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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Tuesday, April 23, 2013

श्री मत्स्येन्द्रनाथ उत्पत्ति वर्णन

बदरिकाश्रम में आने के अनन्तर नवों भ्राताओं ने भगवान् श्रीमहादेव जी की आज्ञानुसार कुछ काल भेद से जहाँ-तहाँ अवतार लेने का दृढ़ निश्चय किया। ठीक इसी निश्चय के अनुकूल प्रथम अपने अष्ट भ्राताओं से माननीय कवि नारायणजी वियोगित हुए। जिन्होंने भृगुवंशीय किसी प्रतिष्ठित ब्राह्मण के गृह में अवतार धारण कर माता-पिता को असाधारण आनन्द समुद्र में निमग्न कर दिया। परं हाय कुछ ही देर में पिता ने जब ज्योतिष शास्त्र का अवलोकन किया तब उसे मालूम हुआ कि पुत्र अनिष्टकारक गण्डान्त नक्षत्र में उत्पन्न हुआ है। अतएव उसने अपने अनिष्ट के भय से सहसा पुत्रोत्पत्ति के आनन्द का परित्याग कर लड़के को सच्चे समुद्र में डाल दिया, जिसको जल में गिरते ही एक स्थूलतनु मत्स्यने हड़फ (निगल) लिया। परन्तु परमात्मा की गति अत्यन्त ही विचित्र एवं अगम्य है। मारने वाले से वह बचाने वाला बहुत प्रबल है। यही कारण हुआ विधाता की रक्षा से रक्षित हो वह लड़का काल के मुख में न जाकर मत्स्य के उदर में ही आसनासीन हो घोर तप करने लगा। इसी दशा में परिणत हुए उसके अनेक वर्ष व्यतीत हो चले। उसके कठिन तप से भगवान् महादेवजी का हृदय दया से परिपूर्ण हो गया। ठीक इसी समय किसी ऐकान्तिक स्थल में बैठे हुए भगवान् कैलासनाथजी से देवी पार्वतीजी ने कहा कि महाराज कृपा करो और मुझे अमरकथा सुनाओ, जिससे मैं भी आपकी तरह अजरामर हो बार-बार के जन्म-मरण से रहित हो जाऊँगी। यह सुन महादेव जी ने कहा कि अये पार्वति ? अमरकथा भी कोई कथा है तुझे इस बात का ज्ञान कैसे हुआ। क्यों कि, हमने आजपर्यन्त अमरकथा का सुनाना तो दूर रहा उसका तुझे नाम तक भी नहीं बतलाया है। आपके इस प्रश्न का उत्तर देती हुई उसने कहा कि एक दिन नारदमुनि कैलास में आये थे, वे आते ही आपकी रूण्डमाला की स्तुति करने लगे। तब मेरे सहसा यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि ये इतने रूण्ड किसके हैं। बल्कि इस बात का निश्चय करने के लिये मैंने नारदजी से ही प्रश्न किया। उन्होंने बतलाया कि ये रूण्ड किसी के नहीं केवल तुम्हारे ही हैं। तुम्हारा अनेक बार जन्म और मरण हुआ है। अतएव प्रतिजन्मस्थ शरीर को श्री महादेवजी ने अपनी प्रसन्नता के लिये माला में धारण किया है। तब मैंने फिर पूछा कि महाराज, यह जन्म-मरण मेरा अनेक बार क्यों होता है। उन्होंने स्पष्ट कह सुनाया कि अमर कथा का न श्रवण करना ही तुम्हारे बार-बार जन्म-मरण का कारण है। अतएव तुमने यदि जन्म-मरण रूप परम्परा के असह्य दुःख का परिहार करना है तो श्री महादेवजी से अमरकथा का श्रवण करो। श्री महादेवजी अमरकथा के प्रभाव से ही उस दुःख से विमुक्त हुए सदा शिव कहलाते हैं। इस प्रकार अमरकथा की महिमा का निरूपण कर नारदजी तो इन्द्रपुरी को चले गये। मैं उसी दिन से कथा श्रवण योग्य स्थान की अन्वेषणा में तत्पर थी सौभाग्य वह अनुकूल स्थान भी आज प्राप्त हो गया इसलिये अवश्य मेरे ऊपर कृपा करो। परन्तु प्रथम आपसे मेरी यह अभ्यर्थना है जब ऐसी अमूल्य अद्वितीय वस्तु को आप अच्छी तरह जानते थे तो आपने आज तक मेरे से गुप्त क्यों रखी। पार्वतीजी का यह नम्रतायुक्त वाक्य सुनकर श्री महादेवजी ने कहा कि पूर्व तू इस विद्या की अधिकारिणी नहीं थी। इसीलिये इस गोप्यवस्तु को आज तक हमने तेरे से छिपाकर रखा है, अब तू अधिकारिणी हुई है। अतः अब हम तेरे को अमरकथा सुनायेंगे। इस प्रकार पार्वतीजी को सन्तोष देकर श्री महादेवजी समुद्रतट पर आये और अपने कृत्रिम शब्दघोष से समीपस्थ पशु-पक्षियों को दूर कर पार्वतीजी को अमरकथा सुनाने लगे। कुछ देर में जिस किसी प्रकार से आपका यह कार्य समाप्त हो गया। पार्वतीजी की असावधानतापर हुंकारा भरने वाले ’ शुक (तोता) के दृत्तान्त से निवृत्त हो आप फिर ज्यों ही उस आसन पर आ विराजे त्यों ही एकाएक आपकी दृष्टि समीपस्थ जल में स्थित बालक को निगल जाने वाले पूर्वोक्त मत्स्य के ऊपर पड़ी और इसी के अन्तर कवि नारायण का अवतारी बालक विराजमान है यह दृढ़ निश्चय कर आपने आकर्षण मंत्र का प्रयोग किया। जिससे आकृष्ट हुआ वह मत्स्य बाहर निकला तथा श्रीमहादेवजी के तेज से स्तम्भित हो तट पर स्थित रह गया और उसके मुखद्वारा एक असाधारण रूपवान् बालक का ........... हुआ। वह निकलते ही सम्मुखीन स्थल पर विराजमान श्री महादेव और पार्वती ......... कर उनके चरणों में गिरा। यह देखकर श्री महादेवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। ...... वृत्तान्त जानते हुए भी उससे उसका समाचार पूछने लगे। तदनु उसने अपने आ..... ज्ञान से समग्र वृत्तान्त सुना डाला। इससे और भी प्रसन्न हो श्री महादेवजी ने पार्वती की ओर निर्देश करते हुए कहा कि यह तुम्हारा पुत्र है इसको ग्रहण करो और पुत्र की चेष्टाओं से स्कन्द की तरह संस्कृत करो। यह सुन भगवती भवानी ने उसको गोद में बैठा लिया और मुखचुम्बनादि क्रियाओं के द्वारा स्कन्द की तुल्य उससे अत्यन्त प्रेम किया। तद्नन्तर पुत्र मत्स्येन्द्र जगत् में तेरा यश प्रख्यात होगा।
तू पुत्र निश्चित होने के कारण हमारा भी यश विस्तृत करता हुआ संसार में निर्भयता के साथ विचरते रहना, यह कहकर दोनों अपने अभीष्ट स्थान को चले गये। इधर वह लड़का भी उनके पवित्र आशीर्वाद से प्रफुल्लित चित्तवाला होकर समुद्र के तटस्थ प्रान्तों में भ्रमण करने लगा और इधर-उधर कई एक मास पर्यन्त भ्रमण करने के अनन्तर कुछ दिन में पूर्वी समुद्र तटस्थ कामाक्षादेवी के स्थान में पहुँचा। यहाँ उसने कुछ दिन की कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो देवी का वर ग्रहण किया और श्री महादेवजी को और भी प्रसन्न करने के लिये फिर कठिन तपश्चय्र्या में संलग्न होने का दृढ़ संकल्प किया। बल्कि संकल्प ही नहीं इस कार्य को पूरा कर देने के अभिप्राय से वहाँ से बदरिकाश्रम का उद्देशकर प्रस्थान कर दिया। कुछ दिन में यह भी यात्रा समाप्त हो गई, यहाँ एक अच्छा निर्विघ्न पर्वत देखकर उसने तप करना आरम्भ किया। अर्थात् पार्वती सहित श्री महादेवजी के ध्यानपूर्वक ऊपर को मुख किये हुए दाहिने पैर के अंगुठे पर समग्र शरीर का भार रखकर दोनों हस्तों से वद्धांजलिहो नेत्रों की समस्त चंचलता को दूर कर उसने वायु आहार के अभ्यास द्वारा पूरे बारह वर्ष व्यतीत किये और शीतोष्णता के अत्यन्त कठिन कष्ट को अपने शरीर पर ही धारण किया। यही नहीं उसने इस प्रकार घोर तप किया कि समीपस्थ भूमि पर तृण उगने से उसका शरीर तो तृण से आच्छादित हो ही गया था। किन्तु शरीर शुष्क होकर इस तरह प्रतीत होता था मानों अस्थि ही अवशेष रह गई हों। अस्तु, जब बारह वर्ष पूरे हो चले तो उसकी तपश्चय्र्या का असाधारण फल तैयार हुआ जिसकी प्रेरणा से प्रेरित हुए नारदजी के बदरिकाश्रम की यात्रा करने की इच्छा उत्पन्न हुई और वे कुछ देर में जहाँ बालक कठिन तपस्या में तत्पर हो रहा था अकस्मात् उसी मार्ग से आ निकले एवं चलते समय एकाएक उनकी दृष्टि कुछ-कुछ दीखने वाले तपस्वी बालक की ओर पड़ी। उसका तृण से आच्छादित शुष्क शरीर देखते ही नारदजी कुछ विस्मित से हुए आभ्यन्तरिक रीति से उसे नमस्कार करने के साथ-साथ उसके जनक माता-पिता को हार्दिक असंख्य धन्यवाद देने लगे और उसके तप का महत्त्व वर्णन करने के अभिप्राय से अमरापुरी को प्रस्थान कर गये। वहाँ पहुँचते ही इन्द्र के अभिमुख बालक का अखिल वृत्तान्त प्रकट कर नारदजी ने इन्द्र को भी उसके दर्शन करने को बाध्य किया। नारदजी की वाणी सुनकर इन्द्र ने निश्चय कर लिया कि निःसन्देह यह बात ठीक है। यही कारण हुआ वह उसी समय नारदजी के साथ घटनास्थल में पहुँचा और ज्यों ही विमान से तपस्वी के सम्मुख हुआ त्योंही महाकष्ट में परिणत उस बालक के दर्शनकर अत्यन्त विस्मित हुआ। तथा मुख में अंगुलि देकर अन्य देवताओं की ओर इशारा करते हुए कहने लगा कि हमने आज तक ऐसा तपस्वी नहीं देखा है। अतएव जिसने ऐसे पुत्र रत्न को उत्पन्न किया है उन्हें अनेक हार्दिक धन्यवाद है। ऐसे असाधारण पुत्र को पैदा कर उन्हें इस असार संसार में अपना स्वच्छ यश विस्तृत कर डाला है। इस प्रकार आश्चर्य प्रकट कर धन्यवाद देने के अनन्तर इन्द्र अपने स्थान को चला गया। पश्चात् ब्रह्माजी को भी इस वृत्त की सूचना मिली। वह भी तपस्वी का दर्शन करने के लिये बदरिकाश्रम में पहुँचा और बालक का घोर तप देखकर स्वकीय मुख से असंख्य धन्यवाद प्रदानपूर्वक श्रद्धेय श्लाघा करने लगा। तदनु अनेक हर्षवद्र्धक वाक्यों का प्रयोग कर वह भी ब्रह्मपुरी को चला गया। परन्तु तपस्वी का घोर तप देखकर ब्रह्माजी का हृदय करूणा से परिपूर्ण हो गया था। अतएव अन्य कार्य में व्यग्र रहते हुए भी ब्रह्माजी का चित्त तपस्वी के दृश्य को विस्मृत नहीं करता था। यहाँ तक कि एक दिन ब्रह्माजी ने विचार किया कि वह बालक तपस्वी अत्यन्त दुःख उठा रहा है। अतः किसी प्रकार से अब उसको इस महाकष्ट से मुक्त कराना चाहिये। अन्ततः वह एक दिन स्वयं विष्णुपुरी में गमन कर उक्त वृन्तान्त से विष्णुजी को सूचित करने को बाध्य हुआ। तब तो विष्णुजी भी तपस्वी के तपश्चय्र्याकाठिन्य को देखने के लिये उत्कण्ठित हुए और कुछ देर में ब्रह्माजी के सहित बदरिकाश्रम में आये। बालक का अवलोकन करते ही विष्णु विस्मित हो ब्रह्माजी से कहने लगे कि श्री महादेवजी को बुलाकर इसको अब तो तप से मुक्त कराना चाहिये। ब्रह्माजी पहले ही इस बात की पुष्टि में तैयार थे। अतः उन्होंने कहा कि चलिये आप और हम दोनों ही कैलाश में जाकर श्री महादेवजी के समक्ष इस प्रस्ताव को उपस्थित करेंगे। अनन्तर दोनों महानुभाव ही कैलास में पहुँचे तथा उक्त तपस्वी का समस्त वृत्तान्त सुनाने लगे। साथ ही उसके मुक्त करने की भी प्रार्थना करने लगे। उधर श्री महादेवजी ने भी उनका प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया और उनके साथ तत्काल ही घटना स्थल पर चलने की तैयारी की। कुछ ही देर में स्वकीय वाहनों पर आरूढ़ हो तीनों देव बदरिकाश्रम में आये। बालक का महाघोर तप देखकर श्री महादेवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहने लगे कि हे तपस्विन्, अब तुम्हारा तप पूर्ण हुआ हम अतीव प्रसन्न हैं। तुम हमसे कुछ वरदान माँगों। भगवान् महादेवजी का यह वचन सुनकर बालक तपस्वी ने उधर दृष्टि डाली एवं तीनों महानुभावों को उपस्थित देख आभ्यन्तरिक रीति से नमस्कार कर वह कहने लगा कि हे दयासागर दीन बन्धो ! यदि आप सचमुच मेरे ऊपर प्रसन्न हैं और अभीष्टानुकूल वर देना चाहते हैं तो मैं और कुछ न मांगकर आप से यही वर मांगता हूँ कि आप मुझे अपना स्वरूप प्रदान कर दें। अर्थात् मुझे अपने वेष से विभूषित कर दें। यह सुनकर तीनों देव परस्पर में एक-दूसरे को देखकर मुश्कराने लगे। तथा श्री महादेव जी ने कहा कि कोई अन्य वर मांगो क्यों कि तुम्हारा अवतार जिस विशेष कार्य को पूरा करने के लिये हुआ है। तुम उसको इस समय कठिन व्रत के अवलम्बन वश से भूल गये हो। अतएव उस कार्य सिद्धि के अनुकूल किसी अन्य वर की याचना करो तो बहुत ही ठीक होगा। उसने कहा कि आप ठीक कह रहे हैं तथापि मैं आपके स्वरूप से सुशोभित होकर उस औद्देशिक कार्य का संचालन करना चाहता हूँ। बालक का यह निश्चय देख श्री महादेवजी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। वे तथास्तु कहकर उक्त दोनों देवों से विदा हो तपश्चय्र्याविमुक्त बालक तपस्वी के सहित कैलाश में आये और अगले दिन उसे अपना वेश स्वीकृत कराने लगे। प्रथम सिर में विभूति डालकर विभूति स्नान कराया एवं स्नान कराने के साथ-साथ उसका महत्त्व अर्थात् अभिप्राय भी समझाया कि अये शिष्य हमने जो तेरे सिर पर डाला है यह भस्म अर्थात् मृतिका है। अतएव इसके डालने द्वारा हम तुझे यह उपदेश देते हैं कि ’ तुम आज से पृथिवी हो जाना और जिस प्रकार अच्छी वा बुरी वस्तु रखने से यह पृथिवी कभी प्रसन्नता-अप्रसन्नता प्रकट नहीं करती है ठीक इसी प्रकार कोई भी सांसारिक मनुष्य अपने ज्ञान से वा अज्ञान से तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करे या कुत्सित व्यवहार करे तुम पृथिवी की तरह कभी प्रसन्न और अप्रसन्न न हो कर सदा एक रस ही बने रहना अर्थात् पृथिवी की तुल्य जड़ हो जाना। चेतनता केवल अलक्ष पुरुष का प्रिय बनकर आत्मोद्वार के लिये ही समझना अथवा इस भस्मी डालने के द्वारा हमारा यह अभिप्राय समझना कि अग्नि संयोग के पहले जिसकी यह भस्मी बनी है वह काष्ठ था, जिसमें काठिन्यादि अनेक गुण थे। और उसकी व्यावहारिक अनेक वस्तु भी बन सकती थी परन्तु अग्नि संयोग होने पर काष्ठ की यह दशा हो गई कि इसके वे काठिन्यादि कुत्सित गुण न जानें कहाँ चले गये। अब इसमें से उन अनेक वस्तु बनने का भी सम्भव नहीं रहा। ठीक इसी प्रकार हमारे संयोग से पहले सम्भव है तुम्हारे शरीर में किसी न किसी अनुचित कृत्यों का प्रवेश होगा और तुम अनेक सांसारिक व्यापार भी कर सकते थे परन्तु हमारे संयोग से ज्ञान प्राप्त कर अब ऐसा हो जाना कि उस ज्ञानरूप अग्नि से काष्ठ की तरह उन कुत्सित कृत्यों को भस्मसात् कर डालना। तदनन्तर श्री महादेवजी ने उसे जलस्नान कराया और स्नान कराने के साथ-साथ उसका भी अभिप्राय समझाया कि अये शिष्य जिसको हम तुम्हारे ऊपर छोड़ रहे हैं इसके बर्षाने वाला मेघ है।
इस जल के सिर पर छोड़ने का हमारा यह अभिप्राय है कि तुम आज से इसके वर्षाने वाला मेघ बन जाना और जिस प्रकार वह मेघ जलस्थल में समान दृष्टि से वर्षता है इसी प्रकार सांसारिक सभी श्रेणी के लोगों पर तुम समान दृष्टि से बर्ताव करना। अथवा जल डालने का हमारा यह भी अभिप्राय है कि इस जल का शीतल स्वभाव है अतएव तुम आज से जल बन जाना। और जिस प्रकार हजार बार तपाने पर भी यह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है तथा ऊपर डालने पर अग्नि को प्रशान्त कर देता है ठीक इसी प्रकार कोई सांसारिक पुरुष तुम्हारी परीक्षा के अभिप्राय से अथवा अपने कुत्सित स्वभाव के अनुरोध से तुम्हारे अनेक तर्कना लगाये तो भी तुम जल की तरह अपना स्वभाव नहीं छोड़ना अर्थात् अपने सान्त्वनिक आत्मबल द्वारा उसको शान्त ही कर डालना, तद्नन्तर श्री महादेवजी ने उसको नाद जनेउ पहनाकर उसका भी अभिप्राय समझाया कि अये शिष्य यह काष्ठादिका बनाया हुआ जो हमने तुम्हें प्रदान किया है यह नाद है। नाद का दूसरा अर्थ ’ शद्ध है, जो गुरु समझा जाता है। अतएव तुम आज से इस नाद अर्थात् शद्ध से अपनी उत्पत्ति समझना। हमारे नाद अर्थात् शद्ध से उत्पन्न होने के कारण आज से तुमने नूतन जन्म प्राप्त किया। यह नाद ठीक इसी बात को जितलाता है यह समझना चाहिये और यह नाद जिसमें अवलम्बित है यह ऊर्णादि से निर्मित किया हुआ जनेउ नाम से व्यवहृत किया जाता है। यह जिस प्रकार सांसारिक लोगों के जनेउ से भिन्न है इसी प्रकार तुम भी आज से अनेक अतथ्य व्यवहार परिणित सांसारिक लोगों के जनेउ से भिन्न हो चुके हो। यदि अपने उद्देश्य को भूलकर उन लोगों के व्यवहार में प्रविष्ट हो गये तो कल्याणपथ प्राप्त करना तो दूर रहा तुम्हें अधिक हानि उठानी पड़ेगी। अतएव सदा अपने स्वच्छ उद्देश्य से मतलब रखना। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु धारण कराने का ठीक-ठीक अभिप्राय बतलाकर श्री महादेवजी ने अपने कुण्डलादि कई एक चिन्ह उसके समर्पण किये तथा उसे मत्स्येन्द्रनाथ नाम से प्रसिद्ध किया। और पूर्ण अधिकारी निश्चित कर उसको योग क्रियाओं में प्रेरित किया। (पाठकवृन्द मुझे खेद है आज जिस समय में मैं श्री महादेवजी के द्वारा प्रदानित शिक्षाओं को अपनी लेखनी से प्रकट कर रहा हूँ यह वह समय है जबकि आज इन शिक्षाओं का बिल्कुल अभाव सा दीख रहा है।
अभाव दीखना भी ठीक ही है जबकि आजकल के घनाढ्य महन्त तो शिमला, मनसूरी, नैनीताल आभू आदि ठण्डे स्थलों में हवा बदले के लिये जाते हैं और पीछे से स्थान में उनके नाम के शिष्य बनाये जा रहे हैं। जिस विचार ने बेष लेन के अवसर में जिस व्यक्ति का शुद्ध गुरु समझा जाता है उसका मुँह मत्थातक नहीं देखा है भला उसमें उपरोक्तादि गुरु शिक्षाओं का सम्भव कैसे हो सकता है, किन्तु कभी नहीं हो सकता। यही कारण है बाना लेने पर कितने ही योगी अपने मुख्योद्देश का पालन न करते हुए इन चिन्हों में विशेष श्रद्धा नहीं रखते हैं। क्योंकि कोई भी चिन्ह हो वह किसी अभिप्राय से शून्य रहता हुआ धारण करने योग्य नहीं समझा जाता है। किन्तु उसके अभिप्राय की पहले ठीक-ठीक ध्यान में आ जाने की आवश्यकता है जब भी उसकी धारणा में श्रद्धा और सत्कार प्रकट हो सकता है। और उससे सूचित होने वाले अभिप्राय से मनुष्य लाभ भी उठा सकता है। परन्तु खेद है जिसने बाना लेते समय स्वयं गुरु का मुँह माथा न देखकर उससे कुछ नहीं सीखा तो वह जब किसी अन्य को बाना देगा तो उसे क्या शिखलायेगा)। अस्तु श्री महादेवजी जैसे गुरु और मत्स्येन्द्रनाथ जैसे अद्वितीय अधिकारी शिष्य के कार्य में विलम्ब ही क्या हो सकता था। अतएव वह कुछ ही दिन में असाधारण योगवित् बन गया। तत् पश्चात् श्री महादेव जी ने मध्यम तथा कनिष्ठ अधिकारी पुरुष को किसी ढंग से योग क्रियाओं में प्रविष्ट करना चाहिये उसको समस्त भेद भी बतलाया। अर्थात् आपने कहा कि अये शिष्य उत्तम अधिकारी तो केवल अभ्यास वैराग्य की ही सहायता से योग पारंगत हो सकता है यह बात तुमसे छिपी नहीं है। क्योंकि तुम उत्तम अधिकारी हो। तुमने इसी उपाय द्वारा योग का मर्म समझकर इस बात से ज्ञातता प्राप्त कर ली है। परं मध्यम अधिकारी को योग वित् बनाना हो तो उसके तपः, स्वाध्याय और प्रणिधान ही विशेष उपकारी समझने होंगे। इसके अतिरिक्त यदि कनिष्ठ अधिकारी को भी तुम योग दीक्षा प्रदान करना उचित समझो तो उसे यमनियमादि आठ उपायों द्वारा ही योग निपुण बना सकोगे। मत्स्येन्द्रनाथजी ने यह तत्त्व बड़ी शीघ्रता के साथ समझ लिया। अतएव शिष्य की यह दक्षता देखकर महादेवजी आतीवानन्दित हुए और उसे सावरी विद्या का मर्म समझाने लगे। वह कतिपयलक्ष मंत्रात्मक सावरी विद्या के अवगमनानन्तर-वातास्त्र-कामास्त्र- पर्वतास्त्र-आग्नेयास्त्र-वासवास्त्र-गरुडास्त्र-दानवास्त्र-मानवास्त्र-इत्यादि अनेक आस्त्रिक विद्या में भी निपुण हो गया।

1 comment:

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