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जाग मचिन्दर गोरख आया I

श्रीमद् योगेन्द्र गोरक्षनाथजी के विमल कमलोपम हृदयात्मक स्थान में स्वकीय अद्भुत शक्ति के विश्वास का तथा गुरुभक्ति का अपरिमित अटल साम्राज्य ...

Tuesday, April 30, 2013

श्री मत्स्येन्द्र नाथ हनुमान युद्ध वर्णन

श्री मत्स्येन्द्रनाथजी शनैः-शनैः देशाटन करते तथा निज भक्तों को योग क्रियाओं का उपदेश देते हुए कतिपय प्रान्तों को पारकर बंग देश में पहुँचे और यहाँ से समुद्र के समीपवर्ती प्रान्तों में भ्रमण करते हुए कुछ दिन में जगन्नाथपुरी में आये। यहाँ श्री जगन्नाथजी के दर्शन मेले करने के अनन्तर अनेक तीर्थों के दर्शन तथा स्नान करते हुए आप कतिपय वर्षों में सेतुबन्धरामेश्वर आये और गुरुजी से प्राप्त की हुई मन्त्रात्मक सावरी विद्या का कहीं प्रयोग कर उसके विषय में दृढ़ निश्चयता प्राप्त करने के लिये किसी अनुकूल उपाय का निरीक्षण करने लगे। ठीक आपके अभिमतानुकूल कार्य करने का आपको एक सुभीता भी मिल गया और वह यह था कि श्री रामभक्त हनुमान् के साथ, जो कि कुछ काल से इसी जगह पर विराजमान था, मिलाप हो गया। बस इसी के संसर्ग से आपने अपना कार्य सम्पादित कर उसमें निश्चता प्राप्त करना स्थिर किया। उधर आपका यह अभिप्राय हनुमान्जी से भी छिपा न रहा। अतएव मत्स्येन्द्रनाथ जी चिन्तित कार्य सम्पादना में अनुकूलता उपस्थित करने के उद्देश्य से हनुमान्जी पूछ उठे कि आप कौन है और क्या कार्य करते हैं तथा कहाँ आपका स्थान है। मत्स्येन्द्रनाथजी ने उत्तर दिया कि हम योगी है। मत्स्येन्द्रनाथ यति हमारा नाम है। योगोपदेश द्वारा निज भक्तों को इस असार संसार से पार करना ही हमारा कार्य है। स्थान किसी एक जगह पर नहीं है। समग्र संसार ही हमारा स्थान है। चाहें जिधर जायें और चाहें जहाँ रहें। यह सुन हनुमान् बोल उठा कि तुम यति कैसे हो यति तो मैं हूँ। सांसारिक लोग भी मुझे ही यति कहते हैं। तुमको तो कोई भी यति नहीं कहता है। बल्कि यति कहना तो दूर रहा तुमको कोई जानता भी नहीं है। मैंने भी आज ही तुम्हारा नाम सुना तथा तुमको देखा है। ऐसी दशा में तुम्हारा अपने आपको यति बतलाकर प्रसन्न होना सर्वथा अनुचित है। मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि हम सर्व देशों में विचरते हैं अतः सब लोग हम को जानते हैं। बल्कि यही नहीं सर्व सिद्ध और विद्वज्जन भी हमको अच्छी तरह जानते हैं। हनुमान् ने कहा कि अये क्यों अतथ्य वाणी बोलते हो कि हमको सर्व सिद्ध और विद्वज्जन जानते हैं। हम पूछते हैं भला कहिय तुम्हारे में ऐसी क्या शक्ति है जिस वशात् वे लोग तुमको जानें और उनमें तुम्हारी प्रसिद्धि हो। मत्स्येन्द्रनाथजी ने उत्तर दिया कि यदि हमारी शक्ति को देखने की इच्छा है तो तुम स्वयं देख सकते हो। बस क्या था आप लोगों को तो अपने गूढाभि प्राय से सांसारिक लोगों में सावर विद्या का महत्त्व स्थापित करना था। अतएव इतना सुनते ही हनुमान के एकदम कृत्रिम क्रोध प्रकट हो गया और वह कहने लगा कि अच्छा अब तुम्हारी शक्ति का तुम्हारे यतित्व को देखूँगा। देखें तुम यति हो कि हम। तदनन्तर मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि अच्छा-अच्छा अवश्य ऐसा ही होना चाहिये हमारा यतित्व झूठा बनाकर हमको मिथ्या भाषी प्रमाणित करो। परन्तु यह याद रखना कि अपनी समग्र शक्ति से कार्य लेकर कुछ उठा न रखना। हनुमान ने कहा कि कुछ क्षण ठहरो अभी मालूम होता है मैं तुम्हारे यतित्व की पूजा कर डालता हूँ। इस कार्य के लिये मुझे किसी अन्य सहायक की भी आवश्यकता नहीं है। क्या तुम मेरे जगत् प्रसिद्ध सामथ्र्य को नहीं जानते हो जो एकाकीने ही विस्तृत समुद्र उल्लांघ कर समग्र लंकापुरी को भस्मसात् कर डाला था। और अशोक वाटिका को नष्ट-भ्रष्ट कर बड़े-बड़े तेजस्वी प्रभावशाली राक्षसों का हनन करते हुए श्री सीताजी की खबर लाया था। तथा जब अहिरावण लक्ष्मणजी के सहित श्री रामजी को पाताल में गया था तब समग्र युद्धकुशल राक्षसों को पराजित कर उनको निज सेना में लाया था। एवं लक्ष्मणजी के शक्ति लगी तब मैंने ही उत्तराखण्डस्थ दोनागिरि नामक पर्वत को अपने बल से उठाकर लंका में ला स्थापित किया था। तथा लक्ष्मणजी का प्राण बचाया था। इतना कहकर हनुमान ऊपर नीचे कूदने तथा घोर शुद्ध करने लगा। यह सुन और देख मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि अये हनुमन् तू बड़ा ही चंचल है। तेरी इस चंचलता से और किसी की नहीं तेरी ही हानि होगी। अब तो हनुमान् विस्तृत और भयंकर रूप धारणकर विविध स्वर से चिल्लाने लगा तथा अधिकाधिक तुफान करता हुआ शान्त न होकर पर्वत की ओर चला। वहाँ जाते ही एक भारमय पत्थर उठाकर उसने मत्स्येन्द्रनाथजी की ओर फेंका। परन्तु उन्हों के न लगकर वह उनके समीप में गिर पड़ा। यह देख हनुमान ने शीघ्रता से गदा उठाई जिससे मत्स्येन्द्रनाथजी के ऊपर प्रहार किया, दुर्भाग्य वह भी व्यर्थ हुई। और उसके हस्त से छुट कर पृथिवी पर गिर पड़ी। इसी अवसर पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने कहा कि अये चंचल तू शान्त हो जाय हमारे सम्मुख तेरा प्रयत्न सफल न होगा। कारण कि हम नाथ हैं और तू दास है। अतः हमारा तेरा युद्ध भी प्रशंसनीय नहीं है। बल्कि आज पर्यन्त कहीं भी स्वामी सेवक का युद्ध नहीं देखा तथा सुना गया है। पाठक ध्यान रखिये दोनों महानुभावों का युद्ध कोई द्वेष मूलक नहीं किन्तु संसार में सावर विद्या का महत्त्व प्रकट करने के प्रयोजन से ही था। तथापि यह देखने में आता है कहीं-कहीं बातों का बताकड़ा भी बन जाया करता है। अतएव बातों-बातों में मत्स्येन्द्रनाथजी के मुख से निकल जाने वाले कटु वाक्यों को सुनकर कुछ सच्चे क्रोध का आश्रय लेता हुआ हनुमान् आग्नेयास्त्र का सन्धान कर उसका प्रयोग करने के लिये उद्यत हुआ। जिसके उठाने मात्र से ही चैंतरफ अग्नि प्रकट हो गई। अग्नि के प्रज्वलित होने से अनेक पशु-पक्षी व्याकुल हो उठे। यह देख मत्स्येन्द्रनाथ जी ने अपनी झोली से एक चुकटी विभूति निकाल कर उसे वार्षिक मन्त्र के साथ प्रक्षिप्त किया। जिसके अमोघ स्वभाव से जल धारा पड़ने लगी। जिससे तत्काल ही आग्नेयास्त्र का तेज हत हो गया। और सभी पशु-पक्षी फिर आनन्दालाप करने लगे। इससे हनुमान् अतीव निराश हुआ आभ्यन्तरिक रीति से बड़ा ही विस्मित हुआ। अन्ततः सचेत हो कर अनेक वृक्ष पत्थर उखाड-उखाड मत्स्येन्द्रनाथजी के ऊपर फैंकता हुआ मौलिनामक पर्वत के समीप पहुँचा। तथा उसको उठाकर मत्स्येन्द्रनाथजी के ऊपर छोड़ना ही चाहता था ठीक उसी समय उन्होंने ऊपर को दृष्टि करी। तथा एक हस्त ऊपर को उठाकर कहा कि बस वहीं ठहर जाय। तब तो वह वहीं रूक गया और उसमें से फूट-फूट कर पत्थर नीचे गिरने लगे। अन्त में वह मौलिनामक पर्वत हनुमान् के हस्तों से छुटकर सिर पर आ गया। ऐसा होने के साथ-साथ ही मत्स्येन्द्रनाथजी के मन्त्र वशात् हनुमान् की सब शक्ति जाती रही। अतएव वह चलने पकडने, हिलने, आगे और पीछे पैर उठाने में असमर्थ हुआ एवं विचार करने लगा कि अब क्या करना चाहिये। मेरे तो पर्वत के भार से प्राण पक्षी हुए जा रहे हैं। यदि यह दुःख शीघ्र निवारित न हुआ तो मेरी अवश्य भयंकर दशा होगी, (अस्तु) उधर इतने ही कृत्य से मत्स्येन्द्रनाथजी सन्तुष्ट न हुए थे। उन्होंने इस अवसर पर स्वयं भी आग्नेयास्त्र का प्रयोग कर दिया जिससे पर्वत अत्यन्त तप्त हो उठा। तब तो अग्नि से दंदह्यमान हनुमान् ने बड़ी शीघ्रता के साथ अपने पिता वायु को स्मरण किया। तत्काल ही वायु ने ध्यान धर देखा कि आज अकस्मात् यह क्या हुआ। मेरा पुत्र हनुमान् कोई साधारण व्यक्ति नहीं है जो सहज ही किसी से तिरस्कृत हो जाय अथवा जो भी कुछ हो उस के समीप जा कर ही देखना उचित है। तदनु वायुदेव शीघ्र ही प्रकट हुए। उनका हनुमान् तथा मत्स्येन्द्रनाथजी के ऊपर दृष्टिपात हुआ। यह देखते ही उसने अपने पुत्र से कहा कि अये पुत्र तूने अति अज्ञान का कार्य किया है। क्या तू नहीं जानता था कि ये मत्स्येन्द्रनाथजी पूर्ण पुरुष कवि नारायण के अवतारी है। यह सुनकर भी हनुमान् तो न बोला परं फिर वायुदेव ने मत्स्येन्द्रनाथजी के समीप आकर कुछ सत्कारमय वाक्यों द्वारा उनको सन्तुष्ट बनाने का प्रयत्न किया। तथा कहा कि मैं आपकी शक्तिशालिता को अच्छी तरह जानता हूँ। हनुमान् उससे अनभिज्ञ था जिसने आपके साथ द्वेषता जैसा व्यवहार किया। अतएव अब आप कृपया दास पर क्षमा प्रदान करें। उसकी इस विनम्र अभ्यर्थना के साथ-साथ विनम्र हुए मत्स्येन्द्रनाथजी ने फिर अपनी झोली से भस्मी निकाली और उसे प्रावृषेण्य मन्त्र के साथ मौलि पर्वत की ओर फैंक दिया। जिससे प्रज्वलित हुआ पर्वत शीघ्र शीतल हो गया और हनुमान् के सिर से उतर कर जहाँ पहले था वहीं जा स्थिर हुआ। इसके बाद कुछ विभूति और भी निकालकर मत्स्येन्द्रनाथजी ने उसको शक्ति संचारक मन्त्र के सहित प्रक्षिप्त किया जिससे हनुमान् पूर्ववत् शक्तिमान हो गया। यह देख कुछ मुस्कराता हुआ हनुमान मत्स्येन्द्रनाथजी के समीप आया और विविध प्रकार से उनकी स्तुति करता हुआ बार-बार धन्यवाद देने लगा। तथा अज्ञानता से निकल जाने वाले अनुचित वाक्यों के विषय में क्षमा प्रार्थना करने लगा। इस पर मत्स्येन्द्रनाथजी ने कृतज्ञता प्रकट की और कहा कि अये हनुमन् मुझे विश्वास है जो अपना अभिप्राय है उससे तुम विचलित न हुए होंगे। यह सुन मुस्कराकर हनुमान से नहीं-नहीं कहा। तदनु फिर वायु ने हनुमान की और इशारा करते हुए कहा हे हनुमन तुम ऐसे महात्मा से फिर कभी विरोध नहीं करना। इन की जितनी शक्ति और विद्या इन्द्र को भी प्राप्त नहीं है। फिर हमारी तुम्हारी तो बात ही क्या है, ये चाहें तो सबको वश में कर सकते हैं। परं स्वयं किसी के वश में नहीं हो सकते हैं। हां नम्रतायुक्त पुरुष भक्ति से अवश्य इनको भी वश में कर सकता है अन्यथा नहीं। यह सुनकर हनुमान ने कहा कि अच्छा जो हुआ सो तो हो गया। जो फिर वापिस नहीं आता है परं इस निमित्त एक पूर्ण शक्ति कवि नारायण के दर्शन तो हुए यह भी ईश्वर की महती कृपा ही समझनी चाहिये। अये मत्स्येन्द्रनाथजी अब आप पूर्ण शान्त हो जायें। और मेरा यह शक्तिशस्त्र जिसको मैं आपके समर्पण करना चाहता हूँ ग्रहण कर लें। मत्येन्द्रनाथजी ने कहा कि मन्त्रात्मक एक सावरी विद्यारूप अस्त्र मेरे समीप इतना शक्तिशाली है जिसके सम्मुख अन्य किसी भी अस्त्रशस्त्र की कुछ पेश नहीं जाती है। फिर तुम्हारे शक्ति शस्त्र से हमारा कौन कार्य साध्य हो सकता है। हनुमान् ने कहा कि यह ठीक है आपका जो महत्त्व है वह अब छिपा नहीं रहा है उसको हम अच्छी तरह समझ गये हैं। बल्कि इसी हेतु से हम अपने कृत्य पर पश्चाताप प्रकट करते हुए एक उपहार स्वरूप से यह शक्ति शस्त्रप्रदान करते हैं। इत्यादि प्रकार से होने वाले उसके विशेष आग्रहानुरोध से मत्स्येन्द्रनाथजी ने शक्ति को अपना लिया। और देशान्तर पर्यटन के लिये वहाँ से प्रस्थान किया।

Monday, April 29, 2013

श्री गोरक्षनाथ चरित्र

पाठक ध्यान रखिये श्रीगोरक्षनाथजी को सजीव करते समय श्रीमहादेवजी ने जो अपना गूढ़ मन्त्र प्रदान किया था उससे यद्यपि आपका हृदय इतना महत्त्व प्राप्त कर चुका था कि आपने तप आदि का अवलम्बन किये बिना ही योग में पूर्ण कुशलता प्राप्त कर ली थी। तथापि प्रथा प्रचलित करने के लिये और तपश्चर्या आवश्यकीया है। यह वार्ता सूचित करने के लिये कुछ काल पर्यन्त तप करना ही उचित समझा तथा गुरुजी के सम्मुख इस बात को प्रकट भी कर दिया। अतएव इस विषय में प्रसन्नता सूचित करते हुए श्री मत्स्येन्द्रनाथजी कुछ दिन गोदावरी के तटस्थ उस स्थान में निवास करके सशिष्य बदरिकाश्रम में पहुँचे। वहाँ एक रमणीय स्थल देखकर आपने अपना आसन स्थिर किया और आन्तरिक भाव से श्री महादेवजी की स्तुति करी। जिसने श्री महादेवजी का ध्यान उनकी ओर आकर्षित किया। अतएव शिष्य की अभ्यर्थना पर पूरा ध्यान देते हुए श्री महादेवजी अविलम्ब से ही बदरिकाश्रम में आये। इधर मत्स्येन्द्रनाथजी ने ज्यों ही गुरुजी को आते हुए देखा त्यों ही आसन से उठ दो-चार पद आगे चलकर स्वागतिक वाक्यों का प्रयोग करते हुए उनको साष्टांग प्रणाम किया। ठीक इसी प्रकार गुरुजी का अनुकरण करते हुए गोरक्षनाथजी ने भी श्री महादेवजी का सत्कार किया। इस तरह पारस्परिक अभिवादन प्रत्याभिवादन अनन्तर जब तीनों महानुभाव यथायोग्य स्थल पर बैठ गये तब श्री महादेवजी ने कहा कि मत्स्येन्द्रनाथ किस कार्य विशेष के लिये हमारा स्मरण किया गया है। उत्तरार्थ उन्होंने कहा कि यह हमारा शिष्य गोरक्षनाथ कुछ दिन पर्यन्त तप करने में नियुक्त होना चाहता है। अतएव कठिन तपश्चर्या काल में कुछ समय के लिये किसी दूसरे निरीक्षक पुरुष की आवश्यकता है। मैं यहाँ निवास कर इस कार्य में सहायता नहीं दे सकता हूँ। कारण कि मैंने नीचे के प्रान्तों में जाकर किसी विशेष कार्य का आरम्भ करना है। यह सुन दयानिधि भगवान् महादेवजी ने कहा कि ठीक है तुम इसको तप करने में प्रोत्साहित करो। इसके शरीर वा तप विधि में कोई हानि नहीं आयेगी। हम स्वयं इसकी रक्षा करने के लिये उत्कण्ठित हैं। क्या तुम नहीं जानते मनुष्य को एकान्तिक स्थान में बैठकर स्वकीय चित्त को स्वाधीन रखते हुए मेरी प्रार्थना करना ही मुश्किल है। परन्तु वैसे पुरुष की सर्व प्रकार से रक्षा करना मेरे लिये कोई कठिन बात नहीं है। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और गोरक्षनाथजी की ओर इशारा करते हुए कहने लगे कि धन्य-धन्य तुम्हारे भाग्य जो कि त्रिलोकी के नाथ स्वयं तुम्हारी रक्षा के लिये प्रथमतः ही साकांक्ष है। तदनु शिष्य प्रशिष्य से सत्कृत हो श्री महादेवजी तो कैलाश के लिये प्रस्थानित हो गये। इधर मत्स्येन्द्रनाथजी ने जिसमें पैर का अंगुष्ठा प्रविष्ट हो सकता हो ऐसी एक लोहे की खोली तैयार कराई और एक दिन अच्छा मुहूर्त देखकर उसे गोरक्षनाथ जी के अंगुष्ठ में पहनाया। एवं ऊध्र्वबाहु तथा नासिकाग्रदृष्टि कराकर बारह वर्ष के लिये शिष्य को तप करने में नियुक्त किया और त्रिलोकी के नाथ इसके रक्षक हैं ही यह स्मरण कर गोरक्षनाथजी से कहा कि बेटा हम तो नीचे देशान्तर की भूमि पर भ्रमण करने के लिये जाते हैं भगवान् अलक्ष्य पुरुष करे तुम्हारा कल्याण हो। परन्तु मैं प्रस्थान के समय एक वार्ता तुम्हें बतला देता हूँ केवल दत्त चित्त होकर उसे सुन लेने मात्र से ही कार्य सिद्ध नहीं होगा प्रत्युत उसका प्रतिक्षण स्मरण रखना होगा और वह यह है कि कतिपय दिनों में तुम्हारा तप खण्डित करने के लिये स्वर्ग से बड़ी-बड़ी सुन्दर अप्सरायें तथा देवता आयेंगे तथा अनेक प्रकार के लोभ नृत्यादि दिखलाकर तुम्हारा चित्त मोहेंगे। एवं ब्रह्मा विष्णु महेश जी का नकली रूप धारण कर झूठा वरदान देने के लिये तैयार हो जायेंगे। तथा कहेंगे कि हे तपस्विन् अब तुम तप करना छोड़ दो क्योंकि तुम्हारा तप पूर्ण हो गया है। इसीलिये हम सब तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हैं तुम वर माँगो। परन्तु तुम उनके ऐसे प्रलोभन में आना तो दूर रहा उनक ओर दृष्टि तक नहीं करना। यह देख उन्हें स्वयं झख मारकर वापिस लौटना पड़ेगा। गुरुजी की यह अन्तिम आज्ञा सिर धरते हुए गोरक्षनाथजी ने अतीव कोमल वाणी से नत्रतापूर्वक उनको प्रस्थान करने के लिये कहा। तदनु मत्स्येन्द्रनाथजी ने वहाँ से प्रस्थान किया और चलते समय एक बार आप फिर कह उठे कि देखना देवताओं के छल बड़े ही दुर्विज्ञेय होते हैं। मैं बारह वर्ष की पूर्ति के समय जब वापिस लौटूँगा तब ही तुमको बैठा दूगा। इस अवधि के पूर्व बैठो तो तुम्हें मेरी ही आज्ञा है यह कहकर मत्स्येन्द्रनाथजी तो गमन कर गये। गोरक्षनाथजी वायु के आहार से ही शरीर की वृत्तिका संचालन करने के लिये अभ्यास करने लगे। कुछ ही दिन में आपका यह अभ्यास परिपक्व हो गया जिससे शरीर शुष्क हो लकड़ी जैसा बन गया। त्वचा अस्थियों में प्रवेश कर ऐसी प्रतीत होती थी मानों है ही नहीं। शरीर के चैंतरफ कुशादितृण इस प्रकार ऊग गया था जिससे तपस्वीजी का शरीर आच्छादित हो गया। केवल मन्दस्पन्द कमल की तरह स्फुरण करते हुए तेजस्वी नेत्र ही तृण झरोखे से चमकते दिखाई देते थे। आपके इस कठिन तप प्रताप से वहाँ वर्षा अधिक होती थी जिससे जगह-जगह पर जल के झरने बह रहे थे और फल-फूलों से युक्त वृक्षों के ऊपर बैठकर फल खाते हुए नाना प्रकार के पक्षी नाना ही प्रकार के मधुर-मधुर शब्द कर रहे थे। अनेक प्रकार के पुष्पों की सुगन्ध से सुगन्धित हुआ पर्वत ऐसा शोभायमान हो गया था मानों दूसरा कैलास ही तैयार हो गया हो। ठीक ऐसे ही अवसर में हिमालय पर्वत की सैर करने के अभिप्राय से विमानारूढ़ हुए बसुजी स्वर्ग से आ रहे थे। उन्होंने ज्यों ही इस पर्वत के ऊपर पदार्पण किया त्यों ही इसकी औग्दामनिक सुगन्ध वसुजी के विमान तक पहुँची। यह देखते ही बसुजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और आभ्यन्तरिक विचार से कहने लगे कि क्या कारण है यह पर्वत जितना सुगन्ध युक्त है उतना अन्य कोई नहीं जान पड़ता है। अच्छा नीचे उतरकर देखना चाहिए। अतः जब बसुजी नीचे आये और विमान से उतर इधर-उधर भ्रमण करने लगे तब तो पर्वत की शोभा ने बसुजी का चित्त इस प्रकार मस्त बना दिया कि कुछ क्षण तो उनको अपने विमान का भी स्मरण न रहा। अनन्तर जब अपने आप में आये तो अत्यन्त आश्चर्य प्रकट करने लगे तथा कहने लगे कि हमने अब जैसी इस पर्वत की शोभा कभी पहले नहीं देखी थी। क्या ही आश्चर्य है बिना ही बसन्त ऋतु हुए यहाँ के वृक्षों ने बसन्त ऋतु को बुला भेजा है। परन्तु मालूम होता है यह व्यतीकर स्वतः नहीं अवश्य यहाँ किसी जगह पर कोई महापुरुष विराजमान होगा जिसके तप और भाग्य ने इस समय बसन्त ऋतु का आकर्षण कर लियेा है। जिसके द्वारा पशु-पक्षी और वृक्ष स्वीय-स्वीय यौवन की सूचना दे रहे हैं। अस्तु। उस समय बसुजी ने बन की शोभा देखकर इन्द्रपुरी के नन्दन वन से भी अधिक आनन्द प्राप्त किया। उधर से ठीक इसी अवसर पर श्री महादेवजी भी अकस्मात् यहीं आ निकले। जिन्हें देखते ही बसु जी ने यथा योग्य प्रणाम किया। इसका उत्तर देते हुए श्रीमहादेवजी ने कहा कि बसुजी चलो तुमको एक तपस्वी के दर्शन करायेंगे। बसुजी ने कहा चलिये भगवन् आपकी कृपा से मुझे भी आज उस महानुभव का दर्शन हो जायेगा। तदनु दोनों महानुभाव जब गोरक्षनाथ जी के समीप गये तब समस्त शरीर का भार पैर के एक अंगुष्ठे पर धारण किये हुए तथा रुधिर शुष्क हो जाने के कारण पिंजर हुए ऊध्र्वबाहु शरीर वाले एक तपस्वी उनके दृष्टिगोचर हुए। जिन्हें उनकी कठिन से कठिन अवस्था का मर्म समझते हुए बसुजी का हृदय दया से परिपूर्ण हो आया। अतएव उसने श्रीमहादेवजी से कहा कि भगवन् यह तपस्वी अत्यन्त घोर तप कर रहा है ऐसा तप करता हुआ कोई आज पर्यन्त हमारे देखने में नहीं आया है। इसके माता-पिता और गुरुजी को धन्यवाद है जिन्होंने ऐसे सुपात्र पुरुष को पैदा किया और तप करने में इतना दृढ़ विश्वासित किया है। अब इसका तप पूर्ण हो गया है अतः बैठा देना चाहिये। श्री महादेवजी ने कहा कि इसने बारह वर्ष की अवधि रखकर तप करना आरम्भ किया है इसलिये यह उसी अवधि पर बैठाया जायेगा। इसक उत्तर में बसुजी और क्या कहते, अतः तदनन्तर श्री महादेवजी के कथन पर अच्छा आपकी इच्छा यही कहना पड़ा। तदनन्तर श्री महादेवजी तो कैलास को चले गये। और बसुजी इन्द्र की सभा में पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने गोरक्षनाथजी के तप की प्रशंसा की। तत्काल ही इन्द्र के भी गोरक्षनाथजी के तप स्थान देखने की इच्छा उत्पन्न हुई। तथा विमान तैयार कर लेने की आज्ञा देते हुए उसने बसुजी से कहा चलो ऐसे महात्मा का हमको भी दर्शन करा लाओ। बसुजी फिर वापिस लौटने को तैयार हो गये और विमानरूढ़ हुए दोनों महानुभाव कुछ देर में घटनास्थल में आये। गोरक्षनाथजी के तप काठिन्य को देखकर आभ्यन्तरिक रीति से विस्मित हुआ इन्द्र, यह तो घोर तप में प्रवृत्त है ऐसा न हो कभी मेरा राज्य प्राप्त करना ही इसका उद्देश्य हो। यह विचार कर अत्यन्त शोकान्वित हुआ। तथा अनेक भावों में परिणत हुआ वापिस ही लौट गया। राजधानी में पहुँचकर उसने एक महत्ती सभा की। जिसमें सभी श्रेणी के देवता विराजमान थे। उन सब के समक्ष इन्द्र ने प्रस्ताव किया तथा आज्ञा दी कि जिस किसी उपाय से गोरक्षनाथ का तप खण्डित करना चाहिये। अन्यथा बहुत सम्भव है वह मेरा पद स्वायत्त कर लेगा। उसके कर्मचारियों ने उसकी इस आज्ञा का सत्कार करना ही उचित समझा। अतएव उन्होंने उस समय इन्द्रजी की आज्ञा स्वीकृत कर अनन्तर अनेक प्रकार के भोजन तथा गान्धिक द्रव्यों के सहित बड़ी-बड़ी मनोहारिणी रुपवती अप्सरायें एवं अनेक रूपान्तर धारण क्रिया में चतुर देवता गोरक्षनाथजी के तपस्थान में भेजे। यह देख किसी देवता ने इन्द्र को इस बात से सचेत किया कि गोरक्षनाथजी के रक्षण की जुम्मेदारी श्री महादेवजी ने ग्रहण की है। अतएव उनकी प्रक्रिया खण्डन के द्वारा ऐसा न हो कभी और ही अनिष्ट उत्पन्न हो जाय। उसने इस चेतावनी पर उपेक्षा प्रकट कर, नहीं यह कार्य आन्तर्धानिक रीति से किया जायेगा यह कहते हुए उनको जाने की आज्ञा दे ही डाली। वे छली लोग गोरक्षनाथजी के तपस्थान में आये। यद्यपि उनकी यह कार्यावली श्री महादेवजी से भी छिपी न रही थी तथापि आपने, हम गोरक्षनाथ का कुछ अनिष्ट तो नहीं होने देंगे परं देखें इसमें दृढ़ता कितनी और मत्स्येन्द्रनाथ का अन्तिम वचन याद है कि नहीं, यह सोचकर उनको अपने चरित्र करने का अवसर दे दिया। अस्तु। उन देवताओं ने जब गोरक्षनाथजी के विस्मापक शरीर की दशा देखी तब तो उनके रोम खडे हो गये। तथा उनके हृदयात्मक सागर में करूणात्मक तरंगायें झकोले मारने लगी। साथ ही अपूर्व तपस्वी निश्चित कर उनके हृदय में भय भी उत्पन्न होता था। इसी हेतु से उन्होंने गोरक्षनाथजी के विषय में किसी भी प्रकार का छल-कपट न करके उनको निर्विघ्न रहने देने के लिये इन्द्र को सूचित करना पड़ा। परन्तु वे बिचारे क्या करते और कब तक ऐसा कर सकते थे आखिर तो इन्द्र के नोकर ही थे। यही कारण हुआ उसकी सदण्ड आज्ञा सुनकर उनको अपना कृत्य करना ही पड़ा। अर्थात् उन्होंने प्रथम तो मधुर से मधुर वस्तु सेवन के लिये गोरक्षनाथजी को बाध्य किया। बल्कि यहाँ तक कि उनके मुख में मिठाई लगाकर आस्वादन लेने के भ्रम से व्यर्थ ही कष्ट दिया। परं जब इस कृत्य से उनको कुछ भी सफलता प्राप्त न हुई अर्थात् तपस्वीजी ने खाना तो दूर रहा उनकी और दृष्टि तक भी न करी तब तो फिर महात्माजी के अति समीप आकर अप्सरायें अनेक प्रकार से नृत्य करने लगी। और शृंगार विषय के विविध सुरीले ले राग गाने लगी। परं श्री महादेवजी के प्रशिष्य ने अपना आसन दृढ़ रखते हुए उनकी ओर अपने चित्त को कीाी न जाने दिया। तथा गुरुजी के वचन का स्मरण करते हुए उसका प्राण जाने तक पालन करने का निश्चय कर लिया। अन्ततः वही हुआ जो श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने प्रथमतः ही कह डाला था। अर्थात् अप्सरायें कूद-कूद कर अत्यन्त श्रीमित हो गई। अतएव वापिस लौट कर इन्द्रपुरी को चली गई। वहाँ जाने पर इन्द्र प्रार्थना की कि भगवन् वह तपस्वी कोई साधरण पुरुष नहीं है। उसने हमारा सब प्रयत्न विफल कर डाला। यह सुन कुछ कुपित और निराश हुआ इन्द्र उन्हीं छली देवताओं के सहित गोरक्षनाथजी के समीप आया। एवं ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों देवों का नकली रूप धारण कर कहने लगा कि हे योगिन् आसन खोलकर बैठ जाओ। तुम्हारा तप समाप्त हो गया है, हम तीनों देव प्रसन्न होकर तुम्हें वर देने के निमित्त से यहाँ आये हैं। अतः अब हमारे से कुछ वर माँगों। परन्तु तपस्वीजी के तो गुरुजी का वाक्य हृदय में समा गया था एवं उनका दृढ़ निश्चय था कि गुरुजी के आये बिना ब्रह्मादि देवता छै मास तक भी मेरे से बैठने का अनुरोध करें तो भी नहीं बैठूँगा। यही कारण हुआ इन्द्र का भी प्रयत्न निश्फल रहा जिससे इन्द्र को और भी कुछ भय हुआ और वह अपनी राजधानी को लौट गया। वहाँ जाने पर भी प्रतिदिन इसी वार्ता का ध्यान रखता था कि अवश्य ऐसा अवसर उपस्थित होने वाला जान पड़ता है जिससे शायद ही मेरे पद तादवस्थ्य रहे। यद्यपि इन्द्र की दृष्टि में उसका पद उसे बहुत बड़ा और अच्छा मालूम होता था। परन्तु गोरक्षनाथजी की दृष्टि में वह पद लेस मात्र भी शुभ देने वाला नहीं दिख पड़ता था। अस्तु कतिपय दिनों में जब तपस्र्यावस्था की समाप्ति का दिन समीप आ गया तब श्री मत्स्येन्द्रनाथजी भी वहाँ आ पहुँचे और अपने परम् प्रिय सुपात्र शिष्य को उसी तरह खड़ा हुआ देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। कुछ ही क्षणों के अनन्तर उधर से श्रीमहादेवजी भी वहीं आ गये। दोनों की पारम्परिक आदेश 2 आत्मक प्रणाम के अनन्तर भी महादेवजी ने अपने शिष्य से कहा कि अब तो इसको बैठा देना उचित है। इस प्रकार गुरुजी की आज्ञा प्राप्त कर मत्स्येन्द्रनाथ जी ने गोरक्षनाथजी का आसन खुला दिया और उसको अपनी गोद में बैठाकर अत्यन्त सत्कृत किया। शिष्य को अपना वचन पूरा करते हुए देखकर मत्स्येन्द्रनाथ जी के इतना प्रेम उत्पन्न हो गया था कि उनके नेत्रों में जल भर आया। तदनु श्रीमहादेवजी ने भी प्रशिष्य को गोद में बैठाकर शिष्य का अनुकरण करते हुए असंख्य धन्यवाद दिया। तथा मत्स्येन्द्रनाथ जी की अनुमति के अनुसार फिर कैलास को प्रस्थान किया। उधर मत्स्येन्द्रनाथ जी कुछ दिन बदरिकाश्रम में निवास करते गोरक्षनाथजी को एकाएकी भ्रमण करने की अनुमति दे स्वयं फिर नीचे के प्रान्तों में आकर विचरने लगे।

Sunday, April 28, 2013

श्री गोरक्षनाथ उत्पत्ति वर्णन



श्री मत्स्येन्द्रनाथजी ने योग में सम्यक् कुशलता प्राप्त करने के अनन्तर योग प्रचार में यथार्थता का बीज अंकुरित करने के लिये श्री महादेवजी की प्रेरणानुरोध से चिरकालावधिक समाधि में प्रवेश किया। सौभाग्य की बात है आपका यह समय कुशलता के साथ व्यतीत हो गया। इसके अनन्तर आपने कैलास से अन्य स्थल में भ्रमण करने की इच्छा से श्रीमहादेवजी के समक्ष प्रस्ताव किया। तत्काल ही अमोघ आशीर्वाद के सहित अनुकूल अनुमति मिलने पर श्रीमत्स्येन्द्रनाथ जी वहाँ से प्रस्थानित हुए और वे कुछकाल पर्यन्त इतस्ततः भ्रमण करते-करते श्री गंगाजी के तटस्थ प्रदेशों में आये। यहाँ से अम्बादेवी के स्थान में पहुँचे। वहाँ अतीव रमणीय ऐकान्तिक स्थान देखकर आपका चित्त अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ। यही कारण था आप कुछ दिन तक वहीं निवास करते रहे। अनन्तर वहाँ से भी आप मार्तण्ड पर्वत पर पहुँचे और नागपत्र नामक एक वृक्ष के नीचे विश्रामकर सूर्य आदि देवताओं के निमित्त आपने एक अनुष्ठान किया जिसकी समाप्ति होने पर इन्द्रादि सभी देवता उपस्थित हुए। और प्रसन्नतापूर्वक वर देने के लिये उत्कण्ठित हुए कहने लगे कि हे योगिन् हम सब देवता तेरे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हैं। अतएव किसी अभीष्ट वर की याचना करो। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथ जी ने कहा कि यदि आप लोगों की ऐसी कृपा है और वर देना चाहते हैं तो आवश्यकता पड़ने पर हम शीघ्र उपस्थित होंगे यह वचन प्रदान करने की कृपा करो। यह सुन एकमति होकर सभी देवताओं ने तथास्तु-तथास्तु शद्ध की घोषणा कर वह वचन प्रदानित किया और स्वकीय विमानारूढ़ हो निज-निज स्थान को प्रस्थान किया। उधर कुछ काल मार्तण्ड पर्वत पर निवास कर मत्स्येन्द्रनाथजी ने फिर जान्हवी के तटस्थ प्रान्तों में विचरना आरम्भ किया। और शनैः-शनैः इधर-उधर के कतिपय मास पर्यन्त होने वाले भ्रमण के अनन्तर आप बंग देशस्थ मायागिरि नामक पर्वत पर पहुँचे। यहाँ भी कुछ काल व्यतीत कर फिर उड़ीसा देश की और प्रस्थानित हुए। वहाँ जाकर जगन्नाथपुरी में आपने श्री जगन्नाथजी के दर्शन करने के अनन्तर अनेक प्रान्तों को पार कर कुछ दिन में गोदावरी-गंगा के समीपवर्ती प्रदेश में पदार्पण किया। इसी प्रान्त में एक चन्द्रगिरि नामक नगर में जब आप पहुँचे तब तो आप भिक्षा के बहाने किसी अन्य असाधारण कार्य सम्पादित करने के लिये अलक्ष्य पुरुष के नाम की घोषणा करते हुए नगर में प्रविष्ठ हुए। और स्वकीय चिन्त्यकार्य साधनानुकूल गृह की अन्वेषणा करने लगे। इतने ही में सदाचारनिष्ठ वसिष्ठ गोत्र का एक सुराज नामक ब्राह्मण आपके सम्मुखीन हुआ। जो आपको देखते ही आपके चरणों में गिरा। और साष्टांग प्रणाम करने के पश्चात् वडे+ही आदर के सहित आपको अपने गृह पर ले गया। तथा अनेक प्रकार का भोजन तैयार कराकर एक स्वच्छ थाल में परोस स्वयं कार्यान्तर के लिये बाहर चला गया। साथ ही ब्राह्मणी को सचेत कर गया कि मैं किसी विशेष कार्य सम्पादन के अनुरोध से बाहर जाता हूँ तुम महात्माजी के सत्कार में कुछ उठा न रखना। यह सुनकर सरस्वतीजी ने सिर झुकाकर पति की आज्ञा स्वीकार की और मत्स्येन्द्रनाथजी की सेवा में विशेष चित्त दिया। अर्थात् मत्स्येन्द्रनाथजी के आगे भोजन का थाल रखकर स्वयं व्यजन (पंखा) ले वायु करने लगी। जिससे अतीवानन्द के साथ भोजन कर आप अत्यन्त प्रसन्न हुए। ठीक इसी अवसर में सरस्वती ने महात्मा जी को एक अन्य दिव्य आसन पर बैठाकर कुछ फल समर्पित किये। और पंखा ले फिर वायु करने के द्वारा उसने अपनी श्रद्धा की पराकाष्ठा दिखलाई। एवं अत्यन्त उदासीन हो नेत्रों में जल भरकर कुछ कहने के लिये उत्सुक हुई परं लज्जा के कारण कुछ भी न कह सकी। उसकी यह विचलित दशा देखकर मत्स्येन्द्रनाथ जी स्वयं ही पूछ उठे कि देवी कहिये अकस्मात् क्या हुआ। ऐसा कौन दुःख आ प्राप्त हुआ जिसने तुम्हारे हृदय को इतना त्रास दिया है। इस समय जो दुःख तुम्हें प्राप्त हुआ है उसे अवश्य प्रकट करो। मैं सत्य बोलता हूँ उसका निवारण करके ही तुम्हारे गृह का अन्न सार्थक करूँगा। तब आपका तथ्य वाक्य सुनकर उस पर विश्वास रखती हुई ब्राह्मणी ने कहा कि भगवन् आप समस्त वृत्तान्त जानते ही हैं तथापि मेरे से जो पूछते हैं तो मैं कह देती हूँ अन्य वस्तु तो आपकी महती कृपा से सभी पर्याप्त हैं। परन्तु कोई पुत्र ही नहीं है जिसके बिना हमारी यह सम्पत्ति किम्प्रयोजन है। अतएव इसी शोक से ग्रस्त होने के कारण मेरी ऐसी खिन्न दशा हो गई है, आगे आप समर्थ हैं। यदि कुछ भी दया की दृष्टि से मेरी ओर देखेंगे तो मैं विश्वास रखती हूँ और साभिमान कह डालती हूँ कि मैं अवश्य अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लूँगी। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथ जी के हृदय में और भी दया का प्रवाह आरम्भ हो चला। इसीलिये आपने अपनी झोली में हस्त डाला। उससे एक चुटकी विभूति की निकाल कर सरस्वती को प्रदानित की।
साथ ही कह सुनाया कि इसको अवश्य खा लेना इसके प्रभाव से तुम्हारे एक अद्वितीय पुत्र उत्पन्न होगा। उसके विषय में मैं यह तो प्रतिज्ञात्मक वाक्य नहीं कह सकता कि वह तुम्हारी सम्पत्ति का उपभोग करेगा परं यह अवश्य है कि तुम्हारे गृह में जन्म लेने से तुम्हारा और स्वयं उसका यश इस लोक में नहीं तीनों लोकों में प्रस्तृत हो जायेगा। और जिस प्रकार असंख्य तारागण के मध्य में चन्द्रमा बिराजमान है वैसे ही वह भी सर्वसिद्ध समाज में शिरोमणि हुआ सुशोभित होगा। बल्कि इतना ही नहीं यहाँ तक कि अनेक देव-दानव उसकी वन्दना किया करेंगे और हम उसको मंत्र प्रदान करेंगे। देखना कभी हमारे वचन में अविश्वास कर बैठे। इस विभूति को अवश्य खा लेना। हम लोग रमतेराम हैं। निष्प्रयोजन किसी एक जगह पर अधिक निवास करना उचित नहीं समझते हैं। अतः जाते हैं, बारह वर्ष में फिर यहाँ आयेंगे। भगवान् आदिनाथ करै तुम्हारा सदा ऐसा ही विश्वास बना रहे। इस प्रकार ब्राह्मणी को यथेष्ट सन्तोषित कर मत्स्येन्द्रनाथजी फिर तीर्थयात्रार्थ प्रस्थान कर गये। इधर सरस्वती ने सादर ग्रहण की हुई भस्मी को एक वस्त्र में बान्ध कर अल्मारी में रख दिया और वह गृहकायान्तर में व्यग्र हो गई। इतने ही में एक पड़ौसिन (समीपगृह वाली स्त्री) उसके गृह पर आई। उसको देखते ही सरस्वती के झटिति वह बात याद आ गई। अतः उसने उसके समक्ष कहा कि अये बहिन आज एक बड़े ही पहुँचे हुए महात्मा हमारे घर पर आये हैं। हमने उनको श्रद्धा के साथ विविध भोजन खिलाया था जिससे वे महात्मा अतीवानन्दित हुए। और अपने हस्त से एक चुटकी विभूति की मुझे दे गये। जिसके खाने से महा तेजस्वी लड़का उत्पन्न होगा। यह सुनकर पड़ौसिन बोली अये बहिन मैं तो आज तक यही जानती थी कि तू बहुत चतुर है। परन्तु आज मालूम हुआ कि तू तो प्रथमदर्जे की भोली है। भला कभी भसमी खाने से भी पुत्र हुआ करता है। यदि उस महात्मा की विभूति में पुत्र उत्पन्न करने की शक्ति होती तो तू प्रथम यही सोचकर देख वह अपनी उदर पूर्ति के लिये भिक्षा मांगता हुआ घर-घर क्यों फिरता। किसी एक जगह पर बैठकर ही सर्व सामग्रियों का उपभोग कर सकता था। अतएव मुझे तो विश्वास नहीं होता है कि वह जो कुछ कह गया है कहाँ तक सत्य है। आगे तेरी इच्छा भस्मी खाना अथवा न खाना। यह सुन सरस्वती ने कहा कि बहिन मैं भूल नहीं कर रही हूँ सच्च पूछिये तो मुझे तू ही भ्रम में पड़ गई मालूम होती है। महात्माओं का घर-घर भिक्षा माँगना और फिरना केवल अपनी उदर पूर्ति के निमित्त नहीं परोपकार के लिये ही समझना चाहिये। ये लोग अपने आप में जिस मनुष्य का विश्वास निश्चित कर लेते हैं उसका असाधारण उपकार कर डालते हैं। ठीक यही वृत्तान्त हमारे विषय में भी समझना उचित है। रह गई विभूति में पुत्रोत्पत्ति करणानुकूल शक्ति की बात, वह यदि हमारा विश्वास न हो तो शक्ति भी अशक्ति का कार्य कर सकती है। परन्तु यह बात नहीं है हमारा तो पूर्ण विश्वास है। इसीलिये इस विभूति की शक्ति हमारा कार्य पूरा करेगी, क्योंकि विश्वास में ही देव है संसार में यह बात किसी से छिपी नहीं है। इस प्रकार पड़ौसिन ने आभ्यन्तरिक ईष्र्या से सरस्वती की जो विभूति खाने में अश्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न किया था उसके वाक्य सुनने से सरस्वती के दृढ़ विश्वास में किंचित् भी शिथिलता न आई और उसने सश्रद्धा विभूति को खाही लिया। तदन्तर कतिपय दिन व्यतीत होने पर सरस्वती को स्वकीय हृदयस्थ गर्भ का अनुभव हो आया। जिससे उसके पूर्ण विश्वास में और भी दृढ़ता हो गई। अतएव वह प्रतिदिन मत्स्येन्द्रनाथजी के स्वरूप का ध्यान करती हुई आभ्यन्तरिक रीति से ईश्वर की कृपा दृष्टि के विषय में अनेक धन्यवाद प्रकट करने लगी। एवं यह भी चिन्तन करने लगी कि कब वह दिन आयेगा जिसमें पुत्र का मुख देखने से हमारा यह सांसारिक भोग सफल होगा। इसी तरह अनेक प्रकारके संकल्प करते-कराते पुत्रोपलब्धि का समय भी निकट आ पहुँचा। दोनों पति-पत्नि को अपने प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त होने लगी तथा उनको अपने विषय में समस्त प्रकार के शुभलक्षण दिखाई देने लगे। ज्यों ही प्रसवकाल अतिसमीप आ गया त्यों ही सुराज ने अपने अपर ग्रामनिष्ठ सम्बन्धियों के यहाँ सूचना दे दी। यह खबर होते ही बड़े साहस के साथ अनेक नर-नारियों ने उपस्थित हो सुराज के घर की शोभा बढ़ा दी। ठीक ऐसे ही अवसर पर दो ही दिन के बाद लड़का उत्पन्न हुआ मानों अर्ध रात्रि के समय अत्यन्त अन्धकार में चन्द्रमा का प्रादुर्भाव हो गया हो। जिसके असह्य तेज को देखकर एक बार तो सरस्वती तथा धाय आदि अन्य उपस्थित स्त्रियों के नेत्र बन्ध हो गये। यह देख परम् हर्ष के साथ सम्बन्धी घरों में सूचना दे दी गई। बस क्या था सूचना मिलते ही अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे और मंगल गायन होने लगे। अनेक प्रकार से दान-पुण्य भी होने लगे। लक्ष्मी की अधिकता होने के कारण सुराज ब्राह्मण सहर्ष दान करता हुआ अपने मन में इतना आनन्द हो रहा था मानों आज उसे त्रिलोकीका राज्य मिल गया है। अस्तु। इसी प्रकार के आनन्दात्मक समुद्र में निमग्न हुए उसके 5 वर्ष व्यतीत हो चले। तब तो उसने विचार किया कि हम लोग ब्राह्माण हैं हमारा मुख्य कार्य प्रथम विद्या में कुशलता प्राप्त करना है। अतएव इस चिरग्राह्यरीत्यनुसार ऐसी अवस्था से ही लड़के को विद्याभ्यास के लिये नियुक्त कर देना सर्वथा उचित होगा। ऐसा परामर्श करते-करते कतिपय मास बीत गये परं अभी तक पुत्र को किसी विद्वान् के अर्पण नहीं किया। कारण कि उस समय उसके चित्त में दो प्रकार की खींचातानी हो रही थी। एक तो यह थी कि सुराज स्वयं महाविद्वान् और सदाचार निष्ठ वास्तविक ब्राह्मण था। अतः अपने ब्राह्मणत्व की रक्षार्थ पुत्र को किसी पण्डित के समर्पण करना चाहता था और पुत्र को भी अपने तुल्य सदाचारी बनाना चाहता था। द्वितीय यह थी कि प्रत्येक चेष्टाओं से पुत्र अत्यनत सुयोग्य मालूम होता था इसी हेतु से सुराज का लड़के के ऊपर अपरिमित मोह होने से अपने नेत्रों के आगे से उसको दूर भी करना नहीं चाहता था। अन्ततः उसने अगले दिन मैं अवश्य लड़के को विद्याध्ययन के लिये किसी विद्वान के अर्पण कर दूँगा ऐसा दृढ निश्चय करके इस विषय में अपनी पत्नि का भी मत लेना उचित समझा। आज का दिन व्यतीत हुआ। सायंकाल का आगमन होने पर भोजनादि से निवृत्त हो जब ब्राह्मण-ब्राह्मणी एक स्थाननिष्ट हुए तब अनुकूल अवसर जानकर सुराज ने उक्त प्रस्ताव किया। जिसके सुनते ही ब्राह्मणी कहने लगी कि नहीं मैं अभी बालक को कहीं नहीं भेजूँगी अधिक तो क्या मैं एक क्षण भी अपने नेत्रों से दूर करना नहीं चाहती हूँ। फिर यह भी बात है कि अभी तो यह बालक ही है व्यून से व्यून बारह वर्ष का तो होने दीजिए। अभी विद्या पढ़ने के लिए बहुत समय अवशेष हैं। इसके उत्तर में सुराज ने कहा कि विद्याभ्यास करने के लिए पाँच वर्ष की अवस्था से ही बालक को प्रयत्नलीन करना चाहिए। यह सर्व ऋषि-मुनियों ने स्वीकार किया है। फिर तू क्यों हठ करती है इत्यादि प्रकार से ब्राह्मणी को बहुत ही समझाया। परन्तु पुत्र की भूखी सरस्वती का पुत्र में इतना स्नेह था उससे उसका एकक्षण मात्र का वियोग भी नहीं सहा जाता था। यह देख आखिर ब्राह्मण भी निष्फल प्रयत्न होकर चुप बैठ गया। इसी प्रकार आठ वर्ष व्यतीत हो गये। बालक यद्यपि यथा समय खेल के लिये सहयोगियों के साथ क्रीड़ास्थल में भी अवतरित होता था तथापि अधिक समय गौओं की सेवा से ही सम्बन्ध रखता था। ब्राह्मणी तो चाहती थी कि यह घर से कभी कहीं बाहर न जाय परं वह सहर्ष गौओं की सेवार्थ अपने भृत्य के साथ-साथ क्षेत्र में भी चला जाता था। ठीक इसी प्रकार करते कराते जब पूरे एकादस वर्ष चले गये तब ब्राह्मण ने फिर प्रस्ताव किया और कहा कि ब्राह्मणी कुछ विचार किजिए क्या तेरा हठ वस्तुतः ठीक है यह कहने के लिए कोई सहमत होगा, कभी नहीं। तू चाहती थी कि लड़का मेरी दृष्टि के अभिमुख ही रहे परं कहिये क्या यह बात रही। यद्यपि यह गमनानुकूल क्रियाशून्य रहा तब तक तो अवश्य तेरी इच्छा पूर्ण होती रही तथापि अब कहिय क्या बालक को प्रतिक्षण दृष्टिगोचर ही रखती है। वह तो गोसेवासक्त हुआ जंगल में भी जाने लगा है। अतएव अब तो उसे विद्याभ्यास के लिए नियुक्त कर देना ही उचित है और एक विशेष वार्ता यह है सायद् तेरे ध्यान मे है वा नहीं, जिस पुज्यपाद योगेन्द्रजी की महती कृपा से हमने यह पुत्ररत्न प्राप्त किया है उसका कहना था कि मैं बारह वर्ष में वापिस लोटूँगा। अतएव उस महात्मा के आगमन से पहले अब इस बालक को अवश्य किसी पाठशाला में प्रविष्ट कर देना चाहिए। अन्यथा महात्माजी आयेंगे और बालक को विद्याविहिन देखेंगे तो अवश्य कोपान्वित होंगे। उनका कुपित होना हमारे लिए अमंगल का देने वाला है। यह सुन ब्राह्मणी ने लड़के को पाठशाला में भेज देने की सम्मति दे दी। अब तो सुराज सहर्ष पुत्र को लेकर पाठशाला में पहुँचा तथा एक सुयोग्य पण्डित के समीप जाकर कहने लगा कि अये विद्वान् हमारे पुत्र के ऊपर भी कृपा कीजिए और इसे विद्या में निपुण कर दीजिए। इसके प्रत्युकारार्थ हम आपको उचित पुरस्कार से प्रसन्न कर देंगे। पण्डितजी ने कहा कि तथास्तु आप सानन्द अपने घर जाइये। हम जहाँ तक होगा आपके पुत्र को विद्वान् बनाने के लिए कुछ उठा न रखेंगे। यह सुन अत्यन्त प्रसन्न मुख हुआ सुराज अपने घर आया। इसी प्रकार एक वर्ष और भी व्यतीत हो गया। ठीक इन्हीं दिनों उधर से अकस्मात् निर्दिष्ट समयावधि महात्माजी भी आ निकले। उन्हें देखते ही ब्राह्मण-ब्राह्मणी दोनों तथा अन्य प्राधूर्णिक सब लोग आपके चरणों में गिर गए और उन्होेंने आपको अत्यन्त आदर के सहित एक दिव्य आसन पर बैठाया। नाना प्रकार का भोजन भी कराया। बड़ी प्रसन्नता के साथ भोजन करने के अनन्तर भी मत्स्येन्द्रनाथजी ने सुराज से कहा कि हमने जो पुत्र दिया था वह कहाँ है। उसने उत्तर दिया कि भगवन् विद्याध्ययन के लिये विद्यालय में जाता है। आज भी वहीं गया है सायंकाल होने पर आयेगा। यदि आज्ञा हो तो अभी बुला भेजु। आपने कहा कि नहीं-नहीं ऐसी कोई विशेष आवश्यकता नहीं है सायंकाल ही सही जब आएगा तब ही हमने जो कुछ उसको कहना है सो कह लेंगे ठीक इसी समय जब की सुराज के घर यह वार्ता हो रही थी तब किसी ने विद्यालय में जाकर लड़के से कहा कि वे ही महात्मा बारह वर्ष के अनन्तर आज फिर तुम्हारे घर पर पधारे हैं। यह सुन तत्काल ही लड़के ने विनम्र प्रार्थनापूर्वक शिक्षक से स्वकीय घर जाने की आज्ञा ली तथा अनुमति मिलने पर वह शीघ्र ही उपस्थित हो योगेन्द्र जी के चरणों में गिरा। उसकी अतीवशील स्वभाव को सूचित करने वाली नम्रतायुक्त नमस्कार को देखकर मत्स्येन्द्रनाथजी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। अतएव उसको गोद में बैठाकर आप उसे कुशल वार्ता पूछने लगे। लड़के ने सुकोमल वाणि द्वारा उत्तर दिया कि भगवन् मैं इस समय विद्याभ्यास कर रहा हूँ आपसे अविदित नहीं स्वयं जानते ही हैं कि विद्या दुष्पार है। इतना होने पर भी आपका जब पूर्ण अनुग्रह है तो मैं विश्वास करता हूँ विद्या में कुछ न कुछ सफलता अवश्य प्राप्त कर लूँगा। यही नहीं मेरे लिये कुछ दिनों में दुष्पार भी विद्या सुपार हो जाएगी। यह सुन मत्स्येन्द्रनाथ जी और भी आनन्दित हुए। और आन्तर्धानिक रीति से उसको मन्त्र प्रदान कर आपने अपना पूर्वोक्त वचन पूरा किया एवं यह कार्य सम्पादित कर फिर तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया। इधर प्रातःकाल होते ही स्नान भोजनादि से निवृत्त होकर लड़का पाठशाला में पहुँचा और विनम्र भाव से वद्धांजलि होकर शिक्षक से कहने लगा कि आज मुझे बहुत पाठ पढाओ। पण्डितजी ने मत्स्येन्द्रनाथजी के प्रदत्त मन्त्र की कुछ भी खबर नहीं थी। अतएव उसने कहा कि नहीं थोड़ा-थोड़ा पाठ पढ़ो जब कण्ठस्थ न हो तो अधिक पाठ लेने की कौनसी जरूरत है। इसके उत्तर में लड़के ने कहा कि नहीं-नहीं आप इस बात का कोई सन्देह न करें। आप जितना जो कुछ मुझे पढ़ायें उतना ही पश्चात् सुनते जायें। इस प्रतिज्ञा के अनुकूल यदि मैं आपको कर दिखलाऊँ तो कल पाठ देना अन्यथा नहीं। यह सुनकर पण्डितजी कुछ विस्मित हुए और स्वीय हृदयानुसार में संकल्प विकल्प उठा रहे थे कि क्या वस्तुतः लड़का सत्य बोलता है वा नहीं। यदि सत्य है तो यह कहने का प्रयोजन नहीं कि यह कोई साधारण पुरुष है। प्रत्युत कोई विचित्र शक्तिशाली देव ही किसी कारण से प्रकट हुआ है। परन्तु अन्त में विचारने लगे कि जो होगा सो अब प्रकट हो जायेगा प्रथम इसको पढ़ा कर तो देख लें। अतएव जब पण्डितजी लड़के को अधिक से अधिक पढ़ा चुके तब कहने लगे कि अब तो बहुत पाठ हो गया है यदि आगे पढ़ना है तो पहले इसे सुना दो। मत्स्येन्द्रनाथजी द्वारा प्रदत्त मन्त्र के प्रभाव से लड़के को हृदय प्रथम ही विद्या का भण्डार हो चुका था। अतः वह शिक्षक के पढ़ाये पाठ को प्रवाह से सुनाने लगा। जिसे सुनकर पण्डित जी को आत्यन्तिक आश्चर्य के समुद्र में निमग्न होना पड़ा। यही नहीं उसने यहाँ तक किया कि बड़ी शीघ्रता के साथ सुराजी के घर पहुँचकर सहर्ष उसके पुत्र की श्लाघा करने लगा। अस्तु। समग्रमनुष्यों की ओर से श्रद्धेय दृष्टि से देखा जाने वाला वह लड़का कुछ ही दिन में शिक्षक विद्याओं का पारदर्शी हो गया। यह देख सुराज ने सोचा कि लड़का पूरा विद्वान् हो गया है आगे और पढ़ने की तो आवश्यकता ही नहीं रही। एवं जो शास्त्रभिहित ब्रह्मचर्यावस्था है वह भी बीती जा रही है। अतएव अब तो इसका विवाह करने के लिये किसी सुयोग्य कन्या की गवेषणा करनी चाहिये। ठीक इसी विचार में लीन हुए उसके कतिपय दिन व्यतीत हो गये। उधर लड़के की बाल्यावस्था से ही गो सेवा में अधिक प्रीति थी। इसीलिये वह एक दिन अपने भृत्य के साथ ही गौओं और उनके छोटे-छोटे वत्सों से अनेक प्रैतिक व्यवहार करता हुआ जंगम में चला गया और गौओं का नोकर तो रक्षक है ही यह विचार कर एक वृक्ष के नीचे सो गया। वह कुछ ही देर सोने पाया था इतने में ही में उस वृक्ष के छिद्र में रहने वाले सर्प ने आकर उसको दंश लिया। तदनन्तर अधिक देर सूता देखकर उसको जगाने के लिये गोपाल वहां आया। आते ही देखता क्या है लड़का नहीं केवल लड़के का शरीर ही वहाँ पड़ा है और उसकी ऐसी दशा जिसका आवागमन पृथिवी पर दिखाई दे रहा है इस सर्प के ही कारण से हुई है। अन्ततः रोता पीटता और अत्यन्त निराश हुआ वह तो गौओं को लेकर ग्राम की ओर चला गया। इधर से ठीक अवसर पर भगवान् आदिनाथ और पार्वतीजी दोनों वहाँ आ निकले। एवं ज्यों ही उस वृक्ष के समीप पहुँचे त्यों ही वह मृतक लड़का उनकी दृष्टि गोचर हुआ। देखते ही पार्वतीजी ने कहा कि महाराज कैसा सुन्दर लड़का मरा पड़ा है। यदि आप इसको सजीव कर देंगे तो इसके माता-पिता आपको असंख्य धन्यवाद देंगे। श्रीमहादेवजी पहले ही यह चाहते थे और इसी काय्र के लिये इधर आये थे। अतएव आपने खैर मुझे इसके माता-पिता तो धन्यवाद देंगे वा न देंगे पर इसको तो जिलाही देता हूँ। यह कहकर देवी का प्रस्ताव स्वीकृत करते हुए उसे सन्तोषित किया और अपने तृतीय नेत्र के अवलोकन द्वारा प्रथम मृतक लड़के के शरीर को भस्मप्राय बनाकर मन्त्र प्रभाव से फिर सजीव कर दिया। तत्काल ही वह सचेत हो उठा और उसने अपने सम्मुख खड़ी दो अलौकिक व्यक्तियों को देखा। देखते ही अत्यन्त कृतज्ञता के साथ वह उनके चरणों में गिरा। इससे प्रसन्न हो श्री महादेवजी ने उसको एक अमूल्य मन्त्र दिया जिसके प्रभाव से उसका अपने ग्राम और माता-पिता की ओर कुछ भी स्नेह न रहा। अतएव वह जब श्री महादेवजी कैलास को रवाने हो गये तब स्वयं भी ग्राम की तरफ न जा कर किसी वनस्थ ऐकान्तिक स्थान की अन्वेषणा करने लगा। इसी प्रकार भ्रमण करते-करते जब कतिपय दिवस व्यतीत हो गये तब एक दिन उसे श्री मत्स्येन्द्रनाथ जी भी उसी वन में मिल गये। लड़के ने महात्माजी को देखते ही उनके चरणों का आश्रय लिया तथा कहा कि भगवन् मुझे भी आप अपना शिष्य बना लें, क्यों कि अधिक विलम्ब होने से अब में अपना मंगल नहीं देखता हूँ। मत्स्येन्द्रनाथजी यह पहले से ही चाहते थे और इसी प्रतीक्षा में फिरते थे। अतएव उसकी अभ्यर्थना सुन आप अतीवानन्दित हुए और समस्त वृत्तान्त जानते हुए भी उसे भूलाकर उसका परिचय पूछने लगे। उसने आदि से अन्त तक जो उसके साथ बीत चुका था समस्त समाचार कह सुनाया। तदनु मत्स्येन्द्रनाथजी ने पूछा कि क्या तू मुझे भी पहचानता है। उसने कुछ मुस्कराते हुए कहा कि भगवन् यद्यपि अब से पहले मैं कुछ भ्रम में पड़ा हुआ था तथापि आपके इस प्रश्न से मेरी वह दशा न रही। अब तो मैं आपको केवल पहचान ही नहीं गया अच्छी तरह यह समझ गया हूँ कि संसार में मेरा सर्वस्व आप ही हैं। उसके इस कथन से मत्स्येन्द्रनाथजी का हृदय और भी प्रफुल्लित हो गया और उन्होंने उसको अपना अनुयायी बनाने का निश्चय कर लिया। एवं कुछ ही दिन के बाद उन्होंने जो वेष गुरुजी से प्राप्त किया था सभी उसको दे दिया और उसको स्व समीपस्थ गुरुपलब्ध समस्त योग विद्या, सागर विद्या, तथा आस्त्रिक विद्याओं में भी निपुण कर दिया। एवं कहा कि तुम्हारी गो सेवा में अधिक प्रीति रही है अतः हम तुम्हें आज से  ’ गोरक्षनाथ नाम से सत्कृत करते हैं,  संसार में तुम्हारी इसी नाम से प्रसिद्धि होगी। यह सुन अत्यन्त श्रद्धा के साथ सिर झुकाकर गोरक्षनाथजी ने गुरुजी के उपकार पर कृतज्ञता प्रकट करी।

Tuesday, April 23, 2013

श्री मत्स्येन्द्रनाथ उत्पत्ति वर्णन

बदरिकाश्रम में आने के अनन्तर नवों भ्राताओं ने भगवान् श्रीमहादेव जी की आज्ञानुसार कुछ काल भेद से जहाँ-तहाँ अवतार लेने का दृढ़ निश्चय किया। ठीक इसी निश्चय के अनुकूल प्रथम अपने अष्ट भ्राताओं से माननीय कवि नारायणजी वियोगित हुए। जिन्होंने भृगुवंशीय किसी प्रतिष्ठित ब्राह्मण के गृह में अवतार धारण कर माता-पिता को असाधारण आनन्द समुद्र में निमग्न कर दिया। परं हाय कुछ ही देर में पिता ने जब ज्योतिष शास्त्र का अवलोकन किया तब उसे मालूम हुआ कि पुत्र अनिष्टकारक गण्डान्त नक्षत्र में उत्पन्न हुआ है। अतएव उसने अपने अनिष्ट के भय से सहसा पुत्रोत्पत्ति के आनन्द का परित्याग कर लड़के को सच्चे समुद्र में डाल दिया, जिसको जल में गिरते ही एक स्थूलतनु मत्स्यने हड़फ (निगल) लिया। परन्तु परमात्मा की गति अत्यन्त ही विचित्र एवं अगम्य है। मारने वाले से वह बचाने वाला बहुत प्रबल है। यही कारण हुआ विधाता की रक्षा से रक्षित हो वह लड़का काल के मुख में न जाकर मत्स्य के उदर में ही आसनासीन हो घोर तप करने लगा। इसी दशा में परिणत हुए उसके अनेक वर्ष व्यतीत हो चले। उसके कठिन तप से भगवान् महादेवजी का हृदय दया से परिपूर्ण हो गया। ठीक इसी समय किसी ऐकान्तिक स्थल में बैठे हुए भगवान् कैलासनाथजी से देवी पार्वतीजी ने कहा कि महाराज कृपा करो और मुझे अमरकथा सुनाओ, जिससे मैं भी आपकी तरह अजरामर हो बार-बार के जन्म-मरण से रहित हो जाऊँगी। यह सुन महादेव जी ने कहा कि अये पार्वति ? अमरकथा भी कोई कथा है तुझे इस बात का ज्ञान कैसे हुआ। क्यों कि, हमने आजपर्यन्त अमरकथा का सुनाना तो दूर रहा उसका तुझे नाम तक भी नहीं बतलाया है। आपके इस प्रश्न का उत्तर देती हुई उसने कहा कि एक दिन नारदमुनि कैलास में आये थे, वे आते ही आपकी रूण्डमाला की स्तुति करने लगे। तब मेरे सहसा यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि ये इतने रूण्ड किसके हैं। बल्कि इस बात का निश्चय करने के लिये मैंने नारदजी से ही प्रश्न किया। उन्होंने बतलाया कि ये रूण्ड किसी के नहीं केवल तुम्हारे ही हैं। तुम्हारा अनेक बार जन्म और मरण हुआ है। अतएव प्रतिजन्मस्थ शरीर को श्री महादेवजी ने अपनी प्रसन्नता के लिये माला में धारण किया है। तब मैंने फिर पूछा कि महाराज, यह जन्म-मरण मेरा अनेक बार क्यों होता है। उन्होंने स्पष्ट कह सुनाया कि अमर कथा का न श्रवण करना ही तुम्हारे बार-बार जन्म-मरण का कारण है। अतएव तुमने यदि जन्म-मरण रूप परम्परा के असह्य दुःख का परिहार करना है तो श्री महादेवजी से अमरकथा का श्रवण करो। श्री महादेवजी अमरकथा के प्रभाव से ही उस दुःख से विमुक्त हुए सदा शिव कहलाते हैं। इस प्रकार अमरकथा की महिमा का निरूपण कर नारदजी तो इन्द्रपुरी को चले गये। मैं उसी दिन से कथा श्रवण योग्य स्थान की अन्वेषणा में तत्पर थी सौभाग्य वह अनुकूल स्थान भी आज प्राप्त हो गया इसलिये अवश्य मेरे ऊपर कृपा करो। परन्तु प्रथम आपसे मेरी यह अभ्यर्थना है जब ऐसी अमूल्य अद्वितीय वस्तु को आप अच्छी तरह जानते थे तो आपने आज तक मेरे से गुप्त क्यों रखी। पार्वतीजी का यह नम्रतायुक्त वाक्य सुनकर श्री महादेवजी ने कहा कि पूर्व तू इस विद्या की अधिकारिणी नहीं थी। इसीलिये इस गोप्यवस्तु को आज तक हमने तेरे से छिपाकर रखा है, अब तू अधिकारिणी हुई है। अतः अब हम तेरे को अमरकथा सुनायेंगे। इस प्रकार पार्वतीजी को सन्तोष देकर श्री महादेवजी समुद्रतट पर आये और अपने कृत्रिम शब्दघोष से समीपस्थ पशु-पक्षियों को दूर कर पार्वतीजी को अमरकथा सुनाने लगे। कुछ देर में जिस किसी प्रकार से आपका यह कार्य समाप्त हो गया। पार्वतीजी की असावधानतापर हुंकारा भरने वाले ’ शुक (तोता) के दृत्तान्त से निवृत्त हो आप फिर ज्यों ही उस आसन पर आ विराजे त्यों ही एकाएक आपकी दृष्टि समीपस्थ जल में स्थित बालक को निगल जाने वाले पूर्वोक्त मत्स्य के ऊपर पड़ी और इसी के अन्तर कवि नारायण का अवतारी बालक विराजमान है यह दृढ़ निश्चय कर आपने आकर्षण मंत्र का प्रयोग किया। जिससे आकृष्ट हुआ वह मत्स्य बाहर निकला तथा श्रीमहादेवजी के तेज से स्तम्भित हो तट पर स्थित रह गया और उसके मुखद्वारा एक असाधारण रूपवान् बालक का ........... हुआ। वह निकलते ही सम्मुखीन स्थल पर विराजमान श्री महादेव और पार्वती ......... कर उनके चरणों में गिरा। यह देखकर श्री महादेवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। ...... वृत्तान्त जानते हुए भी उससे उसका समाचार पूछने लगे। तदनु उसने अपने आ..... ज्ञान से समग्र वृत्तान्त सुना डाला। इससे और भी प्रसन्न हो श्री महादेवजी ने पार्वती की ओर निर्देश करते हुए कहा कि यह तुम्हारा पुत्र है इसको ग्रहण करो और पुत्र की चेष्टाओं से स्कन्द की तरह संस्कृत करो। यह सुन भगवती भवानी ने उसको गोद में बैठा लिया और मुखचुम्बनादि क्रियाओं के द्वारा स्कन्द की तुल्य उससे अत्यन्त प्रेम किया। तद्नन्तर पुत्र मत्स्येन्द्र जगत् में तेरा यश प्रख्यात होगा।
तू पुत्र निश्चित होने के कारण हमारा भी यश विस्तृत करता हुआ संसार में निर्भयता के साथ विचरते रहना, यह कहकर दोनों अपने अभीष्ट स्थान को चले गये। इधर वह लड़का भी उनके पवित्र आशीर्वाद से प्रफुल्लित चित्तवाला होकर समुद्र के तटस्थ प्रान्तों में भ्रमण करने लगा और इधर-उधर कई एक मास पर्यन्त भ्रमण करने के अनन्तर कुछ दिन में पूर्वी समुद्र तटस्थ कामाक्षादेवी के स्थान में पहुँचा। यहाँ उसने कुछ दिन की कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो देवी का वर ग्रहण किया और श्री महादेवजी को और भी प्रसन्न करने के लिये फिर कठिन तपश्चय्र्या में संलग्न होने का दृढ़ संकल्प किया। बल्कि संकल्प ही नहीं इस कार्य को पूरा कर देने के अभिप्राय से वहाँ से बदरिकाश्रम का उद्देशकर प्रस्थान कर दिया। कुछ दिन में यह भी यात्रा समाप्त हो गई, यहाँ एक अच्छा निर्विघ्न पर्वत देखकर उसने तप करना आरम्भ किया। अर्थात् पार्वती सहित श्री महादेवजी के ध्यानपूर्वक ऊपर को मुख किये हुए दाहिने पैर के अंगुठे पर समग्र शरीर का भार रखकर दोनों हस्तों से वद्धांजलिहो नेत्रों की समस्त चंचलता को दूर कर उसने वायु आहार के अभ्यास द्वारा पूरे बारह वर्ष व्यतीत किये और शीतोष्णता के अत्यन्त कठिन कष्ट को अपने शरीर पर ही धारण किया। यही नहीं उसने इस प्रकार घोर तप किया कि समीपस्थ भूमि पर तृण उगने से उसका शरीर तो तृण से आच्छादित हो ही गया था। किन्तु शरीर शुष्क होकर इस तरह प्रतीत होता था मानों अस्थि ही अवशेष रह गई हों। अस्तु, जब बारह वर्ष पूरे हो चले तो उसकी तपश्चय्र्या का असाधारण फल तैयार हुआ जिसकी प्रेरणा से प्रेरित हुए नारदजी के बदरिकाश्रम की यात्रा करने की इच्छा उत्पन्न हुई और वे कुछ देर में जहाँ बालक कठिन तपस्या में तत्पर हो रहा था अकस्मात् उसी मार्ग से आ निकले एवं चलते समय एकाएक उनकी दृष्टि कुछ-कुछ दीखने वाले तपस्वी बालक की ओर पड़ी। उसका तृण से आच्छादित शुष्क शरीर देखते ही नारदजी कुछ विस्मित से हुए आभ्यन्तरिक रीति से उसे नमस्कार करने के साथ-साथ उसके जनक माता-पिता को हार्दिक असंख्य धन्यवाद देने लगे और उसके तप का महत्त्व वर्णन करने के अभिप्राय से अमरापुरी को प्रस्थान कर गये। वहाँ पहुँचते ही इन्द्र के अभिमुख बालक का अखिल वृत्तान्त प्रकट कर नारदजी ने इन्द्र को भी उसके दर्शन करने को बाध्य किया। नारदजी की वाणी सुनकर इन्द्र ने निश्चय कर लिया कि निःसन्देह यह बात ठीक है। यही कारण हुआ वह उसी समय नारदजी के साथ घटनास्थल में पहुँचा और ज्यों ही विमान से तपस्वी के सम्मुख हुआ त्योंही महाकष्ट में परिणत उस बालक के दर्शनकर अत्यन्त विस्मित हुआ। तथा मुख में अंगुलि देकर अन्य देवताओं की ओर इशारा करते हुए कहने लगा कि हमने आज तक ऐसा तपस्वी नहीं देखा है। अतएव जिसने ऐसे पुत्र रत्न को उत्पन्न किया है उन्हें अनेक हार्दिक धन्यवाद है। ऐसे असाधारण पुत्र को पैदा कर उन्हें इस असार संसार में अपना स्वच्छ यश विस्तृत कर डाला है। इस प्रकार आश्चर्य प्रकट कर धन्यवाद देने के अनन्तर इन्द्र अपने स्थान को चला गया। पश्चात् ब्रह्माजी को भी इस वृत्त की सूचना मिली। वह भी तपस्वी का दर्शन करने के लिये बदरिकाश्रम में पहुँचा और बालक का घोर तप देखकर स्वकीय मुख से असंख्य धन्यवाद प्रदानपूर्वक श्रद्धेय श्लाघा करने लगा। तदनु अनेक हर्षवद्र्धक वाक्यों का प्रयोग कर वह भी ब्रह्मपुरी को चला गया। परन्तु तपस्वी का घोर तप देखकर ब्रह्माजी का हृदय करूणा से परिपूर्ण हो गया था। अतएव अन्य कार्य में व्यग्र रहते हुए भी ब्रह्माजी का चित्त तपस्वी के दृश्य को विस्मृत नहीं करता था। यहाँ तक कि एक दिन ब्रह्माजी ने विचार किया कि वह बालक तपस्वी अत्यन्त दुःख उठा रहा है। अतः किसी प्रकार से अब उसको इस महाकष्ट से मुक्त कराना चाहिये। अन्ततः वह एक दिन स्वयं विष्णुपुरी में गमन कर उक्त वृन्तान्त से विष्णुजी को सूचित करने को बाध्य हुआ। तब तो विष्णुजी भी तपस्वी के तपश्चय्र्याकाठिन्य को देखने के लिये उत्कण्ठित हुए और कुछ देर में ब्रह्माजी के सहित बदरिकाश्रम में आये। बालक का अवलोकन करते ही विष्णु विस्मित हो ब्रह्माजी से कहने लगे कि श्री महादेवजी को बुलाकर इसको अब तो तप से मुक्त कराना चाहिये। ब्रह्माजी पहले ही इस बात की पुष्टि में तैयार थे। अतः उन्होंने कहा कि चलिये आप और हम दोनों ही कैलाश में जाकर श्री महादेवजी के समक्ष इस प्रस्ताव को उपस्थित करेंगे। अनन्तर दोनों महानुभाव ही कैलास में पहुँचे तथा उक्त तपस्वी का समस्त वृत्तान्त सुनाने लगे। साथ ही उसके मुक्त करने की भी प्रार्थना करने लगे। उधर श्री महादेवजी ने भी उनका प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया और उनके साथ तत्काल ही घटना स्थल पर चलने की तैयारी की। कुछ ही देर में स्वकीय वाहनों पर आरूढ़ हो तीनों देव बदरिकाश्रम में आये। बालक का महाघोर तप देखकर श्री महादेवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहने लगे कि हे तपस्विन्, अब तुम्हारा तप पूर्ण हुआ हम अतीव प्रसन्न हैं। तुम हमसे कुछ वरदान माँगों। भगवान् महादेवजी का यह वचन सुनकर बालक तपस्वी ने उधर दृष्टि डाली एवं तीनों महानुभावों को उपस्थित देख आभ्यन्तरिक रीति से नमस्कार कर वह कहने लगा कि हे दयासागर दीन बन्धो ! यदि आप सचमुच मेरे ऊपर प्रसन्न हैं और अभीष्टानुकूल वर देना चाहते हैं तो मैं और कुछ न मांगकर आप से यही वर मांगता हूँ कि आप मुझे अपना स्वरूप प्रदान कर दें। अर्थात् मुझे अपने वेष से विभूषित कर दें। यह सुनकर तीनों देव परस्पर में एक-दूसरे को देखकर मुश्कराने लगे। तथा श्री महादेव जी ने कहा कि कोई अन्य वर मांगो क्यों कि तुम्हारा अवतार जिस विशेष कार्य को पूरा करने के लिये हुआ है। तुम उसको इस समय कठिन व्रत के अवलम्बन वश से भूल गये हो। अतएव उस कार्य सिद्धि के अनुकूल किसी अन्य वर की याचना करो तो बहुत ही ठीक होगा। उसने कहा कि आप ठीक कह रहे हैं तथापि मैं आपके स्वरूप से सुशोभित होकर उस औद्देशिक कार्य का संचालन करना चाहता हूँ। बालक का यह निश्चय देख श्री महादेवजी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। वे तथास्तु कहकर उक्त दोनों देवों से विदा हो तपश्चय्र्याविमुक्त बालक तपस्वी के सहित कैलाश में आये और अगले दिन उसे अपना वेश स्वीकृत कराने लगे। प्रथम सिर में विभूति डालकर विभूति स्नान कराया एवं स्नान कराने के साथ-साथ उसका महत्त्व अर्थात् अभिप्राय भी समझाया कि अये शिष्य हमने जो तेरे सिर पर डाला है यह भस्म अर्थात् मृतिका है। अतएव इसके डालने द्वारा हम तुझे यह उपदेश देते हैं कि ’ तुम आज से पृथिवी हो जाना और जिस प्रकार अच्छी वा बुरी वस्तु रखने से यह पृथिवी कभी प्रसन्नता-अप्रसन्नता प्रकट नहीं करती है ठीक इसी प्रकार कोई भी सांसारिक मनुष्य अपने ज्ञान से वा अज्ञान से तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करे या कुत्सित व्यवहार करे तुम पृथिवी की तरह कभी प्रसन्न और अप्रसन्न न हो कर सदा एक रस ही बने रहना अर्थात् पृथिवी की तुल्य जड़ हो जाना। चेतनता केवल अलक्ष पुरुष का प्रिय बनकर आत्मोद्वार के लिये ही समझना अथवा इस भस्मी डालने के द्वारा हमारा यह अभिप्राय समझना कि अग्नि संयोग के पहले जिसकी यह भस्मी बनी है वह काष्ठ था, जिसमें काठिन्यादि अनेक गुण थे। और उसकी व्यावहारिक अनेक वस्तु भी बन सकती थी परन्तु अग्नि संयोग होने पर काष्ठ की यह दशा हो गई कि इसके वे काठिन्यादि कुत्सित गुण न जानें कहाँ चले गये। अब इसमें से उन अनेक वस्तु बनने का भी सम्भव नहीं रहा। ठीक इसी प्रकार हमारे संयोग से पहले सम्भव है तुम्हारे शरीर में किसी न किसी अनुचित कृत्यों का प्रवेश होगा और तुम अनेक सांसारिक व्यापार भी कर सकते थे परन्तु हमारे संयोग से ज्ञान प्राप्त कर अब ऐसा हो जाना कि उस ज्ञानरूप अग्नि से काष्ठ की तरह उन कुत्सित कृत्यों को भस्मसात् कर डालना। तदनन्तर श्री महादेवजी ने उसे जलस्नान कराया और स्नान कराने के साथ-साथ उसका भी अभिप्राय समझाया कि अये शिष्य जिसको हम तुम्हारे ऊपर छोड़ रहे हैं इसके बर्षाने वाला मेघ है।
इस जल के सिर पर छोड़ने का हमारा यह अभिप्राय है कि तुम आज से इसके वर्षाने वाला मेघ बन जाना और जिस प्रकार वह मेघ जलस्थल में समान दृष्टि से वर्षता है इसी प्रकार सांसारिक सभी श्रेणी के लोगों पर तुम समान दृष्टि से बर्ताव करना। अथवा जल डालने का हमारा यह भी अभिप्राय है कि इस जल का शीतल स्वभाव है अतएव तुम आज से जल बन जाना। और जिस प्रकार हजार बार तपाने पर भी यह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है तथा ऊपर डालने पर अग्नि को प्रशान्त कर देता है ठीक इसी प्रकार कोई सांसारिक पुरुष तुम्हारी परीक्षा के अभिप्राय से अथवा अपने कुत्सित स्वभाव के अनुरोध से तुम्हारे अनेक तर्कना लगाये तो भी तुम जल की तरह अपना स्वभाव नहीं छोड़ना अर्थात् अपने सान्त्वनिक आत्मबल द्वारा उसको शान्त ही कर डालना, तद्नन्तर श्री महादेवजी ने उसको नाद जनेउ पहनाकर उसका भी अभिप्राय समझाया कि अये शिष्य यह काष्ठादिका बनाया हुआ जो हमने तुम्हें प्रदान किया है यह नाद है। नाद का दूसरा अर्थ ’ शद्ध है, जो गुरु समझा जाता है। अतएव तुम आज से इस नाद अर्थात् शद्ध से अपनी उत्पत्ति समझना। हमारे नाद अर्थात् शद्ध से उत्पन्न होने के कारण आज से तुमने नूतन जन्म प्राप्त किया। यह नाद ठीक इसी बात को जितलाता है यह समझना चाहिये और यह नाद जिसमें अवलम्बित है यह ऊर्णादि से निर्मित किया हुआ जनेउ नाम से व्यवहृत किया जाता है। यह जिस प्रकार सांसारिक लोगों के जनेउ से भिन्न है इसी प्रकार तुम भी आज से अनेक अतथ्य व्यवहार परिणित सांसारिक लोगों के जनेउ से भिन्न हो चुके हो। यदि अपने उद्देश्य को भूलकर उन लोगों के व्यवहार में प्रविष्ट हो गये तो कल्याणपथ प्राप्त करना तो दूर रहा तुम्हें अधिक हानि उठानी पड़ेगी। अतएव सदा अपने स्वच्छ उद्देश्य से मतलब रखना। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु धारण कराने का ठीक-ठीक अभिप्राय बतलाकर श्री महादेवजी ने अपने कुण्डलादि कई एक चिन्ह उसके समर्पण किये तथा उसे मत्स्येन्द्रनाथ नाम से प्रसिद्ध किया। और पूर्ण अधिकारी निश्चित कर उसको योग क्रियाओं में प्रेरित किया। (पाठकवृन्द मुझे खेद है आज जिस समय में मैं श्री महादेवजी के द्वारा प्रदानित शिक्षाओं को अपनी लेखनी से प्रकट कर रहा हूँ यह वह समय है जबकि आज इन शिक्षाओं का बिल्कुल अभाव सा दीख रहा है।
अभाव दीखना भी ठीक ही है जबकि आजकल के घनाढ्य महन्त तो शिमला, मनसूरी, नैनीताल आभू आदि ठण्डे स्थलों में हवा बदले के लिये जाते हैं और पीछे से स्थान में उनके नाम के शिष्य बनाये जा रहे हैं। जिस विचार ने बेष लेन के अवसर में जिस व्यक्ति का शुद्ध गुरु समझा जाता है उसका मुँह मत्थातक नहीं देखा है भला उसमें उपरोक्तादि गुरु शिक्षाओं का सम्भव कैसे हो सकता है, किन्तु कभी नहीं हो सकता। यही कारण है बाना लेने पर कितने ही योगी अपने मुख्योद्देश का पालन न करते हुए इन चिन्हों में विशेष श्रद्धा नहीं रखते हैं। क्योंकि कोई भी चिन्ह हो वह किसी अभिप्राय से शून्य रहता हुआ धारण करने योग्य नहीं समझा जाता है। किन्तु उसके अभिप्राय की पहले ठीक-ठीक ध्यान में आ जाने की आवश्यकता है जब भी उसकी धारणा में श्रद्धा और सत्कार प्रकट हो सकता है। और उससे सूचित होने वाले अभिप्राय से मनुष्य लाभ भी उठा सकता है। परन्तु खेद है जिसने बाना लेते समय स्वयं गुरु का मुँह माथा न देखकर उससे कुछ नहीं सीखा तो वह जब किसी अन्य को बाना देगा तो उसे क्या शिखलायेगा)। अस्तु श्री महादेवजी जैसे गुरु और मत्स्येन्द्रनाथ जैसे अद्वितीय अधिकारी शिष्य के कार्य में विलम्ब ही क्या हो सकता था। अतएव वह कुछ ही दिन में असाधारण योगवित् बन गया। तत् पश्चात् श्री महादेव जी ने मध्यम तथा कनिष्ठ अधिकारी पुरुष को किसी ढंग से योग क्रियाओं में प्रविष्ट करना चाहिये उसको समस्त भेद भी बतलाया। अर्थात् आपने कहा कि अये शिष्य उत्तम अधिकारी तो केवल अभ्यास वैराग्य की ही सहायता से योग पारंगत हो सकता है यह बात तुमसे छिपी नहीं है। क्योंकि तुम उत्तम अधिकारी हो। तुमने इसी उपाय द्वारा योग का मर्म समझकर इस बात से ज्ञातता प्राप्त कर ली है। परं मध्यम अधिकारी को योग वित् बनाना हो तो उसके तपः, स्वाध्याय और प्रणिधान ही विशेष उपकारी समझने होंगे। इसके अतिरिक्त यदि कनिष्ठ अधिकारी को भी तुम योग दीक्षा प्रदान करना उचित समझो तो उसे यमनियमादि आठ उपायों द्वारा ही योग निपुण बना सकोगे। मत्स्येन्द्रनाथजी ने यह तत्त्व बड़ी शीघ्रता के साथ समझ लिया। अतएव शिष्य की यह दक्षता देखकर महादेवजी आतीवानन्दित हुए और उसे सावरी विद्या का मर्म समझाने लगे। वह कतिपयलक्ष मंत्रात्मक सावरी विद्या के अवगमनानन्तर-वातास्त्र-कामास्त्र- पर्वतास्त्र-आग्नेयास्त्र-वासवास्त्र-गरुडास्त्र-दानवास्त्र-मानवास्त्र-इत्यादि अनेक आस्त्रिक विद्या में भी निपुण हो गया।

श्री नव नारायण कैलाश गमन वर्णन


पाठकवर आइये आप मेरे हृदय से हृदय सम्मिलित कर मुझे आरम्भित विषय में अपरिमित प्रयत्न करने का उत्साह प्रदान कीजिये। इस समय जबकि प्रत्येक समाज संगठन और जाति तथा उनके प्रत्येक मनुष्य हम किस रीति से अपनी उन्नति के शिखर पर पहुँच सकते हैं। इस प्रकार की भावनाओं में लीन हैं। वक्लि लीन ही नहीं यथासाध्य उपायों की अन्वेषणाभी कर रहे हैं। तब मुझे उचित नहीं कि मैं उनकी कार्यावली को देखता तथा इस रहस्य को स्वकीय हृदयस्थान में अवकाश देता हुआ भी अकर्मण्यता के साथ बैठा रहकर उनकी ओर झूरता रहूँ। और स्वीय हृदयात्मक समुद्र में उत्पन्न होने वाली अनेक भावनेय तरंगों को इसी में विलीन कर लूँ। किन्तु आज जिस प्रकार अनेक भारतीय बीर अपने समाज संगठन और जाति के उत्कर्षार्थ यथा साध्य प्रयत्न लीन हैं दद्धत् मैं भी क्यों न हो जाऊँ। जिन भावनाओं ने उक्त महानुभावों को उक्त प्रयत्न में कटिबद्ध किया है उन भावनाओं से मैं भी रिक्त नहीं हूँ। यही कारण है अनेक बाधायें उपस्थित होते हुए भी मैं औदशिक पथ से एक पदमी पीछै न हटकर आग्रसर ही होता हूँ। तथा समयानुसार सम्भावित लाभ सोचा है उसको उपस्थित कर अपने कि´्चित उत्तदायित्व से विमुक्त होने की सम्भावना करता हूँ। और इस बात को स्पष्ट कह देता हूँ कि संसार में यदि किसी की प्रतिष्ठा देखी जाती है तो वह दो करणों से आबद्ध है। या तो प्रतिष्ठित पुरुष स्वयं ऐसे गुणों वाले हों जिन्होंने मोहित हुए लोग उनकी विनम्र अभ्यर्थता करने में उत्कण्ठित हो जायें। या उनके पूर्वजों के जो कि लोक हितैषिता पर अपना सर्वस्त्र न्योछावर कर चुके हों प्रभावशाली चमत्कारों का कथा आदि के द्वारा लोगों के हृदयों पर प्रकाश डाला जाता हो। जिससे लोग यह विचार कर कि ये भी उन्हीं महापुरुषों की सन्तान हैं उनके सत्कार में अग्रसर हों। यह उदाहरण लोक में प्रसिद्ध ही है जो मैंने स्वयं कई एक स्थानों पर अनुभावित किया है। संसार के इतिहास में जिस घराने का चरित्र श्रद्धास्पद समझा जाता है उस घराने का मनुष्य चाहे उन प्रख्यात गुणों का भण्डार न हो स्थानान्तर में जाने पर उक्त बुद्धि से प्रेरित लोगों द्वारा कुछ प्रतिष्ठा को अवश्य प्राप्त होता है। परन्तु खेद है और कष्ट के साथ लिखना पड़ता है आज योगि समाज दोनों प्रतिष्ठाओं में किसी का भी आश्रयभूत नहीं है। न तो इसमें स्वयं वे गुण हैं जिनसे संसार इसको श्रद्वेयदृष्टि से देखे और न पूर्वाचाय्र्यों की अपूर्वलोक हितैषिका ही इसे कुछ ज्ञान है जिसको लोगों के अभिमुख प्रस्फुट कर उनके हृदयों पर उसका कुछ प्रकाश डाल सकै। जिससे लोग अद्भुत शक्तिशाली जनोंद्धारक महात्माओं की सन्तान समझकर इसको प्रतिष्ठित करें। असल में आधुनिक योगि समाज को पूर्व योगाच्चाय्र्यों की अपूर्वलोक हितैषिता का ज्ञान होता भी कैसे दीर्घकाल होने के कारण न तो उसकी परिचायक गाथाही किसी के कण्ठस्थ रही एवं न उसका प्रवोधक कोई इतिहास ही प्रचलित रहा जिससे योगि समाज स्वयं उसका ज्ञान प्राप्त कर उसको संसार में विस्तृत करता। क्यों ऐसा क्यों हुआ यदि यह कहें कि आजपर्यन्त योगि समाज में विद्वान् नहीं हुए तो सर्वथा असम्भव है विद्वानों का न्यूनाधिक भाव होने पर भी अत्यन्त अभाव कहना निर्मूल है। आज भी टूटी-फूटी दशा में सन्तोषजनक विद्वान् विद्यमान हैं। फिर विद्वान् भी हुए हों पर उन्होंने उपरोक्त वार्ता सूचक इतिहास रचने की उपेक्षा की हो ऐसा भी सम्भव नहीं है। तो फिर क्या कारण है जो आधुनिक समय वैसा इतिहास जगत् प्रसिद्ध नहीं है। इसका कारण यही है और इतिहास प्रसिद्ध न होना ही इस बात की पुष्टि करता है कि अवश्य ऐसा हुआ होगा जैसा कि सुना जाता है। वैक्रमिक 1400 शताब्दी के आस-पास योगि समाजात्मक समुद्र में महान् अज्ञानात्मक एक ऐसा तुफान उठा था जो कतिपय सुयोग्य योगी मल्हाओं के अनेक प्रयत्न करने पर भी ऐतिहासिक ग्रन्थात्मक जहाजों को डुबो कर रसातल में पहुँचायें बिना न रहा। इसका स्पष्टार्थ यह हुआ किसी देशकाल विचारशील योगी ने या खैर योगेन्द्र गोरक्षनाथजी ने ही समझ लीजिये योगियों को यह परामर्श दिया था कि योग साधनीभूत कई एक खतरनाक क्रियाओं को जो कि गुरु द्वारा ही पुरुष को साध्य हो सकती है। न तो स्वयं कागज पर लिखना और न किसी अन्य को लिखाना ऐसा करने पर लिखित के अनुसार कोई गुरु के बिना ही उनमें प्रवृत्त हो जायेगा तो उसे लेने के बदले देने पड़ जायेंगे। उनकी इस आज्ञा का कुछ काल तो ठीक-ठीक रीति से व्यवहार होता रहा। अनन्तर योगि समाज की काया पलटने लगी। अनाधिकारी आलसी पुरुषों का इसमें प्राधान्य होने लगा। सहज 2 समस्त क्रियायें लुप्त होने लगी पढ़ने-लिखने की ओर से भी मुख मोड़ने के अभिप्राय से उपरोक्त वार्ता का यह अर्थ निश्चित कर लिया कि श्रीनाथजी की आज्ञा है योगियों के लिये पढ़ना-लिखना महा पाप है। बस क्या था कुछ दिन में यह अर्थ खूब परिपक्व हो गया। अब वह समय था जिसमें योगि समाज के अनेक ग्रन्थ विद्यमान थे। उनके विषय में अनधिकारी निरक्षर भट्टाचार्य योगियों की शंका उत्पन्न होने लगी कि श्रीनाथजी की आज्ञा नहीं है तो अमुक योगी क्यों पढ़े और उन्होंने ये ग्रन्थ क्यों लिखे। अन्त में किसी दिन तीर्थादि के उपलक्ष्य पर समुदाय सामज में यह प्रस्ताव पास ही हो गया कि पढ़ने वाले योगी मूर्ख थे जिन्होंने पढ़ने और ग्रन्थ रचना करने के द्वारा श्रीनाथजी की आज्ञा को भंगकर उन्हें तिरस्कृत किया है। अतएव जहाँ कहीं भी मिले उन्होंने ग्रन्थों को नष्ट करना योगी मात्र का कत्र्तव्य है। (हाय अविद्या तेरा बुराहो। तू योगि समाज में घुसकर आज यह क्या करा बैठी। इस कृत्य के स्मरण से मेरा हृदय जितना कम्पित और दंदह्यमान होता है उतना औरंगजेब की हिन्दुओं को मुसलमान बनाने और इन्कार करें तो कत्ल करने की आज्ञा का स्मरण करने से भी नहीं होता है।) अस्तु उसी समय से भारत व्यापी अज्ञानान्धकारावृत योगि समाज अपने कथन की पूर्ति करने में कटिबद्ध हुआ जिससे कुछ ही दिन में समस्त ऐतिहासिक ग्रन्थों का अवसान हो गया। परन्तु ईश्वर की गति बड़ी ही विचित्र है। वह मनुष्यों को हर एक प्रकार के दावपेच शिखला कर भी बिल्ली की तरह कोई एक युक्ति अवशिष्ट रख लेता है। यही कारण हुआ आज्ञानिक योगियों के लाख सिर पटकने पर भी पूज्य योगाचार्यों की अश्रुतपूर्व असाधारण लोक हितौषिका परिचायक ग्रन्थ स्वकीय अभाव का मुख न देख सका। किसी दूरदर्शी योगी अथवा गार्हस्थ्य महानुभाव के द्वारा अनुवादित हो अपनी आन्तर्धानिक उपस्थिति रखने में समर्थ हुआ और सहज 2 कई एक शाखाओं में विभक्त हो अपनी कथाओं के द्वारा फिर भारतीय लोगों को विशेषकर के बंगाली और महाराष्ट्रिय लोगों को रंजित करने लगा। सौभाग्य का विषय है यह लेख परम्परा में परिणत हुआ अमूल्य ग्रन्थ इसकी गवेषणार्थ प्रयत्नशील हुए मेरे हस्तगत हो गया। जिसका आरम्भ इस प्रकार है कि संसार में मनुष्यों के ऊपर होने वाली ईश्वर की विशेष दृष्टि दो कारणों से प्रेरित समझनी चाहिये जिनमें प्रथम कारण मनुष्य का धर्मानुष्ठान और द्वितीय अधर्मानुष्ठान है। धर्मानुष्ठान से मनुष्य के ऊपर ईश्वर की मंगलप्रद दृष्टि होती है तो अधर्मानुष्ठान से अमंगलप्रद विशेष दृष्टि का अनुभव किया है। इसी प्रकार जब-जब मनुष्य धर्मा-धर्म का विशेष रीति से अनुष्ठान करते हैं तब-तब ईश्वर उनके ऊपर विशेष दृष्टि कर कोई ऐसी प्रथाप्रचलित करता है जिसके द्वारा उनके अनुष्ठानानुकूल फल उपस्थित होता है। द्वापर युग के अन्तिम भाग में ठीक ऐसा ही अवसर उपस्थित हुआ था। कितने ही मनुष्य धर्मानुष्ठान की पराकाष्ठा दिखलाते हुए ईश्वर की नित्य यही अभ्यर्थना करते थे कि भगवन् आपसे बिछड़े रहकर हमने बहुमूल्य समय नष्ट किया है। इससे हमारी जो हानि हुई है और कहीं नहीं आपके समीप आने पर ही पूरी हो सकती है। अतएव आप कृपा करें और शीघ्र एक ऐसा उपाय हमारे सामने रखें जिससे हमको आपके समीप पहुँचने में सुभीता प्राप्त हो। उनकी इस प्रैतिक एवं कारुणेय प्रलपनाने ईश्वरपद बाच्य भगवान् महादेव जी का आसन विचलित कर दिया। यह देख श्रीमहादेवजी ने शीघ्र उधर ध्यान दिया और समीपागत नारदजी को बदरिकाश्रमस्थ नव नारायणों के पास जाकर प्रबोधित वृत्त से उन्हें विज्ञापित करने का परामर्श दिया। नव नारायण ऋषभराजा के पुत्र थे। इनके यद्यपि जड़भरतादि अनेक भ्राता ऐसे थे जिन्होंने शुभ्रस्वच्छ यश से मानों भारतवर्ष अत्यन्त धवलित हो गया था। तथापि उन्होंने कविनारायण, करभाजन नारायण, अन्तरिक्ष नारायण, प्रबुद्ध नारायण, आविर्होत्र नारायण, पिप्पलायन नारायण, चमस नारायण, हरि नारायण, द्रुमिलनारायण, ये नारायण पदान्वित नव महानुभाव तो ऐसे विरक्त और ब्रह्मनिष्ठ हुए हैं मानों अन्त भ्राताओं के यश से धवलित हुए इस भारत में इन्होंने कोटिसूय्र्य और भी उदित कर दिये। यही नहीं ये महानुभाव ऐह लोकागमन का जो वास्तविक उद्देश्य है उसको अच्छी प्रकार समझ कर ही शान्त न हो गये वक्लि जिस किस उपाय से उसको प्राप्त ही कर दिखलाया। यही कारण था सांसारिक साधारण जीवों की तरह बार-बार काल के शिकार न बनकर आप दीर्घ समय से अक्षुण्णभावतया इतस्ततः भ्रमण करते रहे। ये ही पुण्यश्लोक जब कि बदरिकाश्रम में एकत्र बैइे हुए आत्मज्ञान विषय में सानन्द परामर्श कर रहे थे तब नारदजी ने उपस्थित हो श्रीमहादेवजी का सन्देश उद्घोषित किया जिसको सुनकर आप लोगों ने कहा कि धन्यभाग दीनबन्धु भगवान् श्रीमहादेवजी ने हमारे ऊपर दृष्टिपात किय और अपने चिन्त्यकार्य की पूर्ति के लिये हमको सर्वथा योग्य एवं विश्वासपात्र समझा। परन्तु हम स्पष्ट रूप से यह पूछना चाहते हैं आप इस बात का सम्यक्तया विवर्ण कर दें कि श्रीमहादेवजी ने किस कार्य सम्पादन के लिये हमको आज्ञापित किया है। नारदजी ने कहा उन्होंने मेरे द्वारा आप लोगों को इस उद्देश्य से आज्ञापित किया है कि आप जहाँ-तहाँ योग मार्ग का उद्धार कर उन मुमुक्षुजनों का जो इस उपाय प्राप्ति के लिये आभ्यन्तरिक भाव से उनकी अभ्यर्थना कर रहे हैं उद्धार करें। नारायणों ने कहा कि तथास्तु नारदजी आप अपने अभीष्ट स्थान को जाइये, हम इस आज्ञा को पूर्ण करने का प्रयत्न करेंगे। यह सुन धन्यवाद वाक्यों का प्रयोग करते हुए इधर नारदजी प्रस्थानित हुए तो उधर इस विषय में विष्णु भगवान् से कुछ परामर्श करने के अभिप्राय से नव नारायण भी वहाँ से प्रस्थान कर गये जो अविलम्ब से ही वैकुण्ठी भगवान् की सेवा में उपस्थित हो श्रीमहादेवजी की उपलब्ध आज्ञा को किस रीति से पूर्ण किया जाना चाहिये इत्यादि प्रश्न करने लगें। आपने कहा कि हम स्वयं अवतरण करने वाले हैं जिसके लिए श्रीमहादेवजी की कुछ सम्मति प्राप्त करने की आवश्यकता है। अतएव चलो वहीं चलेंगे जिससे सब कार्य असन्दिग्ध हो जायेंगे, यह सुन नारायण भी इस बात के लिए सहमत हो गये। जिनको साथ लेकर विष्णुजी शीघ्र कैलासस्थ श्रीमहादेवजी के समीप पहुँचे। पारस्परिक आभिवादनिक कृत्य के अनन्तर यथोचित आसनों पर बैठने का निर्देश करते हुए भगवान् कैलासनाथजी ने उनसे स्वकीय आगमनिक हेतु पूछा। विष्णुजी ने निजोद्देश प्रकट कर नारायणों का प्रस्ताव भी सम्मुखीन किया और प्रत्यक्ष रूप से कह सुनाया कि ये आपकी आज्ञा पालन में अत्युत्कण्ठित है परं विधिका निश्चय प्राप्त करना चाहते हैं। श्री महादेवजी ने उत्तर दिया कि आपके कार्यक्रम का अनुष्ठान आपकी ही इच्छा पर निर्भर होगा। परं नारायणों को अब अधिक विलम्ब करना उचित नहीं है। इनको चाहिये कि कुछ आगे-पीछे, जहाँ-तहाँ भारत में अवतार धारण कर संसारानलसन्तप्त हृदय मुमुक्षुजनों को उद्धृत करें। हम भी, जिसमें हमारा भेद मानना अनुचित होगा ’ फिर गोरक्षनाथ नाम की एक व्यक्ति प्रकटिक करेंगे वह और तुम सब मिलकर योगात्मक अद्वितीय औषधद्वारा दुःखत्रय से पीडि़त त्राहि-त्राहि शब्दान्वित मुमुज्ञु जनों की रक्षा कर उनको सन्मार्ग में लगाना। आपकी इस चेतावनी पर सिर झुकाकर नारायणों ने कहा कि भगवन् हमको यह और सूचित कर दीजिये कि हम किन-किन नामों से प्रसिद्ध होंगे। आपने कहा कि तुम्हारे में जो कविनारायण हैं ये मत्स्येन्द्रनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। करभाजननारायण गहनिनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। अन्तरिक्ष नारायण ज्वालेन्द्रनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। 

प्रबुद्ध नारायण कारिणपानाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। पिप्पलापन नारायण चर्पटनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। चमसनारायण रेवननाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। हरिनारायण भर्तृनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे। द्रमिलनारायण गोपीचन्द्रनाथ नाम से प्रसिद्ध होंगे और कवि नारायण के अवतारी मत्स्येन्द्रनाथ हमसे ही योगदीक्षा प्राप्त करेंगे। गोरक्षनाथ मत्स्येन्द्रनाथ से योग दीक्षा ग्रहण करेंगे। गहनिनाथ गोरक्षनाथ से दीक्षा लेंगे। ज्वालेन्द्रनाथ हमारे से दीक्षा प्राप्त करेंगे। कारिणपानाथ ज्वालेन्द्रनाथ से ग्रहण करेंगे। चर्पटनाथ मत्स्येन्द्रनाथ से ग्रहण करेंगे। नागनाथ गोरक्षनाथ से ग्रहण करेंगे। रेवननाथ मत्स्येन्द्रनाथ से ग्रहण करेंगे। भर्तृनाथ गोरक्षनाथ से दीक्षा लेंगे। गोपी चन्द्रनाथ ज्वालेन्द्रनाथ से योग शिक्षा प्राप्त करेंगे। इस प्रकार पारस्परिक दीक्षा से दीक्षित हो तुम लोग मृत्युलोक में विचरते हुए जनों का उद्धार करोगे। जाओ हमारी आज्ञा को कार्यरूप में परिणत करने का अनुकूल अवसर प्राप्त करो। श्री महादेवजी की इस आज्ञा को शिरोधार्य समझ कर अभिवादनानन्तर नव नारायण फिर बदरिकाश्रम में आ बिराजे।