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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Tuesday, April 23, 2013

श्री नव नारायण कैलाश गमन वर्णन


पाठकवर आइये आप मेरे हृदय से हृदय सम्मिलित कर मुझे आरम्भित विषय में अपरिमित प्रयत्न करने का उत्साह प्रदान कीजिये। इस समय जबकि प्रत्येक समाज संगठन और जाति तथा उनके प्रत्येक मनुष्य हम किस रीति से अपनी उन्नति के शिखर पर पहुँच सकते हैं। इस प्रकार की भावनाओं में लीन हैं। वक्लि लीन ही नहीं यथासाध्य उपायों की अन्वेषणाभी कर रहे हैं। तब मुझे उचित नहीं कि मैं उनकी कार्यावली को देखता तथा इस रहस्य को स्वकीय हृदयस्थान में अवकाश देता हुआ भी अकर्मण्यता के साथ बैठा रहकर उनकी ओर झूरता रहूँ। और स्वीय हृदयात्मक समुद्र में उत्पन्न होने वाली अनेक भावनेय तरंगों को इसी में विलीन कर लूँ। किन्तु आज जिस प्रकार अनेक भारतीय बीर अपने समाज संगठन और जाति के उत्कर्षार्थ यथा साध्य प्रयत्न लीन हैं दद्धत् मैं भी क्यों न हो जाऊँ। जिन भावनाओं ने उक्त महानुभावों को उक्त प्रयत्न में कटिबद्ध किया है उन भावनाओं से मैं भी रिक्त नहीं हूँ। यही कारण है अनेक बाधायें उपस्थित होते हुए भी मैं औदशिक पथ से एक पदमी पीछै न हटकर आग्रसर ही होता हूँ। तथा समयानुसार सम्भावित लाभ सोचा है उसको उपस्थित कर अपने कि´्चित उत्तदायित्व से विमुक्त होने की सम्भावना करता हूँ। और इस बात को स्पष्ट कह देता हूँ कि संसार में यदि किसी की प्रतिष्ठा देखी जाती है तो वह दो करणों से आबद्ध है। या तो प्रतिष्ठित पुरुष स्वयं ऐसे गुणों वाले हों जिन्होंने मोहित हुए लोग उनकी विनम्र अभ्यर्थता करने में उत्कण्ठित हो जायें। या उनके पूर्वजों के जो कि लोक हितैषिता पर अपना सर्वस्त्र न्योछावर कर चुके हों प्रभावशाली चमत्कारों का कथा आदि के द्वारा लोगों के हृदयों पर प्रकाश डाला जाता हो। जिससे लोग यह विचार कर कि ये भी उन्हीं महापुरुषों की सन्तान हैं उनके सत्कार में अग्रसर हों। यह उदाहरण लोक में प्रसिद्ध ही है जो मैंने स्वयं कई एक स्थानों पर अनुभावित किया है। संसार के इतिहास में जिस घराने का चरित्र श्रद्धास्पद समझा जाता है उस घराने का मनुष्य चाहे उन प्रख्यात गुणों का भण्डार न हो स्थानान्तर में जाने पर उक्त बुद्धि से प्रेरित लोगों द्वारा कुछ प्रतिष्ठा को अवश्य प्राप्त होता है। परन्तु खेद है और कष्ट के साथ लिखना पड़ता है आज योगि समाज दोनों प्रतिष्ठाओं में किसी का भी आश्रयभूत नहीं है। न तो इसमें स्वयं वे गुण हैं जिनसे संसार इसको श्रद्वेयदृष्टि से देखे और न पूर्वाचाय्र्यों की अपूर्वलोक हितैषिका ही इसे कुछ ज्ञान है जिसको लोगों के अभिमुख प्रस्फुट कर उनके हृदयों पर उसका कुछ प्रकाश डाल सकै। जिससे लोग अद्भुत शक्तिशाली जनोंद्धारक महात्माओं की सन्तान समझकर इसको प्रतिष्ठित करें। असल में आधुनिक योगि समाज को पूर्व योगाच्चाय्र्यों की अपूर्वलोक हितैषिता का ज्ञान होता भी कैसे दीर्घकाल होने के कारण न तो उसकी परिचायक गाथाही किसी के कण्ठस्थ रही एवं न उसका प्रवोधक कोई इतिहास ही प्रचलित रहा जिससे योगि समाज स्वयं उसका ज्ञान प्राप्त कर उसको संसार में विस्तृत करता। क्यों ऐसा क्यों हुआ यदि यह कहें कि आजपर्यन्त योगि समाज में विद्वान् नहीं हुए तो सर्वथा असम्भव है विद्वानों का न्यूनाधिक भाव होने पर भी अत्यन्त अभाव कहना निर्मूल है। आज भी टूटी-फूटी दशा में सन्तोषजनक विद्वान् विद्यमान हैं। फिर विद्वान् भी हुए हों पर उन्होंने उपरोक्त वार्ता सूचक इतिहास रचने की उपेक्षा की हो ऐसा भी सम्भव नहीं है। तो फिर क्या कारण है जो आधुनिक समय वैसा इतिहास जगत् प्रसिद्ध नहीं है। इसका कारण यही है और इतिहास प्रसिद्ध न होना ही इस बात की पुष्टि करता है कि अवश्य ऐसा हुआ होगा जैसा कि सुना जाता है। वैक्रमिक 1400 शताब्दी के आस-पास योगि समाजात्मक समुद्र में महान् अज्ञानात्मक एक ऐसा तुफान उठा था जो कतिपय सुयोग्य योगी मल्हाओं के अनेक प्रयत्न करने पर भी ऐतिहासिक ग्रन्थात्मक जहाजों को डुबो कर रसातल में पहुँचायें बिना न रहा। इसका स्पष्टार्थ यह हुआ किसी देशकाल विचारशील योगी ने या खैर योगेन्द्र गोरक्षनाथजी ने ही समझ लीजिये योगियों को यह परामर्श दिया था कि योग साधनीभूत कई एक खतरनाक क्रियाओं को जो कि गुरु द्वारा ही पुरुष को साध्य हो सकती है। न तो स्वयं कागज पर लिखना और न किसी अन्य को लिखाना ऐसा करने पर लिखित के अनुसार कोई गुरु के बिना ही उनमें प्रवृत्त हो जायेगा तो उसे लेने के बदले देने पड़ जायेंगे। उनकी इस आज्ञा का कुछ काल तो ठीक-ठीक रीति से व्यवहार होता रहा। अनन्तर योगि समाज की काया पलटने लगी। अनाधिकारी आलसी पुरुषों का इसमें प्राधान्य होने लगा। सहज 2 समस्त क्रियायें लुप्त होने लगी पढ़ने-लिखने की ओर से भी मुख मोड़ने के अभिप्राय से उपरोक्त वार्ता का यह अर्थ निश्चित कर लिया कि श्रीनाथजी की आज्ञा है योगियों के लिये पढ़ना-लिखना महा पाप है। बस क्या था कुछ दिन में यह अर्थ खूब परिपक्व हो गया। अब वह समय था जिसमें योगि समाज के अनेक ग्रन्थ विद्यमान थे। उनके विषय में अनधिकारी निरक्षर भट्टाचार्य योगियों की शंका उत्पन्न होने लगी कि श्रीनाथजी की आज्ञा नहीं है तो अमुक योगी क्यों पढ़े और उन्होंने ये ग्रन्थ क्यों लिखे। अन्त में किसी दिन तीर्थादि के उपलक्ष्य पर समुदाय सामज में यह प्रस्ताव पास ही हो गया कि पढ़ने वाले योगी मूर्ख थे जिन्होंने पढ़ने और ग्रन्थ रचना करने के द्वारा श्रीनाथजी की आज्ञा को भंगकर उन्हें तिरस्कृत किया है। अतएव जहाँ कहीं भी मिले उन्होंने ग्रन्थों को नष्ट करना योगी मात्र का कत्र्तव्य है। (हाय अविद्या तेरा बुराहो। तू योगि समाज में घुसकर आज यह क्या करा बैठी। इस कृत्य के स्मरण से मेरा हृदय जितना कम्पित और दंदह्यमान होता है उतना औरंगजेब की हिन्दुओं को मुसलमान बनाने और इन्कार करें तो कत्ल करने की आज्ञा का स्मरण करने से भी नहीं होता है।) अस्तु उसी समय से भारत व्यापी अज्ञानान्धकारावृत योगि समाज अपने कथन की पूर्ति करने में कटिबद्ध हुआ जिससे कुछ ही दिन में समस्त ऐतिहासिक ग्रन्थों का अवसान हो गया। परन्तु ईश्वर की गति बड़ी ही विचित्र है। वह मनुष्यों को हर एक प्रकार के दावपेच शिखला कर भी बिल्ली की तरह कोई एक युक्ति अवशिष्ट रख लेता है। यही कारण हुआ आज्ञानिक योगियों के लाख सिर पटकने पर भी पूज्य योगाचार्यों की अश्रुतपूर्व असाधारण लोक हितौषिका परिचायक ग्रन्थ स्वकीय अभाव का मुख न देख सका। किसी दूरदर्शी योगी अथवा गार्हस्थ्य महानुभाव के द्वारा अनुवादित हो अपनी आन्तर्धानिक उपस्थिति रखने में समर्थ हुआ और सहज 2 कई एक शाखाओं में विभक्त हो अपनी कथाओं के द्वारा फिर भारतीय लोगों को विशेषकर के बंगाली और महाराष्ट्रिय लोगों को रंजित करने लगा। सौभाग्य का विषय है यह लेख परम्परा में परिणत हुआ अमूल्य ग्रन्थ इसकी गवेषणार्थ प्रयत्नशील हुए मेरे हस्तगत हो गया। जिसका आरम्भ इस प्रकार है कि संसार में मनुष्यों के ऊपर होने वाली ईश्वर की विशेष दृष्टि दो कारणों से प्रेरित समझनी चाहिये जिनमें प्रथम कारण मनुष्य का धर्मानुष्ठान और द्वितीय अधर्मानुष्ठान है। धर्मानुष्ठान से मनुष्य के ऊपर ईश्वर की मंगलप्रद दृष्टि होती है तो अधर्मानुष्ठान से अमंगलप्रद विशेष दृष्टि का अनुभव किया है। इसी प्रकार जब-जब मनुष्य धर्मा-धर्म का विशेष रीति से अनुष्ठान करते हैं तब-तब ईश्वर उनके ऊपर विशेष दृष्टि कर कोई ऐसी प्रथाप्रचलित करता है जिसके द्वारा उनके अनुष्ठानानुकूल फल उपस्थित होता है। द्वापर युग के अन्तिम भाग में ठीक ऐसा ही अवसर उपस्थित हुआ था। कितने ही मनुष्य धर्मानुष्ठान की पराकाष्ठा दिखलाते हुए ईश्वर की नित्य यही अभ्यर्थना करते थे कि भगवन् आपसे बिछड़े रहकर हमने बहुमूल्य समय नष्ट किया है। इससे हमारी जो हानि हुई है और कहीं नहीं आपके समीप आने पर ही पूरी हो सकती है। अतएव आप कृपा करें और शीघ्र एक ऐसा उपाय हमारे सामने रखें जिससे हमको आपके समीप पहुँचने में सुभीता प्राप्त हो। उनकी इस प्रैतिक एवं कारुणेय प्रलपनाने ईश्वरपद बाच्य भगवान् महादेव जी का आसन विचलित कर दिया। यह देख श्रीमहादेवजी ने शीघ्र उधर ध्यान दिया और समीपागत नारदजी को बदरिकाश्रमस्थ नव नारायणों के पास जाकर प्रबोधित वृत्त से उन्हें विज्ञापित करने का परामर्श दिया। नव नारायण ऋषभराजा के पुत्र थे। इनके यद्यपि जड़भरतादि अनेक भ्राता ऐसे थे जिन्होंने शुभ्रस्वच्छ यश से मानों भारतवर्ष अत्यन्त धवलित हो गया था। तथापि उन्होंने कविनारायण, करभाजन नारायण, अन्तरिक्ष नारायण, प्रबुद्ध नारायण, आविर्होत्र नारायण, पिप्पलायन नारायण, चमस नारायण, हरि नारायण, द्रुमिलनारायण, ये नारायण पदान्वित नव महानुभाव तो ऐसे विरक्त और ब्रह्मनिष्ठ हुए हैं मानों अन्त भ्राताओं के यश से धवलित हुए इस भारत में इन्होंने कोटिसूय्र्य और भी उदित कर दिये। यही नहीं ये महानुभाव ऐह लोकागमन का जो वास्तविक उद्देश्य है उसको अच्छी प्रकार समझ कर ही शान्त न हो गये वक्लि जिस किस उपाय से उसको प्राप्त ही कर दिखलाया। यही कारण था सांसारिक साधारण जीवों की तरह बार-बार काल के शिकार न बनकर आप दीर्घ समय से अक्षुण्णभावतया इतस्ततः भ्रमण करते रहे। ये ही पुण्यश्लोक जब कि बदरिकाश्रम में एकत्र बैइे हुए आत्मज्ञान विषय में सानन्द परामर्श कर रहे थे तब नारदजी ने उपस्थित हो श्रीमहादेवजी का सन्देश उद्घोषित किया जिसको सुनकर आप लोगों ने कहा कि धन्यभाग दीनबन्धु भगवान् श्रीमहादेवजी ने हमारे ऊपर दृष्टिपात किय और अपने चिन्त्यकार्य की पूर्ति के लिये हमको सर्वथा योग्य एवं विश्वासपात्र समझा। परन्तु हम स्पष्ट रूप से यह पूछना चाहते हैं आप इस बात का सम्यक्तया विवर्ण कर दें कि श्रीमहादेवजी ने किस कार्य सम्पादन के लिये हमको आज्ञापित किया है। नारदजी ने कहा उन्होंने मेरे द्वारा आप लोगों को इस उद्देश्य से आज्ञापित किया है कि आप जहाँ-तहाँ योग मार्ग का उद्धार कर उन मुमुक्षुजनों का जो इस उपाय प्राप्ति के लिये आभ्यन्तरिक भाव से उनकी अभ्यर्थना कर रहे हैं उद्धार करें। नारायणों ने कहा कि तथास्तु नारदजी आप अपने अभीष्ट स्थान को जाइये, हम इस आज्ञा को पूर्ण करने का प्रयत्न करेंगे। यह सुन धन्यवाद वाक्यों का प्रयोग करते हुए इधर नारदजी प्रस्थानित हुए तो उधर इस विषय में विष्णु भगवान् से कुछ परामर्श करने के अभिप्राय से नव नारायण भी वहाँ से प्रस्थान कर गये जो अविलम्ब से ही वैकुण्ठी भगवान् की सेवा में उपस्थित हो श्रीमहादेवजी की उपलब्ध आज्ञा को किस रीति से पूर्ण किया जाना चाहिये इत्यादि प्रश्न करने लगें। आपने कहा कि हम स्वयं अवतरण करने वाले हैं जिसके लिए श्रीमहादेवजी की कुछ सम्मति प्राप्त करने की आवश्यकता है। अतएव चलो वहीं चलेंगे जिससे सब कार्य असन्दिग्ध हो जायेंगे, यह सुन नारायण भी इस बात के लिए सहमत हो गये। जिनको साथ लेकर विष्णुजी शीघ्र कैलासस्थ श्रीमहादेवजी के समीप पहुँचे। पारस्परिक आभिवादनिक कृत्य के अनन्तर यथोचित आसनों पर बैठने का निर्देश करते हुए भगवान् कैलासनाथजी ने उनसे स्वकीय आगमनिक हेतु पूछा। विष्णुजी ने निजोद्देश प्रकट कर नारायणों का प्रस्ताव भी सम्मुखीन किया और प्रत्यक्ष रूप से कह सुनाया कि ये आपकी आज्ञा पालन में अत्युत्कण्ठित है परं विधिका निश्चय प्राप्त करना चाहते हैं। श्री महादेवजी ने उत्तर दिया कि आपके कार्यक्रम का अनुष्ठान आपकी ही इच्छा पर निर्भर होगा। परं नारायणों को अब अधिक विलम्ब करना उचित नहीं है। इनको चाहिये कि कुछ आगे-पीछे, जहाँ-तहाँ भारत में अवतार धारण कर संसारानलसन्तप्त हृदय मुमुक्षुजनों को उद्धृत करें। हम भी, जिसमें हमारा भेद मानना अनुचित होगा ’ फिर गोरक्षनाथ नाम की एक व्यक्ति प्रकटिक करेंगे वह और तुम सब मिलकर योगात्मक अद्वितीय औषधद्वारा दुःखत्रय से पीडि़त त्राहि-त्राहि शब्दान्वित मुमुज्ञु जनों की रक्षा कर उनको सन्मार्ग में लगाना। आपकी इस चेतावनी पर सिर झुकाकर नारायणों ने कहा कि भगवन् हमको यह और सूचित कर दीजिये कि हम किन-किन नामों से प्रसिद्ध होंगे। आपने कहा कि तुम्हारे में जो कविनारायण हैं ये मत्स्येन्द्रनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। करभाजननारायण गहनिनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। अन्तरिक्ष नारायण ज्वालेन्द्रनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। 

प्रबुद्ध नारायण कारिणपानाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। पिप्पलापन नारायण चर्पटनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। चमसनारायण रेवननाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। हरिनारायण भर्तृनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। द्रमिलनारायण गोपीचन्द्रनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे और कवि नारायण के अवतारी मत्स्येन्द्रनाथ हमसे ही योगदीक्षा प्राप्त करेंगे। गोरक्षनाथ मत्स्येन्द्रनाथ से योग दीक्षा ग्रहण करेंगे। गहनिनाथ गोरक्षनाथ से दीक्षा लेंगे। ज्वालेन्द्रनाथ हमारे से दीक्षा प्राप्त करेंगे। कारिणपानाथ ज्वालेन्द्रनाथ से ग्रहण करेंगे। चर्पटनाथ मत्स्येन्द्रनाथ से ग्रहण करेंगे। नागनाथ गोरक्षनाथ से ग्रहण करेंगे। रेवननाथ मत्स्येन्द्रनाथ से ग्रहण करेंगे। भर्तृनाथ गोरक्षनाथ से दीक्षा लेंगे। गोपी चन्द्रनाथ ज्वालेन्द्रनाथ से योग शिक्षा प्राप्त करेंगे। इस प्रकार पारस्परिक दीक्षा से दीक्षित हो तुम लोग मृत्युलोक में विचरते हुए जनों का उद्धार करोगे। जाओ हमारी आज्ञा को कार्यरूप में परिणत करने का अनुकूल अवसर प्राप्त करो। श्री महादेवजी की इस आज्ञा को शिरोधार्य समझ कर अभिवादनानन्तर नव नारायण फिर बदरिकाश्रम में आ बिराजे।

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