम्राज्य था। जो इन लोगों के आसनाधिष्ठित स्थल में भी अनेक जीव आते और समीप होकर चले जाते थे। परं ऐसा कोई साहस नहीं करता था जिससे सुखपूर्वक आसनासीन हुए इन महानुभवों के ध्यान मंे कुछ बाधा उपस्थित हो। यह देख ज्वालेन्द्रनाथजी के एक शिष्य को स्वाचरित अहिंसात्मक यम का स्मरण हो आया। अतएव वह आन्तरिक भावानुकूल प्रसन्न मुख से कुछ मुस्कराता हुआ सोचने लगा कि अहो, क्या ही विचित्र वृत्त है अहिंसाव्रत आचर्तां पुरुष के हृदय से प्राणिद्वेषात्मकभाव बहिरभूत हो जाना आसम्भाविक तथा विशेष आश्चर्योत्पादक बात नहीं। परं तदाचरित मनुष्य के समीपस्थ अन्य ग्राम्यारण्यादि तामस जीवों के आभ्यन्तरिक स्थान में भी पारस्परिक जिघांसाभाव नहीं दीख पड़ता है यह और भी अद्भूत वृत्तान्त है। देखिये किस प्रकार हस्ती व्याघ्रादि ....... पशु हमारे पृष्टाग्र देश से विहरण कर इस बात की पुष्टि कर रहे हैं। तथा किस प्रकार हस्ती गवय सिंहादि जीव मिश्रित हो कौटुम्बिक बुद्धि से विचरते हैं एवं किस प्रकार ये इतस्ततः भ्रमण करने वाले व्याघ्र, निशंकता पूर्वक आसीन इस मृग पंक्ति के ऊपर नहीं गिरते है। इति। इस प्रकार के मानसिक विचारास्पद हुए शिष्य की ओर ज्वालेन्द्रनाथजी ने ज्यों ही दृष्टिपात किया तब तो उन्होंने अपने शिष्य के मुख को प्रसन्न और मन्द मुस्कराते हुए देखा। ठीक इसी अवसर पर उन्होंने ............ कहा कि पुत्र ! क्या समाचार है स्पष्टीकर बतलाना। शिष्य ने कहा स्वामिन् ! अन्तर्यामित्व कारण से ऐसा सम्भव नहीं कि प्राकृतिक वृत्त आपसे अननुभवित हो। जिसके लिये मुझे अवश्य ही उसको स्फुट करने का यत्न करना पड़े। इसके अनन्तर शिष्य के वचन रचना चातुर्य से अन्तर्यामित्व कथन द्वारा स्वकीय प्रश्न प्रत्युत्तर के मार्ग को अवरूद्ध हुआ समझकर ज्वालेन्द्रनाथजी ने अपने आन्तरिक वृत्तिविषयक उपाय से तन्निष्ठ तथा भाव को अवगत किया। तथा कहा कि अये ! सुलक्षण ! तुझे चाहिये कि तू उस परम पिता दयालु ईश्वर का अनेक गुणानुबाद करे और उसकी महती दया से अनुगृहीत हुआ उसको अनेक धन्यवादात्मक शब्दों से पौनः पुनिक सत्कार दे। जिसकी अपरिमेय श्लांघनीय हितैषिता एंव कृपा से आज तुझे इस स्वप्नवत् वृत्तान्त के श्रवण करने का नहीं खुद अनुभव करने का सु अवसर उपलब्ध हुआ है। सम्भव है कि कुछ काल पहले तुमने इस कृत्य में अश्रद्धा प्रकाशित की हो और इस व्यवहार को मनघडन्त एवं बाल्यकथा प्रतिपादित किया हो। परं अब प्रत्यक्ष देख तुम्हारी वह अश्रधेय कपोलकल्पना कहाँ तक सच्च निकली। प्रत्युत वह अतथ्य और ............... कल्पना थी जिसके विषय में तुम्हें स्वयं आन्तरिक प्रायश्चित करना पड़ा होगा, तदनु शिष्य ने कहा कि भगवन्! यह सच्च है आपका शुभाश्रय प्राप्त करने से पहले मेरी यही दशा थी। मेरी क्या अहिंसाचरण विमुख प्रत्येक मनुष्य की ऐसी ही दशा हुआ करती है। वह सिंह के, यदि कहीं ऐकान्तिक जगह पर मिल जाय तो अवलोकन मात्र से इतना भयभीत होता है कि वहाँ से अपसरित होने के लिये उसके पैर भी अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। जिससे वह हतोत्साह हुआ परावत की सदृश निमीलित नेत्र होकर वहीं गिर जाता है। ठीक उस कालिकदशास्य मुझे भी ऐसी ही अवस्था में परिणत हुआ समझा जा सकता है। परन्तु अब कृपा है आपकी जो आपके कथनानुसार मैं अपनी उस दशा का स्वयं पश्चाताप कर रहा हँू और अपने आपको धिक्कृत करता हुआ अन्य पुरुषों को भी धिक्कार देता हूँ जो उस कालिक मेरी तरह इस प्रत्यक्ष दृष्ट अहिंसात्मक यम के महत्त्व में विश्वसित नहीं होते हैं। यह सुन ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि मनुष्य को चाहिये हर एक समय अपना यह विश्वास रखे कि आत्मा और आत्मसहवासी गुणों का आत्मा ही साक्षी हुआ करता है। अतएव द्वेषगुणानिःशस्ण शुद्धान्तःकरण प्राणी की ओर से तद्दृष्टिपात विषय के सम्मुखीभूत प्राणी को कभी भय प्राप्त नहीं होता है। इसीलिये वह स्वयं भी उसको क्लेशित करने की चेष्टा नहीं करता है और तो क्या प्रसिद्ध बात विड़ाल ही ले लीजिये उसके चित्त में सिंह के द्वेष का भाव नहीं है और न कभी वह सिंह की हिंसा ही करनी चाहता है। यही कारण है न तो सिंह उससे भीत होता है और न स्वयं उसकी हिंसा ही करता है। इसी से अहिंसा का तत्त्वविचारणा योगय है और यहाँ इतना ध्यान रखने की और भी आवश्यकता है कि जैसे मनुष्य अन्य नागरिक अपरिचित मनुष्य के प्रति अहिंसा का भाव रखता हुआ भी उसके साथ परिचित की सदृश प्रैतिक आलिंगनादि कृत्य नहीं कर सकता है इसी प्रकार अहिंसा से शुद्धान्तःकरण मनुष्य, अति समीप विहरणित होने वाले व्याघ्रादि से अतिरस्कृत हुआ भी अकस्मात् उनसे आलिंगनादि प्रीत्यात्मक व्यवहार नहीं कर सकता है। ऐसा कर बैठने पर बहुत सम्भव नहीं कि परस्पर में अविकृति भाव ही स्थित रहे। जब इस आकस्मिक कृत्य से प्रमत्त एवं ठगादि की आशंका से सजातीय मनुष्य भी एक बार तो अवश्य चैंक पड़ता है तब विजातीय सिंहादि आरण्य पशुओं के विषय में कौन क्या कहे। हाँ इतना अवश्य सम्भव है कि कुछ कालिक सहवास से, प्रिय भाषण और क्षुधा पिपासा निवृत्त्यर्थ सामग्री प्रदान द्वारा जैसे मनुष्य के साथ वह आलिंगादि व्यवहार देखा जाता है तैसे सिंहादि के साथ भी हो जाता है। (अस्तु) इस प्रकार के अनेक प्राकरणिक वार्तालाप के द्वारा उन्होंने सुखपूर्वक उस रात्री को व्यतीत किया और प्रातःकालिक नित्य कृत्य से अवकाशित हो वे प्रातिदैनिक गमन क्रिया में तत्पर हुए। जो स्वकीयोद्देश प्रचार का निरीक्षण करते हुए कुछ दिन में काश्मीर देश में पहुँचे। इस देश में एक सुदीर्घ जलाशय उनकी दृष्टिगोचर हुआ। जिसके समीपस्थ देश में कुछ ही पूरी पर गहनिनाथ तथा नागनाथजी अपने-अपने शिष्यों को दीक्षा प्रदान कर रहे थे। अतएव उनकी यह सूचना उद्घटित होने पर ज्वालेन्द्रनाथजी भी अपने अनुयायी शिष्यों के सहित वहीं जा उपस्थित हुए। यह देख निवसित गहनिनाथ और नागनाथजी तथा उनके शिष्यों ने बड़े उत्साह और हर्ष के साथ कुछ पादक्रम अग्रसर हो प्रदादागुरु एवं दादागुरू ज्वालेन्द्रनाथजी को आदेश-आदेश शब्दपूर्वक पौनःपुनिक प्रणाम से सत्कृत किया। और अतीव सम्मान सूचितकर उनको आसनासीन करते हुए उनके आकस्मिक पवित्र दर्शन प्रदानित करने के विषय में श्लावा प्रकट कर अपना सौभाग्य स्फुट किया। तदनु संशोधितार्थ रूचिकर पदूक्तिरचनात्मक प्रतिवाक्यों ज्वालेन्द्रनाथजी ने उनको प्रत्युप कृत कर पं्रशसित बनाते हुए कर्तव्यपालना में हर्ष प्रकट किया और अपने शिष्यों को उद दिन यहीं विश्वास करने की आज्ञा प्रदान की। जिससे उन्होंने गहनिनाथजी के निर्देशानुसार गुरुजी के आसन की प्रतिष्ठापूर्वक स्वीय आसनों की स्थिति निश्चित कर तत्काल गुरुजी की आज्ञा को चरितार्थ किया। तदनन्तर कुछ क्षण के ऊतर भोजनादि से निवृत्त होने पर ज्वालेन्द्रनाथजी के गहनिनाथ तथा नागनाथजी के द्वारा दीक्षित योगियों की क्रिया के निरीक्षण करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई और उन्होंने यह बात उक्त दोनों महानुभावों के सम्मुख प्रकट भी कर दी। यह सुन उनको बड़ा ही हर्ष हुआ और तत्काल ही स्वकीय द्रक्ष्यमाणक्रियोत्तीर्ण शिष्यों को समीप बुलाकर ज्वालेन्द्रनाथजी की अभिलाषा से उनको सूचित किया। वे शीघ्र तैयार हो गये और उन्होंने हस्त सम्पुटी कर दिदृक्षित क्रिया के प्रकट करने की प्रार्थना की। ज्वालेन्द्रनाथजी को प्रथम जलीय क्रियाओं की दिदृक्षा थी इसलिये वे समीपस्थ माहाहद के तीर पर गये और अभिलषित क्रियोद्घाटन की आज्ञा दी। जिनमें वे तत्काल व्यग्र हुए और अनुकूल रीति से परीक्षोत्तीर्ण हो ज्वालेन्द्रनाथजी के अमोघ आशीर्वाद के पात्र बनें। इस प्रकार क्रिया प्रदर्शनी तथा तदीय प्रसन्नता विषयक आशीर्वाद वाक्य प्रयोजित होते हुए यह दिन बड़े ही आनन्द और उत्साह के साथ प्रचलित हुआ उधर रात्री आई। सान्ध्यकर्म के अनन्तर भोजनादि से लब्धावकाश होकर समस्त योगी अपने-अपने आसनों पर विराजमान हुए। केवल ज्वालेन्द्रनाथजी तथा गहनिनाथ और नागनाथजी ये तीनों महानुभाव एकत्रित बैठे हुए थे। जो अपने उद्देश्य विस्तार विषयक अनेक गुप्त वार्तायें कर रहे थे। इत्यादि प्रकृत प्रास्ताविक वार्तालाप द्वारा उनकी वह रात्री समाप्त होने को आई। यह देख गहनिनाथजी ने कहा महाराज ! आप यहाँ से कहाँ जाने का विचार कर रहे हैं। ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा तुम्हारा क्या अभिप्राय है जिसके लिये पूछने की आवश्यकता पड़ी। प्रत्युत्तरार्थ गहनिनाथजी बोले कि हमारा अभिप्राय यहाँ से कैलासस्थ श्री महादेवजी की शरण में जाकर उनसे अवकाश मांगने का है। अतः इन योग साधनीभूत क्रियानियोजित शिष्यों को, जो कुद शिथिल हैं सम्यक् रीति से क्रिया कुशल बनाने के अनन्तर जायेंगे। आप इस विषय में क्या अभिमति रखते हैं। ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि ठीक है यदि आप लोगों ने उचित रीति से पूरा कर दिखलाया है। जिसको श्री महादेवजी भी अच्छी तरह जानते हैं। इसीलिये वे निर्विकल्पता के साथ तुम्हारे मनोरथ को स्वीकार करेंगे। इसके अतिरिक्त हमारे सम्बन्ध में तो यह बात है हम अभी नहीं चल सकते हैं श्री महादेवजी की आज्ञानुसार भविष्यमाण गोपीचन्द्र को, जो द्रुमिलनारायण का अवतारी होगा, हमने दीक्षित करना पडे+गा। अतएव हम यहीं किसी जगह पर समाधिस्थ हो अपनी अभीष्ट सिद्धि को सफल करेंगे। इसके अनन्तर ज्वालेन्द्रनाथजी अपने शिष्यों को पृथक् परामर्श देने पर स्वयं सहर्ष बड़े आदर उत्साह के साथ वहाँ से विदा हुए। जो ...लेमान पर्वत की उपत्यकाल में इधर-उधर विचरते हुए कतिपय मास में भगवती हिंगलाजाधिष्ठित पार्वत्य आधित्यका पर पहुँचे। वहाँ जाने पर उन्हों के श्रीहिंगलाज देवी के दर्शन करने की इच्छा अंकुरित हुई। अतः वे लक्ष्याभिमुख हो उधर अग्रसर होकर उस प्राथमिक घाटी पर जा प्राप्त हुए जहाँ भैरव प्रहरी रहते थे। ठीक इसी समय उधर भैरवों ने भी इन दोनों महानुभावों को अपने सम्मुख आते देखकर दूर से ही आगे आने से निरोध किया। तथा यह भी स्पष्ट कह सुनाया कि नियत समय से अतिरिक्त ऊपर जाने के लिये देवी की आज्ञा नहीं है। इधर ज्वालेन्द्रनाथजी को अपने कर्तव्य विश्वास था। इसीलिये वे उनके वचन की उपेक्षा कर आगे बढ़ते ही चले गये। यह देख भैरवों को सहसा यह ख्याल हुआ कि मालूम होता है ये कोई असाधारण पुरुष हैं। अन्यथा निरोध करने पर भी निशंक हो इनका आगे बढ़ना असम्भव था। तदनु कुछ क्षण में ये भी उनके समीप जा खड़े हुए। एवं भैरवों से कहने लगे कि हमारे देवीजी के उपस्थित न करो। यह सुन भैरवों ने उत्तर दया कि जब हमको आज्ञा ही नहीं है तो जाने को कैसे कहें। बल्कि संसार में जब यह प्रसिद्ध है कि समयातिरिक्त कोई भी मनुष्य हो नहीं जाने पाता है तब तुमको स्वयं यह सोचना था कि इस इच्छा से इस समय यहाँ न आते। ज्वालेन्द्रनाथजी ने कहा कि देवी की उक्त आज्ञा मनुष्य मात्र के लिये नहीं है। अतएव नियत काल से आगे पीछे भी कोई एक पुरुष ऊपर जाकर देवी के दर्शन करने में सफल हुए हैं और हम भी होंगे। नाथजी के इस वचन को श्रवण कर वे कुछ शंकान्वित हुए पूछने लगे कि आपका क्या नाम है। ज्वालेन्द्रनाथजी ने उत्तर प्रदान किया कि मेरा नाम ज्वालेन्द्रनाथ है और मत्स्येन्द्रनाथ  का जो यहाँ आकर तुम्हारे द्वारा अवरूद्ध हो देवी के दर्शन करने में असमर्थ हुआ था, गुरुभाई हूँ। इन्होंने मत्स्येन्द्रनाथजी का नाम भैरवों को पूर्बीय घटना का स्मरण कराने और उनका गुरुभाई होने से अपने आपको भी उतना ही शक्तिशाली सूचित करने के अभिप्राय से लिया था। और उनको असमर्थ कथन कर तार्किक वाक्य द्वारा भैरवों को चिड़ाना था। क्योंकि ये मत्स्येन्द्रनाथजी का नाम सुनते ही उनके अतीत वृत्त स्मृतिगत हुआ। जिससे तत्क्षण ही उनकी लालाटिक कान्ति मन्द हो गई। तथा उन्होंने निश्चय कर लिया कि यह अवश्य अप्रतिहत गति है। अतएव इसको रोक रखना उचित नहीं। परं यह दूसरा कौन और इसका क्या नाम है यह भी निश्चय कर लेना चाहिये। इसी अभिप्राय से उन्होंने ज्वालेन्द्रनाथजी से प्रश्न कर समीपस्थ उनके शिष्य का परिचय मांगा। उन्होंने उत्तर दिया कि तुम्हें विशेष निर्णय से क्या प्रयोजन यह भी एक रमताराम है। यह सुनकर भैरवों ने विचार किया कि ज्वालेन्द्रनाथ का आश्रय ले ऊपर जाने की इच्छा से यह भी कोई मार्ग में पीछे लग लिया है। इसीलिये उन्होंने ज्वालेन्द्रनाथजी से कहा कि अच्छा आप तो जाइये परं इसको नहीं जाने देंगे। यह श्रवण कर नाथजी कुछ मुस्कराते हुए, इसकी यह और तुम जानों हमें तो अपने कार्य से प्रयोजन है, यह कह वहाँ से प्रस्थानित हो कुछ दूर आगे एक शिला पर बैठ उनके कुतूहल की परीक्षा करने लगे। गुरुजी के आभ्यन्तरिक मनोरथ का अवगमन कर तब तक उनका शिष्य वहीं खड़ा रहा। जिसे आगे बढ़ने से द्वारपालभैरव बार-बार निरोधित कर रहे थे और वह उनसे जाने देने की बार-बार प्रार्थना कर रहा था। परन्तु इन नीचे की मीठी वार्ताओं से कोई प्रयोजन सिद्धि न देखी गई। अतएव उसने एकाएक अन्त में गुरुप्रदत्त विद्याओं से काम लेने का दृढ़ संकल्प कर प्रथम सम्भतः मैं अपने को ज्वालेन्द्रनाथजी का शिष्य प्रकट कर दूँ तो सहज में ही झगड़ा तय हो जायेगा, यह सोचकर उनसे कहा कि मैं भी इन्हीं का शिष्य हूँ। ऐसी दशा में केवल मुझे ही रोक रखकर उनसे वियोगित करना आप लोगों को उचित नहीं है। इसके उत्तर में भैरवों ने कहा कि ज्वालेन्द्रनाथ का शिष्य है तो कुछ पराक्रम और चमत्कार दिखला। जिससे तेरा मार्ग निष्कण्टक हो और निरोध में असमर्थ होने के कारण हमको भी बुराई का मुख न देखना पड़े। यह सुन उसने सोच लिया कि अनायास से कार्य सिद्धि नहीं है। इसीलिये उसने महिमा सिद्धि के प्रभाव से अपने शरीर को तेजस्वी एवं दीर्घस्थूलाकार बनाया और गदा हस्त में लेकर वह भैरवों की ओर झपटा। उधर वे प्रथमतः ही तैयार थे। कुछ इसके शीघ्र पारिवर्तनिक शरीराकार को देखकर और भी सचेत हो गये। युद्धाग्नि प्रज्वलित हो उठी। पारस्परिक प्रहार शब्द एवं हुंकार से सुखासीन वन्यजीव त्रस्त हुए इधर-उधर भागने लगे। ठीक समय पर आ प्राप्त होेने वाले अष्ट भैरवों को अपनी अधिक संख्या का अभिमान था परं उनका वह अभिमान झूठा निकला और बहुत देर तक युद्ध होते रहने पर भी वे उसको साध्य न बना सके। एवं उसको भी अपने बल और कष्ट सहन दृढ़ता का विश्वास होने से यह अंधकार हो गया था कि मैं इन्हें अब ठीक बना देता हूँ। परं वैसा न हुआ किन्तु यह निश्चय हो गया कि इस कृत्य से पालापार न होगा। अतएव उसने गादेय युद्ध का परित्याग कर मान्त्रिक आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया। जिसकी शेष सहस्र जिव्हाओं की तरह लपलपाती हुई आग्नेयलटाओं से पर्वत दग्ध होने लगा। यह देख तत्काल ही भैरवों ने वार्षिक अस्त्र द्वारा उसका उत्तर देकर दंदह्यमान पर्वत को शान्त किया। इसी प्रकार उसके अनेक अस्त्रों का उत्तर होने पर जब उसने यह समझ लिया कि ऐसे भी साध्य सिद्धि नहीं है। तब तो उसने अपनी भस्म पेटिका का आश्रय ग्रहण किया और उससे कुछ भस्म निकालकर अष्ट भैरवों को लक्ष्य बनाते हुए उधर प्रक्षिप्त किया। बस क्या था इस अन्तिमास्त्र का सहन करना उनके लिये असह्य हुआ। अतएव वे मूच्र्छित हो पृथिवी पर गिर पड़े और उनके मुख से रूधिर प्रवाहित हो निकला। उधर इस वृत्त की सूचना देवी के भवन में भी हो चुकी थी। इसीलिये अनेक वीर तथा सहायक देवियाँ घटनास्थल मंे आ पहुँची। जो हस्त में नाना शस्त्र धारण किये हुए और मारलो-मारलो पकड़लो जाने न पावे इत्यादि शब्द करती हुई आगे बढ़ी। यह देख उसने कुछ विभूति फिर निकाली और समन्त्र उधर फेंक दी। जिसके अमोघ प्रहार से देवियों की वह दशा हुई कि वे प्रमत्त हो पारस्परिक युद्ध करने लगी और कुछ ही क्षणों में पारस्परिक प्रहार से क्षत हो भूमि पर गिर पड़ी। यहाँ तक कि उनमें से एक भी ऐसी न बची कि वापिस लौटकर इस बात की सूचना श्री हिंगलाज देवी को जा देती। उधर अधिक समय व्यतीत होने पर जब किसी प्रकार की खबर लौटकर न गई तब तो हिंगलाज को स्वयं यह विचार हुआ कि सम्भवतः कुछ अनिष्ट उपस्थित हुआ है अन्यथा इतना समय लगने का कोई काम नहीं था। अतएव कुद सहचारिणियों सहित श्री हिंगलाजमाई स्वयं सिंहासन परित्याग कर घटनास्थल की ओर प्रस्थानित हुई। जो कुछ क्षणों में ही वहाँ पहुँची और उसने आगे शिलापर बैठे हुए ज्वालेन्द्रनाथजी को देखा। इनके अवलोकन से देवी ने सोचा था कि विघ्नोपस्थितिकत्र्ता यही है। परं उसका यह विश्वास अतथ्य निकला। क्योंकि उसी अवसर में ज्वालेन्द्रनाथजी को देवी के देखते ही निश्चय हो गया था कि हिंगलाज माता यही है। अतएव उन्होंने उठकर कुछ पदक्रम आगे बढ़ाते हुए श्री जी की प्रणाम की। यह देख देवी ने उनका परिचय पूछा। ’ आपने आपको जानती हुई भी हिंगलाज देवी को अपने नाम से परिचित करने के अनन्तर कहा कि मैं श्री महादेवजी का शिष्य तथा मत्स्येन्द्रनाथ का गुरुभाई हूँ। यह सुन देवी ने उनको यह कहते हुए कि मत्स्येन्द्रनाथ को मैंने अपना पुत्र स्वीकार किया था अतः तू भी मेरा पुत्र ही है, अपनी छाती से सम्मिलित किया तथा साथ ही यह भी कह सुनाया कि पुत्र प्रकृत घटना का निमित्त कारण तू ही है क्या। यदि यही बात हो तो इसका अपहरण कर भवन में चल। जितने दिन की इच्छा हो आनन्द के साथ निवास कर। भैरवों को चाहिये था मनुष्य का उचित रीति से परिचय कर विवादरम्भ करते। यह सुन उन्होंने कहा कि नहीं मातः! इस झगड़े का का कारण मैं नहीं हूँ। इसीलिये मेरी तरफ से भैरवों को कोई दोष नहीं है। क्यांे कि उन्होंने मेरा परिचय लेते ही भवन में जाने की आज्ञा प्रदान कर दी थी। परं मेरा शिष्य है जो उधर बैठा हुआ है। उसको भैरवों ने नहीं आने दिया इसी कारण से वह कुपित हुआ और उसने भैरव तथा इन देवियों की दुर्दशा की है।  यह सुनने ही हिंगलाजदेवी ने कहा कि वह कहाँ बैठा है उसको बुलाकर समझाओ और इन मूच्र्छित भैरव तथा देवियों को सचेत कराओ। ज्वालेन्द्रनाथजी ने शीघ्र अपने शिष्य को बुलाया। उसने शीघ्र अपने शिष्य को बुलाया। उसने शीघ्र आकर प्रथम गुरु और फिर श्रीहिंगलाजजी के चरणों में गिरकर प्रणाम की। जिसको देवी ने शीघ्र उठाकर अपनी गोद में लिया और मूच्र्छितों को ठीक करने का परामर्श दिया। उसने भी प्रसन्न हो शीघ्र देवी की आज्ञा पालित की और उनके कष्ट पर कृतज्ञता प्रकट कर अपने विषय में क्षमा करने की प्रार्थना की। इसके अनन्तर सब एकत्रित हो प्रसन्नता के साथ भवन में गये। वहाँ कुछ दिन के दर्शन प्रसन्न होने पर ज्वालेन्द्रनाथजी ने श्री हिंगलाज देवी की आज्ञानुसार उसी पर्वत में एक सुमनोहर गुहा तैयार कराकर उसमें स्वशरीरक्षा का भार शिष्य के ऊपर छोड़ युधिष्ठिर सम्वत् 2058 में चिरकाल के लिये समाधिस्थ दशा का अनुभव करना आरम्भ किया।
इति श्री ज्वालेन्द्रनाथ हिंगलाज समागम वर्णन ।

Tuesday, May 28, 2013

श्रीमद्योगेन्द्रगोरक्षनाथ कैलास गमन वर्णन

श्रीनाथजी कुछ काल निवास करने के अनन्तर यहाँ कालीकोट से अभ्युन्थान कर बंगाल और बंगाल से आसामभुट्टानादि देशों में भ्रमण करते एवं जनों को योगिपदेश संस्कारों से संस्कृत करते हुए कतिपय वर्ष के उत्तर चीन साम्राज्यन्तर्गत पिलांग (पेनांग) नगर की सीमा में पहुँचे। यह स्थान बड़ा ही रमणीय और मनोहारी था। अतएव गोरक्षनाथजी ने कुछ काल यहाँ निवास करना उचित समझ कर इस विषय में अपने शिष्यों से परामर्श किया। शीघ्र ही हस्तसम्पुटी कर उनके शिष्यों ने अनुबूल सम्मति प्रकट की जिससे श्रीनाथजी यहीं विराजमान हो गये। यहाँ कुछ ही दिन के उत्तर आपने एक यथेष्ट पारिमाणिक गुहा निर्मापित कराई जिसमें अपने शिष्यों को समाधि के अलौकिक आनन्दानुभव को अनुभवित करने के लिये नियोजित किया जिनके शरीर की रक्षात्मक कार्यवाही का भार अपने-अपने ऊपर धारण कर उनको सर्व प्रकार से निशंक कर दिया था। श्रीनाथजी का हमेशा ही यह व्यवहार था कि वे अपने शिष्यों को यथोचित अनेक विद्या प्रदान के साथ-साथ असम्प्रज्ञात समाधि के अभ्यास में निपुण कर देते थे और तदनन्तर उसका चिरकाल तक अनुभव करने के लिये या तो अपने शिष्यों को यह आज्ञा दिया करते थे कि जाओ पृथक् भ्रमण करो और पारस्परिक सहवास से पारस्परिक शरीर रक्षा से रक्षित हो समाधिस्थ अवस्था को अनुभवित करो। अन्यथा अपने समीप रहने वाले शिष्यों को उस अवस्था में परिणत कर उनके शरीर की स्वयं कुछ सेवा और रक्षा किया करते थे। धन्य गुरुजी धन्य, समझ में नहीं आता है आपको कौनसी इतनी बड़ी अभिलाषा थी जिसके वशीभूत हुए आप सांसारिक लोगों को इस अतीव दुष्प्राप्य पदवी पर चढ़ाकर एक मामूली पुरुष की तरह उनके शरीर की रक्षा में अपने आपको बन्धित कर देते थे, जिससे आपको सर्व प्रकार के आस्वादन त्यागने पड़ते थे और स्व अण्डरक्षार्थ टिट्टिभी की तरह हर एक समय सचेत रहना पड़ता था। ठीक है इस निरिच्छ और निःस्वार्थ अपूर्व हितैषिता का ही यह फल है जो आपका प्रातःस्मरणीय पवित्र नाम तथा स्वच्छ यथ पृथिवी पर अमर हो गया है। परन्तु आपकी शिष्यों के प्रति निरीह अद्वितीय कल्याणप्रद, प्रीति के ऊपर दृष्टि डालने पर मुझे आधुनिक उन गुरुमहाशयों की अधःपातिनी शिष्य सम्बन्धिनी लोकनिन्द्य प्रीति का स्मरण हो आता है जो आपके चिरकालावधिक वृहत्प्रयत्न द्वारा प्रसारित धवल कीर्ति पंूज को मलीनत्वावच्छिन्न बनाने के लिये कटिबद्ध हो रही है। मैं, क्रोधावेश से चंचलित और लपलपाती हुई अपनी जिव्हा को, ऐसे पुरुषों के ऊपर अपशब्दों का प्रयोग करने से तो अवश्य, दन्तों के नीचे दबाकर निरोधित कर रहा हूँ। परं इनकी अनुचित प्रीति के अवलोकन से अनल्प दुःखाक्रान्त हृदय को उस व्यवहार से अवरूद्ध करने को निःसन्देह असमर्थ हूँ। अहो ! क्या ही दुःख का विषय है आजकल के दर्शनीयाकृति भूरी-भूरी बबरानों वाले छोटे-छोटे ही बालक ऐसे लोगों के हस्तगत हो जाते हैं जिनकी ये लोग निर्विकल्प हो आनन्दित हुए अपने चिन्ह से चिन्हित करने की बड़ी ही शीघ्रता किया करते हैं। बस क्या था ज्योंही दिन व्यतीत होने लगे त्यों ही गुरुजी की प्रीति बढ़ने लगी और आधुनिक योगसाधनीभूत विचित्र क्रियाओं का आरम्भ होने लगा। जैसे प्राचीन योगी उन यथार्थ क्रियाओं में शीघ्र निपुणता प्राप्त करते थे उसी प्रकार आधुनिक योगी भी तो होने चाहिये। अतएव ये भी कुछ ही दिन में आधुनिक क्रियाकुशल गुरुओं की कृपा से शीघ्र तमाखू, गांजा, चरस, भंग, अफीम इनसे एकाधी और भी अधिक क्रियाओं में कौशल्य प्राप्त करते हैं। जिसका फल यह होता है कि बालायु गोरक्षरूप दर्शनीयाकृति होनहार वे बालक थोडे+ ही दिन में निर्बल निस्तेज होकर अपने भविष्य को भ्रष्ट कर बैठते हैं और चरसादि से दग्ध मर्म स्थान हुए बाल्यावस्था में ही बूढ़ों की तरह खांसी से पीडि़त होकर मुठ्ठीभर खंखार फैंकने लगते हैं। अफसोस (अस्तु) गोरक्षनाथजी ने अपने शिष्यों को समाधिस्थ आनन्द में व्यलीन कर योगदीक्षाभिकांक्षी स्वसेवा में उपस्थित हुए अन्य पुरुषों को अपना शिष्यत्व स्वीकृतिपूर्वक अधिकारित्वानुकूल रहस्य समझाना आरम्भ किया और जब तक उनके ज्येष्ठ गुरुभाईयों का समाधि उद्घाटन समय पूर्ण हुआ तब तक उन्होंने अपनी क्रियाओं के परिज्ञान में अच्छी बुद्धिमत्ता प्रदर्शित की, अर्थात् द्वादश वर्ष पर्यन्त वे असम्प्रज्ञात समाधि के यथेष्ट अधिकारी बन गये। अतएव समाधिस्थ शिष्यों के जागरित होने पर गोरक्षनाथजी ने उनको एकाकी भ्रमण कर अपने उद्देश्य प्रचार की आज्ञा प्रदान की। उन्होंने शीघ्र ही आज्ञा को अंगीकृत कर गुरुजी की प्रणति पूर्वक एकाकी देशाटन के लिये प्रस्थान किया। उधर गोरक्षनाथजी ने भी अपने ज्येष्ठ शिष्यों को विदा कर तथा नूतन शिष्यों को साथ में ले वहाँ से गमन किया और चीन में भ्रमण कर तिब्बत में होते हुए कतिपय वर्ष में नयपाल (आधुनिक प्रसिद्धनैपाल) देश में पहुँचे। जिनके यहाँ पर्यन्त भ्रमण करने से कितने ही पुरुष शिष्य होने की अभिलाषा से उनके साथ हो गये थे। अतएव उन लोगों की आकांक्षा पूरी करने के अभिप्राय से श्रीनाथजी ने इस देशस्थ एक पर्वत के ऊपर निवास किया। (जिसका कालान्तर में गोरख पर्वत नाम प्रसिद्ध हुआ) (अस्तु) श्रीनाथजी ने अनुयायी पुरुषों को अपना शिष्य बनाकर क्रमानुकूल क्रियाओं में प्रवृत्त करते हुए ज्येष्ठ शिष्यों को समाधिस्थ किया। जिन्होंने निर्दिष्ट समय पर्यन्त क्रियाकौशल्य में स्वस्व बुद्धि के अनुकूल सन्तोषप्रद दक्षता दिखलाई। अतएव श्रीनाथजी उनकी आरे से निश्चित हो गये और आपने उनको सूचित किया कि अपने इस छोटे गुरुभाइयों को जिनको हमने असम्प्रज्ञात योग के अधिकारी बना दिया है तुम यथेष्ट समय पर्यन्त समाधि का अनुभव कराना तथा तत्कुशलता विषयक निश्चयकर तदनन्तर सब मिश्रित सम्मति हुए समस्त पर्वतीय देशों में योग का प्रचार करना। समग्र शिष्यों ने उनकी यह आज्ञा शिर झुकाकर स्वीकार ही नहीं की बल्कि तत्पालनार्थ वे प्रयत्नाभिमुख भी हो गये। उधर श्रीनाथजी परम प्रीतिपूर्वक सन्तोष एवं धैर्यान्वित स्निग्ध वाक्यों द्वारा अपने प्रिय शिष्यों को सन्तोषित और तत्कृत्य के लिये उत्साहित कर वहाँ से एकाकी विदा हुए और अपनी क्रियाप्रभावोत्थ शक्ति द्वारा लघुभारात्म कहो बहुत ही शीघ्रता के साथ कैलासस्थ श्री महादेवजी के समीप पहुँचे। जो उचित प्रणामात्मक आदेश-आदेश के अनन्तर श्रीमहादेवजी के द्वारा निर्दिष्टित आसन पर विराजमान हुए। तदनन्तर आगन्तुक सत्कारार्थ अवश्यम्भावी यथोपलब्ध प्राकरणिक वाक्यों द्वारा प्रसन्नमुख सर्वान्तर्यामी श्रीमहादेवजी ने प्रशिष्य से कुशलवार्ता पूर्वक पूछना आरम्भ किया कि कहिये हमारे उद्देश्य का कैसा प्रचार हो रहा है। लोग इस प्रचार में विश्वसित हुए इसके ग्रहणार्थ उत्कण्ठित होते हैं कि नहीं। उत्तर प्रदान में गोरक्षनाथजी ने कहा कि स्वामिन् ! भला कौन ऐसा पुरुष है जो आपकी जनहितार्थ प्रदानित वस्तु में उपेक्षाकर कल्पों पर्यन्त अल्पज्ञ पशु प्राययोनिस्थ अ असह्य विविध कष्टों को अनुभवित करने के लिये उद्यत हो। प्रत्युत आर्यवत्र्त में तो चतुर्थांश पुरुष ऐसे हैं जो इस विषय में पूर्णतया विश्वासी हो सांसारिक प्रपंचात्मक निस्सार व्यवहार को तिलांजलि दे अपने आपको इसकी प्राप्त्यर्थ प्रयत्नों में व्यलीन कर चुके हैं। जिनमें कितनेक पुरुषांे को अपने प्रयत्न में उत्तीर्णता प्राप्त हुई है और उसके प्रभाव से विशेष शक्तिशाली हो उन्होंने अपने मुष्य जन्म का यथार्थ उद्देश्य उपलब्ध किया है। साथ ही आपके उद्देश्य प्रचार में सहायक बन आपकी विशेष कृपा के पात्र हुए हैं इनके अतिरिक्त कितने ही पुरुष ऐसे हैं जो किसी कारण से सांसारिक जटिल जाल द्वारा दृढ़बन्धित हुए त्यक्तगृही तो नहीं हो सके हैं परं तद्वत् होने के लिये जीजान से यत्न करते रहते हैंं। और आशाबद्ध हुए अपने उमड़ते हुए हृदय को धैर्यान्वित किया करते हैं कि निःसन्देह एक दिन ऐसा आयेगा जिसमें कैलासनाथ हमें भी परिणामी संसार के अस्थिर मिथ्या व्यापार से विमुक्त कर चिरस्थिति जनक योगात्मक सच्चे कृत्य में नियुक्त कर देंगे क्यों कि लोगों को निश्चय हो गया है कि मनुष्य शरीर की प्राप्ति केवल अन्य योनियों में भी उपलब्ध विषयानन्द की योग्यता के लिये ही नहीं है किन्तु मनुष्य शरीरोपलब्धि का मुख्य प्रयोजन जो जन्म मरणात्मक पारम्पर्य दुःसह्य दुःख को निराकृत करना है तदर्थ ही है और इस अभिलषित कार्यसिद्धि के लिये योगरूप उपाय के अतिरिक्त अन्य दृष्ट उपाय प्रसिद्ध नहीं है। और यह बात भी नहीं है कि यह दशा केवल भारतीय लोगों की ही हो प्रत्युत भारत की इस आकाशव्यापी घूमने पाश्र्ववर्ती अन्यदेशीय लोगों पर भी अपना प्रभाव खूब डाला है। यही कारण है अभी हम चीन देश का भ्रमण समाप्त करके आ रहे हैं। हम जिस दिन से इस देश में प्रविष्ट हुए थे उस दिन से बहिर होने तक ऐसा कोई नगर हमारे मार्ग में नहीं आया जिसमें अनेक पुरुष योगोपदेश के अभिलाषी न हों और इसी उपकार से उपकृत हुए लोगों ने नगर से बाहर निकल हमारा यथोचित स्वागतभिनन्दन नहीं किया हो। यही कारण था इस देश में यथार्थ प्रचार न होने पर भी कतिपय लोगों ने साहस दिखलाया। तथा प्रपंच को किम्प्रयोजन समझकर हमारा शिष्यत्व ग्रहण करने के उद्देश्य से हमको विवशित किया। यह देख हमने भी उनकी प्रार्थना पर पूरा ध्यान देकर उनकी आशालता को हरित बनाते हुए उनको वांछित पद पर अभिषिक्त कर दियां जिनको पार्वत्यदेश में योगोपदेश का विस्तार करने के लिये आज्ञापित कर मैं अभी आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। यह सुन महादेवजी बड़े ही प्रसन्न हुए और स्वमत प्रचार विषयक प्राबल्य के सम्बन्ध में गोरक्षनाथजी की प्रशंसा करने लगे। तदनन्तर विनम्र भाव से अभ्यर्थना करते हुए श्रीनाथजी ने प्रत्युतर दिया कि ! भगवन् सर्व आपका ही प्रताप है आप जब-जब जिस प्रकार के कृत्य को विस्तृत करना चाहते हैं तब-तब मनुष्यों की तदनुकूल बुद्धि हो जाती है जिससे लोग शीघ्र ही उस कृत्य को आश्रित करते हैं और उसको अन्त तक पहुँचाने का प्रयत्न किया करते हैं। यदि इस वार्ता के विषय में कोई मनुष्य अभिमान करे कि मैंने अमुक कृत्य विस्तृत किया है तो समझना चाहिये कि निःसन्देह वह मनुष्य गलती पर चल रहा है। श्रीमहादेवजी ने गोरक्षनाथजी के इस कथन को चुप रहते हुए केवल हुंकारे द्वारा अनुमोदित किया और भ्रूभंगव्याज से उनको दक्षिण भाग में दृष्टिपात करने की आज्ञा दी। गोरक्षनाथजी ने श्रीमहादेवजी का अभिप्राय समझकर ज्यों ही दाक्षिणात्य दृष्टि धारण की त्योंही उनकी दृष्टि अकस्मात् उधर से स्वाभिमुख आते हुए स्वीयगुरु मत्स्येन्द्रनाथजी के ऊपर पड़ी। यह देख तत्काल ही उन्होंने खड़े होकर कतिपय पादक्रम द्वारा गुरुजी का स्वागत किया तथा आभ्यन्तरिक बाह्य दोनों प्रकार की आदेशात्मक नमस्कार से उनको सत्कृत किया। इस कृत्य से गोरक्षनाथजी को प्रत्युपकृत कर मत्स्येन्द्रनाथजी अग्रसर हुए और स्वगुरु श्री महादेवजी को नमस्कार कर तन्निर्दिष्ट आसन पर बिराजित हुए। श्री महादेवजी ने इनसे भी योग प्रचार के विषय में वार्तालाप किया जिसका उन्हें संतोषप्रद उत्तर मिला और उत्तर प्रदान के अनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी कहा कि स्वामिन् ! आपका मनोरथ चरितार्थ हुआ भारत कोने-कोने में आपके उद्देश्य का प्रवाह-प्रवाहित हो चुका है। अतः मेरी आन्तरिक इच्छा है कि आप मुझे अवकाश प्रदान कर दें जिससे मैं अभीष्ट कृत्य में संलग्न हो सकूँ। अपने उत्तरदायित्वानुकूल योगोपदेश विस्तार से अनृण हुए समझकर श्रीमहादेवजी ने निर्विकल्पता के साथ शीघ्र ही इनकी प्रार्थना को अंगीकार कर लिया और विज्ञापित किया कि जाइये आत्मानन्दन के गहन समुद्र में अपने मनीराम को व्यलीन कीजिये। मत्स्येन्द्रनाथजी गुरुजी की अनुकूल आज्ञा प्राप्त होने से अतीवानन्दित हुए और स्वीय आरम्भित कार्य से लब्धावकाश होकर गुरुजी के समीप ही रहने लगे जो कुछ समय निवासोत्तर युधिष्ठिर ’ सम्वत् 1936 में चिरकाल के लिये समाधिस्थ अवस्था में अवस्थित हो गये। उधर गोरक्षनाथजी ने हरियाणा तथा द्रुमिलनारायण सम्बन्धी अवतरण के विषय में श्री महोदवजी से परामर्श किया। जिसका उत्तर प्रदान करते हुए उन्होंने कहा कि उनके अवतरित होने में अभी विलम्ब है जो तुमसे भी अज्ञात नहीं है। हाँ यदि हमारे निश्चित उस समय से प्रथम उनकी कोई आवश्यकता जान पड़ती होय तो स्फुट करना उचित है। जिससे हम भी अवगतित हो जायें और उनका नियत समय न्यून करने का यत्न करें। गोरक्षनाथजी ने कहा कि नहीं स्वामिन ! शीघ्रता करने की आवश्यकता तो कोई दृष्टिगोचर नहीं है केवल उस समय उनको किसी न किसी उपाय द्वारा अपनी ओर आकर्षित करने के लिये मुझे सचेत रहना होगा। इसी अभिप्राय से प्रश्न द्वारा आप से निर्णय कर अपने आपको सावधान रखने की अभिलाषा की है। तदनु श्री महादेवजी ने कहा कि ठीक है परं वह समय तुमसे छिपा न रहेगा जैसा उचित समझो उसी उपाय को अवलम्बित करना। गोरक्षनाथजी ने श्रीमहोदवजी इस उक्ति को शिर नमन द्वारा समर्थनित किया और अपने प्रास्थानिक वृत्त से उन्हें प्रबोधित कर अन्तिम आदेश-आदेश आत्मक विनम्र प्राणाम की। यह देख श्रीमहादेवजी ने प्रश्न किया कि यहाँ से किस ओर जाने का विचार है। श्रीनाथजी ने प्रश्न हल करते हुए कहा कि यहाँ से एक बार तो बद्धरिकाश्रम में जाना होगा तदनुकूल विचार किया जायेगा। यह सुन महादेवजी ने कहा कि ठहरो हम भी चलेंगे। वहाँ ज्वालेन्द्रनाथ और उनका शिष्य कारिणपानाथ निवासकर अपने शिष्य प्रशिष्यों को षट्कर्मादि सर्व प्रकार की क्रियाओं से दीक्षित कर रहे हैं। जिनमें कतिपय कठोर तप में संलग्न हैं। अब उनका समय पूर्ण हो चुका है इसीलिये तपस्यावस्था से उनको विमुक्त करने के उद्देश्य से ज्वालेन्द्रनाथ ने हमारा आव्हान किया है। गोरक्षनाथजी ने यह श्रवण कर श्रीमहादेवजी की प्रास्थानिक तैयारी की प्रतीक्षा में स्वीय गमन को स्थगित किया। इधर महादेवजी ने अपने सज्जीकृत नन्दीश्वर को स्मृतिगत किया जो शीघ्र उपस्थित हो अवनत पृष्ठ हुआ श्रीमहादेवजी के सुगमारोहण में विशेष दक्ष हुआ। तदनन्तर दोनों महानुभाव कुछ ही काल में बदरिकाश्रम में पहुँचे। जहाँ अनेक शिष्य प्रशिष्यों के सहित ज्वालेन्द्रनाथजी विराजमान थे। ठीक इसी समय इनकी दृष्टि स्वाभिमुख आते हुए गोरक्षनाथ और स्वीय गुरु श्रीमहादेवजी के ऊपर पड़ी। तत्काल ही इन्होंने अपने आसन से उत्थित हो कुद पदक्रम अग्रसर होते हुए उनका स्वागतिक सत्कार किया तथा यथोचित आसन पर बैठाकर उनके आकस्मिक आगमन द्वारा दर्शनोत्सव के विषय में कृतज्ञता प्रकट की। इसके अनन्तर अपने युक्ति युक्त यथार्थ वाक्यों द्वारा ज्वालेन्द्रनाथजी को प्रत्युप कृत करते हुए श्रीमहादेवजी ने उन घोर कठिन तप निष्ठ स्वीय कृपापात्र योगियों का परिचय मांगा। वे ज्वालेन्द्रनाथजी की गुहा से कुछ ही दूरी पर अनुकूल स्थलवती कन्दरा में विराजमान थे। अतएव ज्वालेन्द्रनाथजी खड़े हुए और हस्तसम्पुटी कर उधर चलते हुओं ने अपने जनपुण्योपलब्ध अवलोकन द्वारा उनको पवित्र तथा उत्साहित करने के लिये उनकी अभ्यर्थना की। श्रीमहादेवजी तत्काल ही खड़े होकर ज्वालेन्द्रनाथजी के साथ तपस्वियों के समीप गये जो अपनी कठिनावस्था का परिचय दे रहे थे। इधर ज्यों ही तपस्वियों को यह अवगति हुई कि हमारे तप से प्रसादित हो जगदीश श्री महादेवजी हमको अपने पवित्र दर्शन से कृतार्थ एवं हमको तपस्यावस्था से विमुक्त करने के अभिप्राय से उपस्थित हुए हैं तब तो उनके आभ्यन्तरिक स्थान में वह आनन्द अंकुरित हुआ जिसका अनुभव या तो उन्हीं को हुआ होगा या श्रीमहादेवजी ही अन्तर्यामित्व स्वभाव से समझते होंगे। ठीक है साधारण पुरुष एक क्षुद्र कार्य में कुशलता प्राप्त करने पर जब अपने आपको धन्य समझ बैठता है और उसको इतना अधिक आनन्द होता है कि कुछ समय के लिये तो संसार मात्र को आनन्दमय देखता है। तब पाठक महानुभव ! विचारिये, इन पुण्यात्माओं का कौन कार्य था जिसमें इन्हें सफलता प्राप्त हुई। धन्य ऐसी माताओं को जिन्होंने अपने शुद्धाशय पवित्र और स्थान से ऐसे पुत्ररत्नों को उत्पन्न किया जिनके दर्शनार्थ स्वयं श्रीशम्भु आ उपस्थित हों। तथा जिनको तपश्चर्या से विमुक्त कर उनको और भी उच्चपदाभिगामी बनाने के अभिप्राय से धैर्यान्वित एवं उत्साहित करने के लिये स्वयं श्रीशम्भुमहाराज समीप आवें। (अस्तु) तपस्वियों की अवस्था देखकर श्रीमहादेवजी ने प्रकरण आरम्भ करते हुए कहा कि ज्वालेन्द्रनाथ ! अब इनके विषय में क्या समाचार है। ज्वालेन्द्रनाथजी ने विनम्र भाव से कह सुनाया कि भगवन् ! जो समाचार है सो ऐसा नहीं कि आप से अज्ञात हो और उसको हमारी अवश्य ही प्रकट करने की आवश्यकता हो। तदनु श्रीमहादेवजी ने कहा कि यह ठीक है हमें मालूम हुआ तुमने तपस्वियों की विमुक्ति लक्ष्यता से हमारा आव्हान किया है। परं हम तुमसे यह सम्मति मिश्रित करना चाहते हैं कि इनकी इस अवस्था विमुक्ति का कोई दिन तुमने निश्चित किया हुआ है वा हमारी ही इच्छा पर यह कार्य निर्भर है। ज्वालेन्द्रनाथजी ने प्रत्युत्तर दिया कि स्वामिन् ! हमने द्वादश वर्ष की अवधि अवश्य रखी है परं तिथि नियत नहीं करी कि अमुक तिथि में ही यह कार्य करना होगा। अतएव आपकी इच्छा हो उसी दिन यह कार्य कर सकते हैं। ऐसे कृत्य के लिये तिथि को न्यूनाधिक करने में कोई बाधा नहीं। यह सुन श्रीमहादेवजी ने गोरक्षनाथजी की ओर इशारा करते हुए कहा कि तुम भी अपनी अभिमति दो। उन्होंने हाथ हस्त जोड़ प्रकट किया किया कि भगवन् ! मेरी समझ में तो यह आता है अग्रिम दिन अरूणोदय से ही इस कृत्य की समाप्ति करनी चाहिये। गोरक्षनाथजी की यह उक्ति समर्थित हुई। श्रीमहादेवजी ने भी इसी अवसर में उनको विमुक्त करना समुचित समझा था। अतएव उस दिन तथास्तु प्रतिपादन कर श्रीमहादेवजी ज्वालेन्द्रनाथजी की गुहा पर वापिस लौटे। अनेक विषयक वार्तालाप करने पर उधर से सायंकाल उपस्थित हुआ। योगी लोग अपनी-अपनी क्रियाओं से लब्धावकाश हुए और सब ने सम्मिलित हो अतीवानन्दित होते हुए बड़ी श्रद्धा के साथ श्रीमहादेवजी की वन्दना की। जिसका सांकेतिक वाक्यों द्वारा उनको श्रीमहादेवजी ने प्रतिक्रियेय सत्कारात्मक फल समर्पित किया। तदनन्तर समस्त योगियों ने अपनी पारस्परिक यथोचित अभिवादनात्मिका क्रिया से अवकाश प्राप्त कर अपने-अपने आसनों पर ग्रहण किया। श्रीमहादेवजी के समीप केवल तीन व्यक्ति ज्वालेन्द्रनाथजी, गोरक्षनाथजी और कारिणपानाथजी ये विराजमान थी। योग्य प्राकरणिक विविध विषयक वार्तालाप करते-करते यह रात्री समाप्त हो चली। यह देख सभी महानुभव प्रातःकालिक नित्यक्रिया से निवृत्त हो पुनः श्रीमहादेवजी की सेवा में नियत हुए और इस सेवा से प्रत्युपकृति प्राप्त कर उन्होंने स्वकीय आभिवादनिक सत्कार से भी अवकाश ग्रहण किया। उधर उक्त कृत्य के करते कराते निर्दिष्ट समय भी आ पहुँचा। अतएव श्रीमहादेवजी ने प्रकृत कार्य के लिये ज्वालेन्द्रनाथादि को सूचित किया। जिससे वे सब सचेत हुए और महादेवजी के साथ ही तपस्वियों के समीप गये। वहाँ श्रीमहादेवजी ने स्वयं यह घोषित किया कि हे तपस्वियों ! अब इस दशा का त्याग करो, तुम पूर्ण अधिकारी हो। तुम्हारी इस प्रशंसनीय दृढ़ता एवं सहनशीलता से प्रसन्न हो हम तुम्हें बधाई देते हैं और वचन देते हैं कि तुम ज्वालेन्द्रनाथ और कारिणपानाथ के द्वारा अपनी अभीष्ट सिद्धि के प्राप्त करने में अवश्य समर्थ होंगे। यह सुन तपस्वियों ने स्वकीय आरम्भित क्रिया से मुक्ति उपलब्ध की और श्रीमहादेवजी के चरणाविन्द की शरण लेकर अपने और भी चातुर्य एवं महत्त्व का परिचय दिया। जिससे श्रीमहादेवजी की वृद्ध प्रसन्नता और भी प्रवृद्ध हुई और उनके आन्तरिक हृद्यस्थान में वह उत्कट प्रीति उत्पन्न हुई जिसको स्वीय हृदय में ही व्यलीन करने के लिये वे असमर्थ हुए। अतएव उन्होंने समस्त तपस्वियों को अपने ओर संदेश से सम्मिलित कर अपनी प्रवृद्ध प्रीति को सार्थक किया। तथापि इतने ही कृत्य से श्रीमहादेवजी की प्रवाहित प्रीति शान्त न हुई। इसीलिये उन्होंने योगि संघ को सम्बोधित कर कहा कि पृथिवी पर वे मनुष्य, साधारण एवं न्यून भाग्यशाली नहीं समझने चाहिये जो सांसारिक दुष्त्याज्य माया प्रपंच को किम्प्रयोजन निश्चित कर अनेक कष्टों का सामना करते हुए दृढ़ता एवं सहनशीलता तथा धीरता द्वारा मेरे स्वरूप को लक्ष्य बनाते हुए मेरी अनन्य कृपा के भाजन हो जाते हैं और जिनको मैं स्वयं अपने हस्तस्पर्श द्वारा उच्चपदाभिगामी बनाने के लिये बाध्य होता हूँ। ठीक आज यही दृश्य सम्मुख उपस्थित है। मनुष्यों को चाहिये इससे शिक्षा ग्रहण करें और जो मनुष्य, यह लोक ही दुःखमय है जिसका नाम ही मृत्युलोक है इसमें जन्मना और मरना प्रधान दुःख हैं जो नित्य होते रहते हैं जिनसे छुटकारा पाने की इच्छा करना आकाश को मुठ्ठी में बन्द करने की इच्छा करना है, ऐसा प्रचार कर स्वयं आलस्योपहत हुए दूसरे लोगों को भी आलसी बना डालने का यत्न करते हैं उनके शब्दोच्चारण की ध्वनि कभी श्रोत्रगत न होने देना। क्यों कि वे लोग अज्ञ हैं मूर्ख हैं। मैं ऐसे लोगों को सावधान करता हूँ कि वे अच्छी तरह समझ लें ईश्वर द्वेषी तथा अन्यायी नहीं है जिसने संसार को दुःखमय ही रचकर खड़ा किया हो और इसमें ऐसा उपाय नहीं रचा हो जिससे तुम तन्निष्ठ दुःख से मुक्ति न पास को और कल्पों पर्यन्त अनेक कष्टों का ही उपयोग किये जाओ। किन्तु वह बड़ा ही दयालु है उसने प्रथम तो तुमको ऐसा कोई उपदेश नहीं दिया जिसके अवलम्बन से तुम्हें दुःख भोगना पड़े ! तुम अपने अतथ्यामिभान से स्वयं दुःखी होते हो। द्वितीय वह दुःख भी तुम चाहो तो दूर हो सकता है जिसके परिहारार्थ उपाय ईश्वर ने सृष्टि सर्ग के साथ ही रचा है जिसका हम प्रचार कर रहे हैं। आज ही देखिये अनेक पुरुष दृष्टिगोचर हैं जो इस योगोपाय से सांसारिक प्रधान दुःख का तिरस्कार कर चुके हैं। श्रीमहादेवजी ने तपस्वियों के ऊपर इस प्रकार अपनी विशेष कृपा प्रकट कर पारस्परिक अभिवादन प्रत्यभिवादन के अनन्तर निज स्थान को प्रस्थान किया। उधर गोरक्षानाथजी ने भी तत्कृत्य से निवृत्त हो श्रीजान्हवीजी के तटस्थ हरद्वार क्षेत्र में गमन किया और वहाँ गुहा का निर्माण कर युधिष्ठिर सम्वत् 1989 में आप चिरकाल के लिये आत्मानन्द में व्यलीन हुए।
इति श्रीमद्योगेन्द्रगोरक्षनाथ कैलास गमन वर्णन ।

श्री मद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ कालिका युद्ध वर्णन

पूर्वोक्त महोत्सव की समाप्ति के पश्चात् गोरक्षनाथजी ने कुछ समय तक वहाँ स्थिति रखकर तत्कृत्य स्मृति सूचक एक स्थान का निर्माण कराया और उसके प्रबन्धार्थ अपने एक शिष्य को नियतकर स्वयं देशाटन के लिये वहाँ से प्रस्थानित हुए। जो कुछ काल में भ्रमण करते तथा अपने अलौकिक वस्तु प्राप्ति सूचक ओजस्वी योगोपदेश से लोगों को तज्जिज्ञाषु बनाते हुए कुछ काल में सौराष्ट्र देश में पहुँचे। यहाँ तक के भ्रमण में कई एक मनुष्य उनको ऐसे मिले जो योग मर्म जिज्ञासान्वित हुए उनके शिष्य बनने के लिए अधीर चित्त हो रहे थे। अतएव उन लोगों की अभिलाषा पूर्ण करने के अभिप्राय से गोरक्षनाथजी ने तत्कृत्यानुकूल ऐकान्तिक निरपाय स्थान की अन्वेषणा में विशेष दृष्टि दी। तदनु कतिपय दिन में इधर-उधर भ्रमण से एक स्थल उनकी इच्छानुकूल मिला जो समुद्र से लगभग एक योजन की दूरी पर पृथ्वी समतल पहाड़ मय है जहाँ ऊपर के प्रदेश से एक स्वच्छ तथा मधुर जलवाहिनी छोटी सी नदी प्रवाहित होती है। ठीक इसी के तीर पर श्री नाथजी ने विश्राम किया जहाँ एक गुहा भी निर्मित की जिसमें स्वचिन्हित शिष्यों को यथाधिकारी क्रम से तदनुक्रमारम्भ क्रियाओं से दीक्षित करने का आपको अनुकूल सुभीता मिला। अर्थात् मन्दाधिकारी शिष्यों को प्रथम अहिंसादियमों का मर्म समझा कर उनमें दृढ़तापूर्वक निपुणता प्राप्त करने के लिये आपने उनको प्रबोधित किया। तदनु शौचादि नियमों के पूर्णतया पालनार्थ आज्ञा प्रदान की। इसके अनन्तर पùासन भद्रासनादि आसनों से उनको दीक्षित किया। तत्पश्चात् प्रणायाम एवं प्रत्याहार की विधि शिखलाई जिनके उत्तर वे धारणा, ध्यान समाधिरूप मार्ग द्वारा असम्प्रज्ञात समाधि के अधिकारी हुए। इनसे अतिरिक्त मन्द समाहित चित्त मध्यम अधिकारी शिष्यों को प्रथम अविद्यास्मितादि क्लेशों के तिरस्कारार्थ एवं समाधि सिद्धि के वास्ते चित्त की प्रसन्नता के अविरोधी शास्त्रोक्त उपवासादिरूप तप तथा मोक्षशास्त्राध्ययन अथवा प्रणवजपात्मक स्वाध्याय और परमात्मा में समस्त कर्मों का अर्पण करण रूप प्रणिधान नामक क्रियाओं में कुशलता प्राप्त करवाई। तद्भिन्न समाहित चित्त अर्थात् उत्तमाधिकारी शिष्यों को केवल अभ्यास वैरागय से वृत्तिनिरोध के द्वारा असम्प्रज्ञात समाधि का अधिकारी बनाया। जिसमें उन्होंने गुरुजी की अपूर्व हितैषिता से जायमान गुरुदीक्षात्मक प्रयत्न से और स्वकीय कुशाग्र बुद्धि के प्रभाव से शीघ्र ही निपुणता प्राप्त की। अर्थात् अभीष्ट समय पर्यन्त समाधि लगाने की सामथ्र्य को उपलब्ध किया। अतएव गोरक्षनाथजी ने उनको समाधि विषय में परीक्षितकर स्वाधीनस्थ यथोचित विविध विद्याओं से भी दीक्षित किया। जिससे ये महानुभाव अपरिमित शक्तिशाली हुए श्रीनाथजी के उद्देश्य का विस्तार करने और देश में अपनी निर्मल अक्षुण्ण कीर्ति को स्थापित कर अपने आपको अमर बनाने में समर्थ हो सके। इन महानुभवों में धुरन्धरनाथजी की, जिसका वृतान्त आगे आयेगा, विशेष प्रसिद्धि है। (अस्तु) इस कार्य को समाप्त कर प्रत्युपकारार्थ पौनः पुनिक शिष्यों से वन्दित हुए श्रीनाथजी सौराष्ट्र देशस्थ इस स्थल से (आधुनिक प्रसिद्ध नाम गोरखमढ़ी) से फिर देशाटन के लिये प्रस्थानित हुए और कुछ दिन में गिरनार पवर्त पर पहुँचे। यहाँ आपने कतिपय दिन दत्तात्रेय के साथ विविध परामर्श करने पर अपने कुछ शिष्यों को पृथक् विचरण कर स्वोद्देश प्रचारार्थ सूचित किया। तत्काल ही आज्ञा को नतशिर से अंगीकृत कर वे लोग अपने रास्ते लगे। इधर गोरक्षनाथजी भी व्यर्थवार्ताओं द्वारा समय बीताने से प्रयोजन नहीं था अतएव अपने अवशिष्ट शिष्यों को साथ लेकर वे भी गिरनार से नीचे अवतरित हुए पूर्व दिशा के सम्मुख चले। जो कतिपय वर्ष के अनन्तर गुजरात मध्य प्रदेशादि देशों में विचरित हुए बंगदेशस्थ कालीकोट (आधुनिक प्रसिद्ध नाम कलकत्ता) नामक नगर में जा उपस्थित हुए। बहुत दिनों के इस दीर्घ गमन से उनके शिष्यों को निर्विण्णता प्राप्त हो गई थी। अतएव उनके कुछ काल वहाँ पर निवासकरण विषय के प्रस्ताव को स्वीकृत कर श्री नाथजी ने वहाँ विश्राम किया (यही स्थान आजकल गोरखवंशी नाम से प्रसिद्ध है)। (अस्तु) कुछ दिन के निवास करने पर इस नगर में एक मेला आरम्भ हुआ जिसका उद्देश्य जिस देवी के नाम से इस नगर का नाम पड़ा है, उस देवी की पूजा करना और उसको बलि प्रदान करना था। अतः इस कृत्य में उत्कण्ठा रखने वाले अपरिमित नरनारी उधर जा रहे थे। यह देख श्रीनाथजी के शिष्यों को भी इस कौतुक के दर्शनार्थ अत्युत्कट इच्छा ने बाध्य किया जिसके विवश हो उन्होंने गुरुजी से प्रार्थना करी कि स्वामिन्! हम लोग भी देवी का दर्शन करना चाहते हैं। यह सुन प्रथम तो श्रीनाथजी ने इस विषय में अपनी असम्मति प्रकट की और कहा कि सांसारिक लोगों में मिश्रित हो ऐसे उत्सवों में जाना हमारे लिये उचित नहीं। परन्तु जब इस मुँह तोड़ प्रत्युत्तर से अपने शिष्यों को आभ्यन्तरिक भाव से कुछ असन्तुष्ट देखा तब तो उनको किसी कारण से दैवगतिवश प्राप्त नासमझी के फल की उपलब्धि होेने के लिये जाने की आज्ञा दे दी। तत्काल ही गुरुजी की आज्ञा श्रवण कर गोरक्षनाथजी के शिष्य कालिकादेवी के मन्दिर में वद्वदृष्टि हुए वहाँ से प्रस्थानित हुए। परन्तु कुछ देर के बाद जब मन्दिर के बाह्य द्वार पर पहुँचे तब तो द्वारपालकों ने जो देवी की आज्ञानुसार पूजासामग्री और बलि से रिक्त हस्त पुरुषों को भीतर जाने से रोकते थे, उनको मन्दिर में प्रविष्ट होने से रोका। यह देख उनको बड़ा ही आश्चर्य हुआ। तथा द्वारपालकों को समझाने के अभिप्राय से उन्होंने कहा कि यह बलि प्रदानादि कृत्य तो सांसारिक लोगों का है न कि हम लोगों का। क्योंकि न तो सांसारिक लोगों जैसी हम को काई पुत्र द्रव्यादि की उत्कट अभिलाषा है और न उसके अभाव में हम देवी की सांसारिक लोगों जैसी गौणभाव से पूजा करना तथा उसके बलि अर्पित करना उचित समझते हैं। यही कारण है हम लोग अन्य पुरुष गृहीत उपकरणों से रिक्त है। वस्तुतः है भी ठीक हम विरक्त लोग हैं। हमारे समीप वस्त्रादि भी नहीं जिनसे शीतोणता का निवारण कर सकें। फिर पूजा सामग्री और बलि क्रय के लिये टके कहाँ से आते। जिन द्वारा सामग्री खरीद कर देवी की पूजा करने में तत्पर होते। हाँ हो सकता है कि हम मानसिक पूजाद्वारा जो सर्वोत्तम समझी जाती है, देवी को सत्कृत कर देंगे और कर भी चुके हैं। क्योंकि जो आपने से उत्कृष्ट जानकर जिसके दर्शन की अभिलाषा करता है वह उसकी मानसिक पूजा प्रथमतः ही कर बैठता है। ठीक यही वृत्त हमारा भी समझना चाहिए। अतः आप लोगों को उचित है कि हमको मन्दिर में प्रविष्ट होने से न रोकें। जिससे हम देवी का दर्शन कर अपने आसन पर जायें। यह सुन द्वारपालों ने कहा कि आप लोग जो कुछ कह रहे हैं सब ठीक है जिसके लिये हम कोई आपत्ति करने की अपनी इच्छा नहीं रखते हैं परं करें क्या देवी की आज्ञा ही ऐसी है कि बिना पूजा सामग्री और बलि किसी पुरुष को मन्दिर में न घुसने दो। हाँ हो सकता है कि आप लोग कोई ऐसा चमत्कार दिखलावें जिससे देवी हमारे ऊपर कुपित न हो और आपलोग अप्रतिहत गति हुए मन्दिर में प्रवेश कर सके। पाठक ध्यान रखिये अब से पहले यदि इनको अपनी विद्या प्रयोग के द्वारा द्वारपालों को उचित दण्ड देकर मन्दिर में प्रवेश करना अभीष्ट होता तो कभी के इस कृत्य में उत्तीर्ण हुए होते। परन्तु इन लोगों ने सोचा था कि सहसा ऐसा कर बैठना योग्य नहीं है क्योंकि विद्या प्रयोग की आवश्यकता वहीं हुआ करती है जहाँ अन्य उपायों से कार्यसिद्धि न हो सकत हो। (अस्तु) उपायान्तराभाव से और द्वारापालों के स्वयं उस कृत्य के कर दिखलाने के लिये बाध्य करने से आखिर उन्हों में से एक ने अपनी भस्मपेटिका का आश्रय लिया और उससे कुछ भस्मी निकाल मन्त्र सहित द्वारपालों की ओर प्रक्षिप्त की। तत्काल ही वे पाषाणप्रतिमा में परिणत हुए। यह देख मेले में बहुत कोलाहल और कौतुक उपस्थित हुआ। कितने ही पुरुष योगियों की अगम्य गति के विषय में अनेक प्रकरणों का उद्घाटन कर रहे थे कितनेक लोग उनको मन्दिर में प्रविष्ट होने से निरोध करने के विषय में द्वारपालों को निन्दा कर रहे थे और इस कुतहूत के देखने के लिये उत्सुक थे कि ये योगी देवी के सम्मुख जायेंगे तब कैसा कया समाचार उपस्थित होगा। ठीक इसी अवसर में द्वारियों को ठिकाने लगाकर ये महानुभाव भी मन्दिर में पहुँच देवी के अभिमुख हुए। उधर कालिका अपनी प्रचारित आज्ञा के विरूद्ध उनको रिक्तहस्त निश्चयीकृत कर महा कोपान्वित हुई और साक्षात् युद्ध कर उनको उचित दण्ड देने की अभिलाषा से प्रकट हो प्रतिमा से पृथक हो गई। अतः उसके भयावह विकट रूपावलोकन से योगियों ने समझ लिया कि वार्ता सहज में तय होने वाली नहीं है। अवश्य अपने आज्ञाप्रचार रक्षण के लिये यह कठिन उपाय का अवलम्बन करेगी। उनके इस परामर्श करने के समय ही उधर से देवी ने ललकारना आरम्भ किया और घोषित कर दिया कि सचेत हो जाओ आज्ञा भंग करने का फल अभी दिया जायेगा। यह सुन एक सम्मति कर योगियों ने यह निश्चय किया कि यद्यपि हम लोग ऐसे महात्मा के शिष्य हैं जिनको त्रिलोकी में कोई तिरस्कृत नहीं कर सकता है ठीक उसकी अपरिमित विविध विद्याओं के संचार हम लोगों में संचरित है जिस द्वारा देवी का प्रहार निष्फल कर सकते हैं। तथापि हमको उचित नहीं की जिसकी एक बार अपने हृदय से नमस्कार अर्थात् पूजा कर ली हो फिर उसी को द्वेषस्थान बनाकर उसके सम्मुख खड़े हो उसको अस्त्र प्रहार का लक्ष्य बनावें। अतएव जो कुछ उचित समझे इसे करने दो हमको वह सहर्ष सहन करना चाहिये। क्यों कि हमारा ऐहिकागमन इसके दर्शनार्थ ही था सो पूर्ण हुआ। योगियों को इस प्रकार के विचार से शिथिल हो तद्वत् निश्चेष्ट खड़े देखकर देवी ने भी समझ लिया कि यद्यपि मालूम होता है इन लोगों का ऐहागमन अपनी विद्या के अभिमान तथा हठ से नहीं है प्रत्युत भक्ति से ही है। तथापि अपने नियम की पालना करनी आवश्यकीया है इसीलिये इनको कुछ दण्ड अवश्य देना होगा। यह स्थिर कर देवी ने उनका परिचय पूछा। प्रत्युत्तर में उन्होंने अपना समस्त समाचार वर्णित किया और यह भी बतलाया कि हम प्रसिद्ध योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के शिष्य हैं जो यहीं विराजमान है। यह श्रवण कर देवी ने प्रथम तो उन द्वारा द्वारपालों को वर्तमान में अवस्था से विमुक्त करवाया। तदनु बनको बंदी कर कहा कि अच्छा तुम्हारे गुरुजी यहीं विराज रहे हैं तो वे स्वयं मुक्त कराकर ले जायेंगे। अतः जब तक वे नहीं आवें तब तक तुम लोगों को यहीं रहना पड़ेगा। यह आज्ञा प्रचारित कर देवी फिर प्रतिमा में व्यलीन हो गई। उधर इस आज्ञा के सुनते ही योगी निराश हो गये उनके कोई ऐसा उपाय दृष्टिगोचर न आया जिसके द्वारा इस लज्जास्पद कृत्य से मुक्ति पा सके। क्योंकि इस विषय में वे प्रथम ही वचन बद्ध हो चुके थे जैसा देवी करेगी सब सहनीय होगा। अतः बलपूर्वक निकल जाने का भी ढंग हसत से जाता रहा। अहो दैवगति अगम्य है हमने अपने ही हस्त से पैरों में कुठाराघात किया। इत्यादि विचार कर विवश हो वे वहीं बैठ गये और पारस्परिक अनेक प्रकार की वार्तायें करने लगे। उनमें एक ने कहा कि गुरुजी असम्मति प्रकट होने पर भी हम लोगों में यहाँ आने को उत्साह अपने शरीर से निकालकर बहिर न किया जिसका यथार्थ मर्म समझकर गुरुजी ने बाह्यभाव से यहाँ आने की आज्ञा दी इसीलिये हमको इस दशा का अनुभव करना पड़ा है। इससे सबके गुरुजी के कथन का स्मरण हो आया तथा सब ने निश्चय कर लिया कि निःसन्देह यही कारण है। (अस्तु) इतने शक्तिशाली होकर भी स्वयं बन्दी हो जाना और अपने घोर प्रयत्न द्वारा इनको अपरिमित शक्ति वाले बनाकर भी गुरुजी का ही इनको मुक्त कराने के लिए फिर प्रयत्न करने में बाध्य होना इनके वास्ते कम लज्जा की वार्ता नहीं थी अतएव लज्जा से नतशिर किये इनको बैठा ही रहना पड़ा। उधर गोरक्षनाथजी ने भी इस वृतान्त की घोषणा को श्रवण किया परन्तु उन्होंने सम्भवतः कालिका इस कृत्य से उत्साहित हो गई होगी इसलिये हमारे से भी कुछ संघर्ष करना चाहिये जिससे झगड़ा अन्त तक बढ़ जायेगा और एकत्रित जनसमूह को गहरे कष्ट का सामना करना पडे+गा। ठीक इसी उद्देश्य से तथा शिष्यों को अपने कृत्य का उचित फल भी तब तक ठीक मिल जायेगा। इस उद्देश्य से उस दिन मौनत्व का आश्रय लेकर मेला भंग होने वाले अग्रिम दिन की प्रतीज्ञा की। सहज-सहज कर दिनकर देवता अपनी डिवटी पूर्णकर अस्ता चल का अतिथि बना उधर रात्री देवी ने अपने शुभागमन की घोषणा की जो जैसे-तैसे कर यह भी प्रथानित हुई। मानों अपना बधना बोरिया बान्धकर अस्ताचल में ही जा घुसी। इधर फिर सूर्य का अगमन आरम्भ हुआ सहज-सहज प्रवृद्ध प्रकाश से प्रबोधित हुए लोग अपने-अपने कार्य में लवलीन हुए। यह देख गोरक्षनाथजी भी अपने आसन से ऊठकर कालिका मन्दिर के अभिमुख चले। कुछ क्षण के अनन्तर जब मन्दिर में पहुँचे। तब तो देवी ने आते देखकर निश्चय किया कि ठीय ये ही गोरक्षनाथ उन बन्दी योगियों के गुरु हैं। अतः प्रकट हो वह कहने लगी कि क्या आप लोगों को ज्ञात नहीं है बलिभेंट न प्रदान करने वाले को मन्दिर में प्रविष्ट होने की आज्ञा नहीं है और इसी नियम को उपेक्षित करने वाले कुछ योगियों को मैंने अपने यहाँ बन्दी कर रखा है। तुम आज और आज्ञा भंग कर बैठे। बोलो तुम को कया दण्ड दिया जाय। यह सुन गोरक्षनाथजी ने कहा कि देवी ! क्षमा कीजिये दण्ड तो यही बहुत है जो तुमने हमारे शिष्यों को बन्दी कर उनको लज्जित किया है जिससे हमको भी लज्जा हो सकती है। बस क्या था इतने श्रवण मात्र से कालिका सचमुच कालिका बन गई और अत्यन्त क्रुद्ध होकर कह उठी कि शिष्यों के द्वारा ही क्या लज्जित हुए हो खुद तुम्हारे ऊपर आपत्ति आनेवाली है, तैयार हो जाओ। यह कहने के साथ-साथ ही देवी ने उनके ऊपर खड्ग को प्रहृत किया। श्रीनाथजी ने देवी को सम्मुख आते देख प्रथम ही अपना शरीर वज्रवत् कठिन स्पर्श वाला बना लिया था अतएव उसका खड्ग प्रहार निष्फल रहा। इसके अनन्तर एक-एक उसने अपने हस्तगृहीत समस्त शस्त्रों को प्रहृत किया। परन्तु समग्र किम्प्रयोजन ही रहे। जिससे देवी कुछ शंकित और विस्मयान्वित हुई। ठीक इसी अवसर पर देवी को और भी साश्चर्य करने के लिये गोरक्षनाथजी ने उसको सम्बोधित कर कहा कि कुछ उठा न रखना जहाँ तक प्रयत्न कर सकती है करना। सब मनुष्यों को एक दृष्टि से देख उनके यथोचित सत्कारासत्कार का विचार न कर एक यष्टिका से आगे धरने का आज तुझे भी अवश्य फल मिलेगा। यह सुन गोरक्षनाथजी के कटु प्रत्युत्तर का फल देने के वास्ते देवी ने हस्तसंगृहीत शस्त्रों का आश्रय छोड़ कर मन्त्रात्मक अस्त्रों को आश्रित किया। उधर श्रीनाथजी भी ऐसे न थे जो देवी द्वारा प्रयोगित हुए अस्त्रों के संचालनात्मक तथा निरोधात्मक परिज्ञान से शून्य हों अतएव उन्होंने देवी के प्रथम प्रहृत आग्नेयास्त्र, मोहनास्त्र, कामास्त्रादि प्रत्येक अस्त्र को प्रशान्त कर दिया। जिससे उसको पराजित हो लज्जित होना पड़ा। तथा गोरक्षनाथजी से क्षमा करने की प्रार्थना करनी पड़ी। उन्होंने ठहरो क्षमा करते हैं, यह कह कर अपनी भस्म पेटिका में हस्त डालकर में हस्त डाला और उससे एक चुटकी भस्मी निकालकर देवी को लक्ष्य स्थान बनाते हुए उधर फैंक दिया। जिसके प्रभाव से देवी प्रमत्त होकर पुतली की तरह नृत्य करने लगी और अन्त में मूच्र्छित हो भूमि पर गिर पड़ी। यह देख गोरक्षनाथजी ने उसको शीघ्र ही सूचित कर दिया और कहा कि हमको जो फल देना था सो दिया गया कि और अवशिष्ट रहा है। यह सुनकर देवी ने लज्जा से नीचा सिर किये हुए श्री नाथजी से कहा कि महाराज ! बस अन्त हो गया अब क्षमा कीजिये इससे अधिक और आप क्या चाहते हैं। इसके बाद गोरक्षनाथजी ने कहा कि या तो अपने सब प्रकार के प्रयत्न द्वारा हम से वलि ग्रहण करो नहीं तो आज से नियम करो कि मैं किसी योगी से वलि के लिये निरोध नहीं करूँगी। यह सुन विवश हो देवी को गोरक्षनाथजी के कथनानुसार नियम करना पड़ा। परन्तु खेद है उस दीर्घकाल के अतीत होने पर जिव्हास्वादन के वशीभूत योगिबेषधारी ठगिया एवं प्रपंची लोग योगि सम्प्रदाय में प्रविष्ट हो स्वयं उस कृत्य के सम्पादन में तथा उसके प्रचार में लवलीन हो गये। (अस्तु) नियम के स्वीकृत होने पर गोरक्षनाथजी प्रसन्न हुए सहर्ष मुस्कराते हुए देवी से अपने प्रस्थानार्थ आज्ञा मांगने लगे। देवी ने सानन्द प्रणाम कर जाने की आज्ञा दी। जिससे अपने शिष्यों को साथ लेकर श्रीनाथजी अपने आसन पर जा विराजे।
इति श्री मद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ कालिका युद्ध वर्णन 

Monday, May 27, 2013

श्रीमद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ महोत्सव वर्णन

श्री गोरक्षनाथजी ब्रह्मागिरि से चलकर बहुत समय तक इधर-उधर भ्रमण करते हुए और योग का महत्त्व जानने की इच्छा वाले मनुष्यों को उस पद पर पहुँचाते हुए दक्षिण देशस्थ समुद्र तट के समीप वर्तमान कदरी (आधुनिक प्रसिद्धकजली) स्थान में पहुँचे। जहाँ सिंहलद्वीप से आते समय भी विश्रामित हुए। यह बड़ा ही ऐकान्तिक और रमणीय स्थल था जिसका मनोहारी दृश्य तथा जलवायु उनके चित्त को हर्षित करने वाला होकर उनके वहाँ निवास करने में सहायक हुआ। यह देख प्रसन्न हो उन्होंने उस स्थल को अपना आश्रय बना लिया। जिसमें दीर्घकाल तक निवास कर आपने अनेक शिष्य बनायें और उनको यथा अधिकारी निश्चित कर उसी क्रम से योग शिक्षा प्रदान करते हुए योगेेश्वर पद पर पहुँचा दिया। जिससे वे अपना ऐहलौकिक आगमन सफल जानकर उनकी विविध सेवा शुश्रुषा में तत्पर हुए। इस प्रकार पारस्परिक शिक्षा प्रदान तथा सेवा करते कराते सानन्द समय व्यतीत होने पर गोरक्षनाथ जी ने अपने शिष्यों को असम्प्रज्ञाताख्य समाधि का आनन्द अनुभवित करने के लिये उत्साहित किया। जिससे उन्होंने गुरुजी की कृपा वशात् कुछ ही दिनों में वहाँ तक निपुणता प्राप्त की कि जितने काल तक समाधि लगाने की इच्छा हो उतने काल तक लगा सके। यह देख गोरक्षनाथजी ने भी जब यह निश्चय कर लिया कि ठीक ये लोग इस कृत्य में उत्तीर्ण हो गये हैं तब तो उनके लिये आज्ञा प्रदान की कि द्वादश वर्षीय मर्यादा रख कर समाधिस्थ हो जाओ। गुरुजी की यह आज्ञा श्रवण करते ही समस्त शिष्य समाधि निष्ठ हुए जिनके शरीरों की रक्षा स्वयं श्री नाथजी करते थे। तदनु एक के अनन्तर दूसरा दूसरे के अनन्तर तीसरा इसी क्रम से सानन्द और विघ्न विहीनता के साथ द्वादश वर्ष व्यतीत हो गये। इस बहु लम्बे समय की समाधि में भी उत्तीर्ण देखकर गोरक्षनाथजी ने अपने शिष्यों के ऊपर आभ्यन्तरिक भाव से प्रसन्न हुए सोचने लगे कि ठीक हमने जैसा इनको उत्तम अधिकारी समझ कर तप कराने की उपेक्षा करते हुए एकदम अभ्यास वैराग्य द्वारा इस दशा में प्राप्त होने के लिये यत्न किया था ये वैसे ही निकले और क्रम प्राप्त प्रत्येक दशा में इन्होंने निपुणता प्रदर्शित की। ठीक ऐसी ही मनोधारणा के पश्चात् गुरुजी ने शिष्यों के शरीर को संस्कृत किया। जिससे निर्दिष्ट अवधि पर उन्होंने अपनी समाधि को उद्घाटित कर गुरूचरण रजको मस्तक पर धारण करते हुए नम्रता युक्त अनेक वन्दना की। साथ ही यह भी अभ्यर्थना की कि स्वामिन्! हमें कुछ आज्ञा प्रदान करो जिससे हम कुछ लोक हितार्थ कार्य संचालन कर अपने नाथनाम के अन्वर्थी हो सके। गोरक्षनाथजी स्वयं इस कृत्य को संचालित करने के लिये अवतरित हुए थे और अपने शिष्यों को अनेक कष्ट तथा प्रयत्न से इतने अधिक शक्तिशाली बनाने का भी उनका उद्देश्य यही था कि यह कुछ लोकहितार्थ कार्य संचालित कर अपने गम्य मार्ग को समीप करें। अतएव अत्यन्त प्रसन्नता के साथ निर्विकल्प हो उन्होंने आज्ञा दी कि अवश्य ऐसा विचार करना उचित और न्याय संगत है। क्यों कि मैंने इसीलिये तुमको मादृश बनाया है कि जिससे तुम हमारे उद्देश्य की पूर्ति कर सको और उसके साधनीभूत किसी भी क्रिया के निमित्त तुमको दूसरे का मुख न ताकना पड़े। अतः जाओ अभीलषित कार्य में कुशलता दिलाकर जनहितार्थ कृत्योत्पादन करते हुए उनके हृदय में वह भाव अंकुरित करो की जिससे वे लोग तुमको अपना हृदयनाथ समझे। ऐसा करने पर तुम अपने इस वेष धारण में धारण में कृत्य कार्य हो अनृण हो सको। यह सुनकर उनके हृदय में और भी अधिक उत्साह का प्रवाह प्रभावित हो गया। अतएव हसतसम्पुष्टी कर गुरुजी की पुनः-पुनः आदेश-आदेश शब्दपूर्वक साष्टांग प्रणाम करने पर उन्होंने वहाँ से गमन किया। तथा इतस्ततः अनेक देशों में भ्रमण करते हुए कितने ही पुरुषों को योग का तत्व समझाकर गुरु आज्ञा को सार्थक किया उधर गोरक्षनाथ जी अपने शिष्य को प्रेषित कर स्वयं दीर्घकाल के लिये समाधिनिष्ठ हो गये। उन्होंने विलशयनाथ नामक एक शिष्य को स्वकीय शरीर रक्षार्थ अपने समीप ही रख लिया था। उसने बड़ी सावधानी के साथ गुरुजी के शरीर की रक्षा करते हुए अपने शिष्यत्व का परिचय दिया। इस लम्बे चैथे समय के बीतने तक भारत वर्ष में योग विद्या प्रचार की सीमा पराकाष्ठों को पहुँच चुकी थी। ऐसा कोई देश अवशिष्ट न रह गया था कि जिसमें योग क्रियाओं के मुमुक्ष पुरुष न हो। यही कारण था प्रत्येक देशों में योगी लोग विश्रामित थे और योग दीक्षा ग्रहण करने वालों की प्रत्येक दिन परम्परा लगी रहती थी। यह दशा केवल भारतीयों की नहीं थी बल्कि इस धूम को श्रवण कर आलौकिक और अद््भूत शक्ति प्राप्त करने की अभिलाषा वाले विदेशी लोगों ने भी अपनी ग्रीवा उन्नत करते हुए भारत की ओर दृष्टि डाली और इतस्ततः भ्रमण करते हुए यथोपलब्ध योगी की विधि सेवा सत्कार कर उसे योग का मर्म जाना। इन महानुभाव में एक तुर्क भी प्रविष्ट था जिसने अग्रिम समय एक बार गोरक्षनाथजी से भी परामर्श किया था जिसका वर्णन आगे आवेगा। इसने भी योग में इतनी निपुर्णता प्राप्त की थी कि यह अपने शरीर को चिरकाल तक रख सका था। ठीक ऐसी ही दशा में गोरक्षनाथजी ने समाधि को खोला और अब तक जो महानुभाव योग दीक्षाकाङ्क्षी हुए यहाँ पर जमा हो रहे थे उनको अपनी कृपा का पात्र बनाकर उनके मनोरथ की सिद्धि की। इस कार्य की समाप्ति के अनन्तर उन्होंने स्वकीय हृदयागार में एक विलक्षण महोत्सव रचने का संकल्प किया। जिसमं प्रथम स्वगुरु मत्स्येन्द्रनाथजी की सम्मति लेना भी आवश्यकीय समझा गया। अतएव आपने प्रथम उनके आव्हानार्थ नाद बजाया जिकी मन्त्र संशोधित ध्वनि ने मत्स्येन्द्रनाथजी के श्रोत्रालय में पहुँचकर उनका ध्यान गोरक्षनाथजी की ओर आकर्षित किया। यह देख उन्होेंने शीघ्रता के साथ समझ लिया कि हमको परम प्रिय शिष्य गोरक्षनाथ ने स्मृत किया है। अतएव उन्होंने हमको शीघ्र चलना चाहिये न जानें किस आवश्यकीय काय्र के लिये बुलाया है, इत्यादि विचार करते हुए सूक्ष्म शरीर बनाकर वायुवेग द्वारा वहाँ से प्रस्थान किया। जो कतिपय क्षण में ही आप स्वकीय शिष्य के समीप पहुँचे। उधर से गुरुजी को अकस्मात् प्रकट होते देखकर गोरक्षनाथजी ने उन्हों की नाद पूजा करते हुए नमस्कारात्मक आदेश किया और उनके शीघ्र उनके शीघ्र उपस्थित होने के विषय में उनकी बार-बार स्तुति की। तदनु प्रसन्न हुए मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि शीघ्रतार्थनाद ध्वनि के द्वारा हमें आहूत करने का हेतु कौन विशेष कार्य है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गोरक्षनाथजी ने कहा कि स्वामिन्! यहाँ पर महोत्सव रचने की हमारी इच्छा है जिसमें हमने आपकी सम्मति लेना आवश्यकीय समझा इसीलिये आपको आहूत किया गया है अतः आप अपना अभिमत प्रकट करें। मत्स्येन्द्रनाथजी ने विर्विकल्पता से कहा कि तुम जो कार्य आरम्भ करो उसमें हमारी अभिमति की कोई प्रतीक्षा न किया करो क्योंकि तुम मेरे विश्वासपात्र शिष्य हो। अतः जिस किसी भी कार्य को आरम्भित करोगे वह सर्वथोचित और कर्तव्यतान्वित ही होगा। यह सुन गोरक्षनाथजी ने प्रार्थना की कि स्वामिन्! आपका ऐसा कहना निःसन्देह यथार्थ है तथापि हमारा आन्तरिक भाव इस बात के लिये बाध्य किया करता है कि प्रत्येक कृत्य में जहाँ तक सम्भव हो हम आपकी अभिमति से वंचित न रहें। शिष्य की इस उक्ति के समाप्त होते ही मत्स्येन्द्रनाथजी ने आज्ञा प्रदान कर दी किय यदि यही बात है तो हमारी भी अनुमति है किसी दृष्टमुहूर्त दिन को शीघ्र ही महोत्सव बना दिया जाए। गुरुजी की अनुमति मिलने पर गोरक्षनाथजी ने एक शुभमुहूर्तान्वित दिन स्मृतिगत कर उसी दिन अपने शीघ्रतार्थनादध्वनि द्वारा योगिसमाज को बुलाने का संकल्प किया। सहसा एक विचार उपस्थित हुआ, जिसके प्रकट करने के लिये उसने स्वगुरु तथा प्रगुरु से सनति अभ्यर्थना करते हुए आज्ञा मांगी। उन्होंने प्रसन्न मुख से उसको उत्साहित और धैर्यान्वित करते हुए अंकुरित मनोरथ प्रत्यक्ष करने को कहा। अतः उसने निशंक होकर बतलाया कि अग्रिम वर्ष जो गोदावरी गंगा स्नान का पर्व आने वाला है इस उपलक्ष्य पर बहुत जन समूह समूहित होगा। अतः ठीक यदि इसी अवसर पर अपना भी प्रस्ताव उपस्थित किया जाय तो अनायास ही अनेक जनसमुदाय हमारे उत्सव में सम्मिलित होने के लिये बाध्य होगा जिससे हमारा उत्सव महोत्सव उपाधि को धारण करने में समर्थ हो सकेगा, बस यही मेरा चिन्त्य अभिमत था आगे आपकी कृपा है स्वीकृति हो या न हो। यह सुनते ही गोरक्षनाथजी ओर दृष्टिपात करते हुए मत्स्येन्द्रनाथजी बोले कि वस्तुतः ऐसा ही होना चाहिये हमारी भी समझ में यही करना उचित है। क्योंकि ऐसा किये बिना हम अपने उत्सव के लिये उन्हीं योगियों को आहूत कर सकते हैं जो हमारे शीघ्र आव्हानार्थनाद ध्वनि के समझने की अभिसन्धित रखते हैं। परं इतनी ही व्यक्तियों द्वारा उत्सव महोत्सव पद वाच्य नहीं हो सकता है। अतः अवश्य प्रकृत प्रस्ताव का ही आश्रयण करना चाहिये। गुरूजी की अभिमति सूचक यह वाक्य श्रवण करते ही गोरक्षनाथजी ने अपनी सम्मति मिश्रित करने के लिये (तथास्तु) कहते हुए स्वशिष्य के प्रस्ताव को अंगीकृत किया और समय पर योग्य प्रस्ताव उपस्थिति के विषय मेंे उसकी प्रशंसा कर उसके प्रस्ताव स्वीकृतिविषयक सन्देह ग्रस्त चित्त को सन्देह शून्य किया। तदनन्तर सानन्द एक के बार दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा कर द्वादश मास व्यतीत हो चले। उधर गोदावरी कुम्भपर्व भी आरम्भ हो गया। इस उपलक्ष्य में मुमुक्षु जन उद्धारक बड़े-बड़े योगी तथा ऋषिमुनि विरक्त महात्मा लोग और मुमुक्षु प्रजाजन, जिन में राजा बाबू आदि प्रत्येक कोटि के मनुष्य थे, उपस्थित हुए थे। ठीक इसी अवसर पर योगेन्द्र गोरक्षनाथजी की आज्ञा मेले में प्रचारित की गई। इस समय कौन ऐसा देश था जिसमें निवास करने वाले लोग, गोरक्षनाथजी के नाम तथा उनकी लोकहितौषिता एवं अद्भुत शक्तिशालिता से परिचित न हों। किन्तु सभी देशीय पुरुषों ने उनके लोकहितार्थ अनुपम कृत्य का परिचय पा लिया था। अतएव उनकी सूचना के श्रवण मात्र से ही उनकी दिव्य मूर्ति का दर्शन करने और उनकी कृपा का पात्र बनने के लिये मेलास्थ अधिक जन समूह का चित्त उमडते-उमडते शरीर से बहिरभूत होने के लिये यत्न करने लगा। यह दशा देख पर्वस्नान की समाप्ति होते-होते प्रस्थानित जनसमूह की पंक्तिरूप परम्परा आरम्भ हुई जिसमें प्राथमिक पंक्तिगत योगी थे। जो काषाय रंगरंजित बडे+-बड़े पताकादि मंगलोपलक्षण चिन्ह रचना से सुशोभित थे। इस प्रकार योगि पृष्ठगामिनी पंक्ति में अनेक विरक्त और तदनुगामिनी में अनेक भक्ति वशिष्ट सेवक जन थे। ये लोग भी स्वकीय मांगल्य वस्तु जात से वंचित न थे। अतएव इस पंक्तित्रय की आधुनिक गमनकालिक विचित्र शोभा अद्वितीया थी। चित्ताकर्षक श्रोत्रपानीप्रय विविध बाध्य ध्वनि करता हुआ अनेक मार्गिक विश्रामानन्तर यह पंक्तित्रय कतिपय मास में गन्तव्यकजली स्थान में पहुँचा जहाँ सगुरू श्रीनाथजी विश्राम कर रहे थे। उधर गोरक्षनाथजी की दृष्टि अपरिमित जन समूह के ऊपर पतित हुई जिसको अवलोकित कर उन्होंने तदागमनोत्थ प्रसन्नता प्रकट करते हुए तदर्थ विविध भोज्य प्रबन्ध के लिये ऋद्धिसिद्धियों सहित कुबेर को आहूत करना अवश्यकीय जान अपनी भस्मपेटिका में हस्त डाला। जिससे कुछ भस्म उद्धृत की और मन्त्र जाप के अनन्तर कुबेर को लक्ष्य स्थान बनाकर उसे प्रक्षिप्त किया। तत्काल ही वह सेवार्थ उपस्थित हुआ और गोरक्षनाथजी को अपने आगमन से प्रसादित करता हुआ स्वाव्हान निमित्त से परिचित हुआ। यह देख श्रीनाथजी ने उसकी शीघ्रागमन विषयक प्रशंसा करते हुए उसको प्राप्त अवसर की प्रतीक्षा करने को कहा। जिसके लिये उसने (तथास्तु) शब्द का प्रयोग करते हुए अपने आपको तन्निर्दिष्ट समय से अवलम्बित किया। इधर स्वागतिक जनसमूह पंक्तित्रय की शीतल स्निग्ध सघनच्छाया वाले वृक्षों का आश्रय प्राप्त कर यथोचित रीति से स्थापित विविध पताकाओं की अनुपम विचित्र शोभा उपस्थित हुई। जिनके नीचे वैश्रामिक योगी सिद्धासन, भद्रासन, गोमुखासन, पùासनादि से आसीन हुए दर्शक जन संघ के आमोद-प्रमोद में शिथिलता उत्पादन करते हुए वैराग्यता का संचार कर रहे थे। गोरक्षनाथजी की कृपा से अनेक वर्षा होने से वह जंगल अधिक तरीमय हो गया था जिसका फल यह हुआ क वह वन अनेक प्रकार के सुगन्ध प्रद विचित्र पुष्पों से पुष्पित हो गया। अतएव इस पुष्पावली की मनोहारी गन्ध से प्रसन्न दर्शक लोगों का चित्त योगियों के दर्शन द्वारा पवित्र एवं सात्विक हुआ एकाग्रता को प्राप्त हो ध्यानमय हो जाता था। जिससे ध्यानावस्थित लोगों को यह भान नहीं होता था कि हम कौन और कहाँ है। फल यह हुआ कि इस अनुपम ध्यानानन्द ने कितने ही अनुकूलादृष्ट पुरुषों को सांसारिक स्वाप्नप्रीति से वियुक्त किया और अन्त में वे स्वोपरामता हेतु दृश्य योगियों की तुल्यता को प्राप्त हुए। इसी प्रकार विश्राम करने के अनन्तर दर्शन करते कराते कुछ देर में सायंकालिक भोजन का अवसर उपस्थित हुआ जिसमें श्रीनाथजी ने भोजन प्रदाता को, जो प्रथमतः ही इस अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था, प्रबोधित किया। तत्काल ही जिसकी जैसे भोजन में रूचि थी उस पुरुष के आगे वैसा ही भोजन परोसा गया। जिसको समस्त जनसमूह ने सहर्ष ग्रहण कर स्वकीय क्षुधा को प्रशान्त किया। परं जिस श्रेणी के लोग अभी तक गोरक्षनाथजी के महत्व तथा अपरिमित शक्तिशालिता से विशेष अभिज्ञ न थे वे इस घटना से अत्यन्त विस्मित हुए विविध प्रकार के संकल्प विकल्पात्मक प्रवाहित समुद्र में निमग्न हुए। उन्होंने सोचा था कि भोजन के लिये जो समाहि किया जा रहा है सम्भवतः कहीं भोजनालय में, जहाँ बनाकर अभी तैयार किया होगा, चलना पड़ेगा। परन्तु यह उनकी भूल निकली और उपरोक्त विचार करते समय ही अभिलषित भोजन आगे परोसा दिखाई दिया। साथ ही यह घोषणा भी श्रोतगत हुई कि सानन्द भोजन करो जैसी जिसकी अभिलाषा हो (अस्तु) इसी प्रकार अनेक विचारगत हुए लोगों ने भोजन की निवृत्ति प्राप्त की और वे आभ्यन्तरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार से गोरक्षनाथजी को हार्दिक नमनकर मार्ग गमन श्रान्ति विवशात् निद्रालय बन गये। यह दशा केवल उन अधिक लोगों की थी जो महोत्सव कुतूहल लालायित हुए मार्ग से संघ में मिश्रित हो गये थे। न कि गोरक्षनाथ के कृपापात्रों की जो इस महोत्सव से अलभ्य वस्तु की प्राप्ति के ही लिये आगन्तुक बने थे और प्रत्येक क्षण उनकी विशेष कृपा के चिन्ह में वद्ध दृष्टि रहते थे। क्योंकि इन विश्वासी महानुभावों की धारणा थी कि प्रत्येक मनुष्य की दशा श्रीनाथजी विमलहृदय में प्रतिबिम्बित है। अर्थात् वे सब की श्रद्धा और सचेचता के साक्षी हैं। अतः उदर सम्पूरित कर पशुवत् श्वास प्रश्वास से शरीर को लूहारभ्रस्ति का बना डालना उचित नहीं है। इसीलिये वे लोग निद्रालय बनने से वंचित रहे थे। (अस्तु) रात्री देवी ने अपने प्रस्थान की सूचना दी प्रातःकाल हुआ योगी लोग अपने प्रातःकालिक नित्य कृत्य से निवृत्त हुए एवं अन्य लोग भी स्वकीय कर्म समाप्ति के पश्चात् गोरक्षनाथजी की नूतन आज्ञा की प्रतीक्षा में दत्त चित्त हुए। तदनु कुछ ही क्षणों के अनन्तर आज्ञा घोषित हुई कि आज समीपस्थ समुद्र में कुछ योग शक्ति का चमत्कार दिखलाया जायेगा अतः दर्शक जन समुदाय इसके लिये सावधान रहे। साथ ही यह भी सूचित कर दिया कि यह दिग्दर्शन मध्यान्ह समय होगा। इस आज्ञा का प्रचार करते कराते दैनिक भोजन समय उपस्थित हुआ जिसमें जन समुदाय को रात्रेय वृत्तवत् तृप्त किया गया। कुछ देर के पश्चात् घोषित आज्ञा का समय आ पहुँचा जिससे समस्त जन समूह समुद्र के कूल पर स्थित हो चमत्कार की प्रतिपालना करने लगा। ठीक इसी अवसर पर मत्स्येन्द्रनाथजी, गोरक्षनाथजी तथा ज्वालेन्द्रनाथजी आये और जन समूह के मध्य सज्जीकृत एक उच्च स्थल पर विराजमान हो गये। बैठने के कुछ क्षण बाद मत्स्येन्द्रनाथजी ने अपने गुरुभाई ज्वालेन्द्रनाथजी की ओर इशारा किया जो जल क्रियात्मक चमत्कार दिखलाने का था। उन्होंने शीघ्र इशारे का मर्म जाना और खड़े हो गुरुभाई मत्स्येन्द्रनाथजी से आज्ञा मांगी। तत्काल आज्ञा प्रदानित हुई ज्वालेन्द्रनाथजी समुद्र की ओर अग्रसर हुए और पृथिवी स्थल की तरह सहस्र पदक्रम पर्यन्त जल के ऊपर चलकर वापिस लौट आये। इस चमत्कार के अनन्तर वे पुनः समुद्र में प्रविष्ट हुए जिनके समीप जाते ही जल इधर-उधर हो गया जिससे वे नगर गली की तरह फिर सहस्र पदक्रम अग्रसर हो सके और पुनःवापिस लौटे। जिनके पीछे-पीछे जल समरस होता हुआ दीख पड़ता था। इस चमत्कार के पश्चात् वे समुद्र तट पर खड़े हुए उन्होंने अपने तेज से समुद्र को सहस्र कदम दूर हटा दिया तथा फिर प्रवृद्ध कर अपने तक पहुँचाया। तदनन्तर जल में स्वकीय कुटीवत् प्रवेश कर ध्यानावस्थित हो गये जो एक प्रहर पर्यन्त स्थित रहे जिनके शरीर को जलने स्पर्शित नहीं किया था। इतना चमत्कार दिखलाकर ज्वालेन्द्रनाथजी अपने गुरुभाई मत्स्येन्द्रनाथजी की बराबर आ बैठे। तदनन्तर बड़े आनन्द और उत्साह के साथ कुछ क्षण में गोरक्षनाथजी ने अपनी आज्ञा घोषित की कि उपस्थित महानुभावो! अपने-अपने आसनों पर जाकर आराम करो कल फिर आज वाले समय पर प्रदर्शनी के लिये उत्कण्ठित रहना होगा। इस आज्ञा के श्रवण होते ही समस्त लोग स्वकीय विश्राम स्थल में जा बिराजे। तदनु सायंकाल हुआ जिसमें समग्र लोग स्वकीय सायंकालिक कृत्य से निवृत्त हुए। इसके पश्चात् भोजन प्रदाता की कृपा हुई जिससे दैनिक क्षुधा शान्तकर लोग रात्री अतिक्रमित करने का प्रयत्न करने लगे। रात्री भी प्रस्थानित हो गई प्रातःकालिक क्रिया से विमुक्त हो लोग कुछ क्षण आसनासीन हुए ही थे इतने में फिर भोजन की सावधानी रखने वाली घोषणा प्रचारित हुई। भोजन भी परोसा गया जिसको ससत्कार ग्रहण कर लोग निर्दिष्ट समय की प्रतिपालना में समाहित चित्त हुए। वह समय भी समीप आ पहुँचा। ठीक इसी समय सम्मार्जित एक-दूसरे स्थल पर प्रस्थानित होने की ओर आज्ञा सुनाई गई। जिसके श्रवण करते ही लोग सूचित जगह पर जाकर विराजमान हुए जहाँ कुछ क्षण के अनन्तर उक्त तीनोें महानुभावों ने आकर सम्मानित आसन को सुशोभित किया और कुछ क्षण के बीतने पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने गोरक्षनाथजी की ओर दृष्टिपात की जिसका पूवोक्त तात्पर्यथा। गोरक्षनाथजी खड़े हुए और उन्होंने प्रजा को सम्बोधित किया कि समस्त लोग हमारी तरफ दृष्टि रखे। यह सूचना देते ही समग्र जनसमूह उनकी ओर बद्ध दृष्टि हुआ। जिसके देखते-देखते गोरक्षनाथजी ने अपना शरीर क्रमशः मशक (मच्छर) की तरह सूक्ष्म बना डाला। जिससे वे आकाश में गमन कर गये और जन समूह की दृष्टि के अगोचर हो गये। पश्चात् फिर नीचे आये और पूर्वीय स्थूल शरीर में परिणत हुए। तदनन्तर आपने अपने प्रवृद्ध तेज द्वारा स्वीय शरीर को अग्नि की तरह जलाया और उसको फिर तद्धत् किया। इसके बाद आप मृतक मनुष्य, जो प्रथमतः ही मंगा रखा था, उसके देह में प्रवेश कर स्वकीय शरीर को मृतकवत् चेतनता शून्य दर्शाकर फिर अपने शरीर में प्रविष्ट हुए। तदनु आपने उस मृतक मनुष्य के शरीर का छेदन कर खण्डशः किया और फिर उसके खण्ड एकत्रित कर संजीवनी विद्या द्वारा उसको सजीव बनाया। इन चमत्कारों के पश्चात् जनप्राकार के अन्तर्गत रक्षित विस्तृत चैक में छोटी सी नई सृष्टि करी जिससे आंगण में छोटे-छोटे स्थान तैयार हुए। जिनमें तदनुकूल अनेक स्त्री-पुरुष निवास कर रहे थे। दर्शकों के अच्छी प्रकार देखने पर इस कृत्रिम माया को अपहृत कर गोरक्षनाथजी ने उस मन्त्र का अवलम्बन किया जिसके प्रभाव से पृथिवीमाता ने अपने मुख को प्रसारित किया। जिसमें श्रीनाथजी प्रवेश करते ही फिर पृथिवी पूर्ववत् सन्तल हो गई और श्रीनाथजी कुछ दूरी पर जाकर पृथिवी देवी के मार्ग प्रदान करने से बहिर निकले और गुरुजी के समीप आकर बैठ गये। यह देख दोनों गुरुभाइयों ने सत्कार सूचक वाक्यों द्वारा गोरक्षनाथजी की प्रशंसा की और आज के प्रशंसनीय प्रदर्शन को विसर्जित करते हुए फिर इसी स्थान में इसी समय पर स्वागतिक होने का जनता को परामर्श दिया। तदनु अत्यन्त आनन्द और मंगल के साथ पूर्वोक्त रीति से फिर वह समय उपस्थित हुआ जिसमें समस्त लोग प्रथमतः ही उत्कण्ठाबद्ध थे। अतः सभी उक्त जगह पर जाकर उक्त तीनों योगेन्द्रों के आगमन की प्रतिपालना में अवधानित हुए। ठीक इसी अवसर पर मूर्तित्रय की कृपा हुई और जनता सत्कारित आसनासीन होने के अनन्तर कुछ क्षण में मत्स्येन्द्रनाथजी खडे+ हुए। जिन्होंने प्राथमिक वार्षिकास्त्र, आग्रेयास्त्र, वातास्त्रादि के महत्त्व का दिग्दर्शन कराते हुए उस मन्त्रात्मक अस्त्र का महत्त्व प्रदर्शित किया जिसके वशीभूत हुए इन्द्रादि देवता भी विक्रमवीर की तरह उपस्थित हो योगी से सेवार्थ आज्ञा की भिक्षा मांगने लगते हैं। तदनन्तर सूर्य के प्रकाश को मन्द करणादि अनेक विलक्षण चरित्र दिखला कर आपने अपना प्रदर्शन समाप्त किया और स्वीय आसन पर आकर आप विराजमान हुए इसके पश्चात् गोरक्षनाथजी खडे+ हुए और उन्होंने लोगों को सम्बोधित कर उच्चारित होने वाले वाक्यों में ध्यान देने को कहा जिससे लोग तद्वत् हुए और गोरक्षनाथजी ने अपना वक्तव्य उपथित किया कि महानुभावो ! हमारी सूचना पर श्रद्धा रखते हुए आप लोगों ने जो यहाँ आकर हमारी आज्ञा की पालना की है इसके लिये आप लोगों को हमारा आन्तरिक हृदय असंख्य धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता है। परन्तु सम्भावना है आप लोगों में या इस वृत्तान्त को श्रवण करने वाले अन्यत्रस्थित कतिपय लोग ऐसे अवश्य निकलेंगे जो हमारे इस कृत्य को नाट्य अथवा बाजीगर का तमाशा समझ कर हमको उसके दिखलाने वालोें की उपाधि से भूषित करेंगे। तथापि ऐसा समझ कर बैठ जाने वालों को स्मरण रखना चाहिये कि उक्त तमाशा दिखलाने वालों को प्रजा के कुछ द्रव्य ग्रहण करने की अभिलाषा रहती है। इसीलिये उनके तमासे का आरम्भ है, किन्तु हमारा तमाशा न तो उन जैसा तमाशा है और न हम उन जैसे तमाशगीर हैं तथा न कोई हमको उनकी तरह आप लोगों से आदान करने की ही इच्छा है। केवल इसी हेतु से हमने इस महोत्सव का आरम्भ कर दृष्ट चरित्रों को प्रदर्शित किया है कि संसार में अधिक मनुष्य ऐसे हैं जो अपने आपको पुरुषार्थ शून्यतापूर्वक आलस्योपहत हुए अकर्मण्यता और पौरहीनता सूचित करते हुए एक क्षुद्र प्राणी के तुल्य समझ बैठते हैं। जो विशेष शक्तिसूचक किसी भी विषय की बात सुनकर चैंक उठा करते हैं और उस बात में अपनी अश्रद्धा सूचित कर नासिका संकुचित करते हुए बिना ही कुछ विचार किये मुख से कह डालते हैं कि अजी कहीं ऐसा हुआ करता है ये सब मनघडन्त वार्ता हैं। कोई ऐसा कुछ करने वाला है तो आओ हमारे सम्मुख कर दिखलाओ, इत्यादि। महानुभावों ! हमारा अभिप्राय ऐसे ही विषयग्रस्त श्रद्धाहीन आलसी, अपने आपको क्षुद्र मानने वाले पुरुषों को, सचेत करने का है। अतः उन लोगों को चेतना चाहिये वस्तुतः जैसा तुम अपने को समझ रहे हो वैसी बात नहीं है। देखो यदि तुम्हारे दो नैत्र हैं तो, अपनी कल्पना को मिथ्या मानों और हमारे तमाशे से शिक्षा ग्रहण करो। तथा कुछ पुरुषार्थी बनो योग का महत्त्व समझने में किश्चित भी आलस्य अपने अन्दर न घुसने दो और अन्वेषणा कर देखो इस शरीर में कैसी-कैसी शक्तियाँ छिपी हुई हैं जिन द्वारा तुम जैसे बनना चाहो बन सकते हो फिर देखोगे तुम्हारी वह कपोल कल्पना यथार्थ थी वा मिथ्या थी। गोरक्षनाथजी इत्यादि वाक्यों द्वारा जिस समय अपने महोत्सव का लोगों को मुख्योद्देश समझा रहे थे उस समय मत्स्येन्द्रनाथजी के एक विचार स्मृतिगत हुआ। वह यह था कि उन्होंने सोचा हमारे शिष्य गोरक्षनाथ ने जो गुरुभक्ति का विशेष परिचय देकर हमको यह वर प्रदान करने के लिये बाध्य किया है कि, तुम सम्प्रदाय के प्रवत्र्तक अर्थात् मुख्याचार्य मानें जाओगे, इस रहस्य के प्रकट करने का आज अच्छा अवसर है। अतएव वक्तव्य समाप्त कर गोरक्षनाथजी के आसनासीन होने पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने इस विषय की आज्ञा समस्त जन समुदाय में प्रचारित की। जो शीघ्र स्वीकृत हुई और विविध मांगल्य उपकरण मंगाये गये जिनसे अभिषिक्त कर गोरक्षनाथजी को उस उपाधि से सुशोभित किया गया और साथ ही उनको जगद्गुरु भी स्वीकृत किया गया। यही कारण है दीर्घकाल अतिक्रमित होने से किसी कारण द्वारा योगि सम्प्रदाय की ऐसी शिथिल अवस्था होने पर भी इस स्थान के सिंहासनासीन महन्त को इस देश निवासी लोग आज भी जगद्गुरु शब्द से सत्कृत करते हुए उस अतीत शुभ महोत्सव को स्मृतिगत किया करते हैं। (अस्तु) पूर्वोक्त कृत्य के अनन्तर महोत्सव समाप्ति की सूचना प्रचारित कर लोगों को अभीष्ट स्थान में जाने का परामर्श दिया गया। जिससे महोत्सव भंग कर जन समुदाय वहाँ से प्रस्थानित हुआ। ठीक इसी समय से प्रत्यक्षता प्राप्त कर गोरक्षनाथजी इस सम्प्रदाय के मुख्य विधाता एवं शिरोमणि समझे गये। जिनकी आज तक तद्वत् ख्याति है।
इति श्रीमद्योगेन्द्र गोरक्षनाथ महोत्सव वर्णन 

Friday, May 24, 2013

श्रीमीननाथ वर प्रदान वर्णन

श्री मत्स्येन्द्रनाथजी अपने प्राणप्रिय शिष्य गोरक्षनाथजी के उपरोक्त प्रयत्न को देखकर आभ्यन्तरिक भाव से अत्यन्त प्रसन्न होते हुए उनक बार-बार प्रशंसा की और अतीव प्रेमावृत्त हुए आप उनके उत्साह वृद्धि के लिये उनको अपने वक्षःस्थल से संयोगित कर दत्तात्रेयजी की ओर इशारा कर कहने लगे कि महराज! क्या आप देखते हैं गुरुभक्ति विषय में प्राथमिक स्थान हमारे शिष्य इस गोरक्षनाथ ने ही प्राप्त किया है। उनके वाक्य का समर्थन करते हुए दत्तात्रेयजी ने कहा कि क्यां नहीं जब आपने इनकी शिक्षा तथ अलौकिक शक्ति प्राप्त कराने के लिये स्वार्थ निमित्त कुछ भी उठा न रखा तब तो इनका इतना शक्तिशाली और गुरुभक्त होना स्वाभाविक ही था। क्या आप नहीं समझते हैं कि आत्मा का आत्मा साक्षी है और वह आत्मा समस्त देहों में समरस होने से सबके हिताहित हो समझता है। अतएव आपने जो हित इनके लिये प्रयुक्त किया उसका अनुपम फल आपको उपलब्ध हुआ है। इस असार संसार में आप जैसे गुरु और इन जैसे शिष्यों का अनुकरण करने वाले गुरु शिष्य ही अपने सानन्द निष्कलंक जीवन को पूर्ण कर भावी जनों के आदर्शरूप हुए संसार में अपनी अक्षुण्ण स्वच्छ कीर्ति का विस्तार करने के लिये समर्थ हो सकते हैं। परन्तु खेद और महा खेद है महाराज! ऐसा समय आने वाला है जिसमें इस मर्म को नहीं समझा जायेगा। अर्थात् जिस जम्न मरणात्मक असह्य दुःख का छेदन करने वाली क्रियाओं के प्रभाव से आप लोगों ने संसार में नाना प्रकार की अद्भुत लीला दिखलाई हैं प्रथम तो इन क्रियाओं के ज्ञाता योगी कम मिलेंगे और जो मिलें भीगे तो वे ऐसे होंगे कि आनुपूर्बिक विद्या को नहीं बतलायेंगे। क्योंकि उनके चित्त में इस प्रकार के भाव अंकुरित हुआ करेंगे कि सम्भवतः शिष्य के मादृश होने पर हमारी प्रतिष्ठा रसातल में चली जायेगी। अतएव क्रमाविहीन विद्या निष्फल हुआ करेगी विद्या निष्फल होने से शिष्य की गुरु के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न होनी स्वाभाविक है। इस प्रकार इन अलभ्य वस्तुरूप क्रियाओं का कुछ ही दिन मेंं हास हो जायेगा। ऐसी दशा में होने वाले योगी योगक्रिया शून्य रहते हुए सांसारिक लोगों को थोथी वार्ताओं से तर्जना दिया करेंगे और भूलाभटका कोई सांसारिक मनुष्य योगक्रिया का मुमुक्षु हुआ तच्छिज्ञार्थ उनके समीप आकर शिष्य बनने की इच्छा प्रकट किया करेगा तो उसको शिष्य करने की तो वे अवश्य शीघ्रता करेंगे परन्तु योगक्रिया की शिक्षा विचारों ने स्वयं ली हो तो उसको दें। अतः इधर उधर की वार्ताओं से उसकी उदर पूर्ति कर मुफ्त सेवा कराते हुए द्वादश वर्ष में फावड़ी का नाम गुलसफा बतला कर इसी क्रम से उतने ही वर्ष बाद फिर किसी वस्तु का दूसरा नाम बतलाया करेंगे। इतने अरसे तक निष्फल सेवा कराके, अथवा करके गुरु वा शिष्य एक तो अवश्य ऐहलौकिक यात्रा समाप्त कर बैठेगा। इस प्रकार योगी के लिये जो मृत्यु प्राप्त होना ही एक लोकनिन्दा और लज्जा की बात है वही मृत्यु योगियों को अपना भोज्यस्थान बनावेगा जिससे उनका मरणा संसार में ऐसा समझा जायेगा जैसा अधमजीव कुत्ते बिडालादि का। मत्स्येन्द्रनाथजी ने आपकी वार्ता को अवश्यम्भावी बतलाते हुए कहा कि यह सत्य है ईश्वरीय नियमानुकूल परिवत्र्तित होने वाले काल के विचित्र चक्र को कोई अवरूद्ध नहीं कर सकता है। संसार और सांसारिक कृत्य की श्रावणिक मेघों जैसी गति है। जिस प्रकार वायुवेग वशात् श्रावण मासस्थ अभ्र स्थिर नहीं रहते हैं। किसी भी वद्दल की ओर आप दृष्टि डालिये वह क्षण-क्षण में कुछ का कुछ बन जाता है ठीक यही प्रकार इधर घटा लीजिये कालचक्र वेगवश से प्रचलित एवं अन्तर्धानी क्रियाओं का लुप्त तथा प्रकट होना अनेक बार देखा गया और देखा जायेगा। इत्यादि पारस्परिक वार्तालाप के अनन्तर गोरक्षनाथजी ने गुरुजी से अनुरोध किया कि अब यहाँ से प्रस्थान करना चाहिये। यह सुनकर मत्स्येन्द्रनाथजी ने दत्तात्रेयजी से प्रस्थान के लिये आज्ञा मांगी। उन्होंने सहर्ष आज्ञा प्रदान की जिससे पारस्परिक आदेशात्मक नमस्कार के पश्चात् वे तीनों महानुभाव वहाँ से प्रस्थानित हुए सुदामापुरी की ओर चले। जो कुछ दिन में देशाटन करते एवं जनों को योगोपदेश हुए माधोपुर नामक नगर की सीमा पर पहुँचे यह नगर समुद्र के समीप वर्तमान होने से अधिक उपजाऊ भूमिवाला नहीं था। अतएव इसके आस-पास असंख्य खोले खण्डरों से व्याप्त जंगल दीख पड़ता था ठीक इसी वन मेंं कुछ दिन निवास करने का निश्चय कर वहीं विश्रामित हुए उन्होंने एक गुहा तैयार की। जिसमेंं मत्स्येन्द्रनाथजी द्वादश वर्ष के लिये फिर समाधिस्थ हुए और गोरक्षनाथजी को आज्ञा दे गये कि जब तक हम समाधि का उद्घाटन करें तब तक मीनराम को समस्त क्रियाओं का दिग्दर्शन करा देना जिससे फिर हमको अधिक प्रयत्न न करना पड़े। गोरक्षनाथजी ने गुरुजी क इस आज्ञा को शिर झुकाकर स्वीकृत किया। यही नहीं उस अवधि तक मीनराम को अखिल योग साधनीभूत क्रियाओं का ज्ञाता बना डाला। जिससे कि वह अवसर प्राप्ति के समय सम्प्रज्ञात योगद्वारा असम्प्रज्ञात योग में अनायास से ही प्रविष्ट हो सकै। पदनु सानन्द और विघ्न शून्यता के साथ यह समय अतीत होने पर गुरूजी को जागृत दशा में होने वाले समझ कर गोरक्षनाथजी ने उनके शरीर को संस्कृत किया। ठीक निर्दिष्ट समय पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने समाधि का उद्घाटन करते हुए तथा अपने निरपाय कार्य की समाप्ति विषयक ईश्वर को धन्यवाद देते हुए उनका हर्ष बढ़ाया और मीनराम के विषय में वार्तालाप कर उसकी क्रिया ग्रहणता विषयक तीव्रता पूछी। गोरक्षनाथजी ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि स्वामिन्! व्युत्थानित चित्त पुरुष को क्रिया ग्रहणता में अवश्य कठिनता और विलम्बता प्राप्त होती है परं समाहित चित्त अर्थात् उत्तम अधिकारी पुरूष को उक्त दोनों विलम्बता प्राप्त होती है परं समाहित चित्त अर्थात् उत्तम अधिकारी पुरुष को उक्त दोनों वार्ताओं का सामना नहीं करना पड़ता है। यही कारण है इसने कुछ ही दिनों में औत्तमाधिकारिण क्रियाओं का मर्म समझ लिया है। जिससे इसका अग्रिम मार्ग सुगम हो गया। यह श्रवण करते ही मत्स्येन्द्रनाथजी आन्तरिक रीति से अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने उसी जगह पर मीनराम को स्वकीय चिन्हान्वित कर मीननाथ नाम से प्रसिद्ध किया। जिससे वह मत्स्येन्द्रनाथजी के अधीनस्थ विविध साबरादि विद्याओं आदानार्थ अधिकारी हो सका। अतएव मत्स्येन्द्रनाथजी ने जैसा उचित समझा उसी प्रकार उसे स्वाधिकृत नाना विद्याओं से समलंकत किया और समस्त देवताओं की तुष्टि के लिये उससे एक अनुष्ठान कराने की इच्छा से तत्कृत्य के अनुकूल स्थान की अन्वेषणार्थ वे वहाँ से प्रस्थानित हुए। जो कुछ दिनों में स्वीय अघटित वत् घटनाओं से जनों को विरामी तथा विस्मयी बनाते हुए, रिनग्धश्यामवनवृक्षलतापंक्तियों से व्याप्त, तथा विविधविमल जल स्त्रोत सम्पूरित कन्दरा वाला होने से, अनेक कमलतालावलम्बीहंससार समान सरोवर गृही विचित्ररचित चित्रानुषंगी श्रोत्रसुखप्रदमधुरध्वनि करते हुए नानापक्षिवृन्दों से सुशोभित, ब्रह्मगिरि नामक पर्वत में पहुँचे। जिसका अवलोकन करते ही मत्स्येन्द्रनाथजी ने गोरक्षनाथजी की ओर इशारा करते हुए कहा कि बस मेरी समझ में हमारे कार्य की सिद्धि के अनुकूल यही स्थान उपयोगी है। गोरक्षनाथजी ने गुरुजी के वचन का शीघ्र समर्थन करते हुए उत्तर प्रदान किया कि हां स्वामिन्! यह स्थान सर्वोत्कृष्ट एवं समस्त क्रिया निर्वाहनोपयोगी है। आपकी अभिलाषा इसी जगह पर ठहरने की है तो ठहर सकते हैं कोई वाधा की बात नहीं। इस प्रकार मिश्रिताभिभूत  होकर उन्होंने स्वनिवासार्थ एकसमतलस्थल अन्वेषित किया जिसको निजकार्योपकारक तथा अन्तराय शून्य देखकर अधिष्ठित बनातें हुए अपने कर्तव्य कृत्य का आरम्भ किया। अर्थात् यहाँ द्वादश वर्ष के लिये गुरुजी की रेख देख में शरीर को छोड़कर गोरक्षनाथजी स्वयं समाधि निष्ठ हुए। उधर मत्स्येन्द्रनाथजी ने मीननाथ को सर्वदेवताओं के प्रसन्नार्थ प्रथम एक साप्ताहिक अनुष्ठान नियुक्त कर तदनन्तर द्वादश वर्षीय महाकठिन तप करने में नियोजित किया। जिसकी तदवस्थोपयोगिनी सेवा शुश्रुषा मत्स्येन्द्रनाथजी स्वयं करते थे। अतएव वह कुछ ही दिनों में तदर्थ कठन अभ्यास से अभ्यस्त हो गया और उसने ऐसा घोर तप किया जिससे उसका शरीर महाप्रभावशाली तथा दिव्य कान्ति वाला दीख पड़ने लगा। बडे+ ही सुख और व्यवधान विहीनतोत्थ मानसिक अपरिमित हर्षता के साहित उसका यह समय व्यतीत बीत गया। प्रथम गोरक्षनाथजी ने समाधि दशास्थ अनिर्वचनीय आनन्दात्मक निद्रा देवी की गोद से अपने आपको विमुक्त कर जागृत दशास्थ प्राकृतिक विविध चित्र-विचित्र रंगरंजित, वायु वेग वशात् इधर-उधर एवं ऊपर-नीचे लहराते हुए पर्वतीय वृक्षलता पूंज को देखा। जो अनेक प्रकार के प्रफुल्लित फूलों से सनाथ हो रहा था। तद्नु गोरक्षनाथजी के अनुरोधानुसार मीननाथ को उस महाकठिनतोपहित द्वादश वर्षीयकालावच्छिन्न तपश्चर्यावस्था से विमुक्ति गत करने के लिये मत्स्येन्द्रनाथजी ने एक अत्युत्तम मुहूर्तान्वित दिवस स्मृति गोचर किया और उस तपोपलब्ध पवित्र नक्षत्रतावच्छिन्न शुभ दिन के प्राप्त होने पर मीननाथ को तप से विमुक्त भी कर दिया, जिससे मीननाथ अतीवानन्दित एवं प्रसन्नचित्त हो अपने आपको धन्य समझता हुआ अपने आपको धन्य समझता हुआ अपने पूर्वजन्म कृत कर्म के शुभ होने का अनुमान कर स्वविषयक मत्स्येन्द्रनाथजी की आन्तरिक अत्यन्त हितैषिता से उपकृत होकर अतीव नम्रभाव से उनमें श्रद्धा उत्पन्न करता हुआ उनकी स्तुति करने लगा। इसीलिये मत्स्येन्द्रनाथजी ने और भी अधिक प्रसन्न हो उसके निमित्त किये जाने वाले अपने प्रयत्न को सार्थक समझा और उसको समस्त देवताओं से वर प्रदान कराने के वास्ते गोरक्षनाथजी से परामर्श किया। उन्होंने प्रस्ताव को योग्य प्रतिपादित करते हुए मीननाथ को इस कृत्य का अधिकारी बतलाया। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी प्रसन्न हुए और अपनी कक्षान्तर्गत पेटिका से विभूति निकालने को बाध्य हुए। जिसके प्रक्षिप्त करने पर तल्लक्ष्यस्थानिभूत विविध विमानारूढ़ देवी-देवता आने लगे। प्रथम गणों सहित सकुटुम्ब त्रैलोक्याधिपति महादेवजी स्वागताभिमुख हुए। तदनु ब्रह्मा तथा विष्णुजी ने कृपा की जिनके आगमन की सूचना से सूचित हो अत्यन्त शीघ्रता के साथ अनेक देवता पधारे। गायनविद्या में कुशल गान्धर्वसंघ बुलाया गया जो इन्द्रजी के साथ ही आया था। उधर ऋद्धिसिद्धियों को साथ लाने के लिये कुबेर को आहूत किया गया इधर मंगलार्थ चैसठ योगिनियों ने आकर मत्स्येन्द्रनाथजी की वन्दना की। इतने ही में बावन भैरभ, अष्टबसु, वरुण, तारागण, नक्षत्र, वायु, सत्पऋषि, सभी आ पहुँचे। जिससे ब्रह्मगिरि अत्यन्त शोभायमान हुआ वैकुण्ठ की इष्र्या करने लगा। जहाँ गन्र्धवगण अपने विचित्र गायन और बाद्यध्वनि द्वारा देवसमूह का आनन्द-प्रमोद प्रवृद्ध करता हुआ पर्वत को गूंजारित कर रहा था। वहाँ उधर से योगिनियों का चित्ताकर्षक श्रोतपान प्रिय स्निग्धस्वरगीयमान तथा रक्ताधरोपर्योष्ठचांचल्य मन्दतोपहित मंगलमय शब्द ध्वनि उसकी सहायता में नियत थी और ऋद्धिसिद्धियों के प्रताप से जो महानुभाव जैसे भोज्य पदार्थ की अभिलाषा करता था वही उसी को प्राप्त होता था। ऐसा आनन्दोत्सव बहुत समय से नहीं हुआ था। यह केवल मत्स्येन्द्रनाथजी के प्राणाधिक प्रिय कुमार एवं शिष्य मीननाथ के अत्युच्च भाग्य का अथवा मत्स्येन्द्रनाथजी की आपरिमित प्रियता का नमूना था (धन्य ऐसी गुरुप्रियता को, जिससे शिष्य इस कोटि में पहुँच सके। (अस्तु) उक्त महोत्सव के समाप्ति समय मत्स्येन्द्रनाथजी ने समस्त देवताओं से निवेदन किया कि हमने अपने शिष्य इस मीननाथ द्वारा आप लोगों की तुष्टि के लिये प्रथम एक साप्ताहिक अनुष्ठान और तदनन्तर द्वादश वर्षकालिक, महाकठिनतोपहित, तप कराया है जिसमें सकुशलता उत्तीर्ण हो यह आप लोगों के अमूल्य वर प्रदान का पात्र हो गया है। इसीलिये हमने इस महोत्सव का आरम्भ कर आप लोगों को आहूत किया है यह वृत्तान्त आप महानुभावों से अज्ञात नहीं है। अतएव आप लोग इसे वचन दें कि हम यथावसर प्राप्त होने पर तथा कालिक सहायता के लिये प्रस्तुत रहेंगे। यह सुन मीननाथ को अधिकारी निश्चित कर समस्त देवता (तथास्तु) कहते हुए स्वकीय-स्वकीय स्थानों को गये। उधर इस कार्यसिद्धि विषयक प्रसन्नता प्रकट कर इन तीनों महानुभावों ने भी, जन्म मरणात्मक संसाररूपाग्नि से दग्धदेह विविधोपायनपाणि हुए, तद्दाहशमनार्थ जलात्मक समझ कर स्वकीय सेवा में उपस्थित होने वाले, मुमुक्षु जनों के उद्धारार्थ पृथक्-पृथक होकर वहाँ से देशाटन के लिये प्रस्थान किया।
इति श्रीमीननाथ वर प्रदान वर्णन ।